RBSE Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 चिकित्सा उपागम

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Psychology Chapter 5 चिकित्सा उपागम Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Psychology Solutions Chapter 5 चिकित्सा उपागम

प्रश्न 1. 
मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए। मनश्चिकित्सा में चिकित्सात्मक संबंध के महत्त्व को उजागर कीजिए।
उत्तर-
मनश्चिकित्सा उपचार चाहने वाले या सेवार्थी तथा उपचार करने वाले या चिकित्सक के बीच में एक ऐच्छिक संबंध है। इस संबंध का उद्देश्य उन मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान करना होता है जिनका सामना सेवार्थी द्वारा किया जा रहा हो। यह संबंध सेवार्थी के विश्वास को बनाने में सहायक होता है जिससे वह अपनी समस्याओं के बारे में मुक्त होकर चर्चा कर सके।

मनश्चिकित्सा का उद्देश्य दुरनुकूलक व्यवहारों को बदलना, वैयक्तिक कष्ट की भावना को कम करना तथा रोगी को अपने पर्यावरण से बेहतर ढंग से अनुकूलन करने में मदद करना है। अपर्याप्त वैवाहिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक समायोजन की यह आवश्यकता होती है कि व्यक्ति के वैयक्तिक पर्यावरण में परिवर्तन किए जाएँ। सभी मनश्चिकित्सात्मक उपागमों में निम्न अभिलक्षण पाए जाते हैं-

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1. चिकित्सा के विभिन्न सिद्धांतों में अंतर्निहित नियमों का व्यवस्थित या क्रमबद्ध अनुप्रयोग होता है, 

2. केवल वे व्यक्ति, जिन्होंने कुशल पर्यवेक्षण में व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया हो, मनश्चिकित्सा कर सकते हैं, हर कोई नहीं। एक अप्रशिक्षित व्यक्ति अनजाने में लाभ के बजाय हानि अधिक पहुंचा सकता है, 

3. चिकित्सात्मक स्थितियों में एक चिकित्सक और एक सेवार्थी होता है जो अपनी संवेगात्मक समस्याओं के लिए सहायता चाहता है और प्राप्त करता है 
(चिकित्सात्मक प्रक्रिया में यही व्यक्ति ध्यान का मुख्य केंद्र होता है) तथा, 

4. इन दोनों व्यक्तियों, चिकित्सक एवं सेवार्थी के बीच की अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप एक चिकित्सात्मक संबंध का निर्माण एवं उसका सुदृढीकरण होता है। यह एक गोपनीय, अंतर्वैयक्तिक एवं गत्यात्मक संबंध होता है। यह मानवीय संबंध किसी भी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का केंद्र होता है तथा यही परिवर्तन का माध्यम बनता है।

मनश्चिकित्सा में चिकित्सात्मक संबंध का महत्त्व-सेवार्थी एवं चिकित्सक के बीच एक विशेष संबंध को चिकित्सात्मक संबंध या चिकित्सात्मक मैत्री कहा जाता है। यह न तो एक क्षणिक परिचय होता है और न ही एक स्थायी एवं टिकाऊ संबंध। इस चिकित्सात्मक मैत्री के दो मुख्य घटक होते हैं। पहला घटक इस संबंध के संविदात्मक प्रकृति है, जिसमें दो इच्छुक व्यक्ति, सेवार्थी एवं चिकित्सक, एक ऐसी साझेदारी या भागीदारी

में प्रवेश करते हैं जिसका उद्देश्य सेवार्थी की समस्याओं का निराकरण करने में उसकी मदद करना होता है। चिकित्सात्मक मैत्री का दूसरा घटक है-चिकित्सा की सीमित अवधि। यह मैत्री तब तक चलती है जब तक सेवार्थी अपनी समस्याओं का सामना करने में समर्थ न हो जाए तथा अपने जीवन का नियंत्रण अपने हाथ में न ले ले। इस संबंध की कई अनूठी विशिष्टताएँ हैं। यह एक विश्वास तथा भरोसे पर आधारित संबंध है। उच्चस्तरीय विश्वास सेवार्थी को चिकित्सक के सामने अपना बोझ हल्का करने तथा उसके सामने अपनी मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिगत समस्याओं को विश्वस्त रूप से बतलाने में समर्थ बनाता है। 

चिकित्सक सेवार्थी के प्रति अपनी स्वीकृति, तदनुभूति, सच्चाई और गर्मजोशी दिखाकर इसे बढ़ावा देता है। चिकित्सक अपने शब्दों और व्यवहारों से यह संप्रेषित करता है कि वह सेवार्थी का मूल्यांकन नहीं कर रहा है तथा वह सेवार्थी के प्रति अपनी इन सकारात्मक भावनाओं को दिखाता रहेगा चाहे सेवार्थी उसके प्रति अशिष्ट व्यवहार क्यों न करे या पूर्व में की गई या सोची गई 'गलत' बातों को क्यों न बतलाएँ। यह अशर्त सकारात्मक आदर (Unconditional positive regard) की भावना है जो चिकित्सक की सेवार्थी के प्रति होती है। चिकित्सक की सेवार्थी के प्रति तदनुभूति होती है।

चिकित्सात्मक संबंध के लिए यह भी आवश्यक है कि चिकित्सक सेवार्थी द्वारा अभिव्यक्त किए गए अनुभवों, घटनाओं, भावनाओं तथा विचारों के प्रति नियमबद्ध गोपनीयता का अवश्य पालन करे। चिकित्सक को सेवार्थी के विश्वास और भरोसे का किसी भी प्रकार से कभी भी अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। अंतत: यह एक व्यावसायिक संबंध है और इसे ऐसा ही रहना चाहिए।

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प्रश्न 2. 
मनश्चिकित्सा के विभिन्न प्रकार कौन-से हैं ? किस आधार पर इनका वर्गीकरण किया गया है ?
उत्तर-
मनश्चिकित्सा को तीन व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. मनोगतिक मनश्चिकित्सा। 
2. व्यवहार मनश्चिकित्सा। 
3. अस्तित्वपरक मनश्चिकित्सा।

मनश्चिकित्सा का वर्गीकरण निम्नलिखित प्राचलों के आधार पर किया गया है :
1. क्या कारण है, जिसने समस्या को उत्पन्न किया ?
2. कारण का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? 
3. उपचार की मुख्य विधि क्या है ?
4. सेवार्थी और चिकित्सक के बीच चिकित्सात्मक संबंध की प्रकृति क्या होती है ?
5. सेवार्थी के मुख्य लाभ क्या हैं? 
6. उपचार की अवधि क्या है ?

प्रश्न 3. 
एक चिकित्सक सेवार्थी से अपने सभी विचार । यहाँ तक कि प्रारंभिक बाल्यावस्था के अनुभवों को बताने
को कहता है। इसमें उपयोग की गई तकनीक और चिकित्सा के प्रकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
इसमें अंत: मनोद्वंद्व के स्वरूप को बाहर निकालने की विधि का उपयोग किया गया है। यह चिकित्सा मनोगतिक चिकित्सा है। चूँकि मनोगतिक उपागम अंत:मनोद्वंद्व को मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है अत: उपचार में पहला चरण इसी अंतः मनोद्वंद्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंतः मनोद्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य (Free association) विधि तथा स्वप्न व्याख्या (Dream interpretation) विधि का आविष्कार किया। 

मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। जब एक बार चिकित्सात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और सेवार्थी आरामदेह महसूस करने लगता है तब चिकित्सक उससे कहता है कि वह स्तरण पटल (Couch) पर लेट जाए, अपनी आँखों को बंद कर ले और मन में जो कुछ भी आए उसे बिना किसी अवरोधन या काट-छाँट के बताने को कहता है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम् तथा सतर्क अहं को प्रसुप्तावस्था में रखा जाता है। 

चूंकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित की जाती रही हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगती हैं। सेवार्थी का यह मुक्त बिना काट-छाँट वाला शाब्दिक वृत्तांत सेवार्थी के अचेतन मन की एक खिड़की है जिसमें अभिगमन का चिकित्सक को अवसर मिलता है। इस तकनीक के साथ ही साथ सेवार्थी को निद्रा से जागने पर अपने स्वप्नों को लिख लेने को कहा जाता है। मनोविश्लेषक इन स्वप्नों को अचेतन मन में उपस्थित अतृप्त इच्छाओं के प्रतीक के रूप में देखता है।

स्वप्न की प्रतिमाएँ प्रतीक हैं जो अंत: मानसिक शक्तियों का संकेतक होती हैं। स्वप्न प्रतीकों का उपयोग करते हैं क्योंकि वे अप्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त होते ज.पा.एच. मनाविज्ञान-XII (संशोधित सस्करण) हैं इसलिए अहं को सतर्क नहीं करते। यदि अतृप्त इच्छाएँ प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त की जाएँ तो सदैव सतर्क अहं उन्हें दमित कर देगा जो पुनः दुश्चिता का कारण बनेगा। इन प्रतीकों की व्याख्या - अनुवाद की एक स्वीकृत परंपरा के अनुसार की जाती है जो अतृप्त इच्छाओं तथा द्वंद्वों के संकेतक होते हैं।

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प्रश्न 4.
व्यवहार चिकित्सा में प्रयुक्त विभिन्न तकनीकों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
व्यवहार चिकित्सा में विभिन्न तकनीक प्रयुक्त किए जाते हैं। इन तकनीकों का सिद्धांत है सेवार्थी के भाव-प्रबोधन स्तर को कम करना, प्राचीन अनुबंधन या क्रियाप्रसूत अनुबंधन द्वारा व्यवहार को बदलना जिसमें प्रबलन की भिन्न-भिन्न प्रासंगिकता हो, साथ ही यदि आवश्यकता हो तो प्रतिस्थानिक (Vicarious) अधिगम प्रक्रिया का भी उपयोग करना।
व्यवहार परिष्करण की दो मुख्य तकनीकें हैं-निषेधात्मक प्रबलन तथा विमुखी अनुबंधन।

(i) निषेधात्मक प्रबलन (Negative reinforcement) का तात्पर्य अवांछित अनुक्रिया के साथ संलग्न एक ऐसे परिणाम से है जो कष्टकर या पसंद न किया जाने वाला हो। उदाहरणार्थ, एक अध्यापक कक्षा में शोर मचाने के लिए एक बालक को फटकार लगाता है। यह निषेधात्मक प्रबलन है।

(ii) विमुखी अनुबंधन (Aversive conditioning) का संबंध अवांछित अनुक्रिया के विमुखी परिणाम के साथ पुनरावृत्त साहचर्य से है। उदाहरण के लिए, एक मद्यव्यसनी को बिजली का एक हल्का आघात दिया जाए और मद्य सूंघने को कहा जाए। ऐसे पुनरावृत्त युग्मन से मद्य की गंध उसके लिए अरुचिकर हो जाएगी क्योंकि बिजली के आघात की पीड़ा के साथ इसका साहचर्य स्थापित हो जाएगा और व्यक्ति मद्य छोड़ देगा।

(iii) यदि कोई अनुकूली व्यवहार कभी-कभी ही घटित होता है तो इस न्यूनता को बढ़ाने के लिए सकारात्मक प्रबलन (positive reinforcement) दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक बालक गृहकार्य नियमित रूप से नहीं करता तो उसकी माँ नियत समय गृहकार्य करने के लिए सकारात्मक प्रबलन के रूप में बच्चे को मनपसंद पकवान बनाकर दे सकती है।

मनपसंद भोजन का सकारात्मक प्रबलन उसके नियत समय पर गृह कार्य करने के व्यवहार को बढ़ाएगा। व्यवहारात्मक समस्याओं वाले लोगों को कोई वांछित व्यवहार करने पर हर बार पुरस्कार के रूप में एक टोकन दिया जा सकता है। ये टोकन संगृहीत किए जाते हैं और किसी पुरस्कार से उनका विनिमय या आदान-प्रदान किया जाता है, जैसे रोगी को बाहर घुमाने ले जाना या बच्चे को बाहर खाना खिलाना। इसे टोकन अर्थव्यवस्था (Token economy) कहते हैं।

प्रश्न 5. 
उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए कि संज्ञानात्मक विकृति किस प्रकार घटित होती है?
उत्तर-
संज्ञानात्मक चिकित्साओं में मनोवैज्ञानिक कष्ट का कारण अविवेकी विचारों और विश्वासों में स्थापित किया जाता है।
(i) अल्बर्ट एलिस (Albert Elis) ने संवेग तर्क चिकित्सा (Rational emotive ther apy, RET) को प्रतिपादित किया। इस चिकित्सा की केंद्रीय धारणा है कि अविवेकी विश्वास पूर्ववर्ती घटनाओं और उनके परिणामों के बीच मध्यस्थता करते हैं। संवेग तर्क चिकित्सा में पहला चरण है पूर्ववर्ती-विश्वास-परिणाम (पू. वि. प.) विश्लेषण। पूर्ववर्ती घटनाओं जिनसे मनोवैज्ञानिक कष्ट उत्पन्न हुआ, को लिख लिया जाता है।

सेवार्थी के साक्षात्कार द्वारा उसके उन अविवेकी विश्वासों का पता लगाया जाता है जो उसकी वर्तमानकालिक वास्तविकता को विकृत कर रहे हैं। हो सकता है इन अविवेकी विश्वासों को पुष्ट करने वाले आनुभाविक प्रमाण पर्यावरण में नहीं भी हों। इन विश्वासों को 'अनिवार्य' या 'चाहिए' विचार कह सकते हैं, तात्पर्य यह है कि कोई भी बात एक विशिष्ट तरह से होनी चाहिए' या 'अनिवार्य' है। 

अविवेकी विश्वासों के उदाहरण हैं; जैसे--"किसी को हर एक का प्यार हर समय मिलना चाहिए","मनुष्य की तंगहाली बाह्य घटनाओं के कारण होती है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता" इत्यादि। अविवेकी विश्वासों के कारण पूर्ववर्ती घटना का विकृत प्रत्यक्षण नकारात्मक संवेगों और व्यवहारों के परिणाम का कारण बनता है। अविवेकी विश्वासों का मूल्यांकन प्रश्नावली और साक्षात्कार के द्वारा किया जाता है। संवेग तर्क चिकित्सा की प्रक्रिया में चिकित्सक अनिदेशात्मक प्रश्न करने की प्रक्रिया से अविवेकी विश्वासों का खंडन करता है।

प्रश्न करने का स्वरूप सौम्य होता है, निदेशात्मक या जाँच-पड़ताल वाला नहीं। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने जीवन और समस्याओं से संबंधित पूर्वधारणाओं के बारे में गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे सेवार्थी अपने जीवन-दर्शन में परिवर्तन लाकर अविवेकी विश्वासों को परिवर्तित करने में समर्थ हो जाता है। तर्कमूलक विश्वास तंत्र अविवेकी विश्वास तंत्र को प्रतिस्थापित करता है और मनोवैज्ञानिक कष्टों में कमी आती

(ii) दूसरी संज्ञानात्मक चिकित्सा आरन बेक (Aaron Beck) की है। दुश्चिता या अवसाद द्वारा अभिलक्षित मनोवैज्ञानिक कष्ट संबंधी उनके सिद्धांत के अनुसार परिवार और समाज द्वारा दिए गए बाल्यावस्था के अनुभव मूल अन्विति योजना या मूल स्कीमा (Core schema) या तंत्र के रूप में विकसित हो जाते हैं, जिनमें व्यक्ति के विश्वास और क्रिया के प्रतिरूप सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार एक सेवार्थी जो बाल्यावस्था में अपने माता-पिता द्वारा उपेक्षित थां एक ऐसा मूल स्कीमा विकसित कर लेता है कि

"मैं वांछित नहीं हूँ।" जीवनकाल के दौरान कोई निर्णायक घटना उसके जीवन में घटित होती है। विद्यालय में सबके सामने अध्यापक के द्वारा उसकी हँसी उड़ाई जाती है। यह निर्णायक घटना उसके मूल स्कीमा “मैं वांछित नहीं हूँ" को क्रियाशील कर देती है जो नकारात्मक स्वचालित विचारों को विकसित करती है। नकारात्मक विचार सतत अविवेकी विचार होते हैं। जैसे-'कोई मुझे प्यार नहीं करता', 'मैं कुरूप हूँ', 'मैं मूर्ख हूँ', 'मैं सफल नहीं हो सकता/सकती' इत्यादि। इन नकारात्मक स्वचालित विचारों में संज्ञानात्मक विकृतियाँ भी होती हैं। संज्ञानात्मक विकृतियाँ चिंतन के ऐसे तरीके हैं जो सामान्य प्रकृति के होते हैं किन्तु वे वास्तविकता को नकारात्मक तरीके से विकृत करते हैं। विचारों के इन प्रतिरूपों को अपक्रियात्मक संज्ञानात्मक संरचना (Dys. functional cognitive structures) कहते हैं। सामाजिक यथार्थ के बारे में ये संज्ञानात्मक त्रुटियाँ उत्पन्न करती हैं।

इन विचारों का बार-बार उत्पन्न होना दुश्चिता और अवसाद की भावनाओं को विकसित करता है। चिकित्सक जो प्रश्न करता है वे सौम्य होते हैं तथा सेवार्थी के विश्वासों और विचारों के प्रति बिना धमकी वाले किन्तु उनका खंडन करने वाले होते हैं। इन प्रश्नों के उदाहरण कुछ ऐसे हो सकते हैं, "क्यों हर कोई तुम्हें प्यार करे?", "तुम्हारे लिए सफल होना क्या अर्थ रखता है ?" इत्यादि। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने नकारात्मक स्वचालित विचारों की विपरीत दिशा में सोचने को बाध्य करते हैं जिससे वह अपने अपक्रियात्मक स्कीमा के स्वरूप के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है तथा अपनी संज्ञानात्मक संरचना को परिवर्तित करने में समर्थ होता है। इस चिकित्सा का लक्ष्य संज्ञानात्मक पुनःसंरचना को प्राप्त करना है जो दुश्चिता तथा अवसाद को घटाती है।

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प्रश्न 6. 
कौन-सी चिकित्सा सेवार्थी को व्यक्तिगत संवृद्धि चाहने एवं अपनी संभाव्यताओं की सिद्धि के लिए प्रेरित करती है ? उन चिकित्साओं की चर्चा कीजिए जो इस सिद्धांत पर आधारित हैं।
उत्तर-
मानवतावादी अस्तित्परक चिकित्सा सेवार्थी को व्यक्तिगत संवृद्धि चाहने एवं अपनी संभाव्यताओं की सिद्धि के लिए प्रेरित करती है। मानवतावादी-अस्तित्वपरक चिकित्सा की धारणा है कि मनोवैज्ञानिक कष्ट व्यक्ति के अकेलापन, विसंबंधन तथा जीवन का अर्थ समझने और यथार्थ संतुष्टि प्राप्त करने में अयोग्यता की भावनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य व्यक्तिगत संवृद्धि एवं आत्मसिद्धि (Self-actualisation) की इच्छा तथा संवेगात्मक रूप से विकसित होने की सहज आवश्यकता से अभिप्रेरित होते हैं। जब समाज और परिवार के द्वारा ये आवश्यकताएँ बाधित की जाती हैं तो मनुष्य मनोवैज्ञानिक कष्ट का अनुभव करता है।

आत्मसिद्धि को एक सहज शक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो व्यक्ति को अधिक जटिल, संतुलित और समाकलित होने के लिए अर्थात् बिना खंडित हुए जटिलता एवं संतुलन प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। समाकलित होने का तात्पर्य है साकल्य-बोध, एक संपूर्ण व्यक्ति होना, भिन्न-भिन्न अनुभवों के होते हुए भी मूल भाव में वही व्यक्ति होना। जिस तरह से गोजन या पानी की कमी कष्ट का कारण होती है, उसी तरह आत्मसिद्धि का कुंठित होना भी कष्ट का कारण होता है। 

जब सेवार्थी अपने जीवन में आत्मसिद्धि की बाधाओं का प्रत्यक्षण कर उनको दूर करने योग्य हो जाता है तब रोगोपचार घटित होता है। आत्मसिद्धि के लिए आवश्यक है संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति। समाज और परिवार संवेगों की इस मुक्त अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते हैं क्योंकि उन्हें भय होता है कि संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति से समाज को क्षति पहुँच सकती है क्योंकि इससे ध्वंसात्मक शक्तियाँ उन्मुक्त हो सकती हैं। यह नियंत्रण सांवेगिक समाकलन की प्रक्रिया को निष्फल करके विध्वंसक व्यवहार और नकारात्मक संवेगों का कारण बनता है। इसलिए चिकित्सा के दौरान एक अनुज्ञात्मक, अनिर्णयात्मक तथा स्वीकृतिपूर्ण वातावरण तैयार किया जाता है जिसमें सेवार्थी के संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति हो सके तथा जटिलता, संतुलन और समाकलन प्राप्त किया जा सके। 

इसमें मूल पूर्वधारणा यह है कि सेवार्थी को अपने व्यवहारों का नियंत्रण करने की स्वतंत्रता है तथा यह उसका ही उत्तरदायित्व है। चिकित्सक केवल एक सुगमकर्ता और मार्गदर्शक होता है। चिकित्सा को सफलता के लिए सेवार्थी स्वयं उत्तरदायी होता है। चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य सेवार्थी की जागरूकता को बढ़ाना है। जैसे-जैसे सेवार्थी अपने विशिष्ट व्यक्तिगत अनुभवों को समझने लगता है वह स्वस्थ होने लगता है। सेवार्थी आत्म-संवृद्धि की प्रक्रिया को प्रारंभ करता है जिससे वह स्वस्थ हो जाता है।

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प्रश्न 7. 
मनश्चिकित्सा में स्वास्थ्य-लाभ के लिए किन कारकों का योगदान होता है ? कुछ वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की गणना कीजिए।
उत्तर-
मनश्चिकित्सा में स्वास्थ्य-लाभ में योगदान देने वाले कारक निम्नलिखित हैं :
(i) स्वास्थ्य-लाभ में एक महत्त्वपूर्ण कारक है चिकित्सक द्वारा अपनाई गई तकनीक तथा रोगी/सेवार्थी के साथ इन्हीं तकनीकों का परिपालन। यदि दुश्चितित सेवार्थी को स्वस्थ करने के लिए व्यवहार पद्धति और संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा शाखा अपनाई जाती है तो विश्रांति की विधियाँ और संज्ञानात्मक पुनः संरचना तकनीक स्वास्थ्य-लाभ में बहुत बड़ा योगदान देती

(ii) चिकित्सात्मक मैत्री जो चिकित्सक एवं रोगी/सेवार्थी के बीच में बनती है, में स्वास्थ्य-लाभ के गुण विद्यमान होते हैं क्योंकि चिकित्सक नियमित रूप से सेवार्थी से मिलता है तथा उसे तदनुभूति और हार्दिकता प्रदान करता है।

(iii) चिकित्सा के प्रारंभिक सत्रों में जब रोगी/सेवार्थी की .. समस्याओं की प्रकृति को समझने के लिए उसका साक्षात्कार किया जाता है, तो वह स्वयं द्वारा अनुभव किए जा रहे संवेगात्मक समस्याओं को चिकित्सक के सामने रखता है। संवेगों को बाहर निकालने की इस प्रक्रिया को भाव-विरेचन या केथार्सिस कहते हैं और इसमें स्वास्थ्य-लाभ के गुण विद्यमान होते हैं।

(iv) मनश्चिकित्सा से संबंधित अनेक अविशिष्ट कारक हैं। इनमें से कुछ कारक रोगी/सेवार्थी से संबंधित बताए जाते हैं तथा कुछ चिकित्सक से। ये कारक अविशिष्ट इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ये मनश्चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों, भिन्न रोगियों सेवार्थियों तथा भिन्न मनश्चिकित्सकों के आर-पार घटित होती हैं। रोगियों/सेवार्थियों पर लागू होने वाले अविशिष्ट कारक हैं-परिवर्तन के लिए अभिप्रेरणा उपचार के कारण सधार की प्रत्याशा इत्यादि। इन्हें रोगी चर (Patient variables) कहा जाता है। चिकित्सक पर लागू होने वाले अविशिष्ट कारक हैं-सकारात्मक स्वभाव, अनसुलझे संवेगात्मक द्वंद्वों की अनुपस्थिति. अच्छे मानसिक स्वास्थ्य की उपस्थिति इत्यादि। इन्हें चिकित्सक चर (Therapist variables) कहा जाता है।

योग, ध्यान, ऐक्यूपंक्चर, वनौषधि, उपचार आदि वैकल्पिक चिकित्साएँ हैं। योग एक प्राचीन भारतीय पद्धति है जिसे पातंजलि के योग सूत्र के अष्टांग योग में विस्तृत रूप से बताया गया है। योग, जैसा कि सामान्यतः आजकल इसे कहा जाता है, का आशय केवल आसन या शरीर संस्थिति घटक अथवा श्वसन अभ्यास या प्राणायाम अथवा दोनों के संयोग से होता है। ध्यान का संबंध श्वास अथवा किसी वस्तु या विचार या किसी मंत्र पर ध्यान केंद्रित करने के अभ्यास से है। जहाँ ध्यान केंद्रित किया जाता है। विपश्यना ध्यान जिसे सतर्कता-आधारित ध्यान के नाम से भी जाना जाता है, में ध्यान को बाँधे रखने के लिए कोई नियत वस्तु या विचार नहीं होता है। व्यक्ति निष्क्रिय रूप से विभिन्न शारीरिक संवेदनाओं एवं विचारों, जो उसकी चेतना में आते रहते हैं, का प्रेक्षण करता

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प्रश्न 8. 
मानसिक रोगियों के पुनः स्थापन के लिए कौन-सी तकनीकों का उपयोग किया जाता है ?
अथवा 
मानसिक रोगियों के पुनः स्थापन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
मानसिक रोगियों का पुनः स्थापन-मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार के दो घटक होते हैं अर्थात् लक्षणों में कमी आना तथा क्रियाशीलता या जीवन की गुणवत्ता के स्तर में सुधार लाना। कम तीव्र विकारों; जैसे-सामान्यीकृत दुश्चिता, प्रतिक्रियात्मक अवसाद या दुर्भीति के लक्षणों में कमी आना जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित होता है जबकि मनोविदलता जैसे गंभीर मानसिक विकारों के लक्षणों में कमी आना जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित नहीं हो सकता है। कई रोगी नकारात्मक लक्षणों से ग्रसित होते हैं; जैसे काम करने या दूसरे लोगों के साथ अन्योन्यक्रिया में अभिरुचि तथा अभिप्रेरणा का अभाव। 

इस तरह के रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पुनःस्थापना की आवश्यकता होती है। पुनःस्थापना का उद्देश्य रोगी को सशक्त बनाना होता है जिससे जितना संभव हो सके वह समाज का एक उत्पादक. सदस्य बन सके। पुनः स्थापना में रोगियों को व्यावसायिक चिकित्सा, सामाजिक कौशल प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है। व्यावसायिक चिकित्सा में रोगियों को मोमबत्ती बनाना, कागज की थैली बनाना और कपड़ा बुनना सिखाया जाता है जिससे वे एक कार्य अनुशासन बना सकें। 

भूमिका निर्वाह, अनुकरण और अनुदेश के माध्यम से रोगियों को सामाजिक कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे कि वे अंतर्वैयक्तिक कौशल विकसित कर सकें। इसका उद्देश्य होता है रोगी को सामाजिक समूह में काम करना सिखाना। संज्ञानात्मक पुनः प्रशिक्षण मूल संज्ञानात्मक प्रकार्यों; जैसे-अवधान, स्मृति और अधिशासी प्रकार्यों में सुधार लाने के लिए दिया जाता है। जब रोगी में पर्याप्त सुधार आ जाता है तो उसे व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है जिसमें उत्पादक रोजगार प्रारंभ करने के लिए आवश्यक कौशलों के अर्जन में उसकी मदद की जाती है।

प्रश्न 9. 
छिपकली/तिलचटा के दुर्भाति भय का सामाजिक अधिगम सिद्धान्तकार किस प्रकार स्पष्टीकरण करेगा ? इसी दुर्भीति का एक मनोविश्लेषक किस प्रकार स्पष्टीकरण करेगा ?
उत्तर-
छिपकली/तिलचटा आदि से होने वाले भय को दुर्भीति कहते हैं। जिन लोगों को दुर्भीति होती है उन्हें किसी विशिष्ट वस्तु, लोग या स्थितियों के प्रति अविवेकी या अर्वक भय होता है। यह बहुधा दुश्चिता विकार से उत्पन्न होती है। दुर्भीति या अविवेकी भय के उपचार के लिए वोल्प द्वारा प्रतिपादित क्रमिक विसंवेदनीकरण एक तकनीक है। छिपकली/तिलचटा के दुर्भीति भय वाले व्यक्ति का साक्षात्कार मनोविश्लेषक भय उत्पन्न करने वाली स्थितियों को जानने के लिए किया जाता है तथा सेवार्थी के साथ-साथ चिकित्सक भय उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों का एक पदानुक्रम तैयार करता है तथा सबसे कम दश्चिता उत्पन्न करने वाले । उद्दीपकों को पदानुक्रम में सबसे नीचे रखता है। 

मनोविश्लेषक सेवार्थी को विश्रांत करता है और सबसे कम दुश्चिता उत्पन्न करने वाली स्थिति के बारे में सोचने को कहता है। सेवार्थी से कहा जाता है कि उसे वर्तमान में ही तनाव है और उसको इसकी विपरीत अवस्था में जाना है। उसे कहा जाता है कि जरा-सा भी तनाव महसूस करने पर भयानक स्थिति के बारे में सोचना बंद कर दे। कई सत्रों के पश्चात् सेवार्थी विश्रांति की अवस्था बनाए रखते हुए तीव्र भय उत्पन्न करने वाली स्थितियों के बारे में सोचने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार सेवार्थी छिपकली या तिलचटा के भय के प्रति विसंवेदनशील हो जाता है। 

यहाँ अन्योन्य प्रावरोध का सिद्धान्त क्रियाशील होता है। पहले विश्रांति की अनुक्रिया विकसित की जाती है तत्पश्चात् धीरे से दुश्चिता उत्पन्न करने वाले दृश्य की कल्पना की जाती है और विश्रांति से दुश्चिता पर विजय प्राप्त की जाती है। इसके अतिरिक्त मनोविश्लेषक सौम्य तथा बिना धमकी वाले किन्तु सेवार्थी के दुर्भीति भय का खंडन करने वाले प्रश्न करता है। ये प्रश्न सेवार्थी को दुर्भीति भय की विपरीत दिशा में सोचने को बाध्य करते है जो दुश्चिता को घटाती है। सामाजिक अधिगम सिद्धान्तकार सामाजिक पक्षों को पर्यावरण परिवर्तन द्वारा स्पष्ट करेगा।

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प्रश्न 10. 
क्या विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा मानसिक विकारों के उपचार के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए ?
उत्तर-
विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा-विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा जैव-आयुर्विज्ञान चिकित्सा का एक दूसरा प्रकार है। इलेक्ट्रोड द्वारा बिजली के हल्के आघात रोगी के मस्तिष्क में दिए जाते हैं जिससे आक्षेप उत्पन्न हो सके। जब रोगी के सुधार के लिए बिजली के आघात आवश्यक समझे जाते हैं तो ये केवल मनोरोगविज्ञानी के द्वारा ही दिए जाते हैं। विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा एक नयी उपचार नहीं है और यह तभी दिया जाता है जब दवाएँ रोगी के लक्षणों को नियंत्रित करने में प्रभावी नहीं होती हैं।

प्रश्न 11. 
किस प्रकार की समस्याओं के लिए संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा सबसे उपयुक्त मानी जाती
उत्तर-
संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा विभिन्न प्रकार के मनोवैज्ञानिक विकारों; जैसे-दुश्चिता, अवसाद, आतंक दौरा, सीमावर्ती व्यक्तित्व इत्यादि के लिए एक संक्षिप्त एवं प्रभावोत्पादक उपचार है।

Bhagya
Last Updated on Sept. 28, 2022, 10:21 a.m.
Published Sept. 28, 2022