Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 History Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.
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(पृ. सं. 146)
प्रश्न 1.
आपको क्यों लगता है कि शासक भक्तों से अपने सम्बन्ध दर्शाने के लिए उत्सुक थे ?
उत्तर:
शासक भक्तों से अपने सम्बन्ध दर्शाने हेतु इसलिए उत्सुक रहते थे क्योंकि उन्हें जन सामान्य का अत्यधिक समर्थन प्राप्त था। चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन प्राप्त होने का दावा किया। नयनार और अलवार सन्तों का समर्थन प्राप्त करने के लिए शासकों ने विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाया। चोल सम्राट परांतक प्रथम द्वारा सन्त कवि अप्पार और सुन्दरार की धातु-प्रतिमाओं की स्थापना शिव-मन्दिर में करवाई गयी।
(पृ. सं. 159)
प्रश्न 2.
धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव के सम्भावित स्रोत क्या-क्या हैं ?
उत्तर:
तत्कालीन समय में धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव की घटनाओं के उदाहरण अल्प मात्रा में ही प्राप्त होते हैं। दोनों के बीच तनाव के कुछ सम्भावित कारण हो सकते हैं; जैसे- दोनों ही कुछ आचारों पर झुककर प्रणाम करने और कदम चूमने पर बल देते थे। कभी-कभी सूफी सन्तों को भी उनके अनुयायी सुल्तान की पदवी से सम्बोधित करते थे; जैसे-शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी उन्हें सुल्तान-उल-मशेख अर्थात् शेखों में सुल्तान कहते थे।
(पृ. सं. 164)
प्रश्न 3.
आपको क्यों लगता है कि कबीर, बाबा गुरु नानक और मीराबाई इक्कीसवीं सदी में भी महत्वपूर्ण हैं ?
उत्तर:
कबीर, गुरु नानकदेव और मीराबाई जैसे सन्तों के वचन, उपदेश तथा आदर्श मानव-जाति तथा उसके कल्याण के लिये हैं। अत: ये आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उस समय थे। इक्कीसवीं सदी में इन सन्त-महात्माओं के वचन और भी प्रासंगिक हो जाते हैं, क्योंकि आज मानव-मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा है। समाज को आज ऐंसे मार्गदर्शकों की महती आवश्यकता है।
प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि सम्प्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं ?
उत्तर:
सम्प्रदाय में समन्वय का अर्थ दो भिन्न मत अथवा संस्थाओं के मध्य एक-दूसरे के विचारों, विश्वासों, प्रतीकों तथा परम्पराओं को आदर तथा सम्मान देने से है। इस काल में यह तत्व इतिहासकारों के मध्य अध्ययन का मुख्य विषय रहा। वे इतिहासकार जो सम्प्रदाय को समझने का प्रयास करते हैं, उनका कहना है कि यहाँ कम से कम दो प्रक्रियाएँ अथवा परम्पराएँ गतिमान थीं, ये दोनों प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं .'प्रथम प्रक्रिया ब्राह्मणवादी व्यवस्था से सम्बन्धित थी जिसका प्रसार पौराणिक ग्रन्थों की रचना, उनका संकलन तथा परिरक्षण द्वारा हुआ। ये पौराणिक साहित्य संस्कृत छन्दों में थे; जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों तथा शूद्रों के लिये भी शिक्षायोग्य तथा ग्राह्य थे।
द्वितीय प्रक्रिया थी-शूद्रों, स्त्रियों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं तथा आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना तथा उसे एक नवीन स्वरूप प्रदान करना। प्रमुख इतिहासकार तथा कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक धार्मिक विचारधाराएँ तथा पद्धतियाँ 'महान' संस्कृत पौराणिक परिपाटी तथा 'लघु' परम्परा के मध्य हुए अविरल संवाद का ही परिणाम है। उदाहरण-इतिहासकार इस प्रक्रिया का सर्वप्रमुख उदाहरण पुरी (उड़ीसा) के रूप में देखते हैं। पुरी में स्थित मुख्य देवता को बारहवीं शताब्दी तक आते-आते जगन्नाथ (शाब्दिक अर्थ में सम्पूर्ण विश्व का स्वामी) विष्णु के स्वरूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। समन्वय के ऐसे उदाहरण देवी सम्प्रदायों में भी प्राप्त होते हैं। देवी की उपासना सिन्दूर से पोते गये पत्थर के रूप में की जाती थी। स्थानीय देवियों को पौराणिक परम्परा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई थी। कभी वह लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी बनीं तो कभी शिव की पत्नी पार्वती के रूप में सामने आयीं।
प्रश्न 2.
किस हद तक भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी तथा सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है ?
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में आकर मुस्लिम शासकों ने अनेक मस्जिदा का निर्माण कराया। इन मस्जिदों की स्थापत्य कला में स्थानीय परम्परा के साथ-साथ एक सार्वभौमिक धर्म का जटिल मिश्रण हमें दृष्टिगोचर होता है। इस समय अधिकांश मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्व सभी स्थानों पर एक-समान थे; जैसे-मस्जिदों की इमारत का मक्का की ओर संकेत करना, जो मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिनबार (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित होता था। इसके अतिरिक्त अनेक तत्व ऐसे भी है जहाँ हमें भिन्नता दिखाई देती है। केरल में 13वीं शताब्दी में बनी एक मस्जिद की छत शिखरनुमा है तथा सामने से देखने पर इसकी वास्तुकला हिमाचल प्रदेश में बने हिडिम्बा मन्दिर से मिलती-जुलती है। मैमनसिंग (बांग्लादेश) स्थित अतिया मस्जिद भी इसी प्रकार की है जिसकी छत गुंबदाकार में है। साथ ही इसमें चारों कोनों पर चार मीनारें भी बनी हैं।
इस मस्जिद का निर्माण ईंटों से किया गया है। ' श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे बनी शाह हमदान मस्जिद को कश्मीर की सभी मस्जिदों के मुकुट का नगीना कहा जाता है जिसका निर्माण 1395 ई. में हुआ था। यह कश्मीरी लकड़ी की स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। इस मस्जिद का स्थापत्य उपर्युक्त दोनों से भिन्न है तथा देखने में यह एक बौद्ध मन्दिर जैसी दिखाई देती है।
प्रश्न 3.
'बे-शरिया' और 'बा-शरिया' सूफी परम्परा के मध्य एकरूपता और अन्तर, दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मुस्लिम कानूनों के संग्रह को शरिया कहते हैं जो कुरान शरीफ एवं हदीस पर आधारित है। यह कानून मुस्लिम समुदाय को निर्देशित करता है। हदीस का तात्पर्य है- पैगम्बर मोहम्मद साहब से जुड़ी परम्पराएँ, जिनमें मोहम्मद साहब की स्मृति से जुड़े हुए शब्द और उनके क्रियाकलापों का समावेश है। कुछ समकालीन रहस्यवादियों ने सूफी नियमों के मौलिक तत्वों के आधार पर नवीन आन्दोलनों की नींव रखी। ये समकालीन रहस्यवादी ख़ानक़ाह को त्यागकर फकीरी जीवन गुजारते थे। उन्होंने निर्धनता तथा ब्रह्मचर्य टो गौरव प्रदान किया। इन्हें मदारी, कलन्दर, हैदरी, मलंग इत्यादि नामों से जाना जाता था। शरिया की अवहेलना करने के कारण
भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ) 203] इन्हें बे-शरिया कहा जाता था, वहीं दूसरी ओर शरिया का पूर्णरूप से पालन करने वालों को बा-शरिया कहा गया। बे-शरिया तथा बा-शरिया दोनों ही इस्लाम से सम्बन्ध रखते थे तथा दोनों इन सूफी परम्पराओं के मध्य एकरूपता भी देखने को मिलती है। दोनों ही इस्लाम के मूल सिद्धांतों में पूर्णरूपेण विश्वास करते थे।
प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार, नयनार तथा वीरशैव इत्यादि तीनों ही मतों ने छठी से दसवीं शताब्दी के मध्य अत्यधिक प्रसिद्धि पाई क्योंकि इन मतों ने जाति-प्रथा का खण्डन किया तथा भक्ति के अत्यधिक सरल मार्ग को दिखाया। तीनों मतों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
1. अलवार मत-इस मत का प्रचलन छठी शताब्दी ई. में दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में आरम्भ हुआ। अलवार सन्तों की कुल संख्या 12 थी जो जाति-प्रथा, छुआछूत तथा कर्मकाण्ड के विरोधी थे। इसमें पुरुषों के समान महिलाओं को भी सभी धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार प्राप्त थे। इनमें एक महिला सन्त भी थीं, जिसका नाम अंडाल था।
2. नयनार मत-यह मत भी दक्षिण भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। जहाँ एक ओर अलवार मत वैष्णववाद को मानता था वहीं नयनार मत शैववाद का समर्थक था। नयनार सन्तों की कुल संख्या 63 थी जिन्होंने जाति प्रथा एवं ब्राह्मण प्रभुता के विरोध में आवाज उठायी। कुछ सीमा तक यह तथ्य सत्य भी प्रतीत होता है, क्योंकि इनके भक्ति सन्त विविध समुदायों से थे; जैसे-ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान तथा कुछ तो उन जातियों से भी आए थे, जिन्हें अस्पृश्य माना जाता था। अलवार और नयनार सन्तों की रचनाओं को वेदों के समान महत्वपूर्ण बताकर इस परम्परा को सम्मानित किया गया। अलवार सन्तों के प्रमुख काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबंधम् का उल्लेख तमिल वेद के रूप में किया गया है। इस ग्रन्थ का महत्व संस्कृत के चारों वेदों के समान बताया गया है।
3. वीरशैव मत-यह मत वासव द्वारा कर्नाटक में आरम्भ किया गया। प्रारम्भ में वासव जैन था तथा चालुक्य राजा का मन्त्री था एवं कालान्तर में वह शैव हो गया। वीरशैव को लिंगायत मत भी कहा जाता था। ये श्राद्ध संस्कारों का पालन नहीं करते थे तथा मृतक को विधिपूर्वक दफनाते थे। ये जाति व्यवस्था तथा पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते थे। इन्होंने कुछ समुदायों के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया।
प्रश्न 5.
कबीर अथवा बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह सम्प्रेषण हुआ?
उत्तर:
कबीर के मुख्य उपदेश-कबीरदास जी अपने समय के महानतम समाज सुधारक थे जिन्होंने धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव का एक विशिष्ट शैली में विरोध किया। कबीरदास जी से सम्बन्धित मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं
उपदेशों का सम्प्रेषण-कबीर के उपदेश काव्य रूप में संकलित किए गए हैं। कबीर जनमानस की भाषा में अपने उपदेश देते थे। उन्होंने अपनी भाषा में हिन्दी, पंजाबी, फारसी, अवधी व स्थानीय बोलियों के अनेक शब्दों का प्रयोग किया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उनके विचारों का प्रचार-प्रसार किया। गुरु नानक के मुख्य उपदेश-गुरु नानक देव का जन्म 1469 ई. में पंजाब के ननकाना गाँव के एक व्यापारी परिवार में हुआ था। आरम्भ से ही उनका समय सूफी सन्तों के साथ व्यतीत होता था। उनके उपदेशों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
सूफी मत के दर्शन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सातवीं तथा आठवीं शताब्दी के लगभग कुछ आध्यात्मिक व्यक्तियों का झुकाव रहस्यवाद तथा वैराग्य की ओर बढ़ने लगा। यह काल इस्लाम के उद्भव का काल था। इन रहस्यवादियों को सूफ़ी कहा गया। सूफी मत के प्रमुख धार्मिक विश्वासों एवं आचारों का वर्णन निम्नलिखित है
प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी सन्तों से अपने सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया?
अथवा ।
ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच सूफी सन्तों और राज्यों के सम्बन्धों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
नयनार तथा अलवार भक्ति आन्दोलन जिस समय दक्षिण भारत में गतिमान थे; उस समय वहाँ चोल शासन विद्यमान था। शक्तिशाली चोल सम्राटों ने ब्राह्मण तथा भक्ति, दोनों ही परम्पराओं को समर्थन प्रदान किया। चोल शासक वैष्णव तथा शैव, दोनों ही मतों को मानने वाले थे तथा दोनों ही मतों के समर्थकों को भूमि अनुदान प्रदान किए। तंजावूर, चिदम्बरम् तथा गंगैकोंडचोलपुरम् के विशाल शिव मन्दिर चोल सम्राटों की सहायता से ही निर्मित हुए थे। दक्षिण भारत में इस समय सर्वप्रथम नयनारों की प्रेरणा से काँसे की नटराज प्रतिमा बनी। इस नटराज को भगवान शिव ही माना जाता था। चोल तथा अन्य सम्राटों के साथ-साथ भक्ति सन्त वेल्लाल कृषकों द्वारा सम्मानित होते थे।
अतः शासकों द्वारा इन सन्तों का समर्थन पाना आवश्यक था, इसलिए चोल सम्राटों ने देवीय समर्थन पाने का दावा किया और सुन्दर मन्दिरों का निर्माण कराया तथा इनमें पत्थर और धातु से बनी अलवार और नयनार सन्तों की मूर्तियां स्थापित की। तत्कालीन चोल सम्राटों ने तमिल भाषा में शैव भजनों का गायन मन्दिरों में प्रचलित किया। उन्होंने ऐसे भजनों का संग्रह एक ग्रन्थ 'तवरम्' के रूप में भी कराया। परान्तक प्रथम के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसने सन्त संबंदर, कवि अप्पार तथा सुन्दरार की धातु की प्रतिमाएँ एक शिव मन्दिर में स्थापित की। वस्तुतः ये तीनों ही सन्त शैव थे।
तत्कालीन समाज में सूफी तथा भक्ति सन्तों का उच्च स्थान था। अतः सत्ता पक्ष भी सन्तों का समर्थन पाने का प्रयास करते थे। इसके अतिरिक्त सुल्तानों ने खानकाहों को करमुक्त भूमि भी अनुदान में दी तथा दान सम्बन्धी विभाग भी स्थापित किया। सामान्यतः सूफी जो दान स्वीकार करते थे, वे उसको सुरक्षित रखने के स्थान पर उसे विभिन्न अनुष्ठानों; जैसे-समा की महफिल : पर ही व्यय कर देते थे। भक्ति-सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथों 2051 सूफी सन्तों की धर्मनिष्ठा, विद्वत्ता तथा व्यक्तियों द्वारा उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास उनकी प्रसिद्धि के मुख्य कारण थे।
इन्हीं कारणों से शासक वर्ग भी उनका समर्थन प्राप्त करना चाहता था। निःसन्देह सुल्तान जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित है, अत: उन्होंने ऐसे सूफी सन्तों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता के लिए हिन्दुओं में समान रूप से उच्च स्थान रखते थे। अजमेर स्थित शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आने वाला पहला सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक था, परन्तु शेख की मजार पर सबसे पहली इमारत का निर्माण मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी द्वारा 15वीं शताब्दी में करवाया गया। 16वीं शताब्दी तक अजमेर दरगाह की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गई थी। अकबर ने अजमेर की दरगाह की 14 बार जियारत की। अकबर ने 1558 में तीर्थयात्रियों के लिए खाना पकाने हेतु एक विशाल देग दरगाह को भेंटस्वरूप प्रदान की और एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया।
प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
सामान्यतः सूफी तथा भक्ति चिन्तकों ने अपने विचारों को सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। प्रायः ये भाषाएँ स्थानीय होती थीं, जिन्हें समझना निश्चय ही जनसामान्य के लिए अत्यंत सुगम था। संत कवि यदि कुछ विशिष्ट भाषाओं का ही प्रयोग करते रहते तो उनके विचारों का सामान्य जनता के मध्य सम्प्रेषण सम्भव नहीं हो पाता तथा ये विचार उनके साथ ही विलुप्त हो गए होते। इस प्रकार इन सन्तों द्वारा स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करना लाभकारी सिद्ध हुआ। इस तथ्य को हम निम्नलिखित उदाहरणों के द्वारा समझ सकते हैं
(1) दक्षिण भारत में नयनार तथा अलवार संतों ने अपने प्रवचन संस्कृत के स्थान पर तमिल भाषा में जनसामान्य को संचरित किए। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते थे।
(2) गुरु नानक देव जी ने अपने प्रवचन 'शबद' स्थानीय भाषा पंजाबी में दिये। गुरु नानक जी के पदों और भजनों में उर्दू तथा फारसी के तत्कालीन प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग पाया जाता है।
(3) महान भक्ति सन्त कबीरदास जी के उपदेश, भजन तथा दोहे अनेक भाषाओं में हमें प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ दोहे सधुक्कड़ी भाषा में हैं; जो निर्गुण कवियों की विशेष बोली थी। कबीर की भाषा खिचड़ी है; उसमें अवधी, पूर्वी, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी सभी का समावेश है। (4) सूफी सन्तों ने भी अपने उपदेशों में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया; उदाहरण के लिए, सूफी सन्त फरीद ने स्थानीय भाषा पंजाबी में काव्य-रचना की। मीरा ने अपने विचार बोलचाल की राजस्थानी भाषा में पदों के रूप में व्यक्त किये, जिनमें ब्रज भाषा, गुजराती और खड़ी बोली की भी झलक मिलती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भक्ति तथा सूफी सन्तों ने अपने उपदेश तथा प्रवचन स्थानीय भाषाओं में दिए, जिसके परिणाम . अत्यन्त ही लाभकारी हुए।
प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
पाठ्यपुस्तकों में विभिन्न स्रोत दिये गये हैं जिनमें कई प्रकार के सामाजिक व धार्मिक विचार निहित हैं
(1) स्रोत-1 (ब्राह्मण और अस्पृश्य):
इस स्रोत में सामाजिक विचार के बारे में संकेत किया गया है। अलवार संत तोंदराडिप्पोडि के अनुसार ब्राह्मण चारों वेदों के ज्ञाता थे, परन्तु वे भगवान विष्णु की सेवा में निष्ठा नहीं रखते थे। इसलिये भगवान विष्णु उन दासों को ज्यादा पसन्द करते थे जो उनके चरणों में अपनी आस्था रखते हैं। अलवार संतों का यह वक्तव्य जाति-व्यवस्था के प्रति उनके विचार को प्रकट करता है।
(2) स्रोत-4 (अनुष्ठान और वास्तविकता):
यह स्रोत धार्मिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध बासवन्ना के विचारों को प्रकट करता है। बासवन्ना के अनुसार ब्राह्मण साँप की पत्थर की मूर्ति को तो दूध पिलाते थे, परन्तु वास्तविक साँप को देखते ही वे उसकी हत्या .करने पर उतारू हो जाते थे। ऐसा ही आउम्बर देवता को नैवेद्य चढ़ाकर भी करते थे। पत्थर से बनी ईश्वर की मूर्ति जो भोजन ग्रहण ही नहीं कर सकती उसे तो भोजन परोसते थे, परन्तु वास्तविक भूखे दास को भोजन देने से मना कर देते थे। इस प्रकार बासवन्ना दोहरे क्रियाकलाप को इंगित कर अनुष्ठानों की व्यर्थता पर अपना विचार प्रकट करता है।
(3) स्रोत-8 (चरखानामा):
यह स्रोत एक सूफी कविता है; जो उस समय की महिलाएँ चरखा कातते हुए गाती थीं। इस स्रोत में धर्म के परम सत्य को उद्घाटित करने की अति सूक्ष्म, लेकिन सबसे प्रभावी विधि का वर्णन किया गया है। स्रोत के अनुसार हर आती-जाती श्वास के साथ परमात्मा का जिक्र यानी नाम जपना चाहिए। ज़िक्र पेट से छाती तक उच्चारित होना चाहिए यानी नाम
जीवन के केन्द्र नाभि से उठकर छाती तक यानी हृदय तक आना चाहिए। रोज सुबह-शाम भगवान के नाम का इसी प्रकार जिक्र करना चाहिये।
(4) स्रोत-10 (एक ईश्वर):
यह स्रोत संत कबीर की शिक्षाओं से सम्बन्धित है। कबीर का कथन है कि ईश्वर एक है, उसे चाहे राम कहो या रहीम। कबीर ने यह भी कहा है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही भ्रमित हैं। दोनों धर्मों के आडम्बरों की आलोचना करते हुए कबीर कहते हैं कि इनमें से कोई भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
(5) स्रोत-11 (मीरा का कृष्ण प्रेम):l
यह स्रोत मीराबाई की भक्ति की पराकाष्ठा तथा उसके अन्तर्मन की भाव-प्रवणता को व्यक्त करता है। मीरा अपनी भक्ति की उस भाव दशा में पहुँच गयी थी कि सारा संसार उन्हें कृष्णमय लगता था। मीरा इस गीत द्वारा सांसारिक जीवन के प्रति अपने वैराग्य भाव का वर्णन करती है। मीरा के अनुसार "गोविन्द के गुणगान के अतिरिक्त मेरी अन्य कोई अभिलाषा या आकांक्षा नहीं है।" मानचित्र कार्य
प्रश्न-10.
भारत के एक मानचित्र पर तीन सूफी स्थल तथा तीन वे स्थल जो मन्दिरों (विष्णु, शिव तथा देवी से जुड़ा एक मन्दिर) से सम्बद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
उत्तर:
निम्न मानचित्र को देखिए
भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ) 207
प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित किन्हीं दो धार्मिक उपदेशकों/चिन्तकों/सन्तों का चयन कीजिए तथा उनके जीवन एवं उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और क्या हमें लगता है कि वे महत्वपूर्ण हैं? महत्वपूर्ण है।
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अभिभावकों तथा अध्यापकों की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफी एवं देवस्थलों से सम्बद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या यह यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं ? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर: