RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

Rajasthan Board RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला Important Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

बहुचयनात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
दसवीं शताब्दी तक आते-आते भू-प्रशासन में काफी अहम भूमिका हो गई थी-
(अ) महलों की
(ब) मंदिरों की
(स) चर्चों की
(द) मस्जिदों की
उत्तर:
(ब) मंदिरों की

प्रश्न 2.
मंदिरों के पूजागृह का वह प्रकार जिसमें प्रदक्षिणा पथ होता है, कहलाता है-
(अ) संधर किस्म
(ब) निरंधर किस्म
(स) सर्वतोभद्र
(द) पुरन्दर किस्म
उत्तर:
(अ) संधर किस्म

प्रश्न 3.
मंदिर के जिस पूजागृह में प्रदक्षिणा पथ नहीं होता है, वह कहलाता है-
(अ) संधर
(ब) निरंधर
(स) सर्वतोभद्र
(द) अभद्र
उत्तर:
(ब) निरंधर

प्रश्न 4.
मंदिर के प्रवेश कक्ष को कहा जाता है-
(अ) मंडप
(ब) शिखर
(स) वाहन
(द) गर्भगृह
उत्तर:
(अ) मंडप

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 5.
नागर शैली के मंदिरों में नहीं होती है-
(अ) शिखर
(ब) गुम्बद
(स) गंगा-यमुना की प्रतिमाएं
(द) चहारदीवारी
उत्तर:
(द) चहारदीवारी

प्रश्न 6.
उत्तर प्रदेश के देवगढ़ का मंदिर वास्तुकला की किस शैली में निर्मित हुआ है-
(अ) द्रविड़ शैली
(ब) बेसर शैली
(स) पंचायतन शैली
(द) वल्लभ शैली
उत्तर:
(स) पंचायतन शैली

प्रश्न 7.
खुजराहो के मंदिर का निर्माण कराया-
(अ) चोल राजाओं ने
(ब) चालुक्यों ने
(स) पल्लवों ने
(द) चंदेलों ने
उत्तर:
(द) चंदेलों ने

प्रश्न 8.
खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर समर्पित है-
(अ) लक्ष्मण को
(ब) राम को
(स) विष्णु को
(द) शिव को
उत्तर:
(स) विष्णु को

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प्रश्न 9.
कश्मीर का पंडेरनाथ मंदिर समर्पित है-
(अ) शिव को
(ब) विष्णु को
(स) बुद्ध को
(द) महावीर स्वामी को
उत्तर:
(अ) शिव को

प्रश्न 10.
द्रविड़ शैली के मंदिरों में चहारदीवारी के बीच में प्रवेशद्वार को कहा जाता है-
(अ) मंडप
(ब) गोपुरम्
(स) गुम्बद
(द) वाहन
उत्तर:
(ब) गोपुरम्

प्रश्न 11.
द्रविड़ मंदिरों की वर्गाकार आकृति को कहा जाता है-
(अ) शाला
(ब) गजपृष्ठीय
(स) कूट
(द) नासी
उत्तर:
(स) कूट

प्रश्न 12.
दक्षिण भारत का सबसे पुराना राजवंश है-
(अ) चोल राजवंश
(ब) चालुक्य राजवंश
(स) राष्ट्रकूट राजवंश
(द) पल्लव राजवंश
उत्तर:
(द) पल्लव राजवंश

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 13.
अधिकतर पल्लव राजा थे-
(अ) बौद्ध
(ब) वैष्णव
(स) शैव
(द) जैन
उत्तर:
(स) शैव

प्रश्न 14.
समस्त भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और ऊँचा है-
(अ) मीनाक्षी मंदिर
(ब) वृहदेश्वर मंदिर
(स) महाबलीपुरम का मंदिर
(द) कैलाशनाथ मंदिर
उत्तर:
(ब) वृहदेश्वर मंदिर

प्रश्न 15.
एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर बनवाया-
(अ) चालुक्यों ने
(ब) राष्ट्रकूटों ने
(स) पल्लवों ने
(द) चोलों ने
उत्तर:
(ब) राष्ट्रकूटों ने

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. ............ देवी-देवताओं की पूजा करने और ऐसी धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करने के लिए बनाए गए होंगे, जो पूजा कार्य से जुड़ी होती हैं।
2. हर मंदिर में एक ............. की प्रतिमा होती है।
3. मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते हैं-(i) संधर किस्म के, (ii) निरंधर किस्म के और (iii) ..............।
4. भारत में मंदिर निर्माण की दो प्रमुख शैलियां हैं-(1) उत्तर भारत की ........... शैली और (2) दक्षिण भारत की ....... शैली।
5. मंदिर निर्माण की जिस शैली में नागर और द्रविड़ दोनों श्रेणियों की कुछ चुनी हुई विशेषताओं का मिश्रण पाया जाता है, उसे ............... शैली कहा जाता है।
6. देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन, कला इतिहास की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे .............. कहा जाता है।
7. नागर शैली में सम्पूर्ण मंदिर एक विशाल ............... पर बनाया जाता है और उस तक पहुँचने के लिए ............... होती हैं।
8. शकटाकार भवन रूपों वाले मंदिर ............ शैली की प्रमुख विशेषता है।
9. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के सभी प्राचीन मंदिर ................ पत्थर के बने हुए हैं।
10. देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर वास्तुकला की ............... शैली में निर्मित है।
उत्तर:
1. मंदिर,
2. प्रधान देवता,
3. सर्वतोभद्र,
4. नागर, द्रविड़,
5. बेसर,
6. मूर्तिविद्या,
7. वेदी, सीढ़ियाँ
8. वल्लभी,
9. बलुआ,
10. पंचायतन।

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निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिए-

1. शेषशयन विष्णु का वह रूप है जिसमें विष्णु को एक मगर रूप धारण कर एक असुर का दमन करते हुए बताया गया है।
2. खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर विष्णु को समर्पित है।
3. मोढेरा (गुजरात) स्थित सूर्य मंदिर में हर वर्ष 21 मार्च और 23 सितम्बर को सूर्य सीधे केन्द्रीय देवालय पर चमकता है।
4. बिहार और बंगाल में नौवीं से बारहवीं शताब्दियों के बीच की अवधि में निर्मित प्रतिमाओं को पल्लव शैली कहा जाता है।
5. बिहार और बंगाल की पाल तथा सेन शैलियां नागर शैली की उप शैलियां हैं।
6. ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-(i) रेखा पीड़, (ii) ढाडकेन और (iii) खाकरा।
7. द्रविड़ शैली के मंदिर आमतौर पर ऊँची कुर्सी (प्लिंथ) पर बनाए जाते हैं।
8. द्रविड़ मंदिर की चहारदीवारी के बीच मैं प्रवेश-द्वार होता है, जिसे वाहन कहते हैं।
9. महाबलीपुरम का तटीय मंदिर नरसिंह वर्मन द्वितीय, जिन्हें राजसिंह भी कहा जाता है, के द्वारा बनवाया गया।
10. दक्कन के दक्षिणी भाग यानी कर्नाटक के क्षेत्र में बेसर वास्तुकला की शैलियों के सर्वाधिक प्रयोग देखने को मिलते हैं।
उत्तर:
1. असत्य,
2. सत्य,
3. सत्य,
4. असत्य,
5. सत्य,
6. सत्य,
7. असत्य,
8. असत्य
9. सत्य,
10. सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइए-

1. महाबलीपुरम के मंदिर

(अ) एलोरा

2. कैलाशनाथ मंदिर

(ब) खजुराहो

3. लक्ष्मण मंदिर

(स) उत्तर भारत

4. नागर शैली

(द) दक्षिण भारत

5. द्रविड़ शैली

(य) भीमदेव प्रथम

6. मोढेरा का सूर्य मंदिर

(र) पल्लवकालीन

उत्तर:

1. महाबलीपुरम के मंदिर

(र) पल्लवकालीन

2. कैलाशनाथ मंदिर

(अ) एलोरा

3. लक्ष्मण मंदिर

(ब) खजुराहो

4. नागर शैली

(स) उत्तर भारत

5. द्रविड़ शैली

(द) दक्षिण भारत

6. मोढेरा का सूर्य मंदिर

(य) भीमदेव प्रथम

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में मंदिर किसलिए बनाए गए होंगे?
उत्तर:
भारत में मंदिर देवी-देवताओं की पूजा करने और ऐसी धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए बनाए गए होंगे, जो पूजा कार्य से जुड़ी होती हैं।

प्रश्न 2.
मंदिरों के पूजागृह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते हैं-

  • संधर किस्म के,
  • निरंधर किस्म के,
  • सर्वतोभद्र।

प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश के देवगढ़ और विदिशा के पास उदयगिरि के मंदिर किस किस्म के हैं?
उत्तर:
ये मंदिर साधारण श्रेणी के हैं जिनमें बरामदा, बड़ा कक्ष (मंडप) और पीछे पूजागृह है।

प्रश्न 4.
हिन्दू मंदिर किन भागों से निर्मित होता है?
उत्तर:
हिन्दू मंदिर जिन भागों से निर्मित होता है, वे हैं(i) गर्भगृह, (ii) मंडप, (iii) शिखर या विमान तथा (iv) वाहन।

प्रश्न 5.
गर्भगृह से क्या आशय है?
उत्तर:
गर्भगृह मंदिर का वह प्रकोष्ठ होता है जिसमें मंदिर के मुख्य देवता की मूर्ति को स्थापित किया जाता है।

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प्रश्न 6.
मंडप से क्या आशय है?
उत्तर:
मंडप मंदिर का प्रवेश कक्ष होता है जो काफी बड़ा होता है। इसमें काफी बड़ी संख्या में भक्तगण इकट्ठा हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
वाहन से क्या आशय है?
उत्तर:
वाहन मंदिर के अधिष्ठाता देवता की सवारी होता है जिसे एक स्तंभ या ध्वज के साथ गर्भगृह के . साथ कुछ दूरी पर रखा जाता है।

प्रश्न 8.
भारत में मंदिर निर्माण की तीन प्रमुख शैलियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारत में मंदिर निर्माण की तीन प्रमुख शैलियाँ हैं-

  • नागर शैली,
  • द्रविड़ शैली तथा
  • बेसर शैली।

प्रश्न 9.
बेसर शैली किस प्रकार की शैली है?
उत्तर:
बेसर शैली में नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों की कुछ चुनी हुई विशेषताओं का मिश्रण पाया जाता है।

प्रश्न 10.
मूर्ति विद्या से क्या आशय है?
उत्तर:
देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन कला, इतिहास की जिस शाखा के अन्तर्गत आता है, उसे मूर्ति विद्या कहा जाता है।

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प्रश्न 11.
मूर्ति विद्या में मूर्ति की पहचान किस आधार पर की जाती है?
उत्तर:
मूर्ति विद्या के अन्तर्गत कतिपय प्रतीकों और पुराण कथाओं के आधार पर मूर्ति की पहचान की जाती है।

प्रश्न 12.
मध्य प्रदेश में गुप्तकाल के दो पुराने संरचनात्मक मंदिर जो आज भी विद्यमान हैं, कौनसे हैं?
उत्तर:
ये मंदिर हैं-

  • उदयगिरि में विदिशा के सीमान्त क्षेत्र में स्थित गुफा मंदिर और
  • सांची के स्तूप के निकट स्थित समतल छत वाला मंदिर।

प्रश्ना 13.
देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर कब बनाया गया था?
उत्तर:
देवगढ़ (उत्तर प्रदेश का मंदिर छठी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बनाया गया था।

प्रश्न 14.
देवगढ़ का मंदिर वास्तुकला की किस शैली में निर्मित है?
उत्तर:
देवगढ़ का मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली में निर्मित है।

प्रश्न 15.
शेषशयन से क्या आशय है?
उत्तर:
शेषशयन विष्णु का वह रूप है जब उन्हें अपने वाहन शेषनाग, जिसे अनंत भी कहा जाता है, पर बैठा हुआ दिखाया जाता है।

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प्रश्न 16.
खजुराहो के मंदिर किसके द्वारा और कब बनाए गए?
उत्तर:
खजुराहो के मंदिर चंदेल राजाओं द्वारा लगभग दसवीं शताब्दी में बनाए गए थे।

प्रश्न 17.
खजुराहो के मंदिर किस प्रकार की प्रतिमाओं के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं?
उत्तर:
खजुराहो के मंदिर अपनी कामोद्दीप एवं श्रृंगार प्रधान प्रतिमाओं के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 18.
खजुराहो की प्रतिमाओं के दो विशिष्ट लक्षण बताइये।
उत्तर:

  • खजुराहो की प्रतिमाएं आस-पास के पत्थरों से काट कर बनाई गई हैं।
  • उनकी नाक तीखी, ठुड्डी बढ़ी हुई, आँख लम्बी और भौंहें लंबी मुड़ी हुई हैं।

प्रश्न 19.
खजुराहो में कौनसा जैन मंदिर विशेष उल्लेखनीय है?
उत्तर:
खजुराहो के जैन मंदिरों में चौंसठ योगिनी मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

प्रश्न 20.
राजस्थान में दसवीं व बारहवीं शताब्दी के कौन से दो प्रमुख जैन मंदिर दर्शनीय हैं?
उत्तर:
राजस्थान में दसवीं व बारहवीं शताब्दी के माउण्ट आबू और रणकपुर के जैन मंदिर दर्शनीय हैं।

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प्रश्न 21.
माउण्ट आबू और रणकपुर (राजस्थान) के जैन मंदिर किस पत्थर के बने हैं?
उत्तर:
चिकने सफेद संगमरमर के।

प्रश्न 22.
मोढेरा (गुजरात) का सूर्य मंदिर किस काल की रचना है?
उत्तर:
मोढेरा का सूर्य मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभिक काल अर्थात् 1026 ई. की रचना है।

प्रश्न 23.
मोढेरा के सूर्य मंदिर की कोई दो विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:

  • इस मंदिर में सूर्यकुंड नामक एक अत्यन्त विशाल वर्गाकार जलाशय है।
  • इसका एक अलंकृत विशाल चाप-तोरण दर्शनार्थी को सीधे सभामंडप तक ले जाता है।

प्रश्न 24.
पूर्वी भारत के मंदिरों में कौनसे मंदिर शामिल हैं?
उत्तर:
पूर्वी भारत के मंदिरों में वे सभी मंदिर शामिल हैं जो पूर्वोत्तर क्षेत्र, बंगाल और ओडिशा में पाए जाते हैं।

प्रश्न 25.
पूर्वोत्तर क्षेत्र और बंगाल के वास्तुशिल्प के इतिहास का अध्ययन करना क्यों कठिन हो गया है?
उत्तर:
पूर्वोत्तर क्षेत्र और बंगाल के वास्तुशिल्प के इतिहास का अध्ययन करना कठिन इसलिए हो गया है क्योंकि उन क्षेत्रों में निर्मित प्राचीन मंदिरों के भवनों का नवीकरण कर दिया गया है।

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प्रश्न 26.
पूर्वोत्तर क्षेत्र व बंगाल में सातवीं सदी तक भवन निर्माण का मुख्य माध्यम क्या था?
उत्तर:
इस क्षेत्र में सातवीं सदी तक चिकनी पक्की मिट्टी (टेराकोटा) ही भवन निर्माण का मुख्य माध्यम थी।

प्रश्न 27.
असम क्षेत्र में छठी शताब्दी में किस शैली के आगमन का पता चलता है?
उत्तर:
असम क्षेत्र में छठी शताब्दी में गुप्तकालीन शैली के आगमन का पता चलता है।

प्रश्न 28.
बंगाल की प्रमुख शैली कौनसी है?
उत्तर:
बंगाल की प्रमुख शैली 'पाल शैली' है।

प्रश्न 29.
'अहोम शैली' का विकास कहाँ और किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
गोहाटी (असम) में 14वीं सदी में बर्मा के टाई लोगों की शैली बंगाल की प्रमुख पाल शैली के मिश्रण से 'अहोम शैली' का विकास हुआ।

प्रश्न 30.
बिहार और बंगाल में 11वीं से 13वीं शताब्दी के बीच मूर्तियों का निर्माण किस शैली में हुआ?
उत्तर:
बिहार और बंगाल में 11वीं से 13वीं शताब्दी के बीच मूर्तियों का निर्माण सेन शैली में हुआ।

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प्रश्न 31.
'सेन शैली' का नामकरण किस आधार पर हुआ?
उत्तर:
बंगाल में तत्कालीन सेन शासकों के नाम पर सेन शैली का नाम पड़ा।

प्रश्न 32.
वर्द्धमान जिले में बराकड़ नगर के पास स्थित नौवीं सदी का सिद्धेश्वर महादेव मंदिर की कोई दो विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:

  • इस मंदिर का मोड़दार शिखर बहुत ऊँचा है।
  • इसकी चोटी पर एक बड़ा आमलक बना हुआ है।

यह आरंभिक पाल शैली का अच्छा उदाहरण है।

प्रश्न 33.
बंगाल की भवन निर्माण की एक प्रमुख स्थानीय परम्परा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
बंगाल की भवन निर्माण की एक प्रमुख स्थानीय परम्परा थी-बंगाली झोंपड़ी की बांस की बनी छत का एक ओर ढलान।

प्रश्न 34.
बंगला छत शैली के 17वीं सदी के भवन कहां मिलते हैं?
उत्तर:
17वीं शताब्दी के बंगला छत शैली के भवन विष्णुपुर, बांकुड़ा, वर्द्धमान और वीरभूमि में स्थान-स्थान पर मिलते हैं।

प्रश्न 35.
ओडिशा के मंदिरों की शैली कौनसी है?
उत्तर:
ओडिशा के मंदिरों की शैली एक अलग किस्म की है जिसे हम नागर शैली की उपशैली 'ओडिशी शैली' कह सकते हैं।

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प्रश्न 36.
ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को कितने वर्गों में विभाजित किया जाता है?
उत्तर:
ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है। ये हैं-(1) रेखापीड (2) ढाडकेव और (3) खाकरा।

प्रश्न 37.
ओडिशा के अधिकांश प्रमुख ऐतिहासिक स्थल किस क्षेत्र में हैं?
उत्तर:
ओडिशा के अधिकांश प्रमुख ऐतिहासिक स्थल कलिंग क्षेत्र (आधुनिक पुरी के इलाके) में हैं।

प्रश्न 38.
बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित कोणार्क सूर्य मंदिर कब बनाया गया था?
उत्तर:
कोणार्क सूर्य मंदिर 1240 ई. के आस-पास बनाया गया था।

प्रश्न 39.
पहाड़ी क्षेत्रों की मकान निर्माण की अपनी स्वयं की परम्परा क्या थी?
उत्तर:
स्वयं पहाड़ी क्षेत्रों की परम्परा के अन्तर्गत लकड़ी के मकान बनाए जाते थे जिनकी छतें ढलवा होती थीं।

प्रश्न 40.
कश्मीर की मंदिर निर्माण शैली में किन-किन शैलियों का मिश्रण है?
उत्तर:
कश्मीर की मंदिर निर्माण की शैली में गांधार शैली, गुप्तकालीन और गुप्तोत्तर शैली परम्पराएं तथा पहाड़ी क्षेत्रों की स्वयं की अपनी परम्पराओं का मिश्रण है।

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प्रश्न 41.
कश्मीर का कौनसा काल वास्तुकला की दृष्टि से अधिक उल्लेखनीय है?
उत्तर:
कश्मीर का कारकोटा काल वास्तुकला की दृष्टि से अत्यधिक उल्लेखनीय है क्योंकि इस काल में बहुत से मंदिर बनाए गए।

प्रश्न 42.
चम्बा में लक्षणा देवी मंदिर में स्थापित प्रतिमाओं में किस काल की परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है?
उत्तर:
चम्बा में लक्षणा देवी मंदिर में स्थापित महिषासुरमर्दिनी और नरसिंह की प्रतिमाओं में गुप्तोत्तरकालीन परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है।

प्रश्न 43.
कुमाऊँ के कौनसे दो मंदिर नागर वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं?
उत्तर:
कुमाऊँ में अल्मोड़ा के पास जगेश्वर में स्थापित और पिथौरागढ़ के पास चंपावत में स्थापित मंदिर नागर वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

प्रश्न 44.
गोपुरम् से क्या आशय है?
उत्तर:
द्रविड़ मंदिरों की चहारदीवारी के बीच में जो प्रवेश-द्वार होता है उसे गोपुरम् कहा जाता है।

प्रश्न 45.
तमिलनाडु में विमान मंदिर के किस भाग को कहा जाता है?
उत्तर:
मंदिर के गुंबद के रूप को तमिलनाडु में विमान कहा जाता है।

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प्रश्न 46.
द्रविड़ मंदिर का गुम्बद किस तरह का होता है?
उत्तर:
द्रविड़ मंदिर का गुम्बद (विमान) मुख्यतः एक सीढ़ीदार पिरामिड की तरह होता है जो ऊपर की ओर ज्यामितीय रूप से उठा होता है।

प्रश्न 47.
द्रविड़ मंदिरों में 'शिखर' किसके लिए प्रयुक्त किया जाता है?
उत्तर:
द्रविड़ मंदिरों में 'शिखर' शब्द का प्रयोग मंदिर की चोटी पर स्थित मुकुट जैसे तत्व के लिए किया जाता है जिसकी शक्ल प्रायः एक छोटी स्तूपिका जैसी होती है।

प्रश्न 48.
द्रविड़ मंदिरों में मुख्य मंदिर का गुंबद कैसा होता है?
उत्तर:
द्रविड़ मंदिरों में मुख्य मंदिर, जिसमें गर्भगृह बना होता है, उसका गुम्बद सबसे छोटा होता है। यह मंदिर का सबसे पुराना भाग होता है।

प्रश्न 49.
तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों के नाम बताइए।
उत्तर:
तमिलनाडु में कांचिपुरम, तंजावुर (तंजौर), मदुरई और कुम्भकोणम सबसे प्रसिद्ध मंदिर हैं।

प्रश्न 50.
द्रविड़ मंदिरों की मूल आकृतियां कितने प्रकार की होती हैं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
द्रविड़ मंदिरों की मूल आकृतियाँ पाँच प्रकार की होती हैं-

  • वर्गाकार,
  • आयताकार,
  • अंडाकार,
  • वृत्त और
  • अष्टात्र।

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प्रश्न 51.
महाबलीपुरम् का तटीय मंदिर किसके द्वारा बनवाया गया?
उत्तर:
महाबलीपुरम् का तटीय मंदिर संभवतः पल्लव शासक नरसिंह वर्मन द्वितीय, जिन्हें राजसिंह भी कहा जाता है, के द्वारा बनवाया गया।

प्रश्न 52.
तंजावुर का वहदेश्वर मंदिर कब और किसके द्वारा बनवाया गया?
उत्तर:
तंजावुर का वहदेश्वर मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1009 ई. के आस-पास राजराज चोल द्वारा पूरा कराया गया था।

प्रश्न 53.
कर्नाटक के मंदिरों का निर्माण किस शैली में हुआ?
उत्तर:
कर्नाटक के मंदिरों का निर्माण बेसर शैली में हुआ है। यह शैली यहाँ सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध में लोकप्रिय हुई।

प्रश्न 54.
विरुपाक्ष मंदिर किसने और कब बनवाया था?
उत्तर:
पट्टडकल में स्थित विरुपाक्ष मंदिर विक्रमादित्य द्वितीय के शासन काल (733-44 ई.) में उसकी पटरानी लोका महादेवी द्वारा बनवाया गया था।

प्रश्न 55.
विरुपाक्ष मंदिर किस मंदिर शैली का उदाहरण है?
उत्तर:
विरुपाक्ष मंदिर आरंभिक द्रविड़ शैली का एक सर्वोत्तम उदाहरण है।

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प्रश्न 56.
बादामी के पास स्थित किन मंदिरों में राजस्थान एवं ओडिशा की उत्तरी नागर शैली की झलक मिलती है?
उत्तर:
बादामी से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर तथा आलमपुर स्थित स्वर्ग ब्रह्म मंदिर में उत्तरी नागर शैली की झलक मिलती है।

प्रश्न 57.
एहोल के लाडखान मंदिर की निर्माण शैली किससे प्रेरित है?
उत्तर:
ऐहोल के लाड़खान मंदिर का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों के लकड़ी के छत वाले मंदिरों से प्रेरित है, अन्तर केवल इतना है कि यह मंदिर पत्थर का बना है, लकड़ी का नहीं।

प्रश्न 58.
होयसल मंदिर को किस शैली का मंदिर कहा जाता है?
उत्तर:
होयसल मंदिरों को बेसर शैली के मंदिर कहा जाता है क्योंकि उनकी शैली नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों के बीच की है।

प्रश्न 59.
दक्कन में वास्तुकला की दृष्टि से जैन मंदिरों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान कौनसे हैं?
उत्तर:
दक्कन में वास्तुकला की दृष्टि से जैन मंदिरों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल एलोरा और एहोल में देखे जा सकते हैं।

प्रश्न 60.
मध्य भारत में जैन मंदिरों के उत्कृष्ट स्थल कौनसे हैं?
उत्तर:
मध्य भारत में देवगढ़, खजुराहो, चंदेरी और ग्वालियर में जैन मंदिरों के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण पाए जाते हैं।

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प्रश्न 61.
गोमटेश्वर (कर्नाटक) में किसकी मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है?
उत्तर:
कर्नाटक के जैन मंदिरों में गोमटेश्वर में भगवान बाहुबली की ग्रेनाइट पत्थर की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो 57 फुट ऊँची है। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
मंदिर के उपयोग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मंदिर के उपयोग-

  • मंदिर देवी-देवताओं की पूजा करने और ऐसी धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करने के लिए बनाए गए होंगे, जो पूजा कार्य से जुड़ी होती हैं।
  • आगे चलकर मंदिर महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं के रूप में बढ़ने लगे। ऐसे मंदिरों में कालान्तर में आवश्यकताओं के अनुसार अनेक मंडप जैसे कि अर्द्धमंडप, महामंडप, नाट्य या रंग मंडप आदि जोड़ दिए गए।
  • दसवीं शताब्दी तक आते-आते भू-प्रशासन में मंदिर की भूमिका काफी अहम हो गई थी।

प्रश्न 2.
हिन्दुओं के प्राचीन मंदिर कैसे होते थे?
उत्तर:
हिन्दुओं के प्राचीन मंदिर-

  • हिन्दुओं के मंदिर में एक प्रधान या अधिष्ठाता देवता की प्रतिमा होती थी।
  • मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते हैं-(अ) संधर किस्म के, जिसमें प्रदक्षिणा पथ होता है, (ब) निरंधर किस्म के, जिसमें प्रदक्षिण पथ नहीं होता है तथा (स) सर्वतोभद्र किस्म के, जिसमें सब तरफ से प्रवेश किया जा सकता है।
  • कुछ महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर उत्तर प्रदेश में देवगढ़ तथा मध्य प्रदेश में एरण व नचना कुठार और विदिशा के पास उदयगिरि में पाए जाते हैं।
  • ये मंदिर साधारण श्रेणी के हैं जिनमें बरामदा, मंडप और पीछे पूजागृह है।

प्रश्न 3.
हिन्दू मंदिर के मूल रूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दू मंदिर का मूल रूप-हिन्दू मंदिर निम्न भागों से निर्मित होता है-

  • गर्भगृह-गर्भगृह प्रारंभिक मंदिरों में एक छोटा सा प्रकोष्ठ होता था। उसमें प्रवेश के लिए एक छोटा सा द्वार होता था। लेकिन समय के साथ-साथ इस प्रकोष्ठ का आकार बढ़ता गया। गर्भगृह में मुख्य अधिष्ठाता देवता की मूर्ति को स्थापित किया जाता है और यही अधिकांश धार्मिक क्रियाओं का केन्द्रबिन्दु है।
  • मंडप-यह मंदिर का प्रवेश कक्ष है, जो कि काफी बड़ा होता है। इसमें काफी बड़ी संख्या में भक्तगण इकट्ठे हो सकते हैं।
  • शिखर-पूर्वोत्तर काल में इन मंदिरों पर शिखर बनाए जाने लगे जिसे उत्तर भारत में शिखर और दक्षिण भारत में विमान कहा जाता है।
  • वाहन-वाहन मंदिर के अधिष्ठाता देवता की सवारी है। वाहन को एक स्तंभ या ध्वज के साथ गर्भगृह के साथ कुछ दूरी पर रखा जाता है।
  • शैलियां-भारत में हिन्दू मंदिर निर्माण की दो प्रमुख शैलियां हैं-(1) नागर शैली और (2) द्रविड़ शैली। तीसरी शैली 'बेसर' शैली है जो इन दोनों का मिश्रित रूप है।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 4.
मूर्तिविद्या से क्या आशय है?
उत्तर:
मूर्तिविद्या-देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन, कला इतिहास की एक शाखा के अन्तर्गत आता है जिसे मूर्तिविद्या कहा जाता है। इसके अंतर्गत कतिपय प्रतीकों और पुराण कथाओं के आधार पर मूर्ति की पहचान की जाती है। अक्सर कई बार ऐसा भी होता है कि देवता की आधारभूत कथा और अर्थ तो सदियों तक एक जैसा ही बना रहता है किन्तु स्थान और समय के सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक संदर्भ में उसका उपयोग कुछ बदल जाता है।

प्रत्येक काल और क्षेत्र में प्रतिमाओं की शैली में अनेक स्थानीय परिवर्तन आते रहे। मूर्तिकला तथा अलंकरण की शैली में भी व्यापकता आती गई और देवी-देवताओं के रूप उनकी कथाओं के अनुसार बदलते गए।

प्रश्न 5.
मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना किस प्रकार बनायी जाती रही?
उत्तर:

  • मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना बड़ी सूझ-बूझ के साथ बनायी जाती रही। उदाहरण के लिए, नागर शैली के मंदिरों में, गंगा और यमुना जैसी नदी देवियों को गर्भगृह के प्रवेश द्वार के पास रखा जाता है जबकि द्रविड़ मंदिरों में द्वारपालों को मंदिर के मुख्य द्वार (गोपुरम) पर रखा जाता है।
  • इसी प्रकार नवग्रहों और यज्ञों को द्वार रक्षा के लिए प्रवेश द्वार पर रखा जाता है।
  • मंदिर के अधिष्ठाता देवता के विभिन्न पक्षों को गर्भगृह के बाहरी दीवारों पर दर्शाया जाता है। अष्टदिग्पालों को भी गर्भगृह के बाहरी दीवारों पर अपनी-अपनी दिशा की ओर अभिमुख किया जाता है।
  • मुख्य देवालयों की चारों दिशाओं में छोटे देवालय होते हैं, जिनमें मुख्य देवता के परिवार या अवतारों की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है।
  • मंदिर में अलंकरण के विविध रूपों, यथा-गवाक्ष, याली, कल्प-लता, आमलक, कलश आदि का भी प्रयोग मंदिर में यथा स्थानों तथा यथा तरीकों से किया जाता है।

प्रश्न 6.
रेखा प्रसाद किसे कहा जाता है?
उत्तर:
नागर शैली में निर्मित एक साधारण शिखर को जिसका आधार वर्गाकार होता है और दीवारें भीतर की ओर मुड़कर एक बिन्दु पर मिलती हैं, उस शिखर को प्रायः रेखा प्रसाद कहा जाता है और उस मंदिर को रेखा प्रसाद मंदिर कहा जाता है।

प्रश्न 7.
नागर मंदिर के फमसाना किस्म के भवन से क्या आशय है?
उत्तर:
नागर में एक प्रमुख वास्तु रूप है-फमसाना किस्म के भवन। ये रेखा प्रसाद की तुलना में अधिक चौड़े और ऊँचाई में कुछ छोटे होते हैं। इनकी छतें अनेक ऐसी शिलाओं की बनी होती हैं जो भवन के केन्द्रीय भाग के ऊपर एक निश्चित बिन्दु तक सफाई से जुड़ी होती हैं। फमसाना की छतें सीधे ऊपर की ओर ढलवाँ होती हैं।

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प्रश्न 8.
वल्लभी शैली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
वल्लभी शैली-वल्लभी शैली, नागर शैली की एक उपशैली है। यथा-

  • वल्लभी शैली के वर्गाकार मंदिरों में मेहराबदार छतों से शिखर का निर्माण होता है।
  • इसके मेहराबी कक्ष का किनारा गोल होता है।
  • यह शकटाकार अर्थात लकड़ी के या बांस के बने छकड़े की तरह होता है जिसे पुराने जमाने में बैलों से खींचा जाता होगा। ऐसे भवनों को प्रायः शकटाकार भवन कहा जाता है।
  • उदाहरण के लिए शैलकृत बौद्ध चैत्यों में से अधिकतर चैत्यों का रूप लंबे कक्षों जैसा है और आखिरी पीठ मुड़ी हुई है। भीतर से छत का हिस्सा भी शकटाकार दिखाई देता है।

प्रश्न 9.
मध्य प्रदेश में पाए गए, गुप्तकाल के सबसे पुराने संरचनात्मक मंदिरों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मध्य प्रदेश के गुप्तकालीन, पुराने संरचनात्मक मंदिरों की विशेषताएँ-

  • ये मंदिर अपेक्षाकृत साधारण किस्म के आडंबरहीन पूजा-स्थल हैं।
  • इनमें एक छोटा मंडप होता है जो चार खंभों पर टिका होता है।
  • यह मंडप एक साधारण वर्गाकार मुखमंडप (पोर्च) सा होता है और उसके आगे एक छोटा सा कक्ष होता है जो गर्भगृह का काम देता है।
  • ऐसे दो मंदिर आज बचे हुए हैं-(1) एक उदयगिरि में, जो विदिशा के सीमान्त क्षेत्र में स्थित है, (2) दूसरा सांची में स्तूप के निकट स्थित है।

प्रश्न 10.
मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पंचायतन शैली-देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर जो छठी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बनाया गया था, मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली में बना है। यह नागर शैली की एक उपशैली है। इसका ऊँचा और वक्ररेखीय शिखर भी इसी काल की पुष्टि करता है। शिखर रेखा-प्रसाद शैली पर बना है जो नागर-शैली को दर्शाता है।

पंचायतन शैली के अनुसार मुख्य देवालय को एक वर्गाकार वेदी पर बनाया जाता है और चार कोनों में चार छोटे सहायक देवालय बनाए जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर पांच छोटे-बड़े देवालय बनाए जाते हैं। इसीलिए इस शैली को पंचायतन शैली कहा जाता है।

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प्रश्न 11.
विष्णु की शेषशयन, नर-नारायण और गजेन्द्र मोक्ष आकृतियों से क्या आशय है?
उत्तर:
शेषशयन-शेषशयन, विष्णु का वह रूप है, जब उन्हें अपने वाहन शेषनाग, जिसे अनंत भी कहा जाता है, पर लेटा हुआ दिखाया जाता है। यह विष्णु का वह पक्ष है जो उन्हें शाश्वत निद्रा में प्रस्तुत करता है।

नर-नारायण-विष्णु की नर-नारायण आकृति जीवात्मा और परमात्मा के बीच की चर्चा को दर्शाता है।
गजेन्द्र मोक्ष-गजेन्द्र मोक्ष मोक्ष प्राप्ति की कहानी है, जिसमें विष्णु को प्रतीकात्मक रूप से एक असुर का, जिसने एक मगर का रूप धारण कर लिया था, दमन करते हुए बताया गया है।

प्रश्न 12.
देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) के मंदिर की ऐसी दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जो अधिकतर मंदिरों में नहीं पाई जाती हैं।
उत्तर:

  • देवगढ़ के मंदिर में परिक्रमा दक्षिण से पश्चिम की ओर की जाती है जबकि आजकल परिक्रमा दक्षिणावर्त की जाती है।
  • यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है, ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। अधिकांश मंदिरों का मुख पूर्व या उत्तर की ओर होता है।

प्रश्न 13.
देवगढ़ के पश्चिमाभिमुख मंदिर की स्थापत्य विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • यह मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली में निर्मित है तथा पश्चिमाभिमुखी है।
  • इसका प्रवेश द्वार बहुत भव्य है। इसके बाएं कोने पर गंगा और दाएँ कोने पर यमुना है।
  • इसमें विष्णु के अनेक रूप प्रस्तुत किये गए हैं। मंदिर की दीवारों पर विष्णु की तीन उभरी आकृतियाँ हैं। दक्षिणी दीवार पर शेषशयन, पूर्वी दीवार पर नर-नारायण और पश्चिमी दीवार पर गजेन्द्रमोक्ष का दृश्य चित्रित है।

प्रश्न 14.
खजुराहो के मंदिरों की चार सामान्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
खजुराहो के मंदिरों की सामान्य विशेषताएँ ये हैं-

  • ये मंदिर नागर शैली में निर्मित एक ऊँची वेदी पर स्थित हैं, उन पर पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई
  • इनके देवालयों के गगनचुंबी शिखर पिरामिड की तरह सीधे आकाश में उनके उदग्र उठान को प्रदर्शित करते हैं।
  • इनके शिखर के अन्त में एक नालीदार चक्रिका (तश्तरी) है जिसे आमलक कहा जाता है और उस पर एक कलश स्थापित है।
  • मंदिर के आगे निकले हुए बारजे और बरामदे हैं।

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प्रश्न 15.
पश्चिमोत्तर भारत के मंदिर किन पत्थरों से बने हैं?
उत्तर:
भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में गुजरात और राजस्थान शामिल हैं। इस क्षेत्र के मंदिर रंग और किस्म दोनों ही दृष्टियों से अनेक प्रकार के पत्थरों से बने हैं। यथा-

  • इनमें बलुआ पत्थर का प्रयोग हुआ है।
  • दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बने मंदिरों की मूर्तियां धूसर/स्लेटी से काले बेसाल्ट/असिताश्म की बनी होती हैं।
  • इनमें मुलायम चिकने सफेद संगमरमर का भी तरह-तरह से प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है जो दसवींबारहवीं शताब्दी के माउंट आबू और रणकपुर (राजस्थान) के जैन मंदिरों में देखने को मिलता है।

प्रश्न 16.
मोढेरा (गुजरात) के सूर्य मंदिर की स्थापत्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोढेरा के सूर्य मंदिर की स्थापत्य विशेषताएं-
मोढेरा (गुजरात) का सूर्य मंदिर सोलंकी राजवंश के राजा भीमदेव प्रथम ने 1026 ई. में बनवाया था। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • सूर्य मंदिर में सामने की ओर एक अत्यन्त विशाल वर्गाकार जलाशय है जिससे सीढ़ियों की सहायता से पानी तक पहुँचा जा सकता है। इसे सूर्यकुंड कहते हैं। यह एक सौ वर्गमीटर क्षेत्रफल वाला वर्गाकार जलाशय है।
  • जलाशय के भीतर सीढ़ियों के बीच में 108 छोटे-छोटे देवस्थान बने हुए हैं।
  • एक अलंकृत विशाल चाप-तोरण दर्शनार्थी को सीधे सभा मंडप तक ले जाता है। यह मंडप चारों ओर से खुला है।
  • मंदिर में प्रचुर उत्कीर्णन तथा मूर्ति निर्माण के कार्यों पर गुजरात की काष्ठ उत्कीर्णन की परम्परा का प्रभाव है।
  • मंदिर पूर्वाभिमुख है। इसलिए हर वर्ष 21 मार्च और 23 सितम्बर को जब दिन-रात बराबर होते हैं, सूर्य सीधे केन्द्रीय देवालय पर चमकता है।

प्रश्न 17.
खजुराहो के मंदिर अपनी कामोद्दीप एवं श्रृंगार प्रधान प्रतिमाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। क्यों?
उत्तर:
खजुराहो के मंदिर अपनी कामोद्दीप एवं शृंगार प्रधान प्रतिमाओं के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। क्योंकि इनमें शृंगार रस को उतना ही महत्व दिया गया है जितना कि मानव की आध्यात्मिक खोज को, और इसे पूर्ण ब्रह्म का ही एक महत्वपूर्ण अंश माना जाता था। इसलिए अनेक हिन्दू मंदिरों में आलिंगनबद्ध मैथुन को शुभ मानकर उसकी मूर्तियां स्थापित की हुई हैं।

प्रायः ऐसी मिथुन प्रतिमाओं को मंदिर के प्रवेश-द्वार पर अथवा किसी बाहरी दीवार पर रखा जाता है। इसके अलावा ऐसी प्रतिमाएं अक्सर मंडप और मुख्य देवालय के बीच दीवारों पर बनाई जाती हैं।

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प्रश्न 18.
खजुराहो की प्रतिमाओं के शैलीगत लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
खजुराहो की प्रतिमाओं की अपनी एक खास शैली है, जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण हैं, जैसे-

  • वे अपने पूरे उभार के साथ हैं।
  • वे आस-पास के पत्थरों से काटकर बनाई हुई हैं।
  • उनकी नाक तीखी है तथा ठुड्डी बढ़ी हुई है।
  • उनकी आँख लम्बी तथा भौंहें लंबी मुड़ी हुई हैं।

प्रश्न 19.
चौसठ योगिनी मंदिर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
चौंसठ योगिनी मंदिर-खजुराहो में चौंसठ योगिनी मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह मंदिर दसवीं शताब्दी से पहले का है। इस मंदिर में कई छोटे वर्गाकार देवालय हैं जो ग्रेनाइट शिलाखण्डों को काटकर बनाए गए हैं। इनमें से प्रत्येक देवालय देवियों को समर्पित है। इस तरह की तांत्रिक पूजा का उदय सातवीं शताब्दी के बाद हुआ था। ऐसे बहुत से मंदिर योगिनी पंथ को समर्पित हैं।

प्रश्न 20.
भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र के मंदिर किस प्रकार के पत्थरों से बने हैं?
उत्तर:
भारत के पश्चिमोत्तर (गुजरात और राजस्थान) के मंदिर रंग और किस्म दोनों ही दृष्टियों से अनेक प्रकार के पत्थरों से बने हैं। इनमें बलुआ पत्थर का इस्तेमाल हुआ है। इसके अतिरिक्त दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बने मंदिरों की मूर्तियाँ धूसर/स्लेटी से काले बेसाल्ट/असिताष्म की बनी हैं। लेकिन इनमें मुलायम चिकने सफेद संगमरमर का भी तरह-तरह से प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है जो दसवीं से बारहवीं शताब्दी के माउंट आबू और रणकपुर (राजस्थान) के जैन मंदिरों में भी देखने को मिलता है।

प्रश्न 21.
पूर्वोत्तर क्षेत्र और बंगाल के वास्तुशिल्प के इतिहास का अध्ययन करना क्यों कठिन हो गया है?
उत्तर:
पूर्वोत्तर क्षेत्र और बंगाल के वास्तुशिल्प के इतिहास का अध्ययन करना कठिन हो गया है क्योंकि इन क्षेत्रों में निर्मित अनेक प्राचीन मंदिरों के भवनों का नवीकरण कर दिया गया है और उन स्थलों पर इस समय मंदिरों का जो रूप बचा हुआ है, वह परवर्ती काल में ईंट और कंक्रीट का बना हुआ है जिससे उनका मूलरूप ढक गया है।

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प्रश्न 22.
छठी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के काल तक असम में मंदिर वास्तुशिल्प की कौनकौनसी शैलियां प्रचलित रहीं?
उत्तर:
छठी शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक वास्तुकला की असम में दो प्रमुख शैलियां प्रचलित रहीं। यथा-

  • गुप्तकालोत्तर शैली-असम में छठी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक मंदिर वास्तुकला की गुप्तकालीन शैली प्रचलित रही।
  • पाल शैली -ग्यारहवीं और 12वीं शताब्दी में यहाँ पाल शैली का प्रभाव रहा।
  • अहोम शैली-बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच असम में एक अलग क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ। ऊपरी उत्तरी बर्मा से जब असम में टाई लोगों का आगमन हुआ तो उनकी शैली बंगाल की प्रमुख पाल शैली से मिल गई और उनके मिश्रण से एक नई शैली का विकास हुआ, जिसे असम में अहोम शैली कहा जाने लगा।

प्रश्न 23.
ओडिशा की मंदिर शैली की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ओडिशा की मंदिर शैली की विशेषताएं-

  • ओडिशा की मंदिर शैली एक अलग किस्म की है। इसे हम नागर शैली की एक उपशैली कह सकते हैं।
  • इस उप-शैली के अन्तर्गत शिखर जिसे ओडिशा में देवल कहते हैं, लगभग चोटी तक एकदम ऊर्ध्वाधर यानी बिल्कुल सीधा खड़ा होता है, पर चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है।
  • इन मंदिरों में देवालयों से पहले मंडप होते हैं, जिन्हें ओडिशा में जगमोहन कहा जाता है।
  • मुख्य मंदिर की भू-योजना हमेशा वर्गाकार होती है जो ऊपरी ढांचे के भागों में मस्तक पर वृत्ताकार हो जाती है। इससे लाट लम्बाई में बेलनाकार दिखाई देती है। लाट के आले दीवाले वर्गाकार होते हैं।
  • मंदिरों का बाहरी भाग अत्यंत उत्कीर्णित होता है जबकि भीतरी भाग खाली होता है।
  • ओडिशा के मंदिरों में आमतौर पर चहारदीवारी होती है।

प्रश्न 24.
बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित कोणार्क के सूर्य मंदिर की वास्तुकलात्मक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कोणार्क के सूर्य मंदिर की वास्तुकलात्मक विशेषताएँ-

  • यह सूर्य मंदिर एक ऊँचे आधार (वेदी) पर स्थित है।
  • इसकी दीवारें व्यापक रूप से आलंकारिक उत्कीर्णन से ढकी हुई हैं।
  • इसमें बड़े-बड़े पहियों के 12 जोड़े हैं, पहियों में आरे और हब हैं जो सूर्य देव की पौराणिक कथा का स्मरण कराते हैं जिसके अनुसार सूर्य सात घोड़ों द्वारा खींचे जा रहे रथ पर सवार होते हैं।
  • यह सब प्रवेश द्वार की सीढ़ियों पर उकेरा हुआ है।
  • मंदिर की दक्षिणी दीवार पर हरे पत्थर की सूर्य की एक विशाल प्रतिमा है।
  • पहले ऐसी तीन आकृतियाँ थीं, उनमें हर एक आकृति एक अलग किस्म के पत्थर पर बनी हुई अलगअलग दिशा की ओर अभिमुख थी। चौथी दीवार पर मंदिर के भीतर जाने का दरवाजा बना हुआ था, जहाँ से सूर्य की वास्तविक किरणें गर्भ गृह में प्रवेश करती थीं।

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प्रश्न 25.
कुमाऊँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में वास्तुकला का किस प्रकार का रूप विकसित हुआ?
उत्तर:
कुमाऊँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में वास्तुकला का एक अनोखा रूप विकसित हुआ। यथा-

  • चूंकि कश्मीर का क्षेत्र गांधार कला के प्रमुख स्थलों के पास था, इसलिए पांचवीं शताब्दी तक आतेआते कश्मीर की कला पर गांधार शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा।
  • दूसरी ओर उसमें गुप्तकालीन और गुप्तोत्तरकालीन परम्पराएं भी जुड़ने लगीं जो सारनाथ, मथुरा, गुजरात और बंगाल के केन्द्रों से वहाँ तक पहुँचीं।
  • ब्राह्मण पंडित और बौद्ध भिक्षुक यहाँ के धार्मिक केन्द्रों और दक्षिण में कांचिपुरम तक के केन्दों के बीच अक्सर यात्रा करते रहते थे। फलतः बौद्ध और हिन्दू परम्पराएं आपस में मिलने लगीं और फिर पहाड़ी इलाकों तक फैल गईं।
  • स्वयं पहाड़ी क्षेत्रों की भी अपनी एक अलग परम्परा थी जिसके अन्तर्गत ढलवा छत वाले लकड़ी के मकान बनाए जाते थे।

परिणामस्वरूप पहाड़ी क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर मुख्य गर्भगृह और शिखर तो रेखा प्रसाद शैली में बने होते हैं, जबकि मंडप काष्ठ-वास्तु के एक पुराने रूप में होता है। कभी-कभी मंदिर स्वयं पैगोड़ा की सूरत ले लेता है।

प्रश्न 26.
कश्मीर में पंडेरनाथ मंदिर की वास्तुकला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कश्मीर के पंडेरनाथ मंदिर की वास्तुकलाकश्मीर के पंडेरनाथ मंदिर की वास्तुकला सम्बन्धी, विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • कश्मीर का पंडेरनाथ मंदिर जलाशय के बीच में बनी एक वेदी पर निर्मित है।
  • यह मंदिर एक हिन्दू देवस्थान है और संभवतः शिव को समर्पित है।
  • इसकी वास्तुकला कश्मीर की वर्षों पुरानी परम्परा के अनुरूप है जिसके अन्तर्गत लकड़ी की इमारतें बनायी जाती हैं, छत चोटीदार होती है और उसका ढाल बाहर की ओर होता है, जिससे कि हिमपात का मुकाबला किया जा सके।
  • यह मंदिर बहुत कम अलंकृत है। हाथियों की कतार का बना आधारतल और द्वार पर बने अलंकरण ही इस मंदिर की सजावट हैं।

प्रश्न 27.
चम्बा में मिली प्रतिमाओं की क्या विशेषताएं हैं?
उत्तर:
चम्बा में मिली सातवीं शताब्दी की प्रतिमाओं में स्थानीय परम्पराओं का गुप्तोत्तर शैली के साथ संगम दिखाई देता है। यहाँ के लक्षणा देवी मंदिर में स्थापित महिषासुरमर्दिनी और नरसिंह की प्रतिमाओं/आकृतियों में गुप्तोत्तरकालीन परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है। यथा-

  • दोनों प्रतिमाओं में एक ओर जहाँ कश्मीर की धातु प्रतिमा का पालन किया गया है, वहीं दूसरी ओर मूर्तियों में गुप्तोत्तरकालीन सौंदर्य शैली का पूरा ध्यान रखा गया है।
  • प्रतिमाओं का पीलापन संभवतः जस्ते और तांबे के मिश्रण का प्रभाव है। उन दिनों कश्मीर में उन दोनों धातुओं का खूब प्रयोग होता था।

प्रश्न 28.
दक्षिण भारत की मंदिर शैली-द्रविड़ शैली-की क्या विशेषताएं हैं?
उत्तर:
दक्षिण भारत की मंदिर शैली को द्रविड़ शैली कहा जाता है। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार है-

  • द्रविड़ मंदिर एक चहारदीवारी से घिरा होता है। इस चहारदीवारी के बीच में प्रवेशद्वार होते हैं जिन्हें गोपुरम् कहते हैं।
  • मंदिर के गुम्बद (विमान) का रूप मुख्यतः एक सीढ़ीदार पिरामिड की तरह होता है जो ऊपर की ओर ज्यामितीय रूप से उठा होता है।
  • इन मंदिरों में शिखर शब्द का प्रयोग मंदिर की चोटी पर स्थित मुकुट के लिए किया जाता है जिसकी शक्ल आमतौर पर एक छोटी स्तूपिका जैसी होती है।
  • इन मंदिरों के प्रवेश-द्वार पर भयानक द्वारपालों की प्रतिमाएं खड़ी की जाती हैं।
  • मंदिर के परिसर में कोई बड़ा जलाशय या तालाब होता है।
  • उप-देवालयों को या तो मंदिर के गुम्बद के भीतर ही शामिल कर लिया जाता है या फिर अलग छोटे देवालयों के रूप में मुख्य मंदिर के पास रखा जाता है।

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प्रश्न 29.
क्या कारण है कि दक्षिण के सबसे पवित्र माने जाने वाले कुछ मंदिरों में मुख्य मंदिर का गर्भगृह सबसे छोटा होता है?
उत्तर:
दक्षिण के सबसे पवित्र माने जाने वाले कुछ मंदिरों में मुख्य मंदिर, जिसमें गर्भगृह बना होता है, उसका गुम्बद सबसे छोटा होता है क्योंकि समय के साथ जब नगर की जनसंख्या और आकार बढ़ जाता है तो मंदिर भी बड़ा हो जाता है और उसके चारों ओर नई चहारदीवारी बनाने की भी जरूरत पड़ जाती है। इसकी ऊँचाई इससे पहले वाली दीवार से ज्यादा होती है और उसका गोपुरम् भी पहले वाले गोपुरम् से अधिक ऊँचा होता है। उदाहरण के लिए त्रिची (त्रिचिरापल्ली) के श्रीरंगम मंदिर के चार समकेन्द्रित आयताकार चहारदीवारियां हैं और हर चहारदीवारी में एक गोपुरम् बना है। इससे बाहर की चहारदीवारी सबसे नई है और एकदम बीच का गुम्बद जिसमें गर्भगृह बना है, सबसे पुराना है और सबसे छोटा है।

प्रश्न 30.
आठवीं से बारहवीं शताब्दी के दौरान दक्षिण के मुख्य मंदिरों की भूमिका में क्या परिवर्तन आया?
उत्तर:
आठवीं से बारहवीं शताब्दी के दौरान मंदिर शहरी वास्तुकला के केन्द्रबिन्दु बनने लगे थे। तमिलनाडु में कांचिपुरम्, तंजावुर (तंजौर), मदुरई और कुंभकोणम् सबसे प्रसिद्ध मंदिर नगर हैं, जहाँ आठवीं से बारहवीं शताब्दी के दौरान मंदिर की भूमिका केवल धार्मिक कार्यों तक ही सीमित नहीं रही, मंदिर प्रशासन के केन्द्र बन गए, जिनके नियंत्रण में बेशुमार जमीन होती थी।

प्रश्न 31.
द्रविड़ मंदिरों की मूल आकृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
द्रविड़ मंदिरों की मूल आकृतियाँ-द्रविड़ मंदिरों की मूल आकृतियां पाँच प्रकार की होती हैं-

  • वर्गाकार-वर्गाकार को आमतौर पर कूट या चतुरस्र भी कहा जाता है।
  • आयताकार-इसे शाला या आयतस्म भी कहा जाता है।
  • अंडाकार-इसे गजपृष्ठीय कहते हैं जो हाथी के पीठ जैसी होती है। इसे वृत्तायत भी कहा जाता है। यह गजपृष्ठीय चैत्यों के शकटाकार रूपों पर आधारित होती है जिनके प्रवेशद्वार घोड़े के नाल के आकार को होते हैं जिन्हें आमतौर पर 'नासी' कहा जाता है।
  • वृत्त-इसे गोलाकार भी कहते हैं।
  • अष्टास्त्र-यह अष्टभुजाकार होता है। प्रायः मंदिर की योजना और उसके विमान देवी-देवता के मूर्त रूप के अनुसार निर्धारित होते हैं।

प्रश्न 32.
दक्षिण में पल्लवकाल में किस प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ?
उत्तर:
पल्लव वंश दक्षिण भारत का एक पुराना राजवंश था जो दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक रहा और इसका शासन क्षेत्र आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु रहा। कभी-कभी तो उनके साम्राज्य की सीमाएं ओडिशा तक फैल गई थीं।

पल्लव राजा अधिकतर शैव थे, लेकिन उनके शासनकाल में अनेक वैष्णव मंदिर आज भी मौजूद हैं और इसमें भी संदेह नहीं कि वे दक्कन के लम्बे बौद्ध इतिहास से भी प्रभावित थे।

उनके आरंभिक भवन शैलकृत थे जबकि बाद वाले भवन संरचनात्मक (रोड़ा-पत्थर आदि से चुनकर बनाए गए) थे, लेकिन संरचनात्मक भवन उस समय भी सुविख्यात थे, जब शैलकृत भवनों को खोदा जा रहा था। आरंभिक भवन पल्लव शासक महेन्द्र वर्मन के काल में बने और 640 ई. के आस-पास पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम (मामल्ल) ने महाबलीपुरम में अनेक भवनों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया। संभवतः इसीलिए महाबलीपुरम को उसके नाम का अनुकरण करते हुए मामल्लपुरम कहा गया।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 33.
महाबलीपुरम के तटीय मंदिर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
महाबलीपुरम का तटीय मंदिर-यह मंदिर संभवतः नरसिंहवर्मन द्वितीय (700-728 ई.), जिन्हें राजसिंह भी कहा जाता है, के द्वारा बनवाया गया। इसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • इस मंदिर में तीन देवालय हैं, जिनमें दो शिव के हैं। उनमें से एक पूर्वाभिमुख है और एक पश्चिमाभिमुख है और उन दोनों के बीच अनंतशयनम् रूप में विष्णु का मंदिर है।
  • मंदिर के अहाते में कई जलाशय, एक आरंभिक गोपुरम् और कई अन्य प्रतिमाएं होने का साक्ष्य मिलता है।
  • मंदिर की दीवारों पर शिव के वाहन नन्दी बैल की भी प्रतिमाएं हैं तथा नीची दीवारों पर और भी कई आकृतियां बनी हैं जो काफी बिगड़ गई हैं।

प्रश्न 34.
महाबलीपुरम के पांच रथ मंदिर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सातवीं शताब्दी के मध्य पल्लव नरेश नृसिंह वर्मन द्वितीय के समय महाबलीपुरम पल्लवकालीन वास्तुकला का केन्द्र था। इस समय स्थापत्य एवं मूर्तिकला की एक द्रविड़ शैली का विकास हुआ। इस शैली में निर्मित मंदिर 'रथ' या 'पगोड़ा' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसमें पांच पांडव रथ मुख्य है। इनमें सर्वप्रथम धर्मराज रथ, भीम रथ और सहदेव रथ हैं, जिनकी छतें पिरामिडनुमा हैं और जो विविध अलंकरणों से सुसज्जित हैं वहीं अर्जुन रथ और नकुल रथ अपेक्षाकृत साधारण स्तर को दर्शाते हैं।
RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला 1
चित्र : पाँच रथ महाबलीपुरम

प्रश्न 35.
कर्नाटक में हलेबिड स्थित होयसलेश्वर मंदिर की स्थापत्य सम्बन्धी विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
होयसलेश्वर मंदिर की स्थापत्य विशेषताएँ-

  • कर्नाटक में हलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर होयसल नरेश द्वारा 1150 ई. में गहरे रंग के परतदार पत्थर से बनवाया गया था।
  • इस मंदिर को वेसर शैली का मंदिर कहा जाता है क्योंकि उनकी शैली द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों से लेकर बीच की शैली है।
  • ये मंदिर अपनी मौलिक तारकीय भू-योजना और अत्यंत आलंकारिक उत्कीर्णन के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं।

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प्रश्न 36.
तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर की स्थापत्य कला पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर

  • तंजावुर का भव्य शिव मंदिर जिसे राजराजेश्वर या बृहदेश्वर मंदिर कहा जाता है, समस्त भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और अच्छा है।
  • इसका निर्माण कार्य सन् 1009 ई. के आसपास राजराज चोल द्वारा पूरा कराया गया था।
  • इसका बहुमंजिला विमान 70 मीटर (लगभग 230 फुट) की गगनचुम्बी ऊंचाई तक खड़ा है जिसकी चोटी पर एकाश्म शिखर है जो अष्टभुज गुंबद की शक्ल की स्तूपिका है। नंदी का विशाल प्रतिमाएं शिखर के कोनों पर लगी हुई है। सैकड़ों आकृतियां विमान की शोभा बढ़ा रही हैं। चोटी पर बना कलश लगभग तीन मीटर और आठ सेंटीमीटर ऊँचा है।
  • इसमें दो बड़े गोपुर हैं, जिन पर अनेक प्रतिमाएं बनी हैं।
  • मंदिर के प्रमुख देवता शिव हैं, जो एक अत्यंत विशाल लिंग के रूप में एक दो-मंजिले गर्भगृह में स्थापित हैं। गर्भगृह के चारों ओर की दीवारें पौराणिक आख्यानों से ओत-प्रोत हैं जिन्हें चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

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चित्र : बृहदेश्वर मंदिर, तंजावुर

प्रश्न 37.
वेसर शैली से क्या आशय है?
उत्तर:
कर्नाटक आदि कई क्षेत्रों में अनेक भिन्न-भिन्न शैलियों में मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें उत्तर तथा दक्षिण भारतीय दोनों शैलियों का प्रयोग हुआ था। कुछ विद्वानों ने तो इस क्षेत्र के मंदिरों को नागर एवं द्रविड़ शैली से हटकर उनकी मिश्रित शैली माना है। यह शैली सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लोकप्रिय हुई और जिसका उल्लेख कुछ प्राचीन ग्रंथों में वेसर के नाम से किया गया है। अतः स्पष्ट है कि वेसर शैली एक मिश्रित शैली का नाम है।

प्रश्न 38.
तारकीय भू-योजना और आलंकारिक उत्कीर्णन से क्या आशय है?
उत्तर:
कर्नाटक के होयसलों के प्रसिद्ध मंदिर बेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुर तारकीय भू-योजना और आलंकारिक उत्कीर्णन की विशेषताओं वाले हैं। 

  • तारकीय भू-योजना-तारकीय भू-योजना वाले मंदिरों में आगे बढ़े हुए कोण होते हैं जिनसे इन मंदिरों की योजना तारे जैसी दिखाई देने लगती है। इसलिए इस योजना को तारकीय योजना कहा जाता है।
  • आलंकारिक उत्कीर्णन-चूंकि ये मंदिर घिया पत्थर से बने हुए हैं। इसलिए कलाकार अपनी मूर्तियों को बारीकी से उकेर सकते हैं। इस बारीकी को विशेष रूप से उन देवी-देवताओं के आभूषणों के अंकन में देखा जा सकता है जो उन मंदिरों पर सजे हुए हैं।

प्रश्न 39.
चालुक्यकालीन बादामी गुफा मंदिर स्थित नटराज की मूर्ति तथा अन्य प्रतिमाओं की कलात्मक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
चालुक्यकालीन गुफा मंदिरों में पाई गई सबसे महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में एक नटराज की मूर्ति है जो सप्तमातृकाओं के असली आकार से भी बड़ी प्रतिमाओं से घिरी है। इनमें से तीन प्रतिमाएं दाहिनी ओर बनी हैं।

ये प्रतिमाएं लालित्यपूर्ण है, इनकी शारीरिक संरचना पतली है, चेहरे लंबे बने हैं और इन्हें छोटी धोतियाँ लपेटे हुए दिखाया गया है जिसमें सुन्दर चुन्नटें बनी हैं। ये समकालीन पश्चिमी दक्कन या वाकाटक शैलियों से भिन्न हैं।

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प्रश्न 40.
एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर की वास्तुकला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर की वास्तुकला-

  • एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर पूर्णतया द्रविड़ शैली में निर्मित है और इसके साथ नंदी का देवालय भी बना है।
  • यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।
  • इस मंदिर का प्रवेश-द्वार गोपुरम् जैसा है।
  • इसमें चारों ओर उपासना कक्ष और फिर सहायक देवालय बना है जिसकी ऊँचाई 30 मीटर है।
  • यह सब एक जीवंत शैलखंड पर उकेरकर बनाया गया है। पहले एक एकाश्म पहाड़ी के एक हिस्से को धैर्यपूर्वक उकेरा गया है और इस संपूर्ण बहुमंजिली संरचना के पीछे छोड़ दिया गया है।

प्रश्न 41.
आरंभिक चालुक्यों की शैलकृत गुफा में पाई गई नटराज की मूर्ति की मूर्तिकलात्मक शैली को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आरंभिक चालुक्यों की शैलकृत गुफा स्थल पर पाई गई सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिमाओं में एक नटराज की मूर्ति है। इसकी मूर्तिकलात्मक शैली की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • नटराज की मूर्ति सप्त मातृकाओं के असली आकार से भी बड़ी प्रतिमाओं से घिरी है।
  • इनमें तीन प्रतिमाएँ दाहिनी ओर बनी हैं।
  • ये प्रतिमाएँ लालित्यपूर्ण हैं, इनकी शारीरिक संरचना पतली है, चेहरे लम्बे बने हैं।
  • इन्हें छोटी धोतियाँ लपेटे हुए दिखाया गया है जिनमें सुन्दर चुन्नटें बनी हुई हैं।

प्रश्न 42.
चालुक्यकालीन मंदिरों में अनेक शैलियों का संकरण और समावेशन हुआ है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अनेक शैलियों का संकरण और समावेशन चालुक्यकालीन मंदिरों की विशेषता है। यथा-

  • पट्टडकल में स्थित विरूपाक्ष मंदिर तथा पापनाथ मंदिर प्रारंभिक द्रविड़ परम्परा के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
  • बादामी से मात्र पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर और आलमपुर स्थित स्वर्ग ब्रह्म मंदिर में राजस्थान एवं ओडिशी की उत्तरी शैली की झलक देखने को मिलती है।
  • ऐहोल (कर्नाटक) का दुर्गा मंदिर गजपृष्ठाकार बौद्ध चैत्यों के समान शैली में निर्मित है। यह मंदिर बाद की शैली में निर्मित बरामदे से घिरा हुआ है जिसका शिखर नागर शैली में बना है।
  • ऐहोल के लाड़खान मंदिर में पहाड़ी क्षेत्रों के लकड़ी के छत वाले मंदिरों से प्रेरणा मिली होगी, लेकिन यह मंदिर पत्थर का बना है, लकड़ी का नहीं। स्पष्ट है कि चालुक्यकालीन मंदिरों में अनेक शैलियों का समावेशन हुआ है।

प्रश्न 43.
विजयनगर साम्राज्य काल की वास्तुकला पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:

  • सन् 1336 ई. में स्थापित विजयनगर साम्राज्य में वास्तुकला की दृष्टि से सदियों पुरानी द्रविड़ वास्तु शैलियों और पड़ौसी सल्तनतों द्वारा प्रस्तुतं इस्लामिक प्रभावों का संश्लिष्ट रूप मिलता है।
  • इनकी मूर्तिकला जो मूल रूप से चोल आदर्शों से निकली थी और जब इन्हीं आदर्शों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थी, उसमें भी विदेशियों की उपस्थिति की झलक दिखाई देती है।

प्रश्न 44.
राजस्थान में माउण्ट आबू स्थित जैन मंदिर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
राजस्थान में माउण्ट आबू स्थित जैन मंदिर-राजस्थान में माउण्ट आबू पर स्थित जैन मंदिर विमलशाह द्वारा बनाए गए थे। इनका बाहरी हिस्सा बहुत सादा है जबकि भीतरी भाग बढ़िया संगमरमर तथा भारी मूर्तिकलात्मक साज-सज्जा से अलंकृत है, जहाँ गहरी कटाई बेलबूटों जैसी प्रतीत होती है। इसकी हर भीतरी छत पर बेजोड़ नमूने बने हुए हैं और इसकी गुंबद वाली छतों के साथ-साथ सुंदर आकृतियाँ बनी हैं।

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निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
मूर्तिकला से आप क्या समझते हैं? मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना बड़ी सूझबूझ के साथ बनाई जाती है। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मूर्ति विद्या-देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन, कला इतिहास की एक अलग शाखा के अन्तर्गत आता है, जिसे मूर्ति विद्या कहा जाता है।

मूर्ति विद्या के अन्तर्गत कतिपय प्रतीकों तथा पुराण कथाओं के आधार पर मूर्ति की पहचान की जाती है। प्रत्येक क्षेत्र और काल में प्रतिमाओं की शैली सदा एक जैसी नहीं रही। प्रतिमा विद्या में अनेक स्थानीय परिवर्तन आते रहे। मूर्तिकला और अलंकरण शैली में भी व्यापकता आती गई और देवी-देवताओं के रूप उनकी कथाओं के अनुसार बदलते गये। अक्सर कई बार ऐसा होता है कि देवता की आधारभूत कथा. और अर्थ तो सदियों तक एक जैसा ही बना रहता है किन्तु स्थान और समय के सामाजिक, राजनैतिक या भौगोलिक संदर्भ में उसका उपयोग कुछ बदल जाता है।

मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना-मंदिर में मूर्ति स्थापना की योजना बड़ी सूझ-बूझ के साथ बनाई जाती है। इसे निम्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है-

  • नागर शैली के मंदिरों में गंगा और यमुना जैसी नदियों को गर्भगृह के प्रवेश-द्वार के पास रखा जाता है, जबकि द्रविड़ मंदिरों में द्वारपालों को आमतौर पर मंदिर के मुख्य द्वार यानी गोपुरम् पर रखा जाता है।
  • मिथुनों नवग्रहों (नौ मांगलिक ग्रहों) और यक्षों को द्वार रक्षा के लिए प्रवेश-द्वार पर रखा जाता है।
  • मुख्य देवता (मंदिर के अधिष्ठाता देवता) के विभिन्न रूपों को या पक्षों को गर्भगृह की बाहरी दीवारों और मंदिर की बाहरी दीवारों पर अपनी-अपनी दिशा की ओर अभिमुख दिखाया जाता है।
  • मुख्य देवालयों की चारों दिशाओं में छोटे देवालय होते हैं, जिनमें मुख्य देवता के परिवार या अवतारों की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है।
  • देवी-देवताओं के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रस्तुतीकरण में भी भिन्न-भिन्न पंथों या सम्प्रदायों के बीच दार्शनिक वाद-विवाद और प्रतियोगिताओं के कारण विविधता आ गई।
  • अलंकरण के विविध रूपों, जैसे-गवाक्ष, व्याल/आली, कल्प-लता, आमलक, कलश आदि का प्रयोग भी मंदिर में विविध स्थानों तथा तरीकों से किया गया।

प्रश्न 2.
नागर शैली के मंदिरों को, उनके शिखरों के रूपाकार (शक्ल) के अनुसार कितनी उपश्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं?
उत्तर:
नागर शैली से आशय-उत्तर भारत में मंदिर स्थापत्य/वास्तुकला की जो शैली लोकप्रिय हुई उसे नागर शैली कहा जाता है। इस शैली में सम्पूर्ण मंदिर एक विशाल चबूतरे (वेदी) पर बनाया जाता है और उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां होती हैं। इन मंदिरों में कोई चहारदीवारी या दरवाजे नहीं होते।

शिखर-मंदिर में एक घुमावदार गुम्बद होता है, जिसे शिखर कहा जाता है। यद्यपि पुराने जमाने के मंदिरों में एक ही शिखर होता था, लेकिन आगे चलकर इन मंदिरों में कई शिखर होने लगे। मंदिर का गर्भगृह हमेशा सबसे ऊँचे शिखर के एकदम नीचे बनाया जाता है।

शिखरों के रूपाकारों के अनुसार मंदिर की उपश्रेणियां-नागर मंदिर उनके शिखरों के रूपाकार (शक्ल) के अनुसार कई उपश्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं, यथा-
(1) रेखा प्रसाद मंदिर-एक साधारण शिखर वाला मंदिर, जिसका आधार वर्गाकार होता है और दीवारें . भीतर की ओर मुड़कर चोटी पर एक बिन्दु पर मिलती हैं, उसे आमतौर पर रेखा प्रसाद मंदिर कहा जाता है।

(2) फमसाना किस्म का मंदिर-नागर शैली में एक दूसरा प्रमुख वास्तु रूप है-फमसाना किस्म के भवन वाला मंदिर। यह रेखा प्रसाद की तुलना में अधिक चौड़े तथा ऊंचाई में कुछ छोटे होते हैं। इनकी छतें अनेक ऐसी शिलाओं की बनी होती हैं, जो भवन के केन्द्रीय भाग के ऊपर एक निश्चित बिन्दु तक सफाई से जुड़ी होती हैं जबकि रेखा प्रसाद सीधे ऊपर उठे हुए लंबे गुंबदों की तरह दिखाई देते हैं।

फमसाना की छतें भीतर की ओर मुड़ी नहीं होती हैं बल्कि सीधे ऊपर की ओर ढलवां होती हैं। बहुत से उत्तर भारतीय मंदिरों में फमसाना डिजायन का प्रयोग मंडपों में हुआ है जबकि मुख्य गर्भगृह एक रेखा प्रसाद में रखा गया है।

(3) शकटाकार भवन वाले मंदिर-वल्लभी, नागर शैली की एक उपश्रेणी कहलाती है। इस श्रेणी के वर्गाकार मंदिरों में मेहराबदार छतों से शिखर का निर्माण होता है। इस मेहराबी कक्ष का किनारा गोल होता है। यह शकटाकार अर्थात् बांस की लकड़ी के बने छकड़े की तरह होता है। ऐसे भवनों को शकटाकार भवन कहा जाता है।

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प्रश्न 3.
दशावतार विष्णु मंदिर, देवगढ़ (जिला ललितपुर, उत्तर प्रदेश) की स्थापत्य/वास्तुकला विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दशावतार विष्णु मंदिर, देवगढ़
दशावतार विष्णु मंदिर, देवगढ़ की विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) निर्माण काल-देवगढ़ (जिला लालितपुर, उत्तर प्रदेश) का मंदिर छठी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बनाया गया था। इसलिए इसे गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का एक श्रेष्ठ उदाहण माना जाता है।

(2) पंचायतन शैली में निर्मित-पंचायतन शैली नागर शैली की एक उपशैली है। देवगढ़ का मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली में निर्मित है, जिसके अनुसार मुख्य देवालय को एक वर्गाकार वेदी पर बनाया गया है और चार कोनों में चार छोटे सहायक देवालय बनाए गए हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर पांच छोटे-बड़े देवालय बनाए गए हैं। पांच देवालयों के कारण ही इसे पंचायतन शैली कहा जाता है।

(3) शिखर रेखा प्रसाद शैली पर-देवगढ़ के मंदिर का ऊँचा और वक्ररेखीय शिखर है जो गुप्तकाल की विशेषता को पुष्ट करता है। शिखर रेखा प्रसाद शैली पर बना है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह मंदिर नागर शैली का आरंभिक उदाहरण है।

(4) पश्चिमाभिमुख प्रवेश-द्वार-मंदिर का प्रवेश-द्वार बहुत भव्य है। इस मंदिर की यह एक अनोखी विशेषता है क्योंकि पश्चिमाभिमुख मंदिर बहुत कम होते हैं। अधिकांश मंदिरों का मुख पूर्व या उत्तर की ओर होता है। इसके बाएँ कोने पर गंगा और दाएँ कोने पर यमुना है।

(5) मूर्तियाँ-इस मंदिर में विष्णु के अनेक रूप प्रस्तुत किए गए हैं। यह मंदिर विष्णु को समर्पित है। इसके कारण लोगों का यह मानना है कि इसके चारों उप देवालयों में भी विष्णु के अवतारों की मूर्तियां ही स्थापित थीं। इसीलिए लोग इसे भ्रमवश दशावतार मंदिर समझने लगे।
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चित्र : दशावतार विष्णु मंदिर, देवगढ़
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चित्र : शेषशायी विष्णु दशावतार मंदिर, देवगढ़

(6) दीवारों पर आकृतियाँ-मंदिर की दीवारों पर विष्णु की तीन उभरी आकृतियां हैं । दक्षिणी दीवार पर शेषशयन, पूर्वी दीवार पर नर-नारायण और पश्चिमी दीवार पर गजेन्द्र मोक्ष का दृश्य चित्रित है।

(7) परिक्रमा-मंदिर की दीवारों पर उभरी विष्णु की आकृतियों की स्थिति से यह पता चलता है कि इस मंदिर में परिक्रमा दक्षिण से पश्चिम की ओर की जाती है जबकि आजकल प्रदक्षिणा दक्षिणावर्त की जाती है।

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प्रश्न 4.
खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की वास्तुकला की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर
खजुराहो के मंदिर चंदेल राजवंश के संरक्षण में बनाए गए थे। वहाँ का लक्ष्मण मंदिर चंदेलों के समय की मंदिर वास्तुकला की पूर्ण विकसित शैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसका निर्माण कार्य 954 ई. तक पूरा हो गया था और चंदेल वंश का सातवां राजा यशोवर्मन इसका निर्माता था। इसकी प्रमुख स्थापत्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(1) नागर शैली-यह मंदिर नागर शैली की पंचायतन योजना में निर्मित है।

(2) वेदी-नागर शैली में निर्मित्त यह मंदिर एक ऊंची वेदी (प्लेटफार्म) पर स्थित है और उस तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं।

(3) पंचायतन योजना-इस मंदिर की योजना पंचायतन किस्म की है। मुख्य मंदिर विष्णु को समर्पित है। मुख्य मंदिर के साथ इसके कोनों में चार छोटे देवालय बने हैं, जिनमें तीन देवालयों में विष्णु की और एक में सूर्य की प्रतिमा है जिसे देवालय की छत पर बनी केन्द्रीय प्रतिमा से पहचाना जा सकता है।

(4) मंडप, विमान, गर्भगृह तथा छज्जे-इसमें एक अर्द्धमंडप, एक मंडप, एक महामंडप और विमान सहित गर्भगृह है। हर हिस्से की अपनी एक अलग छत है जो पीछे की ओर उठी हुई है। सभी बड़े कक्षों में उसकी दीवारों पर आगे निकले हुए छज्जे हैं, लेकिन दर्शक उन तक नहीं पहुँच सकते। वे मुख्य रूप से वायु तथा प्रकाश के आवागमन के लिए ही बनाए गए हैं। मंदिर में आगे निकले हुए बारजे और बरामदे हैं।

(5) शिखर तथा आमलक-गर्भगृह पर बना शिखर बहुत ऊँचा है। यह गगनचुम्बी शिखर पिरामिड की तरह सीधे आकाश में खड़े हुए उसके उदग्र उठान को प्रदर्शित कर रहा है। इसके शिखर के अन्त में एक नालीदार चक्रिका (तश्तरी) है जिसे आमलक कहा जाता है और उस पर कलश स्थापित है। ये सब चीजें नागर मंदिरों में सर्वत्र पायी जाती हैं।

(6) प्रतिमाएं व आकृतियां-

  • गर्भगृह के चारों ओर एक प्रदक्षिणा पथ है जो बाहरी दीवारों से ढका है। ये दीवारें अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाओं और कामोद्दीप आकृतियों से सुसज्जित हैं।
  • गर्भगृह की बाहरी दीवारें भी ऐसी ही आकृतियों से सजी हुई हैं।
  • गर्भगृह का प्रवेश-द्वार भारी-भरकम स्तंभों और सरदलों से बनाया गया है जिन पर सजावट के लिए छोटी-छोटी आकृतियां उकेरी हुई हैं।
  • इनमें वस्त्र-सज्जा एवं आभूषणों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया हैं।

(7) कामुक प्रतिमाएं-खजुराहो के मंदिर अपनी कामुक प्रतिमाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। पीठ की दीवार पर भी अनेक कामुक प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मंदिर की असली दीवार पर बहुत कम कामुक प्रतिमाएं बनाई गई हैं लेकिन अधिकांश ऐसी प्रतिमाएं कुर्सी पर बनी हुई हैं। दीवारें कुछ इस प्रकार बनाई गई हैं कि इनमें प्रतिमाएं रखने के लिए खास स्थान की व्यवस्था की गई है।

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चित्र : नृत्य कक्षा, लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
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चित्र : लक्ष्मण मंदिर, खजुराहो

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प्रश्न 5.
बंगाल में मंदिर निर्माण एवं प्रतिमाओं की स्थापत्य कला की विभिन्न शैलियों का विकास किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
बंगाल में प्रतिमा निर्माण की शैलियां-
(1) पाल शैली-बिहार और बंगाल में 9वीं से 12वीं शताब्दियों के बीच की अवधि में निर्मित प्रतिमाओं की शैली को पाल शैली कहा जाता है जिसका नामकरण तत्कालीन पाल शासकों के आधार पर किया गया।

ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग से 13वीं शताब्दी के मध्य भाग तक निर्मित मूर्तियों की शैली को तत्कालीन सेन शासकों के नाम पर सेन शैली कहा जाता है।

9वीं से 12वीं शताब्दी तक के काल में बने उस क्षेत्र के मंदिर स्थानीय बंग शैली के अभिव्यंजक ही माने जाते हैं। उदाहरण के लिए वर्द्धमान जिले में बराकड नगर के पास स्थित नौवीं शताब्दी के सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का मोड़दार शिखर बहुत ऊंचा है और उसकी चोटी पर एक बड़ा आमलक बना हुआ है। यह आरंभिक पाल शैली का अच्छा उदाहरण है।

(2) विभिन्न नागर उपशैलियां-नौवीं से 12वीं शताब्दियों के बीच बने अनेक भवन पुरुलिया जिले में तेलकपी स्थान पर स्थित हैं। ये भवन उस क्षेत्र में प्रचलित अनेक महत्वपूर्ण शैलियों से सम्बद्ध हैं जिनसे पता चलता है कि तत्कालीन कलाकार उन सभी नागर उपशैलियों से परिचित थे जो उस समय भारत में प्रचलित थीं। पुरुलिया जिले में कुछ मंदिर आज भी विद्यमान हैं जो उस काल के बताए जाते हैं।

(3) स्थानीय भवन निर्माण की स्थानीय परम्परा का प्रभाव-बंगाल की अनेक स्थानीय भवन निर्माण की परम्पराओं ने भी उस क्षेत्र की मंदिर शैली को प्रभावित किया। इन स्थानीय परम्पराओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था-बंगाली झोंपड़ी की बाँस की बनी हुई छत का एक ओर ढलान या उसकी मुड़ी हुई शक्ल। इस विशेषता को आगे चलकर मुगलकालीन इमारतों में भी अपना लिया गया। इसी छत को सम्पूर्ण उत्तर भारत में बंगला छत कहा जाता है।

(4) पाल शैली, बंगला छत शैली तथा मुगल वास्तु कला की मिश्रित शैली का विकास-मुगलकाल में और उसके बाद पकी मिट्टी की ईंटों से बीसियों मंदिर बंगाल और आज के बंगला देश में बनाए गए। इसमें बांस की झोंपड़ियों में प्रमुख स्थानीय निर्माण तकनीकों के तत्व तो शामिल थे ही, साथ ही पाल शैली के बचेखुचे पुराने रूपों और मुस्लिम वास्तु कला के मेहराबों और गुंबदों के रूपों को उनमें शामिल कर लिया गया। इस शैली के भवन विष्णुपुर, बांकुड़ा, वर्द्धमान और वीरभूमि में स्थान-स्थान पर मिलते हैं और ये अधिकतर सत्रहवीं शताब्दी के हैं।

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चित्र : टेराकोटा का मंदिर, विष्णुपुर

प्रश्न 6.
कोणार्क के सूर्य मंदिर की स्थापत्य कला का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
कोणार्क का सूर्य मंदिर बंगील की खाड़ी के तट पर स्थित कोणार्क के भव्य सूर्य मंदिर के अब भग्नावशेष ही देखने को मिलते हैं। यह मंदिर 1240 ई. के आसपास बनाया गया था। यथा-
(1) वेदी-सूर्य मंदिर एक ऊँचे आधार (वेदी) पर स्थित है। इसकी दीवारें व्यापक रूप से आलंकारिक उत्कीर्णन से ढकी हुई हैं। इसमें बड़े-बड़े पहियों के 12 जोड़े हैं, पहियों में आरे और नाभिकेन्द्र (हब) हैं, जो सूर्यदेव की पौराणिक कथा का स्मरण कराते हैं। इसके अनुसार सूर्य सात घोड़ों द्वारा खींचे जा रहे रथ पर सवार होते हैं। यह सब प्रवेश-द्वार की सीढ़ियों पर उकेरा हुआ है। इस प्रकार यह मंदिर किसी शोभायात्रा में खींचे जा रहे विशाल रथ जैसा प्रतीत होता है।

(2) सूर्य की प्रतिमा-मंदिर की दक्षिणी दीवार पर सूर्य की एक विशाल प्रतिमा है जो हरे पत्थर की बनी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि पहले ऐसी तीन आकृतियां थीं, उनमें से हर एक आकृति एक अलग किस्म के पत्थर पर बनी हुई अलग-अलग दिशा की ओर अभिमुख थी। चौथी दीवार पर मंदिर के भीतर जाने का दरवाजा बना हुआ था, जहाँ से सूर्य की वास्तविक किरणें गर्भगृह में प्रवेश करती थीं।
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चित्र : सूर्य मंदिर, कोणार्क

(3) मंडप-मंदिर का विस्तृत संकुल एक चौकोर परिसर के भीतर स्थित था। उसमें से अब जगमोहन यानी नृत्य मंडप ही बचा है। अब इस मंडप तक पहुँचा नहीं जा सकता। पर इसके बारे में कहा जाता है कि यह मंडप हिन्दू वास्तुकला में सबसे घिरा हुआ अहाता है।

(4) शिखर-इसका शिखर बहुत भारी-भरकम था और कहते हैं कि उसकी ऊँचाई 70 मीटर थी। इसका स्थल इसके भार को न सह सका और यह शिखर 19वीं शताब्दी में धराशायी हो गया।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 7.
महाबलीपुरम के विशाल प्रतिमा फलक पर एक निबन्ध लिखिए।
अथवा
महाबलीपुरम का विशाल प्रतिमा फलक किस काल का है? इसके विषय तथा वास्तुकला का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
महाबलीपुरम
महाबलीपुरम पल्लवकाल का एक महत्वपूर्ण पट्टननगर है, जहाँ अनेकों शैलकृत एवं स्वतंत्र खड़े मंदिरों का निर्माण सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुआ।

वास्तुकला सम्बन्धी विशेषताएं-
(1) महाबलीपुरम का यह विशाल प्रतिमा फलक (पैनल) जिसकी ऊँचाई 15 मीटर एवं लम्बाई 30 मीटर है। विश्व में इस प्रकार का सबसे बड़ा और सबसे प्राचीन पैनल है।
(2) इसमें चट्टानों के मध्य एक प्राकृतिक दरार है जिसका उपयोग शिल्पियों द्वारा इतनी सुन्दरता से किया गया है कि इस दरार से बहकर पानी नीचे बने हुए कुंड में एकत्रित होता है।
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चित्र : महाबलीपुरम

(3) इसमें चित्रित सभी आकृतियों को कमनीय और सजीव गतिमान दिखाया गया है। व्यक्तियों के अतिरिक्त उड़ते हुए गंधर्वो, पशुओं और पक्षियों की आकृतियाँ भी बनी हुई हैं जिनमें विशेष उल्लेखनीय हैं-एक सजीव और सुघड़ हाथी और मंदिर के नीचे बना हिरण का एक जोड़ा।

(4) इनमें सबसे हास्यास्पद चित्रण एक बिल्ली का है जो भागीरथ या अर्जुन की नकल करते हुए अपने पीछे के पंजों पर खड़ी होकर आगे के पंजों को हवा में उठाए हुए है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि यह बिल्ली, चूहों से घिरी हुई है जो उसकी साधना भंग नहीं कर पा रहे हैं। संभवतः यह कलाकार द्वारा भगीरथ अथवा अर्जुन के कठोर तप का सांकेतिक चित्रण है जो अपने आस-पास की स्थिति से विचलित हुए बिना स्थिर खड़ी है।

महाबलीपुरम के विशाल प्रतिमा फलक के विषय-महाबलीपुरम के विशाल प्रतिमा फलक के विषय के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत हैं। कुछ का मानना है कि यह गंगावतरण का प्रकरण है, कुछ इसे किरातार्जुनीयम् की कथा से जोड़ते हैं और कुछ अर्जुन की तपस्या से। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार, यह पैनल एक पल्लव राजा की प्रशस्ति है जो कुण्ड के मध्य पैनल की अनूठी पृष्ठभूमि में बैठता होगा। यथा-

रिलीफ पैनल में एक मंदिर को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है जिसके सामने तपस्वी और श्रद्धालु बैठे हैं। इनके ऊपर एक टांग पर खड़े योगी का चित्रण है जिसके हाथ सिर के ऊपर उठे हुए हैं जिसे कुछ लोग भगीरथ एवं कुछ अर्जुन मानते हैं। अर्जुन ने शिव से पाशुपत अस्त्र पाने के लिए तपस्या की थी जबकि भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर अवतरण करने के लिए। इसके बगल में वरद् मुद्रा में शिव को खड़ा दिखाया गया है। इस हाथ के नीचे खड़ा छोटा सा गण शक्तिशाली पाशुपत अस्त्र का मानवीकरण है।

प्रश्न 8.
"अनेक शैलियों का संस्करण और समावेशन चालुक्य कालीन भवनों की विशेषता थी।" सोदाहरण समझाइए।
उत्तर:
चालुक्य काल एवं शासन क्षेत्र-पुलकेशिन प्रथम ने कर्नाटक में सर्वप्रथम पश्चिमी चालुक्य राज्य स्थापित किया। जब उसने 543 ई. में बादामी के आस-पास के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया। आरंभिक पश्चिमी चालुक्य शासकों ने अधिकांश दक्कन पर आठवीं शताब्दी के मध्य भाग तक शासन किया, जब तक कि राष्ट्रकूटों ने उनसे सत्ता नहीं छीन ली।

कर्नाटक के क्षेत्र में बेसर वास्तुकला की शंकर (मिली-जुली) शैलियों के सर्वाधिक प्रयोग दिखने को मिलते हैं। यही कारण है कि अनेक शैलियों का संस्करण या समावेशन चालुक्यकालीन भवनों में दिखाई देता है। इसे निम्न उदाहणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है-

(1) शैलकृत गुफाएं व संरचनात्मक मंदिर-आरंभिक चालुक्यों ने पहले शैलकृत गुफाएं बनवाईं और फिर उन्होंने संरचनात्मक मंदिर बनवाए। इन गुफाओं में सबसे पुरानी गुफा अपनी विशिष्ट मूर्तिकलात्मक शैली के लिए जानी जाती है।

(2) नटराज की मूर्ति-वाकाटक शैलियों से भिन्न शैली-इस गुफा स्थल पर सबसे महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में एक नटराज की मूर्ति है जो सप्त मातृकाओं के असली आकार से भी बड़ी प्रतिमाओं से घिरी है। इनमें से तीन प्रतिमाएं दाहिनी ओर बनी हैं।

प्रतिमाएं लालित्यपूर्ण हैं, इनकी शारीरिक संरचना पतली है, चेहरे लंबे हैं और इन्हें छोटी धोतियां लपेटे दिखाया गया है जिनमें सुन्दर चुन्नटें बनी हुई हैं। ये प्रतिमाएं समकालीन पश्चिमी दक्कन या वाकाटक शैलियों से भिन्न हैं जो महाराष्ट्र में पौनार और रामटेक जैसे स्थानों पर देखने को मिलती हैं।

(3) प्रारंभिक द्रविड़ शैली के उदाहरण-विरुपाक्ष मंदिर तथा पापनाथ मंदिर-चालुक्य मंदिरों का एक सर्वोत्तम मंदिर पट्टडकल में स्थित विरुपाक्ष मंदिर है। यह मंदिर विक्रमादित्य द्वितीय के शासन काल (733-44 ई.) में उसकी पटरानी लोका महादेवी द्वारा बनवाया गया। यह मंदिर प्रारंभिक द्रविड़ परम्परा का सर्वोत्तम उदाहरण है।

इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल पापनाथ मंदिर है, जो कि भगवान शिव को समर्पित है। यह भी द्रविड़ शैली के पूर्वकाल का श्रेष्ठतम उदाहरण है।

(4) उत्तरी नागर शैली के उदाहरण-महाकूट मंदिर तथा स्वर्ग ब्रह्म मंदिर-चालुक्य मंदिरों की परम्परा के विपरीत बादामी से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर तथा आलमपुर स्थित स्वर्ग ब्रह्म मंदिर में राजस्थान एवं ओडिशा की उत्तरी नागर शैली की झलक देखने को मिलती है।

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चित्र : विरुपाक्ष मंदिर पट्टडकल

(5) ऐहोल का दुर्गा मंदिर (गजपृष्ठाकार बौद्ध चैत्य शैली)-ऐहोल (कर्नाटक) का दुर्गा मंदिर भी पूर्व की गजपृष्ठाकार बौद्ध चैत्यों के समान शैली में निर्मित है। यह मंदिर बाद की शैली में निर्मित बरामदे से घिरा हुआ है जिसका शिखर नागर शैली में बना है।
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चित्र : दुर्गा मंदिर, ऐहोल

(6) लाडखान मंदिर (ऐहोल)-पहाड़ी छत शैली-ऐहोल के लाडखान मंदिर के निर्माण में पहाड़ी क्षेत्रों के लकड़ी के छत वाले मंदिरों से प्रेरणा मिली है। दोनों के बीच अंतर केवल इतना है कि यह मंदिर पत्थर का बना है, लकड़ी का नहीं।

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि अनेक शैलियों का संकरण और समावेशन चालुक्यकालीन भवनों की विशेषता थी। भिन्न-भिन्न शैलियों के ये मंदिर एक स्थान पर बनने या भिन्न-भिन्न वास्तुशैलियाँ एक स्थान पर व्यवहार में आने का मुख्य कारण संभवतः उन वास्तुकलाविदों की सर्जनात्मक आकांक्षाओं की गतिशील अभिव्यक्तियाँ थीं जो भारत के अन्य भागों में कार्यरत अपने साथी कलाकारों के साथ प्रतिस्पर्धा में संलग्न थे।

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प्रश्न 9.
कर्नाटक के होयसलकालीन मंदिरों की प्रमुख विशेषता क्या है? हलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर की स्थापत्य कला की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
होयसलकालीन मंदिर
चोलों और पांड्यों की शक्ति के अवसान के बाद कर्नाटक के होयसलों ने दक्षिण भारत में प्रमुखता प्राप्त कर ली और वे वास्तुकला के महत्वपूर्ण संरक्षक बन गए। उनकी सत्ता का केन्द्र मैसूर था। होयसलकालीन तीन मंदिर उल्लेखनीय हैं। ये हैं-बेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुर के मंदिर। 

प्रमुख विशेषताएं-तारकीय योजना आधारित मंदिर-इन मंदिरों की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये अत्यन्त जटिल बनाए गए हैं। पहले वाले मंदिर सीधे वर्गाकार होते थे, लेकिन इनमें अनेक आगे बढ़े हुए कोण होते हैं जिनसे इन मंदिरों की योजना तारे जैसी दिखाई देने लगती है। इसलिए इस योजना को तारकीय योजना कहा जाता है।

चूंकि ये मंदिर घिया पत्थर से बने हुए हैं, इसलिए कलाकार अपनी मूर्तियों को बारीकी से उकेर सकते हैं। इस बारीकी को विशेष रूप से उन देवी-देवताओं के आभूषणों के अंकन में देखा जा सकता है जो उन मंदिरों पर सजे हुए हैं।

हलेबिड स्थित होयसलेश्वर मंदिर
कर्नाटक में हलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर होयसल नरेश द्वारा 1150 ई. में गहरे रंग के परतदार पत्थर (शिस्ट) से बनाया गया था। इसकी प्रमुख स्थापत्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
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चित्र : नटराज, हलेबिड

  • बेसर शैली-होयसल मंदिर को संकर या बेसर शैली के मंदिर कहा जाता है क्योंकि उनकी शैली द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों से लेकर बनी बीच की शैली है।
  • तारकीय भू-योजना और अलंकारिक उत्कीर्णन-होयसल मंदिर अपनी मौलिक तारकीय भू-योजना और अत्यन्त आलंकारिक उत्कीर्णनों के कारण आसानी से जाने-पहचाने जा सकते हैं।
  • मुख्य देवता-हलेबिड स्थित होयसलेश्वर मंदिर नटराज शिव को समर्पित है।
  • दोहरा भवन-यह एक दोहरा भवन है जिसमें मंडप के लिए एक बड़ा कक्ष है, जहाँ नृत्य और संगीत का कार्यक्रम सुविधापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। प्रत्येक भवन से पहले एक नंदी मंडप है।
  • गुम्बद-इस मंदिर का गुम्बद काफी पहले गिर चुका है। इसका अनुमान द्वारों के दोनों ओर स्थित छोटेछोटे प्रतिरूपों से लगाया जा सकता है।
  • कोणीय प्रक्षेप तथा आकृतियां-केन्द्रीय वर्गाकार योजना से जो कोणीय प्रक्षेप आगे निकले हुए हैं, वे तारे जैसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं और उन पर पशुओं तथा देवी-देवताओं की अनेकानेक आकृतियाँ उकेरी गई हैं। इन आकृतियों का उत्कीर्णन अत्यन्त जटिल एवं बारीक है।
  • चित्र वल्लरी-सबसे नीचे की चित्र वल्लरी में महावतों के साथ सैकड़ों हाथियों का जुलूस दिखाया गया है। इन हाथियों में से कोई भी दो हाथी एक जैसी मुद्रा में नहीं हैं।

प्रश्न 10.
एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर की स्थापत्य कला एवं 'कैलाश पर्वत को हिलाते हुए रावण' की मूर्तिकला सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
कैलाशनाथ मंदिर में कैलाश पर्वत उठाते हुए रावण के दृश्य (एलोरा) के वास्तु एवं मूर्तन की कलात्मक विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर-एलोरा पूर्व मध्यकालीन मूर्तिकला एवं स्थापत्य का एक प्रमुख केन्द्र था। 750 ई. के आस-पास तक दक्कन क्षेत्र पर आरंभिक पश्चिमी चालुक्यों का नियंत्रण राष्ट्रकूटों द्वारा हथिया लिया गया। उनकी वास्तुकला की सबसे बड़ी उपलब्धि एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर थी, जिसे हम भारतीय शैलकृत वास्तुकला की कम-से-कम एक हजार वर्ष पूर्व की परम्परा की पराकाष्ठा कह सकते हैं।

स्थापत्य कला सम्बन्धी विशेषताएं-एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर की स्थापत्य विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है-
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चित्र : कैलाशनाथ मंदिर, एलोरा

  • यह मंदिर पूर्णतया द्रविड़ शैली में निर्मित है और इसके साथ नंदी का देवालय बना है।
  • यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जो कैलाशवासी हैं। इसलिए इसे कैलाशनाथ की संज्ञा दी गई है।
  • इस मंदिर का प्रवेश-द्वार गोपुरम् जैसा है।
  • इसमें चारों ओर उपासना कक्ष और फिर सहायक देवालय बना है जिसकी ऊँचाई 30 मीटर है।
  • यह सब एक जीवन्त शैलखण्ड पर उकेरकर बनाया गया है। पहले एक एकाश्म पहाड़ी के एक हिस्से को धैर्यपूर्वक उकेरा गया है और फिर इस सम्पूर्ण बहुमंजिली संरचना को पीछे छोड़ दिया गया।
  • एलोरा में राष्ट्रकूटकालीन वास्तुकला गतिशील दिखाई देती है। आकृतियाँ असल कद से अधिक बड़ी हैं जो अनुपम भव्यता और अत्यधिक ऊर्जा से ओतप्रोत हैं।

कैलाश पर्वत उठाते हुए रावण-कैलाश पर्वत को उठाते हुए रावण को एलोरा की गुफा में कई बार चित्रित किया गया है। इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय आकृति एलोरा की गुफा सं. 16 के कैलाशनाथ मंदिर की बायीं दीवार
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चित्र : कैलाश पर्वत को हिलाते हुए रावण
पर प्रस्तुत की गई है। यह आकृति आठवीं शताब्दी में बनाई गई थी। इसमें रावण को कैलाश पर्वत हिलाते हुए दिखाया गया है जिस पर शिव और पार्वती लोगों के साथ विराजमान है।

(अ) चित्रित मूर्तिशिल्प का विषय-

  • इसके चित्र संयोजन को कई भागों में चित्रित किया गया है। इसके निचले भाग में रावण को अपने अनेक हाथों से कैलाश पर्वत को आसानी से हिलाते हुए दिखाया गया है। बहुत से हाथों को गहराईपूर्वक उकेरने से वे त्रि-आयामी प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
  • रावण का शरीर त्रिकोणात्मक दिखाया गया है और वह अपनी एक टांग भीतर की ओर धकेल रहा है। उसके हाथ रावण की आकृति द्वारा निर्मित भीतरी कक्ष में बाहर की ओर फैले हुए दिखाए गए हैं।
  • ऊपर का आधा हिस्सा तीन श्रेणियों में विभाजित है। मध्य भाग में शिव और पार्वती की आकृति बनी हुई है। कैलाश पर्वत की कंपकंपी से डरकर पार्वती शंकर से सटी हुई दिखाई गई हैं। खाली जगह में पार्वती की फैली हुई टांगों और मुड़ा हुआ शरीर छाया प्रकाश का अत्यन्त नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
  • शिव और पार्वती के ऊपर स्वर्ग की अप्सराएँ आदि, जो इस. दृश्य को देख रही हैं, उन्हें स्तंभित मुद्रा में दिखाया गया है। अन्य जीव-जन्तु भय से त्रस्त हैं। वहीं शिव शान्त भाव से अटल बैठे हैं और दायें पांव के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबाकर रावण के श्रम को निरर्थक कर देते हैं।

(ब) चित्रित मूर्तिशिल्प की कलात्मक विशेषताएं-

  • शिव की प्रतिमा विशाल है, उनके गणों की आकृतियाँ भी काफी बड़ी-बड़ी हैं। गणों की आकृतियों को सक्रिय दिखाया गया है और वे अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं।
  • आयतन का बाहर तक निकला होना और खाली स्थान होना एलोरा गुफा की प्रतिमाओं की खास विशेषता है। पूरे घेरे में आकृतियों को बनाकर प्रकाश और अंधकार का उपयोग किया गया है।
  • आकृतियों का धड़ भाग पतला है और उनकी सतह को भारी दिखाया गया है, भुजाएं पूरे घेरे में पतली हैं।
  • दोनों ओर की सहायक आकृतियों का मोहरा कोणीय है।
  • सम्पूर्ण रचना (संयोजन) की सभी आकृतियां सुन्दर हैं और आपस में एक-दूसरे से गुंथी हुई सी प्रतीत होती हैं।

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प्रश्न 11.
जैन कला के विकास को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जैन कला का विकास
जैनियों ने भी हिन्दुओं की तरह अपने बड़े-बड़े मंदिर बनवाए और अनेक मंदिर, और तीर्थ पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर समस्त भारत में स्थान-स्थान पर पाए जाते हैं। यथा-
(1) दक्षिण-दक्कन में वास्तुकला की दृष्टि से इनके मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल एलोरा और एहोल में देखे जा सकते हैं।
(2) मध्य भारत-मध्य भारत में देवगढ़, खजुराहो, चंदेरी और ग्वालियर में जैन मंदिरों के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण पाए जाते हैं।
(3) कर्नाटक-कर्नाटक में जैन मंदिरों की समृद्ध धरोहर सुरक्षित है जिनमें गोमटेश्वर में भगवान बाहुबली की ग्रेनाइट पत्थर की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। श्रवण बेलगोला स्थित यह विशाल प्रतिमा 57 फुट ऊँची है और विश्वभर में एक पत्थर से बनी बिना किसी सहारे के खड़ी सबसे लम्बी मूर्ति है। इसे मैसूर के गंग राजाओं के सेनापति एवं प्रधानमंत्री चामुण्डराय द्वारा बनवाया गया था।

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चित्र : बाहुबली, गोमटेश्वर, कर्नाटक

(4) राजस्थान-राजस्थान में माउण्ट आबू पर स्थित जैन मंदिर विमलशाह द्वारा बनाए गए थे। इनका बाहरी हिस्सा बहुत सादा है जबकि भीतरी भाग बढ़िया संगमरमर तथा भारी मूर्ति कलात्मक साज-सज्जा से अलंकृत है। जहाँ गहरी कटाई बेलबूटों जैसी प्रतीत होती है। मंदिर की प्रसिद्धि का कारण यह है कि इसकी हर भीतरी छत पर बेजोड़ नमूने बने हुए हैं और इसकी गुंबद वाली छतों के साथ सुन्दर-सुन्दर आकृतियाँ बनी हैं।

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चित्र : दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू

(5) गुजरात-काठियावाड़ (गुजरात) में पालिताना के निकट शत्रुजय की पहाड़ियों में एक विशाल जैन तीर्थस्थल है जहाँ एक साथ जुड़े हुए बीसियों मंदिर दर्शनीय हैं।

प्रश्न 12.
प्राचीन हिन्दू मंदिर के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए हिन्दू मंदिर के मूल रूप को बताइए।
उत्तर:
प्राचीन हिन्दू मंदिर
जहाँ एक ओर स्तूप और उनका निर्माण कार्य जारी रहा, वहीं दूसरी ओर सनातन/हिन्दू धर्म के मंदिर और देवीदेवताओं की प्रतिमाएं भी बनने लगीं।

प्राचीन हिन्दू मंदिरों को अक्सर संबंधित देवी-देवताओं की मूर्तियों से सजाया जाता था। पुराणों में उल्लेखित कथाएं सनातन धर्म की आख्यान प्रस्तुतियों का हिस्सा बन गईं। प्रत्येक मंदिर में एक प्रधान या अधिष्ठाता देवता की प्रतिमा होती थी। मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते हैं-(i) संधर किस्म (जिसमें प्रदक्षिणा पथ होता है), (ii) निरंधर किस्म (जिसमें प्रदक्षिणा पथ नहीं होता है) और (iii) सर्वतोभद्र (जिसमें सब तरफ से प्रवेश किया जा सकता है)। कुछ महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर उत्तर प्रदेश में देवगढ़ तथा मध्य प्रदेश में एरण व नचना-कुठार और विदिशा के पास उदयगिरि में पाए जाते हैं। ये मंदिर साधारण श्रेणी के हैं जिनमें बरामदा, मंडप और पूजागृह हैं।

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चित्र : शिव मंदिर, नचना-कुठार, मध्य प्रदेश, चतुर्मुख लिंग (इनसेट), पाँचवीं शताब्दी ईसवी हिन्दू मंदिर का मूल रूप

मूल रूप से हिन्दू मंदिर निम्न भागों से निर्मित होता है-
(1) गर्भगृह-

  • गर्भगृह प्रारंभिक मंदिरों में एक छोटा सा प्रकोष्ठ होता था। उसमें प्रवेश के लिए एक छोटा सा द्वार होता था। लेकिन समय के साथ-साथ इस प्रकोष्ठ का आकार बढ़ता गया।
  • गर्भगृह में मंदिर के मुख्य अधिष्ठाता देवता की मूर्ति को स्थापित किया जाता है।
  • गर्भगृह ही अधिकांश पूजा-पाठ या धार्मिक क्रियाओं का केन्द्रबिन्दु होता है।

(2) मंडप-

  • मंडप मंदिर का प्रवेश कक्ष होता है, जो कि काफी बड़ा होता है।
  • इसमें काफी बड़ी संख्या में भक्तगण इकट्ठा हो सकते हैं।
  • इस मंडप की छत आमतौर पर खंभों पर टिकी रहती है।

(3) शिखर-पूर्वोत्तर काल में इन पर शिखर बनाये जाने लगे जिसे उत्तर भारत में शिखर और दक्षिण भारत में विमान कहा जाने लगा।

(4) वाहन-वाहन से आशय मंदिर के अधिष्ठाता देवता की सवारी से है। वाहन को एक स्तंभ या ध्वज के साथ गर्भगृह के साथ कुछ दूरी पर रखा जाता है।
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चित्र : नागर शैली का मंदिर

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प्रश्न 13.
मध्य भारत में मध्यकालीन मंदिर वास्तु कला के विकास पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
मध्य भारत से यहाँ आशय मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से है। मध्य भारत में मध्यकाल में मंदिर वास्तुकला के विकास को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) पांचवीं सदी के मध्य भारत के मंदिरों की वास्तुकला-मध्य भारत में गुप्तकाल के सबसे पुराने संरचनात्मक मंदिर जो आज भी मौजूद हैं, मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं । ये मंदिर हैं-(i) उदयगिरि में विदिशा के सीमान्त क्षेत्र में स्थित है तथा गुफा मंदिर के एक बड़े हिन्दू संकुल का भाग है और (ii) दूसरा मंदिर सांची में स्तूप के निकट है।

स्थापत्य कला-

  • ये मंदिर अपेक्षाकृत साधारण किस्म के आडंबरहीन पूजा-स्थल हैं।
  • इनमें एक छोटा सा मंडप है जो चार खंभों पर टिका हुआ है। यह मंडप एक साधारण वर्गाकार मुखमंडप (पोर्च) सा होता है।
  • मंडप के आगे एक छोटा सा कक्ष है जो गर्भगृह का काम देता है।
  • सांची के निकट स्थित मंदिर भी समतल छत वाला मंदिर है।

(2) छठी शताब्दी के गुप्तकालीन पंचायतन मंदिरों का स्थापत्य-देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर पांचवीं शताब्दी तथा छठी शताब्दी के प्रारंभिक काल का है। इसे गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। इसकी स्थापत्य कला सम्बन्धी विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • यह मंदिर वास्तुकला की पंचायतन शैली में निर्मित है जिसके अनुसार मुख्य देवालय को एक वर्गाकार वेदी पर बनाया जाता है और चार कोनों में चार छोटे सहायक देवालय बनाए जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर पांच छोटे-बड़े देवालय बनाए जाते हैं।
  • यह मंदिर विष्णु का मंदिर है। इस मंदिर की दीवारों पर विष्णु की तीन उभरी आकृतियां हैं। दक्षिणी दीवार पर शेषशयन, पूर्वी दीवार पर नर-नारायण और पश्चिम की दीवार पर गजेन्द्र मोक्ष का दृश्य चित्रित है।
  • इस मंदिर में परिक्रमा दक्षिण से पश्चिम की ओर की जाती है।
  • यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है। कालांतर में अनेक छोटे-छोटे आकारों के मंदिर बनाए गए।

(3) दसवीं शताब्दी में बने खजुराहो के मंदिर और स्थापत्य कला में विकास-दसवीं शताब्दी तक आते-आते मध्यभारत की मंदिर निर्माण की वास्तुकला की नागर शैली और रूप में नाटकीय रूप से अत्यधिक विकास हुआ। उदाहरण के लिए खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर जो विष्णु को समर्पित है और जो चंदेलवंशीय राजा धंग द्वारा 954 ई. में बनाया गया था। इसकी स्थापत्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • नागर शैली में निर्मित यह मंदिर एक ऊँची बेदी पर स्थित है और उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं।
  • इसके कोने में चार छोटे देवालय बने हैं।
  • इसके ऊंचे शिखर पिरामिड की तरह सीधे आकाश में खड़े हैं तथा उसके उदग्र उठान को प्रदर्शित कर रहे हैं।
  • इसके शिखर के अंत में एक नालीदार तश्तरी है जिसे आमलक कहा जाता है और उस पर एक कलश स्थापित है।
  • मंदिर में आगे निकले हुए बारजे और बरामदे हैं।

इस प्रकार यह मंदिर देवगढ़ के मंदिर से बहुत अलग किस्म का है। खजुराहो स्थित कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण भारतीय मंदिर स्थापत्य की शैली की पराकाष्ठा है। इसमें नागर शैली के उक्त सभी लक्षण विद्यमान हैं।

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चित्र : कंदरिया महादेव मंदिर, खजुराहो

(4) चौंसठ योगिनी मंदिर-खजुराहो में एक मंदिर चौंसठ योगिनी मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। यह दसवीं सदी से पहले का है। इस मंदिर में कई छोटे वर्गाकार देवालय हैं जो ग्रेनाइट के शिलाखंडों को काटकर बनाए गए हैं। इनमें से प्रत्येक देवालय देवियों को समर्पित है। इस तरह की तांत्रिक पूजा का उदय सातवीं शताब्दी के बाद हुआ था। ऐसे बहुत से मंदिर जो योगिनी पंथ को समर्पित हैं-मध्यप्रदेश, उड़ीसा में सातवीं से दसवीं शताब्दियों के बीच यत्र-तत्र बनाए गए थे।

प्रश्न 14.
मध्यकाल में पश्चिमी भारत में मंदिर स्थापत्य पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
पश्चिमी भारत में मंदिर स्थापत्य
पश्चिमोत्तर भारत में विशेषकर गुजरात और राजस्थान को सम्मिलित किया जाता है। यहाँ के मध्यकालीन मंदिरों की स्थापत्य सम्बन्धी विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) अनेक प्रकार के पत्थरों का उपयोग-पश्चिमोत्तर भारत के मंदिर रंग और किस्म दोनों ही दृष्टियों से अनेक प्रकार के पत्थरों से बने हैं। इनमें बलुआ पत्थर का इस्तेमाल अधिक हुआ है तथापि दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बने मंदिरों की मूर्तियाँ धूसर/स्लेटी से काले बेसाल्ट/असिताश्म की बनी पाई जाती हैं। लेकिन इनमें मुलायम चिकने सफेद संगमरमर का तरह-तरह से प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल हुआ है, जो दसवीं से बारहवीं शताब्दी के माउण्ट आबू और रणकपुर (राजस्थान) के जैन मंदिरों में देखने को मिलता है।

(2) शैली-गुजरात में शामलाजी का मंदिर को देखने से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र की स्थापत्य शैली गुप्तकाल के बाद की स्थापत्य शैली से मिल-जुल गई थी। मोढेरा (गुजरात) के सूर्य मंदिर की स्थापत्य शैली के आधार पर यहाँ की स्थापत्य शैली का विवेचन किया जा सकता है। यथा-
मोढेरा (गुजरात) का सूर्य मंदिर 11वीं सदी के आरंभिक काल में बना है जिसे सोलंकी राजा भीमदेव ने 1026 में बनवाया था। इसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

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चित्र : सूर्य मंदिर मोढेरा, गुजरात

(i) सूर्य मंदिर में सामने की ओर एक अत्यन्त विशाल वर्गाकार जलाशय है जिसमें सीढ़ियों की सहायता से पानी तक पहुँचा जा सकता है। इसे सूर्यकुण्ड कहते हैं।

नदी, तालाब, कुंड, बावड़ी जैसे किसी जल निकाय का होना किसी धार्मिक वास्तु स्थल के पास होना उस समय आवश्यक समझा जा रहा था। अतः जल निकास अनेक मंदिरों के हिस्से बन गए थे।

(ii) एक अलंकृत विशाल चाप-तोरण दर्शनार्थी को सीधे सभा मण्डप तक ले जाता है। यह मंडप चारों ओर से खुला है जैसा कि उन दिनों पश्चिमोत्तर भारत के मंदिरों में आम रिवाज था।

(3)काष्ठ उत्कीर्णन परम्परा का प्रभाव-गुजरात की काष्ठ उत्कीर्णन की परम्परा का प्रभाव इस काल के मंदिरों में भी उपलब्ध प्रचुर उत्कीर्णन तथा मूर्ति निर्माण के कार्यों पर स्पष्ट दिखाई देता है, लेकिन छोटे देवालय की दीवारों पर कोई उत्कीर्णन नहीं किया गया है।

(4) यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। इसलिए हर वर्ष विषुव के समय सूर्य सीधे केन्द्रीय देवालय पर चमकता है।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

प्रश्न 15.
ओडिशा में मंदिर वास्तुकला शैली की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ओडिशा की वास्तुकला की विशेषताएं
ओडिशा की वास्तुकला की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(1) ओडिशा में प्रमुख ऐतिहासिक वास्तुकला स्थल-ओडिशा के अधिकांश ऐतिहासिक स्थल प्राचीन कलिंग क्षेत्र में हैं अर्थात् आधुनिक पुरी जिले में स्थित हैं जिसमें पुराना भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के इलाके शामिल हैं।
(2) ओडिशा मंदिर स्थापत्य शैली-ओडिशा के मंदिरों की शैली एक अलग किस्म की है जिसे हम नागर शैली की उप-शैली कह सकते हैं। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) देवल-आमतौर पर शिखर जिसे ओडिशा में देवल कहते हैं, इस उप-शैली के अन्तर्गत लगभग चोटी तक एकदम ऊर्ध्वाधर यानि बिलकुल सीधा खड़ा होता है, लेकिन चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है।
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चित्र : जगन्नाथ मंदिर, पुरी

  • जगमोहन-ओडिशी शैली के मंदिरों में देवालयों से पहले सामान्य रूप से मंडल होते हैं, जिन्हें ओडिशा में जगमोह न कहा जाता है।
  • भू-योजना-मुख्य मंदिर की भू-योजना हमेशा लगभग वर्गाकार होती है जो ऊपरी ढांचे के भागों में मस्तक पर वृत्ताकार हो जाती है।
  • लाट-यहाँ मंदिरों की लाट लम्बाई में बेलनाकार दिखाई देती है। लाट के आले-दीवाले आमतौर पर वर्गाकार होते हैं।
  • उत्कीर्णन-मंदिरों के बाहरी भाग अत्यन्त उत्कीर्णित होते हैं जबकि भीतरी भाग प्रायः खाली होता है।
  • चहारदीवारी-ओडिशा के मंदिरों में आमतौर पर चहारदीवारी होती है।

प्रश्न 16.
भारत में मध्यकाल में पहाड़ी क्षेत्र में विकसित हुई मंदिर वास्तुकला शैली के विकास के कारणों का विवेचन कीजिए तथा कश्मीर के कारकोटाकालीन मंदिर वास्तुकला शैली की विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
भारत में पहाड़ी क्षेत्र की वास्तुकला
कुमायूँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में मध्यकाल में वास्तुकला का एक अनोखा रूप विकसित हुआ। इसमें गांधार शैली, मथुरा शैली, सारनाथ शैली तथा बौद्ध वास्तु परम्परा तथा स्थानीय वास्तु परम्परा का मिला-जुला रूप दिखाई देता है। इसे मिश्रित नागर शैली कहा जा सकता है।

मिश्रित शैली के विकास के कारण-पहाड़ी क्षेत्रों में मिश्रित नागर वास्तु कला शैली के विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(i) कश्मीर का क्षेत्र गांधार कला के प्रमुख स्थलों, जैसे-तक्षशिला, पेशावर और पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के पास था। इसलिए पांचवीं शताब्दी तक आते-आते कश्मीर वास्तुकला पर गांधार शैली का प्रबल प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा।

(ii) दूसरी तरफ उसमें गुप्तकालीन और गुप्तोत्तरकालीन परम्पराएं भी जुड़ी जो सारनाथ और मथुरा से, यहाँ तक कि गुजरात और बंगाल के स्थापत्य कला केन्द्रों से भी वहाँ तक पहुँचीं।

ब्राह्मण, पंडित और बौद्ध भिक्षुक कश्मीर, गढ़वाल, कुमाऊँ और मैदानी क्षेत्रों के धार्मिक केन्द्रों-बनारस, नालंदा, कांचीपुरम के केन्द्रों के बीच अक्सर यात्रा करते रहते थे। फलस्वरूप बौद्ध और हिन्दू परम्पराएं आपस में मिलने लगीं और फिर पहाड़ी इलाकों तक फैल गईं।

(iii) स्थानीय परम्पराएं-स्वयं पहाड़ी क्षेत्र की भी स्थापत्य की अपनी एक अलग परम्परा थी जिसके अन्तर्गत लकड़ी के मकान बनाए जाते थे। इसका भी यहाँ की स्थापत्य शैली पर प्रभाव रहा।

मिश्रित शैली का रूप-इस मिश्रित प्रभाव के कारण पहाड़ी क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर मुख्य गर्भगृह और शिखर तो नागर शैली के रेखा प्रसाद शैली में बने हैं जबकि मंडप काष्ठ वास्तुकला के पुराने रूप में हैं। कहीं-कहीं तो मंदिर ने स्तूप की सूरत अख्तियार कर ली है।

कारकोटाकालीन वास्तुकला की विशेषताएं-कश्मीर का कारकोटा काल वास्तुकला की दृष्टि से अत्यधिक उल्लेखनीय है। उन्होंने बहुत से मंदिर बनवाए जिनमें पंड्रेथान में निर्मित मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। ये मंदिर आठवींऔर नौवीं शताब्दी में बनाए गए थे।

कश्मीर का पंडेरनाथ मंदिर की प्रमुख स्थापत्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(1) देवालय के पास जलाशय होने की परम्परा का पालन करते हुए, पंडेरनाथ का मंदिर जलाशय के बीच में बनी हुई एक वेदी पर निर्मित है।
(2) यह मंदिर एक हिन्दू देवस्थान है और संभवतः शिव को समर्पित है।
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चित्र : पहाड़ी क्षेत्र के मंदिर
(3) इस मंदिर की वास्तुकला कश्मीर की वर्षों पुरानी परम्परा के अनुरूप है जिसके अन्तर्गत लकड़ी की इमारतें बनाई जाती थीं। कश्मीर की बर्फीली परिस्थितियों के कारण छत चोटीदार है और उसका ढाल बाहर की ओर है जिससे हिमपात का मुकाबला किया जा सके।
(4) यह मंदिर बहुत ही कम अलंकृत और गुप्तोत्तरकालीन प्रचुर उत्कीर्णन की सौंदर्य शैली से बहुत हटकर है।
(5) हाथियों की कतार का बना आधार तल और द्वार पर बने अलंकरण ही इस मंदिर की सजावट हैं।

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प्रश्न 17.
मध्यकाल में पूर्वी भारत में मंदिर स्थापत्य शैलियों के क्षेत्रों में हुए विकास पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
मध्यकाल में पूर्वी भारत में मंदिर स्थापत्य एवं मूर्तिकला के क्षेत्र में हुआ विकास
पूर्वी भारत के मंदिरों में वे सभी मंदिर शामिल हैं जो पूर्वोत्तर क्षेत्र, बंगाल और ओडिशा में पाए जाते हैं। इन तीनों में प्रत्येक क्षेत्र में अपनी-अपनी विशिष्ट किस्म के मंदिरों का निर्माण किया गया। यथा-
(1) पूर्वोत्तर क्षेत्र-पूर्वोत्तर क्षेत्र और बंगाल के वास्तुशिल्प के ऐतिहासिक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चिकनी पकी मिट्टी (टेराकोटा) ही भवन निर्माण के लिए पटिया/फलक बनाने के लिए मुख्य माध्यम थी। ऐसी मिट्टी की पटिया/फलकों पर बंगाल में सातवीं शताब्दी तक बौद्ध और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ चित्रित की जाती रहीं।

असम और बंगाल में बड़ी संख्या में प्रतिमाएँ पाई गई हैं जिनसे उन क्षेत्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय शैलियों के विकास का पता चलता है।

(2) असम-असम में इस काल में दो प्रमुख शैलियों का विकास हुआ-(i) गुप्तकालीन शैली का आयात (छठी सदी से 10वीं सदी तक) (ii) अहोम शैली का विकास (12 से 14वीं सदी के बीच) यथा-

(i) गुप्तकालोत्तर शैली का आयात-तेजपुर के पास डापर्वतिया में एक पुराना छठी शताब्दी में बना दरवाजे का ढाँचा मिला है और तिनसुकिया के पास स्थित 'रंगागोरा चाय बागान' से तरह-तरह की कुछ प्रतिमाएँ मिली हैं, जिनसे इस क्षेत्र में गुप्तकालीन शैली के आगमन का पता चलता है। यह गुप्तकालोत्तर शैली इस क्षेत्र में दसवीं शताब्दी तक बराबर जारी रही।

(ii) अहोम शैली का विकास-12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच असम में एक अलग क्षेत्रीय शैली विकसित हो गयी। ऊपरी उत्तरी बर्मा से जब असम में टाई लोगों का आगमन हुआ तो उनकी शैली बंगाल की प्रमुख पाल शैली से मिल गई और उसके मिश्रण से एक नई शैली का विकास हुआ, जिसे आगे चलकर गुवाहाटी और उसके आस-पास के क्षेत्र में अहोम शैली कहा जाने लगा।

(3) बंगाल-बिहार और बंगाल (बांग्लादेश सहित) में मध्यकाल में मंदिर और प्रतिमा स्थापत्य की निम्न प्रमुख शैलियों का विकास हुआ-
(i) पाल शैली या बंग शैली-बिहार और बंगाल में नौवीं से बारहवीं शताब्दियों के बीच की अवधि में निर्मित प्रतिमाओं की शैली को पाल शैली कहा जाता है। इसे बंग शैली भी कहा जाता है। पाल शैली का नामकरण तत्कालीन पाल शासकों के आधार पर किया गया।

(ii) सेन शैली-ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग से 13वीं शताब्दी के मध्य भाग तक निर्मित मूर्तियों की शैली को तत्कालीन सेन शासकों के नाम पर सेन शैली कहा जाता है। पर उस क्षेत्र में पाए जाने वाले मंदिर स्थानीय बंग शैली के अभिव्यंजक ही माने जाते हैं। उदाहरण के लिए, बर्द्धमान जिले में बराकड़ नगर के पास स्थित नौवीं सदी के सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का मोड़दार शिखर बहुत ऊँचा है और उसकी चोटी पर एक बड़ा आमलक बना हुआ है। यह आरंभिक पाल शैली का अच्छा उदाहरण है।

(iii) मिश्रित शैली-नौवीं से 12वीं शताब्दियों के बीच बने अनेक भवन पुरलिया जिले में तेलकुपी स्थान पर स्थित हैं। ये भवन उस क्षेत्र में प्रचलित अनेक महत्त्वपूर्ण शैलियों से बने हैं। इनसे पता चलता है कि तत्कालीन कलाकार उन सभी शेष नागर उपशैलियों से परिचित थे जो उस समय उत्तर भारत में प्रचलित थीं।

(iv) स्थानीय भवन निर्माण परम्पराओं का प्रभाव और बंगला छत शैली-बंगाल की अनेक स्थानीय भवन निर्माण की परम्पराओं ने भी उस क्षेत्र की मंदिर शैली को प्रभावित किया। इन स्थानीय परम्पराओं में सबसे महत्त्वपूर्ण परम्परा थी-बंगला छत। बंगाली झोंपड़ी की बांस की बनी छत का एक ओर ढलान की स्थानीय विशेषता को आगे चलकर मुगलकालीन इमारतों में भी अपना लिया गया। इसे 'बंगला छत' के नाम से जाना जाता है। मुगल काल में और उसके बाद पकी मिट्टी की ईंटों से बीसियों मंदिर इस शैली से बंगाल में बनाए गए। इस शैली में बांस की झोंपड़ियों में प्रयुक्त स्थानीय निर्माण तकनीक के तत्त्व तो शामिल थे ही। साथ ही पाल शैली के बचे-खुचे पुराने रूपों और मुस्लिम वास्तुकला के मेहराबों और गुंबदों के रूपों को भी उसमें शामिल कर लिया गया।

इस शैली के भवन विष्णुपुर, बांकुड़ा, बर्द्धमान और बीरभूम में स्थान-स्थान पर मिलते हैं और ये अधिकतर 17वीं सदी के हैं।

(4) ओडिशा-ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है अर्थात् रेखापीड, ढाडकेव और खाकरा। यहाँ के अधिकांश प्रमुख ऐतिहासिक स्थल आधुनिक पुरी जिले में ही स्थित हैं जिसमें पुराना भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के इलाके शामिल हैं। 

ओडिशा के मंदिरों की शैली एक अलग किस्म की है जिसे हम नागर शैली की एक उपशैली कह सकते हैं। प्रायः शिखर (देवल) इस उपशैली के अन्तर्गत लगभग चोटी तक एक अर्ध्वाधर यानी बिलकुल सीधा खड़ा होता है, लेकिन चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है। इन देवालयों में पहले मंडल (जगमोहन) होते हैं। मुख्य मंदिर की भूयोजना हमेशा लगभग वर्गाकार होती है। यहाँ के मंदिरों में प्रायः चहारदीवारी होती है। कोणार्क में स्थित भव्य सूर्य मंदिर इस शैली का एक प्रमुख उदाहरण है।

Prasanna
Last Updated on Aug. 11, 2022, 8:19 a.m.
Published Aug. 9, 2022