RBSE Solutions for Class 11 Accountancy Chapter 2 लेखांकन के सैद्धांतिक आधार

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Accountancy Chapter 2 लेखांकन के सैद्धांतिक आधार Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Accountancy Solutions Chapter 2 लेखांकन के सैद्धांतिक आधार

RBSE Class 11 Accountancy लेखांकन के सैद्धांतिक आधार InText Questions and Answers

स्वयं जाँचिए - 1.

सही उत्तर का चुनाव करें:

प्रश्न 1. 
किसी इकाई के जीवन काल में जिस मूल संकल्पना पर आधारित वित्तीय विवरण बनाए जाते हैं वह है: 
(क) विवेकशीलता 
(ख) आगम व्यय मिलान 
(ग) लेखांकन अवधिं 
(घ) कोई नहीं। 
उत्तर:
(ग) लेखांकन अवधिं 

प्रश्न 2. 
जब दो व्यवसायों से सम्बन्धित सूचनाओं को समान प्रकार से तैयार किया जाता है तो वह सूचनाएँ प्रदर्शित करती हैं: 
(क) जाँच योग्यता 
(ख) उपयुक्तता 
(ग) प्रासंगिकता 
(घ) कोई नहीं। 
उत्तर:
(घ) कोई नहीं। 

प्रश्न 3. 
वह संकल्पना, जिसके अनुसार व्यावसायिक इकाई को निकट भविष्य में न तो बेचा जाएगा व न ही उसका परिसमापन होगा, कहलाती है: 
(क) सतत् व्यापार 
(ख) आर्थिक इकाई 
(ग) मौद्रिक इकाई 
(घ) कोई नहीं। 
उत्तर:
(क) सतत् व्यापार 

प्रश्न 4. 
लेखांकन सूचना को निर्णय में आवश्यक बनाने वाला प्राथमिक गुण है: 
(क) प्रासंगिकता व पूर्वाग्रह मुक्ति 
(ख) विश्वसनीयता व तुलनीयता 
(ग) तुलनीयता व समनुरूपता 
(घ) कोई नहीं। 
उत्तर:
(ख) विश्वसनीयता व तुलनीयता 
 
स्वयं जाँचिए - 2 

रिक्त स्थानों को सही शब्दों से भरो:

प्रश्न 1. 
एक ही समय की आगम व व्ययों को पहचानना .................. संकल्पना कहलाता है। 
उत्तर:
आगम व्यय मिलान

प्रश्न 2. 
लेखापालों द्वारा अनिश्चितताओं को समाप्त करने की प्रवृत्ति के अन्तर्गत सम्पत्तियों व आमद को कम मूल्य पर तथा देनदारियों व व्ययों को अधिक मूल्य पर दर्शाने वाली संकल्पना ................... है। 
उत्तर:
विवेकशीलता

प्रश्न 3. 
विक्रय के समय ही आमद की मान्यता ..................... की संकल्पना पर आधारित है। 
उत्तर:
आगम मान्यता
 
प्रश्न 4. 
................. संकल्पना के अनुसार विभिन्न लेखांकन वर्षों में समान लेखांकन विधियों का प्रयोग करना चाहिए। 
उत्तर:
समनुरूपता

प्रश्न 5. 
................... संकल्पना के अनुसार लेखांकन लेन-देनों को लेखापाल व अन्य व्यक्तियों के पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। 
उत्तर:
वस्तुनिष्ठता। 

स्वयं कीजिए:

बताएँ जी.एस.टी. की दरें किस प्रकार लागू होंगी। यदि CGST 9% है, SGST 9% है और IGST 18% है:

प्रश्न 1. 
10,000 रु. के मूल्य का माल महाराष्ट्र के एक निर्माता द्वारा महाराष्ट्र के डीलर अ को बेचा गया। 
उत्तर:
इस स्थिति में 9% CGST तथा 9% SGST की दर लागू होगी।

प्रश्न 2. 
डीलर अ द्वारा रु. 25,000 का माल गुजरात के डीलर ब को बेचा गया। 
उत्तर:
इस स्थिति में 18% IGST की दर लागू होगी।

प्रश्न 3. 
डीलर ब द्वारा रु. 30,000 का माल गुजरात की सुनीता को बेचा गया। 
उत्तर:
इस स्थिति में 9% CGST तथा 9% SGST की दर लागू होगी।

प्रश्न 4. 
सुनीता द्वारा राजस्थान के रविन्द्र को रु. 65,000 मूल्य का माल बेचा गया। 
उत्तर:
इस स्थिति में 18% IGST की दर लागू होगी। 

RBSE Class 11 Accountancy लेखांकन के सैद्धांतिक आधार Textbook Questions and Answers

लघुउत्तरीय प्रश्न:
 
प्रश्न 1. 
एक व्यावसायिक इकाई सतत् इकाई रहेगी। एक लेखाकार की यह परिकल्पना क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
लेखांकन की सतत् व्यापार (Going Concern) संकल्पना के आधार पर यह माना जाता है कि व्यवसाय दीर्घकाल तक निरन्तर चलता रहेगा तथा कभी बन्द नहीं होगा जब तक कि कोई ऐसा कारण या कोई विपरीत स्थिति न हो। इस परिकल्पना के अनुरूप यह मान कर चला जाता है कि व्यवसाय दीर्घकाल तक चलता रहेगा फिर भी प्रतिवर्ष आर्थिक परिणामों को ज्ञात करने के लिए लेखा विवरण अथवा प्रतिवेदन सामयिक आधार पर तैयार किए जाते हैं। इसी आधार पर सम्पत्तियों पर मूल्य ह्रास की गणना में सम्पत्ति के उपयोगी जीवन काल को ध्यान में रखा जाता है न कि उसके चालू मूल्य को। 

प्रश्न 2. 
आमद को मान्य कब माना जायेगा? क्या इसके सामान्य नियम के कुछ अपवाद भी हैं? 
उत्तर:
आगम मान्यता संकल्पना के अनुसार किसी भी आमद को लेखा पुस्तकों में तब तक अभिलिखित नहीं करना चाहिए जब तक कि वह वास्तविक रूप में प्राप्त न हो जाए। यहाँ आगम या आमद से तात्पर्य रोकड़ के उस कुल अन्तर्ग्रवाह से है जो व्यवसाय द्वारा वस्तुओं व सेवाओं के विक्रय से प्राप्त होता है तथा व्यवसाय के संसाधनों का दूसरे लोगों द्वारा उपयोग के बदले प्राप्त ब्याज, रॉयल्टी, लाभांश आदि से है। 

आगम या आमद को मान्य तभी माना जा सकता है जब उसकी प्राप्ति पर व्यवसाय का विधिसम्मत अधिकार हो जाता है। अर्थात् जब वस्तुओं का विक्रय हो चुका हो अथवा सेवाएँ प्रदान की जा चुकी हों। उदाहरणार्थ, उधार विक्रय को आगम विक्रय की तिथि से मान लिया जाता है न कि उसके भुगतान की तिथि को। इसी प्रकार किराया, कमीशन, ब्याज आदि आयों को समय के आधार पर मान्य माना जाता है चाहे यह लेखा वर्ष के अन्त तक प्राप्त न हो अथवा यदि आगामी लेखा वर्ष से संबंधित अवधि की राशि भी प्राप्त हो गई हो तो उसका समायोजन करके इस वर्ष में इस वर्ष से संबंधित राशि को ही सम्मिलित करते हैं। 

प्रश्न 3. 
आधारभूत लेखांकन समीकरण क्या है? 
उत्तर:
आधारभूत लेखांकन समीकरण (Basic Accounting Equation):
आधारभूत लेखांकन समीकरण द्विपक्ष अवधारणा पर आधारित है, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यवहार का दोहरा लेखा किया जाता है अर्थात् डेबिट व क्रेडिट पक्ष में। प्रत्येक संस्था में सम्पत्ति पक्ष का योग दायित्व पक्ष के योग के बराबर होता है। उपर्युक्त तथ्य को जब एक समीकरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो इसे ही लेखांकन समीकरण कहते हैं। आधारभूत लेखांकन समीकरण 

  1. सम्पत्तियाँ = पूँजी + दायित्व (Assets = Capital + Liabilities) 
  2. दायित्व = सम्पत्तियाँ - पूँजी (Liabilities = Assets - Capital) 
  3. पूँजी = सम्पत्तियाँ - दायित्व (Capital = Assets - Liabilities) 

प्रश्न 4. 
आगम मान्यता संकल्पना यह निर्धारित करती है कि किसी लेखावर्ष के लिए लाभ अथवा हानि की गणना करने के लिए ग्राहकों को उधार बेचे गये माल को विक्रय में सम्मिलित करना चाहिए। निम्न में से कौन सा व्यवहार में यह निश्चित करने के लिए उपयोग किया जाता है कि किसी अवधि में किसी लेन-देन को कब सम्मिलित किया जाए। वस्तुओं के (अ) प्रेषण पर, (ब) सुपुर्दगी पर, (स) बीजक भेज देने पर, (द) भुगतान प्राप्त होने पर। अपने उत्तर का कारण भी दें। 
उत्तर:
लेखाकार के सामने आय सम्बन्धी अनेक समस्याएँ आती हैं उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि किसी विशिष्ट आय को किस स्थिति में यह मान लेना चाहिए कि व्यवसाय ने उसको अर्जित कर लिया है। उदाहरण के रूप में माल की उधार बिक्री के व्यवहार की स्थिति में निम्न परिस्थितियों में से किस स्थिति पर बिक्री को आय के रूप में पहचान कर लेखों में सम्मिलित किया जाए: 

  1. प्रेषण के समय (At the time of despatch of goods), 
  2. माल सुपुर्दगी के समय (At the time of delivery of goods), 
  3. बीजक भेज देने पर (At the time of sending bill), 
  4. भुगतान के समय (At the time of receipt of payment)। 

नकद बिक्री की स्थिति में माल की सुपुर्दगी व भुगतान समय में अन्तर न होने के कारण आगम उपार्जन निर्धारण की समस्या उत्पन्न नहीं होती तथापि उधार बिक्री में प्रायः ऐसी समस्याएँ आती हैं। इस सम्बन्ध में सामान्यतः माल की सुपुर्दगी पर ही इसे बिक्री मानकर संस्था की आय उपार्जन का निर्धारण किया जाता है। 

प्रश्न 5. 
संकल्पना पहचानिए: 

प्रश्न 1.
यदि एक फर्म को यह लगता है कि उसके कुछ देनदार भुगतान नहीं कर पाएंगे तो ऐसे में अनुमानित हानियों के लिए यदि वह पहले से ही लेखा-पुस्तकों में प्रावधान कर लेती है तो यह ................. संकल्पना का उदाहरण 
उत्तर:
रूढ़िवादिता (विवेकशीलता)

प्रश्न 2.
व्यवसाय का अस्तित्व अपने स्वामी से भिन्न है तथ्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ................... संकल्पना है। 
उत्तर:
व्यावसायिक इकाई
 
प्रश्न 3.
प्रत्येक वस्तु जिसका स्वामी फर्म है, का स्वामित्व किसी और व्यक्ति के पास भी है। यह संयोग .................. संकल्पना में वर्णित है। 
उत्तर:
द्विपक्षीय

प्रश्न 4.
यदि संपत्तियों पर मूल्य ह्रास की गणना के लिए सीधी रेखा विधि का प्रयोग किया गया है तो .................. संकल्पना के अनुसार इसी विधि का प्रयोग अगले वर्ष भी किया जाना चाहिए। 
उत्तर:
समनुरूपता

प्रश्न 5.
एक फर्म के पास ऐसा स्टॉक जिसकी बाजार में माँग है। परिणामतः बाज़ार में उस माल का मूल्य बढ़ गया है। साधारण लेखांकन पद्धति में हम इस मूल्य वृद्धि पर .................. संकल्पना के अन्तर्गत ध्यान नहीं देंगे। 
उत्तर:
लागत

प्रश्न 6.
यदि किसी फर्म को वस्तुओं के विक्रय का आदेश मिलता है तो ................. संकल्पना के अन्तर्गत उसको कुल विक्रय के आंकड़ों में सम्मिलित नहीं किया जाएगा।
उत्तर:
आगम मान्यता

प्रश्न 7.
किसी फर्म का प्रबन्धक बहुत अकुशल है लेकिन लेखाकार इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को लेखा-पुस्तकों में .................... संकल्पना के कारण वर्णित नहीं कर सकता। 
उत्तर:
मुद्रा मापन। 

निबन्धात्मक प्रश्न:
 
प्रश्न 1. 
"साधारणतः लेखांकन संकल्पनाओं व लेखांकन मानकों को वित्तीय लेखांकन का सार कहा जाता है।" टिप्पणी कीजिए। 
उत्तर:
साधारणतः मान्य लेखांकन संकल्पनाएँ: ये वे सिद्धान्त एवं नियम हैं जिनका विकास लेखांकन अभिलेखों में समनुरूपता व एकरूपता लाने के लिए किया गया है तथा जिन्हें इस पेशे से जुड़े सभी लेखाकारों की सामान्य स्वीकृति प्राप्त है। इन नियमों को विभिन्न नामों जैसे - सिद्धान्त, संकल्पना, परिपाटी, अवधारणा, परिकल्पनाएँ, संशोधक सिद्धान्त आदि से भी जाना जाता है।

सामान्यतः मान्य लेखांकन सिद्धान्तों (GAAP) से आशय वित्तीय विवरणों के लेखन, निर्माण एवं प्रस्तुतिकरण में एकरूपता लाने के उद्देश्य से प्रयुक्त उन सभी नियमों व निर्देशक क्रियाओं से हैं जिनका प्रयोग व्यावसायिक लेन देनों के अभिलेखन व प्रस्तुतिकरण के लिए किया जाता है। 

जैसे एक महत्त्वपूर्ण नियम के अनुसार वित्तीय लेखांकन में सभी लेन-देनों का लेखा ऐतिहासिक लागत पर किया जाता है, साथ ही इन लेन-देनों का सत्यापन मुद्रा भुगतान से प्राप्त नकद रसीद द्वारा होना भी आवश्यक है। ऐसा करने से अभिलेखन प्रक्रिया वस्तुनिष्ठ बनती है तथा लेखांकन विवरण विभिन्न उपयोगकर्ताओं द्वारा अधिक स्वीकार्य हो जाते हैं।

इन संकल्पनाओं का विकास एक लम्बी अवधि में पूर्व अनुभवों, प्रयोगों अथवा परम्पराओं, व्यक्तियों एवं पेशेवर निकायों के विवरणों एवं सरकारी एजेन्सियों द्वारा नियमन के आधार पर हुआ है तथा यह अधिकांश पेशेवर लेखाकारों द्वारा सामान्य रूप से स्वीकृत है। लेकिन ये नियम उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं, वैधानिक, सामाजिक तथा आर्थिक वातावरण से प्रभावित हो निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार वित्तीय लेखांकन साधारणतः मान्य लेखांकन संकल्पनाओं पर आधारित होता है। 

लेखांकन मानक (Accounting Standard): लेखांकन मानक लेखांकन के नियमों, निर्देशों व अभ्यासों के संबंध में वह लिखित वाक्यांश है जो लेखांकन सचना के प्रयोगकर्ताओं के लिए वित्तीय विवरणों में समनुरूपता व एकरूपता लाते हैं। ये वे नीतिगत प्रलेख हैं जो वित्तीय विवरणों में लेखांकन लेन-देनों की पहचान, मापन, व्यवहार, प्रस्तुतिकरण तथा प्रकटीकरण के आयामों को आवरित करते हैं।

लेखांकन मानक आई.सी.ए.आई., जो हमारे देश में लेखांकन की पेशेवर संस्था है, द्वारा जारी किए गए प्राधिकारिक विवरण हैं। लेकिन मानकों की आड़ में देश के व्यावसायिक वातावरण, प्रचलित कानून, परंपराओं आदि की अवहेलना नहीं की जा सकती। वित्तीय लेखांकन, लेखांकन संकल्पनाओं तथा लेखांकन मानकों पर ही आधारित होता है। अतः लेखांकन संकल्पनाओं व लेखांकन मानकों को वित्तीय लेखांकन का सार कहा जाता है। 

प्रश्न 2. 
वित्तीय लेखांकन में समनुरूप आधारों का पालन क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
समनुरूपता (Consistency) की संकल्पना वित्तीय विवरणों में अन्तर-आवधिक व अन्तर-फर्मीय तुलनीयता के लिए यह आवश्यक है कि किसी एक समय में व्यवसाय में लेखांकन के समान अभ्यासों व नीतियों का प्रयोग हो। तुलनीयता तभी संभव होती है जबकि तुलना की अवधि में विभिन्न इकाइयां अथवा एक ही इकाई विभिन्न समयावधि में समान लेखांकन सिद्धांत को समान रूप से प्रयोग कर रही हो। 

इस बात को समझने के लिए मान लीजिए एक निवेशक व्यवसाय विशेष के वर्तमान वर्ष के वित्तीय प्रदर्शन की तुलना पिछले वर्ष के प्रदर्शन से करना चाहता है। इसके लिए वर्तमान वर्ष के शुद्ध लाभ की तुलना पिछले वर्ष के शुद्ध लाभ से कर सकता है। लेकिन यदि पिछले वर्ष ह्रास के निर्धारण की लेखांकन नीति व इस वर्ष की नीति में अंतर है तो क्या यह लाभ तुलनीय होंगे।

यही स्थिति तब भी उत्पन्न हो सकती है यदि दोनों वर्षों में स्टॉक के मूल्यांकन के लिए भी अलग-अलग विधियों का प्रयोग किया गया है। इसी कारण यह अति आवश्यक है कि समनुरूपता की संकल्पना का पालन हो ताकि दो भिन्न लेखांकन अवधियों के परिणामों की तुलना की जा सके। समनुरूपता व्यक्तिगत आग्रह का भी निराकरण करती है तथा परिणामों को तुलनीय बनाती है। 

ऐसा नहीं है कि समनुरूपता की संकल्पना लेखांकन नीतियों में परिवर्तन वर्जित करती हो लेकिन यह आवश्यक है कि इनमें किसी भी परिवर्तन की सम्पूर्ण सूचना विवरणों में उपलब्ध हो तथा इनके कारण परिणामों पर पड़ने वाले प्रभाव स्पष्ट रूप से इंगित किए जाएँ। इसी प्रकार दो व्यवसायों के वित्तीय परिणामों की तुलना भी तभी संभव है यदि दोनों ने वित्तीय विवरणों के निर्माण के लिए लेखांकन के समान तरीके व नीतियों का पालन किया हो। 

लेखांकन में अनेक व्यवहार व्यक्तिनिष्ठता से अधिक प्रभावित होते हैं। समय एवं उपयोगिता को ध्यान में रखकर प्रचलित पद्धतियों में परिवर्तन करना पडता है, जैसे ह्रास की रीतियाँ. संचय एवं आयोजन, काल्पनिक सम्पत्तियों का अपलेखन आदि। लेखा अवधि के आधार में ऐसा परिवर्तन लेखों की तुलनात्मकता को नष्ट कर देता है जो विभिन्न पक्षकारों के निर्णय को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इस परिवर्तन को ध्यान में रखे बिना यदि निर्णय लिए गए तो अत्यन्त खतरनाक होते हैं। इसी आधार पर पिछले कुछ वर्षों से लेखा अवधि के रिकॉर्डों में एकरूपता रखने पर काफी ओर दिया जा रहा है।

लेखापाल को चाहिए कि जिस पद्धति या विकल्प का एक बार चुनाव कर लिया जाए, यथासम्भव उसमें परिवर्तन नहीं करे। यदि परिवर्तन अवश्यम्भावी हो तो इस प्रकार के परिवर्तन एवं उसके अन्तिम डने वाले प्रभाव को टिप्पणी के रूप में अवश्य दिखाया जाए अर्थात अपनाई जाने वाली पद्धति में 'स्थिरता' एवं 'एकरूपता' (Consistency) होनी चाहिए ताकि लेखों में संगति व तुलनात्मकता बनी रहे। इस तरह लेखों में सम्बन्धित पक्षों का विश्वास भी बढ़ता है। 

उदाहरणार्थ, स्टॉक के मूल्यांकन (Valuation of Stock) में 'लागत एवं बाजार मूल्य' में कम पद्धति को अपनाकर उसे केवल बाजार मूल्य पर दिखाने की पद्धति अपनाना ठीक नहीं होगा। भारतीय कम्पनी विधान के अनुसार लेखा नीति में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कम्पनी के वार्षिक खातों में दिखाना अनिवार्य है। 

प्रश्न 3. 
एक लेखापाल के लिए लाभों का अनुमान जरूरी नहीं है अपितु प्रत्येक हानि का प्रावधान अति आवश्यक है। इस तथ्य का अनुमोदन करने वाली संकल्पना की विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
अनुदारवादिता या रूढ़िवादिता की संकल्पना (Concept of Conservatism): लेखांकन करते समय सम्पत्ति, दायित्व तथा आय से सम्बन्धित मदों के मूल्यांकन के विभिन्न विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चयन करना होता है। विकल्पों का चयन करते समय अनुदारवादी परम्परा की पालना करनी चाहिए। इस संकल्पना में यह बताया गया है कि व्यवसाय में होने वाली सम्भावित हानियों की पहले से ही व्यवस्था कर ली जाए परन्तु भावी लाभों की सम्भावना पर ध्यान नहीं रखा जाए। इसीलिए व्यापारी संदिग्ध हानियों के लिए आयोजन करते हैं व अदृश्य सम्पत्तियों (ख्याति, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, पेटेन्ट) को शीघ्र अपलिखित करते हैं तथा स्टॉक का मूल्यांकन लागत मूल्य या बाजार मूल्य दोनों में से जो भी कम हो, पर करते हैं। 

इस संकल्पना के अनुसार समस्त लाभों का लेखा पुस्तकों में तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि वह अर्जित न हो लेकिन वह सभी हानियां जिनकी यदि दूरस्थ संभावना भी हो, तो उनके लिए लेखा पुस्तकों में पर्याप्त प्रावधान कर लेना चाहिए। अंतिम स्टॉक का मूल्यांकन वास्तविक मूल्य व बाजार मूल्य में से जो कम है उस पर करना तथा संदिग्ध ऋणों के लिए आरंभ से ही प्रावधान, देनदारों के लिए छूट का प्रावधान, अमूर्त संपत्तियों ख्याति, पेटेंट आदि। का सामयिक अपलेखन आदि इसी संकल्पना के उपयोग के उदाहरण हैं।

इसी कारण यदि बाजार में क्रय किए गए माल का मूल्य कम हो गया है तो लेखा-पुस्तकों में उसे खरीद के मूल्य पर ही दिखाया जाएगा। इसके विपरीत यदि बाजार में माल का मूल्य बढ़ गया है तो लाभ का कोई लेखा तब तक नहीं किया जाएगा जब तक कि माल को बेच न लिया जाये। इसलिए यह अभिगम जिसमें हानियों के लिए प्रावधान आवश्यक है लेकिन लाभों की पहचान तब तक नहीं होती जब तक कि उनका वास्तविक अर्जन न हो, विवेकशीलतापूर्ण लेखांकन कहलाता है।

यह शायद लेखाकारों के निराशापूर्ण दृष्टिकोण की ओर इशारा करता है, लेकिन यह व्यवसाय की अनिश्चितताओं से निपटने तथा देनदारों के हितों की फर्म की परिसम्पत्तियों के अवांछनीय वितरण से सुरक्षा प्रदान करने की कारगर विधि है। फिर भी जानबूझकर परिसम्पत्तियों को कम मूल्य पर आंकने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना चाहिए क्योंकि इसके परिणामस्वरूप छुपे हुए लाभ अर्थात् गुप्त कोषों का निर्माण हो जाएगा। 

लेखांकन में इस संकल्पना के निम्नलिखित उदाहरण हैं:

  1. अनिश्चित जीवन काल वाली अमूर्त सम्पत्तियों, जैसे ख्याति को अपलिखित करना; 
  2. ह्रास की सीधी रेखा पद्धति की तुलना में अपलिखित मूल्य विधि को अपनाना; 
  3. लेनदारों पर बट्टे के लिए आयोजन न करना; 
  4. स्टॉक का लागत मूल्य या बाजार मूल्य में से जो कम हो, पर मूल्यांकन करना; 
  5. डूबत एवं संदिग्ध ऋणों तथा बट्टे के लिए देनदारों पर आयोजन का निर्माण करना; 
  6. ऋणपत्रों के शोधन पर देय प्रीमियम का उनके निर्गमन के समय ही प्रावधान करना; 
  7. विनियोगों के मूल्य में होने वाले उतार-चढ़ावों के लिए आयोजन करना; 
  8. संयुक्त जीवन बीमा पॉलिसी को, प्रीमियम की चुकाई गई राशि के बजाय समर्पण मूल्य पर चिट्ठे में दिखाना। 

प्रश्न 4. 
आगम-व्यय मिलान संकल्पना से आप क्या समझते हैं? एक व्यवसाय के लिए इसका पालन क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
आगम-व्यय मिलान (Matching) संकल्पना: इस संकल्पना में लेखांकन अवधि विशेष में अर्जित आगमों का मिलान उसी अवधि के व्ययों से करने पर बल दिया जाता है। इसी के परिणामस्वरूप इन आगमों को अर्जित करने के लिए जो व्यय किये गये हैं वह उसी लेखावर्ष से संबंधित होने चाहिए। यह जानने की प्रक्रिया में, कि एक दिए गए अंतराल में व्यवसाय ने लाभ अर्जित किया है या उसे हानियाँ उठानी पड़ी हैं, हम उस अन्तराल विशेष की आमदनी में से व्ययों को घटाते हैं।
 

आगम व्यय मिलान संकल्पना में लेखांकन के इसी पक्ष पर बल दिया जाता है। इस संकल्पना के अनुसार अवधि विशेष में अर्जित आगमों का मिलान उसी अवधि के व्ययों से किया जाना चाहिए। आगम को मान्य या अर्जित तभी मान लिया जाता है जब विक्रय हो जाता है या सेवा प्रदान कर दी जाती है न कि जब उसके प्रतिफल के रूप में रोकड़ प्राप्त की जाती है। इसी प्रकार एक व्यय को भी तभी खर्च मान लिया जाता है जब उससे किसी संपत्ति या आगम का अर्जन हो गया हो, न कि जब उस पर रोकड़ का भुगतान हुआ।

उदाहरणार्थ वेतन, किराया, बीमा आदि का व्यय जिस समय वह देय है, के अनुसार ही खर्च मान लिया जाता है न कि जब वास्तविक रूप में इनका भुगतान किया जाए। इसी प्रकार स्थिर संपत्तियों पर ह्रास निकालने के लिए संपत्ति के मूल्य को उसकी उपयोगिता के वर्षों से भाग दिया जाता लेखांकन यदि उपार्जन आधार पर किया जाए तो आगम व लागतों को लेन-देन के समय ही मान्यता दी जाती है न कि उनके वास्तविक प्राप्ति या भुगतान के समय। नकद प्राप्ति व नकद प्राप्ति के अधिकार और नकद भुगतान व नकद भुगतान के वैधानिक अनिवार्यता के बीच अंतर किया जाता है। 

इसलिए इस प्रणाली के अनुसार लेन-देन के मौद्रिक प्रभाव का लेखा खातों में इसके उपार्जन के समय के अनुसार किया जाता है न कि इसके बदले में वास्तविक मौद्रिक विनिमय के समय। यह व्यवसाय के लाभ की गणना का अधिक श्रेष्ठ आधार है क्योंकि इसके अनुसार आगम व व्ययों का मिलान संभव है। उदाहरणार्थ, बेचे गए माल की लागत का मिलान उपयोग किए गए कच्चे माल से किया जा सकता है। अंत में आगम व्यय मिलान संकल्पना के अनुसार किसी वर्ष विशेष के लाभ व हानि की गणना करने के लिए उस अवधि के सभी आगम चाहे उनके बदले रोकड़ मिली है या नहीं तथा सभी व्यय चाहे उनके बदले रोकड़ भुगतान हुआ है या नहीं, का अभिलेखन आवश्यक है। 

प्रश्न 5. 
मुद्रा मापन संकल्पना का क्या अभिप्राय है? वह एक तत्व बताइए जिसके कारण एक वर्ष के मुद्रा मूल्यों की तुलना दूसरे वर्ष के मुद्रा मूल्यों से करने में कठिनाई आ सकती है। 
उत्तर:
मद्रा मापन संकल्पना (Money Measurement Concept): मुद्रा मापन की संकल्पना के अनुसार संगठन की लेखांकन पुस्तकों में केवल उन्हीं लेन-देनों व घटनाओं का वर्णन अथवा लेखांकन होगा जिनकी प्रस्तुति मुद्रा की इकाइयों के रूप में हो सकती है, साथ ही लेन-देनों का ब्यौरा केवल मौद्रिक इकाइयों में रखा जाएगा, न कि भौतिक इकाइयों में। मुद्रा मापन की संकल्पना यह उल्लेख करती है कि किसी संगठन में केवल उन्हीं लेन-देनों या घटनाओं (जिनका लेखन मुद्रा के रूप में किया जा सकता है, जैसे-वस्तुओं का विक्रय, व्ययों का भुगतान अथवा किसी आय की प्राप्ति आदि) का ही अभिलेखन लेखा-पुस्तकों में किया जाएगा। 

वह सभी लेन-देन या घटनाएं जिनको मुद्रा के रूप में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता, जैसे - प्रबन्धक की नियुक्ति या संगठन के मानव संसाधन की योग्यताएं अथवा शोध विभाग की सृजनशीलता व साधारणजन में संगठन की प्रतिष्ठा आदि महत्त्वपूर्ण सूचनाएं व्यापार के लेखांकन अभिलेखों में स्थान प्राप्त नहीं करते।
 

उदाहरणार्थ, किसी व्यवसायी के पास भवन, मशीन, कच्चा माल, पेटेण्ट, मोटरकार, प्लाण्ट, फर्नीचर आदि के रूप में सम्पत्तियाँ हैं तथा उनके आधार पर उस व्यवसायी की आर्थिक स्थिति ज्ञात करनी है, तो ऐसी स्थिति में इन समस्त सम्पत्तियों का मूल्य मुद्रा में आंका जाएगा और उनके मौद्रिक मूल्यों के आधार पर उसकी आर्थिक स्थिति व्यक्त की जाएगी। 

इस अवधारणा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि एक आम आदमी भी व्यवसाय के विभिन्न पक्षों को आसानी से जान सकता है यदि उन्हें मुद्रा मूल्यों में व्यक्त किया जाए। मुद्रा की क्रय शक्ति में परिवर्तन के कारण एक वर्ष के मुद्रा मूल्यों की तुलना दूसरे वर्ष के मुद्रा मूल्यों से करने में कठिनाई मुद्रा मापन की संकल्पना सीमाओं से मुक्त नहीं है। कुछ समय के पश्चात् मूल्यों में परिवर्तनों के कारण मुद्रा की क्रय शक्ति में परिवर्तन होता रहता है।

आज बढ़ते हुए मूल्यों के कारण रुपये का मूल्य आज से दस वर्ष पूर्व के मूल्य की तुलना में काफी कम है। इसलिए तुलन पत्र में जब हम अलग-अलग समय पर खरीदी गई परिसंपत्तियों का क्रय मूल्य जोड़ते हैं जैसे कि 2005 में खरीदा गया 1 करोड़ का भवन, 2019 में खरीदा गया 2 करोड़ का संयन्त्र तो हम मूलतः दो भिन्न तथ्यों के मूल्यों को जोड़ रहे हैं जबकि इन्हें एक वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। क्योंकि स्थिति विवरण में मुद्रा के मूल्य में आ रहे परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित नहीं किया जाता इसलिए यह लेखांकन आंकड़े बहुधा व्यापार का सत्य व सही स्वरूप प्रस्तुत नहीं कर पाते। 

इस संकल्पना की कुछ सीमाएँ निम्न प्रकार हैं: 

  1. व्यापार की समस्त सम्पत्तियों को मुद्रा मूल्यों में मापना सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ-किसी व्यापार की ख्याति को मुद्रा मूल्यों में सही-सही मापा नहीं जा सकता। 
  2. मुद्रा का मूल्य स्थिर नहीं रहता है। मुद्रा का मूल्य उस देश की मुद्रास्फीति की दर के अनुसार बढ़ता व घटता है। इससे एक वर्ष के मुद्रा मूल्यों की तुलना दूसरे वर्ष के मुद्रा मूल्यों से करने में कठिनाई आ सकती है। 
Prasanna
Last Updated on Sept. 8, 2022, 10:13 a.m.
Published Sept. 5, 2022