These comprehensive RBSE Class 12 History Notes Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ will give a brief overview of all the concepts.
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→ सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात् लगभग 1500 वर्षों के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में विविध प्रकार के विकास हुए; जिनमें ऋग्वेद का लेखन कार्य, कृषक बस्तियों का विकास, शवों के अन्तिम संस्कार के नए तरीके, नए नगरों का उदय आदि प्रमुख हैं।
→ ऋग्वेद का लेखन सिन्धु नदी तथा इसकी उप-नदियों के किनारे रहने वाले लोगों द्वारा किया गया; कृषक बस्तियों का विकास उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र तथा कर्नाटक जैसे उपमहाद्वीप के कई क्षेत्रों में हुआ। (दक्कन तथा दक्षिण भारत के क्षेत्रों में चरवाहों की. बस्तियाँ होने के भी प्रमाण मिले हैं।
→ शवों के अन्तिम संस्कार के नए तरीके पहली सहस्राब्दि ई. पू. के दौरान मध्य तथा दक्षिण भारत में सामने आए। इन तरीकों में महापाषाण के नाम से प्रसिद्ध पत्थरों के विशाल ढाँचे भी सम्मिलित थे। कुछ स्थानों पर विभिन्न प्रकार के लोहे से निर्मित उपकरण तथा हथियार भी शवों के साथ मिले हैं।
→ छठी शताब्दी ई. पू. से आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों तथा रजवाड़ों के विकास के साथ नए परिवर्तनों के साक्ष्य मिलते हैं। इस दौरान लगभग समस्त महाद्वीप में नए नगरों का विकास हुआ।
→ इतिहासकार विभिन्न प्रकार के विकास का आकलन करने के लिए अभिलेखों, ग्रन्थों, सिक्कों एवं चित्रों जैसे स्रोतों का अध्ययन करते हैं।
अभिलेख |
पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी क र सतह पर खुदे हुए लेखों को अभिलेख कहते हैं। अभिलेख का अर्थ होता है-श्रेष्ठ लिखित रचना। अभिलेख किसी जानकार को लम्बे समय तक लिखित रूप में सुरक्षित रखे जाने के लिए बनाए जाते हैं। अभिलेखों में इन्हें बनवाने वाले लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं। इनमें राजाओं के क्रियाकलाप और महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्यौरा होता है। इस प्रकार अभिलेख एक तरह से स्थायी प्रमाण होते हैं। बहुत-से अभिलेखों में इनके निर्माण की तिथि भी खुदी हुई मिलती है, वहीं ऐसे अभिलेख ज़िन पर तिथि का वर्णन नहीं मिलता है, उनका काल निर्धारण प्रायः पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर करते हैं। उदाहरणार्थ, लगभग 250 ई.पू. में अक्षर 'अ' को ऐसे लिखा जाता था और 500 ई. में यह ऐसे लिखा जाता था। |
प्राचीनतम अभिलेखों की भाषा प्राकृत थी जिसे जनसामान्य की भाषा कहा जाता था। प्राकृत भाषा में अजातशत्रु व अशोक जैसे शासकों के नाम प्राकृत अभिलेखों में क्रमशः अजातसत्तु व असोक लिखे मिलते हैं। इसके अलावा तमिल, पालि और संस्कृत जैसी भाषाओं में भी अभिलेख मिलते हैं। सम्भवतः लोग अन्य भाषाएँ भी बोलते थे लेकिन इन भाषाओं का उपयोग लेखन कार्य | में नहीं होता था। |
→ बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अशोक मौर्य वंश के सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था। . सम्राट अशोक के अभिलेख मुख्य रूप से ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपियों में मिले हैं।
→ सबसे आरंभिक अभिलेखों तथा सिक्कों में उपयोग की गई इन लिपियों को 1830 के दशक में सर्वप्रथम ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा जिससे आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को एक नई दिशा मिली।
→ प्रिंसेप के अनुसार ज्यादातर अभिलेखों तथा सिक्कों पर पियदस्सी (मनोहर मुख के आकृति वाला राजा) नाम खुदा था, जबकि कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम अशोक भी खुदा था।
→ भारतीय एवं यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखित ग्रन्थों एवं अभिलेखों का अवलोकन किया।
→ आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. को एक महत्वपूर्ण परिवर्तन काल माना जाता है। इस काल को प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग व सिक्कों के विकास के साथ सम्बन्धित किया जाता है।
→ इसी काल में बौद्ध एवं जैन धर्म सहित विभिन्न प्रकार की दार्शनिक विचारधाराओं का उद्गम एवं विकास हुआ।
→ बौद्ध एवं जैन धर्म के आरंभिक ग्रन्थों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का वर्णन मिलता है। यद्यपि इन ग्रन्थों में इन महाजनपदों के नाम एकसमान नहीं हैं लेकिन वज्जि, मगध, कोशल, पांचाल, गांधार, कुरु व अवंति जैसे महाजनपदों (राज्यों) के नाम प्रायः एकसमान मिलते हैं।
→ अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था, लेकिन अनेक राज्यों, जो गण और संघ के नाम से जाने जाते थे, में कई लोगों का समूह शासन करता था जिसका प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था।
→ भगवान बुद्ध (शाक्य कुल) तथा भगवान महावीर (वज्जि संघ) इन्हीं गणों से संबद्ध थे।
→ वज्जि संघ सहित अनेक राज्यों में राजा गण भूमि सहित बहुत-से आर्थिक स्रोतों पर सामूहिक नियंत्रण रखते थे। लगभग एक हजार वर्ष तक अस्तित्व में रहे इन राज्यों का इतिहास स्रोतों के अभाव में पूर्णतः लिपिबद्ध नहीं किया गया।
→ हर जनपद की एक राजधानी होती थी जो आमतौर पर किलेबद्ध होती थी। इनके रख-रखाव तथा प्रारंभी सेनाओं एवं नौकरशाही हेतु भारी आर्थिक स्रोत की जरूरत होती थी।
→ ब्राह्मणों ने लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से संस्कृत भाषा में धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थों की रचना करना शुरू किया जिनमें शासक सहित अन्य सभी के लिए नियम निर्धारित किए गए। शासक मुख्यतः क्षत्रिय वर्ग से ही होते थे जिनका मुख्य काम किसानों, व्यापारियों एवं शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना था। पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर धन एकत्रित करना संपत्ति संचय करने का एक अन्य वैध तरीका था।
→ समयानुसार बहुत-से राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाओं के साथ-साथ नौकरशाही तंत्र भी तैयार किया, जबकि अन्य राज्य अब भी सहायक सेना पर निर्भर थे। यह सेना आमतौर पर कृषक वर्ग से तैयार की जाती थी।
→ छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध (वर्तमान बिहार) का एक सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उदय हुआ जिसके पीछे कई कारण थे, जिनमें खेती की अच्छी उपज का होना, लोहे के विशाल भण्डार, हाथियों की उपलब्धता, सस्ता व सुलभ आवागमन, राजाओं की महत्वाकांक्षा आदि प्रमुख हैं।
→ आरंभिक जैन एवं बौद्ध लेखकों के अनुसार बिंबिसार, अजातशत्रु व महापद्मनंद जैसे प्रसिद्ध राजा बड़े महत्वाकांक्षी शासक थे जिनकी नीतियाँ इनके मंत्रियों द्वारा लागू की जाती थी।
→ राजगाह (वर्तमान बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम जिसका शाब्दिक अर्थ है-राजाओं का घर) मगध की प्रारंभिक राजधानी थी जो पहाड़ियों के बीच बसा एक किलेबंद शहर था। इसके बाद चौथी शताब्दी ई. पू. में पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) मगध की राजधानी बनी जो गंगा के किनारे अवस्थित थी।
→ लगभग 321 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य वंश की स्थापना की जिसका राज्य पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान एवं बलूचिस्तान तक फैला हुआ था।
→ मौर्य वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक अशोक था जिसने कलिंग (वर्तमान ओडिशा) पर विजय प्राप्त की थी।
→ इतिहासकारों ने पुरातात्विक साक्ष्य (मुख्यतः मूर्तिकला) सहित विभिन्न प्रकार के स्रोतों का उपयोग कर मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना की। इसके अतिरिक्त समकालीन रचनाएँ (जैसे-चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत (यात्री) मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया विवरण) भी मौर्यकालीन इतिहास के पुनर्निर्माण में मूल्यवान सिद्ध हुई हैं। साथ ही चन्द्रगुप्त के मंत्री कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित पुस्तक 'अर्थशास्त्र' भी इस साम्राज्य की जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत है।
→ परवर्ती जैन, बौद्ध तथा पौराणिक ग्रन्थों व संस्कृत वाङ्मय में भी मौर्य शासकों का वर्णन मिलता है लेकिन अशोक के अभिलेखों, जो पत्थरों व स्तम्भों पर मिले हैं, को आमतौर पर सबसे मूल्यवान स्रोत माना जाता है।
→ अशोक प्रथम शासक था जिसने अपने अधिकारियों एवं प्रजा के लिए सन्देश पत्थरों एवं पॉलिश किए हुए स्तम्भों पर लिखवाए थे। अशोक के अधिकतर अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं जो मुख्यतः ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे। वहीं पश्चिमोत्तर से मिले अधिकतर अभिलेख अरामेइक यूनानी भाषा में हैं जो खरोष्ठी लिपि में लिखे गए थे। .
→ अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से 'धम्म' (अशोक के आचार-विचार) का प्रचार किया। इसके अतिरिक्त धम्म के प्रचार हेतु धम्म महामात्य नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गयी।
→ धम्म के प्रमुख सिद्धान्त थे-बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों व दासों के साथ उदार व्यवहार तथा अन्य धर्मों व परम्पराओं के प्रति आदर।
→ मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे-राजधानी पाटलिपुत्र एवं चार प्रान्तीय केन्द्र तक्षशिला, उज्जयिनी, होयसल व सुवर्णगिरि। अशोक के अभिलेखों में इन सभी का उल्लेख मिलता है।
→ तक्षशिला व उज्जयिनी दोनों लम्बी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर अवस्थित थे, जबकि सुवर्णगिरि (शाब्दिक अर्थ-सोने के पहाड़) कर्नाटक में सोने की खदान हेतु उपयोगी था।
→ यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासनकाल में सैनिक गतिविधियों का संचालन एक समिति एवं छः उप-समितियाँ करती थीं।
→ इन छः उप-समितियों द्वारा किए जाने वाले कार्य क्रमशः थे- नौसेना का संचालन, यातायात व खान-पान का संचालन, पैदल सैनिकों का संचालन, अश्वारोहियों का संचालन, रथारोहियों का संचालन तथा हाथियों का संचालन।
→ उपकरणों को ढोने हेतु बैलगाड़ियों का प्रबन्ध, सैनिकों हेतु भोजन एवं जानवरों हेतु चारे का प्रबन्ध और सैनिकों की देखरेख हेतु सेवकों व शिल्पकारों की नियुक्ति करने जैसे दायित्वों की पूर्ति दूसरी उप-समिति करती थी।
→ इतिहासकारों द्वारा जब भारतीय इतिहास का संकलन 19वीं शताब्दी से आरम्भ किया गया तो मौर्य साम्राज्य को इसका एक प्रमुख काल माना गया।
→ अशोक की महान उपलब्धियों के कारण उन्नीसवीं व आरंभिक बीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहासकारों के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने भी अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना।
→ मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष तक ही अस्तित्व में रहा इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया था। सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय था जिसका निर्माण मौर्यकाल में एक स्थानीय राज्यपाल ने करवाया था। इसके पश्चात् शक शासक रुद्रदामन ने इस झील की अपने खर्चे से मरम्मत करवाई।
→ दूसरी शताब्दी ई. पू. तक भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक भागों में नए-नए शासक एवं रजवाड़े स्थापित होने लगे थे।
→ उपमहाद्वीप के दक्कन तथा उससे दक्षिण के भाग में स्थित तमिलकम (तमिलनाडुव आंध्रप्रदेश तथा केरल के कछ भाग) में चोल, चेर तथा पाण्ड्य जैसी सरदारियां स्थापित हुई। ये तीनों राज्य अत्यधिक समृद्ध तथा स्थायी सिद्ध हुए।
→ विभिन्न प्रकार के स्रोतों से इन राज्यों की जानकारियां प्राप्त होती है जैसे-प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों में ऐसी कविताएं जो सरदारों - का विवरण देने के साथ ही यह जानकारी भी देती हैं कि उन्होंने अपने स्रोतों का संकलम तथा विवरण कैसे किया।
→ सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत हो भी सकता है तथा महीं भी। उसके समर्थकों में उसके खानदान के लोग होते हैं। उसके कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध का नेतृत्व करना, मध्यस्थता कर विवादों को सुलझाना आदि सम्मिलित हैं। सरदार अपने अधीनस्थों से भेंट स्वीकार करता है (जबकि राजा कर वसूलते हैं) तथा उसे अपने समर्थकों में वितरित करता है।
→ सामान्यतः सरदारी में कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते हैं।
→ बहुत-से सरदार तथा राजा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व एकत्रित करते थे जिनमें मध्य व पश्चिम भारत के भागों पर शासन करने वाले सातवाहन तथा उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर व पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक सम्मिलित थे।
→ उत्तर मौर्यकाल में राजा अपनी उच्च स्थिति को दर्शाने के लिए स्वयं को दैवीय रूप में प्रस्तुत करने लगे। इसी उद्देश्य से मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने अपनी विशालकाय मूर्तियाँ बनवाई एवं अपने नाम के आगे 'देवपुत्र' (संभवतः वे स्वयं को स्वर्गपुत्र कहने वाले चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे) की उपाधि का प्रयोग किया।
→ कुषाण शासकों के इतिहास की रचना अभिलेखों व साहित्य परम्परा द्वारा की गई है।
→ चौथी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य के अलावा कुछ अन्य बड़े साम्राज्यों के साक्ष्य मिलते हैं। गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों, अभिलेखों एवं प्रशस्तियों के आधार पर लिखा गया है।
→ हरिषेण द्वारा संस्कृत में लिखित इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख (प्रयाग-प्रशस्ति) समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का वर्णन करता है।
→ हमें जातक कथाओं एवं पंचतन्त्र जैसे ग्रन्थों से राजा और प्रजा के मध्य सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त होती है। जातक कथाएँ प्रथम सहस्राब्दि ई. के मध्य में पालि भाषा में लिखी गयी थीं जिनसे यह जानकारी मिलती है कि राजा और प्रजा (विशेषकर ग्रामीण प्रजा) के मध्य सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते थे। इसका मुख्य कारण कर की मांग थी।
→ हल का प्रचलन उपज बढ़ाने का एक तरीका था जो गंगा व कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में छठी शताब्दी ई. पू. से ही प्रचलित था। भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों द्वारा उर्वर भूमि की जुताई होने लगी, वहीं गंगा की घाटी में धान की रोपाई के कारण उपज में भारी वृद्धि होने लगी।
→ बीसवीं शताब्दी में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग पंजाब तथा राजस्थान जैसे अर्द्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में शुरू हुआ, जबकि उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर व मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले किसानों ने खेती के लिए कुदाल का उपयोग किया जो कि इन क्षेत्रों में अत्यधिक उपयोगी था।
→ कुओं, तालाबों तथा नहरों द्वारा सिंचाई करना उपज बढ़ाने का एक अन्य तरीका था। व्यक्तिगत लोगों तथा कृषक समुदायों ने संयुक्त रूप से सिंचाई के ये साधन निर्मित किए। प्रायः राजा या प्रभावशाली लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर इन सिंचाई के साधनों को निर्मित किया। इन्होंने अपने इन कार्यों का उल्लेख अपने अभिलेखों में भी करवाया।
→ खेती की नई तकनीकों से उपज में व्यापक वृद्धि हुई, लेकिन खेती से प्राप्त लाभ समान न होने के कारण इससे जुड़े हुए लोगों में भेद बढ़ने लगा।
→ भूमिहीन खेतिहर.श्रमिकों, छोटे किसानों तथा बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख कहानियों (विशेषतः बौद्ध कथाओं) में मिलता है।
→ छोटे किसानों तथा जमींदारों हेतु पालि भाषा में गहपति शब्द का प्रयोग होता था। प्रायः शक्तिशाली माने जाने वाले बड़े-बड़े जमींदार तथा ग्राम प्रधान किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद आमतौर पर वंशानुगत होता था।
→ आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी वेल्लालर (बड़े जमींदार), उल्वर (हलवाहा) तथा अणिमई (दास) जैसे गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है।
→ संभवत: भूमि के स्वामित्व, श्रम तथा नई प्रौद्योगिकी के उपयोग पर वर्गों की यह विभिन्नता आधारित हो। अत: भूमि का स्वामित्व . महत्वपूर्ण हो गया। प्रायः विधि ग्रंथों में इसकी चर्चा की जाती थी।
→ प्राचीन भारत के अनेक अभिलेखों से भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं जो प्रायः राजाओं एवं जमींदारों द्वारा ब्राह्मणों एवं धार्मिक संस्थाओं को दिए जाते थे।
→ आरंभिक भारत के सर्वाधिक प्रतापी शासकों में से एक 'चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ई.) की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह दक्कन पठार के एक महत्वपूर्ण शासक वंश वाकाटक में हुआ था। एक अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि वह भूमि की स्वामी थी तथा उसने दान भी किया था। हालांकि संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार महिलाओं को भूमि जैसी सम्पत्ति पर स्वतंत्र अधिकार प्राप्त नहीं था, लेकिन संभव है कि प्रभावती के रानी होने के कारण यह उदाहरण एक विरला ही रहा हो अथवा यह भी संभव है कि हर स्थान पर धर्मशास्त्रों को समान रूप से लागू न किया जाता हो।
→ अभिलेख से ग्रामीण प्रजा (ब्राह्मण, किसान व अन्य प्रकार के वर्ग) की भी जानकारी मिलती है जो गाँव के नए प्रधान की आज्ञाओं का अनुसरण करती थी तथा संभवतः अपने भुगतान उसे ही देती थी।
→ भूमिदान को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकार भूमिदान को शासकों द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति मानते हैं, जबकि कुछ इतिहासकार इसे दुर्बल होते राजनीतिक प्रभुत्व का संकेत मानते हैं। ऐसे इतिहासकारों का मत है कि जब राजा का शासन सामन्तों पर दुर्बल होने लगा तो उन्होंने भूमिदान द्वारा अपने समर्थकों को एकत्रित करना शुरू किया।
→ भूमिदान के प्रचलन से राज्य एवं कृषकों के मध्य सम्बन्धों की झाँकी देखने को मिलती है, लेकिन पशुपालक, संग्राहक, शिकारी, मछुआरे, शिल्पकार, जगह-जगह घूमकर खेती करने वाले लोग आदि पर अधिकारियों या सामन्तों का नियंत्रण नहीं था। इस तरह के लोग सामान्यतः अपने जीवन के आदान-प्रदान का विवरण नहीं रखते थे।
→ 'मनुस्मृति' आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है जिसकी रचना संस्कृत भाषा में दूसरी शताब्दी ई. पू. एवं दूसरी शताब्दी ई. के मध्य की गई थी।
→ 'हर्षचरित' संस्कृत में लिखी गई कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की जीवनी है जिसके लेखक बाणभट्ट थे जो हर्षवर्धन के राजकवि थे।
→ नगरों का विकास छठी शताब्दी ई. पू. में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ था। नव विकसित अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे हुए थे।
→ कुछ नगर (जैसे-पाटलिपुत्र) नदी मार्ग के किनारे बसे थे, कुछ नगर (जैसे-उज्जयिनी) भूतल मार्गों के किनारे बसे थे, कुछ नगर (जैसे-पुहार) समुद्रतट पर बसे थे। इसके अलावा अनेक शहर (जैसे-मथुरा) व्यावसायिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।
→ पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नामक गाँव से हुआ। पाँचवीं शताब्दी ई.पू. में मगध शासकों ने अपनी राजधानी राजगाह से हटाकर इसे बस्ती में लाने का निर्णय किया तथा इसका नाम परिवर्तित कर दिया। चौथी शताब्दी ई. पू. तक आते-आते यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी बनने के साथ ही यह एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया। बाद में धीरे-धीरे इसका महत्व कम होता गया तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग सातवीं शताब्दी ई. पू. में जब यहाँ आया तब इसे यह नगर खण्डहरों में बदला हुआ मिला तथा यहाँ की जनसंख्या भी उस समय कम थी।
→ हड़प्पाई शहरों को छोड़कर कुछ किलेबंद नगरों से भी विभिन्न प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें उच्च कोटि के मिट्टी के कटोरे एवं थालियाँ सम्मिलित हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। ये उत्तरी कृष्णमार्जित पात्र कहलाते हैं।
→ द्वितीय शताब्दी ई. पू. में कुछ अभिलेखों में लोगों द्वारा दान किए जाने का उल्लेख मिलता है। इन दानात्मक अभिलेखों में दाता के नाम के साथ-साथ प्रायः उसके व्यवसाय का भी उल्लेख होता था।
→ उत्पादकों एवं व्यापारियों के संघ को श्रेणी' कहा जाता था जो सम्भवतः कच्चा माल खरीदकर उससे सामान तैयार करके बाजार में बेचती थीं।
→ छठी शताब्दी ई. पू. से ही भारतीय उपमहाद्वीप में नदी मार्गों एवं भू-मार्गों का जाल बिछ गया था एवं कई दिशाओं में फैल गया था।
→ भू-मार्ग मध्य एशिया तथा उससे भी आगे तक थे, वहीं समुद्रतट पर बने कुछ बंदरगाहों (पत्तनों) से जलमार्ग अरब सागर से होते हुए उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तक तथा बंगाल की खाड़ी से चीन व दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला था।
→ प्रायः ये मार्ग शासकों के नियंत्रण में होते थे तथा इन पर व्यापारियों की सुरक्षा के बदले संभवत: वे धन वसूलते थे। पैदल फेरी लगाने वाले व्यापारी तथा बैलगाड़ी व घोड़े-खच्चरों जैसे जानवरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी इन मार्गों पर मुख्य रूप से चलते थे।
→ लोग समुद्री मार्ग से भी यात्रा करते थे जो खतरनाक होने के साथ ही बहुत लाभदायक भी थी।
→ प्राकृत भाषा में 'सत्थवाह' व 'सेट्ठी' तथा तमिल में 'मसत्थुवन' नामक प्रसिद्ध सफल व्यापारी थे जो बड़े धनी थे।
→ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाए जाने वाले सामानों में नमक, अनाज, कपड़ा, धातु व उससे बने उत्पाद, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी आदि प्रमुख थे। काली मिर्च जैसे मसालों तथा कपड़ों और जड़ी-बूटियों की रोमन साम्राज्य में बड़ी माँग थी। ये सभी वस्तुएँ भूमध्य क्षेत्र तक अरब सागर के रास्ते पहुँचायी जाती थीं।
→ व्यापार के लिए सिक्कों के प्रचलन में आने पर विनिमय काफी सरल हो गया था। सर्वप्रथम चाँदी व ताँबे के आहत सिक्के (छठी शताब्दी ई. पू.) ढाले गए तथा प्रचलन में आए जिनको राजाओं द्वारा जारी किया गया था।
→ शासकों की प्रतिमा एवं नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिन्द-यूनानी शासकों ने जारी किए। द्वितीय शताब्दी ई. पू. में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर क्षेत्र पर इनका शासन था।
→ सर्वप्रथम सोने के सिक्के प्रथम शताब्दी ई. पू. में कुषाण शासकों ने जारी किए थे जिनका आकार एवं भार तत्कालीन रोमन सम्राटों एवं ईरान के पर्शियन शासकों द्वारा जारी किए गए सिक्कों के बिल्कुल समान था।
→ प्रथम शताब्दी ई. पू. में पंजाब व हरियाणा क्षेत्र के यौधेय कबायली गणराज्यों के शासकों ने ताँबे के सिक्के जारी किए। पुराविदों को हजारों की संख्या में मिले इन सिक्कों से यौधेयों की व्यापार में रुचि और सहभागिता का पता चलता है।
→ मुद्राशास्त्र सिक्कों का अध्ययन है। सिक्कों पर पाए जाने वाले चित्र, लिपि एवं उनकी धातुओं का विश्लेषण भी मुद्राशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।
→ ब्राह्मी लिपि भारत की समस्त भाषाओं की लिपियों की जननी है। ब्राह्मी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग अशोक के अभिलेखों में किया गया जिसको सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप नामक अंग्रेज अधिकारी ने 1838 ई. में पढ़ने में सफलता प्राप्त की।
→ पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि प्रयुक्त हुई है। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने सिक्कों में खरोष्ठी लिपि में लिखे हुए अक्षरों का मिलान किया है।
→ अशोक के अभिलेखों में उसके द्वारा ‘देवानांपिय' (देवताओं का प्रिय) एवं 'पियदस्सी' (देखने में सुन्दर) उपाधियाँ धारण किए जाने का उल्लेख मिलता है। सम्राट अशोक के अधिकांश अभिलेख आधुनिक उड़ीसा राज्य से प्राप्त हुए हैं, लेकिन उसकी वेदना को परिलक्षित करने वाला अभिलेख वहाँ से प्राप्त नहीं हुआ है।
→ अभिलेखों से मिली जानकारी की भी सीमा होती है। राजनीतिक तथा आर्थिक इतिहास का सम्पूर्ण ज्ञान केवल अभिलेखशास्त्र से ही नहीं मिलता है। प्रायः इतिहासकार प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों तरह के प्रमाणों पर आशंका जताते हैं।
→ अभिलेख - अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु अथवा मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं।
→ अभिलेखशास्त्र - अभिलेखों में प्रायः उन लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप अथवा विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं। अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहा जाता है।
→ ब्राह्मी व खरोष्ठी - ये मौर्य पूर्व तथा मौर्यकालीन लिपियाँ हैं।
→ पियदस्सी - अधिकांश अभिलेखों में अशोक को 'पियदस्सी' अथवा प्रियदर्शी अर्थात् सुन्दर मुखाकृति वाला राजा कहा गया है।
→ जनपद - वस्तुतः जनपद का अर्थ एक ऐसे भूखण्ड से लगाया जाता है जहाँ कोई जन (लोग, . कुल या जनजाति) बस जाता है।
→ महाजनपद - एक बड़ा अथवा शक्तिशाली राज्य।
→ ओलीगार्की अथवा समूह-शासन - सामान्यतः समूह-शासन उसे कहते हैं, जहाँ सत्ता पुरुषों के एक समूह के हाथ में होती है।
→ अर्थशास्त्र - चन्द्रगुप्त मौर्य के महामन्त्री चाणक्य या कौटिल्य अथवा विष्णुगुप्त द्वारा लिखित प्रमुख ग्रन्थ।
→ धम्म - मौर्य सम्राट अशोक ने जनता में नैतिक नियमों का पालन करने के लिए जिन साधनों का उपयोग तथा प्रचार-प्रसार किया उसे धम्म कहा जाता है।
→ संगम साहित्य - दक्षिण भारत में प्राचीन काल में राजाओं (चेर, चोल तथा पाण्ड्य) द्वारा कवियों का सम्मेलन आयोजित किया जाता था जिसमें कवियों द्वारा राजाओं की शान में कविता पाठ होता था। इस कविता पाठ का संकलन ही संगम साहित्य कहलाता था। कुल तीन संगम साहित्यों का आयोजन हुआ था।
→ वेल्लालर - दक्षिण भारत के बड़े जमींदारों को वेल्लालर कहा जाता था।
→ गहपति - गहपति एक वैदिककालीन शब्द है गहपति.घर का मुखिया होता था. तथा घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों, नौकरों तथा दासों पर नियन्त्रण रखता था।
→ अग्रहार - अग्रहार व्यवस्था मूलतः दक्षिण भारत में प्रचलित थी। अग्रहार उस भू-भाग को कहते थे जो ब्राह्मणों को दान में दिया जाता था जिस पर ब्राह्मणों से भूमिकर अथवा अन्य प्रकार के कर नहीं वसूले जाते थे। ब्राह्मणों को स्वयं स्थानीय जनता से कर वसूलने का अधिकार था।
→ गण अथवा गणराज्य - प्राचीन भारत में अथवा भारत की आरंभिक अवस्था का एक गणराज्य (अथवा अल्पतन्त्र राज्य) उदाहरणार्थ-शाक्य गण।
→ मनुस्मृति - यह प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था की प्रथम पुस्तक है जिसके रचयिता मनु थे।
→ सत्थवाह एवं सेट्ठी - वस्तुतः ये दोनों शब्द प्राकृत भाषा से सम्बन्धित हैं जिनका अर्थ सफल व्यापारी था।
→ पेरिप्लस - यह यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ समुद्री यात्रा से लगाया जाता है।
→ एरीथ्रियन - एरीथ्रियन को यूनानी भाषा में लाल सागर कहा जाता है।
→ मुद्राशास्त्र - सिक्कों की अध्ययन प्रणाली को मुद्राशास्त्र कहा जाता है।
→ सामंत - भू-स्वामी अथवा भूपति।
→ पुरालिपि - पुराने जमाने में भाषा लिखने के लिए उपयोग में लायी गयी लेखन-शैली।
→ आहत अथवा पंचमार्क - पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में चाँदी के बने सिक्कों को आहत अथवा पंचमार्क कहा जाता था।
→ पतिवेदक - यह मौर्यकालीन शब्द है जिसका इतिहासकारों ने तात्पर्य अथवा सम्बन्ध संवाददाता से लगाया है।
→ (अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ )
काल तथा कालावधि |
घटना /विवरण |
1. लगभग 600 - 500 ई. पू. |
गंगा दोआब में द्वितीय नगरीकरण का आरम्भ, जैन तथा बौद्ध धर्म की क्रान्ति का समय, धान की विधिवत रोपाई तथा गहन कृषि एवं अधिशेष का प्रारम्भ, मगध सहित सोलह महाजनपदों का काल, आहत एवं पंचमार्क सिक्कों का काल, जातक कथाओं का काल। |
2. लगभग 500 - 400 ई. पू. |
मगध साम्राज्य के उत्कर्ष का काल। |
3. लगभग 327 - 325 ई. पू. |
सिकन्दर के आक्रमण का काल । |
4. लगभग 321 ई. पू. |
मौर्य शासक चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण । |
5. लगभग 272/268 - 231 ई. पू. |
अशोक का शासनकाल। |
6. लगभग 185 ई. पू. |
मौर्य साम्राज्य का अंत। |
7. लगभग 200 ई. पू. से 100 ई. पू. |
पश्चिमोत्तर भारत में शक शासन, दक्षिण में चोल, चेर व पांड्य शासन तथा दक्कन में सातवाहन शासकों का काल। |
8. लगभग 78 ई. |
कनिष्क का राज्यारोहण एवं शक संवत की शुरुआत। |
9. लगभग 100 |
200 ई. सातवाहन व शक शासकों द्वारा भूमिदान के अभिलेखीय साक्ष्य, गुप्त शासन का आरंभिक काल। |
10. लगभग 320 ई. |
समुद्रगुप्त का शासनकाल। |
11: लगभग 335-375 ई. |
गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल; दक्कन में वाकाटक वंश का काल। |
12. लगभग 375-415 ई. |
कर्नाटक में चालुक्यों का उदय और तमिलनाडु में पल्लवों का उदय। |
13. लगभग 500-600 ई. |
हर्षवर्धन का शासन काल, चीनी यात्री ह्वेनत्सांग की यात्रा का काल। |
14. लगभग 606-647 ई. |
सिन्ध पर अरबों (मोहम्मद बिन कासिम) का आक्रमण। |
15. लगभग 7-12 ई. |
विलियम जोन्स द्वारा बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन। |
16. 1784 ई. |
कोलिन मैकेंजी ने संस्कृत तथा तमिल भाषा के 8000 अभिलेख एकत्र किए। जेम्स प्रिंसेप ने सर्वप्रथम अशोक के ब्राह्मी अभिलेखों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। |
17. 1810 का दशक |
अलेक्जेंडर कनिंघम ने अशोक के अभिलेखों के एक अंश को प्रकाशित किया। |
18. 1838 ई. |
दक्षिण भारत के अभिलेखों के शोधपत्र 'एपिग्राफिया कर्नाटिका' के प्रथम अंक का प्रकाशन। |
19. 1877 ई. 20. 1886 ई. |
'एपिग्राफिया इंडिका' के प्रथम अंक का प्रकाशन। |
21. 1888 ई. 22. 1965-66 |
डी. सी. सरकार ने 'इण्डियन एपिग्राफी एण्ड इण्डियन एपिग्राफिकल ग्लोसरी' प्रकाशित की। |