Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Drawing Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Drawing in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 11. Students can also read RBSE Class 11 Drawing Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 11 Drawing Notes to understand and remember the concepts easily.
प्रश्न 1.
आपके विचार से क्या कांसे की ढलाई की तकनीक एक सतत प्रक्रिया है और इसका विकास आने वाले समय तक कैसे हुआ?
उत्तर:
हाँ, हमारे विचार से कांसे की ढलाई की तकनीक एक सतत प्रक्रिया है जो सिंधु घाटी सभ्यताकाल ई. पूर्व 2500 से लेकर निरन्तर रूप से चली आ रही है।
इसका विकास आने वाले समय तक निम्न प्रकार से हुआ-
1. सिंधु घाटी की सभ्यता के अति प्राचीनकाल, 2500 ई. पूर्व में ही कांस्य ढलाई की लुप्त मोम प्रक्रिया सीख ली थी और इसके साथ ही उन्होंने तांबा, जस्ता और टिन जैसी धातुओं को मिलाकर मिश्र धातु बनाने की प्रक्रिया की भी खोज कर ली थी। इस मिश्र धातु को कांस्य कहते हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नाचती हुई लड़की यानि नर्तकी की प्रतिमा सबसे प्राचीन कांस्य मूर्ति है।
2. 1500 ई. पूर्व काल की कांस्य प्रतिमाएं दाइमाबाद (महाराष्ट्र) में हुई पुरातात्विक खुदाइयों में प्राप्त हुई हैं।
3. ईसा की दूसरी सदी अर्थात् कुषाण काल की जैन तीर्थंकरों की अनेक रोचक कांस्य प्रतिमाएं बिहार राज्य के चौसा स्थल से प्राप्त हुई हैं। इन कांस्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि भारतीय मूर्तिकार पुरुष के अंगप्रत्यंग तथा सुडौल मांसपेशियों के निर्माण में अत्यधिक कुशल थे।
4. पांचवीं शताब्दी से सातवीं शताब्दी के काल की जैन कांस्य मूर्तियां बड़ी संख्या में बड़ोदरा (गुजरात) के निकट अकोटा में मिली हैं। ये कांस्य प्रतिमाएं प्रारंभ में लुप्त मोम प्रक्रिया से बड़ी सुन्दरता से ढाली गयी थीं और बाद में उनमें चांदी और तांबे से आँखें, मुकुट और वस्त्र बना दिए गए। इसके अतिरिक्त इस काल की कुछ प्रसिद्ध जैन प्रतिमाएं बिहार में चौसा, हरियाणा में हांसी, तमिलनाडु तथा कर्नाटक के अनेक स्थलों से प्राप्त हुई हैं।
5. छठी से नौवीं शताब्दी के काल की बडोदरा के पास अकोटा से प्राप्त मूर्तियों से यह सिद्ध हो गया है कि इस काल में गुजरात तथा पश्चिमी भारतीय क्षेत्र में कांस्य की ढलाई की जाती थी। इन मूर्तियों में जैन तीर्थंकरों को एक सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त यक्षिणियों की कांस्य नारी प्रतिमाएं भी मिली हैं।
शैली की दृष्टि से देखा जाए तो ये कांस्य मूर्तियां गुप्त तथा वाकाटक दोनों कालों की कांस्य मूर्तियों की विशेषताओं से प्रभावित थीं।
6. पांचवीं से सातवीं शताब्दियों के बीच के काल की उत्तर भारत (उत्तर प्रदेश और बिहार) में बुद्ध की अनेक कांस्य प्रतिमाएं खड़ी मुद्रा में पाई गई हैं जिनमें बुद्ध को अभय मुद्रा में दर्शाया गया है। ये प्रतिमाएं ढाली गई हैं। इनमें भिक्षु के परिधान से कंधे को ढका हुआ दिखाया गया है। सम्पूर्ण आकृति को सुकोमल तरीके से निर्मित किया गया है।
यह आकृति कुषाण शैली की तुलना में अधिक तरुणाई से भरी हुई और समानुपातिक प्रतीत होती है। इनमें मथरा शैली तथा सारनाथ शैली जैसी बनाई गई हैं। इन कांस्य प्रतिमाओं की परिष्कृत शैली प्रतिष्ठित गुणवत्ता का प्रामाणिक उदाहरण है।
7. फोफनर, महाराष्ट्र से प्राप्त बुद्ध की वाकाटककालीन प्रतिमाएं गुप्तकालीन कांस्य प्रतिमाओं की समकालीन हैं। उनमें अमरावती शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
8. आठवीं से दसवीं शताब्दियों में बनी बौद्ध और हिन्दू देवताओं की कांस्य प्रतिमाएं हिमाचल एवं कश्मीर के क्षेत्रों में बनाई जाती थीं। ये प्रतिमाएं विभिन्न रूपों में बनाई गईं।
9. नालंदा जैसे बौद्ध केन्द्रों में, नौवीं शताब्दी के आसपास बिहार और बंगाल क्षेत्र में कांस्य की ढलाई की एक नई शैली अस्तित्व में आई। इन मूर्तियों के मूर्तिकार गुप्तकाल की श्रेष्ठ शैली को पुनर्जीवित करने में सफल रहे हैं।
10. कांस्य ढलाई की तकनीक और परम्परागत देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएं बनाने का कार्य मध्यकाल के दौरान दक्षिण भारत में विकास के उच्च स्तर पर पहुँच गया था। दसवीं से बारहवीं सदी के दौरान तमिलनाडु में कुछ अत्यन्त सुन्दर एवं उत्कृष्ट कांस्य प्रतिमाएं बनाई गईं। कांस्य प्रतिमाएं बनाने की उत्तम तकनीक और कला आज भी दक्षिण भारत में विशेषकर, कुंभकोणम् में प्रचलित है।
11. 16वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर काल में मूर्तिकारों ने अपने राजकीय संरक्षक की स्मृति को शाश्वत बनाए रखने के लिए उनकी मूर्तियां बनाने का प्रयास किया। तिरुपति में, कांस्य की आदमकद प्रतिमाएं बनाई गई जिनमें कृष्णदेवराय को अपनी दो महारानियों के साथ प्रस्तुत किया गया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कांसे की ढलाई की तकनीक एक सतत प्रक्रिया है और इसका विकास क्रमशः विभिन्न कालों में विभिन्न शैलियों के प्रयोग के साथ होता गया है।
प्रश्न 2.
भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियां बनाने की कला साथ-साथ चलती रही। आपकी राय में इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच तकनीक, शैली और कार्य/ उपयोग की दृष्टि से क्या-क्या समानताएं और अंतर हैं?
उत्तर:
भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियां बनाने की कला साथ-साथ चलती रही। इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच तकनीक और शैली की दृष्टि से यह समानता रही कि जिस प्रकार भारतीय मूर्तिकारों ने मूर्तियां बनाने में पत्थर तराशने-उकेरने में जितनी कुशलता प्राप्त कर रखी थी, उतनी ही प्रवीणता से उन्होंने कांसे को पिघलाने, ढालने और उससे मूर्तियां आदि बनाने के कार्य में प्राप्त कर ली थी।
दोनों प्रतिमाओं में अन्तर-
(1) जहाँ प्रस्तर प्रतिमाओं का आकार बड़ा होता था, प्रायः ये आदमकद बनाई जाती थीं, वहाँ कांस्य प्रतिमाओं का आकार छोटा होता था।
(2) प्रस्तर प्रतिमाएं अधिकतर मंदिरों की अधिष्ठाता देवी-देवताओं के रूप में बनाई जाती थीं। इसके साथ ही ये प्रतिमाएं मंदिर में पौराणिक आख्यानों के रूप में व उनके अनुरूप. बनाई जाती थीं। इनमें पशु, पक्षा व यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां भी हैं।
दूसरी तरफ कांस्य प्रतिमाएं देवी-देवता की बनाई गईं और ये आकार में छोटी होती थीं तथा इनका मुख्य प्रयोजन पूजा करना ही था। पुजारी व भिक्षु इन मूर्तियों को पूजा हेतु अपने साथ ले जाते थे।
(3) प्रस्तर प्रतिमाएं रूप-सौंदर्य की दृष्टि से भी बनायी गई थीं। उनमें नारी के कमनीय सौंदर्य को दर्शाया गया है, पुरुष के सौष्ठव रूप को दर्शाया गया है, लेकिन कांस्य मूर्तियाँ प्रायः पूजा व अनुष्ठानिक दृष्टिकोण व आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही बनायी गयीं, यद्यपि ये रूप-सौंदर्य की दृष्टि से अत्यन्त आकर्षक व उत्कृष्ट हैं।
प्रश्न 3.
चोलकालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कत क्यों माना जाता है?
उत्तर:
कांस्य ढलाई की तकनीक और परम्परागत देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएं बनाने का कार्य मध्यकाल के दौरान दक्षिण भारत में विकास के उच्च स्तर पर पहुँच गया था। चोलकालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कृत माना जाता है क्योंकि-
(1) दसवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडु में चोलवंश के शासनकाल में अत्यन्त सुन्दर एवं उत्कृष्ट स्तर की कांस्य प्रतिमाएं बनाई गईं।
(2) हिन्दू धर्म में शिव को परमात्मा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कर्ता, धर्ता और संहर्ता भी माना जाता है। यह सब प्रतीकात्मक रूप में चोलकालीन नटराज की बारहवीं शताब्दी की प्रतिमा में प्रस्तुत किया गया है।
शिव का नटराज के रूप में प्रस्तुतीकरण चोलकाल तक पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था और इसके बाद तो इस जटिल कांस्य प्रतिमा के नाना रूप तैयार किए गए।
(3) तमिलनाडु के तंजौर क्षेत्र में शिव की प्रतिमाओं के नाना रूप विकसित हुए। इस संदर्भ में चोलकालीन कल्याण सुन्दर मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसमें विवाह-संस्कार को दो अलग-अलग प्रतिमाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अर्द्धनारीश्वर मूर्ति में भी शिव और पार्वती के सम्मिलित रूप को अत्यन्त कौशल के साथ एक ही प्रतिमा में प्रस्तुत किया गया है।
चित्र : नटराज, चोलकालीन
(4) पार्वती की अनेक छोटी-बड़ी सुन्दर एवं स्वतंत्र कांस्य मूर्तियां भी इस काल में बनाई गई हैं जिनमें पार्वती को शालीनता के साथ त्रिभंग मुद्रा में प्रस्तुत किया गया है।
प्रश्न 4.
चोलकाल के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश और कश्मीर से पाई गई कांस्य प्रतिमाओं के मुद्रित चित्र खोजें।
उत्तर:
हिमाचल प्रदेश और कश्मीर से पाई गई मुद्रित कांस्य प्रतिमाएं-