These comprehensive RBSE Class 12 History Notes Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास will give a brief overview of all the concepts.
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→ ईसा पूर्व 600 से ईसा संवत् 600 तक का कालखण्ड आरंभिक भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ माना जाता है जिसमें नयी दार्शनिक विचारधाराओं का उद्गम हुआ।
→ इस कालखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त इमारतें एवं अभिलेख हैं।
→ इस काल की बची हुई इमारतों में सबसे सुरक्षित इमारत साँची का स्तूप है।
→ साँची बौद्ध धर्म की आस्था का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है जो मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 20 मील दूर उत्तर-पूर्व दिशा में साँची कनखेड़ा गाँव की एक पहाड़ी पर स्थित है।
→ 19वीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों ने साँची के स्तूंप में बहुत अधिक रुचि दिखाई।
→ 'फ्रांसीसी तथा अंग्रेज साँची के पूर्वी तोरण द्वार को अपने देश ले जाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से भी अनुमति माँगी। सौभाग्यवश वे इनकी प्लास्टिक प्रतिकृतियों से ही सन्तुष्ट हो गये। इस प्रकार यह मूल कृति भोपाल राज्य में अपने स्थान पर बनी रही।
→ भोपाल के शासकों, शाहजहाँ-बेगम एवं उनकी उत्तराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम, ने इस स्तूप को पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया और इसके रखरखाव, संग्रहालय व अतिथिशाला के निर्माण हेतु पर्याप्त धन का अनुदान दिया।
→ जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सुल्तानजहाँ बेगम को समर्पित किया है।
→ वर्तमान में साँची के स्तूप की देखरेख का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कर रहा है।
→ ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि में ईरान में जरथुस्त्र, चीन में खंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू और भारत में महावीर व बुद्ध जैसे कई अन्य चिन्तकों का उदय हुआ जिन्होंने जीवन के रहस्यों को समझने के साथ-साथ मनुष्यों तथा विश्व व्यवस्था के मध्य सम्बन्धों को समझने का प्रयास भी किया।
→ चिन्तन, धार्मिक विश्वास एवं व्यवहार की कई धाराएँ प्राचीन युग से ही चली आ रही थीं। 1500 से 1000 ई. पू. में संकलित ऋग्वेद से हमें पूर्व वैदिक परम्परा की जानकारी मिलती है।
→ ऋग्वेद अग्नि, इन्द्र, सोम आदि कई देवताओं के स्तुति-सूक्तों का संग्रह है। यज्ञों के समय इन सूक्तों का उच्चारण किया जाता था और लोग मवेशी, पुत्र, स्वास्थ्य एवं लम्बी आयु के लिए इनकी प्रार्थना करते थे।
→ आरम्भ में यज्ञ का विधान सामूहिकं था। राजसूय और अश्वमेध जैसे जटिल यज्ञ सरदार एवं राजाओं द्वारा किए जाते थे। कुछ यज्ञ गृहस्वामियों द्वारा भी किए जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा सम्पादित किए जाते थे।
→ वैदिक परम्परा के ग्रन्थ उपनिषद् (छठी शताब्दी ई. पू.से) नये प्रश्नों के भण्डार हैं जिनमें समाहित दार्शनिक विचारधाराओं और नये प्रश्नों (जैसे-जीवन का अर्थ क्या है ? मृत्यु के पश्चात् जीवन, पुनर्जन्म और अतीत का सम्बन्ध आदि के बारे में) ने लोगों में उत्सुकता उत्पन्न की। विचारक परम सत्य की खोज में प्रयासरत थे।
→ समकालीन बौद्ध ग्रन्थों में हमें 64 सम्प्रदायों या चिन्तन परम्पराओं का उल्लेख मिलता है जिनसे हमें जीवन्त चर्चाओं एवं विवादों की एक झाँकी मिलती है। प्रचारक स्थान-स्थान पर घूमकर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपने ज्ञान को लेकर एक-दूसरे से एवं सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते रहते थे।
→ महावीर एवं बुद्ध सहित कई विचारकों ने वेदों के प्रभुत्व पर प्रश्न उठाया और कहा कि जीवन के दुःखों से मुक्ति का प्रयास प्रत्येक व्यक्ति स्वयं कर सकता है।
→ बुद्ध के जीवनकाल में उनके किसी भी संभाषण को नहीं लिखा गया था। उनके शिष्यों ने उनकी मृत्यु के बाद (पाँचवीं-चौथी सदी ई. पू.) 'ज्येष्ठों या अधिक वरिष्ठ श्रमणों की एक सभा का वेसली (बिहार स्थित वैशाली का पालि भाषा में रूप) में आयोजन किया तथा उनकी शिक्षाओं का संकलन किया जिन्हें 'त्रिपिटक' कहा जाता था।
→ "विनय पिटक' में संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले लोगों के लिए नियमों का संग्रह था। 'सुत्त पिटक' में बुद्ध की शिक्षाओं तथा अभिधम्म पिटक' में दर्शन से जुड़े विषयों को संकलित किया गया।
→ बौद्ध धर्म के पूर्व एशिया में फैलने पर फा-शिएन व श्वैन त्सांग (ह्वेनसांग) जैसे चीनी तीर्थयात्री बौद्ध ग्रन्थों की खोज में भारत · आए। ये इन ग्रन्थों को अपने देश ले गए जहाँ विद्वानों ने इनका अपनी भाषा में अनुवाद किया।
→ जैन धर्म के मूल सिद्धान्त छठी शताब्दी ई. पू. में वर्धमान महावीर के जन्म से पहले ही उत्तर भारत में प्रचलित थे। जैन धर्म की परम्परा के अनुसार महावीर से पहले 23 शिक्षक हो चुके थे जिन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। जैन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि समस्त विश्व सजीव है। यह माना जाता है कि पत्थर, चट्टान एवं जल में भी जीवन होता है। जीवों के प्रति अहिंसा (विशेषकर मनुष्यों, पशुओं, पेड़-पौधों एवं कीड़े-मकोड़ों को न मारना) जैन-दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है।
→ जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त ने सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन परम्परा को प्रभावित किया है।
→ जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म के द्वारा निर्धारित होता है।
→ हत्या न करना, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य (अमृष) का पालन करना पाँच व्रत थे जिनका अनुसरण जैन साधु व साध्वी करते थे। भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में पायी गयी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि जैन धर्म भारत के कई भागों में फैला हुआ था।
→ बौद्धों की तरह ही जैन विद्वानों ने भी प्राकृत, संस्कृत, तमिल जैसी अनेक भाषाओं में विस्तृत साहित्य का सृजन किया।
→ शाक्य कबीले के सरदार के बेटे सिद्धार्थ (बुद्ध के बचपन का नाम) ने बौद्ध धर्म की स्थापना की।
→ बुद्ध अपने समय के सबसे प्रभावशाली उपदेशकों में से एक थे जिनके सन्देश भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ मध्य एशिया होते हुए चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैण्ड एवं इंडोनेशिया तक फैले।
→ बुद्ध ने सत्य की खोज के लिए संन्यास का मार्ग अपनाया तथा साधना के कई मार्गों का अन्वेषण किया। ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें बुद्ध अथवा ज्ञानी व्यक्ति के नाम से जाना गया।
→ बुद्ध की शिक्षाओं को 'सुत्त पिटक' में दी गई कहानियों के आधार पर पुनर्निर्मित किया गया है।
→ बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है, यह निरन्तर परिवर्तनशील है। इस क्षणभंगुर संसार में दुख मनुष्य के जीवन का अन्तर्निहित तत्व है।
→ बुद्ध का मत था कि समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया था, न कि ईश्वर ने। इसलिए उन्होंने कहा कि शासकों और गृहपतियों को दयावान व आचारवान बनना चाहिए। ऐसा माना जाता था कि व्यक्तिगत प्रयासों से सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किया जा सकता है।
→ बुद्ध ने अपने शिष्यों के लिए एक संघ की स्थापना की। यह ऐसे भिक्षुओं की एक संस्था थी, जो धम्म के शिक्षक बन गए थे। ये भिक्षु सादा जीवन बिताते थे। चूँकि ये दान पर निर्भर थे इसलिए इन्हें 'भिक्खु' कहा जाता था। आरम्भ में केवल पुरुष ही संघ में सम्मिलित हो सकते थे, परन्तु बाद में स्त्रियों को भी संघ में सम्मिलित होने की अनुमति प्रदान कर दी गयीं।
→ बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार गौतम बुद्ध के शिष्य आनन्द ने बुद्ध को समझाकर स्त्रियों के संघ में प्रवेश की अनुमति प्राप्त की थी। संघ में आने वाली पहली भिक्खुनी बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गौतमी थीं।
→ गौतम बुद्ध के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से सम्बन्ध रखते थे जिनमें राजा, धनिक, गृहपति, साधारण लोग; जैसे- कर्मकार, दास, शिल्पी आदि सम्मिलित थे।
→ एक बार संघ में सम्मिलित हो जाने पर सभी का दर्जा समान माना जाता था क्योंकि भिक्खु और भिक्खुनी बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान को त्याग देना पड़ता था। समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असन्तुष्टि के कारण बुद्ध के जीवन-काल एवं उनकी मृत्यु के पश्चात् भी बौद्ध धर्म का तीव्र गति से प्रचार हुआ।
→ थेरीगाथा बौद्ध ग्रन्थ सुत्त-पिटक का एक भाग है जिसमें भिक्खुनियों द्वारा रचित छन्दों का संकलन किया गया है।
→ विनय पिटक में भिक्खु एवं भिक्खुनियों के लिए नियम मिलते हैं। बौद्ध साहित्य में कई चैत्यों का उल्लेख मिलता है।
→ बौद्ध साहित्य में बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थानों का भी वर्णन है जहाँ वे जन्मे (लुम्बिनी), जहाँ उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया (बोधगया), जहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश दिया (सारनाथ) तथा जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया (कुशीनगर)।
→ ऐसे कई अन्य स्थान हैं जिन्हें पवित्र माना जाता है। इन स्थानों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष, जैसे-उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाढ़ दिए गए थे। इन टीलों को स्तूप कहा जाता है। स्तूप बनाने की परम्परा बुद्ध से पहले रही होगी, परन्तु यह बौद्ध धर्म के साथ जुड़ गयी।
→ स्तूपों में पवित्र अवशेष होने क्ले कारण समूचे स्तूप को बौद्ध धर्म और बुद्ध के प्रतीक के रूप में माना जाता था।
→ 'अशोकावदान' नामक एक बौद्ध ग्रन्थ से पता चलता है कि अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बाँट कर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश पारित किया था।
→ स्तूप को बनाने व सजाने के लिए दिए गए दान की जानकारी इनकी वेदिकाओं तथा स्तम्भों पर मिले अभिलेखों पर मिलती है।
→ स्तूप का जन्म एक गोलाई लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ जिसे बाद में अंड' कहा गया। इसके ऊपर छज्जे जैसी संरचना हर्मिका' होती थी जो देवताओं के घर का प्रतीक थी। हर्मिका से एक मस्तूल (जिसे 'यष्टि' कहा जाता था) निकलता था जिस पर प्रायः एक - छत्री लगी होती थी। टीले के चारों ओर लगी वेदिका पवित्र स्थल को आम दुनिया से अलग करती थी।
→ साँची तथा भरहुत के प्रारंभिक स्तूप बिना अलंकरण के बने हुए हैं जिनमें केवल पत्थर की वेदिकाएँ एवं तोरणद्वार हैं।
→ स्तूपों की खोज का भी एक इतिहास है। अमरावती के स्तूप की खोज अचानक हुई। 1796 ई. में एक स्थानीय राना मन्दिर बनाना चाहता था। अचानक उन्हें अमरावती के स्तूप. के अवशेष मिल गये।
→ आंध्र प्रदेश के गुंटूर के कमिश्नर एलियट ने जिज्ञासावश 1854 ई. में अमरावती की यात्रा की। वह यहाँ से कई मूर्तियों व उत्कीर्ण पत्थरों को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) ले गया। उसने स्तूप के पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोज निकाला। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल एवं शानदार स्तूप था।
→ पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल ने अमरावती के स्तूप को बचाने का भरसक प्रयास किया लेकिन वह इस स्तूप को नष्ट होने से नहीं बचा सके।
→ 1818 ई. में साँची के स्तूप की खोज हुई उस समय तक भी इसके तीन तोरणद्वार खड़े थे एवं चौथा द्वार वहीं पर गिरा हुआ था तथा टीला भी अच्छी हालत में था।
→ बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए कला इतिहासकारों को बुद्ध के चरित लेखन का सहारा लेना पड़ा।
→ साँची से प्राप्त उत्कीर्णित अनेक मूर्तियों के अध्ययन द्वारा विद्वानों ने लोक-परम्पराओं को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया है।
→ साँची के स्तूप में उत्कीर्णित 'शालभंजिका' की मूर्ति के बारे में लोक-परम्परा के अनुसार यह माना जाता है कि इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे एवं फल आने लगते थे।
→ साँची में जानवरों के कुछ बहुत सुन्दर उत्कीर्णन पाए गए हैं जिनमें हाथी, घोड़े, बन्दर एवं गाय-बैल आदि सम्मिलित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन जानवरों का उत्कीर्णन लोगों को आकर्षित करने के लिए किया गया था।
→ प्रारम्भ में महात्मा बुद्ध को भी एक साधारण मानव समझा गया लेकिन धीरे-धीरे एक मुक्तिदाता के रूप में बुद्ध की कल्पना उभरने लगी। यह विश्वास किया जाने लगा कि वे सांसारिक लोगों को मुक्ति प्रदान करने में सक्षम हैं। साथ ही साथ बोधिसत्त की अवधारणा भी उभरने लगी तथा बुद्ध और बोधिसत्तों की मूर्तियों की पूजा होने लगी। बौद्ध चिन्तन की इस परम्परा को 'महायान' के नाम से जाना गया। जिन लोगों ने इन विश्वासों को अपनाया उन्होंने पुरानी परम्परा को हीनयान' नाम से सम्बोधित किया।
→ पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय एक मुक्तिदाता की कल्पना के रूप में हुआ। हिन्दू धर्म में दो परम्पराएँ सम्मिलित थी वैष्णव व शैव।
→ वैष्णव परम्परा में विष्णु को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना गया, जबकि शैव संकल्पना में शिव परमेश्वर हैं। वैष्णव और शैव मत में देवता की पूजा-आराधना में भक्त और भगवान के मध्य प्रेम और समर्पण का सम्बन्ध माना जाता था, जिसे हम भक्ति भी कह सकते हैं।
→ वैष्णववाद में कई अवतारों के आसपास पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। इस परम्परा में दस अवतारों की रचना की गयी है। यह माना जाता था कि संसार में पापों के बढ़ने पर अव्यवस्था और विनाश की स्थिति आ जाती है। तब संसार की रक्षा हेतु भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेते हैं।
→ हिन्दू धर्म में कई अवतारों एवं देवताओं को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया है। शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में दर्शाया गया है, लेकिन उन्हें कई बार मानव के रूप में भी दिखाया गया है। प्रथम सहस्राब्दि के मध्य ब्राह्मणों ने पुराणों की रचना की। सामान्यतः संस्कृत श्लोकों में लिखे गए पुराणों को ऊँची आवाज में पढ़ा जाता था जिन्हें कोई भी सुन सकता था। यहाँ तक कि महिलाएँ व शूद्र (जिन्हें वैदिक साहित्य पढ़ने-सुनने की अनुमति नहीं थी) भी इन्हें सुन सकते थे।
→ देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए मन्दिरों का भी निर्माण किया जाने लगा। आरंभिक मन्दिर एक चौकोर कमरे के रूप में होते थे जिसे 'गर्भगृह' कहा जाता था। इसमें एक दरवाजा होता था जिसमें से होकर भक्तजन मूर्ति की पूजा करने के लिए अन्दर जा सकते थे। धीरे-धीरे मन्दिर स्थापत्य कला के विकसित होने पर गर्भगृह के ऊपर गुम्बद के आकार की एक संरचना निर्मित होने · लगी जिसे 'शिखर' कहा जाता था।
→ कुछ प्रारंभिक मन्दिरों का निर्माण पहाड़ियों को काटकर उन्हें खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में किया गया। कृत्रिम गुफाएँ बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। सबसे प्राचीन गुफाएँ सम्राट अशोक के आदेश से तीसरी शताब्दी ई. पू. में आजीवक सम्प्रदाय के सन्तों के लिए बनाई गयी थीं।
→ कृत्रिम गुफा निर्माण की परम्परा अलग-अलग चरणों में विकसित होती रही। जिसका सबसे विकसित रूप हमें आठवीं शताब्दी के कैलाशनाथ मन्दिर (एलोरा, महाराष्ट्र) में दिखाई देता है। इसमें सम्पूर्ण पहाड़ी को काटकर उसे मन्दिर का रूप दिया गया था।
→ 19वीं शताब्दी में जब यूरोपीय विद्वानों ने देवी-देवताओं की कई सिरों, कई हाथों वाली या मनुष्यों और जानवरों को मिलाकर बनाई गई मूर्तियों को देखा तो वे उन्हें विचित्र लगीं, लेकिन वे बुद्ध और बोधिसत्त की मूर्तियों को देखकर बहुत उत्साहित हुए। ये मूर्तियाँ यूनानी मूर्तियों से साम्यता रखती थीं।
→ यूरोपीय विद्वानों ने बुद्ध एवं बोधिसत्त की मूर्तियों को 'भारतीय मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना' घोषित किया।
→ किसी मूर्ति का महत्व एवं सन्दर्भ समझने के लिए कला के इतिहासकार प्रायः लिखित ग्रन्थों से जानकारी एकत्रित करते हैं। भारतीय मूर्तियों को समझने के लिए यूनानी मूर्तियों से उनकी तुलना करने की अपेक्षा यह निश्चित रूप से एक अच्छा तरीका है परन्तु यह तरीका आसान नहीं है।
→ विभिन्न इतिहासकारों ने तमिलनाडु के महाबलीपुरम् में एक विशाल चट्टान पर उत्कीर्ण मूर्तियों के सजीव चित्रण को पौराणिक साहित्य के द्वारा समझने के काफी प्रयास किए लेकिन वे किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके।
→ स्तूप - स्तूप बौद्ध धर्म से जुड़े पवित्र टीले है जिनमें बुद्ध के शरीर के कुछ अवशेष (जैसेउनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं) को गाढ़ा गया था। स्तूप का संस्कृत में अर्थ'टीला' है।
→ ऋग्वेद - सबसे प्राचीन वेद जो पद्य में लिखित है। अन्य वेद हैं यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद।
→ अग्नि - ऋग्वैदिक काल में देवताओं एवं मनुष्यों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला देवता।
→ इन्द्र - ऋग्वैदिककालीन युद्ध का नेता एवं वर्षा का देवता।
→ सोम - ऋग्वैदिककालीन वनस्पति देवता।
→ राजसूय यज्ञ - उत्तरवैदिक काल में राजा के राज्याभिषेक के समय किया जाने वाला अनुष्ठान जिसमें राजा रथों की दौड़ में भाग लेता था तथा यह आशा की जाती थी कि राजा का रथ सबसे आगे होगा।
→ अश्वमेध यज्ञ - उत्तर वैदिक काल में राजा व सरदारों द्वारा किये जाने वाला अनुष्ठान जिसमें राजा एक घोड़ा छोड़ता था जो जहाँ-जहाँ जाता था वह क्षेत्र राजा के अधिकार क्षेत्र में माना जाता था तथा जो शासक यज्ञ के घोड़े को पकड़ लेता था उसे यज्ञ करने वाले राजा से युद्ध करना होता था। यज्ञ की समाप्ति के उपरान्त राजा स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करता था।
→ सम्प्रदाय - किसी विषय या सिद्धान्त के सम्बन्ध में एक ही विचार या मत रखने वाले लोगों का समूह, वर्ग या शाखा।
→ ब्राह्मणवाद - एक प्रकार की प्राचीन विचारधारा जिसके अनुसार किसी व्यक्ति का अस्तित्व उसकी जाति और लिंग से निर्धारित होता है।
→ जातक - महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कहानियों का संग्रह जिनकी कुल संख्या 550 के लगभग है।
→ त्रिपिटक - तीन बौद्ध ग्रन्थ जिन्हें पिटकों की टोकरी कहा जाता है, निम्न हैं विनयपिटक (संघ के नियमों से सम्बन्धित) सुत्तपिटक (बुद्ध की शिक्षाओं का विवरण) • अभिधम्मपिटक (बौद्ध दर्शन का विवरण)
→ दीपवंश - इसका अर्थ है-दीपों का इतिहास। यह एक सिंहली बौद्ध ग्रन्थ है। आरंभिक काल में बौद्ध धर्म जब श्रीलंका में प्रसारित हुआ उस समय इसकी रचना हुई थी।
→ महावंश - महावंश का शाब्दिक अर्थ है महान इतिहास। यह भी एक सिंहली बौद्ध ग्रन्थ है। इसके अनेक विवरण महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित हैं।
→ नियतिवादी - बौद्ध धर्म से सम्बन्धित आजीवक परम्परा के लोग जिनके अनुसार जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित है। इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
→ भौतिकवादी - लोकायत परम्परा के वे लोग जो दान, दक्षिणा, चढ़ावा आदि देने को खोखला, झूठ एवं मूों का सिद्धान्त मानते थे। वे जीवन का भरपूर आनन्द लेने में विश्वास करते थे।
→ लोकायत - बौद्ध धर्म से सम्बन्धित वह धार्मिक सम्प्रदाय जो अपने उपदेश गद्य में देते हैं। इन्हें भौतिकवादी भी कहा जाता है।
→ तीर्थकर - जैन परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी से पहले 23 शिक्षक हो चुके थे जिन्हें तीर्थकर कहा जाता है। इसका अर्थ है-वे महापुरुष जो पुरुषों और महिलाओं को नदी पार पहुंचाते हैं।
→ अमृषा - अर्थात् ब्रह्मचर्य। मनुष्य को विषय-वासनाओं से दूर रहना चाहिये।
→ विहार - बौद्ध भिक्षुओं के रहने का स्थान (मठ)।
→ संतचरित्र - यह किसी सन्त या धार्मिक नेता की जीवनी है। इस प्रकार के संतचरित्र सन्त की उपलब्धियों का गुणगान करते हैं जो तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह सही नहीं होते।
→ संघ - धम्म के शिक्षक बने भिक्षुओं के लिए बुद्ध द्वारा स्थापित संस्था जिसे मठ भी कहा जाता था।
→ धम्म - बौद्ध धर्म में इसका अर्थ है-बुद्ध की शिक्षाएँ।
→ भिक्खु - बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये जिन्होंने संन्यास ग्रहण किया, उन्हें भिक्षु या भिक्षुक कहा जाता है। ये दान पर निर्भर थे।
→ भिक्खुनी - बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए संन्यास ग्रहण करने वाली महिलाएँ।
→ थेरी -बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ऐसी महिलाएं जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो।
→ थेरीगाथा - थेरीगाथा बौद्ध ग्रन्थ 'सुत्तपिटक' का भाग है जिसमें भिक्खुणियों द्वारा रचित छन्दों का संकलन किया गया है। इससे उस युग की महिलाओं के सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
→ निर्वाण (निब्बान) - आत्मा का ज्ञान। बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। निर्वाण प्राप्ति से उनका अभिप्राय सच्चे ज्ञान से है। जो व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर लेता है वह जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
→ अहिंसा - बुद्ध के अनुसार मनुष्य को मन, वचन, कर्म से किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है।
→ सम्यक् - उपासना अथवा स्तुत्ति की विधि।
→ चैत्य - शवदाह के पश्चात् बौद्धों के शरीर के कुछ अवशेष टीलों में सुरक्षित रख दिए जाते थे। अन्तिम संस्कार से जुड़े इन तरीकों को चैत्य कहा जाता था।
→ अंड - स्तूप का जन्म एक गोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ है; जिसे बाद में अंड कहा गया।
→ दानात्मक अभिलेख - धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण रखने वाले अभिलेख। उदाहरण—साँची का दानात्मक अभिलेख।
→ महापरिनिर्वाण - 483 ई. पू. बुद्ध ने 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर (देवरिया, उत्तर प्रदेश) में अपने शरीर का त्याग किया जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा गया है।
→ शालभंजिका - लोक परम्परा के अनुसार इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे और वृक्ष फल देने लगते हैं। साँची में इसकी मूर्तियाँ मिली हैं।
→ उपनिषद् - जीवन, मृत्यु एवं पारब्रह्म से सम्बन्धित गहन विचारों वाले ग्रन्थ जिनमें आर्यों की दार्शनिक विचारधारा का भी विवरण मिलता है।
→ हीनयान - बौद्ध धर्म की प्राचीन शाखा जिसके अनुयायी न तो देवताओं में विश्वास रखते थे और न ही बुद्ध को देवता मानते थे। वे बुद्ध को मनुष्य मानते थे, जिसने व्यक्तिगत प्रयास से प्रबोधन व निर्वाण प्राप्त किया था।
→ महायान - बौद्ध धर्म की वह नयी परम्परा जिसके अनुयायी बुद्ध को देवता मानते थे तथा उनकी मूर्ति की पूजा करते थे। इस शाखा की हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों से समानता है।
→ बोधिसत्त - बौद्ध धर्म की हीनयान परम्परा में बोधिसत्त को एक दयावान जीव माना गया जो सत्कर्मों से पुण्य कमाते थे, परन्तु वे इस पुण्य का प्रयोग संन्यास लेकर निर्वाण प्राप्त करने के लिए नहीं करते अपितु वे इससे दूसरों की सहायता करते थे।
→ वैष्णव धर्म - भगवान विष्णु की पूजा करने वालों को वैष्णव एवं विष्णु से सम्बन्धित धर्म को वैष्णव धर्म कहा गया है।
→ शैव धर्म - भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव एवं शिव से सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा गया है।
→ अवतार - ईश्वर या किसी परम सर्वोच्च देव का मनुष्य रूप में संसार के लोगों के कल्याण के लिए जन्म लेना अवतार कहलाता है।
→ भक्ति - जिस आराधना में उपासना और ईश्वर के मध्य का रिश्ता प्रेम का रिश्ता माना जाता है उसे भक्ति कहते हैं।
→ गर्भ गृह - यह एक प्रकार का चौकोर कमरा (मन्दिर) था जिसमें देव माता ची जाती थी। उपासक वहीं बैठकर मूर्ति की पूजा करता था।
→ शिखर - गर्भगृह के ऊपर बना एक ऊँचा ढाँचा। इस प्रकार के शिखर : दक्षिण भारत के मन्दिरों में अधिक देखने को मिलते हैं जिसमें मन्दिरों की मीनर पर्वत यौटियों की भाँति ऊपर की ओर संकरी होती जाती हैं अर्थात् ऊपर की ओर उत्तरोत्तर पगलाई कम होती जाती हैं।
→ (अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ )
काल तथा कालावधि |
घटना/विवरण |
1. लगभग 1500-1000 ई. पू. |
ऋग्वेद का रचनाकाल, प्रारंभिक वैदिक परम्परा। |
2 लगभग 1000-600 ई. पू. |
तीन अन्य वेद तथा अन्य वैदिक साहित्यों का रचनाकाल, उत्तर वैदिक परम्पराएँ। नवीन क्रान्तिकारी विचारों तथा धार्मिक, दार्शनिक आन्दोलनों का काल। |
3. 600 ई. पू. से 600 ई. तक |
प्रारंभिक उपनिषद्, जैन तथा बौद्ध धर्म। |
4. 563 ई. पू. |
महात्मा बुद्ध का लुम्बिनी (कपिलवस्तु) में जन्म। |
5. 540 ई. पू. |
24वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी का कुण्डग्राम (वैशाली) में जन्म। |
6. 487 ई. पू. |
महात्मा बुद्ध की मृत्यु जिसे बौद्ध धर्म में निब्बान (महापरिनिर्वाण) कहा गया। |
7. 468 ई. पू. |
महावीर स्वामी की मृत्यु जिसे जैन धर्म में निर्वाण कहा गया। |
8. लगभग तीसरी शताब्दी ई. पू. |
स्तूप निर्माण काल का आरम्भ |
9. लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पू. से आगे |
महायान बौद्ध मत का विकास, वैष्णववाद, शैववाद् तथा देवी पूजन परम्पराओं का आरम्भ। |
10. लगभग तृतीय शताब्दी ईसवी |
सबसे पुराने मंदिर। |
→ कालरेखा-2 (प्राचीन इमारतों और मूर्तियों की खोज तथा संरक्षण के महत्वपूर्ण चरण)
म्नीसवीं शताब्दी की घटनाएं |
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11. 1814ई. |
कलकत्ता में इण्डियन म्यूजियम की स्थापना। |
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12. 1834 ई . |
रामराजा द्वारा लिखित एसेज ऑन दि आर्किटेक्चर ऑफ द हिन्दूज का प्रकाशन; कनिंघम ने सारनाथ के स्तूप की छानबीन आरम्भ की। |
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13. 18351842 ई. |
जेम्स फर्गुसन ने महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों का सर्वेक्षण किया। |
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14. 1851 ई. |
मद्रास (चेन्नई) में गवर्नमेण्ट म्यूजियम की स्थापना। |
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15. 1854ई |
अलेक्जैण्डर कनिंघम ने भिलसा टोप्स लिखी जो साँची पर लिखी गयी सबसे आरंभिक पुस्तकों में से एक है। |
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16. 1878 ई. |
राजेन्द्र लाल मित्र की पुस्तक–बुद्ध गया : द हेरिटेज ऑफ शाक्य मुनि का प्रकाशन। |
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17. 1880ई |
एच. एच. कोल को प्राचीन इमारतों का संग्रहाध्यक्ष बनाया गया। |
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18. 1888 ई |
ट्रेजर ट्रोव अधिनियम बनाया गया, इसके अनुसार सरकार पुरातात्त्विक महत्व की किसी भी वस्तु को हस्तगत कर सकती थी। |
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बीसवीं शताब्दी की घटनाएं |
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19. 1914 ई. |
जॉन मार्शल तथा अल्फ्रेड फूसे की 'द मॉन्युमेण्ट्स ऑफ साँची' पुस्तक का प्रकाशन । |
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20. 1923 ई. |
जॉन मार्शल की पुस्तक 'कंजर्वेशन मैनुअल' का प्रकाशन । |
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21. 1955 ई. |
नयी दिल्ली में प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय संग्रहालय की नींव रखी। |
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22. 1989 |
साँची के स्तूप को एक विश्व कलादाय स्थान घोषित किया गया। |
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