RBSE Class 12 History Notes Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

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RBSE Class 12 History Chapter 6 Notes भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

→ प्रथम सहस्राब्दि के मध्य तक धार्मिक इमारतों, स्तूपों, विहारों, चैत्यों एवं मन्दिरों की भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक पैमाने पर' स्थापना हो चुकी थी। ये इमारतें विभिन्न धर्मों के आचरण और धार्मिक विश्वासों का प्रतीक हैं। 

→ आठवीं से अठारहवीं शताब्दी तक नवीन साहित्यिक रचनाओं में सन्त कवियों की रचनाएँ प्रमुख हैं जिनमें उन्होंने जनसाधारण की भाषाओं में मौखिक रूप से अपने को अभिव्यक्त किया है। इनके साहित्यिक साक्ष्य अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं।

→ आठवीं से अठारहवीं सदी के इस काल की सबसे विशिष्ट बात यह है कि साहित्य और मूर्ति-कला में विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ। इस काल में भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी की आराधना प्रमुख रूप से की जाती थी। इन्हें अनेक रूपों में दर्शाया गया तथा इनकी आराधना की प्रथा न केवल कायम रही बल्कि और अधिक विस्तृत हो गयी। 

→ इतिहासकारों ने पूजा प्रणाली के समन्वय के सम्बन्ध में दो प्रक्रियाओं का वर्णन किया है। पहली प्रक्रिया ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार से सम्बन्धित थी; जिसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार परिश्रमपूर्वक पौराणिक ग्रन्थों की रचनाओं का संकलन करके किया गया। ये पौराणिक ग्रन्थ सरल संस्कृत में रचे गये थे तथा वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों तथा शूद्रों द्वारा भी ये ग्राह्य थे। 

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→ इस काल की दूसरी प्रक्रिया में स्त्रियों, शूद्रों और अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृति प्रदान कर, उन्हें एक नये रूप में प्रस्तुत किया गया। 

→ समाजशास्त्रियों ने सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुई अनेक धार्मिक विचारधाराओं और पद्धतियों को 'महान' संस्कृत पौराणिक परिपाटी एवं लघु' परम्परा के बीच हुए पारस्परिक संवाद का परिणाम बताया है।

→ 12वीं शताब्दी तक आते-आते उड़ीसा में मुख्य देवता जगन्नाथ को विष्णु के एक स्वरूप में पेश किया गया। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है- सम्पूर्ण विश्व का स्वामी।

→ 20वीं शताब्दी के समाजशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड ने एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने हेतु 'महान' तथा 'लघु' जैसे शब्द मुद्रित किए।

→ रेडफील्ड ने देखा कि कृषक समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग; जैसे- पुरोहित तथा राजा द्वारा पालनं किए जाने वाले कर्मकांडों तथा पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उन्होंने इन कर्मकांडों को 'महान' परम्परा की संज्ञा दी। इसके अतिरिक्त कृषक समुदाय इन महान परम्परा से एकदम अलग अन्य लोकाचारों का भी पालन करता था जिन्हें उन्होंने 'लघु' परम्परा की संज्ञा दी।

→ भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में देवी की आराधना तान्त्रिक पूजा पद्धति के रूप में प्रचलित थी जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही भाग लेते थे। 

→ तान्त्रिक पूजा पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया; विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी तथा दक्षिणी भागों में आगामी सहस्राब्दि में इन सभी विश्वासों और आचारों का वर्गीकरण 'हिन्दू' के रूप में किया गया। 

→ वैदिक देवकुल के देवता; जैसे- अग्नि, इन्द्र तथा सोम पूर्णतः गौण हो गए तथा उनका निरूपण साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही नहीं दिखता। हालाँकि असंगतियों के बाद भी वेदों की प्रामाणिकता बनी रही।

→ हिन्दू के रूप में वर्गीकरण के पश्चात् भी कभी-कभी आपस में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि वैदिक परम्पराओं और तान्त्रिक पद्धति में मूलभूत अन्तर था। तान्त्रिक पद्धति के लोग वैदिक परम्पराओं को स्वीकार नहीं करते थे इसलिए वैदिक परम्परा के लोग उनके.मंत्रोच्चारण और यज्ञविहीन आराधना की निन्दा करते थे। 

→ भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। आठवीं से अठारहवीं शताब्दी के काल से भी लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इस पद्धति की परम्परा प्रचलित रही है। वैष्णव व शैव सम्प्रदायों में भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति की परिपाटी प्रमुख रूप से प्रचलन में थी।

→ धीरे-धीरे आराधना के क्रमिक तरीकों के विकास के साथ सन्त कवियों को गुरु के रूप में पूजा जाने लगा जिनके साथ भक्तों का एक पूरा समुदाय रहता था। इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो भागों में विभाजित करते हैं

  • सगुण भक्ति, तथा
  • निर्गुण भक्ति। सगुण भक्ति में भगवान शिव, विष्णु तथा उनके अवतार एवं देवियों के साकार रूपों की पूजा की जाती है, जबकि निर्गुण भक्ति में ईश्वर के अमूर्त तथा निराकार रूप की उपासना की जाती है। 

→ प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन लगभग छठी शताब्दी ई. में अलवार एवं नयनार सन्तों के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ जिनमें अलवारों के आराध्य विष्णु एवं नयनारों के आराध्य शिव थे। इन सन्तों ने अपने-अपने इष्टदेव की स्तुति तमिल भाषा में भजन गाकर की। 

→ अपनी यात्राओं के दौरान अलवार एवं नयनार सन्तों ने कुछ पवित्र स्थलों को अपने इष्टदेव का निवास स्थल घोषित किया। धीरे-धीरे इन स्थानों पर विशाल मन्दिर बनवाये गये और वे तीर्थ-स्थल बन गए। 

→ इन मन्दिरों में अनुष्ठानों के समय सन्त-कवियों के भजनों को गाया जाता था। साथ ही इन सन्तों की मूर्ति को भी पूजा जाता था।

→ कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलवार और नयनार सन्तों ने जाति-प्रथा एवं ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध आवाज उठायी।

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→ अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं को वेदों के समान महत्वपूर्ण बताकर इस परम्परा को सम्मानित किया गया। अलवार सन्तों के एक प्रमुख ग्रन्थ नलयिरादिव्य प्रबन्धम्' (चार हजार पावन रचनाएँ) का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता है। यह ग्रन्थ बारह अलवारों की रचनाओं का संकलन है। 

→ अलवार व नयनार भक्ति-परम्परा की सबसे बड़ी विविधता इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। अंडाल' नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत बहुत ही प्रसिद्ध हैं जिनमें वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेम-भावना को छन्दों में व्यक्त करती थी। 

→ नयनार परम्परा में शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार' घोर तपस्वी स्त्री थी जिनकी रचनाएँ नयनार परम्परा में आज भी सुरक्षित हैं।

→ तमिल क्षेत्र में प्रथम सहस्राब्दि के उत्तरार्ध में पल्लव एवं पांड्य जैसे राज्यों का उद्भव तथा विकास हुआ। इस क्षेत्र में कई शताब्दियों से मौजूद बौद्ध तथा जैन धर्म को व्यापारी एवं शिल्पी वर्ग का प्रश्रय मिला हुआ था। इन धर्मों को यदा-कदा ही राजकीय संरक्षण तथा अनुदान प्राप्त होता था। 

→ तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध व जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है नयनार सन्तों की रचनाओं में विशेष रूप से दिखाई देता है। इतिहासकार इस विरोध का कारण राजकीय अनुदान प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा की भावना को बताते हैं। 

→ शक्तिशाली चोल (9वीं से 13वीं शताब्दी)शासकों ने ब्राह्मणीय एवं भक्ति-परम्परा को समर्थन दिया। उन्होंने विष्णु व शिव के मन्दिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए। चिदंबरम, गंगैकोंडचोलपुरम् तथा तंजाबुर के शिव मन्दिर चोल शासकों की सहायता से ही निर्मित किए गए। इस काल में शिव की कांस्य मूर्तियों का भी निर्माण हुआ। 

→ चोल सम्राट दैवीय समर्थन पाने का दावा करते थे। वे पत्थर तथा धातु से बनी मूर्तियों से सुसज्जित मन्दिरों का निर्माण कराकर अपनी सत्ता का प्रदर्शन करते थे। चोल सम्राटों ने इन मन्दिरों में तमिल भाषा के शैव भजनों के गायन का प्रचलन करवाया तथा इन भजनों को एक ग्रन्थ (तवरम) के रूप में संकलित करवाने की जिम्मेदारी ली। चोल सम्राट परांतक प्रथम द्वारा एक शिव मन्दिर में सन्त कवि अप्पार संबंदर तथा सुंदरार की धातु प्रतिमाएं स्थापित करवाने की जानकारी 945 ई. के एक अभिलेख में मिलती है। 

→ 12वीं शताब्दी में बासवन्ना नामक ब्राह्मण ने अपने नेतृत्व में एक नए आन्दोलन का सूत्रपात किया जिसके अनुयायी स्वयं को वीर शैव (शिव के वीर) एवं लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहते थे।

→ आज भी कर्नाटक क्षेत्र में लिंगायत समुदाय का महत्व है। इस समुदाय के पुरुष अपने बायें कंधे पर चाँदी की पेटिका में एक लघु लिंग धारण करते हैं जिनमें जंगम अर्थात् यायावर भिक्षु शामिल हैं।

→ लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्यु के उपरान्त भक्त शिवत्व में लीन हो जाते हैं और बार-बार के जन्म-मरण के चक्र से छूट जाते हैं। 

→ लिंगायत, धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का पालन न करके मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं। लिंगायतों ने जाति प्रथा व छुआछूत का विरोध किया, जिस कारण वैदिक परम्परा में हीन (निम्न) स्थान रखने वाले लोग भारी संख्या में इनके अनुयायी बन गये। 

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→ लिंगायतों ने धर्मशास्त्रों में अस्वीकार किए गए आचारों (जैसे- वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह) को मान्यता प्रदान की। - वीरशैव परम्परा की व्युत्पत्ति इस आन्दोलन में शामिल स्त्री-पुरुषों द्वारा कन्नड़ भाषा में रचे गए वचनों से हुई है।

→ इतिहासकारों को 14वीं शताब्दी तक अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं जैसा कोई ग्रन्थ उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ है। इतिहासकारों का मत है कि उत्तरी भारत में राजपूत राजाओं का प्रभुत्व था। राजपूतों द्वारा शासित राज्यों में ब्राह्मणों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था जिस कारण उनकी प्रभुसत्ता को किसी ने भी सीधे चुनौती नहीं दी। 

→ इसी समय वे धार्मिक गुरु जो ब्राह्मणवादी साँचे से बाहर थे; नाथ, जोगी और सिद्ध सम्प्रदायों के रूप में उभरे। अनेक धार्मिक गुरुओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषाओं में रखे। 

→ 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की जिससे राजपूत राज्यों एवं उनसे जुड़े ब्राह्मणों का महत्व कम हो गया। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति एवं धर्म पर भी पड़ा।

→ प्रथम सहस्राब्दि ईसवी से अरब व्यापारी समुद्री मार्ग से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आते-जाते रहते थे। इसी समय मध्य एशिया से आकर लोग देश के उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों में बस गए। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के पश्चात् से ही ये क्षेत्र इस्लामी विश्व का अंग बन गए।

→ 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम नामक एक अरब सेनापति ने सिन्ध पर विजय प्राप्त की और उसे खलीफा के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया। लगभग 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी और धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिणी क्षेत्रों तक कर लिया।

→ 16वीं से 18वीं शताब्दी तक बहुत से क्षेत्रों में शासकों का स्वीकृत धर्म इस्लाम था। मुसलमान शासकों को उलेमाओं द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता था। शासकों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे उलमा द्वारा बताये गये मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे। 

→ भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी, क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा भाग इस्लाम धर्म को नहीं मानता था जिनमें यहूदी और ईसाई भी थे जिन्हें संरक्षित श्रेणी (जिम्मी) कहा जाता था।

→ मुसलमान शासक इनसे 'जज़िया' नामक कर लेकर इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। हिन्दुओं को भी इसी श्रेणी में रखा गया। मुसलमान शासक शासितों के प्रति काफी लचीली नीति अपनाते थे। अनेक शासकों ने हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई तथा यहूदी धर्म संस्थाओं को भूमि अनुदान दिए व करों में छूट प्रदान की तथा उन्होंने अन्य धर्मों के नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव भी प्रकट किया। 

→ कुरान शरीफ तथा हदीस पर आधारित शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है। पैगम्बर साहब से संबद्ध परम्पराओं को हदीस कहते हैं। शरिया कुरान, हदीस, कियास (सदृशता के आधार पर तर्क) तथा इजका (समुदाय की सहमति) से उद्भूत हुआ। 

→ इस्लाम की पाँच प्रमुख बातें हैं, जिन्हें इस धर्म के सिद्धान्त भी कहा जा सकता है; ये हैं

  • अल्लाह एकमात्र ईश्वर है तथा पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) हैं,
  • दिन में पाँच बार नमाज पढ़नी चाहिए,
  • ज़कात (खैरात, दान) बाँटनी चाहिए,
  • रमज़ान के महीने में रोज़े रखने चाहिए,
  • हज के लिए मक्का जाना चाहिए। 

→ प्रायः साम्प्रदायिक (शिया व सुन्नी) कारणों तथा स्थानीय लोकाचारों के प्रभाव के कारणों से धर्मांतरित लोगों के व्यवहारों में भिन्नता देखी जा सकती थी; जैसे- कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए खोजा इस्माइली (शिया) समुदाय के लोगों ने देशी साहित्यिक विद्या का सहारा लिया। विभिन्न स्थानीय भाषाओं में 'जीनन' नाम से भक्ति गीतों को गाया जाता था जो राग में निबद्ध थे। 

→ इसके अतिरिक्त मालाबार तट (केरल) के किनारे बसे अरब मुसलमान व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ 'मातृकुलीयता' एवं 'मातगृहता' जैसे स्थानीय आचारों को भी अपनाया। 

→ प्रारम्भ में हिन्दू तथा मुसलमान जैसे सम्बोधनों का प्रचलन नहीं था लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म-स्थान के आधार पर किया जाता था; जैसे-तुर्की मुसलमानों को 'तुर्क' (तुरुष्क) तथा तजाकिस्तान से आए लोगों को 'ताजिक' एवं फारस से आए लोगों को 'पारसीक' कहा जाता था। 

→ प्रवासी समुदायों के लिए 'म्लेच्छ' शब्द का प्रयोग किया जाता था जो इस बात की ओर संकेत करता है कि वे वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं करते थे और ऐसी भाषाएँ बोलते थे जो संस्कृत से नहीं उपजी थीं।

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→ इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का झुकाव रहस्यवाद एवं वैराग्य की ओर बढ़ने लगा जिनको 'सूफी' कहा गया। सूफी लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं एवं धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।

→ सूफ़ियों ने साधना में लीन होकर उससे प्राप्त अनुभवों के आधार पर कुरान की व्याख्या की, जिनके अनुसार उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल' बताते हुए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों का पालन करने पर बल दिया।

→ सूफीवाद ने धीरे-धीरे 11वीं शताब्दी तक एक पूर्ण विकसित आन्दोलन का रूप ले लिया जिसका सूफ़ी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था। 

→ 19वीं शताब्दी में मुद्रित अंग्रेजी शब्द सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रन्थों में 'तसव्वुफ' शब्द का इस्तेमाल होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द 'सूफ' (अर्थात् ऊन) से निकला है, जबकि कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द 'सफा' से निकला है जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जिसके पास धर्म के बारे में जानने के लिए अनुयायियों की भीड़ जमा होती थी। 

→ संस्थागत दृष्टि से सूफी स्वयं को एक संगठित समुदाय खानकाह (फारसी) में स्थापित करते थे जिसका नियन्त्रण पीर, शेख (अरबी) अथवा मुर्शीद (फारसी) द्वारा किया जाता था। वे अपने अनुयायियों की भर्ती करते थे तथा अपने वारिस की नियुक्ति करते थे।

→ 12वीं शताब्दी में इस्लामी जगत में सूफी सिलसिलों का गठन होना प्रारम्भ हो गया। सिलसिले का शाब्दिक अर्थ है जंजीर, जो शेख व मुरीद के बीच एक निरन्तर रिश्ते का प्रतीक है। इस रिश्ते की अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद, शेख तथा मुरीद थे। इस कड़ी के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद की आध्यात्मिक शक्तियाँ शेख के माध्यम से मुरीदों को प्राप्त होती थीं। 

→ पीर की मृत्यु के पश्चात् उसकी दरगाह उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस प्रकार पीर की दरगाह पर ज़ियारत के लिए जाने की, विशेषकर उनकी बरसी के अवसर पर, परम्परा चल पड़ी, जिसे 'उर्स' कहा जाता था। 

→ कुछ रहस्यवादियों जिन्हें बे-शरिया कहा जाता था, ने अपने ढंग से सूफी सिद्धान्तों की मौलिक व्याख्या की और नये आन्दोलनों को जन्म दिया; जैसे- मलंग, कलंदर, हैदरी, मदारी आदि। यह लोग फक्कड़ स्वभाव के होते थे और ख़ानक़ाह से बाहर फकीरी का जीवन व्यतीत करते थे। 

→ अधिकांश सिलसिलों के नाम उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े; जैसे- शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर कादरी सिलसिला शुरू हुआ। हालाँकि जन्मस्थान के नाम पर भी कुछ सिलसिलों का नामकरण हुआ; जैसे- चिश्ती सिलसिला। यह नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर के नाम पर रखा गया। 

→ भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सम्प्रदाय 12वीं सदी के अन्त में भारत में सबसे अधिक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। चिश्ती . सम्प्रदाय ने भारतीय भक्ति-परम्परा को अपनाया और अपने आपको स्थानीय परिवेश के अनुसार परिवर्तित किया। 

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→ शेख निजामुद्दीन औलिया (14वीं शताब्दी) की ख़ानकाह दिल्ली में यमुना नदी के किनारे स्थित थी। खानकाह का जीवन सामुदायिक था तथा उसके दरवाजे सबके लिए खुले रहते थे। गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान आदि सभी का शेख स्वागत करते थे।

→ शेख निजामुद्दीन से मिलने वालों में अमीर हसन सिजज़ी और अमीर खुसरो जैसे कवि एवं जियाउद्दीन बरनी जैसे दरबारी इतिहासकार लोग सम्मिलित थे। इन सभी ने शेख के बारे में लिखा। शेख निजामुद्दीन औलिया ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया।

→ ज़ियारत एक प्रकार की चिश्ती उपासना पद्धति है जिसका तात्पर्य तीर्थयात्रा से है। जियारत की प्रथा पूरे इस्लाम धर्म में प्रचलित है, लेकिन अन्य धर्मों के लोग भी चिश्ती दरगाहों की ज़ियारत के लिए जाते हैं। ज़ियारत की यह परम्परा लगभग 700 वर्ष पुरानी है। सभी धर्मों के लोग बरकत (आध्यात्मिक आशीर्वाद) प्राप्त करने हेतु पाँच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर जियारत करने के लिए जाते हैं। 

→ 'ख्वाजा गरीब नवाज़' के नाम से प्रसिद्ध शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा की दयालुता, सदाचारिता और अनेक आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों की महानता के कारण आज भी बहुत प्रसिद्ध है। 

→ 'दाता गंज बखा' के रूप में आदरणीय अबुल हसन अल हुजविरी ने 1039 ई. में सिन्धु नदी को पार कर लाहौर में बस गए। उन्होंने फारसी में 'करफ-उल-महजुब' (परदे वाले की बेपद्रगी) किताब लिखी जिसमें तसव्वुफ के मायने तथा इसका पालन करने वाले सूफियों का वर्णन किया गया है। 1073 ई. में इनकी मृत्यु के बाद इन्हें लाहौर में दफनाया गया। बाद में सुल्तान महमूद गजनी के पोते ने उनकी मजार पर दरगाह का निर्माण करवाया जिसको 'दाता दरबार' (अर्थात् देने वाले की दरगाह) कहा जाता है।

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→ 14वीं शताब्दी में ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह का सर्वप्रथम किताबी वर्णन मिलता है। इस दरगाह पर आने वाला प्रथम सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) था। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी ने शेख की मजार पर सर्वप्रथम इमारत का निर्माण करवाया।

→ बादशाह अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का बहुत बड़ा मुरीद था। अकबर ने अपने जीवनकाल में चौदह बार अजमेर की दरगाह की जियारत की। अकबर ने एक विशाल देग (खाना बनाने का पात्र) भी तीर्थयात्रियों के लिए खाना बनाने हेतु दान किया। अपनी प्रत्येक यात्रा में वह दरगाह में दान, भेंट आदि दिया करता था। उसने दरगाह के अहाते में एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया। 

→ चिश्ती उपासना पद्धति में गायन परम्परा का विशेष महत्व था; नाच और संगीत भी ज़ियारत का ही एक भाग था। कव्वालों द्वारा अल्लाह का रहस्यवादी गुणगान किया जाता था तथा लोग भावविभोर होकर भक्ति में डूब जाते थे। सूफी सन्तों के अनुसार ईश्वर की उपासना में ज़िक्र (ईश्वर के नाम का जाप) या समा (श्रवण) प्रमुख है। चिश्ती सम्प्रदाय के द्वारा लोगों से सम्पर्क करने हेतु क्षेत्र विशेष में प्रचलित स्थानीय भाषा का भी प्रयोग किया गया जिसके कारण उसकी लोकप्रियता विशेष रूप से फैलने लगी। दिल्ली में चिश्तियों की सम्पर्क भाषा हिन्दवी थी। बाबा फरीद की स्थानीय भाषा में रचित कविताओं का संकलन 'गुरु ग्रन्थ साहिब' में किया गया है। 

→ महान कवि, संगीतज्ञ और शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी अमीर खुसरो (1253-1325) ने 'कौल' (अरबी शब्द जिसका अर्थ कहावत है) का प्रचलन कर चिश्ती सभा' को एक विशिष्ट आकार प्रदान किया जिसे कव्वाली के शुरू व अन्त में गाया जाता था। 

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→ चिश्ती.सम्प्रदाय की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता संयम और सादगीपूर्ण आचरण था; जिसमें सांसारिक मोह-माया से दूर रहने पर बल दिया गया। यदि कोई शासक उन्हें अनुदान या भेंट देता था तो सूफी संत उसे स्वीकार कर लेते थे। 

→ चिश्ती धन व सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे, परन्तु वे इन्हें सँभालकर नहीं रखते थे बल्कि उसे खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था, समा की महफिलों आदि पर पूरी तरह खर्च कर देते थे। सूफी सन्तों की अपार लोकप्रियता के कारण शासक भी उनका आदर करते थे और उनसे वांछित समर्थन हेतु लालायित रहते थे। लोगों का मानना था कि सभी सन्त ईश्वर और सामान्य लोगों के बीच मध्यस्थ होते हैं और लोगों की ऐहिक व दैविक स्थितियों में सुधार लाने का कार्य करते हैं। सम्भवतः शासक इसी कारण अपनी कब्र दरगाहों के समीप बनवाते थे।

→ उत्तरी भारत में अनेक संत कवियों ने परम्पराओं से हटकर नवीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नए भक्ति पदों की रचना की। इनमें संत कबीर, गुरु नानक देव और मीराबाई प्रमुख थी।

→ उत्तरी भारत के संत कवियों की इस परम्परा में कबीर (लगभग 14वीं-15वीं शताब्दी) अद्वितीय थे। तीन विशिष्ट परिपाटियों में कबीर की बानी (वाणी) का संकलन किया गया है।

→ प्रथम 'कबीर बीजक' कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी एवं उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर संरक्षित हैं। राजस्थान के दादू पंथ से सम्बन्धित द्वितीय परिपाटी 'कबीर ग्रन्थावली' के नाम से प्रसिद्ध है एवं तृतीय आदि ग्रन्थ साहिब' में कबीर के कई पद संकलित किये गये हैं। 

→ कबीर की रचनाओं में विभिन्न भाषाओं व बोलियों का समावेश है। इन रचनाओं में निर्गुण कवियों की भाषा का भी प्रयोग किया गया है।

→ कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी' (अर्थात् उलटी कही उक्तियाँ) कहलाती हैं। उलटबाँसी रचनाओं में बहुत-सी विरोधाभासी बातें हैं, जो यह प्रमाणित करती हैं कि परम सत्ता को समझना बहुत ही जटिल है। उलटबाँसी में सामान्य प्रचलित अर्थों को उलट दिया जाता है जो कबीर के रहस्यवादी अनुभवों को प्रमाणित करती है। 

→ कबीर बानी की एक प्रमुख विशिष्टता यह भी है कि उन्होंने परम सत्य का वर्णन करने के लिए अनेक परिपाटियों का सहारा लिया कबीर हिन्दू थे अथवा मुसलमान, यह आज भी विवादित है। रामानन्द नामक सन्त को कबीर का गुरु माना जाता है। कुछ इतिहासकार कबीर और रामानंद को समकालीन नहीं मानते हैं।

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→ पंजाब के ननकाना साहिब नामक ग्राम (वर्तमान पाकिस्तान) में 1469 ई. में एक व्यापारी परिवार में श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था। अल्पायु में ही विवाहित नानक देव जी को सूफी सन्तों में अधिक रुचि थी।

→ गुरु नानक के भजनों और उपदेशों में निहित संदेशों से ज्ञात होता है कि वे निर्गुण भक्ति के उपासक थे। यश, मूर्ति पूजा, कठोर तप तथा अन्य आनुष्ठानिक कार्यों आदि आडम्बरों का उन्होंने विरोध किया।

→ गुरु नानक के लिए परम सत्ता (रब्ब) का कोई साकार रूप नहीं था। उनके अनुसार निरन्तर स्मरण और नाम जपना रब्ब की उपासना का सबसे सरल मार्ग है। गुरु नानक देव के विचारों को 'शबद' कहा जाता है। गुरु नानक देव के अनुयायी एक समुदाय के रूप में संगठित हुए।

→ गुरु नानक ने अपने शिष्य अंगद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। गुरु नानक देव जी के देहान्त के बाद उनके अनुयायियों का यह संगठन 'सिख धर्म' के रूप में प्रचलित हुआ। 

→ गुरबानी (वाणी) का संकलन सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा गुरु नानक देव, फरीद और कबीरदास जी की वाणियों को 'आदि ग्रन्थ साहिब' में समावेश करके किया गया। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने नवें गुरु तेग बहादुर जी की रचनाओं को भी गुरबानी में सम्मिलित किया और इस ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का नाम दिया।

→ गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा-पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके लिए पाँच प्रतीक निर्धारित किए बिना कटे केश, कृपाण, कच्छ, कंघा और लोहे का कड़ा। इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह जी के नेतृत्व में सिख समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।

→ भक्ति-परम्परा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई (लगभग 15वीं-16वीं शताब्दी) का जन्म मारवाड़ के मेड़ता जिले में एक राजकुल में हुआ था।

→ मीराबाई बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में तल्लीन रहती थी। मीरा ने कृष्ण को ही अपना एकमात्र पति स्वीकार कर लिया था। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया। 

RBSE Class 12 History Notes Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

→ मीरा को कृष्ण-भक्ति छोड़कर गृहस्थ धर्म अपनाने में कोई रुचि नहीं थी। सुसराल पक्ष की ओर से उन्हें विष देने का प्रयास भी किया गया। मीरा ने राजमहल का ऐश्वर्य छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। संत रविदास (रैदास) को उनका गुरु माना जाता है। मीरा शताब्दियों से समाज की प्रेरणा स्रोत रही हैं तथा उनके रचित पद आज भी प्रचलित हैं।

→ भगवद्गीता और भागवत पुराण पर आधारित वैष्णव धर्म के उपदेशों के प्रचारक के रूप में पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में शंकरदेव का उद्भव हुआ। शंकरदेव के उपदेश 'भगवती धर्म' के नाम से जाने जाते हैं।

→ इतिहास के पुनर्निर्माण हेतु मूर्तिकला, धर्म गुरुओं से जुड़ी कहानियाँ तथा काव्यों आदि स्रोतों का प्रयोग इतिहासकारों द्वारा किया जाता है। इन सब स्रोतों के प्रयोग से समुचित निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए इतिहासकारों को स्रोतों के सन्दर्भो का बहुपक्षीय विश्लेषण करना आवश्यक है। बहुपक्षीय विश्लेषण से ही धार्मिक परम्पराओं के इतिहासों का पुनः निर्माण सम्भव हो सकता है।

→ महान तथा लघु परम्पराएँ - ये शब्द 20वीं शताब्दी के समाजशास्त्री रॉबर्ट रेडफील्ड द्वारा एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने के लिए मुद्रित किए गए। 

→ मारिची - बौद्ध देवी (लगभग 9वीं शताब्दी)।

→ नयनार - दक्षिण भारत में शैव भक्ति-आन्दोलन (कुल 65 भक्त)।

→ अलवार - दक्षिण भारत में वैष्णव भक्ति-आन्दोलन (कुल 12 भक्त)।

→ चतुर्वेदी - चार वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण।

→ अस्पृश्य - ब्राह्मणवादी व्यवस्था से बाहर तथा सबसे नीचे वर्ग के व्यक्ति।

→ नलयिरादिव्यप्रबंधम् - चार हजार पावन रचनाएँ (अलवार सन्तों द्वारा रचित)।

→ अंडाल - एकमात्र महिला अलवार संत। 

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→ तवरम - संबंदर तथा सुंदरार की कविताओं का संकलन। 

→ लिंगायत - बासवन्ना द्वारा संस्थापित मत। 

→ वीरशैव - शिव के वीर।

→ खलीफा - इस्लाम धर्म के अनुयायियों का सर्वोच्च धार्मिक नेता। 

→ शरिया - मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून ।

→ उलमा - इस्लाम धर्म के ज्ञाता।

→ ज़िम्मी - इस शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के 'ज़िम्मा' से हुई है जिसका अर्थ है संरक्षित श्रेणी का प्रादुर्भाव होना।

→ जजिया - गैर-मुस्लिम लोगों से लिया जाने वाला धार्मिक कर।

→ शाहद - प्रतिनिधि (दूत); इस्लाम धर्म में पैगम्बर मोहम्मद को अल्लाह का शाहद (दूत) माना गया है।

→ ज़कात - खैरात

→ मातृगृहता खैरात। - यह वह परिपाटी है जहाँ स्त्रियाँ विवाह के पश्चात् अपने मायके में ही अपनी सन्तान के साथ रहती हैं तथा उनके पति उनके साथ आकर रह सकते हैं।

→ मेहराब - प्रार्थना का आला।

→ सिलसिला - इसका शाब्दिक अर्थ है- जंजीर, जो शेख और मुरीद के मध्य एक निरन्तर रिश्ते की प्रतीक है।

→ दरगाह - फारसी भाषा का एक शब्द जिसका अर्थ है दरबार ।  

→ उर्स - विवाह; पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन।

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→ सिलसिले - सूफी सन्तों द्वारा संचालित मत। 

→ वली (बहुवचन औलिया) - ईश्वर का मित्र।

→ ख़ानक़ाह - सूफी संतों का संगठित समुदाय।

→ बे-शरिया - वे लोग जो इस्लामी नियमों की अवहेलना करते हैं।

→ बा-शरिया - वे लोग जो इस्लामी नियमों का पालन करते हैं।

→ जमातखाना - वह स्थान जहाँ सहवासी तथा अतिथि रहते थे।

→ ज़ियारत और कव्वाली - सूफी सन्तों की दरगाह की यात्रा तथा उनकी इबादत में प्रस्तुत किया जाने वाला गीत-संगीत।

→ निर्गुण - निराकार ईश्वर की उपासना 

→ सगुण - साकार ईश्वर की उपासना, जिसमें अवतारवाद शिव, विष्णु व उनके अवतार तथा देवियों की आराधना आती है।

→ खालसा पन्थ - गुरु गोविन्द सिंह द्वारा पवित्र उद्देश्य के लिए गठित की गई पवित्र सेना।।

→ मुलफुज़ात - सूफी सन्तों की बातचीत।

→ मक्तुबात - सूफी सन्तों द्वारा लिखे गये पत्रों का संकलन।

→ तजकिरा - सूफी सन्तों की जीवनियों का स्मरण।

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→ (अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ)
कालरेखा : भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ मुख्य धार्मिक शिक्षक

काल तथा कालावधि

घटना/विवरण

1. 500 - 800 ई.

 तमिलनाडु में अप्पार, संबंदर तथा सुन्दरमूर्ति नयनार सन्तों का काल।

2. 800 - 900 ई.

 तमिलनाडु में नम्मलवर, मणिक्वचक्कार, अंडाल, तोंदराडिप्पोडी इत्यादि अलवार सन्तों का काल।

3. 1000  - 100 ई.

 पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बक्श तथा तमिलनाडु में रामानुजाचार्य।

4. 1106 - 68 ई.

 लिंगायत मत के संस्थापक बासव अथवा बासवन्ना का जीवनकाल।

5. 1200 - 1300 ई.

 महाराष्ट्र में ज्ञानदेव का जीवनकाल।

6. 1235 ई.

 ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती तथा ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मृत्यु का वर्ष।

7. 1253 - 1323 ई.

 अमीर खुसरो का जीवनकाल।

8. 1265 ई.

 शेख फरीदुद्दीन गंजएशकर की मृत्यु का वर्ष ।

9. 1300

1400 ई. कश्मीर में लाल देद, सिन्ध में लाल शाहबाज कलंदर, उत्तर प्रदेश में रामानन्द, महाराष्ट्र में चोख मेला, बिहार में शराफुद्दीन याह्या मनेरी तथा दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया का जीवनकाल।

10. 1325 ई.

 शेख निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु का वर्ष।

11. 1356 ई.

 शेख नसीरुद्दीन चिराग – ए - देहली की मृत्यु का वर्ष।

12. 1395 ई.

 श्रीनगर में झेलम नदी के पास हमदान मस्जिद का निर्माण।

13. 1400 - 1500 ई.

 उत्तर प्रदेश में कबीर, सूरदास, रैदास; गुजरात में बल्लभाचार्य, ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी, गुजरात में मोहम्मद शाह आलम, गुलबर्गा में मीर सैयद मोहम्मद गेसू दराज, असम में शंकरदेव तथा महाराष्ट्र में तुकाराम का जीवनकाल।

14. 1469 - 1539 ई

 गुरु नानकदेव का जीवनकाल।

15. 1500 - 1600 ई.

 बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, राजस्थान में मीराबाई, उत्तर प्रदेश में शेख अब्दुल कुद्दस गंगोही, मलिक मोहम्मद जायसी तथा तुलसीदास का जीवनकाल।

16. 1600 - 1700 ई.

 हरियाणा में शेख अहमद सरहिन्दी तथा पंजाब में मियाँ मीर का जीवनकाल।

17. 1609 ई.

 मैमनसिंग (बांग्लादेश) में बनी अतिया मस्जिद।

18. 1624 ई.

 नक्शबंदी सिलसिले के सूफी सन्त शेख अहमद सरहिंदी की मृत्यु।

19. 1642 ई.

 अब्दुल हक मुहाद्दिस देहलवी की मृत्यु का वर्ष ।

Prasanna
Last Updated on Jan. 10, 2024, 9:36 a.m.
Published Jan. 9, 2024