Rajasthan Board RBSE Class 11 Accountancy Important Questions Chapter 2 लेखांकन के सैद्धांतिक आधार Important Questions and Answers.
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वस्तुनिष्ठ प्रश्न:
प्रश्न 1.
व्यवसाय का अस्तित्व अपने स्वामी से भिन्न है, इस तथ्य में कौनसी संकल्पना है?
(अ) संगति संकल्पना
(ब) रूढ़िवादिता
(स) व्यावसायिक इकाई
(द) आगम-मापता।
उत्तर:
(स) व्यावसायिक इकाई
प्रश्न 2.
पूँजी निम्न में से है:
(अ) परिसम्पत्तियाँ - देयताएँ
(ब) परिसम्पत्तियाँ + देयतायें
(स) देयतायें + पूँजी
(द) परिसम्पत्तियाँ - पूँजी।
उत्तर:
(अ) परिसम्पत्तियाँ - देयताएँ
प्रश्न 3.
लेखांकन सिद्धान्तों का नियम है:
(अ) वस्तुपरकता
(ब) व्यक्तिपरकता
(स) दर्ज करने की सुविधा
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) वस्तुपरकता
प्रश्न 4.
निम्न में से कौनसी लेखांकन अवधारणा नहीं है:
(अ) लागत
(ब) निरन्तरता
(स) व्यक्तिनिष्ठता
(द) रूढ़िवादिता।
उत्तर:
(स) व्यक्तिनिष्ठता
प्रश्न 5.
रूढ़िवादी परम्परा के अनुसार व्यवसाय के स्टॉक का मूल्यांकन किया जाता है:
(अ) लागत मूल्य पर
(ब) बाजार मूल्य पर
(स) लागत मूल्य व बाजार मूल्य में जो कम हो
(द) लागत मूल्य व बाजार मूल्य में जो अधिक है।
उत्तर:
(स) लागत मूल्य व बाजार मूल्य में जो कम हो
प्रश्न 6.
लेखांकन की प्रणालियाँ कितने प्रकार की हैं?
(अ) एक
(ब) दो
(स) तीन
(द) चार।
उत्तर:
(ब) दो
प्रश्न 7.
लेखांकन के नकद आधार में लेन-देन होते हैं:
(अ) उधार
(ब) नकद
(स) लेन-देन के समय
(द) कोई नहीं।
उत्तर:
(ब) नकद
प्रश्न 8.
निम्नलिखित में चल सम्पत्ति नहीं है:
(अ) रोकड़
(ब) स्टॉक
(स) दीर्घकालीन विनियोग
(द) देनदार।
उत्तर:
(स) दीर्घकालीन विनियोग
प्रश्न 9.
लेखांकन मानक निम्नलिखित में से किस पर लागू नहीं होते हैं:
(अ) एकल स्वामित्व इकाई
(ब) ट्रस्ट
(स) हिन्दू अविभाजित परिवार
(द) धर्मार्थ संगठन।
उत्तर:
(अ) एकल स्वामित्व इकाई
प्रश्न 10.
भारत सरकार द्वारा माल एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) को कब लागू किया गया?
(अ) 1 जुलाई, 2017 को
(ब) 1 अप्रैल, 2017 को
(स) 1 जनवरी, 2017 को
(द) 1 अप्रैल, 2018 को।
उत्तर:
(द) 1 अप्रैल, 2018 को।
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए:
प्रश्न 1.
लेखा पुस्तकों में केवल उन्हीं लेन-देनों को लिखा जाता है जिन्हें ....................... में मापा जा सकता है।
उत्तर:
मुद्रा,
प्रश्न 2.
यदि कोई दायित्व नहीं हो तो सम्पत्तियाँ ......................... के बराबर होंगी।
उत्तर:
पूँजी
प्रश्न 3.
मिलान के सिद्धान्त के अनुसार आय का ......................... से मिलान किया जाता है।
उत्तर:
व्यय
प्रश्न 4.
सतत् व्यापार संकल्पना के अनुसार व्यापार को ............................ आयु का माना गया है।
उत्तर:
अनिश्चित
प्रश्न 5.
व्यावसायिक वृद्धि की सुगमता हेतु ............................ वैश्विक मानकों को बढ़ावा देता है।
उत्तर:
आई.एफ.आर.एस.।
सत्य/असत्य बताइये:
प्रश्न 1.
व्यापार के लेखों में आय का आधार आय का मुद्रा में प्राप्त होना है।
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 2.
सामान्य स्वीकृत लेखांकन सिद्धान्त लेखांकन का कार्यात्मक नियम है।
उत्तर:
सत्य
प्रश्न 3.
व्यापार की पृथक् इकाई की संकल्पना एकांकी व्यापार पर लागू नहीं होती है।
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 4.
द्विपक्षीय सिद्धान्त पर आर्थिक चिट्ठा आधारित है।
उत्तर:
सत्य
प्रश्न 5.
निरन्तरता की अवधारणा में सम्पत्तियों का मूल्यांकन बाजार मूल्य पर किया जाता है।
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 6.
अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन लागत मूल्य व बाजार मूल्य जो दोनों में अधिक हो उस पर किया जाता है।
उत्तर:
असत्य
प्रश्न 7.
लेखांकन मानक वित्तीय विवरणों की अंतर-कम्पनी तथा अंतरा-कम्पनी तुलनात्मकता में सहायता करते हैं।
उत्तर:
सत्य।
सही मिलान कीजिए:
प्रश्न 1.
कॉलम-1 |
कॉलम-2 |
1. व्यापारी और व्यापार दोनों का ही अपना अलग-अलग पूर्ण स्वतन्त्र व पृथक् अस्तित्व होता है। |
(अ) मुद्रा माप अवधारणा |
2. व्यापार अनन्त जीवन तक चलता रहेगा। |
(ब) व्यावसायिक इकाई संकल्पना |
3. लेखा पुस्तकों में केवल उन्हें लेन-देनों का लेखा किया जाता है जिन्हें मुद्रा में मापा जा सकता है। |
(स) राज्य सरकार |
4. SGST का उद्ग्रहण एवं संग्रहण। |
(द) सतत् व्यापार की अवधारणा |
5. व्यापार की कुल सम्पत्तियाँ हमेशा उसके कुल दायित्व के बराबर होती हैं। |
(य) द्विपक्षीय सिद्धान्त |
6. IGST का उद्ग्रहण एवं संग्रहण। |
(र) केन्द्र सरकार |
उत्तर:
कॉलम-1 |
कॉलम-2 |
1. व्यापारी और व्यापार दोनों का ही अपना अलग-अलग पूर्ण स्वतन्त्र व पृथक् अस्तित्व होता है। |
(ब) व्यावसायिक इकाई संकल्पना |
2. व्यापार अनन्त जीवन तक चलता रहेगा। |
(द) सतत् व्यापार की अवधारणा |
3. लेखा पुस्तकों में केवल उन्हें लेन-देनों का लेखा किया जाता है जिन्हें मुद्रा में मापा जा सकता है। |
(अ) मुद्रा माप अवधारणा |
4. SGST का उद्ग्रहण एवं संग्रहण। |
(स) राज्य सरकार |
5. व्यापार की कुल सम्पत्तियाँ हमेशा उसके कुल दायित्व के बराबर होती हैं। |
(य) द्विपक्षीय सिद्धान्त |
6. IGST का उद्ग्रहण एवं संग्रहण। |
(र) केन्द्र सरकार |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न:
प्रश्न 1.
मान्य लेखांकन सिद्धान्त का अर्थ बताइए।
उत्तर:
मान्य लेखांकन सिद्धान्तों से तात्पर्य वित्तीय विवरणों के लेखन, निर्माण व प्रस्तुतीकरण में एकरूपता लाने के उद्देश्य से प्रयुक्त उन सभी नियमों व निर्देशक क्रियाओं से हैं, जिनका प्रयोग व्यावसायिक लेन-देनों के अभिलेखन व प्रस्तुतिकरण के लिए किया जाता है।
प्रश्न 2.
लेखांकन की कोई तीन अवधारणाएँ बताइए।
उत्तर:
प्रश्न 3.
लेखांकन की प्रणालियों के नाम बताइए।
उत्तर:
प्रश्न 4.
लेखांकन के दो मुख्य आधार कौनसे हैं?
उत्तर:
लेखांकन के दो मुख्य आधार हैं:
प्रश्न 5.
आगम से क्या आशय है?
उत्तर:
आगम से आशय रोकड़ के उस अन्तर प्रवाह से है जो व्यवसाय द्वारा वस्तुओं व सेवाओं के विक्रय से प्राप्त होता है।
प्रश्न 6.
लेखांकन मानक क्या हैं?
उत्तर:
लेखांकन मानक वे लिखित नीतिगत प्रलेख हैं जो वित्तीय विवरणों में लेखांकन लेन-देनों की पहचान, मापन, व्यवहार प्रस्तुतीकरण तथा प्रकटीकरण के आयामों को आवरित करते हैं।
प्रश्न 7.
आई.एफ.आर.एस. का कोई एक लाभ बताइये।
उत्तर:
आई.एफ.आर.एस. वैश्विक निवेश को सुगम बनाता है।
प्रश्न 8.
आई.एफ.आर.एस. का नाम अभिमुख रूप में क्या है?
उत्तर:
आई.एफ.आर.एस. का नाम अभिमुख रूप में इण्ड.ए.एस. (Ind.A.S.) है।
प्रश्न 9.
जी.एस.टी. (GST) के कितने प्रमुख तत्व हैं? लिखिये।
उत्तर:
जी.एस.टी. के तीन प्रमुख तत्व हैं:
लघुउत्तरीय प्रश्न:
प्रश्न 1.
सूचनाओं की तुलनात्मकता की आवश्यकता के प्रमुख कारण बताइये।
उत्तर:
सूचनाओं की तुलनात्मकता की आवश्यकता के दो प्रमुख कारण हैं:
प्रश्न 2.
सामान्यतः मान्य लेखांकन सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? लिखिए।
उत्तर:
सामान्यतः मान्य लेखांकन सिद्धान्तों से तात्पर्य वित्तीय विवरणों के लेखन व प्रस्तुतीकरण में एकरूपता लाने के उद्देश्य से प्रयुक्त उन सभी नियमों व निर्देशक क्रियाओं से है जिनका प्रयोग व्यावसायिक लेन-देनों के अभिलेखन व प्रस्तुति के लिए किया जाता है। इन्हीं सिद्धान्तों को संकल्पना व प्रथाएं भी कहते हैं। व्यवहार में संकल्पना, अवधारणा, अभिधारणा, सिद्धान्त, संशोधक सिद्धान्त आदि शब्दों का प्रयोग अदल-बदल कर एक-दूसरे के स्थान पर किया जाता है इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में इन्हें आधारभूत लेखांकन संकल्पनाएँ ही कहा गया है।
प्रश्न 3.
सामान्यतः मान्य लेखांकन सिद्धान्तों की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 4.
प्रमुख आधारभूत लेखांकन संकल्पनाओं के नाम दीजिए।
उत्तर:
प्रमुख आधारभूत लेखांकन संकल्पनाएँ निम्न प्रकार हैं:
प्रश्न 5.
पूर्ण प्रकटीकरण की संकल्पना में स्थिति विवरण के नीचे किन-किन मदों की टिप्पणी दी जाती है? उदाहरण सहित लिखो।
उत्तर:
पूर्ण प्रकटीकरण की संकल्पना में स्थिति विवरण के नीचे निम्न मदों के सम्बन्ध में टिप्पणी दी जाती हैं।
प्रश्न 6.
दोहरा लेखा प्रणाली के लाभ एवं दोष बताइए।
उत्तर:
दोहरा लेखा प्रणाली के लाभ:
दोहरा लेखा प्रणाली की सीमाएँ या दोष:
प्रश्न 7.
पूर्ण प्रकटीकरण संकल्पना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रकटीकरण संकल्पना (Full Disclosure Concept): लेखा तथ्य उस संस्था से सम्बद्ध लोगों, जैसे - स्वामी, प्रबन्धक, लेनदार, कर्मचारी, बैंक, सरकार आदि लोगों के भिन्न-भिन्न तौर पर काम आते हैं। इसमें वर्ष भर में किए गए व्यवहारों का सारांश अन्तिम खातों के रूप में प्रकट किया जाता है। लाभ-हानि खाता वर्ष भर की क्रियाओं का प्रतिफल प्रदर्शित करता है। इसी तरह चिट्ठा वर्ष के अन्त में आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।
संस्था से जुड़े सभी लोग इन्हीं अन्तिम खातों पर विश्वास करके इसमें प्रदत्त सूचनाओं से प्रभावित होकर अपने-अपने निर्णय लेते हैं। अतः कुशल लेखापाल को चाहिए कि उसके द्वारा तैयार किए गए ये विवरण पूर्णतया सत्य हों तथा समस्त महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को उनमें दिखलाया जाए। किसी भी प्रकार की अस्पष्टता या संदिग्धता उनमें नहीं होनी चाहिए। वर्तमान में इस परम्परा के आधार पर अधिकांश कम्पनियाँ पिछले वर्षों के तुलनात्मक आँकड़े, अनुसूचियों के रूप में विस्तृत सूचनाएँ आदि शामिल करती हैं।
प्रश्न 8.
द्विपक्षीय संकल्पना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
द्विपक्षीय पक्ष लेखांकन का मूलभूत व आधारभूत सिद्धांत है। यह व्यवसाय के लेन-देनों को लेखांकन पुस्तकों में अभिलेखित करने का आधार प्रदान करता है। इस संकल्पना के अनुसार व्यवसाय के प्रत्येक लेन-देन का प्रभाव किन्हीं दो स्थानों पर पड़ता है अर्थात् प्रत्येक लेन-देन का अभिलेखन दो स्थानों पर किया जाता है। दूसरे शब्दों में, किसी भी लेन-देन के अभिलेखन के लिए दो खाते होंगे। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझाया जा सकता है। मान लीजिए सुरेश ने 70,00,000 रु. का निवेश कर एक व्यवसाय प्रारंभ किया। सुरेश द्वारा व्यवसाय में लगाए गए पैसे से व्यवसाय की परिसंपत्तियों में 70,00,000 रु. से वृद्धि हो जाएगी, साथ ही स्वामी की पूँजी में भी 70,00,000 रु. से वृद्धि होगी। आप देखेंगे कि इस व्यवहार से दो खाते रोकड़ खाता व पूँजी खाता, प्रभावित होंगे।
प्रश्न 9.
लेखांकन मानकों की आवश्यकता को समझाइये।
उत्तर:
लेखांकन मानकों की आवश्यकता: लेखांकन, सूचनाओं के विभिन्न उपयोगकर्ताओं तक सूचना पहुँचाता है। लेखांकन सूचनाएँ विभिन्न उपयोगकर्ताओं के केवल तभी काम आ सकती हैं जब उनमें एकरूपता हो तथा प्रासंगिक सूचनाओं का पूर्ण प्रकटीकरण हो। किसी भी व्यावसायिक इकाई द्वारा वैकल्पिक लेखांकन व्यवहार तथा मूल्यांकन प्रतिमान प्रयुक्त किये जा सकते हैं । लेखांकन मानक उन विकल्पों के प्रयोग में सहायता करते हैं जो सत्य तथा स्पष्ट वित्तीय विवरणों की मूल गुणात्मक विशेषताओं को पूरा करते हैं। अतः ये आवश्यक होते हैं।
प्रश्न 10.
लेखांकन मानक किन पर लागू होते हैं?
अथवा
लेखांकन मानकों की प्रयोज्यता बतलाइये।
उत्तर:
लेखांकन मानकों की प्रयोज्यता केवल धर्मार्थ संगठनों, जो किसी प्रकार की वाणिज्यिक, औद्योगिक तथा व्यावसायिक गतिविधियाँ नहीं करते, को छोड़कर लेखांकन मानक निम्नलिखित पर लागू होते हैं:
प्रश्न 11.
IGST से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
IGST- IGST से आशय संयुक्त वस्तु एवं कर सेवा से है। IGST के अन्तर्गत संग्रहित राजस्व केन्द्रीय और राज्य सरकार के मध्य पूर्व निर्धारित दर पर विभाजित किया जाता है। IGST उन वस्तुओं और सेवाओं पर लागू है जिनका हस्तान्तरण एक राज्य से दूसरे राज्य में किया जाएगा।
उदाहरण के लिए यदि वस्तु 'अ' पंजाब से राजस्थान में बेची जाती है तो ऐसी स्थिति में IGST की दर लागू होगी। उदाहरणार्थ सोहन जो कि पंजाब का एक डीलर है, वह राजस्थान के मोहन को 1,00,000 रु. का माल बेचता है। मान लीजिए जी.एस.टी. की लागू दर 18% है, अर्थात् CGST 9% और SGST 9% है। इस परिस्थिति में रु. 18,000 की राशि IGST है और यह राशि केन्द्रीय सरकार के कोष में जमा होगी।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न:
प्रश्न 1.
लेखांकन संकल्पना से क्या आशय है? महत्त्वपूर्ण आधारभूत लेखांकन संकल्पनाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लेखांकन अवधारणा या संकल्पना (Accounting Concept) अवधारणाओं से तात्पर्य उन मूलभूत मान्यताओं से होता है जिन पर किसी विषय का सम्पूर्ण ढाँचा आश्रित होता है और जिनको स्वीकार करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। लेखांकन अवधारणायें हमें उन स्वयंसिद्धियों, आवश्यक मान्यताओं और शर्तों का ज्ञान कराती हैं जिनके आधार पर लेखांकन सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है। अन्य शब्दों में, वे सिद्धान्त जो बिना किसी प्रमाण के स्वीकार कर लिये जाते हैं, अवधारणायें कहलाते हैं।
व्यापार में विभिन्न व्यवहारों का लेखा निश्चित सिद्धान्तों, नियमों, मान्यताओं, परिपाटियों के आधार पर किया जाता है। इन्हीं मान्यताओं, सिद्धान्तों, नियमों को संकल्पनाओं (Concepts) के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें वित्तीय लेखांकन का सार भी कहा जाता है।
लेखाशास्त्र की प्रमुख संकल्पनायें निम्न प्रकार हैं:
1. व्यावसायिक इकाई संकल्पना (Business Entity Concept): इस संकल्पना के अनुसार प्रत्येक लेन-देन का लेखा करते समय व्यवसाय के अस्तित्व को उसके स्वामी के अस्तित्व से पृथक् माना जाता है। इसी कारण व्यापार के स्वामी के निजी व्यवहारों का लेखा भी उसी प्रकार किया जाता है जैसे कि अन्य व्यक्ति के व्यवहारों का लेखा किया जाता है। व्यापार के स्वामी द्वारा पूँजी लाने पर व्यवसाय की पुस्तकों में पूँजी खाता खोला जाता है तथा वह पूँजी व्यापार के लिए दायित्व होती है। ठीक इसी प्रकार यदि स्वामी व्यवसाय से निजी उपयोगार्थ धन अथवा माल निकालता है तो यह क्रिया आहरण कहलाती है।
2. मुद्रा मापन अवधारणा (Money Measurement Concept): इस संकल्पना या अवधारणा के अनुसार लेखाशास्त्र में उन्हीं व्यवहारों का लेखा किया जाता है जिन्हें कि मुद्रा में मापना सम्भव हो। कुछ व्यवहार व घटनायें व्यवसाय के लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं परन्तु यदि उन्हें मुद्रा में व्यक्त नहीं किया जा सकता है तो उनका लेखा नहीं हो सकेगा। जैसे व्यवसाय में विश्वसनीयता, कर्मचारियों की कर्तव्यनिष्ठता, कर्मचारियों का अनुभव व योग्यता।
3. सतत् व्यापार अवधारणा (Going Concerm Concept): इस संकल्पना में यह माना जाता है कि व्यवसाय निरन्तर चलता रहेगा। लेखा पुस्तकों में लेखे इसी मान्यता के आधार पर किये जाते हैं। इसमें स्वामी की मृत्यु होने पर या व्यवसाय में हानि होने पर व्यवसाय चलता रहेगा, यह माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण अवधारणा के आधार पर ही व्यवसाय का संचालन किया जाता है।
4. लेखांकन अवधि संकल्पना (Accounting Period Concept): प्रत्येक व्यवसाय के अन्तिम खाते निश्चित अवधि के लिए बनाये जाते हैं जिसे लेखा अवधि कहते हैं। सामान्यतया लेखा अवधि एक वर्ष की होती है। कुछ वर्षों पूर्व तक व्यापारी किसी भी 12 माह की अवधि को लेखा अवधि के तौर पर चुन सकता है परन्तु आजकल सभी व्यापारियों के लिए लेखा अवधि 1 अप्रैल से 31 मार्च तक निश्चित कर दी गई है। इसी अव आयगत व पूँजीगत मदों का विभाजन सरलता से किया जा सकता है।
5. लागत अवधारणा (Cost Concept): इस संकल्पना के अन्तर्गत सभी चल व अचल या स्थायी सम्पत्तियों को क्रय मूल्य या लागत मूल्य पर दिखाया जाता है तथा बाजार मूल्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। स्थापना व्ययों को भी लागत में सम्मिलित किया जायेगा। यदि किसी सम्पत्ति को प्राप्त करने में कोई लागत न आई हो तो उसका लेखा नहीं किया जायेगा।
6. द्विपक्षीय अवधारणा (Dual Aspect Concept): दोहरा लेखा प्रणाली दो पक्ष सम्बन्धी संकल्पना पर आधारित होती है। इस संकल्पना के आधार पर प्रत्येक व्यवहार दो पक्षों को प्रभावित करता है। एक पक्ष लाभ प्राप्त करता है तो दूसरा पक्ष लाभ देता है। लाभ प्राप्त करने वाले पक्षकार को डेबिट या लाभ देने वाले पक्षकार को क्रेडिट किया जाता है। इसी संकल्पना के आधार पर तलपट के डेबिट व क्रेडिट पक्ष का योग बराबर होता है तथा चिट्ठे के सम्पत्ति व दायित्व पक्ष का योग भी बराबर होता है अर्थात् कोई भी व्यवहार केवल नाम या जमा का नहीं होता। अतः नाम व जमा पक्ष का योग सदैव बराबर होता है।
7. वसूली या आगम मान्यता अवधारणा (Revenue Recognition Realisation Concept): इस अवधारणा के अनुसार आगम या आय उस अवधि में प्राप्त मानी जाती है जब ग्राहक को मूल्य के बदले माल या सेवाएँ दी जाती हैं। व्यवसाय में नकद बिक्री होने पर माल की सुपुर्दगी व भुगतान तिथि में अन्तर नहीं होता है इसलिए नकद बिक्री होने की तिथि को ही आगम को प्राप्त माना जाता है।
उधार बिक्री की दशा में निम्नलिखित स्थितियाँ होती हैं।
उपर्युक्त तीनों परिस्थितियों में किस तिथि को बिक्री को आय के रूप में अर्जित मानकर लेखा किया जाये? इस अवधारणा के अनुसार आय को उस तिथि को अर्जित माना जाता है जब उसे वसूल कर लिया जाता है। यहाँ वसूली से तात्पर्य नकद राशि प्राप्त करने की तिथि से न होकर उस तिथि से होता है जिस तिथि पर ग्राहक को माल या सेवाएं प्रदान की जाती हैं। इसके अनुसार ग्राहक को माल की सुपुर्दगी (स्वत्व के हस्तान्तरण) देने की तिथि को आय अर्जित मान कर लेखा पुस्तकों में उसका लेखा किया जायेगा।
8. आगम व व्ययों के मिलान की अवधारणा (Matching Concept): इस अवधारणा के अनुसार किसी भी व्यवसाय की संही लाभ-हानि ज्ञात करने हेतु निश्चित अवधि के आय व व्ययों का मिलान ठीक प्रकार से करना चाहिए। इसके लिए वित्तीय वर्ष या किसी विशेष अवधि की आय लेकर उस आय को प्राप्त करने में होने वाले खर्चों को घटाना चाहिए। यदि व्यय अगले वर्षों से सम्बन्धित हैं तो उन्हें आय में से नहीं घटाना चाहिए। इसी प्रकार बकाया खर्चों को आय में से घटाना चाहिए क्योंकि वे इसी वित्तीय वर्ष से सम्बन्धित होते हैं।
9. पूर्ण प्रस्तुतिकरण संकल्पना (Full Disclosure Concept): इस संकल्पना के अनुसार व्यवसाय के वित्तीय प्रदर्शन से जुड़े सभी आवश्यक व भौतिक तथ्यों का वित्तीय विवरणों एवं पद टिप्पणी में पूरा-पूरा प्रस्तुतीकरण आवश्यक है।
10. समनुरूपता की संकल्पना (Consistency Concept): वित्तीय विवरणों में अन्तर-आवधिक व अन्तर फर्मिय तुलनीयता के लिए आवश्यक है कि किसी एक समय में व्यवसाय में लेखांकन के अभ्यासों व नीतियों का प्रयोग समान हो। तुलनीयता तभी सम्भव होती है जबकि तुलना की अवधि में विभिन्न इकाइयाँ अथवा एक ही इकाई विभिन्न समयावधि में समान लेखांकन सिद्धान्त को समान रूप से प्रयोग कर रही हो।
11. रूढ़िवादिता (विवेकशीलता) की संकल्पना (Conservation Concept): इस संकल्पना के अनुसार व्यावसायिक लेन-देनों का लेखांकन इस प्रकार होना चाहिए कि लाभ को अनावश्यक रूप से बढ़ा कर न दिखाया जाए। सभी अनुमानित हानियों के लिए प्रावधान कर लिया जाए लेकिन अनुमानित लाभों पर ध्यान न दिया जाए।
12. सारता की संकल्पना (Materiality Concept): इस संकल्पना के अनुसार लेखांकन करते समय महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि तथ्य किसी विवेकशील निवेशक अथवा लेनदार के निर्णय को प्रभावित कर सकता है तो यह सार तथ्य माना जाएगा तथा इसे वित्तीय विवरणों में दिखाया जायेगा।
13. वस्तुनिष्ठता की संकल्पना (Objectivity Concept): इस संकल्पना के अनुसार लेन-देनों का लेखांकन इस प्रकार होना चाहिए कि वह लेखापालों व अन्य व्यक्तियों के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो।
प्रश्न 2.
दोहरा लेखा प्रणाली की विशेषताएँ व लाभ लिखिए।
उत्तर:
दोहरा लेखा प्रणाली की विशेषताएँ: दोहरा लेखा प्रणाली की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
दोहरा लेखा विधि के लाभ (Advantages of Double Entry System):
दोहरा लेखा प्रणाली का प्रयोग विश्व के अधिकांश देशों में किया जाता है क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रणाली है। इस प्रणाली के लाभ अग्र प्रकार हैं।
1. पूर्ण,एवं वैज्ञानिक आधार पर लेखा: दोहरा लेखा प्रणाली में प्रत्येक लेन-देन का दोहरा लेखा किया जाता है तथा सभी प्रकार के खाते (व्यक्तिगत, वस्तुगत व अवास्तविक) खोले जाते हैं। सभी प्रकार के व्यवहारों का लेखा करने के कारण यह पूर्ण प्रणाली है। इस प्रणाली में सभी लेन-देनों का लेखा निश्चित सिद्धान्तों एवं नियमों के अनुसार किया जाता है। इस प्रकार त्रुटि की सम्भावना बहुत कम रहती है तथा त्रुटि रहने पर आसानी से पकड़ में आ जाती है। अतः यह वैज्ञानिक प्रणाली है।
2. लाभ-हानि की जानकारी: इस प्रणाली में सभी आयों व व्ययों का लेखा लाभ-हानि खाते में किया जाता है। इस कारण व्यापारी शुद्ध लाभ या हानि की जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकता है।
3. आर्थिक स्थिति का ज्ञान: लेखा पुस्तकों में सभी सम्पत्तियों व दायित्वों के खाते अलग-अलग रखे जाते हैं। व्यापारी के निजी व्यवहारों का लेखा भी किया जाता है। इस कारण वर्ष के अन्त में सम्पत्तियों व दायित्वों की सहायता से चिट्ठा बनाकर व्यापार की आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
4. सूचनाओं की सुगम प्राप्ति: लेखा पुस्तकों को सुव्यवस्थित तरीके से रखने के कारण व्यवसाय सम्बन्धी सूचनाएँ, जैसे - क्रय, विक्रय, देनदार, लेनदार, पूँजी, सम्पत्तियाँ व दायित्व आदि की जानकारी आसानी से प्राप्त हो जाती है।
5. धोखाधड़ी व जालसाजी की सम्भावना कम: प्रत्येक लेन-देन का लेखा दो खातों में किया जाता है, इसलिए धोखाधड़ी व जालसाजी की सम्भावना कम रहती है। इसके उपरान्त भी यदि कोई कर्मचारी गबन या जालसाजी करता है तो उसका आसानी से पता लगाया जा सकता है।
6. तुलनात्मक अध्ययन सम्भव: इस पद्धति में प्रत्येक वर्ष के अन्त में व्यापारिक लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा बनाया जाता है। पिछले वर्षों के परिणामों की तुलना चालू वर्ष के परिणामों से करके व्यापार की प्रगति का आकलन किया जाता है।'
7. वैधानिक मान्यता: यह प्रणाली पूर्ण एवं वैज्ञानिक है, अतः इसे कम्पनी अधिनियम द्वारा मान्यता प्रदान की गई है। बैंक, बीमा कम्पनी व अन्य कम्पनियों को इस प्रणाली के अनुसार लेखे रखना अनिवार्य कर दिया गया है। दोहरा लेखा प्रणाली के अनुसार रखे गये लेखों को आयकर व बिक्री कर विभाग द्वारा भी मान्यता प्रदान की जाती है।
8. विश्वसनीय प्रणाली: खातों के योगों अथवा शेषों से तलपट तैयार कर खातों की गणितात्मक शुद्धता की जाँच की जा सकती है। इससे खाते और भी. अधिक विश्वसनीय हो जाते हैं।
प्रश्न 3.
लेखांकन विधियों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लेखांकन की विधियाँ (Methods of Accounting): लेखांकन का ज्यों-ज्यों विकास होता गया, इसकी अनेक विधियों का भी विकास होता गया। लेखांकन की दो विधियाँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं। इनका वर्णन निम्न प्रकार है
1. एकल अंकन प्रणाली या इकहरा लेखा विधि: इस विधि के अन्तर्गत प्रत्येक लेन-देन के केवल एक पक्ष का ही लेखा किया जाता है। इस विधि के दोहरा लेखा प्रणाली की तरह निश्चित नियम व सिद्धान्त नहीं हैं। इसे अपूर्ण लेखा विधि भी कहते हैं। अपूर्ण लेखा विधि में अधिकतर लेन-देनों का एकपक्षीय लेखा होता है, परन्तु कुछ लेन-देन ऐसे भी होते हैं जिनका दोहरा लेखा पूर्ण हो जाता है। प्रायः छोटे व्यापारियों (चाय वाला, पान वाला, दूध वाला, फेरी वाला, सब्जी वाला आदि) द्वारा इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्गत व्यापारी सुविधा के अनुसार ही खाते रखता है। प्रायः इन व्यापारियों द्वारा व्यक्तिगत खाता, रोकड़ खाता व स्टॉक खाता खोला जाता है तथा अव्यक्तिगत एवं नाममात्र के खातों का ध्यान नहीं रखा जाता है। इस प्रणाली में तलपट बनाकर खाताबही
की शुद्धता की जांच करना सम्भव नहीं है।
इकहरा लेखा विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं:
2. द्विअंकन प्रणाली अथवा दोहरा लेखा विधि: इस प्रणाली का जन्म इटली में हुआ तथा अंग्रेजों के आगमन के साथ ही यह प्रणाली भारत में आई। विश्व के अधिकतर देशों में इसी प्रणाली के अनुसार लेखा होता है। यह पूर्ण व वैज्ञानिक प्रणाली है जिसके अपने निश्चित नियम व सिद्धान्त हैं। बैंकों, बीमा कम्पनियों, सरकारी कार्यालयों, नियमों आदि में दोहरा लेखा विधि का प्रयोग करना अनिवार्य कर दिया गया है। यह विधि सभी पक्षकारों के लिए विश्वसनीय है। इस विधि में प्रत्येक व्यवहार का लेखा दो खातों में किया जाता है अर्थात् एक खाते के डेबिट पक्ष में तथा दूसरे खाते के क्रेडिट पक्ष में। इस विधि में व्यक्तिगत, वास्तविक व अवास्तविक खातों के अलग-अलग नियम होते हैं जिनके आधार पर लेखा पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा किया जाता है।
दोहरा लेखा प्रणाली निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है:
प्रश्न 4.
लेखांकन के विभिन्न आधारों का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर:
लेखांकन के विभिन्न आधार: विभिन्न वित्तीय व्यवहारों को जिस आधार पर लेखा पुस्तकों में दर्ज किया जाता है, उन्हें 'लेखांकन आधार' कहा जाता है। मुख्य लेखांकन आधार इस प्रकार हैं
(1) रोकड़ आधार (Cash Basis): रोकड़ आधार के अन्तर्गत वित्तीय व्यवहारों का लेखा रोकड़ प्राप्ति अथवा रोकड़ भुगतान के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, माल नकद क्रय करने पर अथवा वेतन भुगतान करने पर इस रोकड़ आधार के अन्तर्गत पुस्तकों में लेखा किया जाएगा क्योंकि नकद राशि भगतान की गई है। किन्तु बकाया वेतन अथवा अर्जित ब्याज का लेखा इस आधार के अन्तर्गत नहीं लिया जाएगा क्योंकि नकद राशि का भुगतान नहीं किया गया है तथा नकद राशि प्राप्य भी नहीं की गई है।
लेखांकन के इस आधार के कई बार काफी भ्रामक परिणाम सामने आते हैं जैसे अगर एक वित्तीय वर्ष के अन्त में काफी बकाया दायित्व हों तथा उनका भुगतान अगले वर्ष में किया जाये तो वे इस वर्ष के लाभ-हानि खाते को प्रभावित नहीं करेंगे परन्तु इसके विपरीत अगले वर्ष का लाभ काफी कम हो जायेगा। अतः व्यावसायिक फर्मों के लिए उपार्जन आधार ही उपयुक्त रहता है। रोकड़ आधार स्वयंसेवी संस्थाओं, पुण्यार्थ ट्रस्टों, पेशेवर व्यक्तियों तथा
सरकारी संस्थाओं के लिए अधिक उपयोगी रहता है।
(2) उपार्जन आधार (Accrual Basis): उपार्जन आधार के अन्तर्गत वित्तीय व्यवहारों का लेखा उपार्जन आधार पर किया जाता है अर्थात् वस्तुओं अथवा सेवाओं का लेखा उनके प्राप्त करते ही कर दिया जाता है चाहे इनका नकद भुगतान किया गया हो अथवा नहीं। इसी प्रकार आगम का लेखा उसका अधिकार प्राप्त होते ही कर लिया जाता है चाहे रोकड़ प्राप्त हुई हो अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, उपार्जन आधार पर आय के अर्जन तथा व्ययों के उत्पन्न होने के आधार पर लेखा किया जाता है न कि प्राप्ति एवं भुगतान के आधार पर।
उदाहरण के लिए, वेतन के 5000/- रुपये चुकाने बाकी हैं। यद्यपि किराये का भुगतान अभी तक नहीं किया गया है फिर भी इस बकाया किराये का लेखा लाभ-हानि खाते के डेबिट पक्ष में किया जायेगा क्योंकि किराया देय हो चुका है। उपार्जन आधार व्यवसाय के लाभ की गणना का अधिक श्रेष्ठ आधार है क्योंकि इसके अनुसार आगम व व्ययों का मिलान सम्भव है। उदाहरणार्थ बेचे गए माल की लागत का मिलान उपयोग किए गए कच्चे माल से किया जा सकता है।
प्रश्न 5.
लेखांकन मानक क्या हैं? इनके लाभ तथा सीमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लेखांकन मानक लेखांकन मानक वे लिखित नीतिगत प्रलेख हैं जो वित्तीय विवरणों में लेखांकन लेन देनों की पहचान, मापन, व्यवहार प्रस्तुतीकरण तथा प्रकटीकरण के आयामों को आवरित करते हैं। लेखांकन मानक इंस्टीटयट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंटस ऑफ इण्डिया (आई.सी.ए.आई.). जो हमारे देश में लेखांकन की पेशेवर संस्था जारी किए गए प्राधिकारिक विवरण हैं। लेखांकन म हैं। लेखांकन मानकों का उद्देश्य वित्तीय सूचना बढ़ाने के लिए वित्तीय पता का उन्मलन करने हेत विभिन्न लेखांकन नीतियों में एकरूपता लाना है।
साथ ही, लेखांकन मानक, मानक लेखांकन नीतियों, मूल्यांकन प्रतिमान तथा प्रकटीकरण आवश्यकताओं का समूह उपलब्ध कराता है। की विश्वसनीयता बढाने के साथ-साथ लेखांकन मानक, अंतरा-फर्म तथा अंतर-फर्म वित्तीय विवरणों की तुलनात्मकता भी बढ़ाते हैं। ऐसी तुलनाएँ, आर्थिक निर्णयों हेतु लेखांकन सूचनाओं के उपयोगकर्ताओं द्वारा फर्मों के निष्पादन मूल्यांकन हेतु व्यापक रूप से प्रयुक्त की जाती हैं।
लेखांकन मानकों के लाभ लेखांकन मानकों के प्रमुख लाभ निम्न हैं:
लेखांकन मानकों की सीमाएँ: इनकी प्रमुख सीमाएँ निम्न प्रकार हैं:
प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली (आई.एफ.आर.एस.) के बारे में आप क्या जानते हैं? इसकी आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली (आई.एफ.आर.एस.): इसे हम अन्य शब्दों में अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति हेतु लेखा मानक भी कह सकते हैं। वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण के उद्भव के साथ वैश्विक आर्थिक परिदृष्य में कई परिवर्तन आए हैं। अर्थव्यवस्था की वृद्धि को गति देने के अतिरिक्त अपने प्रचालनों को निरन्तर जारी रखने हेतु बहुराष्ट्रीय निगम वैश्विक क्षेत्र से पूँजी की व्यवस्था करते हैं । लेखांकन उद्देश्यों तथा वित्तीय रिपोर्टिंग हेतु व्यावसायिक अभिलेखों को रखने के प्रत्येक देश के अपने नियम एवं विनियम होने के कारण, यह काफी बोझिल एवं जटिल कार्य हो जाता है कि उस देश के वर्तमान लेखांकन नियमों तथा विनियमों का पालन किया जाए जब व्यावसायिक उपक्रम को अपनी पूँजी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विदेश से पूँजी जुटानी हो।
अर्थव्यवस्था को अधिक गतिशील, प्रतिस्पर्धात्मक करने हेतु तथा अन्तर्राष्ट्रीय विश्लेषकों व निवेशकों में विश्वास बढ़ाने हेतु यह महत्त्वपूर्ण है कि विभिन्न देशों के व्यावसायिक संगठनों द्वारा वित्तीय विवरणों को आगे रखा जाए ताकि वे सदृश मापदण्डों, निवेशक हितैषी, स्पष्ट, पारदर्शी तथा निर्णय योग्यता के आधार पर तुलनीय हों। इसी को दृष्टिगत रखते हुए, लेखांकन मानकों के वैश्विक अभिसरण का झुकाव अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग पर जोर देना है।
लेखांकन नीतियों तथा क्रियाविधियों को एकरूप बनाने हेतु लगभग सभी देश आई.एफ.आर.एस. लागू करने पर सहमत हो चुके हैं। परन्तु आई.एफ.आर.एस. का नाम अभिमुख रूप में इण्ड.ए.एस. (Ind.A.S.) है। सार रूप में, इण्ड.ए.एस., आई.एफ.आर.एस. से अलग नहीं है। इण्ड.ए.एस. निगमित कार्य मंत्रालय द्वारा अधिसूचित लेखांकन मानक हैं तथा वर्तमान लेखांकन मानकों की तुलना में काफी विस्तृत हैं।
आई.एफ.आर.एस. (IFRS) की आवश्यकता के कारण:
(1) रकम में हेर-फेर रोकना वित्तीय विवरणों के आधार पर महत्त्वपूर्ण आर्थिक निर्णय लिए जाते हैं। वित्तीय लेखों की रकमों में हेर-फेर से बचने हेतु निर्णय लेने के ऐसे सुसंगत तरीके की आवश्यकता है जिससे स्पष्ट हो कि किस कारक की पहचान तथा मापन जरूरी है एवं वित्तीय विवरणों में सूचना को कैसे प्रस्तुत किया जाए। अतः आई.एफ.आर.एस. वित्तीय लेखों में रकमों में हेर-फेर रोकने में सहायक होता है।
(2) वैश्विक मानकों को बढ़ावा आई.एफ.आर.एस. वैश्विक सामंजस्य में सहायता करता है। यदि लेखांकन क्रियाओं का नियमन नहीं होता तो विभिन्न देश लेखांकन नियमों एवं विनियमों के विभिन्न समूह लागू करेंगे जो प्रत्येक देश में प्रचलित हों। यह वित्तीय विवरणों में एकरूपता तथा तुलनात्मक को रोकता है। अतः व्यावसायिक वृद्धि की सुगमता हेतु आई.एफ.आर.एस. वैश्विक मानकों को बढ़ावा देता है।
(3) वैश्विक निवेश को सुगम बनाना: यह वैश्विक निवेश को सुगम बनाता है। वित्तीय रिपोर्टिंग एवं लेखांकन मानक का अभिसरण एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है जो वैश्विक निवेश के मुक्त प्रवाह में अंशदान करता है और पूँजी बाजार के सभी हितधारियों हेतु काफी लाभदायक होता है।
प्रश्न 7.
इण्ड.ए.एस. (Ind.A.S.) तथा वर्तमान लेखा मानकों (A.S.) की तुलनात्मक सूची देवें।
उत्तर:
इण्ड.ए.एस. |
शीर्षक |
ए.एस. |
शीर्षक |
1 |
वित्तीय विवरणों का प्रस्तुतीकरण |
1 |
वित्तीय विवरणों के निर्माण तथा प्रस्तुतीकरण हेतु लेखांकन नीतियों के ढाँचे का प्रकटन |
2 |
रहतिया |
2 |
रहतिये का मूल्यांकन |
7 |
रोकड़ प्रवाह विवरण |
3 |
रोकड़ प्रवाह विवरण |
8 |
लेखांकन नीतियाँ, लेखांकन अनुमानों में परिवर्तन तथा अशुद्धियाँ |
5 |
अवंधि हेतु शुद्ध लाभ अथवा हानि, पूर्व अवधि की मदें तथा लेखांकन नीतियों में परिवर्तन |
10 |
तुलन पत्र तिथि की बाद की घटनाएँ |
4 |
तुलन पत्र तिथि के पश्चात् की आकस्मिकताएँ तथा घटनाएँ |
11 |
विनिर्माण अनुबंध |
7 |
विनिर्माण अनुबंध |
12 |
आयकर |
22 |
आय पर कर हेतु लेखांकन |
16 |
भूसम्पत्ति, संयंत्र व उपकरण |
10 6 |
स्थायी सम्पत्तियों हेतु लेखांकन |
17 |
पट्टे |
19 |
ह्रास लेखांकन |
18 |
आगम |
9 |
पट्टे |
19 |
कर्मचारी कल्याण |
15 |
कर्मचारी कल्याण |
20 |
सरकारी अनुदानों हेतु लेखांकन तथा सरकारी सहायता का प्रकटीकरण |
12 |
सरकारी अनुदानों हैतु लेखांकन |
21 |
विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव |
11 |
विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव |
23 |
उधारियों की लागत |
16 |
उधारियों की लागत |
24 |
संबंधित पक्ष प्रकटन |
18 |
सम्बन्धित पक्ष प्रकटन |
27 |
समेकित एवं पृथक वित्तीय विवरण |
21 |
समेकित वित्तीय विवरण |
28 |
सहचारियों में निवेश |
23 |
सी.एफ.एस. में सहचारियों में निवेश हेतुलेखांक्त |
29 |
अतिमुद्रा अवमूल्यन अर्थशास्त्र में वित्तीय रिपोर्टिंग |
27 |
संयुक्त उपक्रमों के हित की वित्तीय रिपोरिंग |
31 |
संयुक्त उपक्रमों में हित |
31 |
वित्तीय प्रलेखः प्रस्तुतीकरण |
32 |
वित्तीय प्रलेखः प्रस्तुतीकरण |
20 |
प्रति अंश आय अन्तरिम वित्तीय रिपोर्टिंग सम्पत्तियों की क्षति प्रावधान, आकस्मिक देय तथा आकस्मिक |
33 |
प्रति अंश आय |
25 |
सम्पत्तियां |
34 |
अंतरिम वित्तीय रिपोटिंग |
28 |
अमूर्त सम्पत्तियाँ |
36 |
सम्पत्तियों की क्षति |
29 |
वित्तीय प्रलेख: पहचान एवं मापन |
37 |
प्रावधान, आकस्मिक देयताएँ तथा आकस्मिक सम्पत्तियाँ |
26 |
निवेश हेतु लेखांकन |
38 |
अमूर्त सम्पत्तियाँ |
30 |
कर्मचारी अंश आधारित भुगतान पर जी.एन. |
39 |
वित्तीय प्रलेखः पहचान एवं मापन |
13 |
सम्मिश्रण हेतु लेखांकन |
101 |
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोटिंग मानकों को पहली बार अंगीकार करना |
14 |
प्रचालनों की समाप्ति |
102 |
अंश आधारित भुगतान |
27 |
वित्तीय विवरणः प्रकटीकरण |
103 |
व्यवसाय संयोजन बीमा अनुबंध धारित गैर चालू सम्पत्तियों का विक्रय |
32 |
खण्ड रिपोर्टिंग |
104 |
तथा प्रचालनों की समाप्ति |
17 |
कर्मचारी कल्याण |
105 |
खनिज संसाधनों का अन्वेषण एवं मूल्यांकन |
22 |
सरकारी अनुदानों हैतु लेखांकन |
106 |
वितीय विवरणः प्रकटीकरण |
25 |
विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव |
107 |
प्रचालन खण्ड |
27 |
उधारियों की लागत |
108 |
अतिमुद्रा अवमूल्यन अर्थशास्त्र में वित्तीय रिपोर्टिंग |
28 |
सम्बन्धित पक्ष प्रकटन |
प्रश्न 8.
वस्तु एवं सेवा कर (GST) के बारे में आप क्या जानते हैं? इसकी प्रमुख बातें बताइये।
उत्तर:
वस्तु एवं सेवा कर (GST)-भारत सरकार ने जुलाई 1, 2017 को वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) लागू किया ताकि निर्माताओं, उत्पादकों, निवेशकों और उपभोक्ताओं के हितों के लिए माल, वस्तुओं और सेवाओं का मुक्त परिचालन हो सके। यह 'एक देश एक कर' के मूल मंत्र पर आधारित है। जी.एस.टी. को कराधान तंत्र में क्रान्ति के रूप में देखा जा रहा है। कराधान केवल एक राजस्व के स्रोत अथवा विकास के स्रोत के अतिरिक्त शासकीय गतिविधियों को करदाताओं के लिए उत्तरदायी होने में प्रमुख भूमिका भी निभाता है। कुशल रूप से प्रयुक्त कराधान यह स्थापित करता है कि सार्वजनिक कोषों का प्रयोग कुशलतापूर्वक सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति और सतत् विकास के लिए किया जा रहा है।
वस्तु एवं सेवा कर (GST) की प्रमुख बातें निम्न प्रकार हैं: