RBSE Solutions for Class 11 Drawing Chapter 4 भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Drawing Chapter 4 भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Drawing Solutions Chapter 4 भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ

RBSE Class 11 Drawing भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ Textbook Questions and Answers

Class 11 Drawing Chapter 4 Question Answer प्रश्न 1.
साँची के स्तूप संख्या-1 की भौतिक एवं सौंदर्य विशिष्टताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
साँची का स्तूप संख्या-1
भोपाल (मध्य प्रदेश) से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित साँची यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व विरासत स्थल है। यहाँ अनेक छोटे-बड़े स्तूप हैं जिनमें से तीन मुख्य हैं- स्तूप संख्या-1, स्तूप सं.-2 और स्तूप संख्या-3।

स्तूप संख्या-1 में बुद्ध के अवशेष हैं। यह नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है तथा वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
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चित्र : स्तूप-1 की योजना, साँची

भौतिक विशेषताएँ-इसकी भौतिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) स्तूप का मूल ढाँचा-मूल रूप से साँची का स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था। अपने मूल रूप में यह स्तूप एक ईंटों का छोटा ढाँचा था जो आगे चलकर बड़ा बना दिया गया और इसे पत्थर, वेदिका और तोरणद्वार से सुसज्जित कर दिया गया।

(2) गुम्बद तथा प्रदक्षिणा पथ-इस स्तूप के तल का व्यास 120 फीट है तथा गुम्बद की ऊंचाई 54 फीट है। गुम्बद के चारों ओर लगभग 16 फीट ऊँचा चबूतरा है जो प्रदक्षिणा पथ का काम देता है। वेदिका के भीतर 7 फीट के प्रदक्षिणा पथ पर शिलापट्ट बिछे हैं। स्तूप के चारों ओर जो प्रदक्षिणा पथ है, ऐसा प्रदक्षिणा पथ इसी स्थल पर पाया जाता है और कहीं नहीं। इस प्रकार इसमें दो प्रदक्षिणा पथ हैं-ऊपर और नीचे।

(3) तोरणद्वार-इसके चार तोरणद्वार हैं। सबसे पहले दक्षिण की ओर प्रवेश द्वार बनाया गया, इसके बाद अन्य द्वार बने। इन द्वारों की शैलियों में अन्तर पाया जाता है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इनके निर्माण का समय ईसा पूर्व पहली शताब्दी और उसके बाद का है।

(4) तोरण खंभे तथा बडेरियाँ-इन तोरणों में चौपहल खंभे हैं जो 14 फुट ऊँचे हैं। तोरण द्वारों के खंभों पर तिहरी बडेरियाँ बनी हुई हैं, जो बीच में से तनिक कमानीदार हैं तथा इनका थोड़ा हिस्सा बाहर की ओर मुडा हुआ है। इन बडेरियों के ऊपर शेर, हाथी, धर्मचक्र, त्रिरत्न, यक्ष आदि का निर्माण करवाया गया है।

स्तूप के चारों द्वार स्वयं बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं और महत्त्वपूर्ण घटना-स्थलों पर अशोक के जानने के बारे में ऐतिहासिक आख्यानों से संबंधित दृश्यों से पूरी तरह सजे हुए हैं। बुद्ध को प्रतीकात्मक रूप से खाली सिंहासन, पद, छत्र, स्तूप आदि के साथ दिखाया गया है।

स्तंभ सम्पूर्ण होने वाले भाग पर ऊपर वाली बड़ेरियों का भार सहन करने के लिए चार मुँह वाले हाथी या बौने बनाए गए हैं। इनके बाहरी भाग पर सन्तुलन बनाने और अतिरिक्त सहारा देने के लिए यक्षिणियों की आकृतियाँ उकेरी गई हैं।
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चित्र : स्तूप सं. 1, साँची 

सौंदर्य विशिष्टताएँ-

1. साँची के स्तूप पर उकेरी गई प्रतिमाओं का संयोजन अधिक उभारदार है और सम्पूर्ण अंतराल से भरा हुआ है।
2. हाव-भाव और शारीरिक मुद्राओं का प्रस्तुतीकरण स्वाभाविक है।
3. शरीर के अंग-प्रत्यंग में कोई कठोरता नहीं दिखाई देती।
4. सिर काफी उठे हुए हैं।
5. बाहरी रेखाओं की कठोरता कम हो गई है तथा आकृतियों को गति दी गई है।
6. उकेरने की तकनीकें भरहुत की तुलना में अधिक उन्नत प्रतीत होती हैं।
7. साँची के स्तुप में भगवान बद्ध के जन्म-जन्मान्तरों की घटनाओं को तो अंकित किया गया है, परन्त बुद्ध की मूर्ति का अंकन नहीं किया गया है। उसके स्थान पर उनके प्रतीकों को अंकित किया गया है। बुद्ध का आभास करवाने के लिए धर्म संकेतों के द्वारा उनकी उपस्थिति का आभास करवाया गया है, जैसे-स्वस्तिक चिह्न, चरण कमल, छत्र, बोधिवृक्ष आदि। साँची के स्तूप-1 में आख्यान अधिक विस्तृत कर दिए गए हैं तथा आख्यानों को प्रसंगानुसार महारानी, हाथी का चित्रण बहुत ही सरल तरीके से हुआ है। 
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चित्र : साँची के स्तूप की सौंदर्य विशिष्टताएँ

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भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ प्रश्न उत्तर प्रश्न 2.
पाँचवीं एवं छठी शताब्दी ईसवी में उत्तर भारत मूर्तिकला की शैलीगत प्रवृत्तियों का विश्लेषण करें।
उत्तर:
पाँचवीं एवं छठी शताब्दी ईसवी में उत्तर भारत में मूर्तिकला के दो महत्त्वपूर्ण सम्प्रदायों (घरानों) का उदय हुआ। ये सम्प्रदाय सारनाथ और कौशाम्बी थे। सारनाथ और कौशाम्बी कला उत्पादन के महत्त्वपूर्ण केन्द्रों के रूप में उभर कर आए। साथ ही इस काल में मूर्तिकला का परम्परागत केन्द्र मथुरा कला उत्पादन का मुख्य केन्द्र बना रहा। इस काल की इन केन्द्रों की मूर्तिकला की शैलीगत प्रवृत्तियाँ इस प्रकार रहीं-

(1) इस काल की उत्तर भारतीय केन्द्रों, मथुरा तथा सारनाथ की मूर्तिकला भारतीय तत्वों से ओतप्रोत रही। इस युग में मथुरा की पूर्ववर्ती काल की मूर्तियों में व्याप्त ईरानी प्रभाव अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ भारतीय कला मूल्यों के साथ समन्वय कर दिया गया था।

(2) इस काल की दैवीय प्रतिमाओं में आध्यात्मिक ओज की अभिव्यक्ति हुई है। मूर्तियों से आध्यात्मिक रस बोध झलकता प्रतीत होता है। मूर्तिकारों ने धार्मिक भावों को सरलीकृत रूप प्रदान कर मूर्तियों में आध्यात्मिक कान्ति पैदा कर सम्पूर्ण वातावरण में शान्ति की छटा फैला दी है। मथुरा तथा सारनाथ से मिली बुद्ध मूर्तियाँ इसका अच्छा उदाहरण हैं।

(3) इस काल की मूर्तियों के अंग-प्रत्यंगों को बहुत ही बारीकी, सफाई तथा सावधानी के साथ तराशा गया है। अंग-प्रत्यंगों में सुडौलता, सौष्ठव व लालित्य है तथा मुख पर आनंद का भाव है। इस काल की शैली की विशेषता है-संयम के साथ रूप का समन्वय, मूर्तियों में समविभक्तता, बनावट में कसावट, सूक्ष्म वस्त्र एवं नपे-तुले आभरण इस काल की मूर्तिकला को बेजोड़ बना देते हैं।

(4) इस काल में अनेक उत्कृष्ट बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण हुआ है। सारनाथ में पाई जाने वाली बौद्ध प्रतिमाओं में दोनों कंधों को वस्त्र से ढका हुआ दिखाया गया तथा सिर के चारों ओर बनाए गए आभामंडल में अलंकरण बहुत कम हैं, दूसरी तरफ मथुरा से प्राप्त बुद्ध की प्रतिमाओं में ओढ़ने के वस्त्र की तहें दिखाई गई हैं और सिर के आभामण्डल को अत्यधिक सजाया गया है।

(5) सुलतानगंज से प्राप्त ताम्र की बुद्ध मूर्ति भी इस काल की उत्कृष्ट मूर्तियों में गिनी जाती है। अगम मुद्रा में खड़ी इस मूर्ति के वस्त्रों को पारदर्शक रूप में बनाया गया है जिससे अंगों की कोमलता आकर्षक छवि प्रस्तुत करती है। सारनाथ में भी खड़ी मुद्रा वाली बुद्ध की बहुत सी मूर्तियाँ मिली हैं जिनका वस्त्र पारदर्शी दिखाया गया है, गति एकसमान है तथा उन्हें धर्मराजिका स्तूप के चारों ओर अलग-अलग उकेरा गया है।

प्रश्न 3.
भारत के विभिन्न भागों में गुफा आश्रयों से एलोरा के एकाश्म मंदिर तक वास्तुकला का विकास किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
पश्चिमी भारत में बहुत सी बौद्ध गुफाएँ हैं जो ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी और उसके बाद की बतायी जाती हैं। इनमें वास्तुकला के मुख्यतः तीन रूप मिलते हैं-

  • गजपृष्ठीय मेहराबी छत वाले चैत्य कक्ष-गजपृष्ठीय मेहराबी छत वाले चैत्य कक्ष अजन्ता, पीतल खोड़ा और भज में पाए जाते हैं। 
  • गजपृष्ठीय मेहराबी छत वाले स्तंभहीन कक्ष-इस प्रकार के कक्ष महाराष्ट्र के थाना-नादसर में मिलते  हैं।
  • सपाट छत वाले चतुष्कोणीय कक्ष-सपाट छत वाले चतुष्कोणीय कक्ष जिसके पीछे की ओर एक वृत्ताकार छोटा कक्ष होता है। महाराष्ट्र के कोंडिवाइट में इस प्रकार के कक्ष पाये गए हैं।

गुफा आश्रयों में एकाश्म मंदिर तक वास्तुकला का विकास इस प्रकार हुआ-
(1) चैत्य के विशाल कक्ष में अर्द्धवृत्ताकार मेहराब की प्रधानता होती है। सामने का हिस्सा खुला होता है जिसका मोहरा लकड़ी का बना होता था और कुछ मामलों में बिना खिड़की वाले मेहराब पाए जाते हैं। सभी चैत्य गुफाओं में पीछे की ओर स्तूप बनाना आम बात थी।

(2) ईसा पूर्व पहली शताब्दी में, गजपृष्ठीय मेहराबी छत वाले स्तूप के नक्शे में कुछ परिवर्तन किए गए, जिसके अन्तर्गत बड़े कक्ष को आयताकार बना दिया गया, जैसा कि अजन्ता की गुफा सं. 9 में देखने को मिलता है और मोहरे के रूप में एक पत्थर की परदी लगा दी गई। ऐसा निर्माण बेदसा, नासिक, कार्ला और कन्हेरी में पाया जाता है। अनेक गुफा स्थलों में पहले मानक किस्म के चैत्य कक्ष परवर्ती काल के भी पाए जाते हैं।

कार्ला में चट्टानों को काटकर सबसे बड़ा कक्ष बनाया गया था। गुफा के नक्शे में पहले दो खंभों वाला खुला सहन है, वर्षा से बचने के लिए एक पत्थर की परदी दीवार है, फिर एक बरामदा, मोहरे के रूप में पत्थर की परदी दीवार एक खंभे पर टिकी गजपृष्ठीय छत वाला चैत्य कक्ष और अन्त में पीछे की ओर स्तूप बना है। इसके मंडप को मनुष्यों तथा जानवरों की आकृतियों से सजाया गया है। वे भारी और चित्र के अंतराल में चलती हुई दिखाई देती हैं।

(3) कन्हेरी की गुफा सं. 3 में कार्ला के चैत्य कक्ष की योजना का कुछ और विशद रूप दिखाई देता है। इस गुफा के भीतरी भाग का सम्पूर्ण निर्माण कार्य एक साथ नहीं किया गया, इसलिए कार्य की प्रगति की झलक दिखाई देती है।

(4) आगे चलकर चतुष्कोणीय चपटी छत वाली शैली को सबसे अच्छा डिजाइन समझा जाने लगा और यही डिजाइन व्यापक रूप से अनेक स्थानों पर पाया जाता है।

(5) ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी के स्तूपों में बुद्ध की प्रतिमाएँ संलग्न की गई हैं।

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चित्रकला कक्षा 11 प्रश्न उत्तर प्रश्न 4.
अजन्ता के भित्ति-चित्र क्यों विख्यात हैं? 
उत्तर:
अजन्ता एक ऐसा उदाहरण है जहाँ ईसा पूर्व पहली शताब्दी और ईसा की पाँचवीं शताब्दी के चित्र पाए जाते हैं। यथा-
(i) गुफा सं. 9, 10, 12 व 13 आरंभिक चरण की हैं।
(ii) गुफा सं. 11, 15 व 6 ऊपरी तथा निचली और गुफा सं. 7 ईसा की पाँचवीं शताब्दी के उत्तरवर्ती दशकों से पहले की हैं।
(iii) बाकी सभी गुफाएँ पाँचवीं शताब्दी के परवर्ती दशकों से ईसा के छठी शताब्दी के पूर्ववर्ती दशकों की हैं। यथा-

(1) आरम्भिक चरण के चित्र-
पहले चरण की बनी गुफाओं (गुफा सं. 9, 10, 12 व 13) के चित्र ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के हैं। 
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चित्र : गुफा संख्या 9, अजंता

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चित्र : चित्रित छत, गुफा सख्या 10, अजंता 

इन चित्रों की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं-

  • इन चित्रों में रेखाएँ पैनी हैं, रंग सीमित हैं।
  • आकृतियाँ स्वाभाविक रूप से बिना बढ़ा-चढ़ा कर अलंकृत किए हुए रंगी हैं।

(2) अगले चरण के भित्ति-चित्र-
अगले चरण के चित्र मुख्यतः गुफा सं. 16, 17, 1 तथा 2 में देखे जा सकते हैं।
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चित्र : महाजनक जातक फलक का हिस्सा, गुफा संख्या 1, अजंता
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चित्र : गुफा संख्या 2 के बरामदे में उत्कीर्णित
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चित्र : बुद्ध, यशोधरा एवं राहुल का चित्र, गुफा संख्या 17, अजंता
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चित्र : अप्सरा, गुफा संख्या 17, अजंता 

  • इन चित्रों में त्वचा के लिए विभिन्न रंगों, जैसे- भूरा, पीलापन लिए भूरा, हरित, पीला आदि का प्रयोग किया गया है जो भिन्न प्रकार की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • गुफा सं. 16-17 के चित्रों में सटीक और शालीन रंगात्मक गुणों का प्रयोग हुआ है। आकृतियों के घुमाव कलात्मक हैं। भूरे रंग की मोटी रेखाओं से उभार प्रदर्शित किया गया है। रेखाएँ शक्तिशाली हैं तथा आकृति संयोजनों में विशिष्ट चमक देने का प्रयास किया गया है।
  • गुफा सं. 1 एवं 2 के चित्र सलीके से बने हुए और स्वाभाविक हैं जो मूर्तियों से सामंजस्य रखते हैं। आकृतियों को त्रि-आयामी बनाने हेतु गोलाकार संयोजन का प्रयोग किया गया है। अर्ध-निर्मित, लम्बी आँखें बनाई गई हैं। भंगिमाएँ स्वाभाविक हैं।

(3) ईसा की पांचवीं शताब्दी के चित्र-

  • ईसा की पांचवीं शताब्दी के अजंता चित्रों में बाहर की ओर प्रक्षेप दिखलाया गया है; रेखाएं अत्यन्त स्पष्ट हैं और उनमें पर्याप्त लयबद्धता देखने को मिलती है।
  • शरीर का रंग बाहरी रेखा के साथ मिल गया है जिससे चित्र का आयतन फैला हुआ प्रतीत होता है।
  • आकृतियां पश्चिमी भारत की प्रतिमाओं की तरह भारी हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अजन्ता के भित्ति-चित्र इसलिए प्रसिद्ध हैं क्योंकि यहाँ एक साथ ईसा पूर्व पहली शताब्दी से ईसा की पांचवीं शताब्दी तक के चित्र पाए जाते हैं।

अजन्ता के भित्ति-चित्रों की प्रसिद्धि के अन्य कारण-अजन्ता के भित्ति-चित्रों की प्रसिद्धि के अन्य प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) रेखाएं-अजन्ता के भित्ति-चित्रों की सजीव रेखाएं चित्रों को चंचल और वाचाल बना देती हैं। ये रेखाएं लयात्मक, प्रवाहमय, भाव-प्रवण, कोमल, लोचयुक्त होने के साथ-साथ उभार, घनत्व और गोलाई लिए हुए है; ये अटूट और प्रवहमान हैं तभा भावाभिव्यक्ति में सक्षम हैं। 'पद्मपाणि अवलोकितेश्वर' नामक चित्र में बुद्ध की मुख मुद्रा में दु:ख, चिन्तन, सौम्य, शोकाभाव एक ही रेखा में अंकित कर दिए गए हैं। अधिकांश हस्तमुद्राएं रेखा प्रधान हैं, जो अभिव्यक्ति को सरल कर देती हैं।

(2) रंग-विधान-अजन्ता के चित्रों में रंगों का सौष्ठव, आभा और माधुर्य अच्छा है। इतने लम्बे समय के बाद भी अधिकांश रंग आज भी अपनी ताजगी दर्शाते हैं।

(3) नारी चित्रण-अजन्ता के चित्रों में नारी चित्रण सौंदर्य का प्रतीक है। जीवन के सभी प्रसंगों में नारी पुरुष की सहचरी के रूप में चित्रित की गई है। नारी सौंदर्य के प्रति इतनी गहरी आस्था कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है।

अजन्ता के चित्रों में नारी का आवृत-अनावृत तथा अर्घ आवृत जैसी विभिन्न स्थितियों का समावेश किया गया है तथा नारी के शारीरिक अंग-उपांगों में उरोज और नितम्बों का आकार अनुपात से अधिक दिखाते हुए चित्रकार ने नारी को उर्वरा शक्ति रूप के साथ-साथ काव्य के श्रृंगार पक्ष को भी अभिव्यक्त किया है।

(4) केन्द्रीय संयोजन-अजन्ता के चित्रों में संयोजन केन्द्र आधारित है। मुख्य विषय और मुख्य आकृति की ओर दर्शक की दृष्टि स्वतः ही चली जाती है।

(5) मुकुट, वस्त्राभूषण-अजन्ता के भित्ति-चित्रों में मुकुटों, आभूषणों, वस्त्रों आदि को भी बड़ी विविधता और सुन्दरता से अंकित किया गया है।

(6) केश विन्यास-अजन्ता के भित्ति चित्रों में स्त्रियों के लम्बे लहराते वेणियों में बंधे बाल, कंधों पर लटकते गोलाकार (धुंघराले) बाल, माथे पर लटकते बाल, चिकुर जूड़ों में बंधे बाल, गुंथे हुए बाल, खुले एवं छिटके हुए कुन्तल केश आदि अनेक प्रकार के केश-विन्यास की मोहक छटा देखने को मिलती है।

(7) हस्त मुद्राएं एवं भाव भंगिमाएं-अजन्ता के चित्रों में विभिन्न हस्त मुद्राओं व भाव-भंगिमाओं का बड़ा सुन्दर चित्रण हुआ है। इन भाव-भंगिमाओं व हस्त मुद्राओं ने आकृति की भव्यता और भावाभिव्यक्ति में अपूर्व शक्ति दी है।

(8) आलेखन-अजन्ता के चित्रों में आलेखन का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अजन्ता की पहली और दूसरी गुफा में सभी छतें आलेखनों से भरी हैं। ये आलेखन आज भी भारतीय चित्रकला की सर्वोत्तम निधि माने जाते हैं।

Prasanna
Last Updated on Nov. 10, 2023, 3:22 p.m.
Published Nov. 3, 2023