These comprehensive RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 8 भारत की जीवंत कला परंपराएँ will give a brief overview of all the concepts.
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→ भारत की जीवंत कला परम्पराओं का प्रारम्भिक परिचय-कला के स्वरूपों की एक ऐसी अनादिकालीन परम्परा रही है जिसे शहरी जीवन से दूर जंगलों, रेगिस्तानों, पर्वतों और गाँवों के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच में विभिन्न कारणों के साथ अमल में लाया जाता रहा है। अभी तक हमने किसी निश्चित समय की कला का अध्ययन किया है जिसका नाम किसी स्थान या फिर उन खानदानों के नाम पर रखा गया जिन्होंने कुछ सौ वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों पर शासन किया। परन्तु आम लोगों की इसमें क्या भूमिका रही? क्या ऐसी कोई कला नहीं थी जिसका अस्तित्व उनके आसपास रहा हो? राजदरबारों या आश्रयदाताओं के यहाँ रहने वाले कलाकार लोग कहाँ से आते थे? शहरों में आने से पहले वे लोग क्या किया करते थे? आज भी वे अनजाने कलाकार लोग कौन हैं जो दूर रेगिस्तानों, पर्वतों, गाँवों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हुए हस्तकलाओं से सम्बन्धित वस्तुओं को बनाया करते हैं, और जो कभी किसी कला स्कूल या डिजायन इन्स्टीट्यूट में नहीं गये हैं।
→ कला परम्परा का पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकास:
हमारा देश सदैव से ही उस स्थानीय ज्ञान का भण्डार रहा है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के लिए हस्तांतरित होता रहा है। हर पीढ़ी के कलाकारों ने उपलब्ध पदार्थों और तकनीकी से सर्वोत्तम कलाकृतियों का निर्माण किया है। बहुत से विद्वानों ने कला के इन स्वरूपों को लघुतर कला, उपयोगी कला, लोककला, जनजातीय कला, सामान्यजन कला, संस्कारी कला, हस्तकला आदि नाम दिये हैं। हम जानते हैं कि कला के ये स्वरूप अनादिकाल से अस्तित्व में हैं।
(1) प्रागऐतिहासिक गुफा चित्रों:
में, मिट्टी के बर्तनों की कलाकृतियों में, पक्की मिट्टी की बनी वस्तुओं में, कांसे के बर्तनों में और हाथीदाँत की वस्तुओं में इन कलाओं के उदाहरणों को देखा जा सकता है।
(2) सिन्धुघाटी सभ्यता के काल:
में भी कला से सम्बन्धित लोगों के समुदाय थे। वे लोग बर्तन और वस्त्र बनाते थे, आभूषण बनाते थे और धार्मिक अनुष्ठानों या पूजा से सम्बन्धित मूर्तियों को बनाते थे। वे लोग अपने घरों की दीवारों और फर्शों को सजाते थे और अपने रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और इसके साथ ही अपनी कलाकृतियों को स्थानीय बाजारों में बेचने के लिए बहुत सी कलात्मक वस्तुओं को बनाते थे। उनकी बनाई हुई वस्तुओं में स्वाभाविक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति होती है। उनमें मूल भावों, पदार्थों, रंगों तथा बनाने के तरीके के विशिष्ट प्रयोग की प्रतीकात्मकता है। लोगों की कला और हस्तकला के बीच में एक बहुत पतली विभाजनकारी रेखा होती है, क्योंकि दोनों में ही सृजनात्मकता, मौलिकता, आवश्यकता और सौन्दर्य सम्मिलित होता है।
(3) 19वीं एवं 20वीं सदी में कला:
आज भी बहुत से क्षेत्रों में हम ऐसी मानव निर्मित कलाकृतियों को पाते हैं । उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भारत में और साथ ही पश्चिमी देशों में भी अपने-अपने सृजनात्मक कार्यों के लिए जब लोगों ने अपने चारों ओर प्रेरणा के स्रोतों के रूप में पारम्परिक कला स्वरूपों को देखा तो आधुनिक कलाकारों के मध्य एक नया दृष्टिकोण उभरकर आया।
(4) स्वतन्त्रता के पश्चात् कला:
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् हस्तकला उद्योग के पुनर्जीवन ने स्थान बनाया। यह क्षेत्र व्यावसायिक उत्पादन के लिए संगठित हुआ। लगातार चलने वाले प्रयोग से हटकर, इसने एक बेजोड़ पहचान प्राप्त की। राज्यों और संघशासित प्रदेशों के बन जाने के साथ ही प्रत्येक राज्य ने अपने बेजोड़ कला स्वरूपों का प्रदर्शन किया और अपने-अपने राज्यों की विक्रय की जाने वाली वस्तुओं का उत्पादन किया।
भारत की कला परम्परायें और हस्तकला परम्परायें इस देश की स्पष्ट विरासत को दर्शाती हैं जिसका इतिहास पाँच हजार वर्षों से भी अधिक पुराना है । यहाँ अधिकांशतः समृद्ध प्रतीकात्मकता, उपयोगिता और अलंकृत पहलुओं के साथ एक धार्मिक एवं पूजा-पाठ से सम्बन्धित अपरोक्ष व्यंजना रही है और यह इस कला के साथ ऐसा जुड़ा रहा है कि घरों पर ही काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए इसे हर रोज अमल में लाया जाता रहा है।
→ चित्र परम्परा (Painting Tradition):
चित्र की बहुत-सी लोकप्रिय परम्पराओं के बीच, बिहार की मिथिला चित्र या मधुबनी चित्र, महाराष्ट्र की वारली चित्र, उत्तरी गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश की पिथोरो चित्र, राजस्थान से पाबूजी की फड़, राजस्थान में नाथद्वारा की पिछवाई, मध्य प्रदेश की गोंड और सवारा चित्र, उड़ीसा और बंगाल की पट चित्र आदि कुछ उदाहरण हैं। यहाँ पर उनमें से कुछ एक की विवेचना की जा रही है
→ मिथिला चित्र (Mithila Painting) रंगों से बनाई जाने वाली बहुत-सी प्रसिद्ध समकालीन कलाओं में मिथिला कला का नाम मिथिला से निकला है जो प्राचीन समय में विदेह के नाम से जाना जाता था और सीता की जन्मभूमि है। इसे मधुबनी चित्र भी कहा जाता है। यह नाम सबसे अधिक पास वाले जिले के नगर के नाम पर है। इसी को बहुत व्यापक रूप से लोक कला परम्परा के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि सैकड़ों वर्षों तक, इस क्षेत्र की रहने वाली स्त्रियाँ किसी समारोह के अवसर के लिए और विशेष रूप से शादी समारोह के लिए मिट्टी के बने हुए मकानों की दीवारों पर रंगों से भरी हुई कुछ आकृतियाँ बनाती रही हैं । इस क्षेत्र के लोग इस कला के.मूल उद्भव के रूप में यह मानते हैं कि यह कला तब से है जब राजकुमारी सीता का विवाह भगवान राम से हुआ था।
मिथिला चित्रों की प्रमुख विशेषताएँ अथवा चित्रों की परम्परा
→ वारली चित्रकला (Warli Painting):
वारली समुदाय के लोग थाने जिले में सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के चारों ओर उत्तरी महाराष्ट्र के पश्चिमी समुद्र तट पर काफी संख्या में बसे हुए हैं।
वारली चित्रकला की विशेषताएँ अथवा चित्र परम्परा
(1) चौक चित्रकला:
विवाहित महिलायें किन्हीं विशेष अवसरों पर चौक (Chowk) कहलाई जाने वाली अपनी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्र बनाते हुए मुख्य भूमिका निभाती हैं । वैवाहिक परम्पराओं, कृषि उत्पादकता, फसल कटाई और बीज बुआई की नई ऋतु के अवसरों पर बनाये जाते हैं।
(2) मातृदेवी पालाघाट का चित्रण:
चौक का प्रभुत्व मातृदेवी पालाघाट की आकृति के द्वारा होता है जिस देवी की पूजा प्रमुख रूप से उत्पादकता की देवी के रूप में होती है और वह फसल की देवी का प्रतिनिधित्व करती है। उस देवी को एक छोटे चौकोर फ्रेम में बनाया जाता है। उस फ्रेम को बाहरी किनारों पर नुकीली लकड़ियों से सजा दिया जाता है जो हरियाली देव अर्थात् पेड़-पौधों के देवताओं के प्रतीक होते हैं।
(3) पंचसीर्य देवता का चित्रण:
देवी के रक्षक एवं सिर विहीन योद्धाओं के रूप में दर्शाये जाते हैं जो घोड़े पर सवार होते हैं या फिर उस देवी के पास खड़े रहते हैं और उनकी गर्दन से पाँच दाने अंकुरित होते हैं और इसीलिए उन्हें पंचसीर्य देवता (पाँच सिरों वाला देवता) कहा जाता है। उन्हें खेतों के रखवाले के रूप में माना जाता है और उन्हें क्षेत्रपाल भी कहते हैं।
(4) पालाघाट का केन्द्रीय भाव:
पालाघाट का केन्द्रीय भाव हर रोज के जीवन के दृश्यों से घिरा हुआ रहता है, जैसे उसमें शिकार के दृश्यों के चित्र, मछली पकड़ने के चित्र, खेती के चित्र, नृत्य के, जानवरों के, पौराणिक कहानियों के चित्र होते हैं। उसमें बाघ खूब स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वहाँ चलती हुई बसों के चित्र होते हैं और मुम्बई के उस व्यस्त जीवन के चित्र होते हैं जिन्हें वारली समुदाय के लोग अपने चारों ओर देखते हैं।
(5) वारली चित्र बनाने के साधन एवं कारण:
इन चित्रों को पारम्परिक रूप से लोगों के घरों की मिट्टी की बनी हुई रंगीन दीवारों पर चावल के आटे से बनाया जाता है। वारली समुदाय के लोगों का मानना है कि ये चित्र उत्पादकता को उन्नत करते हैं, बीमारियों को दूर करते हैं, मरे हुए लोगों को प्रसन्न करते हैं और आत्माओं की मांग को पूरा करते हैं। एक बाँस की लकड़ी के एक सिरे को चबा लिया जाता है और उसका उपयोग चित्र बनाने में ब्रुश के स्थान पर होता है।
→ गोंड चित्रकला (Gond Painting)
मध्य प्रदेश के गोंड समुदाय के लोग प्रकृति की पूजा करते थे। माँडला और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले गोंड समुदाय के लोगों के चित्र हाल फिलहाल में जानवरों, मनुष्यों और पेड़-पौधों के रंगीन प्रदर्शनों में रूपान्तरित हुए हैं । पूजा-पाठ से सम्बन्धित ज्यामितीय रेखांकन झोंपड़ियों की दीवारों पर बनाई जाती हैं, जिसमें अपने सिरों पर बर्तनों को लिये हए गोपियों से घिरे हुए अपनी गायों के साथ कृष्ण के चित्र बनाये जाते हैं जिसकी नौजवान लड़के-लड़कियाँ पूजा करते हुए चित्रित होते हैं। (4) पिथोरो चित्रकला (Pithoro Painting)
गुजरात में पंच महल क्षेत्र में और पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में झबुआ क्षेत्र में रहने वाले राठव भील समुदाय के द्वारा किन्हीं विशेष अवसरों या आभार प्रदर्शन करने वाले अवसरों को दर्शाते हुए ये चित्र घरों की दीवारों पर बनाए जाते हैं । ये बड़े-बड़े भित्ति चित्र होते हैं जिनमें घुड़सवारों के रूप में आलीशान ढंग से अनेक देवी-देवताओं के रंगीन चित्रों का कतारों में प्रतिनिधित्व होता है।
पिथोरो चित्रों की विशेषता-घुड़सवार देवी-देवताओं की कतारें राठव समुदाय के लोगों के सृष्टिवर्णन का प्रतिनिधित्व करती हैं।
→ पात चित्रकला (Pata Painting)
ये चित्र कपड़े पर, ताड़ के पत्ते पर या कागज पर बनाये जाते हैं, ये चित्र कला का एक और उदाहरण हैं जिसका देश के विभिन्न भागों में निर्माण किया जाता है। विशेष रूप से पात चित्रकला का अभ्यास पश्चिम में गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा में होता है। इसे पात, पछेड़ी, फड़ इत्यादि के रूप में जाना जाता है।
(i) बंगाल पात (Bengal Patas)-बंगाल पात चित्रकला में कपड़े (पात) पर चित्र बनाना और पश्चिम बंगाल के इलाकों में कहानी सुनाना शामिल रहता है। यह सर्वाधिक रूप से सुनी जाने वाली मौखिक परम्परा है, इसमें अनवरत रूप से नये-नये कथा प्रसंग खोजे जाते हैं और विश्व में घटित होने वाली महत्त्वपूर्ण घटनाओं के लिए नये-नये विचार तैयार किये जाते हैं।
खड़ी बनाई हुई पात चित्र पतुआ (प्रदर्शनकारी) लोगों के प्रदर्शन के लिए उपयोग में लाये जाने के लिए एक सहारे के रूप में हो जाती है। पतुआ लोगों को चित्रकार भी कहा जाता है। ये लोग उन समुदायों से सम्बन्धित हैं जो अधिकतर पश्चिम बंगाल के मिदनापुर, वीरभूमि और बाँकुड़ा क्षेत्रों के आसपास बस गये तथा बिहार और झारखण्ड के भी कुछ हिस्सों में बस गये। पात पर काम करना इन लोगों का खानदानी व्यवसाय है। वे गाँवों में घूमा करते हैं, अपने चित्रों को दिखाया करते हैं, और जो कुछ चित्रित किया है, उसकी कथा गीत गा-गाकर सुनाया करते हैं। यह प्रदर्शन गाँवों के सर्वसामान्य स्थलों पर हुआ करता है। पतुआ हर बार तीन या चार कहानियों का वर्णन करता है। इस प्रदर्शन के बाद पतुआ को नकद या अन्य रूप में दान या उपहार दिया जाता है।
(ii) पुरी पात या चित्रकला (Puri Patas or Painting)-इन चित्रों के लिए लोग स्पष्ट रूप से यह दावा करते हैं कि इनकी पहचान उड़ीसा में पुरी के मन्दिरों के शहर से है। यहाँ पात का बड़ा उपयोग होता था (पहले ताड़ के पत्ते और कपड़े का उपयोग होता था लेकिन अब इसे कागज पर भी बनाते हैं)। कथा-वस्तुओं की एक श्रृंखला चित्रित कर दी जाती है जैसे कि भगवान जगन्नाथ की नित्य वेशभूषा और त्यौहारों की वेशभूषा। इसमें बलभद्र और सुभद्रा के भी चित्र होते हैं। इन्हें बड़ा श्रृंगार वेश, रधुनाथ वेश, पदमवेश, कृष्ण-बलराम वेश, हरिहरन वेश इत्यादि कहा जाता है । रास चित्र और अंसरा पत्ती चित्र होते हैं। जब स्नान यात्रा के पश्चात् गर्भगृह की सफाई और नई पुताई होती है तब गर्भगृह में अंसरा पत्ती चित्र को लघु रूप में स्थान दिया जाता है। यहाँ जतरी पत्ती चित्रण होता है। तीर्थयात्री लोग स्मृति चिह्न के रूप में इसे ले जाते हैं और अपने घरों पर अपने व्यक्तिगत मन्दिरों में इसे रख लेते हैं। इसमें जगन्नाथ की पौराणिक कथाओं से प्रसंग चित्रित होते हैं। ऐसा कांची कावेरी पात और थिया बधिया पात में होता है, जो कि मन्दिर और मन्दिर में रखे लघु चित्र का ऊपर से और बगल से चित्रण होता है।
→ पातचित्र निर्माण एवं विशेषताएँ
→ राजस्थान के फड़ चित्र (Phad Paintings of the Rajasthan):
राजस्थान के फड़ चित्रों की विशेषताएँ एवं चित्र परम्परा
1. फड़ चित्र परम्परा की विषयवस्तु-फड़ चित्र कपड़े पर लम्बे और क्षैतिज चित्र होते हैं जिन्हें उन ग्रामीण समुदायों के लोक देवी-देवताओं को सम्मानित करने के लिए चित्रित किया जाता है जो लोग राजस्थान में भीलवाड़ा के आसपास के क्षेत्र में रहते हैं। ऐसे समुदायों के लिए अपने पशुधन की सुरक्षा सबसे अधिक चिन्ता का विषय होता है। इन लोगों का ध्यान विशेष इरादे के साथ अपनी पौराणिक कथाओं, अपनी लोक कथाओं और पूजा पद्धति के साथ इन चित्रों में प्रतिबिम्बित होता है। देवी-देवताओं के बीच में उन लोगों को भी चित्रित किया जाता है जो वीर पुरुष डाकुओं से अपने पशुओं की सुरक्षा करते हुए अपने जीवन का बलिदान कर देते हैं। इन आकृतियों को भोमिया (Bhomia) नाम दिया जाता है। इन वीर पुरुषों को अपने बलिदान के लिए सम्मानित किया जाता है, पूजा जाता है और याद किया जाता है। ऐसे भोमिया लोग जैसे-गोगाजी, तेजाजी, देवनारायण, रामदेवजी और पाबूजी हैं जो व्यापक रूप से इस समुदाय के लोगों को प्रेरणा देते रहे हैं । यह राबरी, गुज्जर, मेघवाल, रैगड़ और दूसरे लोगों के समुदायों में होता आया है।
2. फड़ चित्र और भोपा लोगों की कला-इन भोमिया लोगों के बहादुरी के किस्से फड़ के रूप में प्रदर्शित करते हुए इन्हें भोपा लोगों के द्वारा ग्रहण कर लिया गया। ये घूम-घूम कर गायन करने वाले लोग होते हैं। ये लोग उन क्षेत्रों में घूमते रहते हैं और भक्ति गीतों को गाते रहते हैं, साथ ही इन वीर पुरुषों और देवी-देवताओं की कहानियों को रात-रात भर गाते हैं । चित्रित चित्रों को रोशनी से भरपूर करने के लिए ये एक दीपक जलाकर रखते हैं। इन चित्रों के बारे में ये गाकर कथा सुनाते हैं । भोपा लोग अपने साथियों के साथ मिलकर संगीत के वाद्य यंत्रों की संगति में गाते हैं। वाद्य यंत्रों में रावण हत्था और वीणा होती है, और वे ख्याल शैली में गायन करते हैं। फड़ चित्र और फड़ गायन के माध्यम से इस समुदाय के लोग वीर पुरुषों को शहीदों के रूप में याद करते हैं और उनकी कहानी को जीवित रखते हैं।
तथापि, फड़ चित्र को भोपाओं के द्वारा नहीं बनाया जाता है। इन्हें पारम्परिक रूप से एक विशेष जाति के लोगों के द्वारा बनाया जाता है, जिन्हें 'जोशी' कहा जाता है। ये जोशी लोग राजस्थान के राजाओं के दरबारों में चित्रकारों के रूप में रहते थे। ये चित्रकार अपने संरक्षक दरबारों में लघु चित्र बनाने में सिद्धहस्त थे। इसलिए कुशल अभ्यासकारी, गायक-संगीतज्ञ और दरबारी चित्रकार लोगों की संगति के साथ यह फड़ चित्रकला अपने समान दूसरी सांस्कृतिक परम्पराओं से अधिक उच्च स्थान को प्राप्त किये हुए है।
→ मूर्तिकला परम्परा (Sculptural Traditions):
इसमें मिट्टी, धातु और पत्थर से बनने वाली मूर्तियों की लोकप्रिय परम्परायें आती हैं। इस प्रकार की अनेकों परम्परायें पूरे देश में हैं। उनमें से कुछ की विवेचना यहाँ दी जा रही है(1) ढोकरा ढलाई (Dhokra Casting) बहुत-सी लोकप्रिय मूर्तिकला परम्पराओं में ढोकरा मूर्तिकला या धातु मूर्तिकला जो मोम को हटाकर या सीयर परड्यू (Cire perdue) तकनीक द्वारा बनाई जाती है, यह तकनीक बस्तर, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर की प्रमुख धातु कलाओं में से एक है। इसमें मोम को हटाकर काँसे की ढलाई की जाती है। बस्तर के धातु शिल्पकार घड़वा (Ghadwa) कहलाते हैं । शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार घड़वा (Ghadwa) का तात्पर्य आकृति निर्माण के कार्य से है। पारम्परिक रूप से घड़वा (Ghadwa) शिल्पकार ग्रामवासियों के लिए दैनिक उपयोग के बर्तन की आपूर्ति करने के अतिरिक्त आभूषण, स्थानीय सम्मान प्राप्त देवीदेवताओं की मूर्ति और पूजा के लिए सर्प, हाथी, घोड़े की मूर्ति इत्यादि भी बनाते हैं । इसके बाद समुदाय में बर्तन और पारम्परिक आभूषणों की माँग में कमी होने पर इन शिल्पकारों ने नये गैर पारम्परिक एवं अनेक प्रकार की सजावटी वस्तुओं को बनाना शुरू कर दिया।
→ ढोकरा ढलाई की प्रक्रिया (Process of Dhokra Casting)
(1) ढोकरा ढलाई एक बहुत विस्तृत प्रक्रिया है। नदी किनारे से लाई गई काली मिट्टी को चावल के भूसे के साथ मिला लिया जाता है और फिर पानी के साथ गूंथ लिया जाता है। इससे साँचा बना लिया जाता है। सूख जाने पर मिट्टी के साथ गाय का गोबर मिलाकर दूसरी परत इस पर चढ़ा दी जाती है।
(2) इसके बाद साल के वृक्ष से निकलने वाला एक चिपचिपा पदार्थ इकट्ठा किया जाता है और इसको मिट्टी के बर्तन में तब तक उबाला जाता है जब तक कि यह तरल स्वरूप में न हो जाये। फिर इसमें सरसों का. तेल मिला दिया जाता है और उसे उबलने दिया जाता है। फिर उबलते हुए तरल पदार्थ को कपड़े से छान लिया जाता है और पानी के ऊपर रखे हुए धातु के बर्तन में इसे इकट्ठा कर लिया जाता है। परिणामस्वरूप वह चिपचिपा पदार्थ जम जाता है लेकिन फिर भी कोमल और मोड़ने लायक लचीला बना रहता है। फिर इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में अलग-अलग कर लिया जाता है और इसे धीमी आँच पर हल्का-सा गरम करते हैं और इसे खींचकर धागे जैसा बना लिया जाता है। फिर इससे कलाकृति के आँख, नाक इत्यादि सजाये जाते हैं।
(3) इसके बाद मिट्टी की बनी हुई उस मूर्तिस्वरूप को परतों से ढका जाता है-पहले सुन्दर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है, फिर मिट्टी और गोबर के मिश्रण की परत चढ़ाते हैं, सबसे अन्त में चींटियों की बाँबी (बिल) से प्राप्त होने वाली मिट्टी और चावल के भूसी को मिलाकर उसकी परत चढ़ाते हैं।
(4) चींटियों की बाँबी से प्राप्त मिट्टी से एक नीचे का आसन बनाते हैं और प्रतिमा के नीचे के भाग को उस पर लगाते हैं।
(5) एक प्याले में धातु के टुकड़े, मिट्टी और चावल के भूसी को मिलाकर उसे सील बन्द कर दिया जाता है। भट्टी में आग जलाने के लिए साल की लकड़ी या इसी के कोयले को अधिक पसन्द किया जाता है। जिस प्याले में धातु होती है उसे नीचे रखते हैं और उसके ऊपर मिट्टी वाला ढाँचा रखते हैं और उसे लकड़ियों से ढक देते हैं । भट्टी में दो से तीन घण्टों तक लगातार हवा फूंकी जाती है जिससे वह धातु पिघली हुई अवस्था में आ जाती है।
(6) अब ढाँचे को सँडासी की सहायता से बाहर निकाला जाता है। ऊपर से नीचे की ओर पलट दिया जाता है, फुर्ती से इसे हिलाया जाता है और धातु उसमें उड़ेल दी जाती है। पिघली हुई धातु उस स्थान में ठीकठीक भर जाती है। जहाँ साल का चिपचिपा पदार्थ भरा था, वह वाष्प बनकर उड़ जाता है। इस ढाँचे को ठण्डा होने दिया जाता है। बाद में हथौड़े से मिट्टी की परत को अलग कर दिया जाता है और धातु की प्रतिमा दिखाई देने लगती है।
→ टेराकोटा (Terracotta)
मूर्तियों का देशभर में सर्वाधिक प्रचलित माध्यम टेराकोटा है जो पकाई हुई मिट्टी होती है। आमतौर पर | कुम्हारों के द्वारा पारम्परिक त्यौहारों पर पूजा के काम में आने वाली मूर्तियाँ टेराकोटा मिट्टी से बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों को उन स्थानीय मिट्टियों से बनाया जाता है जो नदियों के किनारे या तालाबों में पाई जाती हैं। टेराकोटा मिट्टी से बनी मूर्तियों को अधिक समय तक बनाये रखने के लिए पका लिया जाता है। चाहे मणिपुर हो या उत्तर पूर्व का आसाम हो, पश्चिमी भारत का कच्छ हो, उत्तर की पहाड़ियाँ हों, दक्षिण का तमिलनाडु हो, गंगा का मैदान हो या मध्य भारत हो, इन सभी स्थानों पर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के द्वारा टेराकोटा से अलग-अलग प्रकार की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं । इस मिट्टी को साँचे में डालकर मूर्ति बनाई जाती हैं, हाथों से भी स्वरूप दिया जाता है, कुम्हार के चाक (पहिये) का भी उपयोग किया जाता है, उन पर रंग लगाया जाता है और उन्हें सजाया जाता है, उनके स्वरूप और उद्देश्य अक्सर एक समान होते हैं। वे या तो देवी या देवताओं की प्रतिमायें होती हैं, जैसे-गणेश की मूर्ति, दुर्गा की मूर्ति, या स्थानीय देवताओं की मूर्ति, जानवर, पक्षी और कीट-पतंगों आदि की मूर्तियाँ।