RBSE Class 12 History Notes Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

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RBSE Class 12 History Chapter 8 Notes किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

→ 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में भारत की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी। इस काल में छोटे-छोटे किसान एवं बड़े भू-स्वामी सभी कृषि कार्य में संलग्न रहते थे। 

→ इस समय हमारे देश के अधिकांश भाग पर मुगलों का शासन था; जिनकी अर्थव्यवस्था कृषि से प्राप्त राजस्व पर आधारित थी।

→ मुगल शासन में राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व वसूली करने वाले एवं लेखा-जोखा रखने वाले अधिकारी ग्रामीण समाज को नियंत्रण में रखने का पूरा प्रयास करते थे। साथ ही वे इस बात का भी ध्यान रखते थे कि खेतों की जुताई समय पर हो एवं राज्य को उपज से अपने हिस्से का कर समय पर मिल जाए। 

→ 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी; जिनमें किसान निवास करते थे। किसान जमीन की जुताई, बुआई, फसल की कटाई आदि का कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी हिस्सेदारी रखते थे जो कृषि पर आधारित थीं; जैसे- शक्कर, तेल आदि। 

→ मैदानी क्षेत्रों में बसे किसानों की खेती के अतिरिक्त सूखी जमीन के विशाल भागों से पहाड़ियों वाले क्षेत्र तथा जंगलों से घिरा भू-खंड का एक वृहद् हिस्सा भी ग्रामीण भारत की खासियतों में सम्मिलित था।

RBSE Class 12 History Notes Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य 

→ इस काल के ग्रामीण समाज के क्रियाकलापों और कृषि इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें मुगल दरबार की निगरानी में लिखित ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं दस्तावेजों का सहारा लेना पड़ता है। 

→ कृषि इतिहास से सम्बन्धित ऐतिहासिक स्रोतों में अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल द्वारा लिखित ग्रन्थ 'आइन-ए-अकबरी' प्रमुख है; जिसे संक्षेप में 'आइन' कहा जाता है। 

→ आइन-ए-अकबरी में कृषि के सुव्यवस्थित प्रबन्धन के लिए राज्य द्वारा बनाए गए नियमों का पूरा लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है।

→ खेतों की जुताई, करों की वसूली, राज्य और जमींदारों के बीच सम्बन्धों का नियमन आदि का पूर्ण विवरण भी आइन-ए-अकबरी में दिया गया है।

→ आइन-ए-अकबरी का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य का एक ऐसा रेखाचित्र प्रस्तुत करना था जिसके अनुसार एक शक्तिशाली सत्ताधारी वर्ग सामान्य प्रजा से सामाजिक मेलजोल बनाकर रखता था, किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन से ज्ञात होता है; वह शासक वर्ग का एकपक्षीय दृष्टिकोण है।

→ आइन-ए-अकबरी के अतिरिक्त कृषि इतिहास के अन्य स्रोतों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों से मिलने वाले दस्तावेज प्रमुख हैं। 17वीं-18वीं शताब्दियों के ये स्रोत भारत में कृषि से सम्बन्धित उपयोगी विवरण प्रदान करते हैं। 

→ किसानों को मुगलकाल में रैयत' (रिआया) या 'मुजरियान' कहा जाता था। भारतीय फारसी स्रोत में इसी शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त किसानों के लिए आसामी शब्द का प्रयोग भी किया जाता था। जो गाँवों में अब भी प्रचलन में है।

→ 17वीं शताब्दी के स्रोतों में दो प्रकार के किसानों का उल्लेख मिलता है

  • खुद-काश्त; वे किसान जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी जमीन थी तथा
  • पाहि-काश्त; वे किसान थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे।

→ उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास एक जोड़ी बैल तथा दो हल से अधिक कुछ भी नहीं होता था। अधिकांश किसानों के पास इससे भी कम था।

→ गुजरात में जिन किसानों के पास 6 एकड़ तक जमीन थी; वे धनवान माने जाते थे, वहीं दूसरी तरफ बंगाल में एक औसत किसान की जमीन की ऊपरी सीमा 5 एकड़ थी तथा 10 एकड़ जमीन वाले किसान को धनवान माना जाता था।

→ खेती निजी (व्यक्तिगत) मिल्कियत के सिद्धान्त पर आधारित थी। अन्य संपत्ति मालिकों की तरह ही किसानों की जमीन भी खरीदी और बेची जाती थी। 

→ जमीन की प्रचुरता, मजदूरों की उपलब्धता एवं किसानों की गतिशीलता के कारण कृषि का लगातार विस्तार हुआ क्योंकि खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था। इसलिए चावल, गेहूँ, ज्वार इत्यादि खाद्यान्न फसलें सबसे अधिक उगाई जाती थीं।

→ आज की भाँति मुगलकाल में भी मानसून को भारतीय कृषि की रीढ़ माना जाता था, परन्तु जिन फसलों के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती थी उनके लिए सिंचाई के कृत्रिम साधन अपनाए गए। उत्तरी भारत में कई नहरों का निर्माण हुआ और पुरानी नहरों की मरम्मत कराई गयी; जैसा कि शाहजहाँ ने पंजाब में 'शाह नहर' का निर्माण करवाया। 

→ तत्कालीन समय में किसान कृषि में ऐसी तकनीकों का प्रयोग भी करते थे जो प्रायः पशुबल पर आधारित होती थीं, जैसेलकड़ी का हल्का हल। इसे एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगाकर बनाया जाता था। ऐसे हल मिट्टी को बहुत गहरा नहीं खोदते थे जिसके कारण तेज गर्मी के महीनों में मिट्टी में नमी बनी रहती थी।

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→ बीज बोने के लिए बैलों की जोड़ी से खींचे जाने वाले बरमे का उपयोग होता था लेकिन बीजों को हाथ से छिड़क कर बोने का प्रचलन अधिक था।

→ तम्बाकू का पौधा सर्वप्रथम दक्कन पहुँचा तथा 17वीं शताब्दी की शुरुआत में यह वहाँ से उत्तर भारत आया। 1604 ई. में अकबर तथा उसके अभिजातों ने इसे पहली बार देखा। सम्भवतः यही वह समय था जब हुक्के या चिलम में तम्बाकू पीने की लत ने जोर पकड़ा। जहाँगीर ने तम्बाकू के धूम्रपान पर पाबन्दी लगाने का प्रयास किया जो कारगर सिद्ध नहीं हुआ। 17वीं शताब्दी के अंत में तम्बाकू सम्पूर्ण भारत में खेती, व्यापार तथा उपयोग की एक प्रमुख वस्तु थी।

→ फसलें मौसम के चक्रों पर आधारित थीं-खरीफ की फसल और रबी की फसल। खरीफ की फसल पतझड़ में एवं रबी की फसल बसंत में ली जाती थी। अधिकांश क्षेत्रों में दो फसलें ली जाती थीं, परन्तु जहाँ सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होती थी वहाँ तीन फसलें भी ली जाती थीं। इस कारण पैदावार में बड़े स्तर पर विविधता मिलती थी।

→ इस काल में मुख्यतया खाद्यान्न सम्बन्धी फसलों की खेती पर अधिक जोर दिया जाता था, परन्तु गन्ना एवं कपास जैसी नकदी फसलें भी उगायी जाती थीं। इन फसलों को मुगल स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फसलें कहा गया है। गन्ना, कपास, तिलहन (जैसे-सरसों तथा दलहन) की फसलें भी जिन्स-ए-कामिल कही जाती थीं।

→ इसी काल में (सत्रहवीं शताब्दी) में दुनिया के अलग-अलग भागों से कुछ नई फसलें; जैसे-टमाटर, आलू, मिर्च, मक्का आदि भी भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँची। अनानास व पपीता जैसे फल भी भारत में बाहर से ही आए। किसान का अपनी जमीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता था और वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय के घटक होते थे। इस समुदाय में खेतिहर किसान, पंचायत, गाँव का मुखिया (मुकद्दम या मंडल) आदि सम्मिलित होते थे।

→ तत्कालीन समय में जातिगत भेदभाव के कारण कृषक समुदाय कई समूहों में विभाजित थे। कृषि कार्य में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत से थी जो मजदूरी करते थे अथवा निकृष्ट कहे जाने वाले कार्यों में संलग्न थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने को मजबूर थे। 

→ समाज के निम्न वर्गों में जाति, निर्धनता एवं सामाजिक स्थिति के मध्य सीधा सम्बन्ध था; जो बीच के समूहों में नहीं था। 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गयी एक पुस्तक में राजपूतों का उल्लेख किसानों के रूप में किया गया है। पुस्तक के अनुसार, जाट भी किसान थे। 

→ अहीर, गुज्जर व माली जैसी जातियाँ पशुपालन तथा बागवानी में बढ़ते लाभ के कारण सामाजिक सीढ़ी में ऊपर आयीं। पूर्वी हिस्सों में पशुपालक तथा मछुआरी जातियाँ; जैसे- सदगोप व कैवर्त भी किसानों जैसी सामाजिक स्थिति में आने लगीं।

→ ग्राम पंचायतों की भूमिका तत्कालीन समय में बहुत ही प्रभावशाली थी। गाँव के बुजुर्ग एवं प्रतिष्ठित लोग पंचायत के सदस्य होते थे। पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था; जिसे मुकद्दम या मंडल कहा जाता था। ग्राम पंचायत के मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों द्वारा आम सहमति के आधार पर किया जाता था। पंचायत का निर्णय गाँव में सर्वमान्य होता था। मुखिया पटवारी की सहायता से पंचायत की आमदनी एवं खर्चे का हिसाब रखता था। 

→ पंचायत के कोष का प्रयोग प्राकृतिक आपदाओं एवं सामुदायिक कार्यों के साथ-साथ गाँव के दौरे पर आने वाले अधिकारियों की खातिरदारी के लिए भी किया जाता था। पंचायतें गाँव की व्यवस्था में पूर्णरूप से दखल रखती थीं। पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे गम्भीर दण्ड देने का अधिकार होता था। पंचायतें यह सुनिश्चित करती थीं कि लोग अपनी जातिगत मर्यादाओं का पालन करें और सीमाओं में रहें।

→ तत्कालीन समय में ग्राम पंचायत के अतिरिक्त प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी। शक्तिसम्पन्न सामाजिक जाति पंचायतें दीवानी, दावेदारियों के झगड़े, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों आदि पर नियन्त्रण रखती थीं। राजस्थान व महाराष्ट्र में जातिगत पंचायतें बहुत अधिक शक्तिशाली थीं।

→ अंग्रेजी शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में किए गए गाँवों के सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया है कि गाँवों में दस्तकारों की बहुलता थी। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 प्रतिशत घर दस्तकारों के थे। 

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→ खेतिहर समूह के लोग भी दस्तकारी के कार्यों से जुड़े हुए थे; जैसे-खेती के औजार बनाना या मरम्मत करना, रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना आदि।

→ गाँव के लोग कुम्हार, लोहार, बढ़ई, नाई व सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकारों की सेवाओं की अदायगी फसल का एक हिस्सा या गाँव की जमीन का एक टुकड़ा (जो खेती योग्य होने के बाद भी बेकार पड़ा रहता था) देकर करते थे। महाराष्ट्र में इस तरह की जमीन दस्तकारों की 'मीरास' या 'वतन' बन गई, जिस पर उनका पुश्तैनी अधिकार होता था।

→ 19वीं सदी के कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे छोटे गणराज्य के रूप में देखा; जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों एवं श्रम का बँटवारा करते थे लेकिन इस सामूहिकता की भावना के साथ-साथ गाँवों में जाति आधारित गहन विषमताएँ भी व्याप्त थीं। सामाजिक बराबरी नहीं थी और शक्तिशाली लोगों द्वारा गरीब लोगों का शोषण किया जाता था।

→ गाँवों और शहरों के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। मुगलों के केन्द्रीय क्षेत्रों में कर की वसूली एवं व्यापारिक फसलों; जैसे-कपास, रेशम, व नील आदि पैदा करने वालों का भुगतान भी नकदी में ही होता था। 

→ 17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैवर्नियर के अनुसार "भारत में वे गाँव बहुत ही छोटे कहे जाएँगे जिनमें मुद्रा की फेर-बदल करने वाले, जिन्हें 'सराफ' कहते हैं, न हों।"

→ मध्यकालीन भारतीय समाज में कृषि घर-परिवार के संसाधनों एवं श्रम पर आधारित थी। कृषि कार्य में पुरुष और महिलाओं की बराबर की भागीदारी थी। पुरुष खेत जोतने तथा हल चलाने का कार्य करते थे तथा महिलाएँ बुआई, निराई-गुड़ाई, कटाई एवं पकी फसल का दाना निकालने जैसे विभिन्न कार्य करती थीं। इसी प्रकार दस्तकारी के कार्य; जैसे- सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी साफ करना व गूंथना तथा कपड़ों पर कढ़ाई का कार्य भी महिलाओं द्वारा सम्पन्न किए जाते थे। किसी वस्तु का जितना अधिक वाणिज्यीकरण होता था उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।

→ समाज श्रम आधारित था इसलिए किसान और दस्तकार समाज में (बच्चे पैदा करने के विशेष गुण के कारण) महिलाओं को एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था।

→ कुपोषण, बार-बार माँ बनने एवं प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाने के कारण समाज में महिलाओं की मृत्यु-दर बहत अधिक थी। इससे किसान और दस्तकारी समाज में सम्भ्रांत समूह के विपरीत ऐसे रिवाज उत्पन्न हुए; जहाँ कई ग्रामीण समुदायों में शादी के लिए दहेज के स्थान पर उलटे 'दुलहन की कीमत' अदा करनी पड़ती थी। तलाकशुदा महिलाएँ व विधवाएँ दोनों ही पुनः कानूनन विवाह कर सकती थीं। 

→ प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार घर का मुखिया पुरुष होता था जिससे महिलाओं पर घर-परिवार एवं समुदाय के पुरुषों का नियन्त्रण बना रहता था। किसी महिला के गलत रास्ते पर चलने का सन्देह होने पर उसे कड़ा दण्ड दिया जाता था। 

→ राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के हिस्सों में मिले दस्तावेजों में मिली कुछ दरख्वास्तों से पता चलता है कि पत्नियाँ अपने पतियों की बेवफाई का विरोध करती थीं या वे घर के मर्दो पर पत्नी व बच्चों की अनदेखी का आरोप लगाती थीं। ये दरख्वास्त महिलाओं ने न्याय तथा मुआवजे की आशा से ग्राम पंचायत को भेजी थीं।

→ अधिकांशतः पंचायत को दरख्वास्त भेजने वाली महिलाओं के नाम दस्तावेजों में दर्ज नहीं किए जाते थे। उनका हवाला घर के मद्र/मुखिया की माँ, बहन या पत्नी के रूप में दिया जाता था। 

→ महिलाओं को पुश्तैनी सम्पत्ति का हक (जैसे-भूमिहर भद्रजनों में) मिला हुआ था। हिन्दू व मुसलमान महिलाओं को जमींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी। वे इस जमीन को बेचने अथवा गिरवी रखने को स्वतन्त्र थीं। बंगाल में भी महिला जमींदार मिलती थीं।

→ भारत के भू-भाग का एक बहुत बड़ा हिस्सा जंगल या झाड़ियों से घिरा हुआ था। उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत के सघन उपजाऊ कृषि क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण पूर्वी भारत, मध्य भारत, भारत-नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र, दक्षिण भारत का पश्चिमी भाग, दक्कन का पठार आदि जंगलों से घिरे हुए थे। जंगलों का फैलाव लगभग चालीस प्रतिशत क्षेत्र पर था।

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→ जंगलों में रहने वाले लोगों का जीवन-यापन जंगल से प्राप्त उत्पादों, शिकार एवं स्थानान्तरीय कृषि से होता था। जंगलों में रहने वाले लोगों के समुदाय को कबीला कहा जाता था।

→ जंगल कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण थे जिनमें 'बाहरी शक्तियाँ' कई कारणों से प्रवेश करती थीं। युद्ध हेतु हाथियों की आवश्यकता, जंगल के उत्पादों; जैसे-शहद, मोम, लाख आदि की वाणिज्यिक माँग थी।

→ शिकार अभियान मुगल राज्य के लिए गरीबों व अमीरों सहित समस्त प्रजाजन को न्याय प्रदान करने का एक माध्यम था। दरबारी इतिहासकारों के अनुसार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता था। इस प्रकार वह अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की समस्याओं पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे पाता था।

→ बाहरी प्रभाव का असर जंगल के सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। कई कबीलों के सरदार धीरे-धीरे जमींदार बन गए तथा कुछ तो राजा भी बन गए। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कुछ राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ युद्ध किया और उन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

→ ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत के स्वामी जमींदार होते थे जिन्हें कुछ विशेष सामाजिक एवं आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। ये अपनी जमीन के स्वामी होते थे तथा राज्य के प्रतिनिधि के रूप में जनता से कर वसूलते थे जिनके अपने किले एवं सैनिक टुकड़ियाँ होती थीं।

→ यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक सम्बन्धों की कल्पना करें तो जमींदार इसके सँकरे शीर्ष का भाग थे अर्थात् उनका स्थान सबसे ऊँचा था।

→ ब्राह्मण-राजपूत गठबन्धन का ग्रामीण समाज पर ठोस नियन्त्रण होता था। जमींदारी के विस्तार का एक तरीका युद्ध भी था। जमींदारी हासिल करने के कुछ अन्य तरीके भी थे; जैसे-राज्य से आदेश प्राप्त कर, जंगल आदि साफ करके नयी जमीनें बसाकर या राज्य के आदेश द्वारा अधिकारों का हस्तान्तरण अथवा जमींदारी खरीद कर। इन तरीकों द्वारा ब्राह्मण और राजपूतों के अतिरिक्त कुछ निचली जातियों व मुसलमानों ने भी जमींदारी प्राप्त कर ली थीं। 

→ आइन के अनुसार मुगल भारत में जमींदारों की मिली-जुली सैन्य-शक्ति इस प्रकार थी-घुड़सवार- 3,84,558; पैदल-42,77,057; हाथी-1,863; तोप-4,260 तथा नाव-4,500।

→ जमींदारों ने ग्रामीण विकास में पर्याप्त योगदान दिया, खेती योग्य नये क्षेत्रों का विकास किया, गाँवों में आर्थिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिया तथा गाँवों में हाट, बाजार व मेले स्थापित किए।

→ इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि जमींदार एक शोषक वर्ग था लेकिन किसानों के साथ उनके सम्बन्ध पारस्परिक सहयोग, पैतृकवाद एवं संरक्षण पर आधारित थे। यही कारण है कि 17वीं शताब्दी में राज्य के विरुद्ध हुए कृषि विद्रोहों में किसानों ने जमींदारों का साथ दिया।

→ भू-राजस्व मुगल साम्राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत था जिसकी वसूली के लिए राज्य ने एक सुनियोजित प्रशासनिक तंत्र स्थापित किया। सम्पूर्ण राज्य की वित्तीय व्यवस्था पर दीवान का नियन्त्रण होता था।

→ मुगल साम्राज्य में भू-राजस्व के निर्धारण की प्रक्रिया को लागू करने से पूर्व सम्पूर्ण राज्य में फसल और उत्पादन के सम्बन्ध में विस्तृत सूचनाएँ एकत्रित की जाती थीं तथा भू-राजस्व की वसूली की व्यवस्था दो चरणों में की जाती थी

  • कर निर्धारण तथा
  • वास्तविक वसूली।

→ मुगल बादशाह अकबर ने भू-राजस्व वसूली के लिए नकद एवं फसल दोनों का विकल्प रखा था।

→ मनसबदारी मुगल प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पर एक सैनिक-नौकरशाही तंत्र था जिस पर राज्य के सैनिक और नागरिक मामलों की जिम्मेदारी थी। ज्यादातर मनसबदारों को साम्राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में राजस्व आबंटन द्वारा भुगतान किया जाता था। हालांकि कुछ मनसबदारों को भुगतान नंगद भी किया जाता था।

→ मुगल साम्राज्य की राजनैतिक स्थिरता के कारण भारत के स्थानीय एवं समुद्रपारीय व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं के भुगतान के रूप में शेष विश्व से पर्याप्त मात्रा में चाँदी भारत में आई। मुगल बादशाह अकबर ने इतिहास के विधिवत लेखन की परम्परा की शुरुआत की। इतिहास लेखन के लिए अकबर द्वारा स्थापित परियोजना के अन्तर्गत अबुल फजल ने 'आइन-ए-अकबरी' की रचना पाँच संशोधनों के पश्चात् 1598 ई. में पूर्ण की। तीन जिल्दों में रचा गया 'अकबरनामा' इस परियोजना का परिणाम था।

→ आइन-ए-अकबरी में मुगल दरबार, प्रशासन, सेना का संगठन, राजस्व के स्रोत, अकबरकालीन प्रान्तों की भौगोलिक संरचना, ‘जन सामान्य के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों आदि के बारे में विस्तृत रूप से विवरण दिया गया है। 

→ 'आइन-ए-अकबरी' मुगल साम्राज्य से सम्बन्धित जानकारी का एक प्रमुख स्रोत है जिसमें दिए गए पाँच संशोधनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अबुल फजल ने इसकी प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए भरपूर प्रयास किया था। 

→ पाँच भागों में विभाजित आइन-ए-अकबरी के पहले तीन भागों में मुगल प्रशासन का विवरण दिया गया है तथा चौथे व पाँचवें भाग में तत्कालीन प्रजा के धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का वर्णन है। इनके अन्त में अकबर के शुभ वचनों का एक संग्रह भी है। 

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→ अबुल फजल ने भारत के लोगों और मुगल साम्राज्य के बारे में विस्तृत सूचनाएँ एकत्र कर अन्य इतिहासकारों एवं स्थापित परम्पराओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। यह अपने समय का एक असामान्य व अनोखा ग्रन्थ है। 

→ कई विद्वानों ने 'आइन' का अनुवाद किया है जिससे इसकी अहमियत का पता चलता है। हेनरी ब्लॉकमेन ने इसका संपादन किया तथा कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के एशियाटिक सोसाइटी ने इसे अपनी बिब्लियोयिका श्रृंखला में छापा। इसके अतिरिक्त इसका तीन खण्डों में अंग्रेजी अनुवाद भी किया जिनमें से पहले खण्ड का मानक अनुवाद ब्लॉकमैन ने किया तथा अन्य दो का एच. एस. जैरेट ने किया।

→ आइन-ए-अकबरी - अबुल फजल द्वारा रचित ग्रन्थ।

→ रैयत अथवा रियाया - मुगलकाल में किसानों को रैयत कहा जाता था। 

→ मुजरियान - मुगलकालीन किसान।

→ खुद-काश्त - वे किसान जो स्वयं के गाँव में कृषि-कार्य करते थे।

→ पाहि-काश्त - वे किसान जो दूसरे गाँव में जाकर कृषि कार्य करते थे।

→ चिलम - हुक्के में तम्बाकू व आग रखने का पात्र (हुक्के का मुगल-कालीन नाम)।

→ जिन्स-ए-कामिल - सर्वोच्च प्रकार की फसलें (नकदी फसलें)।

→ मुकद्दम - गाँव का मुखिया।

→ हलालखोरान -मैला ढोने का कार्य जो मेहतरों द्वारा किया जाता था।

→ मल्लाहजादाओं - नाविकों के पुत्र।

→ मीरास अथवा वतन - पुश्तैनी जमीन अथवा जमीन पर खानदानी अधिकार। 

→ जजमानी - बंगाल के जमींदार, लोहारों, बढ़ईयों एवं सुनारों को उनकी सेवाओं के बदले दैनिक भत्ता व भोजन हेतु नकद धन देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहा जाता था। 

→ परगना - यह मुगलकाल में एक प्रशासनिक प्रमंडल था।

→ पेशकश - मुगलकाल में राज्य के द्वारा ली जाने वाली एक प्रकार की भेंट।

→ चण्डीमण्डल - एक बंगाली कविता।

→ खरबन्दी - झाड़ियाँ। 

→ स्थानान्तरित खेती - जंगलों में वनवासी लोगों द्वारा स्थान बदल-बदलकर की जाने वाली खेती।

→ मवास - बदमाशों को शरण देने वाला अड्डा।

→ सुरागाय - याक। 

→ पीर - सूफी सन्त।

→ मिल्कियत - विस्तृत व्यक्तिगत जमीन।

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→ खिदमत - सेवा। 

→ सनद  - राज्यादेश। 

→ हाट - मुगलकालीन बाजारों के लिए प्रयुक्त शब्द।

→ जमा - निर्धारित रकम अथवा भू-राजस्व।

→ हासिल - वास्तव में वसूल किया गया भू-राजस्व।

→ अमील-गुजार - राजस्व वसूलने वाला अधिकारी।

→ अमीन - प्रान्तों में राजकीय नियमों के पालन को सुनिश्चित कराने वाला कर्मचारी।

→ पोलज - वह भूमि जिसमें प्रत्येक वर्ष एक से अधिक फसलें बोयी जाती थीं और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता था।

→ परौती - वह भूमि जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह खोयी हुई उर्वरा शक्ति को पुनः प्राप्त कर सके।

→ बंजर - वह भूमि जिस पर पाँच या उससे अधिक वर्षों के लिए खेती नहीं की गयी हो।

→ मनसबदारी - सैनिक नौकरशाही तंत्र।

→ आसामीवार - प्रत्येक किसान।

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→ (अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ )
काल-रेखा-मुगल साम्राज्य के इतिहास के मुख्य पड़ाव

काल तथा कालावधि

 घटना / विवरण

1. 1526 ई.

 पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया।

2. 1530 ई.

 4 वर्ष भारत पर शासन करने के उपरान्त बाबर की मृत्यु।

3. 1530 - 40 ई.

 हुमायूँ के शासन का प्रथम चरण।

4. 1540 - 55 ई.

 शेरशाह से पराजित होकर हुमायूँ सफावी दरबार में प्रवासी बनकर रहा।

5. 1555 -56 ई.

 हुमायूँ ने खोए हुए अपने मुगल राज्य को पुनः प्राप्त किया।

6. 1556 -1605 ई.

 अकबर महान का शासनकाल ।

7. 1605 -1627 ई.

 जहाँगीर का शासनकाल।

8. 1628 -1658 ई.

 शाहजहाँ का शासनकाल। ।

9. 1658 -1707 ई.

 औरंगजेब का शासनकाल।

10. 1707 -1712 ई.

 बहादुरशाह I का शासनकाल।

11. 1713 ई.

 फरुखसियर गद्दी पर बैठा।

12. 1739 ई.

 नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया तथा दिल्ली को बर्बरता से लूटा।

13. 1761 ई.

 सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठे अहमदशाह अब्दाली से बुरी तरह पराजित हुए।

14. 1765 ई.

 बंगाल के दीवानी अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दिए गए।

15. 1803 ई.

 अंग्रेजों ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार किया।

16. 1857 ई.

 भारत का प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन। नाना साहब ने कानपुर से विद्रोह का नेतृत्व किया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोह का नेतृत्व किया। लखनऊ से बेगम हजरत महल ने विद्रोह का नेतृत्व किया। अन्तिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर रंगून (वर्तमान यांगून, म्यांमार में) निर्वासित कर दिए गए।

Prasanna
Last Updated on Jan. 10, 2024, 9:36 a.m.
Published Jan. 9, 2024