These comprehensive RBSE Class 11 Drawing Notes Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला will give a brief overview of all the concepts.
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→ मंदिर स्थापत्य मंदिर देवी-देवताओं की पूजा करने और ऐसी धार्मिक क्रियायें सम्पन्न करने के लिए बनाए गए होंगे, जो और कालान्तर में आवश्यकताओं के अनुसार इनमें अनेक मंडप-अर्द्धमंडप, महामंडप, रंगमंडप आदि जोड़ दिए गए। 10वीं शताब्दी तक आते-आते भू-प्रशासन में मंदिर की भूमिका काफी अहम् हो गई थी।
→ प्राचीन मंदिर:
स्तूप निर्माण के साथ-साथ भारत में सनातन हिन्दू धर्म के मंदिर और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनने लगीं। मंदिरों को संबंधित देवी-देवताओं की मूर्तियों से सजाया जाता था। हर मंदिर में एक प्रधान देवता की प्रतिमा होती थी।
मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते थे
→ हिन्दू मंदिर का मूल रूप
हिन्दू मंदिर निम्न भागों से निर्मित होता है
आगे चलकर मंदिरों के निर्माण में ज्यों-ज्यों जटिलता बढ़ती गई, उनमें तरह-तरह की प्रतिमाओं की स्थापना हेतु आले-दिवाले जोड़े जाते रहे, लेकिन मंदिर की आधारभूत योजना पहले जैसी ही रही।
→ मंदिर की श्रेणियां:
भारत में मंदिरों की दो श्रेणियों को जाना जाता है
इन परम्परागत प्रमुख श्रेणियों के अन्तर्गत और भी कई उप-श्रेणियां आती हैं।
→ मूर्तिकला, मूर्तिविद्या और अलंकरण
→ नागर या उत्तर भारतीय मंदिर शैली
→ मध्य भारत
1. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के सभी प्राचीन मंदिर बलुआ पत्थर के बने हुए हैं।
2. गुप्तकालीन प्राचीन संरचनात्मक मंदिर मध्यप्रदेश में पाए जाते हैं जो साधारण किस्म के आडंबरहीन पूजा स्थल हैं। इसमें चार खंभों पर टिका एक छोटा मंडप होता है जिसके आगे एक छोटा सा कक्ष, गर्भगृह, होता है। ऐसे दो मंदिर आज बचे हुए हैं, उनमें एक उदयगिरि में है और दूसरा सांची के स्तूप के निकट स्थित है।
3. देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर छठी शताब्दी का है, जो उदयगिरि और सांची के छोटे मंदिरों से लगभग 100 साल बाद बना था। यह गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। यह मंदिर वास्तुकला की पंचायन शैली में निर्मित हुआ है। इसका शिखर रेखा-प्रसाद शैली का है। यह मंदिर श्रेष्ठ नागर शैली का आरंभिक उदाहरण है।
यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है, जबकि अधिकांश मंदिरों का मुख पूर्व या उत्तर की ओर होता है। दूसरे, इसमें परिक्रमा दक्षिण से पश्चिम की ओर की जाती है जबकि आजकल प्रदक्षिणा दक्षिणावर्त (Clockwise) की जाती है। इसमें विष्णु के अनेक रूप प्रस्तुत किए गए हैं।
4. खजुराहो के मंदिर
→ पश्चिमी भारत
→ पूर्वी भारत
पूर्वी भारत के मंदिरों में वे सभी मंदिर शामिल हैं जो पूर्वोत्तर क्षेत्र, बंगाल और ओडिशा में पाए जाते हैं।
असम-इस क्षेत्र में छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक गुप्तकालीन शैली पाल शैली जारी रही। किन्तु 12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच में गुवाहाटी और आस-पास के क्षेत्र में 'अहोम शैली' का विकास हुआ।
बंगाल
→ ओडिशा
(1) ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-
(2) वहाँ के अधिकांश ऐतिहासिक स्थल पुराना भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के इलाके शामिल हैं।
(3) ओडिशा के मंदिरों की शैली, नागर शैली की एक उप शैली है जिसमें शिखर (देवल) चोटी तक तो बिल्कुल सीधा होता है, लेकिन चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है। इन मंदिरों में जगमोहन, वर्गाकार भूमि योजना, लाट बेलनाकार, चहारदीवारी आदि होते हैं, बाहरी भाग अत्यन्त उत्कीर्ण और भीतरी भाग खाली होता है। कोणार्क का भव्य सूर्य मंदिर इसका उदाहरण है।
→ पहाड़ी क्षेत्र
(1) कुमाऊँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में वास्तुकला का एक अनोखा रूप विकसित हुआ।
(2) पांचवीं शताब्दी तक आते-आते कश्मीर की कला पर गांधार शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। इसके बाद उसमें गुप्तकालीन और गुप्तोत्तर परम्पराएं जुड़ीं। हिन्दू-बौद्ध परम्पराएं भी आपस में मिलीं और पहाड़ी इलाकों तक पहुँच गईं। स्वयं पहाड़ी क्षेत्रों की भी अपनी एक अलग परम्परा थी। इस प्रकार पहाड़ी क्षेत्रों में मुख्य गर्भगृह और शिखर तो रेखा प्रसाद शैली में बने होते हैं जबकि मंडप काष्ठवास्तु के एक पुराने रूप में होता है। कभी-कभी मंदिर स्वयं पैगोडा (स्तूप) की सूरत ले लेता है।
कश्मीर का कारकोटा काल वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। उन्होंने बहुत से मंदिर बनवाए जिनमें पंड्रेथान में निर्मित मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो आठवीं और नौवीं सदी में बनाए गए थे। इनमें पंडेरनाथ का मंदिर अधिक उल्लेखनीय है।
(3) चम्बा में मिली प्रतिमाओं में स्थानीय परम्पराओं का गुप्तोत्तर शैली के साथ संगम दिखाई देता है। महिषासुर मर्दिनी और नरसिंह की प्रतिमाएं इसका उदाहरण हैं। जिनमें धातु प्रतिमा परम्परा और सौंदर्य शैली का सम्मिलन है। कुमाऊँ के मंदिरों में अल्मोड़ा के पास गजेश्वर और पिथौरागढ़ के पास चंपावत मंदिर नागर वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
→ दविड़ या दक्षिण भारतीय मंदिर शैली
→ दविड़ मंदिरों की उप श्रेणियां-द्रविड़ मंदिरों की भी कई उप श्रेणियां हैं।
इनकी मूल आकृतियां पांच प्रकार की होती हैं
आगे चलकर इन भिन्न-भिन्न रूपों का कहीं-कहीं मिश्रण हो गया और उनके मेल से नए-नए रूप विकसित हो गए।
→ पल्लव वंश-पल्लव वंश दक्षिण भारत का एक पुराना राजवंश था। पल्लव राजा अधिकतर शैव थे, लेकिन उनके शासनकाल के अनेक वैष्णव मंदिर आज भी मौजूद हैं । वे दक्कन के लम्बे बौद्ध इतिहास से भी प्रभावित थे।
पल्लवों में नरसिंहवर्मनं प्रथम ने (640 ई. के आस-पास) महाबलीपुरम् में अनेक भवनों का निर्माण कराया। चूंकि नरसिंहवर्मन प्रथम को मामल्ल भी कहा जाता था, इसलिए महाबलीपुरम् को मामल्लपुरम् भी कहा गया है।
→ महाबलीपुरम् का तटीय मंदिर नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) के द्वारा 700-728 ई. में बनवाया गया। इस मंदिर में तीन देवालय हैं जिसमें दो शिवालय और इनके बीच में विष्णु का मंदिर है। मंदिर के अहाते में कई जलाशय, एक गोपुरम् तथा कई अन्य प्रतिमाए हैं। मंदिर की दीवारों पर शिव के वाहन नन्दी बैल की प्रतिमाएं हैं।
→ चोलवंश-तंजावुर का भव्य शिव मंदिर जिसे वृहदेश्वर मंदिर कहा जाता है, समस्त भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और ऊँचा है। इसका निर्माण चोल राजाओं द्वारा कराया गया। इसका बहुमंजिला विमान 70 मीटर ऊँचा है जिसकी चोटी पर एकाश्म शिखर अष्टभुज गुंबद की शक्ल की स्तूपिका में है। यहाँ दो बड़े गोपुर हैं, शिखर के कोनों में नंदी की विशाल प्रतिमाएं हैं। चोटी पर कलश है तथा सैकड़ों आकृतियां विमान पर हैं। मंदिर के प्रमुख देवता शिव हैं । गर्भगृह के चारों ओर की दीवारें पौराणिक आख्यानों से ओत-प्रोत हैं।
→ दक्कन की वास्तुकला
(i) कर्नाटक के मंदिरों में नागर और द्रविड़ शैलियों की मिश्रित शैली का उपयोग हुआ जो सातवीं सदी में लोकप्रिय हुई। इस शैली को बेसर शैली के नाम से जाना जाता है। चालुक्य शासकों ने यहाँ 543 ई. से आठवीं सदी के मध्य तक शासन किया। आरंभिक चालुक्यों ने पहले शैलकृत गुफाएं बनाईं और फिर उन्होंने संरचनात्मक मंदिर बनवाए। बादामी में पाई गई गुफाओं में यह महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में से एक नटराज की मूर्ति है। चालुक्य मंदिरों में सर्वोत्तम उदाहरण पट्टडकल स्थित विरुपाक्ष मंदिर है। यह मंदिर द्रविड़ परम्परा का सर्वोत्तम उदाहरण है।
(ii) 7वीं सदी के अन्त और 8वीं सदी के प्रारंभ में एलोरा की परियोजना भव्य बन गई। यह राष्ट्रकूट शासकों ने बनवाए।
एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर पूर्णतया द्रविड़ शैली में निर्मित है। यह एक जीवन्त शैल खंड पर उकेर कर बनाया गया है। एलोरा में राष्ट्रकूटकालीन वास्तुकल गतिशील है, आकृतियां असल कद से बड़ी हैं तथा अनुपम भव्यता और ऊर्जा से ओत-प्रोत हैं।
(iii) अन्य चालुक्य मंदिरों की परम्परा के विपरीत बादामी से मात्र 5 किमी. की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर तथा आलमपुर स्थित स्वर्ग ब्राह्म मंदिर में राजस्थान और ओडिसा की उत्तरी नागर शैली की झलक देखने को मिलती है। इसी प्रकार एहोल (कर्नाटक) क़ा दुर्गा मंदिर भी गजपृष्ठाकार बौद्ध चैत्यों के समान शैली में निर्मित है।
इस प्रकार एक ही स्थान बादामी व उसके आस-पास भिन्न-भिन्न शैलियों के मंदिर बने।
(iv) चोलों और पांड्यों की शक्ति के अवसान के साथ कर्नाटक के होयसलों ने दक्षिण भारत में प्रमुखता प्राप्त कर ली। उनकी सत्ता का केन्द्र मैसूर था। वेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुरम् के मंदिर इस काल के मंदिरों में प्रमुखतः उल्लेखनीय हैं। इन मंदिरों की योजना को 'तारकीय योजना' कहा जाता है। हलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर होयसल नरेश द्वारा 1150 ई. में बेसर शैली में बनवाया गया। हलेबिड का मंदिर नटराज के रूप में शिव को समर्पित है।
(v) सन् 1336 में स्थापित विजयनगर में वास्तुकला की दृष्टि से सदियों पुरानी द्रविड़ वास्तु शैलियों और पड़ौसी सल्तनतों द्वारा प्रस्तुत इस्लामिक प्रभावों का संश्लिष्ट रूप मिलता है। इनकी मूर्तिकला पर चोल आदर्शों के साथ विदेशी कला की उपस्थिति दिखाई देती है।
→ बौद्ध वास्तुकला की प्रगति
(1) पांचवीं से 14वीं शताब्दियों के दौरान बौद्ध और जैन वास्तुकला ने भी हिन्दू वास्तुकला के साथ कदम से कदम मिलाकर प्रगति की है।
(2) बोधगया का महाबोध मंदिर-यह सर्वप्रथम सम्राट अशोक ने बनवाया था। मंदिर के भीतर आलोंदीवालों में रखी प्रतिमाएं पाल राजाओं के शासनकाल में आठवीं शताब्दी में बनाई गई थीं, लेकिन वर्तमान मंदिर औपनिवेशिक काल में अपने 7वीं सदी के पुराने रूप में बनाया गया था। यह मंदिर नागर मंदिर की तरह संकरा है और द्रविड़ मंदिर की तरह बिना मोड़ सीधे ऊपर की ओर उठा हुआ है।
(3) मूर्तिकला की नालंदा शैली-नालंदा का मठीय विश्वविद्यालय एक महाविहार है। ह्वेनचांग के लेख के अनुसार, एक मठ की नींव कुमारगुप्त द्वारा पांचवीं सदी में रखी गई थी और निर्माण कार्य बाद के सम्राटों के शासनकाल में भी चलता रहा। यहाँ बौद्ध धर्म के तीन सम्प्रदायों-थेरवाद, महायान और वज्रयान-के सिद्धान्त पढ़ाये जाते थे।
→ नालंदा की कांस्य मर्तियों का काल सातवीं और आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक का है। ये कांस्य प्रतिमाएं भी पत्थर की प्रतिमाओं की तरह प्रारंभ में सारनाथ और मथुरा की गुप्त परम्पराओं पर अधिक निर्भर थीं।
→ जैन वास्तकला की प्रगति
जैनियों ने भी अपने बड़े-बड़े मंदिर बनवाए और अनेक मंदिर और तीर्थ समस्त भारत में पाए जाते हैं जो आरंभिक बौद्ध पूजा स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हैं।