These comprehensive RBSE Class 12 History Notes Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता will give a brief overview of all the concepts.
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→ हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु घाटी सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस सभ्यता के अधिकांश स्थलों का विकास सिन्धु नदी की घाटी में हुआ था।
→ पुरातत्वविदों द्वारा हड़प्पा सभ्यता का समय 2600 ई. पू. से 1900 ई. पू. के मध्य निर्धारित किया गया है।
→ रेडियो कार्बन-14 (सी-14) जैसी नवीनतम विश्लेषण पद्धति द्वारा हड़प्पा सभ्यता का समय 2500 ई. पू. से 1750 ई. पू. माना गया है, जो सर्वाधिक मान्य है।
→ इस सभ्यता का नामकरण हड़प्पा नामक स्थान के नाम पर किया गया है; जहाँ यह संस्कृति सर्वप्रथम खोजी गयी थी।
→ हड़प्पा अथवा सिन्धु घाटी सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति' भी कहा जाता है। पुरातत्वविदों द्वारा संस्कृति' शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट शैली वाले पुरावस्तुओं के समूहों के लिए किया जाता है। ये समूह सामान्यतः एक साथ, एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र एवं काल-खण्ड से सम्बन्धित होते हैं।
→ इस क्षेत्र में इस सभ्यता से पहले एवं बाद में भी संस्कृतियों अस्तित्व में थीं; जिन्हें क्रमशः आरंभिक एवं परवर्ती (बाद वाली) हड़प्पा सभ्यता कहा जाता है। इन संस्कृतियों से हड़प्पा सभ्यता को अलग करने के लिए कभी-कभी इसे विकसित हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है।
→ हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख केन्द्र हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल, धौलावीरा, कालीबंगा (कालीबंगन) आदि थे।
→ हड़प्पा सभ्यता से सम्बन्धित महत्वपूर्ण पुरावस्तुओं में मुहरें, बांट, पत्थर के फलक व पकी हुई ईंटें आदि हैं।
→ हड़प्पाई मुहरें सम्भवतया हड़प्पा सभ्यता की सबसे विशिष्ट पुरावस्तु हैं।
→ सेलखड़ी नामक पत्थर से बनी इन मुहरों पर एक ऐसी लिपि के चिह्न मिलते हैं जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
→ हड़प्पाई मुहरों के अलावा इस सभ्यता के लोगों के आवासों, मृदभाण्डों, आभूषणों, औजारों जैसी पुरावस्तुओं से उस समय इस क्षेत्र में बसे लोगों के जीवन के सम्बन्ध में बहुत-सी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
→ इस क्षेत्र में विकसित हड़प्पा संस्कृति से पहले भी कई संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं जो अपनी विशिष्ट मृदभाण्ड शैली से सम्बद्ध थीं।।
→ इसके सन्दर्भ में हमें कृषि, पशुपालन एवं शिल्पकारी से सम्बन्धित साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं।
→ प्रायः बस्तियाँ छोटी होती थी तथा बड़े आकार की संरचनाएँ इनमें संभवतः नहीं थीं।
→ कुछ स्थलों से बड़े स्तर पर क्षेत्रों को जलाने तथा कुछ अन्य स्थलों को त्याग देने के संकेत मिले हैं जिनसे आरंभिक हड़प्पा और हड़प्पा सभ्यता के मध्य क्रम भंग प्रतीत होता है।
→ हड़प्पा सभ्यता के लोग अनेक प्रकार के पेड़-पौधों से प्राप्त उत्पाद एवं जानवरों से प्राप्त भोजन का उपयोग करते थे।
→ हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों से प्राप्त अनाज के दानों से यहाँ कृषि किए जाने के संकेत मिले हैं परन्तु वास्तविक कृषि विधियों के विषय में स्पष्ट जानकारी प्राप्त होना कठिन है।
→ हड़प्पाई स्थलों से मिले अनाज के दानों में गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना व तिल सम्मिलित हैं, जबकि इन स्थलों से मिली जानवरों की हड्डियों में मवेशियों, भेड़, बकरी, भैंस, सूअर (वराह), हिरण व घड़ियालों की हड्डियाँ सम्मिलित हैं। इसके अलावा मछली एवं पक्षियों की हड्डियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
→ हड़प्पा सभ्यता के लोग वृषभ (बैल) से परिचित थे। पुरातत्वविदों की मान्यता है कि खेत जोतने के लिए बैलों का प्रयोग होता था। चोलिस्तान के कई स्थलों एवं बनावली (हरियाणा) से मिट्टी से निर्मित हल के प्रतिरूप प्राप्त हुए हैं।
→ राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित कालीबंगा नामक स्थान पर जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ पर एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई हल-रेखाओं के समूह मिले हैं जो एक साथ दो अलग-अलग फसलें उगाए जाने को दर्शाते हैं।
→ कुछ पुरातत्वविदों का मत है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग फसलों की कटाई हेतु लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के फलकों एवं धातु के औजारों का प्रयोग करते थे।
→ अफगानिस्तान के शोर्तुघई नामक पुरास्थल से हड़प्पा सभ्यता में नहर द्वारा सिंचाई के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
→ धौलावीरा (गुजरात) से जलाशय के अवशेष मिले हैं। संभवतः इनका प्रयोग कृषि हेतु जल संचय करने में किया जाता था। हड़प्पा सभ्यता के काल में बर्तन पत्थर, धातु एवं मिट्टी से बनाए जाते थे तथा यहाँ से बलुआ पत्थर से बनी चक्कियाँ भी प्राप्त हुई
→ शहरी केन्द्रों का विकास सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का सबसे अनूठा पहलू था।
→ सिन्धु घाटी सभ्यता का सबसे पुराना खोजा गया शहर हड़प्पा था परन्तु सबसे महत्वपूर्ण शहर मोहनजोदड़ो था।
→ मोहनजोदड़ो एक सुनियोजित शहर था, जो दो भागों में बँटा हुआ था, एक छोटा परन्तु ऊँचाई पर बनाया गया तथा दूसरा अधिक बड़ा परन्तु नीचे बनाया गया। पुरातत्वविदों ने इन्हें क्रमशः दुर्ग एवं निचला शहर का नाम दिया है। नियोजित जल निकास प्रणाली हड़प्पा शहरों की सबसे अनूठी विशिष्टताओं में से एक थी।
→ शहरों की गलियों एवं सड़कों को लगभग एक ग्रिड पद्धति से बनाया गया था जो एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं।
→ मकान पक्की ईंटों से बने हुए थे (जो नगर के निचले हिस्से में थे) तथा घरों से गंदे पानी के निकास के लिए नालियाँ बनी हुई थीं।
→ मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ मिलने वाले कई आवासीय भवनों में आँगन प्राप्त हुए हैं जिसके चारों ओर कमरे बने हुए थे। आँगन खाना पकाने तथा कताई करने जैसी गतिविधियों का केन्द्र होता था।
→ यहाँ मिले मकानों में भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियों का अभाव है तथा मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन सीधा दिखाई नहीं देता है जिससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ के लोग अपनी एकान्तता को बड़ा महत्व देते थे।
→ मोहनजोदड़ो के प्रत्येक आवासीय भवन में एक स्नानघर होता था तथा कई मकानों में कुएँ भी मिले हैं। कुओं का प्रयोग सम्भवतः राहगीरों द्वारा किया जाता था। विद्वानों ने यहाँ कुओं की कुल संख्या लगभग 700 हीने का अनुमान लगाया है।
हड़प्पा की दुर्दशा |
यद्यपि हड़प्पा की खोज सबसे पहले हुई थी। लगभग 150 साल पहले जब पंजाब में पहली बार रेलवे लाइनें बिछाई जा रही थीं तो इस काम में जुटे इंजीनियरों को अचानक यह पुरास्थल मिला जो आधुनिक पाकिस्तान में है। उन्होंने सोचा कि यह एक ऐसा खंडहर है, जहाँ से अच्छी ईंटें मिलेंगी। यह सोचकर वे हड़प्पा के खंडहरों से हजारों ईंटें उखाड़ ले गए जिससे उन्होंने रेलवे लाइनें बिछाईं। इस कारण कई प्राचीन इमारतें पूरी तरह नष्ट हो गईं। |
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले जनरल अलेक्जेंडर कनिंघम, जिन्हें सामान्यतः भारतीय पुरातत्व का जनक भी कहा जाता है, ने 1875 में लिखा था कि प्राचीन स्थल से ले जायी गई ईंटों की मात्रा लगभग 100 मील लम्बी लाहौर तथा मुल्तान के बीच की रेल-पटरी के लिए ईंटें बिछाने के लिए पर्याप्त थी। हड़प्पा की अपेक्षा मोहनजोदड़ो कहीं बेहतर संरक्षित था। |
दुर्ग |
यद्यपि अधिकांशतः हड़प्पा बस्तियों में एक छोटा व ऊँचा पश्चिमी तथा एक बड़ा लेकिन निचला पूर्वी भाग है, लेकिन इस नियोजन में विविधताएँ थीं। धौलावीरा एवं लोथल (दोनों गुजरात में) जैसे स्थलों पर संपूर्ण बस्ती किलेबंद थी। साथ ही यहाँ शहर के कई हिस्सों को दीवारों से घेरकर अलग किया गया था। लोथल में दुर्ग दीवार से घिरा तो नहीं था लेकिन यह कुछ ऊँचाई पर बना हुआ था। |
→ मोहनजोदड़ो के दुर्ग में एक विशाल स्नानागार और एक मालगोदाम जैसी संरचनाओं के साक्ष्य मिले हैं जिनका प्रयोग संभवतः विशिष्ट सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था।
→ विशाल स्नानागार आँगन में बना एक आयताकार जलाशय है जिसके चारों ओर से एक गलियारा है। इसके किनारों पर ईंटों को जमाकर एवं जिप्सम के गारे का प्रयोग कर इसे जलबद्ध किया गया था। जलाशय से पानी एक बड़े नाले में बह जाता था।
→ शवाधानों का अध्ययन तथा उपयोगी व विलासिता की वस्तुओं का अध्ययन किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के मध्य सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं को जानने की प्रमुख विधियाँ हैं।
→ हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों से कुछ शवाधान मिले हैं जिनमें मृतकों को दफनाया गया था। ये एक प्रकार के गर्त थे जहाँ शवों के साथ दैनिक उपयोग की कुछ वस्तुएँ भी रखी जाती थीं; जिनमें मृदभाण्ड, आभूषण, शंख के छल्ले, जैस्पर (एक प्रकार का उपरत्न) के मनके तथा ताँबे के दर्पण आदि प्रमुख हैं।
→ शवाधानों के अध्ययन से स्पष्ट है कि हड़प्पाई लोग मृतकों के साथ कीमती वस्तुओं को दफनाने में विश्वास नहीं रखते थे।
→ रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं में चक्कियाँ, मृदभाण्ड, सूइयाँ व झाँवा आदि सम्मिलित हैं। इन्हें पत्थर अथवा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से बनाया जाता था। ये वस्तुएँ बस्तियों में सामान्य रूप से सर्वत्र प्राप्त हुई हैं।
→ पुरातत्वविदों द्वारा उन वस्तुओं को कीमती माना गया है जो दुर्लभ अथवा महँगी थीं। ये वस्तुएँ स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों से बनी थीं। महँगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ, जैसे- फयॉन्स (घिसी हुई रेत अथवा बालू, रंग एवं चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पकाकर बनाया गया पदार्थ), सामान्यतः मोहनजोदड़ो व हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों में ही मिली हैं, छोटी बस्तियों में इनका लगभग अभाव देखा गया है।
→ हड़प्पा सभ्यता के शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मोहरें एवं बाँट बनाना आदि सम्मिलित थे।
→ मनके बनाने में कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग का), जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्स, सेलखड़ी, ताँबा, काँसा, सोना, शंख, फ़ॉन्स, पकी मिट्टी आदि का प्रयोग होता था। मनके चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार, खंडित आदि विभिन्न आकार के होते थे।
→ सामान्यतः पुरातत्वविद प्रस्तर पिंड, पूरे शंख व ताँबा-अयस्क जैसा कच्चा माल, औजार, अपूर्ण वस्तुएँ, छोड़ा गया माल एवं कूड़ा-करकट इत्यादि के आधार पर शिल्प उत्पादन के केन्द्रों की पहचान करते हैं।
→ समुद्रतट के समीप स्थित नागेश्वर व बालाकोट बस्तियाँ शंख से बनी वस्तुओं; जैसे- चूड़ियां, करछियाँ एवं पच्चीकारी की वस्तुओं के निर्माण का प्रमुख केन्द्र थीं।
→ हड़प्पा सभ्यता काल में शिल्प उत्पादन के लिए केवल स्थानीय कच्चे माल का ही प्रयोग नहीं होता था बल्कि इसके लिए पत्थर, अच्छी लकड़ी एवं धातु आदि कच्चे पदार्थ जलोढ़क मैदान से बाहर के क्षेत्रों से भी मंगाने पड़ते थे। इस हेतु उन्होंने कई तरीके अपना रखे थे।
→ नीले रंग के कीमती पत्थर लाजवर्द मणि को शोर्तुघई (सुदूर अफगानिस्तान) से, लोथल व भड़ौच (गुजरात) से कार्नीलियन, दक्षिणी राजस्थान व उत्तरी गुजरात से सेलखड़ी एवं ताँबा धातु राजस्थान से मँगायी जाती थी।
→ हड़प्पावासी कच्चा माल प्राप्त करने के लिए अभियान भेजते थे जिनके माध्यम से स्थानीय समुदायों के साथ सम्पर्क स्थापित किया जाता था; जैसे-राजस्थान के खेतड़ी अंचल (ताँबे के लिए) एवं दक्षिण भारत (सोने के लिए) जैसे क्षेत्रों में अभियान भेजना।
→ पुरातत्वविदों ने राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र की संस्कृति को गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है। यहाँ बड़ी मात्रा में ताँबे की वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। इस संस्कृति के विशिष्ट मृदभाण्ड हड़प्पाई मृदभाण्डों से भिन्न थे।
→ पुरातात्त्विक खोजों से यह जानकारी प्राप्त हुई है कि हड़प्पा सभ्यता क्षेत्र में ताँबा सम्भवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था।
→ ओमान में विभिन्न स्थलों से एक बड़ा हड़प्पाई मर्तबान मिला है जिसके ऊपर काली मिट्टी की एक मोटी परत चढ़ाई गई थी जो तरल पदार्थों के रिसाव को रोकती थी।
→ तीसरी सहस्त्राब्दि ई. पू. में दिनांकित मेसोपोटामिया के लेखों में वर्णित मेलुहा सम्भवतः हड़प्पाई क्षेत्र था। यहाँ से मेसोपोटामिया को कार्नीलियन, लाजवर्द (लाजवर्त) मणि, ताँबा, सोना आदि पदार्थ भेजे जाते थे। ये लेख मेलुहा को नाविकों का देश कहते हैं।
→ हड़प्पा सभ्यता काल में मुहरों एवं मुद्रांकनों का प्रयोग लम्बी दूरी के सम्पर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था।
→ सामान्यतः हड़प्पाई मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा हुआ है जो सम्भवतः उनके मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है।
→ हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त हैं। इन अभिलेखों की लिपि आजतक पढ़ी नहीं जा सकी है।
→ सम्भवतः यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी। सबसे लम्बे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न हैं।
→ हड़प्पा सभ्यता में विनिमय बाँटों की एक सूक्ष्म प्रणाली अथवा परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियन्त्रित थे। वे बाँट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाये जाते थे तथा किसी भी प्रकार के निशान से रहित घनाकार होते थे।
→ इन बाँटों का ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली तथा निचले मानदंड द्विआधारी (1,2,4, 8, 16, 32 इत्यादि 12,800 तक) प्रणाली का अनुसरण करते थे।
→ हड़प्पाई समाज में जटिल फैसले लेने एवं उन्हें कार्यान्वित करने के संकेत मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप हड़प्पाई पुरावस्तुओं में असाधारण एकरूपता को ही लें, जैसा कि मृदभाण्डों, मुहरों एवं ईंटों से स्पष्ट है।
→ सत्ता के केन्द्र अथवा सत्ताधारी लोगों के विषय में पुरातात्त्विक विवरण हमें कोई त्वरित उत्तर नहीं देते हैं। पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ो से मिले विशाल भवन को एक प्रासाद की संज्ञा दी है परन्तु इससे सम्बद्ध कोई भव्य वस्तुएँ प्राप्त नहीं हुई हैं।
→ हड़प्पा सभ्यता से एक पत्थर की मूर्ति मिली है जिसे 'पुरोहित राजा' की संज्ञा दी गयी थी और यह नाम आज भी प्रचलन में है।
→ कुछ पुरातत्वविदों का मत है कि हड़प्पाई समाज में शासकों का अभाव था एवं सभी लोगों की सामाजिक स्थिति एकसमान थी, जबकि कुछ पुरातत्वविद यह मानते हैं कि यहाँ कोई एक नहीं बल्कि कई शासक थे; जैसे-मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के अपने अलग-अलग राजा होते थे। कुछ पुरातत्वविदों का मत है कि हड़प्पा व मोहनजोदड़ो एक ही राज्य के अंग थे। इस बात का प्रमाण हमें पुरावस्तुओं में दृष्टव्य समानता, नियोजित बस्तियों, ईंटों के आकार के निश्चित अनुपात एवं बस्तियों के कच्चे माल के स्रोतों के समीप संस्थापित होने से स्पष्ट है।
→ हड़प्पा सभ्यता के पतन के एक या एक से अधिक कारण माने जाते हैं, जिनमें जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, लगातार बाढ़ें आना, नदियों का सूख जाना, जल स्रोतों का मार्ग बदलना, कृषि योग्य भूमि का अत्यधिक उपयोग आदि प्रमुख हैं।
→ भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के प्रथम जनरल अलेक्जेन्डर कनिंघम को भारतीय पुरातत्त्व का जनक कहा जाता है।
→ अलेक्जेन्डर कनिंघम ने चौथी से सातवीं शताब्दी ई. के मध्य भारतीय उपमहाद्वीप में आए चीनी बौद्ध तीर्थयात्रियों द्वारा छोड़े गए वृतांतों का प्रयोग आरंभिक बस्तियों की पहचान हेतु किया।
→ सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज में दो पुरातत्वविदों दयाराम साहनी एवं राखालदास बनर्जी का प्रमुख योगदान रहा है, इन्होंने क्रमशः हड़प्पा व मोहनजोदड़ो से मुहरें खोज निकाली थीं।।
→ इन्हीं खोजों के आधार पर सन् 1924 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शल ने सम्पूर्ण विश्व के समक्ष सिन्धु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की थी।
→ मार्शल भारत में कार्य करने वाले पहले पेशेवर पुरातत्वविद थे जो यहाँ यूनान और क्रीट में अपने कार्यों का अनुभव भी लाए।
→ पुरातात्विक पुरास्थलों का निर्माण वस्तुओं तथा संरचनाओं के निर्माण, प्रयोग तथा फिर उन्हें छोड़ दिए जाने के फलस्वरूप होता है।
→ लोग जब एक ही स्थान पर नियमित रूप से रहने लगते हैं तो भूखण्ड के अनवरत उपयोग एवं पुनः उपयोग से निर्मित आवासीय मलबों को 'टीला' कहा जाता है।
→ टीलों के स्तरों के अध्ययन को 'स्तर क्रम विज्ञान' कहा जाता है। सामान्यतः सबसे निचले स्तर प्राचीनतम तथा सबसे ऊपरी स्तर नवीनतम होते हैं। इन स्तरों से प्राप्त पुरावस्तुओं को विशेष सांस्कृतिक काल-खण्डों से जोड़ने पर एक पुरास्थल का पूरा सांस्कृतिक क्रम ज्ञात किया जा सकता है।
→ आर.ई.एम. व्हीलर, जो 1944 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल बने, ने एकसमान क्षतिज इकाइयों के आधार पर खुदाई की जगह टीले के स्तर विन्यास का अनुसरण करने की आवश्यकता की पहचान की। साथ ही उन्होंने पुरातत्व पद्धति में एक - सैनिक परिशुद्धता का समावेश भी किया।
→ भारत-पाक विभाजन के पश्चात् सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल पाकिस्तानी क्षेत्र में चले गए। इसी कारण से भारतीय पुरातत्वविदों ने भारत में पुरास्थलों को खोजने का प्रयास किया और कई पुरास्थल खोज निकाले, जिनमें कालीबंगा, लोथल, राखीगढ़ी, धौलावीरा आदि प्रमुख है। नये पुरास्थलों की खोज आज भी जारी है।
→ 1980 के दशक से हड़प्पाई पुरातत्त्व में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी रुचि लगातार बढ़ती जा रही है। इस कार्य में विशेषज्ञ नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं।
→ हड़प्पाई लिपि से इस प्राचीन सभ्यता के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पा रही है लेकिन मृदभाण्ड, औजार, आभूषण, घरेलू सामान आदि भौतिक साक्ष्यों से हड़प्पा सभ्यता के बारे में ठीक जानकारी प्राप्त हो सकती है।
→ पुरा सभ्यता-स्थलों से खोजी गयी वस्तुओं के सम्बन्ध में पुरातत्वविदों को यह तय करना पड़ता है कि कोई पुरावस्तु एक औजार है या एक आभूषण है या फिर दोनों अथवा आनुष्ठानिक प्रयोग की कोई वस्तु है। आमतौर पर आधुनिक समय में किसी पुरावस्तु की उपयोगिता की समझ प्रयुक्त वस्तुओं से उनकी समानता पर आधारित होती है;
→ जैसे-मनके, चक्कियाँ, पत्थर के फलक, पात्र आदि।
→ पुरातात्त्विक व्याख्या की समस्याएँ सम्भवतः सबसे अधिक धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण के समय सामने आती हैं।
→ आरंभिक पुरातत्वविदों को लगता था कि कुछ वस्तुएँ जो असामान्य व अपरिचित लगती थीं सम्भवतः धार्मिक महत्त्व की होती थीं।
→ इनमें आभूषणों से सुसज्जित नारी मृण्मूर्तियाँ सम्मिलित हैं, इन्हें मातृदेवी की संज्ञा दी गयी है। इसी आधार पर पुरोहित राजा, विशाल स्नानागार, वेदियों आदि को वर्गीकृत किया गया।
→ हड़प्पा सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के परीक्षण से ज्ञात होता है कि इस सभ्यता के लोग मातृदेवी एवं आद्य शिव (हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक का आरंभिक रूप) की पूजा करते थे।
→ लगभग 1500 से 1000 ई. पू. के मध्य संकलित ऋग्वेद (सबसे आरंभिक धार्मिक ग्रन्थ) में 'रुद्र' नामक एक देवता का उल्लेख मिलता है। यह बाद की पौराणिक परम्पराओं में शिव के लिए प्रयुक्त एक नाम है। ऋग्वेद में रुद्र को शिव के विपरीत न तो पशुपति (सामान्यतः जानवरों और विशेषतः मवेशियों के स्वामी) और न ही एक योगी के रूप में दिखाया गया है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह कोई शमन था।
→ हड़प्पा सभ्यता से सम्बन्धित कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं जिनमें प्रमुख हैं- क्या विशाल स्नानागार एक आनुष्ठानिक संरचना थी ? साक्षरता कितनी व्यापक थी? स्त्री-पुरुष सम्बन्ध कैसे थे ? नारी मृण्मूर्तियों का क्या उपयोग था ? आदि आदि।
→ सेलखड़ी : एक मुलायम पत्थर जिससे हड़प्पाई मुद्राएँ व मनके बनाये जाते थे।
→ बी. सी. : अंग्रेजी में बी. सी. (हिन्दी में ई. पू.) का आशय बिफोर क्राइस्ट (ईसा पूर्व) से है।
→ ए. डी. : यह ऐनो डॉमिनी नामक दो लेटिन शब्दों से बना है जिसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है हिन्दी में ए. डी. को ईस्वी (ई.) लिखा जाता है।
→ सी. ई. : कॉमन ऐरा-वर्तमान में ए. डी. के स्थान पर सी. ई. का प्रयोग किया जाता है।
→ बी. सी. ई. : बिफोर कॉमन ऐरा-वर्तमान में बी. सी. के स्थान पर बी. सी. ई. का प्रयोग किया जाता है।
→ बी. पी. : बिफोर प्रेजेंट अर्थात् वर्तमान से पहले का।
→ पुरातत्वविद : वह व्यक्ति जो पुरातत्व का अच्छा ज्ञाता हो।
→ पुरातत्त्व : वह विद्या जिसमें प्राचीन काल (मुख्यतः प्रागऐतिहासिक काल) की वस्तुओं के आधार पर पुराने अज्ञात इतिहास का पता लगाया जाता है।
→ पुरास्थल : प्राचीन स्थल।
→ पुरा-वनस्पतिज्ञ : प्राचीन वनस्पति के अध्ययन का विशेषज्ञ ।
→ चोलिस्तान : थार रेगिस्तान से लगा हुआ पाकिस्तान का रेगिस्तानी क्षेत्र, जहाँ हड़प्पा सभ्यता के प्रमाण मिले हैं।
→ कालीबंगा : शाब्दिक अर्थ-काली चूड़ियाँ। यह हड़प्पाई पुरास्थल वर्तमान में घग्घर नदी के तट पर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित है।
→ मोहनजोदड़ो : वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित हड़प्पा सभ्यता का एक नियोजित नगर एवं प्रसिद्ध पुरास्थल जिसे 'मृतकों का टीला' भी कहा जाता है।
→ विशाल स्नानागार : मोहनजोदड़ो के दुर्ग में स्थित सार्वजनिक स्नानगृह, जिसका प्रयोग किसी विशेष आनुष्ठानिक स्नान के लिए किया जाता था।
→ फयॉन्स : घिसी हुई रेत अथवा बालू, रंग एवं चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पकाकर बनाया गया पदार्थ।
→ संचय : यह शब्द लोगों द्वारा सावधानीपूर्वक अधिकांशतः पात्रों; जैसे-घड़ों में रखी गई वस्तुओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे संचय धातुकर्मियों द्वारा पुनः प्रयोग हेतु संभाल कर रखी गई धातुओं अथवा आभूषणों के हो सकते थे।
→ मनके : माला के दाने-मनके बनाना हड़प्पा सभ्यता के लोगों की एक अति महत्वपूर्ण शिल्प क्रिया थी। मनके विभिन्न धातुओं, पत्थरों एवं पकी मिट्टी से बनाए जाते थे। यह शिल्प क्रिया चन्हुदड़ो में. प्रचलित थी।
→ मगान : तीसरी सहस्त्राब्दि ई. पू. के मेसोपोटामिया के लेखों में सम्भवतः ओमान के लिए प्रयुक्त नाम।
→ दिलमुन : मेसोपोटामिया के लेखों में सम्भवत: बहरीन द्वीप के लिए प्रयुक्त नाम।
→ मेलुहा : मेसोपोटामिया के लेखों में हड़प्पाई क्षेत्र के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द।
→ पुरोहित राजा : गाय मोहनजोदड़ो से प्राप्त पुजारी के सिर वाली प्रतिमा को पुरोहित राजा की संज्ञा दी जाती है।
→ स्तरक्रम विज्ञान : पुरातात्त्विक टीलों के विभिन्न स्तर होते हैं जिनके अध्ययन को स्तरक्रम विज्ञान कहते हैं। सामान्य तौर पर सबसे निचले स्तर प्राचीनतम एवं सबसे ऊपरी स्तर नवीनतम होते हैं।
→ मातृदेवी : हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त आभूषणों से लदी नारी की मृण्मूर्तियाँ, जिनके शीर्ष पर पंखे की आकृति बनी होती थी को मातृदेवी की संज्ञा दी गई।
→ एकशृंगी वृषभ : मुहरों पर अंकित एक सींगवाला जानवर, जिसे आमतौर पर एकशृंगी वृषभ कहा जाता है।
→ आद्य शिव: हड़प्पा से प्राप्त पशुपति शिव के अंकन वाली मुद्रा जिस पर शिव (पशुपति) की आकृति बनी हुई
→ लिंग : हड़प्पा सभ्यता में लिंग उस परिष्कृत पत्थर को कहा जाता था जिसकी पूजा भगवान शिव के रूप में होती थी।
→ शमन : जादुई शक्तियों के साथ पारलौकिक जगत से सम्बन्ध स्थापित करने की सामर्थ्य का दावा करने वाली तान्त्रिक महिला या पुरुष।
→ (अध्याय में दी गईं महत्त्वपूर्ण तिथियों एवं उनसे सम्बन्धित घटनाएँ )
काल तथा कालावधि |
घटना/विवरण |
20 लाख वर्ष (वर्तमान से पूर्व) |
निम्न पुरापाषाण काल। |
80,000 वर्ष पूर्व |
मध्य पुरापाषाण काल। |
35,000 वर्ष पूर्व |
उच्च पुरापाषाण काल। |
12,000 वर्ष पूर्व |
मध्य पाषाण काल। |
10,000 वर्ष पूर्व |
नवपाषाण काल (प्रारम्भिक कृषि तथा पशुपालन)। |
6,000 वर्ष पूर्व |
ताम्र पाषाणकालीन युग (तांबे का पहली बार प्रयोग)। |
2600 - 19001 ई.पू. |
हरप्पा सभ्यता की अवधि। |
1500 - 1000 ई.पू. |
अग्वैदिक काल। |
1000 - 600 ई.पू. |
उत्तर वैदिक काल। |
1000 ई.पू. |
आरंभिक लोह काल तथा दक्षिण महापाषाण शवाधान का समय। |
600 - 400 ई.पू. |
भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक काल का आरम्भ। |
1875 ई. |
हरप्पाई मुहर पर कनिंघम की रिपोर्ट। |
1921 ई. |
राय बहादुर दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा नामक स्थल पर उत्खनन का आरम्भ। |
1922 ई. |
राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो के टीलों की खोज की। |
1924 ई. |
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अध्यक्ष सर जॉन मार्शल ने हड़प्पा सभ्यता की खोज की घोषणा की। |
1925 ई. |
सिन्धु नदी के तट पर स्थित मोहनजोदड़ो में उत्खनन का आरम्भ। |
1926 27 ई. |
माधो स्वरूप वत्स द्वारा हड़प्पा नामक स्थल पर उत्खनन का आरम्भ। |
1931 ई. |
एन. जी. मजूमदार द्वारा चन्हुदड़ो में उत्खनन का आरम्भ। |
1944 ई. |
आर. ई. एम. व्हीलर ने उत्खनन की नवीन तकनीक का प्रयोग आरम्भ किया। |
1946 ई. |
आर. ई. एम. व्हीलर द्वारा हड़प्पा में उत्खनन आरम्भ। |
1955 ई. |
एस. आर. राव द्वारा भोगवा नदी के तट पर स्थित लोथल में उत्खनन का आरम्भ। |
1958 ई. |
यज्ञदत्त शर्मा द्वारा आलमगीरपुर (मेरठ, उत्तर प्रदेश) में उत्खनन का आरम्भ। |
1960 ई. |
बी. बी. लाल तथा बी. के. थापर द्वारा घग्घर नदी के किनारे स्थित कालीबंगा में उत्खनन का आरम्भ। |
1974 ई. |
एम. आर. मुगल द्वारा बहावलपुर में अन्वेषणों का आरम्भ।। |
1980 ई. |
जर्मन इतालवी संयुक्त दल द्वारा मोहनजोदड़ो में सतह अन्वेषणों का आरम्भ। |
1986 ई. |
अमेरिकी दल द्वारा हड़प्पा में उत्खनन का आरम्भ। |
1990 ई. |
आर. एस. बिष्ट द्वारा धौलावीरा में उत्खनन का आरम्भ। |