RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

Rajasthan Board RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ Important Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

बहुचयनात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
तांबा, जस्ता और टिन धातुओं को मिलाकर जो मिस्र धातु बनाई जाती है, उसे कहते हैं-
(अ) चांदी
(ब) कांस्य
(स) स्टील
(द) सोना
उत्तर:
(ब) कांस्य

प्रश्न 2.
मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य प्रतिमा है-
(अ) गणेश की
(ब) शिव की
(स) नर्तकी की
(द) नटराज की
उत्तर:
(स) नर्तकी की

प्रश्न 3.
दाइमाबाद (महाराष्ट्र) में हुई पुरातात्विक खुदाइयों में प्राप्त छोटी-छोटी कांस्य प्रतिमाएं हैं-
(अ) 2500 ई. पूर्व की
(ब) 1500 ई. पूर्व की
(स) ईसा की दूसरी सदी की
(द) ईसा की पांचवीं सदी की
उत्तर:
(ब) 1500 ई. पूर्व की

प्रश्न 4.
बिहार राज्य के चौसा स्थल से जैन तीर्थंकरों की प्राप्त प्रतिमाएं निम्न में से किस काल की बताई जाती हैं-
(अ) कुषाण काल की
(ब) मौर्य काल की
(स) गुप्त काल की
(द) गुप्तोत्तर काल की
उत्तर:
(अ) कुषाण काल की

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

प्रश्न 5.
धानेसरखेड़ा (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त विशिष्ट कांस्य प्रतिमा में परिधान की तहें किस शैली की तरह बनाई गई हैं-
(अ) सारनाथ. शैली
(ब) मथुरा शैली
(स) अमरावती शैली
(द) कुषाण शैली
उत्तर:
(ब) मथुरा शैली

प्रश्न 6.
फोफनर (महाराष्ट्र) से प्राप्त बुद्ध की वाकाटक कालीन कांस्य प्रतिमाओं पर किस शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है?
(अ) अमरावती शैली
(ब) कुषाण शैली
(स) सारनाथ शैली
(द) मथुरा शैली
उत्तर:
(अ) अमरावती शैली

प्रश्न 7.
हिमाचल प्रदेश और कश्मीर क्षेत्रों में बौद्ध और हिन्दू देवी-देवताओं की बनी पायी गई कांस्य प्रतिमाएं हैं-
(अ) दूसरी से तीसरी शताब्दी की
(ब) आठवीं से दसवीं सदी की
(स) 1500 ई. पूर्व की
(द) पांचवीं-छठी सदी की।
उत्तर:
(ब) आठवीं से दसवीं सदी की

प्रश्न 8.
जिन क्षेत्रों में आठवीं से दसवीं शताब्दियों तक के काल में चतुरानन विष्णु की पूजा की जाती थी, वे क्षेत्र थे-
(अ) बंगाल और बिहार
(ब) गुजरात और राजस्थान
(स) कर्नाटक और तमिलनाडु
(द) हिमाचल प्रदेश और कश्मीर
उत्तर:
(द) हिमाचल प्रदेश और कश्मीर

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

प्रश्न 9.
विष्णु की चतुरानन कांस्य मूर्ति का मध्यवर्ती या केन्द्रीय मुख होता है-
(अ) नरसिंह का
(ब) वराह का
(स) वासुदेव का
(द) मछली का
उत्तर:
(स) वासुदेव का

प्रश्न 10.
हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली कांस्य मूर्तियों में अत्यन्त प्रचलित एवं लोकप्रिय मूर्तियां रही हैं-
(अ) नरसिंह अवतार की
(ब) महिषासुरमर्दिनी की
(स) चतुरानन विष्णु की
(स) उपर्युक्त सभी की।
उत्तर:
(स) उपर्युक्त सभी की।

प्रश्न 11.
बिहार और बंगाल क्षेत्र में, निम्न में से किस शासन काल में कांस्य की ढलाई की एक नई शैली अस्तित्व में आयी?
(अ) कुषाण काल में
(ब) पाल काल में
(स) गुप्त काल में
(द) वाकाटक काल में
उत्तर:
(ब) पाल काल में

प्रश्न 12.
दक्षिण भारत में दसवीं शताब्दी में कांस्य प्रतिमाएं बनाने की कला के संरक्षकों में किस वंश की विधवा महारानी सेंवियान महादेवी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है?
(अ) चालुक्य वंश की
(ब) पल्लव वंश की
(स) चोल वंश की
(द) राष्ट्रकूट वंश की
उत्तर:
(स) चोल वंश की

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. भारतीय मूर्तिकारों ने सिंधु घाटी सभ्यता काल में ही कांस्य ढलाई के लिए ........... की प्रक्रिया सीख ली थी।
2. तांबा, जस्ता और टिन जैसी धातुओं को मिलाकर बनने वाली मिश्र धातु को ........... कहते हैं।
3. अधिकांश कांस्य प्रतिमाएँ ............... के लिए बनाई गई थीं।
4. .............. से प्राप्त नाचती हुई लड़की (नर्तकी) की प्रतिमा सबसे प्राचीन कांस्य मूर्ति है, जिसका काल 2500 ई. पूर्व माना जाता है।
5. कुषाणकालीन तीर्थंकरों की निर्वस्त्र कांस्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि भारतीय मूर्तिकार ............. के अंग-प्रत्यंग तथा सुडौल मांसपेशियों के निर्माण में कितने अधिक कुशल थे।
6. ............. की प्रतिमा को उनके कंधों पर फैली हुई लंबी केश लटों से पहचाना जाता है।
7. छठी से नौवीं शताब्दी काल की बड़ोदरा के अकोटा (गुजरात) से प्राप्त जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों को एक ............. पर विराजमान दिखाया गया है।
8. बुद्ध की खड़ी प्रतिमाएं जिनमें बुद्ध को अभय मुद्रा में दिखाया गया, पांचवीं से सातवीं काल में ............... में ढाली गई थीं।
9. धानेसरखेड़ा (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त विशिष्ट कांस्य प्रतिमा में परिधान की तहें ............. शैली जैसी ही बनाई गई हैं।
10. गुप्त और वाकाटककालीन कांस्य प्रतिमाएं ............. थीं और बौद्ध भिक्षु उन्हें व्यक्तिगत रूप से पूजा करने के लिए अपने साथ कहीं भी ले जा सकते थे।
उत्तर:
1. लुप्त मोम
2. कांस्य
3. अनुष्ठानिक पूजा
4. मोहनजोदड़ो
5. पुरुषों
6. वृषभनाथ
7. सिंहासन
8. उत्तरभारत
9. मथुरा
10. सुबाह्य।

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिए-

1. नरसिंह अवतार या महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियाँ हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मूर्तियों में अत्यन्त प्रचलित एवं लोकप्रिय रही हैं।
2. दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडु में पल्लव वंश के शासनकाल में कुछ अत्यन्त सुंदर एवं उत्कृष्ट स्तर की कांस्य प्रतिमाएं बनाई गईं।
3. चोलकालीन कांस्य प्रतिमाओं में शिव की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसमें शिव को अर्द्धपर्यंक आसन में बैठा हुआ दिखाया गया है।
4. तमिलनाडु के तंजावुर में नौवीं शताब्दी की कल्याणसुन्दर मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
5. 16वीं सदी में तिरुपति में, कांस्य की आदमकद प्रतिमाएं बनाई गईं जिनमें कृष्णदेवराय को दो महारानियों के साथ प्रस्तुत किया गया है। 
उत्तर:
1. सत्य,
2. असत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. सत्य।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइए-

1. कुषाण काल
2. चक्रेश्वरी और अंबिका
3. सारनाथ शैली
4. मथुरा शैली
5. वाकाटककालीन कांस्य प्रतिमाएं

(अ) आदिनाथ और नेमिनाथ की शासन देवियां। 
(ब) पहने हुए वस्त्र में कोई तह नहीं दिखाना। 
(स) पहने हुए परिधान में तहें दिखाना। 
(द) वस्त्र शरीर के दाहिने हिस्से से लटका हुआ दिखाना। 
(य) जैन तीर्थंकरों की निर्वस्त्र कांस्य प्रतिमाएं।
उत्तर:
(य) जैन तीर्थंकरों की निर्वस्त्र कांस्य प्रतिमाएं।
(अ) आदिनाथ और नेमिनाथ की शासन देवियां।
(ब) पहने हुए वस्त्र में कोई तह नहीं दिखाना।
(स) पहने हुए परिधान में तहें दिखाना।
(द) वस्त्र शरीर के दाहिने हिस्से से लटका हुआ दिखाना।

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों ने धातु ढलाई की कौनसी प्रक्रिया सीख ली थी?
उत्तर:
सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों ने धातु की ढलाई के लिए सिरे पेढे यानि 'लुप्त मोम' प्रक्रिया सीख ली थी।

प्रश्न 2.
कांस्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
तांबा, जस्ता और टिने जैसी धातुओं को मिलाकर बनने वाली मिश्र धातु को कांस्य (कांसा) कहते हैं।

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

प्रश्न 3.
बौद्ध, हिन्दू और जैन देवी-देवताओं की भारत के अनेक क्षेत्रों में पाई गई प्रतिमाओं का काल कौनसा है?
उत्तर:
इन प्रतिमाओं का काल दूसरी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक का है।

प्रश्न 4.
भारत में दूसरी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी काल की कांस्य प्रतिमाएं मुख्यतः किसलिए बनाई गई थीं?
उत्तर:
इनमें से अधिकांश प्रतिमाएं अनुष्ठानिक पूजा के लिए बनाई गई थीं।

प्रश्न 5.
धातु ढलाई प्रक्रिया का उपयोग प्रतिमाएं बनाने के अतिरिक्त अन्य किस प्रयोजन के लिए किया जाता था?
उत्तर:
धातु ढलाई की प्रक्रिया का उपयोग विभिन्न प्रयोजनों, जैसे-मूर्तियां बनाने, पकाने, खाने-पीने आदि के लिए रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले बर्तनों के लिए किया जाता था।

प्रश्न 6.
सबसे प्राचीन कांस्य मूर्ति किस काल की है और कौनसी है?
उत्तर:
मोहनजोदड़ो से प्राप्त नाचती हुई लड़की (नर्तकी) की कांस्य प्रतिमा सबसे प्राचीन है जिसका काल 2500 ई. पूर्व माना जाता है।

प्रश्न 7.
मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य प्रतिमा किस प्रकार की है?
उत्तर:
नर्तकी की कांस्य प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग और धड़ सारणी रूप में साधारण हैं।

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प्रश्न 8.
बिहार राज्य के चौसा स्थल से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ किस काल की बताई जाती हैं?
उत्तर:
बिहार राज्य के चौसा स्थल से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की प्राप्त प्रतिमाएँ ईसा की दूसरी शताब्दी यानि कुषाण काल की बताई जाती हैं।

प्रश्न 9.
वृषभनाथ की प्रतिमा को कैसे पहचाना जाता है?
उत्तर:
वृषभनाथ की प्रतिमा को उनके कंधों पर फैली हुई लंबी केश लटों से पहचाना जाता है क्योंकि अन्य तीर्थंकर छोटे धुंघराले केशों में दिखाए जाते हैं।

प्रश्न 10.
बड़ोदरा के पास अकोटा से प्राप्त कांस्य प्रतिमाओं की कौनसी शैली थी?
उत्तर:
ये कांस्य प्रतिमाएं गुप्त और वाकाटक दोनों कालों की कांस्य मूर्ति शैलियों से प्रभावित थीं।

प्रश्न 11.
गुप्तकाल और उसके बाद के काल में उत्तर प्रदेश और बिहार में पायी गई बुद्ध की कांस्य प्रतिमाओं की दो विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:

  • बुद्ध की ये प्रतिमाएं खड़ी मुद्रा में पाई गई हैं।
  • इनमें बुद्ध को अभय मुद्रा में दिखाया गया है।

प्रश्न 12.
हिमाचल प्रदेश में किस देवता की मूर्तियां विभिन्न रूपों में बनायी गयीं?
उत्तर:
हिमाचल प्रदेश में आठवीं से दसवीं सदी में विष्णु की प्रतिमाएं विभिन्न रूपों में बनायी गयीं।

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प्रश्न 13.
हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मूर्तियों में कौनसी मूर्तियाँ अधिक प्रचलित व लोकप्रिय रही हैं?
उत्तर:
हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मूर्तियों में नरसिंह अवतार या महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ अत्यन्त प्रचलित एवं लोकप्रिय रही हैं।

प्रश्न 14.
पाल राजवंश के शासनकाल में कांस्य शैली के क्षेत्र में क्या परिवर्तन आया?
उत्तर:
पाल राजवंश के शासनकाल में बंगाल तथा बिहार में कांस्य ढलाई की एक शैली अस्तित्व में आयी. जिससे कुर्किहार के मूर्तिकारों ने गुप्तकालीन शैली को पुनर्जीवित कर दिया।

प्रश्न 15.
पाल राजवंश काल (नौवीं सदी) की हिन्दू कांस्य प्रतिमाओं में कौनसी प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है?
उत्तर:
चतुर्भुज अवलोकितेश्वर की कांस्य प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। यह मनोहर त्रिभंग मुद्रा में पुरुष की आकृति का एक अच्छा उदाहरण है।

प्रश्न 16.
पाल शासनकाल में किसके प्रभावस्वरूप बौद्ध देवियों की भी पूजा की जाने लगी थी?
उत्तर:
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के प्रभावस्वरूप पाल शासन काल में बौद्ध देवियों की भी पूजा की जाने लगी थी।

प्रश्न 17.
बौद्ध देवियों के अन्तर्गत किस देवी की मूर्तियाँ अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थीं।
उत्तर:
तारा देवी की मूर्तियाँ।

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प्रश्न 18.
कांस्य प्रतिमाएं बनाने की उत्तम तकनीक और कला आज भी भारत में कहाँ प्रचलित है?
उत्तर:
कांस्य प्रतिमाएं बनाने की उत्तम तकनीक और कला आज भी दक्षिण भारत विशेषकर कुंभकोणम् में प्रचलित है।

प्रश्न 19.
दसवीं शताब्दी में दक्षिण में कांस्य कला के किस संरक्षक का नाम विशेष उल्लेखनीय है?
उत्तर:
दसवीं शताब्दी में दक्षिण में कांस्य कला के संरक्षकों में चोलवंशीय विधवा महारानी सेंवियान महादेवी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

प्रश्न 20.
हिन्दू धर्म में शिव को किस प्रकार का देवता माना जाता है?
उत्तर:
हिन्दू धर्म में शिव को परमात्मा और सम्पूर्ण ब्रह्मांड का कर्ता, धर्ता और संहर्ता माना जाता है।

प्रश्न 21.
विजयनगर काल (16वीं शताब्दी) में आंध्र प्रदेश के मूर्तिकारों ने किस प्रकार की कांस्य प्रतिमाएँ बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
विजयनगर काल में आंध्र प्रदेश के मूर्तिकारों ने अपने राजसी संरक्षक की स्मृति को शाश्वत बनाए रखने के लिए उनकी प्रतिमाएं बनाने का प्रयास किया।

लघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में कांस्य मूर्ति बनाने की प्रक्रिया कब से प्रारंभ मानी जाती है?
उत्तर:
भारत में सिंधु घाटी सभ्यता काल (2500 ई. पूर्व) से ही कांस्य मूर्ति बनाने की प्रक्रिया चली आ रही है। सिंधु घाटी काल में ढलाई के लिए 'लुप्त मोम' की प्रक्रिया का ज्ञान था और तत्कालीन लोगों ने तांबा, जस्ता और टिन जैसी धातुओं को मिलाकर मिश्र धातु (कांस्य) बनाने की प्रक्रिया सीख ली थी। इसका प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की सबसे प्राचीन कांस्य मूर्ति है। इस नारी प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग और धड़ सारणी रूप में साधारण हैं।

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प्रश्न 2.
दाइमाबाद (महाराष्ट्र) की पुरातात्विक खुदाई में प्राप्त कांस्य प्रतिमाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अनेक छोटी-छोटी कांस्य प्रतिमाओं का समूह दाइमाबाद (महाराष्ट्र) में हुई पुरातात्विक खुदाइयों से प्राप्त हुआ है। इन प्रतिमाओं का काल 1500 ई. पूर्व बताया जाता है।

यहाँ पाई गई एक रथ की प्रतिमा उल्लेखनीय है, जिसके पहिए सामन्य रूप से गोलाकार हैं, जबकि उसके चालक (मानव) की आकृति को लंबा बनाया गया है और उसमें आगे जो बैल जुड़े हुए दिखाए गए हैं, वे प्रबल तरीके से सांचे गए हैं।

प्रश्न 3.
भारत में दूसरी शताब्दी से 16वीं सदी तक के काल की किस प्रकार की धातु-प्रतिमाएँ व बर्तन पाए गए हैं?
उत्तर:
1. दूसरी से 16वीं शताब्दी के काल की बौद्ध-हिन्दू और जैन देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएँ भारत के अनेक क्षेत्रों में पाई गई हैं। इनमें से अधिकांश प्रतिमाएँ अनुष्ठानिक पूजा के लिए बनाई गई थीं। लेकिन ये रूप एवं सौंदर्य की दृष्टि से भी अत्यन्त आकर्षक एवं उत्कृष्ट हैं।

2. प्रतिमाओं के अतिरिक्त इस काल में धातु-ढलाई की प्रक्रिया का उपयोग विभिन्न प्रयोजनों, जैसे कि पकाने, खाने-पीने आदि के लिए रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले बर्तनों के लिए किया जाता था।

प्रश्न 4.
दूसरी शताब्दी की कुषाणकालीन कांस्य प्रतिमाओं की विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
कुषाणकालीन (द्वितीय शताब्दी) कांस्य प्रतिमाओं की विशेषताएं-

  • ये प्रतिमाएं बिहार राज्य के चौसा स्थान से प्राप्त हुई हैं।
  • ये जन तीर्थंकरों की कांस्य प्रतिमाएं हैं जिन्हें निर्वस्त्र दिखाया गया है।
  • इनमें पुरुषों के अंग-प्रत्यंग तथा सुडौल मांसपेशियों का निर्माण कुशलता से किया गया है।
  • आदिनाथ या वृषभनाथ की प्रतिमा के कंधों पर फैली हुई लटें हैं। अन्य तीर्थंकर छोटे धुंघराले केश में दिखाए जाते हैं।

प्रश्न 5.
पांचवीं से सातवीं शताब्दी काल की कांस्य प्रतिमाएं कहाँ-कहाँ से प्राप्त हुई हैं और उनकी क्या विशेषताएं हैं?
उत्तर:

  • बड़ोदरा (गुजरात) के निकट अकोटा में पांचवीं से सातवीं शताब्दी के काल की जैन कांस्य मूर्तियां बड़ी संख्या में मिली हैं।
  • ये कांस्य प्रतिमायें आरंभ में लुप्त मोम प्रक्रिया से बड़ी सुन्दरता से ढाली गई थीं और बाद में उनमें चांदी और तांबे से आँखें, मुकुट और वे वस्त्र बना दिए गए जिन पर इन आकृतियों को बैठा हुआ दिखाया गया है।
  • कुछ जैन कांस्य प्रतिमाएँ बिहार में चौसा से मिली हैं जिन्हें अब पटना के संग्रहालय में संभालकर रखा गया है।
  • हरियाणा में हाँसी से और तमिलनाडु व कर्नाटक के अनेक स्थलों से भी ऐसी कांस्य प्रतिमाएँ मिली हैं।

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प्रश्न 6.
छठी से नौवीं शताब्दी काल में गुजरात में पाई गई जैन मूर्तियों की विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
छठी से नौवीं शताब्दी के दौरान गुजरात तथा पश्चिमी भारतीय क्षेत्र में कांस्य की ढलाई की जाती थी। इनमें से अधिकांश मूर्तियां महावीर, पार्श्वनाथ व आदिनाथ जैसे तीर्थंकरों की हैं। इनकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • इन मूर्तियों में तीर्थंकरों को एक सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है और उनमें ये तीर्थंकर अकेले या 3 से 24. तीर्थंकरों के समूह में प्रस्तुत किए गए हैं।
  • कुछ प्रमुख तीर्थंकरों की शासन देवियों या यक्षिणियों की नारी प्रतिमाएं भी बनाई जाने लगी थीं।

प्रश्न 7.
उत्तर प्रदेश और बिहार में ढाली गई पांचवीं से सातवीं शताब्दी काल की बौद्ध कांस्य प्रतिमाओं की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
अथवा
गुप्तकालीन कांस्य प्रतिमाओं की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:
पांचवीं से सातवीं शताब्दी काल की बौद्ध कांस्य प्रतिमाओं की विशेषताएं-

  • इस काल की उत्तर भारत में बुद्ध की अनेक प्रतिमाएं खड़ी मुद्रा में पाई गई हैं जिनमें बुद्ध को अभय मुद्रा में दिखाया गया है।
  • इनमें भिक्षु के परिधान से कंधे को ढका हुआ दिखाया गया है। यह परिधान एक ओर दाहिनी भुजा को ढके हुए है और उसका दूसरा सिरा बायीं भुजा को लपेटे हुए दिखाया गया है और उसी भुजा से बढ़े हुए हाथ से चुन्नटें पकड़ी हुई हैं।
  • ऊपर का वस्त्र नीचे की ओर टखनों तक चौड़ा घुमाव लेकर फैला है।
  • आकृति का मानव शरीर बड़ी चतुराई से बनाया गया है तथा आकृति का निर्माण सुकोमल तरीके से किया गया है।

प्रश्न 8.
मध्यकालीन कांस्य प्रतिमाओं के परिधानों की मथुरा शैली और सारनाथ शैली में क्या अन्तर है?
उत्तर:

  • मथुरा शैली की कांस्य प्रतिमाओं के परिधानों की तहों में कई गिरते घुमाव मोड़ दिखाई देते हैं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण धानेसरखेड़ा से प्राप्त प्रतिमा है।
  • सारनाथ शैली के वस्त्र में कोई तहें नहीं दिखाई देतीं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण सुलतानगंज बिहार से प्राप्त प्रतिमा है।

प्रश्न 9.
महाराष्ट्र की वाकाटककालीन कांस्य प्रतिमाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
फोफनर, महाराष्ट्र से प्राप्त बुद्ध की वाकाटककालीन कांस्य प्रतिमाएं गुप्तकालीन कांस्य प्रतिमाओं की समकालीन हैं। उनमें ईसा की तीसरी शताब्दी में प्रचलित आंध्र प्रदेश की अमरावती का प्रभाव दिखाई देता है और साथ ही उनमें भिक्षुओं के वस्त्र पहनने की शैली में काफी परिवर्तन दिखाई देता है। यथा-

  • बुद्ध का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में स्वतंत्र है। इसलिए वस्त्र शरीर के दाहिने हिस्से से लटका हुआ दिखाई देता है जिसके फलस्वरूप प्रतिमा के इस हिस्से पर सतत प्रवाही रेखा दिखाई देती है।
  • बुद्ध की आकृति के टखनों के स्तर पर लटका हुआ वस्त्र स्पष्टतः वक्ररेखीय मोड़ बनाता है, जब वह बाएं हाथ से पकड़ा हुआ दिखाई देता है। 
  • ये कांस्य प्रतिमाएँ सुबाह्य थीं और बौद्ध भिक्षुक उन्हें व्यक्तिगत रूप से पूजा करने के लिए अपने साथ कहीं भी ले जा सकते थे।

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प्रश्न 10.
हिमाचल प्रदेश में किस काल की कांस्य प्रतिमाएं पाई गई हैं? इनका क्या विशेषताएं हैं?
उत्तर:
हिमाचल प्रदेश में भी बौद्ध देवताओं तथा हिन्दू देवी-देवताओं की कांस्य प्रतिमाएं बनाई जाती थीं। इनमें से अधिकांश मूर्तियाँ आठवीं से दसवीं शताब्दी की बनी पाई गई हैं। यथा-
1. इस क्षेत्र में विष्णु की प्रतिमाएं नाना रूपों में बनाई गईं क्योंकि यहाँ चतुरानन विष्णु की पूजा की जाती थी। ऐसे चतुरानन विष्णु को बैकुंठवासी विष्णु कहा जाता है। विष्णु की चतुरानन मूर्ति का मध्यवर्ती या केन्द्रीय मुख वासुदेव का होता है और बाकी दो मुख नरसिंह और वराह के होते हैं।
2. नरसिंह अवतार या महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ हिमाचल प्रदेश में पाई जाने वाली मूर्तियों में अत्यन्त प्रचलित एवं लोकप्रिय रही हैं।

प्रश्न 11.
पूर्वी भारत में नौवीं सदी में कांस्य प्रतिमा ढलाई शैली की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नौवीं शताब्दी के आस-पास बिहार और बंगाल क्षेत्र में पाल राजवंश के शासनकाल में कांस्य प्रतिमा ढलाई की एक नई शैली अस्तित्व में आयी। फलस्वरूप नालन्दा के पास स्थित कुर्किहार के मूर्तिकार गुप्तकालीन शैली को पुनर्जीवित करने में सफल हो गए। इस शैली की प्रमुख कांस्य मूर्तियां व उनकी कला शिल्प इस प्रकार है-

  • इस काल की कांस्य प्रतिमाओं में चतुर्भुज अवलोकितेश्वर की कांस्य प्रतिमा उल्लेखनीय है। यह प्रतिमा मनोहर त्रिभंग मुद्रा में पुरुष आकृति का एक अच्छा उदाहरण है।
  • अब बौद्ध देवियों की भी पूजा की जाने लगी थी, जो बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के विकास का प्रभाव था। इसके अन्तर्गत तारादेवी की मूर्तियां अत्यन्त लोकप्रिय हो गईं। इन मूर्तियों में तारा को सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है, उनके साथ एक टेढ़ी कमलनाल उगी हुई दिखाई गई है और उनका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ दिखाया गया है।

प्रश्न 12.
आठवीं शताब्दी की पल्लवकालीन शिव की कांस्य प्रतिमा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पल्लवकालीन शिव की कांस्य प्रतिमा-आठवीं शताब्दी की पल्लवकालीन कांस्य प्रतिमाओं में शिव की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें शिव को अर्द्धपर्यंक आसन में (एक टांग को झुलाते हुए) बैठा हुआ दिखाया गया है। उनका दाहिना हाथ आचमन मुद्रा में है, जो यह दर्शाता है कि शिव विषपान करने वाले हैं।
RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ 1
चित्र : शिव एक टांग झुलाते हुए

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प्रश्न 13.
तमिलनाडु के तंजौर क्षेत्र की नौवीं शताब्दी की कल्याण सुन्दर कांस्य मूर्ति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कल्याण सुन्दर मूर्ति-

  • तंजोर क्षेत्र में नौवीं शताब्दी की कल्याण सुंदर मूर्ति में पाणिग्रहण यानि विवाह संस्कार को दो अलग-अलग आकृतियों के साथ प्रतिमाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  • शिव (वर) अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर पार्वती (वधू) के दाहिने हाथ को स्वीकार करते हैं।
  • पार्वती के मुख पर लज्जा भाव की अभिव्यक्ति दर्शायी गई है।

प्रश्न 14.
विजयनगरकालीन आंध्र प्रदेश की कांस्य प्रतिमा कला का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
उत्तर:
सोलहवीं शताब्दी के काल को आंध्र प्रदेश में विजयनगर काल कहा जाता है। इस काल की कांस्य प्रतिमा कला की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित रहीं-

  • इस काल में मूर्तिकारों ने अपने राजसी संरक्षक की स्मृति को शाश्वत बनाए रखने के लिए उनकी प्रतिमाएं बनाने का प्रयास भी किया। तिरुपति में कांस्य की आदमकद प्रतिमाएं बनाई गईं जिनमें कृष्णदेवराय को अपनी दो महारानियों-तिरुमालंबा और चित्रदेवी-के साथ प्रस्तुत किया गया है।
  • मूर्ति के रूप में खड़े हुए राजा तथा रानियों को प्रार्थना करते हुए दिखाया गया है और उनके दोनों हाथ नमस्कार मुद्रा में जुड़े हुए दिखाए गए हैं।
  • मूर्तिकार ने उनके वास्तविक चेहरों की विशेषताओं को कुछ आदर्श तत्वों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।

निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
लुप्त मोम प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लुप्त मोम प्रक्रिया
धातु की प्रतिमा ढलाई की प्रक्रिया को लुप्त मोम प्रक्रिया कहा जाता है। लुप्त मोम प्रक्रिया के निम्नलिखित प्रमुख चरण होते हैं-
प्रथम चरण-सबसे पहले किसी प्रतिमा का मोम का प्रतिरूप हाथों से तैयार किया जाता है। इसे मधुमक्खी के विशुद्ध मोम से बनाते हैं। इसके लिए पहले मोम को आग से पिघलाते हैं और फिर एक महीन कपड़े से छानकर ठंडे पानी से भरे बर्तन में उसे निकालते हैं। यहाँ यह पुनः ठोस हो जाता है, फिर उसे पिचकीया फरनी से दबाते हैं जिससे मोम तार/धागे के आकार में आ जाता है। फिर बनाई गई प्रतिमा (आकृति) के चारों ओर मोम के इन तारों को लपेटा जाता है।

दूसरा चरण-इसके बाद मिट्टी, रेत और गोबर के लेप की मोटी परत प्रतिमा के चारों ओर लगाते हैं। इसके एक खुले सिरे पर मिट्टी का प्याला बना दिया जाता है। इसमें पिघली हुई धातु डाली जाती है। उपयोग की जाने वाली धातु का वजन प्रयुक्त मोम से दस गुना अधिक रखा जाता है। अधिकांशतः यह धातु टूटे हुए बर्तनों को पिघलाकर बनाई गई होती है।

तीसरा चरण-जब मिट्टी के प्याले में पिघली हुई धातु उड़ेलते हैं उस समय मिट्टी से ढके सांचे को आग पर रहने देते हैं। जैसे ही अन्दर की मोम पिघलती है धातु नालिकाओं में नीचे की ओर बहती है और मोम की प्रतिमा का आकार ले लेती है।

धातु ढलाई की इस समूची प्रक्रिया को एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह गंभीरतापूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

चौथा चरण-इसके बात प्रतिमा को छेनी और रेती से चिकना किया जाता है और चमकाया जाता है।
कांस्य प्रतिमा ढालने के लिए सामान्यतः तांबा, पीतल और सीसे के मिश्रण का प्रयोग किया जाता है। लेकिन कभी-कभी कांस्य प्रतिमा बनाने हेतु पांच धातुओं-सोना, चांदी, तांबा, पीतल और सीसे के मिश्रण का उपयोग किया जाता है।
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चित्र : धातु की प्रतिमा की प्रक्रिया

RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ

प्रश्न 2.
चोलकालीन बारहवीं शताब्दी की नटराज की कांस्य मूर्ति की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चोलकालीन नटराज की कांस्य प्रतिमा
(अ) नटराज शिव की नृत्य मुद्राएं-
(1) दाहिनी टांग की मुद्रा-शिव का नटराज के रूप में प्रस्तुतीकरण चोल काल तक पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था। 12वीं शताब्दी की चोलकालीन नटराज की इस कांस्य प्रतिमा में शिव को उनकी दाहिनी टांग पर संतुलित रूप से खड़े हुए और उसी टांग के पंजे से अज्ञान या विस्मृति के दैत्य 'अपस्मार' को बनाते हुए दिखाया गया है।

(2) बायीं टांग की मुद्रा-वे अपनी बायीं टांग को भुजंगत्रासित की स्थिति में उठाए हुए हैं जो 'तिरोभाव' यानि भक्त के मन से माया या भम्र का परदा हटा देने का द्योतक है।

(3) चारों हाथों की मुद्राएं-उनकी चारों भुजाएं बाहर की ओर फैली हुई हैं और मुख्य दाहिना हाथ 'अभय हस्त' की मुद्रा में उठा हुआ है। उनका ऊपरी दायां हाथ डमरू, जो उनका प्रिय वाद्य है, पकड़े हुए तालबद्ध ध्वनि उत्पन्न करता हुआ दिखाया गया है। ऊपरी बायां 'दोलहस्त' मुद्रा में दाहिने हाथ की 'अभयहस्त' मुद्रा से जोड़ा हुआ है।

(4) उनकी जटाएं दोनों ओर छिटकी हुई हैं और उस वृत्ताकार ज्वाला को छू रही हैं जो नृत्यरत सम्पूर्ण आकृति को घेरे हुए है।
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चित्र : नटराज पृष्ठ

(ब) शिव की नृत्य मुद्रा का महत्व-

  • नटराज के रूप में नृत्य करते हुए शिव की इस सुप्रसिद्ध कांस्य प्रतिमा का विकास चोलकाल में पूर्ण रूप से हो चुका था और उसके बाद तो इस जटिल कांस्य प्रतिमा के विविध रूप प्रस्तुत किए गए।
  • शिव को इस ब्रह्माण्ड युग अर्थात् वर्तमान विश्व के अन्त के साथ जोड़ा जाता है और उनकी यह तांडव नृत्य मुद्रा भी हिंदुओं की पुराण कथा के इस प्रसंग के साथ ही जुड़ी है।
  • शिव अपने अनन्य भक्त के दृष्टिजगत में तो सदा इस नृत्य मुद्रा में उपस्थित रहते हैं।
  • यह पौराणिक कथा चिदंबरम् से जुड़ी है। इसलिए शिव को विशेष रूप से पूजा जाता है। इसके अतिरिक्त शिव को भारत में नृत्य कला का देवता भी माना जाता है।

प्रश्न 3.
भारत में मध्य काल में जैन कांस्य प्रतिमाओं के विकास पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
जैन कांस्य प्रतिमाओं का विकास
भारत में मध्य काल में जैन कांस्य प्रतिमाओं के विकास-क्रम को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) कुषाण कालीन जैन कांस्य प्रतिमाएं-सबसे प्राचीन कांस्य प्रतिमाएं ईसा की दूसरी शताब्दी अर्थात् कुषाण काल की हैं। बिहार राज्य के चौसा स्थल से कुषाणकालीन जैन तीर्थंकरों की अनेक रोचक प्रतिमाएं मिली हैं। तीर्थंकरों की ये प्रतिमाएं निर्वस्त्र हैं। इन कांस्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि भारतीय मूर्तिकार पुरुषों के अंग-प्रत्यंग तथा सुडौल मांसपेशियों के निर्माण में कितने अधिक कुशल थे। आदिनाथ या वृषभनाथ की प्रतिमा का निर्माण बहुत कुशलता से किया गया है जिसे उनके कंधों पर फैली हुई लंबी केश लटों से पहचाना जाता है क्योंकि अन्य तीर्थंकर छोटे धुंघराले केश में दिखाए जाते हैं।

(2) पांचवीं से सातवीं शताब्दी काल की जैन कांस्य प्रतिमाएं-बड़ोदरा (गुजरात) के निकट अकोटा में इस काल की जैन कांस्य मूर्तियां बड़ी संख्या में मिली हैं। ये कांस्य प्रतिमाएं प्रारंभ में लुप्त-मोम प्रक्रिया से बड़ी सुन्दरता के साथ ढाली गई थीं और बाद में उनमें चांदी और तांबे से आँखें, मुकुट और वे वस्त्र पहना दिए गए जिन पर इन आकृतियों को बैठा हुआ दिखाया गया है। इस काल की कुछ प्रसिद्ध जैन कांस्य प्रतिमाएं बिहार में चौसा से भी मिली हैं। इसके अतिरिक्त इस काल की कुछ जैन कांस्य प्रतिमाएं हरियाणा में हाँसी से और तमिलनाडु और कर्नाटक के अनेक स्थलों से भी मिली हैं।

(3) छठी से नौवीं शताब्दी काल की जैन कांस्य प्रतिमाएं-बड़ोदरा के पास अकोटा से इस काल की कांस्य मूर्तियाँ बड़ी संख्या में पाई गई हैं। उनसे यह सिद्ध होता है कि छठी से नौवीं सदी के बीच गुजरात तथा पश्चिमी भारतीय क्षेत्र में कांस्य की ढलाई की जाती थी। इनमें से अधिकांश मूर्तियां महावीर, पार्श्वनाथ या आदिनाथ जैसे जैन तीर्थंकरों की हैं।

इस काल में जैन कांस्य मूर्तियों का एक नया रूप भी अस्तित्व में आया, जिसमें तीर्थंकरों को एक सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है और उनमें से तीर्थंकर अकेले या तीन से 24 तीर्थंकरों के समूह में प्रस्तुत किए इसके अतिरिक्त, कुछ प्रमुख तीर्थंकरों की शासन देवियां या यक्षिणियों की नारी प्रतिमाएं भी बनाई जाने लगीं। शैली की दृष्टि से ये कांस्य प्रतिमाएं गुप्त और वाकाटक दोनों कालों की कांस्य मूर्तियों की विशेषताओं से प्रभावित थीं।

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प्रश्न 4.
भारत में बौद्ध कांस्य प्रतिमाओं के विकास-क्रम को समझाइए।
उत्तर:
भारत में बौद्ध कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में शैलीगत विकास क्रम
भारत में बौद्ध कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में हुए शैलीगत विकास एवं क्षेत्रीय विस्तार को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) उत्तर प्रदेश तथा बिहार (गुप्तकालीन प्रतिमाएं)-उत्तर प्रदेश और बिहार में गुप्तकाल और उसके बाद के समय अर्थात् 5वीं सदी से 7वीं सदी तक की बुद्ध की अनेक प्रतिमाएं खड़ी मुद्रा में पाई गई हैं जिनमें बुद्ध को अभय मुद्रा में दर्शाया गया है। ये बौद्ध प्रतिमाएं ढाली गई थीं। ये प्रतिमाएं मथुरा तथा सारनाथ शैली की हैं।

इन प्रतिमाओं की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • इनमें भिक्षु के परिधान से कंधे को ढका हुआ दिखाया गया है। यह परिधान एक ओर दाहिनी भुजा को ढके हुए हैं और उसका दूसरा सिरा बायीं भुजा को लपेटे हुए दिखाया गया है और उसी भुजा के बढ़े हुए हाथ से चुन्नटें पकड़ी हुई हैं।
  • ऊपर का वस्त्र नीचे की ओर टखनों तक चौड़ा घुमाव लेकर फैला है।
  • आकृति का मानवशरीर बड़ी चतुराई से बनाया गया है जिससे वस्त्र की पतली किस्म का बोध होता
  • यह आकृति निर्माण सुकोमल तरीके से किया गया है।
  • यह आकृति कुषाण शैली की तुलना में अधिक तरुणाई से भरी हुई है और समानुपातिक प्रतीत होती है।

धानसेरखेड़ा (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त एक विशिष्ट कांस्य प्रतिमा में परिधान की तहें मथुरा शैली जैसी बनाई गई हैं जिसमें कई गिरते घुमाव मोड़ दिखाई देते हैं। दूसरी तरफ सुल्तानगंज (बिहार) से एक विशिष्ट कांस्य प्रतिमा में परिधान में तहें नहीं दिखाई गई हैं। यह प्रतिमा सारनाथ शैली की है क्योंकि सारनाथ शैली में वस्त्र में तहें नहीं दिखाई जाती हैं।

ये कांस्य प्रतिमाएं उक्त दोनों शैलियों के परिष्कृत रूप का एक प्रामाणिक उदाहरण हैं।

(2) महाराष्ट्र (वाकाटक कालीन प्रतिमाएं)-फोफनार (महाराष्ट्र) से बुद्ध की वाकाटक काल की बौद्ध कांस्य प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। ये गुप्तकालीन कांस्य प्रतिमाओं की समकालीन हैं। इन प्रतिमाओं पर अमरावती शैली का प्रभाव दिखायी देता है। साथ ही इन प्रतिमाओं में भिक्षुओं के वस्त्र पहनने की शैली में भी काफी परिवर्तन आया दिखाई देता है। यथा-

इन प्रतिमाओं में बुद्ध का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में स्वतंत्र है। इसलिए वस्त्र शरीर के दाहिने हिस्से से लटका हुआ दिखाई देता है जिसके फलस्वरूप प्रतिमा के इस हिस्से पर सतत प्रवाही रेखा दिखाई देती है।

(3) बिहार और बंगाल (पालकालीन बौद्ध प्रतिमाएं)-नालंदा जैसे बौद्ध केन्द्रों में, नौवीं शताब्दी के आस-पास बिहार और बंगाल क्षेत्र में पाल राजवंश के शासनकाल के दौरान कांस्य ढलाई की एक नई शैली अस्तित्व में आई। इसके फलस्वरूप नालन्दा के पास स्थित कुर्किहार के मूर्तिकार गुप्तकालीन श्रेष्ठ कांस्य मूर्तिकला शैली को पुनर्जीवित करने में सफल हो गए। इस काल की शैली की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • इस काल की प्रतिमाओं में चतुर्भुज अवलोकितेश्वर की कांस्य प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह प्रतिमा मनोहर त्रिभंग मुद्रा में पुरुष आकृति का एक अच्छा उदाहरण है।
  • अब बौद्ध देवियों की भी पूजा की जाने लगी थी, जो बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के विकास का प्रभाव था। इसके अन्तर्गत तारादेवी की मूर्तियां अत्यन्त लोकप्रिय हो गईं। इन मूर्तियों में तारा को सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है, उनके साथ एक टेढ़ी कमलनाल उगी हुई दिखाई गई है और उनका दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ दिखाया गया है।

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प्रश्न 5.
चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं के मुद्रित चित्र खोजें।
उत्तर:
चोल कालीन कांस्य प्रतिमाएँ
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चित्र : कालियामर्दन, चोल कालीन कांस्य, तमिलनाडु
RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ 5
चित्र : देवी, चोल कालीन कांस्य प्रतिमा, तमिलनाडु
RBSE Class 11 Drawing Important Questions Chapter 7 भारतीय कांस्य प्रतिमाएँ 6
चित्र : नटराज, चोलकालीय, बारहवीं शताब्दी ईसवी

Prasanna
Last Updated on Aug. 12, 2022, 7:47 a.m.
Published Aug. 10, 2022