Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Drawing Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
अध्याय में बताए गए स्थानों को मानचित्र में चिन्हित करें।
उत्तर:
प्रश्न 2.
उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय मंदिरों की प्रमुख विशेषताओं या लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
उत्तर भारतीय मंदिरों की प्रमुख विशेषताएं
उत्तर भारत में मंदिर स्थापत्य/वास्तुकला की जो शैली लोकप्रिय हुई उसे नागर शैली कहा जाता है। इस शैली की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(1) वेदी-इस शैली की एक प्रमुख विशेषता यहहै कि सम्पूर्ण मंदिर एक विशाल चबूतरे (वेदी) पर बनाया जाता है और उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां होती हैं।
(2) शिखर-उत्तर भारतीय मंदिरों में एक घुमावदार गुम्बद होता है जिसे शिखर कहा जाता है। यद्यपि प्राचीनकालीन मंदिरों में एक ही शिखर होता था, लेकिन आगे चलकर इन मंदिरों में कई शिखर होने लगे। मंदिर का गर्भगृह हमेशा सबसे ऊँचे वाले शिखर के एकदम नीचे बनाया जाता है। नागर मंदिर शिखरों के रूपाकार के अनुसार शिखर कई उपश्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं, जैसे-(i) रेखा प्रसाद मंदिर, (ii) फमसाना किस्म के मंदिर तथा (iii) वल्लभी प्रकार के मंदिर।
(3) गर्भगृह-गर्भगृह प्रारंभिक मंदिरों में एक छोटा सा प्रकोष्ठ होता था। उसमें प्रवेश के लिए एक छोटा सा गर्भगृह द्वार होता था। लेकिन समय के साथ-साथ इस प्रकोष्ठ का आकार बढ़ता गया। गर्भगृह में मंदिर के मुख्य अधिष्ठाता देवता की मूर्ति को स्थापित किया जाता है और यही अधिकांश पूजा-पाठ या धार्मिक क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु होता है। मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश-द्वार के पास मिथुनो या गंगा-यमुना की प्रतिमाएं होती हैं।
(4) मंडप-यह मंदिर का प्रवेश कक्ष होता है, जो कि काफी बड़ा होता है। इसमें काफी बड़ी संख्या में भक्तगण इकट्ठा हो सकते हैं। इस मंडप की छत आमतौर पर खंभों पर टिकी होती है।
(5) वाहन-वाहन से आशय मंदिर के अधिष्ठाता देवता की सवारी से है। वाहन को एक स्तंभ या ध्वज के साथ गर्भगृह के साथ कुछ दूरी पर रखा जाता है।
दक्षिण भारतीय मंदिरों की प्रमुख विशेषताएं
दक्षिण भारतीय मंदिरों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
चित्र : द्रविड़ मंदिर
प्रश्न 3.
दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य/वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास के बारे में लिखें।
उत्तर:
दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य/वस्तुकला और मूर्तिकला का विकास
दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य/वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(अ) मंदिर स्थापत्य कला
(1) पल्लवकालीन मंदिर स्थापत्य कला (द्वितीय से आठवीं ई. तक)-पल्लव राजवंश दक्षिण भारत का एक पुराना मंदिर राजवंश था। ये दूसरी शताब्दी से आंध्र प्रदेश में सक्रिय रहे और फिर दक्षिण की ओर आगे बढ़कर तमिलनाडु में बस गये तथा आठवीं शताब्दी तक शासन करते रहे।
पल्लव राजा अधिकतर शैव थे, लेकिन उनके शासनकाल के अनेक वैष्णव मंदिर आज भी मौजूद हैं। पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम जो 640 ई. के आस-पास राजगद्दी पर बैठा था, ने महाबलीपुरम में अनेक भवनों के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया। महाबलीपरम का तटीय मंदिर बाद में संभवतः नरसिंहवर्मन द्वितीय (700728 ई.), जिन्हें राजसिंह भी कहा जाता है, के द्वारा बनवाया गया। इस मंदिर का मुंह समुद्र की ओर करके इसे पूर्वाभिमुख बना दिया गया। इस मंदिर में तीन देवालय हैं जिनमें दो शिव के हैं, उनमें एक पूर्वाभिमुख और दुसरा पश्चिमाभिमुख है और दोनों के बीच अनंतशयनम रूप में विष्णु का मंदिर है।
मंदिर के अहाते में कई जलाशय, एक आरंभिक गोपुरम् तथा कई अन्य प्रतिमाएं होने का साक्ष्य मिलता है। मंदिर की दीवारों पर शिव के वाहन नन्दी बैल की भी प्रतिमाएं हैं और नीची दीवारों पर भी कई आकृतियां बनी हुई हैं।
(2) चालुक्यकालीन मंदिर स्थापत्य एवं मूर्तिकला-चालुक्य पल्लव शासकों के समकालीन थे और कर्नाटक में शासनरत थे। पुलकेशिन प्रथम ने 543 ई. में बादामी के आस-पास के इलाके अपने कब्जे में ले लिए तथा आठवीं शताब्दी के मध्य तक चालुक्य शासन करते रहे।
आरंभिक चालुक्यों ने पहले शैलकृत गुफाएं बनवाईं और फिर संरचनात्मक मंदिर बनवाए। इस काल में कर्नाटक के कई क्षेत्रों में अनेक भिन्न-भिन्न शैलियों के मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें उत्तर तथा दक्षिण भारतीय दोनों शैलियों का मिश्रित प्रयोग हुआ। यह मिश्रित शैली सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लोकप्रिय हुई तथा इसे बेसर शैली का नाम दिया गया।
चालुक्य मंदिरों का एक सर्वोत्तम उदाहरण पट्टडकल में स्थित विरूपाक्ष मंदिर है। यह मंदिर 733-44 ई. के काल में बनवाया गया। यह प्रारंभिक द्रविड़ परम्परा का सर्वोत्तम उदाहरण है। एक अन्य मंदिर, जो भगवान शिव को समर्पित है, पापनाथ मंदिर है जो द्रविड़ मंदिर शैली का उदाहरण है। इसके अतिरिक्त यहाँ बादामी से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर है, जो राजस्थान एवं ओडिशी नागर मंदिर शैली की झलक लिए हुए है। एहोल के लाड़खान मंदिर के निर्माण में पहाड़ी क्षेत्रों के लकड़ी के छत वाले मंदिरों की प्रेरणा मिली है।
इस प्रकार चालुक्यकालीन मंदिर मिश्रित शैली अर्थात् बेसर शैली में भी निर्मित हुए हैं। भिन्न-भिन्न शैलियों के इस मंदिरों के निर्माण में उन वास्तुकलाविदों की सर्जनात्मक आकांक्षाओं की गतिशील अभिव्यक्तियाँ थीं जो भारत के अन्य भागों में कार्यरत अपने साथी कलाकारों के साथ प्रतिस्पर्धा में संलग्न थे।
बादामी की गुफाएं अपनी विशिष्ट मूर्तिकला शैली के लिए जानी जाती हैं। इस स्थल पर पाई गईं सबसे महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में एक नटराज की मूर्ति है जो सप्तमातृकाओं के असली आकार से भी बड़ी प्रतिमाओं से घिरी है। इनमें से तीन प्रतिमाएं दाहिनी ओर बनी हैं। ये मूर्तियां लालित्यपूर्ण हैं, इनकी संरचना पतली है, चेहरे लम्बे बने हैं और इन्हें छोटी धोतियां लपेटे हुए दिखाया गया है जिसमें सुन्दर चुन्नटें बनी हुई हैं।
(3) राष्ट्रकूटकालीन मंदिर स्थापत्य एवं मूर्तिकला का विकास-750 ई. के आस-पास तक दक्कन क्षेत्र पर आरंभिक पश्चिमी चालुक्यों का नियंत्रण राष्ट्रकूटों द्वारा हथिया लिया गया। उनकी वास्तुकला की सबसे बड़ी उपलब्धि थी-एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर जो भारतीय शैलकृत वास्तुकला की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
यह मंदिर पूर्णतया द्रविड़ शैली में निर्मित है और इसके साथ नंदी का देवालय भी बना है। यह कैलाशवासी भगवान शिव को समर्पित है। इसका प्रवेश-द्वार गोपुरम् जैसा है। इसमें चारों ओर उपासना कक्ष और फिर सहायक देवालय बना है जिसकी ऊँचाई 30 मीटर है। यह एक जीवन्त शैलखण्ड पर उकेरकर बनाया गया है।
एलोरा में राष्ट्रकूटकालीन वास्तुकला काफी गतिशील दिखाई देती है। आकृतियाँ अक्सर असल कद से अधिक बड़ी हैं जो अनुपम भव्यता और ऊर्जा से ओतप्रोत हैं।
(4) चोलकालीन मंदिर स्थापत्य एवं मूर्तिकला का विकास-दसवीं शताब्दी में मंदिर निर्माण चोल शासकों की एक विशेष गतिविधि थी। इस काल में 100 से अधिक महत्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण हुआ। तंजावुर का भव्य शिव मंदिर जिसे वृहदेश्वर मंदिर कहा जाता है, राजराज चोल द्वारा 1009 ई. में बनवाया गया था। यह समस्त भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और ऊँचा है। इसका बहुमंजिला विमान 70 मीटर की ऊँचाई तक खड़ा है जिसकी चोटी पर एक एकाश्म शिखर है जो अष्टभुज गुंबद की शक्ल की स्तूपिका है। इसमें दो बड़े गोपुर हैं जिन पर अनेक प्रतिमाएं बनी हैं।
चित्र : बृहदेश्वर मंदिर, तंजावुर
नंदी की विशाल प्रतिमाएं शिखर के कोनों पर लगी हुई हैं। चोटी पर बना कलश लगभग 3 मीटर और 8 सेमी. मीटर ऊंचा है।
मंदिर के प्रमुख देवता शिव हैं जो एक अत्यन्त विशाल लिंग के रूप में एक दो-मंजिले गर्भगृह में स्थापित हैं।
(5) होयसलकालीन (12वीं शताब्दी) मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला-चोलों की शक्ति के अवसान के साथ होयसलों ने दक्षिण भारत में प्रमुखता प्राप्त कर ली। उनकी सत्ता का केन्द्र मैसूर था। इस काल के दक्कन में लगभग 100 मंदिर मिले हैं, जिनमें तीन सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। ये हैं-बेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुर के मंदिर।
चित्र : सोमनाथपुरम् मंदिर
ये मंदिर अत्यन्त जटिल बनाए गए हैं, जबकि पहले वाले मंदिर सीधे वर्गाकार होते थे। इनमें अनेक आगे बढ़े हुए कोण हैं जिनसे इन मंदिरों की योजना तारे जैसी दिखाई देने लगती है। इसीलिए इसे तारकीय योजना कहा जाता है। इन मंदिरों की मूर्तियों को बारीकी से उकेरा गया है। इस बारीकी को विशेष रूप से उन देवी-देवताओं के आभूषणों के अंकन में देखा जा सकता है जो उन मंदिरों में सजे हुए हैं।
1150 ई. में बना हलेबिड स्थित मंदिर बेसर शैली का मंदिर है। इनकी प्रमुख विशेषता तारकीय भूयोजना और मूर्तियों में अलंकारिक उत्कीर्णन है।
(6) विजयनगरकालीन (14वीं सदी से 16वीं सदी तक) मंदिर स्थापत्य-सन् 1336 में स्थापित विजयनगर में, वास्तुकला की दृष्टि से सदियों पुरानी द्रविड़ वास्तु शैलियों और पड़ोसी सल्तनतों द्वारा प्रस्तुत इस्लामिक प्रभावों का संश्लिष्ट रूप में मिलता है। इनकी मूर्तिकला जो मूल रूप से चोल आदर्शों से निकली थी और जब इन्हीं आदर्शों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थी, उसमें विदेशियों की उपस्थिति की झलक दिखाई देती है।
प्रश्न 4.
भारत में प्रचलित भिन्न-भिन्न मंदिर शैलियों की तुलना करें।
उत्तर:
भारत में प्रचलित भिन्न-भिन्न मंदिर शैलियों की तुलना
भारत में मंदिरों की दो प्रमुख शैलियाँ हैं-एक, उत्तर भारत की 'नागर शैली' और दूसरी, दक्षिण भारत की 'द्रविड़ शैली'। कुछ विद्धानों के मतानुसार 'बसर शैली' भी एक स्वतंत्र शैली है जिसमें नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों की कुछ चुनी हुई विशेषताओं का मिश्रण पाया जाता है। इन परम्परागत प्रमुख शैलियों के अन्तर्गत और भी कई उप-शैलियां आती हैं। यहाँ पर हम दो प्रमुख शैलियों नागर शैली और द्रविड़ शैली की तुलना करेंगे। यथा-
(1) वेदी संबंधी अन्तर-नागर शैली में सम्पूर्ण मंदिर एक विशाल चबूतरे (वेदी) पर बनाया जाता है और उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां होती हैं। दूसरी तरफ द्रविड़ शैली में ऐसी वेदी व सीढ़ियां नहीं होती हैं।
(2) चहारदीवारी और गोपुरम् सम्बन्धी अन्तर-द्रविड़ मंदिर चारों ओर से एक चहारदीवारी से घिरा होता है और इस चहारदीवारी के बीच में प्रवेश-द्वार होते हैं जिन्हें गोपुरम् कहते हैं, जबकि नागर शैली के मंदिरों में कोई चहारदीवारी या दरवाजे नहीं होते हैं।
(3) गुम्बद सम्बन्धी अन्तर-द्रविड़ शैली के मंदिर के गुम्बद का रूप, जिसे विमान कहा जाता है, मुख्यतः एक सीढ़ीदार पिरामिड की तरह होता है जो ऊपर की ओर ज्यामितीय रूप से उठा होता है, जबकि नागर शैली के मंदिर में एक घुमावदार गुम्बद होता है, जिसे शिखर कहा जाता है जिसका आधार मुख्यतः वर्गाकार होता है और दीवारें भीतर की ओर मुड़कर चोटी पर एक बिन्दु पर मिलती हैं। दूसरे शब्दों में नागर शैली में मंदिरों के गुम्बद मोड़दार शिखर के रूप में होते हैं।
(4) शिखर व कलश सम्बन्धी अन्तर-दक्षिण भारतीय मंदिरों में शिखर शब्द का प्रयोग मंदिर की चोटी पर स्थित मुकुट जैसे तत्व के लिए किया जाता है, जिसकी शक्ल आम तौर पर एक अष्टभुजा गुमटी जैसी होती है। यह उस क्षेत्र के बराबर होती है जहाँ नागर शैली के मंदिरों में एक आमलक या कलश होता है।
(5) गर्भगृह के प्रत्येक द्वार पर प्रतिमाओं सम्बन्धी अन्तर-नागर शैली के मंदिरों के गर्भगृह के प्रवेशद्वार के पास मिथुनों नवग्रहों (नौ मांगलिक ग्रहों) और गंगा-यमुना नदी की प्रतिमाएं खड़ी की जाती हैं, जबकि द्रविड़ शैली के मंदिरों के गर्भगृह के प्रवेश-द्वार पर भयानक द्वारपालों की प्रतिमाएं खड़ी की जाती हैं जो मानो मंदिर की रक्षा कर रहे हों।
(6) जलाशय या तालाब सम्बन्धी अन्तर-द्रविड़ शैली के मंदिरों के अहाते (परिसर) में कोई बड़ा जलाशय या तालाब होता है जबकि नागर शैली के मंदिरों में प्रायः जलाशय नहीं होता है।
(7) उप-देवालय सम्बन्धी अन्तर-नागर शैली के मंदिरों में मुख्य देवालयों की चारों दिशाओं में छोटे देवालय होते हैं, जिनमें मुख्य देवता के परिवारों या अवतारों की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है, जबकि द्रविड़ शैली के मंदिरों में उप-देवालयों को या तो मंदिर के मुख्य गुम्बद के भीतर ही शामिल कर लिया जाता है या फिर अलग छोटे देवालयों के रूप में मुख्य मंदिर के पास रखा जाता है।
प्रश्न 5.
बौद्धकला के विकास को स्पष्ट करें।
उत्तर:
बौद्ध कला का विकास पांचवीं से चौदहवीं शताब्दियों के दौरान बौद्ध वास्तुकला भी हिन्दू वास्तुकला के साथ कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ प्रगति करती रही।
(1) एलोरा-सातवीं एवं आठवीं शताब्दी के दौरान एलोरा जैसे स्थलों में भी बौद्ध, जैन और हिन्दू स्मारक साथ-साथ पाए जाते हैं, जैसे कि बादामी, खजुराहो, कन्नौज आदि में किन्हीं दो धर्मों के अवशेष एक-दूसरे के आस-पास पाए जाते हैं।
(2) बोध गया तथा महाबोधि मंदिर तथा बेसर शैली-बोधगया एक अत्यन्त प्रसिद्ध बौद्ध स्थल है। इस तीर्थस्थल की पूजा तभी से की जाती रही है, जब सिद्धार्थ को बुद्धत्व प्राप्त हो गया था और वे गौतम बुद्ध बन गए थे।
चित्र : महाबोधि मंदिर, बोधगया
बोधगया का महाबोधि मंदिर उस समय ईंटों से बनाए जाने वाले महत्वपूर्ण भवनों की याद दिलाता है। बोधिवृक्ष के नीचे बने सर्वप्रथम देवालय को सम्राट अशोक ने बनवाया था। उस देवालय के चारों ओर जो वेदिका बनी हुई है, वह मौर्यकाल के बाद बनाई गई थी। मंदिर के भीतर बहुत से आलों-दीवालों की प्रतिमाएं पाल राजाओं ने आठवीं सदी में बनवाई थीं। लेकिन वास्तविक महाबोधि मंदिर जिस अवस्था में आज खड़ा है, वह अधिकतर औपनिवेशक काल में अपने सातवीं शताब्दी के पुराने रूप में बनाया गया था।