Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 History Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 History in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 History Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 History Notes to understand and remember the concepts easily. The राजा किसान और नगर के प्रश्न उत्तर are curated with the aim of boosting confidence among students.
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प्रश्न 1.
ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जहाँ राज्य और नगर सर्वाधिक सघन रूप से बसे थे?
उत्तर:
मानचित्र-1 को देखने से स्पष्ट होता है कि मध्य गंगा घाटी अर्थात् पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा वर्तमान बिहार और झारखण्ड वाले क्षेत्र सर्वाधिक सघन रूप से बसे थे।
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प्रश्न 2.
मगध की सत्ता के विकास के लिए आरंभिक और आधुनिक लेखकों ने क्या-क्या व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं? ये एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं?
उत्तर:
आरंभिक विद्वान मगध की सफलता के लिए राजाओं का महत्वाकांक्षी होना अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, जबकि आधुनिक इतिहासकार मगध की सफलता के लिए उपजाऊ भूमि, खनिजों की बहुलता, जंगल तथा हाथी, यातायात के साधन इत्यादि को महत्वपूर्ण मानते हैं। जहाँ आरंभिक विद्वान मगध की सफलता में व्यक्तिगत अथवा राजा के व्यक्तित्व को अधिक महत्व देते हैं, वहीं आधुनिक इतिहासकार इसके लिए भौगोलिक कारकों को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
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प्रश्न 3.
राजगीर के किले की दीवारों का निर्माण क्यों किया गया?
उत्तर:
प्रारंभ में राजगीर मगध महाजनपद की राजधानी थी र राजा, उसके मंत्रियों एवं प्रमुख अधिकारियों के निवास स्थान बने हुए थे। यहाँ अनेक सैनिक टुकड़ियाँ भी रहती थीं। इस प्रकार २. गीर राजनैतिक, आर्थिक, सैनिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था जिसकी सुरक्षा करना अति आवश्यक था। अतः राजगीर शहर की शत्रुओं से रक्षा करने के लिए उसके चारों ओर दीवारों का निर्माण किया गया था।
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प्रश्न 4.
सिंह शीर्ष को आज महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है?
उत्तर:
मौर्य सम्राट अशोक ने सारनाथ में एक पाषाण स्तम्भ का निर्माण करवाया था जिसके शीर्ष भाग पर एक साथ चार शेरों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं जो देखने में अत्यन्त सजीव व आकर्षक दिखाई देती हैं। इस स्तम्भ के निचले भाग पर चार धर्मचक्र एवं चार पशुओं-शेर, घोड़ा, हाथी व बैल के चित्र अंकित हैं। सारनाथ के इस पाषाण स्तम्भ के सिंह शीर्ष को भारत सरकार ने राजचिह्न के रूप में अपनाया है। यह हमारी शूरवीरता, शान्तिप्रियता एवं एकता का प्रतीक है। इसी कारण सिंह शीर्ष को आज महत्वपूर्ण माना जाता है। .
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प्रश्न 5.
क्या यह भी सम्भव है कि जो क्षेत्र शासकों के अधीन नहीं थे वहाँ भी उन्होंने अभिलेख उत्कीर्ण करवाए होंगे।
उत्तर:
नहीं, यह सम्भव नहीं है कि शासकों ने उन क्षेत्रों में भी अभिलेख उत्कीर्ण करवाए हों जो उनके अधीन नहीं थे। इसका कारण यह था कि कोई भी शासक अपने राज्य क्षेत्र में किसी अन्य क्षेत्र के शासक की गतिविधियों को सहन नहीं कर सकता। .
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प्रश्न 6.
मेगस्थनीज और अर्थशास्त्र से उद्धृत अंशों को पुनः पढ़िए। मौर्य शासन के इतिहास लेखन में ये ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं?
उत्तर:
इतिहास का निर्माण दो स्रोतों से होता है प्रथम-पुरातात्त्विक स्रोत तथा द्वितीय-साहित्यिक स्रोत। वस्तुतः. अर्थशास्त्र तथा इण्डिका धर्मनिरपेक्ष तथा सर्वाधिक विश्वसनीय साहित्यिक स्रोत हैं। अतः मौर्यकालीन इतिहास के निर्माण के लिए ये अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
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प्रश्न 7.
राजा को किस रूप में दर्शाया गया है ?
उत्तर:
चित्र 2.4 में दर्शाया गया सिक्का कुषाणकालीन है जिसमें राजा कनिष्क को देवता के रूप में दर्शाया गया है।
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प्रश्न 8.
इस मूर्ति में ऐसी क्या विशेषताएँ हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि यह एक राजा की मूर्ति है ?
उत्तर:
चित्र 2.5 में दर्शायी गयी मूर्ति एक राजा की ही प्रतीत होती है क्योंकि मूर्ति का कद विशाल है, साथ ही उसके वस्त्र भी साधारण जनता से भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त मूर्ति एक बड़ी तलवार के साथ गौरवपूर्ण मुद्रा में है। निश्चय ही ये तथ्य मूर्ति
(पृष्ठ सं.37)
प्रश्न 9.
राजाओं ने दिव्य स्थिति का दावा क्यों किया ?
उत्तर:
प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी ई. पू. में अनेक विदेशी आक्रमणकारी जातियाँ भारत आयीं जिन्होंने भारतीय तथा ब्राह्मणवादी चतुर्वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित होने के लिए स्वयं को दैवीय रूप में दिखाया। .
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प्रश्न 10.
यह पता कीजिए कि क्या आपके राज्य में हल से खेती, सिंचाई तथा धान की रोपाई की जाती है? और अगर नहीं तो क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्थाएँ हैं ?
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए अपने अभिभावकों तथा शिक्षकों की सहायता लें। विद्यार्थियों को यह सलाह दी जाती है कि वे इसके लिए अपनी भूगोल की पाठ्य-पुस्तकों तथा मानचित्रावली की सहायता भी लें।
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प्रश्न 11.
तीसरी सहस्राब्दि ई. पू. में हड़प्पा सभ्यता जिस क्षेत्र में फैली, क्या वहाँ कोई नगर थे?
उत्तर:
हाँ, वहाँ अमेक नगर थे। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता ही थी।
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प्रश्न 12.
व्यापार में विनिमय के लिए क्या-क्या प्रयोग होता था ? उल्लिखित स्रोतों से किस प्रकार के विनिमय का पता चलता है ? क्या कुछ विनिमय ऐसे भी हैं जिनका ज्ञान स्रोतों से नहीं हो पाता है ?
उत्तर:
व्यापार के विनिमय में जो वस्तुएँ उपयोग होती थीं, वे हैं-जूट, कपास, जड़ी-बूटियाँ, सूती कपड़े, मसाले, विभिन्न बहुमूल्य धातुएँ (विशेषकर स्वर्ण मुद्राएँ) इत्यादि। उल्लिखित स्रोतों से वस्तु-विनिमय का विस्तार से पवरण प्राप्त होता है। ई. पू. तथा ईसा की प्रथम शताब्दी के विभिन्न यात्रियों तथा नाविकों ने इसका विवरण दिया है जिसमें 'पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी' नामक ग्रन्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
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प्रश्न 13.
क्या कुछ देवनागरी अक्षर ब्राह्मी से मिलते-जुलते हैं ? क्या कुछ भिन्न भी हैं ?
उत्तर:
हाँ, कुछ देवनागरी अक्षर; जैसे- 'द' ब्राह्मी से लगभग पूरी तरह मिलता है। 'क' तथा 'ढ' की बनावट भी कुछ-कुछ एक जैसी है, परन्तु अन्य अक्षरों में कुछ भी समानता दिखाई नहीं देती। इन्हें आप पाठ्य-पुस्तक के चित्र 2,11 में देख सकते हैं।
(पृष्ठ सं. 48)
प्रश्न 14.
मानचित्र-2 देखिए तथा अशोक के अभिलेख के प्राप्ति स्थानों की चर्चा कीजिए। क्या उनमें कोई एक-सा प्रारूप दिखता है ?
उत्तर:
मानचित्र-2 के अनुसार अशोक के अभिलेख प्राप्ति के स्थान निम्नलिखित हैं.
(1) मानसेहरा
(2) शाहबाजगढ़ी
(3) कालसी
(4) गिरनार
(5) शिशुपालगढ़
(6) कलिंग
(7) सोपारा
(8) बैराठ
(9) भालू
(10) बहपुर
(11) मास्की
(12) सिद्दपुर
(13) सारना
(14) गुजर
(15) लौरिया नन्दनगढ़
(16) रुम्मनदेई
(17) रामपुरवा
अशोक के उपर्युक्त अभिलेखों की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हमें प्राप्त होती हैं जिनके अभिलेखों में हमें एकरूपता दिखाई देती है।
प्रश्न 1.
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं ?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पू. में द्वितीय नगरीकरण अथवा आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के अनेक उत्तम उदाहरण इतिहासकारों को प्राप्त होते हैं, जैसे - उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभाण्ड संस्कृति के मिट्टी के कटोरे तथा थालियाँ। इन मृदभाण्डों पर चमकदार परत चढ़ी हुई है। संभवतः इनका प्रयोग धनी लोगों द्वारा किया जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य सामग्रियाँ भी हमें प्राप्त होती हैं जिनमें से मुख्य हैं चाँदी, सोने, ताँबे, काँसे, हाथी दाँत तथा शीशे के बने पदार्थ, आभूषण, उपकरण, हथियार इत्यादि। ये सभी उपकरण अथवा पदार्थ अधिक परिष्कृत तथा उन्नत तकनीकी से बने हैं।
हड़प्पा सभ्यता में भी हमें अनेक शिल्पकला के उपकरण देखने को मिलते हैं। हड़प्पा सभ्यता से हमें मिट्टी तथा धातुओं से बनी अनेक मूर्तियाँ, विभिन्न पत्थरों से बने गहने तथा सेलखड़ी से बनी मुद्राएँ प्राप्त होती हैं जिससे ज्ञात होता है कि इन नगरों में बुनकर, बढ़ई, सुनार, लोहार आदि शिल्पकार रहते थे, अत: वहाँ शिल्पकला उत्कृष्ट रूप में थी। प्रथम नगरीय सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) तथा द्वितीय नगरीय सभ्यता के पदार्थों में हमें अनेक भिन्नता देखने को मिलती हैं। जहाँ हड़प्पा सभ्यता की मुद्राएँ पकी मिट्टी से बनी होती थीं, तो वहीं आरंभिक ऐतिहासिक नगरों की मुद्राएँ धातु की बनी होती थीं। हड़प्पा सभ्यता से हमें अनेक मातृदेवियों की प्रतिमाएँ, पशुओं की मूर्तियाँ इत्यादि प्राप्त होती हैं, जबकि द्वितीय नगरीकरण में ऐसा नहीं है।
प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
महाजनपदों की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पू. में भारत में अनेक महाजनपदों का उदय हुआ। सोलह महाजनपदों का उल्लेख हमें जैन ग्रन्थ 'भगवती सूत्र' तथा बौद्ध ग्रन्थ 'अंगुत्तर निकाय' में मिलता है। इन सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार थेअंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु पांचाल, मत्स्य, शूरसेन अश्मक, अवन्ति, काम्बोज तथा गान्धार। इनमें सबसे शक्तिशाली महाजनपद मगध । ये नहाजनपद दो प्रकार के थे, प्रथम गण तथा द्वितीय राज्य।
गण अनेक छोटे-छोटे राज्यों के समूहों से मिलकर बनता था वहीं राज्य में एक ही राजा, एक ही राजधानी तथा एक ही राजचिह्न होत। वज्जि तथा शाक्य इस समय के मुख्य गण थे। प्रत्येक महाजनपदं की अपनी एक राजधानी होती थी जिसकी प्रायः किलेबंदी का जाती थी जो राजधानियों के रख-रखाव, प्रारंभिक सेनाओं तथा नौकरशाही के लिए आवश्यक आर्थिक स्रोत के अर्जन तथा संरक्षण में सहायक होती थी। महाजनपदों की एक विस्तृत कराधान व्यवस्था थी, साथ ही उन्नत कृषि पैदावार के कारण राज्यों के पास पर्याप्त मात्रा में धन रहता था।
लगभग छठी शताब्दी ई. पू. संस्कृत में धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थ की रचना ब्राह्मणों द्वारा का गई जिसमें राजा व प्रजा के लिए राजकीय एवं सामाजिक नियमों का निर्धारण किया गया तथा यह भी अपेक्षा की गई कि शासक क्षत्रिय वर्ग से ही हों। धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तन्त्र तैयार कर लिया जिनमें सैनिक प्रायः कृषक वर्ग से ही भर्ती किए जाते थे।
प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं ?
उत्तर:
सामान्य लोगों के जीवन की लिखित जानकारी के साक्ष्य अल्प हैं। इतिहास में सामान्य लोगों के जीवन का निर्धारण तो इतिहासकार करते हैं, किन्तु इसके लिए वे समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्रीय सिद्धान्तों की सहायता लेते हैं। गंगा घाटी में मिले खेती के उपकरण तथा साक्ष्य स्पष्ट करते हैं कि सामान्यजन का व्यवसाय कृषि था। अशोक ने अपनी सामान्य जनता के साथ संवाद स्थापित करने के लिए अभिलेखों का सहारा लिया था जो सामान्य जनता की स्थिति के परिचायक तो हैं ही साथ ही राज्य की जनतान्त्रिक व्यवस्था की ओर भी इशारा करते हैं।
संक्षेप में कहा जाए तो यह स्पष्ट है कि सामान्य जनता के इतिहास का निर्माण करने में पुरातात्विक सामग्री तथा साहित्यिक स्रोतों के साथ-साथ इतिहासकार अन्य साधनों की भी सहायता प्राप्त करते हैं, जैसे कि जातक और पंचतन्त्र की कथाओं की समीक्षा करके इतिहासकारों ने यह जानने का प्रयास किया कि उस काल में राजा और प्रजा के बीच सम्बन्ध कैसे थे? 'गंदतिन्दु' नामक जातक कथा में बताया गया है कि किस प्रकार एक दुष्ट राजा से प्रजा दुखी रहती थी।
प्रश्न 4.
पाण्ड्य सरदार (स्रोत-3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत-8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ तथा असमानताएँ दिखाई देती हैं ?
उत्तर:
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध साम्राज्य पाण्ड्य के मुख्य शासक सरदार सेन गुन्तुवन को उपहारस्वरूप ग्रामवासियों ने अनेक वस्तुएँ दी थीं; जैसे - फूल, सुगन्धित लकड़ी, चन्दन, हाथी-दाँत, हल्दी, इलायची, हिरणों के बाल से बने चँवर, शहद, सुरमा, मिर्च इत्यादि। इसके अतिरिक्त ग्रामवासी अपने साथ आम, नारियल, फल, प्याज, गन्ना, जड़ी-बूटी, सुपारी, केला, बाघ के बच्चे, हाथी, बन्दर, भालू, मृग, मोर, कस्तूरी, जंगली मुर्गे, बोलने वाले तोते, शेर इत्यादि लाए थे।
दंगुन गाँव में घास, जानवरों की खाल, नमक, कोयला, मदिरा, खादिर वृक्ष की लकड़ी, फूल, दूध इत्यादि का उत्पादन होता था। यहाँ दोनों में फूल समान हैं एवं शेष वस्तुओं में कोई समानता नहीं है। सबसे बड़ी असमानता तो उन वस्तुओं को प्राप्त करने के तरीके में है। पाण्ड्य सरदार को लोग खुशी-खुशी नाच-गाकर स्वेच्छा से वस्तुएँ उपहार में देते थे। इसके विपरीत दंगुन गाँव के निवासियों को कर्त्तव्यस्वरूप वस्तुएँ भूमिदान से पूर्व राजा को तथा भूमिदान के उपरान्त भूमिदान प्राप्त करने वाले आचार्य चनाल स्वामी को देनी पड़ती थीं।
प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
अथवा
"अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की भी सीमा होती है।" उपयुक्त तर्कों सहित इस कथन को न्यायसंगत ठहराइए।
अथवा
अभिलेख साक्ष्यों की सीमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
निश्चय ही इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अभिलेख अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं, किन्तु अभिलेखों की उपयोगिता की अपनी एक सीमा है। अभिलेखों की इस सीमा को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं
प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौनसे तत्वों के प्रमाण मिलते हैं ?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य को भारत का प्रथम विस्तृत तथा स्वतन्त्र साम्राज्य माना जाता है क्योंकि इस साम्राज्य का अपना व्यवस्थित प्रशासन तथा नियमावली थी। इसी के आधार पर मौर्य साम्राज्य एक महान साम्राज्य का स्वरूप धारण कर पाया। मौर्य प्रशासन में तत्कालीन समय में अनेक विशेषताएँ विद्यमान थीं, मेगस्थनीज के विवरण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों से हमें मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की व्यापक जानकारी प्राप्त होती है, जिसे हम निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं -
(1) पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र-मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे- पाटलिपुत्र, तक्षशिला, उज्जयिनी, होयसल व सुवर्णगिरि । इनमें से मौर्य साम्राज्य का सबसे बड़ा केन्द्र पाटलिपुत्र था जो मौर्य साम्राज्य की राजधानी था तथा शेष प्रान्तीय केन्द्र थे। इन समस्त राजनैतिक केन्द्रों का उल्लेख अशोक के अभिलेखों में मिलता है।
(2) असमान शासन व्यवस्था:
मौर्य साम्राज्य विशाल था। इतिहासकारों का मत है कि मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था समान नहीं थी। मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित क्षेत्र एक जैसे न होकर विविधता लिए हुए थे–कहाँ अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र और कहाँ उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र । इतने विशाल एवं विविधतापूर्ण साम्राज्य का प्रशासन एक समान होना सम्भव नहीं था, परन्तु यह सम्भव है कि मौर्य साम्राज्य में सबसे अधिक प्रशासनिक नियन्त्रण पाटलिपुत्र एवं समीपवर्ती प्रान्तीय केन्द्रों पर रहा हो।
(3) प्रशासनिक केन्द्रों का चयन - मौर्य साम्राज्य में प्रान्तीय केन्द्रों का चयन बहुत अधिक सावधानीपूर्वक किया जाता था। तक्षशिला एवं उज्जयिनी जैसे प्रान्तीय केन्द्र लम्बी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर स्थित थे तथा कर्नाटक में स्थित सुवर्णगिरि (सोने का पहाड़) सोने की खदान के कारण महत्वपूर्ण स्थान रखता था।
(4) आवागमन का सुचारु संचालन करना-मौर्य साम्राज्य के सफल संचालन के लिए स्थल एवं जल दोनों मार्गों से
आवागमन बनाए रखना अति आवश्यक था। साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र से प्रान्तीय केन्द्रों तक आने-जाने में कई सप्ताहों या - महीनों का समय लग जाता था। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए आने-जाने वाले यात्रियों के लिए भोजन एवं उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य साम्राज्य में सेना सुरक्षा का प्रमुख माध्यम रही होगी।
(5) सैनिक गतिविधियों का संचालन - मौर्य साम्राज्य में एक विशाल सेना थी, यूनानी इतिहासकारों के अनुसार मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के पास छः लाख पैदल सैनिक, तीस हजार घुड़सवार एवं नौ हजार हाथी थे। मेगस्थनीज ने मौर्य साम्राज्य में सैनिक गतिविधियों के संचालन हेतु एक समिति एवं छ: उप-समितियों का उल्लेख किया है। समिति विविध प्रकार के कार्य करती थी, जैसे-सैनिकों के लिए राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएं 551 भोजन एवं जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना, सैन्य उपकरणों को लाने-ले जाने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों व शिल्पकारों की नियुक्ति करना।
(6) पतिवेदकों की नियुक्ति-अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उनके कष्टों को स्वयं तक पहुँचाने हेतु पतिवेदकों (दूत या संवाददाताओं) की नियुक्ति की थी जो कहीं भी कभी भी इन समाचारों को सम्राट तक पहुँचाने हेतु सम्राट से सीधे मिल सकते थे।
(7) धम्म महामात्यों की नियुक्ति–साम्राज्य को सुगठित तथा संगठित बनाए रखने हेतु अशोक ने धम्म के प्रचार-प्रसार का भी सहारा लिया जिस हेतु धम्म महामात्य नामक धर्माधिकारियों की नियुक्ति की गई। धम्म के सिद्धान्त बहुत ही साधारण तथा सार्वभौमिक थे।
प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी. सी. सरकार का वक्तव्य है "भारतीयों के . जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिम्ब अभिलेखों में नहीं है" चर्चा कीजिए।
उत्तर:
इतिहास निर्माण के दो साधन होते हैं:
प्रथम, पुरातात्त्विक साक्ष्य तथा द्वितीय साहित्यिक स्रोत। पुरातात्त्विक साक्ष्यों में अभिलेखीय साक्ष्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। मौर्य-साम्राज्य का, विशेषकर अशोक का, शासन काल तो मात्र अभिलेखों के माध्यम से पूर्ण रूप से ज्ञात होता है। आर. जी. भण्डारकर ने अशोक के काल का सम्पूर्ण इतिहास उसके अभिलेखों के आधार पर ही लिखा है। अतः यहाँ विद्वान इतिहासकार तथा अभिलेखशास्त्री डी. सी. सरकार का मत पूर्णतया सत्य है।
सुविख्यात अभिलेख शास्त्री डी. सी. सरकार ने ठीक ही कहा है कि अभिलेखों में भारतीयों के जीवन के प्रत्येक पक्ष का विवरण उल्लिखित है। इतिहास एक अत्यन्त विशाल ज्ञानकोश है। यदि हमें इतिहास अथवा किसी काल विशेष को समझना हो तो उसका वर्गीकरण करना चाहिए जिससे इतिहास को समझना तथा समझाना अत्यन्त सरल हो जाता है। भारतीय इतिहास का सरल वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है
(1) अभिलेखों में भारतीयों का राजनीतिक इतिहास:
अभिलेखों से शासकों के नाम, कार्यकाल तथा उनकी सीमाओं का निर्धारण अत्यधिक सुगमता से हो जाता है। मौर्यों के अभिलेखों से भी हमें यह सुविधा प्राप्त होती है। महास्थान (बंगाल) अभिलेख तथा गिरिनार अभिलेख (सुदर्शन झील के निर्माणकर्ता पुष्यगुप्त जो (चन्द्रगुप्त मौर्य का गवर्नर) के द्वारा स्थापित चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य की सीमाओं का निर्धारण बंगाल से सौराष्ट्र तक निर्धारित करता है।
इसके अतिरिक्त अशोक के अभिलेख हमें कर्नाटक तथा गांधार तक प्राप्त होते हैं, चूँकि ये प्रान्त अशोक ने विजित नहीं किए थे, अतः यह तथ्य स्पष्ट करता है कि ये प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही जीते थे। चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त अशोक की सभी सीमाओं का निर्धारण भी हम उसके अभिलेखों के माध्यम से कर सकते हैं। अशोक के 13वें वृहद शिलालेख में उसके सभी सीमावर्ती राज्यों के नाम दिए गए हैं जिससे हमें सहज ही अशोक के राज्य की सीमाओं का ज्ञान हो जाता है। अभिलेखों से हमें सीमाओं के अतिरिक्त अन्य राजनैतिक सूचनाएँ भी प्राप्त होती हैं; जैसे अकाल इत्यादि।
(2) अभिलेखों में भारतीयों का सामाजिक इतिहास-मुख्यतः
अभिलेखों पर राजा की आज्ञा तथा सूचनाएँ ही उत्कीर्ण होती हैं, जिनका सामान्य जनता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अतः अभिलेखों के माध्यम से जनसामान्य के सामाजिक जीवन के विषय में महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं, जैसे—संघ-भेद के विरुद्ध निर्देश (प्रयाग तथा साँची स्तम्भ लेख) तथा जनता की सामान्य भाषा (चतुर्दश वृहद शिलालेख)। अभिलेखों से सामाजिक वर्गों की भी जानकारी प्राप्त होती है; जैसे- उस समय शासक वर्ग के अतिरिक्त बुनकर, सुनार, धोबी, लुहार, व्यापारी, कृषक आदि कई वर्ग थे।
(3) अभिलेखों में भारतीयों का आर्थिक इतिहास-:
भिलेखों के माध्यम से हमें आर्थिक गतिविधियों तथा जनता की आर्थिक स्थिति का भी ज्ञान प्राप्त होता है; जैसे नहरों तथा तालाबों का निर्माण (गिरिनार अभिलेख), अकाल की स्थिति तथा राज्य द्वारा सहयोग (महास्थान अभिलेख), कर सम्बन्धी व्यवस्था (रुम्मनदेई स्तम्भ लेख) इत्यादि।
(4) अभिलेखों में भारतीयों का धार्मिक इतिहास:
भारत प्रारम्भ से ही धर्म प्रधान देश रहा है इसलिए अभिलेखों के माध्यम से हमें भारतीयों के धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास की स्पष्ट झलक प्राप्त होती है जिसे हम निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं -
राजा का सम्बन्ध देवताओं से स्थापित करना (अशोक के विभिन्न अभिलेखों में उसे देवानांपिय कहा गया है, जो राजा की दैवी कल्पना का द्योतक है)।
विवाह आदि के अवसर पर विभिन्न धार्मिक क्रियाएँ तथा मंगलाचरण का कार्यक्रम (अशोक का नवम् वृहद शिलालेख)।
उपर्युक्त शिलालेख तथा उसमें वर्णित घटनाएँ और विवरण स्पष्ट करते हैं कि इतिहास के निर्माण में अभिलेखों का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है।
अभिलेखों से हमें ऐतिहासिक घटनाओं; जैसे-प्रयाग प्रशस्ति नामक अभिलेख से समुद्रगुप्त के जीवन की झाँकी और अशोक के शिलालेखों से कलिंग विजय तथा उसके परिणामों एवं अशोक के पश्चाताप आदि का पता चलता है। अभिलेख द्वारा उसकी भाषा से उस काल का साहित्यिक स्तर, कलाप्रियता, काल निर्धारण, भू-व्यवस्था, भूमिदान आदि की व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। अभिलेख प्राचीन भारतीय जीवन तथा संस्कृति के दर्पण हैं।
प्रश्न 8.
उत्तर-मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर-मौर्य काल में राजाओं के लिए विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ना उच्च स्थिति प्राप्त करने का एक साधन था। लगभग प्रथम शताब्दी ई. पू. से प्रथम शताब्दी ई. तक मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले शासकों ने इस उपाय का सबसे अच्छा उद्धरण पेश किया। उत्तर मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचारों का वर्णन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट है
'कुषाण शासकों का राजत्व का विचार:
कुषाण इतिहास की रचना अभिलेखों तथा साहित्य परम्परा द्वारा की गयी है। जिस प्रकार के राजधर्म को कुषाण शासकों ने प्रस्तुत करने की इच्छा की उसका सर्वोच्च उदाहरण हमें उनके सिक्कों तथा मूर्तियों से प्राप्त होता है। एक सिक्के के अग्र भाग में कनिष्क को दिखाया गया है तो इसके पृष्ठ भाग पर एक हिन्दू देवता को उकेरा गया है।
उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माँट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशाल मूर्तियाँ लगाई गई थीं। अफगानिस्तान के एक देवस्थान से भी हमें एक ऐसी ही प्रतिमा प्राप्त होती है। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार इन मूर्तियों के माध्यम से कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। अनेक कुषाण शासकों ने स्वयं को 'देवपुत्र' की उपाधि भी प्रदान की। सम्भवतः कुषाण शासक उन चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे जो स्वयं को स्वर्गपुत्र कहते थे।
गुप्त शासकों का राजत्व का विचार:
कुषाणों के उपरान्त राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त चाहे वे भारतीय साम्राज्य हों अथवा विदेशी साम्राज्य, लगभग सभी में लोकप्रिय हो गया। इसका प्रमुख उदाहरण हम गुप्त शासकों में देखते हैं। गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों तथा अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। इसके अतिरिक्त कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी गई प्रशस्तियों का भी इसमें अहम योगदान रहा है।
हालांकि इतिहासकार इन रचनाओं के आधार पर ऐतिहासिक तथ्य निकालने की प्रायः कोशिश करते हैं लेकिन उनके रचयिता तथ्यात्मक विवरण की अपेक्षा उन्हें काव्यात्मक ग्रन्थ मानते थे। उदाहरण के तौर पर; समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, जिसे उसके दरबारी कवि हरिषेण ने लिखा है, में कवि ने राजा की तुलना पूर्ण रूप से देवताओं के साथ करने का प्रयास किया है। समुद्रगुप्त के अतिरिक्त अन्य गुप्त शासकों ने भी इसी परम्परा का निर्वाह अपने व्यक्तिगत हित के लिए किया था।
प्रश्न 9.
वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हए?
उत्तर:
वर्णित काल (600 ई. पू. से 600 ई. तक) में कृषि के तौर-तरीकों में निम्नलिखित परिवर्तन हुए
(1) इस काल तक (600 ई. पू. से पहले तक) आते-आते कृषि में उन्नत लोहे के औजारों का प्रयोग होने लगा था। लोहे की कुल्हाड़ी से जंगलों को काटकर विस्तृत कृषियोग्य भूमि निर्मित की गयी तथा इस विस्तृत भूमि पर लोहे के फाल वाले हल से खेतों की जुताई अधिक गहरी होने लगी। चूँकि पूर्व में ऐसा नहीं होता था तथा खेतों की ऊपरी सतह से चिड़ियाँ बीज खा जाती थीं, किन्तु गहरी जुताई से बीज नीची सतह पर होने के कारण अधिक उपज देने लगे।
(2) लोहे के हल का अधिकांशतः प्रयोग गंगा व कावेरी की घाटियों में हुआ। राजस्थान एवं पंजाब जैसी अर्द्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग बीसवीं शताब्दी से शुरू हुआ। वे किसान जो पूर्वोत्तर तथा मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे, उन्होंने खेती के लिए कुदाल का प्रयोग आरम्भ कर दिया जो ऐसे इलाकों के लिए अधिक उपयोगी था।
(3) उपज बढ़ाने के लिए सिंचाई के उन्नत साधनों का भी प्रयोग किया जाने लगा। नहर, तालाब, कुएँ आदि के माध्यम से सिंचाई के साधनों में बढ़ोत्तरी की गयी। सौराष्ट्र में चन्द्रगुप्त मौर्य के गवर्नर पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। वस्तुतः व्यक्तिगत रूप से तालाबों, कुओं तथा नहरों जैसे सिंचाई के साधन निर्मित करने वाले व्यक्ति राजा अथवा प्रभावशाली व्यक्ति थे जिन्होंने अपने इन कार्यों का उल्लेख अभिलेखों में भी करवाया। मानचित्र कार्य
प्रश्न 10.
मानचित्र 1 तथा 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित रहे। क्या इस क्षेत्र में अशोक के अभिलेख मिले हैं ?
उत्तर:
मानचित्र 1
अशोक के अभिलेखों का वितरण महाजनपद तथा उनकी राजधानियों का विवरण निम्नलिखित है -
महाजनपद - राजधानी
1. कम्बोज - हाटक
2. गांधार - तक्षशिला
3. कुरु - इन्द्रप्रस्थ
4. शूरसेन - मथुरा
5. मत्स्य - विराटनगर
6. अवन्ति - उज्जयिनी
7. चेदि - nसुकिमती
8. वत्स - कौशाम्बी
9. अश्मक - पोतन
10. अंग - चंपा.
11. मल्ल - पावा
12. पांचाल - अहिछत्र तथा कांपिल्य
13. मगध - राजगृह (गिरिव्रज) तथा पाटलिपुत्र
14. कोशल - श्रावस्ती
15. काशी - वाराणसी
मौर्य साम्राज्य उत्तर में गांधार, दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में सौराष्ट्र तथा पूर्व में बंगाल तथा उड़ीसा तक विस्तृत था। उपर्युक्त सभी महाजनपद एक-दूसरे को विजित करके चार महाजनपदों में परिवर्तित हो गए तथा अन्ततोगत्वा मगध ने शेष तीन महाजनपदों को पराजित कर दिया। अन्तिम मगध शासक घनानन्द को पराजित कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार उपर्युक्त सभी महाजनपद मौर्य साम्राज्य में थे, किन्तु उनका अस्तित्व मौर्य साम्राज्य में विलीन हो गया था।
हाँ, महाजनपद क्षेत्र में अशोक के अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इन क्षेत्रों के नाम निम्नलिखित हैं -
1. मान सेहरा
2. शाहबाजगढ़ी
3. कालसी
4. टोपरा
5. भालू
6. बैराठ
7. गुर्जर
8. साँची
9. सारनाथ
10. कलिंग
11. रुम्मनदेई
12. निगालीसागर इत्यादि।
प्रश्न 11.
एक महीने के अखबार एकत्र कीजिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों के बारे में दिए गए वक्तव्यों को काटकर एकत्र कीजिए। समीक्षा कीजिए कि इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधनों के बारे में खबरों में क्या लिखा है ? संसाधनों को किस प्रकार से एकत्र किया जाता है और परियोजनाओं का उद्देश्य क्या है? इन वक्तव्यों को कौन जारी करता है और उन्हें क्यों और कैसे प्रसारित किया जाता है? इस अध्याय में चर्चित अभिलेखों के सा " से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ पाते हैं ?
उत्तर:
विद्यार्थियों को स्वयं ही विभिन्न प्रकार के समाचार-पत्रों का अथवा किसी एक मुख्य राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय साचार-पत्र का संकलन करना चाहिए। इन समाचार-पत्रों में विभिन्न सरकारी विभागों के अध्यक्ष अथवा सचिव के माध्यम से निविदाएँ (Tenders) आमन्त्रित की जाती हैं। इस निविदा में परियोजना मूल्य तथा आवश्यक संसाधनों का पूर्ण विवरण होता है। सामान्यतः निविदाएँ सार्वजनिक तथा जन-कल्याण से सम्बन्धित कार्यों के लिए जारी की जाती हैं। . इन सबके उपरान्त विद्यार्थियों को इन निविदाओं तथा वक्तव्यों का अशोक के शिलालेखों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए तथा उनसे प्राप्त निष्कर्ष अपनी अध्ययन पुस्तक में लिखने चाहिए।
प्रश्न 12.
आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों तथा सिक्कों को इकट्ठा कीजिए। इनके दोनों ओर आप जो देखते हैं उनका वर्णन कीजिए। इन पर बने चित्रों, लिपियों तथा भाषाओं, माप, आकार अथवा अन्य समानताओं और असमानताओं के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों में प्रयुक्त सामग्रियों, तकनीकों, प्रतीकों, उनके महत्व तथा सिक्कों के सम्भावित कार्य की चर्चा करते हुए इनकी तुलना कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थियों को यह कार्य अभिभावकों तथा अध्यापकों के मार्गदर्शन में स्वयं ही सम्पादित करना चाहिए।