These comprehensive RBSE Class 12 History Notes Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन will give a brief overview of all the concepts.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 History in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 History Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 History Notes to understand and remember the concepts easily. The राजा किसान और नगर के प्रश्न उत्तर are curated with the aim of boosting confidence among students.
→ सर्वप्रथम ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना बंगाल में हुई थी।
→ बंगाल राज्य में ही सर्वप्रथम ग्रामीण समाज को पुनः व्यवस्थित करने एवं भूमि सम्बन्धी अधिकारों की नई व्यवस्था तथा नई राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयास किये गये थे।
→ 1793 ई. में बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्त की व्यवस्था को लागू किया गया जिसके तहत राजस्व की राशि को ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा निश्चित कर दिया गया, इस राशि को प्रत्येक जमींदार द्वारा जमा कराना अनिवार्य था। जो जमींदार अपनी निश्चित राजस्व राशि जमा नहीं करा पाता था, उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी सम्पदाओं (महाल) की नीलामी कर दी जाती थी।
→ बद्रवान (आधुनिक बर्द्धमान) में 1797 ई. में एक नीलामी की घटना घटित हुई। बद्रवान के राजा के द्वारा धारित अनेक भू-सम्पदाएँ बेची जा रही थी क्योंकि बद्रवान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी।
→ नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीददार उपस्थित होते थे, जो सबसे ऊँची बोली लगाता था उसी को सम्पदाएँ (महाल) बेच दी जाती थीं लेकिन जिलाधीश (कलेक्टर) के समक्ष एक अजीब बात सामने आयी कि नीलामी में बोली लगाने वाले खरीददार राजा (जमींदार) के ही एजेन्ट अथवा नौकर होते थे।
→ नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फर्जी थी। इस्तमरारी बन्दोबस्त की व्यवस्था लागू होने के पश्चात् लगभग 75 प्रतिशत से अधिक जमींदारियाँ नीलाम की गईं। अंग्रेज अधिकारियों को यह आशा थी कि इस्तमगरी बन्दोबस्त लागू होने से वे समस्याएँ हल हो जायेंगी जो बंगाल की विजय के समय से ही उनके समक्ष उपस्थित हो रही थी।
→ 1770 के दशक तक आते-आते बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी थी क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे जिनसे खेती की पैदावार घट रही थी।
→ अंग्रेज अधिकारियों को यह आशा थी कि खेती, व्यापार एवं राज्य के राजस्व संसाधन तभी विकसित किए जा सकते हैं, जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा और ऐसा तभी हो सकेगा जब सम्पत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जायेंगे और राजस्व माँगों की दरों को स्थायी रूप से तय कर दिया जाएगा। यदि सरकार की राजस्व माँग स्थायी रूप से निर्धारित कर दी गई तो कम्पनी, राजस्व नियमित रूप से प्राप्त करने की आशा कर सकेगी।
→ अंग्रेज अधिकारियों को यह भी आशा थी कि इस्तमरारी बन्दोबस्त व्यवस्था के द्वारा छोटे किसानों (योमॅन) और धनी भू-स्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिनके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूँजी एवं उद्यम दोनों ही होंगे। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश शासन का आश्रय एवं प्रोत्साहन पाकर यह वर्ग कम्पनी के प्रति वफादार बना रहेगा।
→ ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों के मध्य परस्पर लम्बे वाद-विवाद के पश्चात् बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू किया गया। अब उनका वर्गीकरण जमींदारों के रूप में कर दिया गया और उन्हें सदैव के लिए एक निश्चित राजस्व माँग को अदा करना था। इस परिभाषा के अनुसार, जमींदार गाँव में भू-स्वामी न होकर मात्र राज्य का राजस्व समाहर्ता (अर्थात् संग्राहक) था।
→ जमींदारों के नीचे अनेक (400 गाँवों तक) गाँव होते थे। कम्पनी के हिसाब से, एक जमींदारी के अन्तर्गत आने वाले गाँव मिलकर एक राजस्व सम्पदा का रूप ले लेते थे। कम्पनी समस्त सम्पदा पर कुल माँग निर्धारित करती थी जिसके बाद जमींदार यह निर्धारित करता था कि भिन्न-भिन्न गाँवों से राजस्व की कितनी-कितनी माँग पूरी करनी होगी और फिर जमींदार उन गाँवों से निर्धारित राजस्व राशि एकत्रित करता था।
→ जमींदार से यह आशा की जाती थी कि वह कम्पनी को नियमित रूप से राजस्व की राशि अदा करेगा और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसकी सम्पदाएँ नीलाम कर दी जायेंगी।
→ इस्तमरारी बंदोबस्त लागू होने के कुछ दशकों में ही जमींदार अपनी राजस्व राशि चुकाने में असफल रहे, जिसके कारण राजस्व की बकाया राशि बढ़ती चली गई। कम्पनी को राजस्व की राशि चुका पाने में जमींदारों की असफलता के प्रमुख कारण इस प्रकार थे
→ कम्पनी जमींदारों को महत्व तो प्रदान करती थी, परन्तु वह उन्हें नियंत्रित तथा उनकी स्वतन्त्रता एवं स्वच्छन्दता को सीमित भी करना चाहती थी। इसी कारण जमींदारों की सैन्य-टुकड़ियों को भंग कर दिया गया, सीमा-शुल्क को हटा दिया गया और उनकी कचहरियों को कम्पनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया तथा जमींदारों से स्थानीय न्याय एवं स्थानीय पुलिस व्यवस्था करने की शक्ति भी छीन ली गई।
→ किसानों से राजस्व एकत्रित करने के समय, जमींदार का एक अधिकारी जिसे प्रायः अमला कहते थे, गाँव में आता था लेकिन राजस्व संग्रह करना एक परिवार्षिक समस्या थी।
→ कभी-कभी तो खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए लगान का भुगतान कर पाना कठिन हो जाता था और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रैयत (किसान) जानबूझकर भुगतान में देरी कर देते थे।
→ धनी रैयत एवं गाँव के मुखिया जोतदार एवं मंडल थे जो जमींदार को परेशानी में देखकर बहुत प्रसन्न होते थे, क्योंकि जमींदार सरलता से उन पर अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता था। जमींदार बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था, परन्तु न्यायिक प्रक्रिया काफी लम्बी होती थी।
→ 1798 ई. में अकेले बद्रवान जिले में ही राजस्व भुगतान के बकाया से सम्बन्धित 30,000 से अधिक वाद लम्बित थे। 18वीं शताब्दी के अन्त में धनी किसानों के कुछ समूह गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत कर रहे थे, जिनको 'जोतदार' कहा जाता था।
→ 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया था। जमींदार का स्थानीय व्यापार तथा साहूकार के कारोबार पर भी त्रण था। उसकी जमीन का एक बड़ा भाग बटाईदारों (अधियारों या बरगादारों) द्वारा जोता जाता था। वे अपना हल स्वयं लाते थे, खेतों में मेहनत करते थे तथा जोतदारों को फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा देते थे।
→ जमींदारों की अपेक्षा जोतदारों की शक्ति गाँवों में अधिक प्रभावी थी। जोतदार गाँव की जमा (लगान) को बढ़ाने के लिए जमींदारों द्वारा किए जाने वाले प्रयासों का घोर प्रतिरोध करते थे। जोतदार अपने पर निर्भर रैयतों को अपने पक्ष में एकजुट रखते थे तथा जान-बूझकर जमींदार को राजस्व के भुगतान में देरी कराते थे।
→ जब राजस्व का भुगतान न किए जाने पर जमींदार की जमींदारी को नीलाम किया जाता था तो प्रायः जोतदार ही उन जमीनों को खरीद लेते थे।
→ उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे। कुछ स्थानों पर उन्हें 'हवलदार' तथा कुछ अन्य स्थानों पर वे गाँटीदार या 'मंडल' कहलाते थे।
→ जमींदार फर्जी बिक्री द्वारा ही अपनी जमींदारियों पर नियन्त्रण बनाये रखते थे। नीलामी के समय जमींदार के ही आदमी एवं एजेन्ट उसकी ओर से जमींदारी खरीद लेते थे।
→ जमींदार कभी भी राजस्व की सम्पूर्ण राशि अदा नहीं कर पाता था, इसलिए कम्पनी कभी-कभार ही किसी मामले में इकट्ठी हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी।
→ जमींदार अनेक तरीकों से अपनी जमींदारी को छिनने से बचा लेते थे। जब कोई बाहर का व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेता था तो पुराने जमींदार के 'लठिपाल' नए खरीददार के आदमियों को मारपीटकर भगा देते थे। बहुत बार ऐसा भी होता था कि पुराने किसान नए खरीददार के आदमियों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे।
→ 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कीमतों का स्तर बढ़ गया व मंदी की स्थिति समाप्त हो गई। इसलिए जो जींदार 1790 के दशक के कष्टों को झेलने में सफल हुए थे उन्होंने अपनी सत्ता को शक्तिशाली बना लिया।
→ ईस्ट इंडिया कम्पनी ने राजस्व सम्बन्धी नियमों को कुछ लचीला बना दिया था जिसके फलस्वरूप गाँवों पर जमींदारों का नियन्त्रण और अधिक मजबूत हो गया।
→ सन् 1813 ई. में ब्रिटिश संसद में एक रिपोर्ट पेश की गई थी। यह उन रिपोर्टों में से पाँचवीं रिपोर्ट थी, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत प्रशासन से सम्बन्धित थी। 'पाँचवी रिपोर्ट' के नाम से इस रिपोर्ट में 1002 पृष्ठ थे।
→ ब्रिटेन के उद्योगपति ब्रिटिश माल के लिए भारत का बाजार खुलवाने के लिए उत्सुक थे। कम्पनी को विवश किया गया कि वह भारत के प्रशासन के बारे में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट ब्रिटिश संसद को भेजे।
→ पाँचवीं रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गम्भीर वाद-विवाद के आधार पर बनायी गयी थी। यह रिपोर्ट कम्पनी के कुशासन, अव्यवस्थित प्रशासन तथा कम्पनी के अधिकारियों के भ्रष्टाचार एवं उनके लोभ-लालच की घटनाओं को दर्शाती थी।
→ 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक के वर्षों में बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया। ये पहाड़ियाँ अभेद्य थीं, यहाँ पर रहने वाले लोग पहाड़िया कहलाते थे, ये पहाड़ियाँ खतरनाक थीं। यहाँ के लोग कम्पनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित थे तथा उनसे बातचीत नहीं करना चाहते थे।
→ फ्रांसिस बुकानन एक चिकित्सक था। भारत आने पर उसने बंगाल चिकित्सा सेवा में (1794 से 1815 तक) कार्य किया। उन्होंने बंगाल सरकार के अनुरोध पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार क्षेत्र में आने वाली भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया।
→ पहाड़िया लोग राजमहल की पहाड़ियों के इद्र-गिद्र रहा करते थे। वे जंगल की उपज से ही अपना निर्वाह करते थे तथा झूम कृषि, जो जंगल की भूमि को साफ करके की जाती थी, करते थे। पहाड़िया लोग जंगल से खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे। विक्रय के लिए ये रेशम के कोया और राल तथा काठ कोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करते थे। पहाड़िया लोग सम्पूर्ण प्रदेश को अपनी निजी भूमि माना करते थे और यहाँ पर बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया अपने समूह में एकता बनाये रखते थे तथा आपसी लड़ाई-झगड़े मिलकर निपटाते थे।
→ पहाड़िया लोगों का जंगल से घनिष्ठ सम्बन्ध था, कई बार ये लोग मैदानों में आकर लूटपाट भी करते थे।
→ 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में पूर्वी भारत में स्थायी खेती को बढ़ावा मिला अतः अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई-सफाई के काम को प्रोत्साहित किया और जमींदारों एवं जोतदारों ने .परती भूमि को धान के खेतों में बदल दिया।
→ अंग्रेज अधिकारियों के लिए स्थायी कृषि का विस्तार इसलिए आवश्यक था, क्योंकि इससे राजस्व के स्रोतों में वृद्धि हो सकती थी, निर्यात के लिए फसल पैदा की जा सकती थी और एक सुव्यवस्थित समाज की स्थापना की जा सकती थी।
→ अंग्रेज इन पहाड़िया लोगों को असभ्य, जंगली एवं बर्बर मानते थे तथा इनका उन्मूलन करना चाहते थे।
→ स्थायी कृषि के क्षेत्र में विस्तार के साथ-साथ चारागाहों एवं जंगलों के क्षेत्र संकुचित होते गये जिससे पहाड़िया एवं स्थायी खेतिहरों के मध्य झगड़े तेज हो गये। पहाड़ी लोग नियमित रूप से बसे स्थायी गाँवों पर और अधिक हमले करने लगे और ग्रामवासियों से पशु, अनाज आदि छीनकर ले जाने लगे।
→ 1770 ई. के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने पहाड़िया लोगों का दमन करने की क्रूर नीति अपनाई तथा उनका शिकार व संहार करना शुरू कर दिया।
→ भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने 1780 के दशक में शांति स्थापना की नीति का प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था तथा बदले में उन्हें अपने आदमियों के चाल-चलन को सही रखने की जिम्मेदारी लेनी थी। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने वालों में से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता से बाहर हो गए।
→ सन् 1800 ई. के आसपास राजमहल के पहाड़ी क्षेत्रों में संथाल लोगों का आगमन हुआ ये लोग वहाँ के जंगलों को साफ करने के लिए इमारती लकड़ी को काटते थे तथा वहाँ की जमीन जोतकर चावल तथा कपास उगाते थे। चूँकि संथालों ने निचली पहाड़ियों पर अपना अधिकार जमा लिया था इसलिए पहाड़ी लोगों को राजमहल की पहाड़ियों में और भी पीछे हटना पड़ा।
→ संथालों को जमीन देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार किया गया। 1832 ई. तक बहुत बड़े भू-भाग को दामिन-ए-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया और इसे 'संथालों की भूमि' घोषित कर दिया। दामिन-ए-कोह के सीमांकन के बाद, संथालों की बस्तियों का विस्तार बड़ी तेजी से हुआ।
→ संथालौ के गाँवों की संख्या जो 1838 ई. में 40 थी वह 1851 ई. में 1,473 तक पहुँच गई तथा संथालों की जनसंख्या भी 3,000 से बढ़कर 82,000 से भी अधिक हो गई।
→ संथालों द्वारा खेती के विस्तार से कम्पनी की राजस्व राशि में भारी वृद्धि हुई। संथालों के द्वारा पहाड़ियों को धीरे-धीरे राजमहल की पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने के लिए विवश कर दिया गया। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया। अतः वे चट्टानी एवं अधिक बंजर प्रदेशों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित होकर रह गये जिसके फलस्वरूप पहाड़ी लोग गरीब होते चले गये।
→ संथालों ने स्थायी कृषि तो शुरू कर दी, परन्तु सरकार के द्वारा संथालों की जमीन पर भारी कर लगा दिया गया। साहूकार बहुत उच्च ब्याज दर पर ऋण दे रहे थे व कर्ज अदा न कर पाने की स्थिति में उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे थे और तो और जमींदार लोग संथालों की जमीन पर नियन्त्रण का दावा कर रहे थे। अतः 1850 ई. के दशक में उन्होंने विद्रोह कर दिया जिसे अंग्रेजों ने बुरी तरह कुचला।
→ 19वीं शताब्दी के दौरान, भारत के विभिन्न प्रान्तों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किए। ऐसा ही एक विद्रोह दक्कन में 1875 ई. में हुआ। यह आन्दोलन पूना (आधुनिक पुणे) जिले के एक बड़े गाँव सूपा में प्रारम्भ हुआ। 12 मई, 1875 ई. को आसपास के ग्रामीण रैयत (किसान) एकत्रित हो गए, उन्होंने साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणपत्रों की माँग करते हुए उन पर हमला बोल दिया। उन्होंने उनके बहीखाते जला दिए, साहूकारों के घरों को भी जला दिया तथा अनाज की दुकानें लूट ली।
→ 1810 ई. के बाद खेती की कीमतें बढ़ गईं जिससे उपज के मूल्य में वृद्धि हुई। इसके फलस्वरूप बंगाल के जमींदारों की आय में वृद्धि हुई।
→ 19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन में शामिल किए गये क्षेत्रों में नये राजस्व बंदोबस्त लागू किए गए।
→ 1820 के दशक तक इंग्लैण्ड में डेविड रिकार्डों एक प्रमुख अधिकारी के रूप में प्रसिद्ध थे जिनके अनुसार भू-स्वामी को उस समय लागू 'औसत लगानों' को पाने का ही हक होना चाहिए। जब भूमि से औसत लगान' से अधिक प्राप्ति होने लगे तो भू-स्वामी को अधिशेष आय होगी जिस पर सरकार को कर लगाने की जरूरत होगी।
→ बम्बई दक्कन में लागू की गई राजस्व प्रणाली को रैयतवाड़ी के नाम से जाना जाता है। जिसके अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी। बम्बई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 के दशक में लागू किया गया। 1832 ई. के बाद कृषि उत्पादों में तेजी से गिरावट आयी जिसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में और भी गिरावट आ गयी।
→ 1832-34 ई. के वर्षों में ग्रामीण इलाके अकाल की चपेट में बर्बाद हो गए। दक्कन का अधिकांश पशुधन अकाल की चपेट में आ गया तथा आधी मानव आबादी भी मौत की चपेट में आ गई। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए किसानों को महाजनों से ऋण लेना पड़ा तथा जिसको ब्याज सहित चुका पाना उनके लिए कठिन हो गया।
→ 1860 के दशक से पूर्व ब्रिटेन में कच्चे माल के रूप में आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग संयुक्त राज्य अमेरिका से आता था।
→ ब्रिटेन में 1857 ई. में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई तथा 1859 ई. में मैनचेस्टर कॉटन कंपनी बनाई गई।
→ ब्रिटेन द्वारा भारत को एक ऐसा देश माना गया जो संयुक्त राज्य अमेरिका से कपास की आपूर्ति बन्द हो जाने की स्थिति में लंकाशायर को कपास दे सकता था।
→ सन् 1861 ई. में अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ जाने से ब्रिटेन के कपास क्षेत्र में तहलका मच गया। अमेरिका से आने वाली कच्ची कपास के आयात में भारी गिरावट आ गई।
→ ऐसी स्थिति में ब्रिटेन ने भारत से कपास का आयात करना प्रारम्भ कर दिया। बम्बई के सौदागरों द्वारा कपास के अधिक उत्पादन हेतु किसानों को अग्रिम राशि देना प्रारम्भ कर दिया गया।
→ सन् 1862 ई. तक ब्रिटेन के आयात की कपास का 90 प्रतिशत भाग भारत से ही जाता था लेकिन इसका लाभ कुछ धनिक कृषकों को ही हुआ एवं शेष कृषक कर्ज के बोझ से दब गये।
→ संयुक्त राज्य अमेरिका में गृहयुद्ध के समाप्त होने पर वहाँ पर कपास का उत्पादन पुनः प्रारम्भ हो गया और ब्रिटेन को भारतीय कपास के निर्यात में कमी होती चली गयी।
→ ब्रिटेन में भारतीय कपास की माँग कम होने से उसकी कीमतें गिर गयीं। व्यापारियों ने किसानों को अग्रिम राशियाँ देना बन्द कर : दिया और बकाया ऋण को माँगना प्रारम्भ कर दिया जिससे किसानों का आर्थिक संकट बढ़ गया।
→ ऋणदाताओं ने किसानों को ऋण देने से मना कर दिया जिससे वे ऋणदाताओं को कुटिल व धोखेबाज समझने लगे थे।
→ सन् 1859 ई. में अंग्रेजों के द्वारा एक परिसीमन कानून पारित किया गया जिसमें कहा गया कि ऋणदाता व किसानों के मध्य हस्ताक्षरित ऋणपत्र केवल तीन वर्षों के लिए ही मान्य होगा।
→ इस कानून का उद्देश्य लम्बे समय तक ब्याज को संचित होने से रोकना था, परन्तु सूदखोरों ने इस कानून में भी हेराफेरी कर इसे अपने पक्ष में कर लिया।
→ दक्कन में विद्रोह फैलने पर बम्बई सरकार ने उसे गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया। भारत सरकार द्वारा दबाव डालने पर बम्बई सरकार ने एक जाँच आयोग की स्थापना की।
→ 1878 ई. में दक्कन जाँच आयोग की रिपोर्ट ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गयी जिसमें दंगा फैलने का कारण ऋणदाताओं और साहूकारों द्वारा अन्याय करना बताया गया था।
→ भारत में औपनिवेशिक सरकार कभी भी यह मानने को तैयार नहीं थी कि जनता में असन्तोष सरकारी कार्यवाही के कारण उत्पन्न हुआ था।
→ राजा - प्रायः इस शब्द का प्रयोग शक्तिशाली जमींदारों के लिए किया जाता था।
→ जमींदार - बड़े-बड़े भू-स्वामी।
→ इस्तमरारी (स्थायी) बंदोबस्त - वह स्थायी भू-राजस्व व्यवस्था जिसके अन्तर्गत ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी, जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी।
→ महाल - भू-सम्पदाएँ।
→ योमॅन - कम्पनी काल में छोटे किसानों को योमॅन कहा जाता था।
→ समाहर्ता - संग्राहक।
→ ताल्लुकदार - इसका शाब्दिक अर्थ है- वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक यानी सम्बन्ध हो। आगे चलकर ताल्लुक का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया।
→ रैयत - इस शब्द का प्रयोग अंग्रेजी विवरणों में किसानों के लिए किया जाता था।
→ सूर्यास्त विधि - एक कानून।
→ अमला - राजस्व एकत्रित करने वाला जमींदार का अधिकारी।
→ जोतदार - उत्तरी बंगाल के प्रभावशाली किसान तथा मुखिया।
→ लठियाल - वह व्यक्ति जिसके पास लाठी अथवा डण्डा हो।
→ बेनामी - गुमनाम।
→ एक्वाटिंट - एक ऐसी तस्वीर होती है जो ताम्रपत्रों में अम्ल की सहायता से चित्र के रूप में कटाई करके छापी जाती थी।
→ दामिन-ए-कोह - सन् 1832 ई. में संथालों को स्थायी रूप से बसाने के लिए जमीन के बहुत बड़े भाग को संथालों के लिए सीमांकित किया गया। इसे ही दामिन-ए-कोह कहा गया।
→ साहूकार - ऐसा व्यक्ति जो धन उधार देता था।
→ किरायाजीवी - यह शब्द ऐसे लोगों का प्रतीक है जो अपनी सम्पत्ति के किराये की आय पर जीवनयापन करते
→ दिक्कू - यह शब्द जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करने वाले बाहरी व्यक्तियों के लिये प्रयुक्त होता था।
→ झूम खेती - पहाड़ी क्षेत्रों में की जाने वाली कृषि।
→ रैयतवाड़ी - औपनिवेशिक सरकार द्वारा बम्बई दक्कन में लागू की गयी राजस्व की प्रणाली को रैयतवाड़ी कहा गया। इस प्रणाली के तहत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी।
→ (अध्याय में दी गई महत्वपूर्ण तिथियाँ तथा सम्बन्धित घटनाएँ )
काल तथा कालावधि |
घटना/विवरण |
1. 1765 ई. |
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इलाहाबाद की सन्धि के द्वारा बंगाल की दीवानी के अधिकार प्राप्त किए। |
2. 1773 ई. |
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्रियाकलापों को विनियमित करने के लिये ब्रिटिश संसद द्वारा रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया। |
3. 1793 ई. |
बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू हुआ। |
4. 1794 ई. |
फ्रांसिस बुकानन नामक चिकित्सक भारत आया। |
5. 1797 ई |
बद्रवान में सार्वजनिक नीलामी। |
6. 1800 का दशक |
संथाल लोग राजमहल की पहाड़ियों पर आने लगे तथा वहाँ बसने लगे। |
7. 1818 |
बम्बई दक्कन में प्रथम राजस्व बन्दोबस्त। |
8. 1820 का दशक |
कृषक वस्तुओं का मूल्य गिरने लगा। |
9. 1840 तथा 1850 का दशक |
बम्बई दक्कन में कृषि विस्तार की धीमी प्रक्रिया। |
10. 185556 ई. |
संथालों का विद्रोह। । |
11. 1859ई |
अंग्रेजों ने एक परिसीमन कानून लागू किया। |
12. 1861 ई. |
कपास में तेजी का आरम्भ |
13. 1875 ई. |
दक्कन के गाँवों में रैयतों ने विद्रोह किया। |