These comprehensive RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 7 आधुनिक भारतीय कला will give a brief overview of all the concepts.
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→ भारत में आधुनिकतावाद का परिचय (Introduction to Modernism in India):
भारत में आधुनिकतावादी कला के विकास एवं परिचय को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है
(1) 19वीं सदी के मध्य और अन्त तक कला विद्यालयों की स्थापना:
अंग्रेजों द्वारा ललित कलाओं को यूरोपीय माना जाता था। उन्होंने महसूस किया कि भारतीयों में ललित कलाओं की रचना करने और उनकी सराहना करने के लिए प्रशिक्षण की कमी है। उन्नीसवीं सदी के मध्य और अंत तक प्रमुख शहरों में कला विद्यालय स्थापित किए गए, जैसे-लाहौर, कलकत्ता (अब, कोलकाता), बॉम्बे (अब, मुंबई) । इन कला विद्यालयों में पारंपरिक भारतीय शिल्प और शैक्षिक तथा प्रकृतिवादी कला को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति थी जो विक्टोरियन रुचियों को दर्शाता है। यहाँ तक कि भारतीय शिल्प, जिन्हें समर्थन प्राप्त हुआ, वे भी यूरोपीय रुचि और बाजार में इनकी माँग पर आधारित थे।
(2) राष्ट्रवादी कला का उदय:
राष्ट्रवादी कला का उदय होना, औपनिवेशिक पूर्वाग्रह के विरुद्ध था और अबनिन्द्रनाथ टैगोर तथा ई.बी. हैवेल द्वारा संरक्षित बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट इसका एक प्रमुख उदाहरण है। भारत का प्रथम राष्ट्रवादी स्कूल, कला भवन की स्थापना 1919 में नवस्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय जो कि शांतिनिकेतन में है, के एक भाग के रूप में हुई थी, जिसकी परिकल्पना कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने की थी। बंगाल शैली यद्यपि इस परिकल्पना को लेकर चला लेकिन इसने भारतीयों के लिए सार्थक कला-रचना में अपना स्वयं का. मार्ग भी अपनाया। यह वह समय था जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया में तीव्र राजनीतिक उथल-पुथल की स्थिति थी।
(3) कला-पत्रिकाओं द्वारा आधुनिक यूरोपीय कला का आधुनिक भारतीय कला पर प्रभाव:
कलकत्ता.में लगी प्रसिद्ध बॉहॉस प्रदर्शनी के अतिरिक्त उस समय प्रचलित कला-पत्रिकाओं के द्वारा भी आधुनिक यूरोपीय कला ने भारतीय कलाकारों को प्रभावित किया। टैगोर परिवार से जुड़े कलाकार जैसे-गगनेंद्रनाथ और कवि-चित्रकार रवींद्रनाथ क्यूबिज्म और अभिव्यक्तिवाद के अन्तर्राष्ट्रीय रुझानों के बारे में जानते थे, जिसने शैक्षिक यथार्थवाद को नकार दिया था और अमूर्तता के साथ प्रयोग किया था। उनका मानना था कि कला को दुनिया की नकल करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन रूप, रेखाओं और रंगारेख से स्वयं की दुनिया बनाये। एक परिदृश्य, चित्र या स्थिर जीवन को दर्शाने वाली कृति को अमूर्त भी कहा जा सकता है यदि यह हमारा ध्यान रूप, रेखाओं तथा रंगारेख द्वारा निर्मित अमूर्त डिजाइन की ओर आकर्षित करता है।
(4) गगनेन्द्रनाथ टैगोर की आधुनिक कला क्यूबिज्म:
गगनेंद्रनाथ टैगोर ने अपनी एक अनूठी शैली बनाने के लिए क्यूबिज्म की भाषा का प्रयोग किया। रहस्यमय हॉल और कमरों की उनकी पेंटिंग (कृतियाँ) ऊर्ध्वाधर, क्षैतिज और विकर्ण रेखाओं द्वारा बनाई गई थीं, जो कि प्रसिद्ध कलाकार पाब्लो पिकासो की क्यूबिस्ट शैली से काफी भिन्न थीं, जिन्होंने ज्यामितीय पहलुओं का उपयोग कर इस शैली का आविष्कार किया था।
(5) रवीन्द्रनाथ टैगोर की आधुनिक भारतीय कला:
रवींद्रनाथ टैगोर अपने जीवन में दृश्य कला की ओर काफी देर से मुड़े। कविताएँ लिखते समय, वह अक्सर डूडल से प्रतिमान बनाते थे तथा उन्होंने काटे हुए शब्दों से एक अद्वितीय सुलेख शैली विकसित की। इनमें से कुछ मानवीय चेहरों और परिदृश्यों में बदल गये, जो उनकी कविताओं में मनोरम रूप से दिखाई देते हैं। उनके रंग भरने की प्लेट में सीमित रंग जैसे काला, पीला, गेरुआ, लाल और भूरा ही दिखाई देते थे। हालांकि, रवींद्रनाथ ने एक छोटी सी दृश्य दुनिया का निर्माण किया जो कि बंगाल शैली की अधिक सुन्दर और नाजुक शैली से भिन्न थी, जो अक्सर मुगल और पहाड़ी लघुचित्रों के साथ-साथ अजंता के भित्तिचित्रों से प्रेरणा लेती थी।
(6) बिनोद बिहारी मुखर्जी एवं रामकिंकर बैज द्वारा आस-पास के पर्यावरण और स्थानीय समुदाय का चित्रण:
1921-1922 में नंदलाल बोस कला भवन में शामिल हुए। अबनिंद्रनाथ टैगोर के तहत उनके प्रशिक्षण ने उन्हें कला में राष्ट्रवाद के साथ परिचित करवाया, लेकिन इसने उनको अपने छात्रों और अन्य शिक्षकों को कलात्मक अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाशने के लिए अनुमति देने से नहीं रोका। बिनोद बिहारी मुखर्जी तथा रामकिंकर बैज, बोस के सबसे रचनात्मक छात्रों ने इस पर बहुत विचार किया कि दुनिया को कैसे समझा जाए। उन्होंने स्केचिंग और पेंटिंग की अनूठी शैली विकसित की जिसमें न केवल उनके आसपास का पर्यावरण जैसे वनस्पति और जीव को दिखाया गया अपितु वे भी दिखाए गए जो वहाँ रहते थे। शांतिनिकेतन के बाहरी इलाके में संथाल जनजाति की एक बड़ी आबादी थी, ये कलाकार प्रायः उन्हें चित्रित करते थे और उनके आधार पर मूर्तियाँ बनाते थे। इसके अलावा, साहित्यिक स्रोतों के विषयों में भी उनकी रुचि थी।
(7) मध्ययुगीन सन्तों के चित्र का चित्रांकन:
रामायण और महाभारत जैसे प्रसिद्ध महाकाव्यों के ऊपर पेंटिंग (चित्र) बनाने की बजाय, बिनोद बिहारी मुखर्जी मध्ययुगीन संतों की ओर आकर्षित हुए। शांतिनिकेतन में हिंदी भवन की दीवारों पर इन्होंने मध्यकालीन संतों नामक एक भित्ति चित्र बनाया, जिसमें वह तुलसीदास, कबीर और अन्य के जीवन के माध्यम से मध्यकालीन भारत के इतिहास को दर्शाता है और उनकी मानवीय शिक्षाओं पर ध्यान केन्द्रित करता है।
(8) रामकिंकर बैज द्वारा प्रकृति, संथाल जनजाति एवं मजदूर वर्ग की कलाकृतियाँ:
रामकिंकर बैज एक कलाकार था जिसने अपने आप को प्रकृति का उत्सव मनाने के लिए समर्पित कर दिया था। उनकी कला उनके दैनिक अनुभवों को प्रतिबिम्बित करती है। उनकी लगभग सभी मूर्तियां और पेंटिंग उनके वातावरण के प्रति उत्तरदायित्व के रूप में बनाई गई हैं। उदाहरण के लिए, उनका 'संथाल परिवार' कलाकृति कलाभवन के परिसर में एक मूर्ति के रूप में बनाया गया है। जैसे रोजमर्रा के कार्य करने के लिए बाहर जाते हुए संथाल परिवार की यह मूर्ति एक जीवन से भी बड़ी कलाकृति बन गयी। इसके अलावा इसका निर्माण आधुनिक सामग्री से हुआ है, जिसमें सीमेंट को छोटे पत्थरों के साथ मिलाया गया तथा धातु के कवच की सहायता से उसे एक रूप दिया गया है। उनका अंदाज तीखा था जो पहले मूर्तिकार डी.पी. रॉय चौधरी के विपरीत था जिन्होंने शैक्षिक यथार्थवाद का इस्तेमाल 'श्रम की जीत' नामक मूर्ति में मजदूर वर्ग के जश्न मनाने के लिए किया था।
(9) जैमिनी रॉय की कलाकृतियाँ:
यदि बिनोद बिहारी और रामकिंकर बैज के लिए ग्रामीण समुदाय महत्वपूर्ण था, तो जैमिनी रॉय की कला भी इस सन्दर्भ में प्रासंगिक है। अबनिन्द्रनाथ टैगोर के छात्र होने के नाते उन्होंने महसूस किया कि शैक्षिक कला को आगे बढ़ाना निरर्थक है। उन्होंने देखा कि ग्रामीण बंगाल की लोक कला तथा पिकासो और पॉल क्ली जैसे यूरोपीय आचार्यों की आधुनिक चित्रों में काफी समानता थी। आखिरकार पिकासो अफ्रीकी मुखौटों के निर्भीक रूपों से सीखने के बाद क्यूबिज्म तक पहुँचे थे। राय ने भी साधारण और शुद्ध रंगों का प्रयोग किया। गाँव के कलाकारों की भाँति उसने भी सब्जियों तथा खनिज लवणों से अपने रंग बनाये। उनके परिवार के लोगों द्वारा उनकी कला को आसानी से प्रतिकृति (पुनः बनाना) कर लिया गया जैसे कि गाँव में कारीगरी की प्रथा का पालन किया जाता था। लेकिन राय की कलाकृतियाँ गाँव के कलाकारों से भिन्न इसलिए थीं क्योंकि वह अपने चित्रों पर दस्तखत करते थे।
उनकी शैली अद्वितीय रूप में व्यक्तिगत शैली के रूप में देखी जाती थी, जो कला स्कूलों के शैक्षिक प्रकृतिवाद कला तथा राजा रवि वर्मा के भारतीयकृत प्रकृतिवाद दोनों से भिन्न थी। साथ ही कुछ बंगाल शैली के कलाकारों द्वारा प्रचलित की गई नाजुक शैली से भी अलग थी।
(10) अमृता शेरगिल की आधुनिक भारतीय कला:
अमृता शेरगिल (1913-1941), आधी हंगेरियन तथा आधी भारतीय, एक अद्वितीय महिला कलाकार के रूप में उभरीं, जिन्होंने 1930 के दशक के दौरान आधुनिक भारतीय कला को अत्यधिक योगदान दिया। अन्य लोगों से भिन्न, उन्हें पेरिस में प्रशिक्षित किया गया था तथा उनका पहला अनुभव यूरोपीय आधुनिक कला की प्रभाववाद और उत्तर-प्रभाववाद की प्रवृत्तियों से हुआ। भारत को अपना आधार बनाने के बाद उन्होंने भारतीय विषय और चित्र के साथ कला को विकसित करने का कार्य किया। अमृता शेरगिल ने यूरोपीय आधुनिकतावाद के साथ भारतीय कला की लघुचित्र और भित्ति चित्र परंपराओं को आत्मसात किया।
→ भारत में आधुनिक विचारधाराएँ और राजनीतिक कला (Modern Ideologies and Political Art in India):
(1) कलकत्ता समूह के गठन द्वारा सार्वभौमिक एवं वर्तमान को दर्शाने वाली कला पर जोर:
(2) कई युवा कलाकारों का मार्क्सवाद की ओर झुकाव:
अपने आसपास की घोर गरीबी तथा गाँव और शहरों में लोगों की दुर्दशा को देखकर, कलकत्ता के कई युवा कलाकार समाजवाद, विशेष रूप से मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए। इस आधुनिक दर्शनशास्त्र को कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में पश्चिम को पढ़ाया था। इसने समाज में वर्ग अंतर के कारण इन कलाकारों की चेतना को जगाया। वे चाहते थे कि उनकी कला इन सामाजिक समस्याओं के बारे में बात करे।
(3) राजनीतिक कलाकारों द्वारा सामाजिक सन्दर्भो एवं समस्याओं के लिए छपाई माध्यम का प्रयोग:
भारत के दो राजनीतिक कलाकार चित्तोप्रसाद और सोमनाथ होरे ने यह देखा कि चीजों को छापना इन सामाजिक सन्दर्भो की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हो सकता है। छपाई के द्वारा कलाकृतियों की संख्या बढ़ सकती है जो अधिक लोगों तक पहुँच पायेंगी। चित्तोप्रसाद की नक्काशी, लिनोकट और लिथोग्राफ ने गरीबों की दयनीय स्थिति को दर्शाया।
(4) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव:
चित्तोप्रसाद को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा बंगाल अकाल से सबसे अधिक प्रभावित गाँव में यात्रा करने के लिए कहा गया ताकि वे रेखाचित्र बना सके। ये बाद में हंग्री (भूखा) बंगाल नाम के अन्तर्गत पैम्फलेट के रूप में प्रकाशित हुए, जिसके कारण अंग्रेजों ने नाराजगी जताई।
→ बम्बई में प्रगतिशील कलाकारों का समूह और बहुआयामी भारतीय कला (The Progressive Artists' Group of Bombay and the Multifaceted Indian Art):
(1) बम्बई के कलाकारों द्वारा 'द प्रोग्रेसिव्स' समूह का गठन:
राजनीति के साथ ही साथ कलात्मक स्वतंत्रता की इच्छा जल्द ही युवाओं के बीच व्यापक रूप से फैल गई, जिन्होंने अंग्रेजों के राज से स्वतंत्रता प्राप्त करने का नजारा देखा। सन् 1946 में बम्बई में द प्रोग्रेसिव्स नामक कलाकारों के एक और समूह का गठन हुआ। फ्रांसिस न्यूटन सूजा इस समूह के खुलकर बोलने वाले (मुखर) नेता थे, जिसमें एम.एफ. हुसैन, के.एच. आरा, एस.ए. बाकरे, एच.ए. गडे तथा एस.एच. रज़ा भी सम्मिलित थे। जो प्रथाएँ कला विद्यालयों में प्रचलित थीं, सूजा उनके बारे में प्रश्न करना चाहता था। उनके लिए आधुनिक कला एक नई स्वतंत्रता का प्रतीक थी, जो सौन्दर्य और नैतिकता के पारंपरिक अर्थ को चुनौती दे सकती थी।
(2) महिलाओं पर केन्द्रित चित्र:
उनके प्रयोगात्मक कार्य मुख्य रूप से महिलाओं पर केंद्रित थे, जिसे उन्होंने नग्न रूप में चित्रित किया, उनके अनुपात को बढ़ा-चढ़ा कर बताया और सुंदरता की मानक धारणाओं को तोड़ा।
(3) एम.एफ. हुसैन की चित्रकला की आधुनिक शैली:
एम.एफ. हुसैन चित्रकला की आधुनिक शैली को भारतीय संदर्भ में समझाना चाहते थे। उदाहरण के लिए, वह पश्चिमी अभिव्यंजनावादी का उपयोग चमकीले भारतीय रंगों के साथ कूची (ब्रश) को चलाकर चित्रों में करते थे। उन्होंने न केवल भारतीय पौराणिक कथाओं और धार्मिक स्रोतों से चित्र बनाये बल्कि लघु चित्रों की शैली, ग्रामीण शिल्प और खिलौने भी चित्रांकित किये।
(4) एम.एफ. हुसैन का 'मदर टेरेसा' चित्र:
भारतीय विषयों के साथ आधुनिक शैली के चित्रों में सफलतापूर्वक संयोजन के परिणामस्वरूप हुसैन भारतीय आधुनिक कला का अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका मदर टेरेसा चित्र यह समझने के लिए एक उदाहरण है कि उन्होंने कैसे आधुनिक कला को अनुकूलित कर भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण विषयों को चित्रित करने के साथ-साथं अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को भी ध्यान में रखा।
→ अमूर्त-एक नया चलन (Abstraction-A New Trend):
आधुनिक भारतीय कला के अन्तर्गत अमूर्त कला का एक नया चलन प्रारम्भ हुआ, इसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया गया है
1. एस.एच. रजा और अमूर्त कला का चलन:
हुसैन काफी हद तक एक आलंकारिक कलाकार बने रहे, एस.एच. रजा अमर्तन की दिशा में चले गये। भू-दृश्य या परिदृश्य (Landscape) इस कलाकार का पसंदीदा विषय था। उसके रंग चमकीले से लेकर हल्के, संशोधित तथा एक ही रंग की कई अवस्थाओं को दर्शाते थे। यदि हुसैन ने भारतीय विषयों को दिखाने के लिए आधुनिक कला की आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया, तो रजा ने अमूर्तता के साथ भारतीय विषयों को लेकर आधुनिक कला को दर्शाया। उनके कुछ चित्र पुराने 'मंडला' और 'यंत्र' डिजाइनों से बनाये गये हैं और भारतीय दर्शनशास्त्र से एकता के एक प्रतीक के रूप में 'बिन्दु' को भी उपयोग में लिया है।
2. अन्य समकालीन कलाकार एवं अमूर्तता का प्रयोग:
एस.एच. रजा के बाद में, गायतोंडे ने भी अमूर्तता का अनुसरण किया, जबकि के.के. हेब्बार, एस. चावड़ा, अकबर पदमसी, तैयब मेहता और कृष्ण खन्ना जैसे कलाकार अमूर्त और आलंकारिक के बीच चलते रहे।
3. पीलू पोचखानावाला एवं कृष्णा रेड्डी और अमूर्तता:
पीलू पोचखानावाला जैसे अनेक मूर्तिकारों तथा कृष्णा रेड्डी जैसे प्रिंटमेकरों (छापने वाले) के लिए अमूर्तन महत्वपूर्ण था। उनके लिए, सामग्री का उपयोग उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि नया आकार जिसे वे बना रहे थे। 1960 तथा 1970 के दशक में चाहे चित्र बनाना, छापना या मूर्तिकला हो, अमूर्तता कलाकारों को व्यापक रूप से पसन्द थी।
4. दक्षिण भारत के के.सी.एस. पणिकर और अमूर्तता:
दक्षिण भारत में, के.सी.एस. पणिकर, जिन्होंने बाद में चोलामंडलम की स्थापना की, जो मद्रास के पास एक कलाकार गांव था, वह अमूर्तता में अग्रणीय थे। उन्होंने तमिल और संस्कृत लिपियों, फर्श की सजावटों और ग्रामीण शिल्पों से कलात्मक मूलभावों को आत्मसात करके यह दिखाया कि भारत में अमूर्तन का एक लम्बा इतिहास रहा है।
5. अमरनाथ सहगल एवं मृणालिनी मुखर्जी और अमूर्तता:
1970 के दशक के अन्त तक अंतर्राष्ट्रीयतावाद (जिसमें एक कलाकार स्वतंत्र रूप से पश्चिमी आधुनिक प्रवृत्तियों की शैली का उपयोग करे, जैसे-क्यूबिज्म, अभिव्यक्तिवाद, अमूर्तता, आदि) और स्वदेशी (जिसमें कलाकारों ने देशी कलाओं की ओर रुख किया) के बीच का तनाव तीव्र हो गया। अमरनाथ सहगल जैसे मूर्तिकारों ने अमूर्तता और आलंकारिकता के बीच सन्तुलन बनाया और तारों से मूर्तियां बनाईं जैसे कि 'रोना जो किसी ने न सुना' (Cries Unheard)। मृणालिनी मुखर्जी के मामले में, जब वह काम करती हैं तो उनका झुकाव अमूर्तता की ओर अधिक होता है, जैसे कि उन्होंने सन के रेशे के अभिनव माध्यम को वंशरी में अपनाया।
6. बीरेन डी एवं जी.आर. संतोष और अमूर्तता:
कई भारतीय कलाकार और आलोचक उनकी आधुनिक कला की पश्चिम से नकल के बारे में चिंतित हुए और उन्होंने अपनी कला में एक भारतीय पहचान को स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की। 1960 के दशक में, बीरेन डी और जी.आर. संतोष दिल्ली गये तथा उन्होंने एक अद्वितीय भारतीय अमूर्त कला की रचना हेतु अतीत और स्थानीय कलात्मक परंपराओं की ओर रुख किया।
7. नवतांत्रिक कला:
अमूर्त कला शैली पहले पश्चिम में सफल हुई और बाद में भारत में तथा इसे 'नवतांत्रिक कला' कहा जाने लगा क्योंकि इसमें उन ज्यामितीय डिजाइनों का प्रयोग किया गया जो कि ध्यान या यंत्रों के लिए पारंपरिक आरेखों में देखा जाता है। ऐसा कार्य तब किया गया जब हिप्पी आन्दोलन पश्चिम में अपने चरम पर था। इस समय इसको एक तैयार बाजार मिला तथा आर्ट गैलरियाँ तथा ऐसे लोग जो यह कलाकृतियाँ खरीदते हैं (कलेक्टर), दोनों में इनकी माँग बढ़ी। इस शैली को भारतीयकृत अमूर्तन (Indianised abstraction) के रूप में भी देखा जा सकता है। बीरेन डी की कृतियों में रंग और पैटर्न के प्रयोग ने इसे और भी लुभावना बना दिया।
8. कलाकार जी.आर. संतोष एवं पणिकर के चित्र:
जी.आर. संतोष ने नर और मादा की ऊर्जा के ब्रह्माण्डीय मिलन की एक दृश्य भावना उत्पन्न की, जो हमें तांत्रिक दर्शनशास्त्र में पुरुष और प्रकृति की याद दिलाती है। दूसरी ओर, के.सी.एस. पणिकर ने आरेखों, लिपियों और चित्रलेखों का उपयोग किया जो उसने अपने क्षेत्र में देखे थे और उनमें से एक शैली विकसित हुई जो दोनों आधुनिक और अद्वितीय भारतीय थी। .
9. विभिन्न दर्शन ग्राह्यवादी कलाकार:
विभिन्न दर्शन ग्राह्यवाद (eclecticism), जिसमें एक कलाकार कई स्रोतों से विचार उधार लेता है, कई भारतीयों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बन गया, जो आधुनिकवादी थे, जिनमें से राम कुमार, सतीश गुजराल, ए. रामाचंद्रन और मीरा मुखर्जी कुछ उदाहरण हैं।
10. जे. स्वामीनाथन एवं अन्य कलाकार:
बॉम्बे प्रोग्रेसिव कला समूह के समय से, कलाकारों ने अपने स्वयं के घोषणा-पत्र या लेखन लिखना शुरू किया, जिसमें उन्होंने अपनी कला के मुख्य उद्देश्यों को घोषित किया। 1963 में जे. स्वामीनाथन के नेतृत्व में एक और समूह का गठन किया गया। इसका नाम 1890 रखा गया। स्वामीनाथन ने समूह के लिए घोषणापत्र भी लिखा, जिसमें कलाकारों ने किसी भी विचारधारा से मुक्त होने का दावा किया। एक निर्धारित कार्यक्रम की बजाय, उन्होंने कलाकृतियों में प्रयोग लाये जाने वाली सामग्री को एक नये तरीके से देखा तथा एक नई कलात्मक भाषा के रूप में अपने कार्यों में खुरदरी संरचना और सतह के महत्व के बारे में लिखा। इसमें शामिल कलाकार थे-गुलाम मोहम्मद शेख, ज्योति भट्ट, अंबादास, जेराम पटेल और शिल्पकार जैसे-राघव कनेरिया तथा हिम्मत शाह। यह एक अल्पकालिक आंदोलन था, लेकिन इसने कलाकारों की अगली पीढ़ी पर प्रभाव छोड़ा, जो कि मद्रास के पास चोलामंडलम स्कूल से जुड़े हुए थे।
→ आधुनिक भारतीय कला का पता लगाना (Tracing the Modern Indian Art):
1. आधुनिक भारतीय कला का प्रारम्भ:
आधुनिकतावाद एक कला आंदोलन के रूप में भारत में तब आया जब यहाँ ब्रिटिश शासन था। उस समय गगनेंद्रनाथ, अमृता शेरगिल तथा जैमिनी रॉय जैसे कलाकारों ने आधुनिकतावाद कला के क्षेत्र में प्रवेश किया, उन्हें 1930 की शुरुआत में आधुनिक माना जाने लगा था। पश्चिम में, विशेष रूप से यूरोप में, आधुनिक कला तब सामने आई जब कला अकादमियों में शैक्षिक यथार्थवाद को नकारा जाना प्रारम्भ हुआ। इन आधुनिक कलाकारों ने स्वयं को अग्रगामी के रूप में देखा अथवा परंपरा से आधुनिकता में परिवर्तन की सीमा पर खड़ा पाया।
2. आधुनिक कला के विकास में प्रौद्योगिकी का योगदान:
प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास के बाद जो औद्योगिक क्रांति के बाद सामने आया, पारम्परिक कला जिसके द्वारा चर्चा. और महलों को सजाया गया था, ने अपना अर्थ खो दिया। प्रारम्भिक आधुनिक फ्रांसीसी कलाकार जैसे-एडौर्ड मानेट, पॉल सेजेन, क्लॉड मोनेट तथा अन्य ने खुद को मुख्य कला संस्थानों के बाहर काम करते देखा। कैफे तथा रेस्तरां महत्वपूर्ण स्थान बन गए, जहाँ कलाकार, लेखक, फिल्म निर्माता तथा कवि मिल-बैठ कर आधुनिक जीवन में कला की भूमिका के बारे में चर्चा करते थे। भारत में कलाकार जैसे एफ.एन. सूजा और जे. स्वामीनाथन, जिन्होंने कला संस्थानों के विरुद्ध विद्रोह किया था, अपनी पहचान इन पश्चिमी कलाकारों के साथ करने लगे।
3. पश्चिम और आधुनिक कला में अन्तर:
एक बड़ा बदलाव भारतीय कला में इस तथ्य से आया कि आधुनिकता और उपनिवेशवाद (लोगों को गुलाम बनाना) यहाँ निकट और जुड़े हुए थे। राष्ट्रवाद केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था जो 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद उत्पन्न हुआ लेकिन उसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जन्म दिया।
4. कला में स्वदेशी का विचार:
कला में 19वीं सदी के अन्त और 20वीं सदी के प्रारम्भ में स्वदेशी जैसे विचार आनंद कुमारस्वामी जैसे कला इतिहासकारों द्वारा रखे गये थे। हम भारतीय आधुनिकतावाद को पश्चिम की अंधी नकल नहीं समझ सकते लेकिन यह एक सावधानीपूर्वक चुनाव की एक प्रक्रिया थी, जिसको भारत में आधुनिक कलाकारों द्वारा अपनाया गया।
5. भारतीय आधुनिक कला में राष्ट्रवाद:
उन्नीसवीं सदी के अन्त में कलकत्ता में अबनिंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में बंगाल स्कूल के उदय के साथ किस प्रकार कला में राष्ट्रवाद को खोजा जा सकता है। इसके बाद, कला भवन, शांतिनिकेतन में इसने एक अलग रूप. धारण कर लिया। नंदलाल बोस व असित कुमार हलदार जैसे कलाकार, जो कि अबनिंद्रनाथ टैगोर के विद्यार्थी थे, अजंता भित्तिचित्र तथा मुगल, राजस्थानी और पहाड़ी लघु चित्रों इत्यादि जैसी पिछली परंपराओं से प्रेरणा ले रहे थे।
6. भारतीय कला में विशिष्ट आधुनिक दृष्टिकोण:
गगेंद्रनाथ टैगोर, रवींद्रनाथ टैगोर, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल, रामकिंकर बैज तथा बिनोद बिहारी मुखर्जी जैसे कलाकारों के कारण हम कह सकते हैं कि भारतीय कला में एक विशिष्ट आधुनिक दृष्टिकोण अपना स्थान पाता है। आधुनिक भारतीय कला के बारे में ध्यान देने योग्य एक दिलचस्प तथ्य यह है कि चित्रकला और मूर्तिकला में विषयवस्तु काफी हद तक ग्रामीण भारत से ली गई है। 1940 तथा 1950 के दशकों में बम्बई प्रोग्रेसिव्स तथा कलकत्ता समूह का भी यही हाल था। भारतीय कलाकारों की कृतियों में शहर और शहरी जीवन विरले (बहुत कम) ही दिखाई देते हैं। शायद, यह महसूस किया गया कि असली भारत गाँवों में बसता है। 1940 तथा 1950 के दशकों के भारतीय कलाकारों ने शायद ही कभी तात्कालिकता को सांस्कृतिक परिवेश में देखा हो।
→ 1980 के दशक से नई आलंकारिक कला तथा आधुनिक कला (The New Figurative Art and Modern Art from 1980s):
→ न्यू मीडिया आर्ट : 1990 के दशक से (New Media Art : from 1990s):
→ आधुनिक भारतीय कला के कुछ प्रमुख चित्र
1. मध्यकालीन संतों का जीवन (The Lives of Medieval Saints):
2. मदर टेरेसा (Mother Teresa):
एम.एफ. हुसैन का 'मदर टेरेसा' का चित्र,जो एक संत जैसी थीं, 1980 के दशक का है। इस चित्र में इस तरह से रंग भरे गये हैं जो इस कलाकार का अपना ही एक अन्दाज है, जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला के लिए एक नई आलंकारिक भाषा का निर्माण किया। मुखहीन माँ की आकृति कई बार प्रकट होती है, हर बार वह अपने हाथों में बहुत ध्यान से एक बच्चे को पकड़े हुए है। चित्र में बीचोंबीच माँ की आकृति को बैठा दिखाया गया है तथा उसकी गोद में एक अच्छा बड़ा आदमी क्षैतिज रूप से लेटा हुआ है। इससे पता चलता है कि कलाकार की यूरोपीय कला, विशेष रूप से प्रसिद्ध इटली के मूर्तिकार पुनर्जागरण मास्टर माइकल एंजेलो की मूर्ति 'पिएटा' से परिचित था। दूसरी ओर, सपाट आकृतियों का चित्रण किया गया है, जो आधुनिक होने के भाव को स्पष्ट करता है। इस चित्र में आकृतियाँ कागज के एक कोलाज में जुड़े टुकड़ों जैसे दिखाई देती हैं। कलाकार को हमें मदर टेरेसा का. जीवन दिखाने में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन वह अपने सुझावों का इस्तेमाल करते हैं। कहानी की भावना को समझने के लिए हमें कलाकार द्वारा छोड़े गये सुरागों का पालन करना होगा। इस चित्र में एक ओर महिला की आकृति घुटने टेके हुए बैठी दिखाई गई है जो हमें संकेत देती है कि यह भारत में असहायों की देखभाल और उनके उपचार के बारे में एक कहानी है।
3. हल्दी पीसने वाली (Haldi Grinder):
अमृता शेरगिल ने 1940 में 'हल्दी पीसने वाली' नामक चित्र को चित्रित किया। यह वह समय था जब वह भारत के सुखद ग्रामीण दृश्य से प्रेरणा ग्रहण कर रही थीं। इसमें भारतीय महिलाओं का सूखी हल्दी पीसने की पारंपरिक गतिविधि में व्यस्त होने के दृश्य का चित्रण भारतीय शैली में किया गया है। उन्होंने इस चित्र को रंगने के लिए चमकीले, संतृप्त रंगों का इस्तेमाल किया। उन्होंने एक-दूसरे के करीब और रंगों के अनुसार आकृतियों के आकार बनाये हैं तथा ऐसे भी रंगों का प्रयोग किया है जो एक-दूसरे से दूर (Contrast) होते हैं अर्थात् Contrast रंगों का प्रयोग किया है। लेकिन चित्रों में बाहरी रेखा नहीं बनाई है। पेंटिंग की यह शैली हमें उत्तर भारत की बसोहली पेंटिंग की याद दिलाती है। महिलाओं और वृक्षों को सपाट आकृतियों के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा लगता है कि शेरगिल ने परिदृश्य में गहराई बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है तथा एक आधुनिक कलाकार के रूप में अर्ध-अमूर्त पैटर्न में उनकी दिलचस्पी दिखलाई पड़ती है।
4. पूर्वपल्ली से परी कथाएँ (Fairy Tales from Purvapalli):
यह ऐक्रेलिक पेपर पर पानी और तैल रंगों का उपयोग करके बनाया हुआ एक चित्र है जिसे 1986 में के.जी. सुब्रमण्यन ने बनाया था। चित्र का शीर्षक, उनके घर, जो पूर्वपल्ली में है, को संदर्भित करता है जो शांतिनिकेतन का एक इलाका है जहाँ से ऐसा लगता है कि उनकी कल्पना पूरी दुनिया में घूम रही है। चित्र के काल्पनिक भू-दृश्य में एक अजीब दुनिया है, जिसमें पक्षी और जानवर इंसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं तथा असामान्य वृक्ष हैं जहाँ पत्तियों के स्थान पर पंख उगते हैं। इस पेंटिंग की शैली स्केची है जिसमें आकृति को पेपर पर बनाया गया है और रंगों को ब्रश के हिलाने-डुलाने (स्ट्रोक) से जल्दी से लगाया जाता है । रंगों को मिलाने वाली तश्तरी में मिट्टी से मिलते-जुलते रंग हैं, जैसे-गेरुआ, हरा और भूरा। शीर्ष पर पुरुष और महिला की आकृतियाँ हमें कालीघाट चित्रों जैसी शहरी लोक कला की याद दिलाते हैं, जो उन्नीसवीं सदी के अन्त में औपनिवेशिक कलकत्ता में लोकप्रिय थीं। पारम्परिक लघु चित्रों की तरह आकृतियों को एक-दूसरे के पीछे की बजाय एक-दूसरे के ऊपर व्यवस्थित किया गया है, ताकि एक समतल जगह बन सके, आधुनिक कला का चिह्न है।
5. भँवर (Whirlpool):
यह भारत के प्रसिद्ध प्रिंटमेकर कृष्णा रेड्डी द्वारा 1963 में बनाया गया चित्र है। यह एक मनोरम रचना है जो नीले रंग के विभिन्न स्वरूपों से निर्मित है। इसमें एक शक्तिशाली वेब या जाल बनाने हेतु हर रंग दूसरे में मिलता है। यह प्रिंटमेकिंग में एक नई तकनीक का परिणाम है जो उन्होंने एक प्रसिद्ध प्रिंटमेकर, स्टेनली विलियम | हैटर के साथ 'एटेलियर 17' नामक एक प्रसिद्ध स्टूडियो में विकसित की थी। यह तरीका चिपचिपापन मुद्रण के रूप में जाना जाता है, जिसमें विभिन्न रंग एक ही धातु मुद्रण प्लेट पर प्रयुक्त होते हैं। प्रत्येक रंग विभिन्न सान्द्रता में अलसी के तेल में यह सुनिश्चित करने के लिए मिलाया जाता है कि रंग आपस में न मिलें। प्रिंट का विषय इस तकनीक पर आधारित है कि पानी और तेल परस्पर कैसे व्यवहार करते हैं । यह प्रसिद्ध प्रिंट मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट, न्यूयार्क, अमेरिका में संग्रहित है।
6. बच्चे (Children):
यह 1958 में सोमनाथ होरे (1921-2006) ने बनाई थी। यह कागज पर एक ग्राफिक प्रिंट है जिसमें एक ही रंग (मोनोक्रोमैटिक) की नक्काशी एक्वाटिंट के साथ की गई है। 1943 के बंगाल के अकाल के उन पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। इस नक्काशी में बच्चों के चित्र 1943 के अकाल के अनुभव से लिए गए हैं, जो उनकी स्मृति में अंकित थे। यह पाँच खड़ी आकृतियों के साथ एक घनिष्ठ रचना है जिसमें कोई पृष्ठभूमि, परिप्रेक्ष्य तथा आसपास की स्थिति नहीं है तथा आकृतियाँ जैसे खुद से बात कर रही हैं। आकृतियाँ पतली हैं, प्रत्येक एक विशाल मलेरिया प्लीहा के कंकाल धड़ और छाती की उभरी पसलियाँ लिए हुए है। एक छोटे चेहरे के साथ एक विशाल खोपड़ी लिए, पूरा शरीर दो छड़ी जैसे पैरों पर टिका हुआ दिखाई देता है। सीधी इशारों की मजबूत निश्चित रेखाएँ, जो वक्ष की प्रत्येक पसली तथा हर गाल की हड्डी गहरे घाव के रूप में प्रकट होती हैं। त्वचा के नीचे हड्डी की संरचना लोगों पर कुपोषण के प्रभाव को प्रस्तुत करती है। यह चित्र कथात्मक गुणवत्ता की रचना करता है तथा आकृतियों को विजुअल डाटा के समर्थन में रखता है। इस हेतु वह न्यूनीकरण और सरलीकरण विधि का प्रयोग करता है। ये बच्चे समाज के सबसे कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सोमनाथ होरे की कुछ अन्य कलाकृतियों में किसान की सभा, घायल पशु, बच्चा, माँ के साथ बच्चे, शोक करने वाले तथा बिना वस्त्रों के भिखारी परिवार शामिल हैं।
7. देवी (Devi):
8. दीवारों की (or Walls):
9. दक्षिण भारत के ग्रामीण पुरुष-स्त्री (Rural South Indian Man-Woman):
यह लक्ष्मा गौड (1940) द्वारा 2017 में कागज पर बनाया गया एक नक्काशीदार चित्र है। लक्ष्मा गौड एक अच्छे ड्राफ्ट्समैन और प्रिंटमेकर हैं। उन्होंने म्यूरल चित्र तथा प्रिंटमेकिंग का अध्ययन एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा में किया। वह अपने शिक्षक के.जी. सुब्रमण्यन के दृश्य परंपराओं, शास्त्रीय, लोक और लोकप्रिय संस्कृतियों के कथा विधा के प्रयोगों से प्रभावित हुए। उन्होंने प्रमुख और लघु कलाओं के बीच के तीखे सीमांकन को मिटाने की कोशिश की। इस प्रकार यह उन्हें भाषायी सांस प्रदान करता है। इसने उन्हें विभिन्न माध्यमों जैसेकांच की पेंटिंग, टेराकोटा और कांस्य के माध्यम से आगे बढ़ने में मदद की। इस नक्काशी में पुरुष-महिला को पृष्ठभूमि में पेड़ों के साथ दिखाया गया है। यह प्रकृति में डूबी हुई. उनकी बचपन की यादों पर आधारित है। इसका चित्रण एक ग्रामीण आदर्श की विशेषता के प्रोटोटाइप एक किसान आदमी और औरत के माध्यम से किया गया है। यथार्थवादी घटक अत्यधिक और अलंकृत रूप से ग्रामीणों की वास्तविक उपस्थिति का एक तत्व लाता है लेकिन यह उसे उदार शैलीकरण की ओर ले जाता है जो आकृतियों पर कठपुतली का स्पर्श लगाता है। यह प्रिंट रेखा-आधारित और रंगीन है। उनकी कुछ अन्य कलाकृतियाँ हैं-स्त्री, पुरुष, तुर्की का भूदृश्य, शीर्षक रहित, जियान चीन आदि।
10. श्रम की विजय (Triumph of Labour):
यह मूर्तिशिल्प खुली हवा में बड़े पैमाने पर बनाई गई कांस्य की मूर्ति है जिसका निर्माण देवी प्रसाद रॉय चौधरी (1899-1975) ने किया। 1959 में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इसे मरीना बीच, चेन्नई में स्थापित किया गया था। इसमें चार लोगों को एक चट्टान को हिलाने की कोशिश करते हुए दिखाया गया है तथा यह स्पष्ट किया गया कि देश को बनाने में मानव श्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस शिल्प में अजेय पुरुष हठपूर्वक तथा अनिश्चित और शक्तिशाली रूप में प्रकृति के साथ कुश्ती कर रहे हैं । यह प्रकृति के तत्त्वों के खिलाफ 19वीं सदी के जाने-पहचाने रोमांटिक विषय श्रम की एक छवि है। इस मूर्तिशिल्प में चौधरी ने कामगारों की मजबूत मांसलता तथा उनके उठे हुए मांस, नाड़ियों तथा हड्डियों को दिखाया है। उन्होंने एक विशाल, अचल चट्टान को ढीला करने के प्रयास का चित्रण किया है। मानव आकृतियों को इस तरह से स्थापित किया गया है कि उन्हें हर तरफ से देखने के लिए दर्शकों में एक आकर्षण पैदा होता है। सामूहिक श्रम की छवि को उस ऊँचे पद पर बिठाया गया है, जहाँ कभी राजाओं या ब्रिटिश गणमान्य व्यक्तियों के चित्र होते थे।
11. संथाल परिवार (Santhal Family):
यह खुली हवा में बड़े पैमाने पर बनाई गई मूर्ति है, जिसे 1937 में रामकिंकर बैज ने बनाया था। इसमें सीमेंट को छोटे पत्थरों के साथ मिलाया गया है तथा धातु के कवज की सहायता से उसे एक रूप दिया गया है, और इसे भारत के पहले कला स्कूल, कला भवन शांतिनिकेतन में रखा गया है। इसमें एक संथाल आदमी का दृश्य दिखाया गया है, जो अपने बच्चों को एक डंडे से बंधी दो टोकरी में लेकर जा रहा है और उसकी पत्नी और कुत्ता साथ चल रहे हैं। सम्भवतः इसमें यह बताया जा रहा है कि कैसे एक परिवार का पलायन एक जगह से दूसरे स्थान पर हो रहा है और वे अपने साथ जो थोड़ा-बहुत सामान है, लेकर जा रहे हैं। ग्रामीण परिदृश्य के बीच रहते हुए कलाकार के लिए यह दैनिक दृश्य होगा। हालांकि वह इसे स्मारकीय स्थिति प्रदान करता है। मूर्ति गोल बनाई गई है, ताकि हम इसे हर तरफ से देख सकें। इसे नीचे आसन पर रखा गया है जो हमें यह महसूस कराता है मानो कि हम उसी जगह का भाग हैं। इसका महत्त्व इसलिए है कि इसे भारत में पहली आधुनिकतावादी मूर्ति माना जाता है। जिस सामग्री से इसे बनाया गया है, वह महत्त्वपूर्ण है । कलाकार ने संगमरमर, लकड़ी या पत्थर जैसे पारम्परिक माध्यम से परहेज किया है और आधुनिकीकरण के प्रतीक सीमेंट को प्राथमिकता दी है।
12. अनसुना रोना (Cries Un-heard):
यह अमरनाथ सहगल द्वारा 1958 में बनाई गई कांसे की मूर्ति है। कलाकार ने इस मूर्तिशिल्प में अमूर्त का उपयोग किया है, जिसमें तीन आकृतियाँ छड़ी की तरह हैं और उन्हें समतल लयबद्ध दिखाया गया है। फिर भी उन्हें एक परिवार के रूप में समझना आसान है-पति, पत्नी और बच्चा। उन्हें अपनी बाँहों को ऊपर की ओर उछालते और व्यर्थ में मदद के लिए चिल्लाते हुए दिखाया गया है। मूर्तिकला के माध्यम से हाथ के इशारे से व्यक्त उनकी बेबसी एक स्थायी आकार में बदल जाती है। हमारे लिए इस काम को एक समाजवादी के रूप में पढ़ना सम्भव है, जिससे कलाकार लाखों बेसहारा परिवारों को श्रद्धांजलि देता है जिन्हें मदद की जरूरत है परन्तु जिनका रोना बहरे कानों पर पड़ता है। इस काम के बारे में समाजवादी कवि मुल्कराज आनन्द के अलावा
आँखों में आँसू लाने वाला लेख किसी ने नहीं लिखा है। यह शिल्प अब नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, नई दिल्ली में संग्रहित है।
13. गणेश (Ganesha):
यह ऑक्सीकृत तांबे से बनी गणेश की एक मूर्ति है, जिसे पी.वी. जानकीराम ने 1970 में बनाया। यह अब एन.जी.एम.ए. के संग्रह में है जो दिल्ली में स्थित है । उन्होंने इसे बनाने के लिए ताँबे की चादरों का इस्तेमाल किया है जो कि मुक्त खड़े रूपों में है तथा रैखिक तत्वों के साथ उसकी सतह को अलंकृत किया गया है। इसे बनाने के लिए धातु की चादरों को अवतल रूप में पीटा गया है और उसके ऊपर रैखिक विवरणों को आग के द्वारा जोड़ा (वेल्ड किया) गया है । इसके रैखिक तत्व चेहरे की विशेषताओं और सजावटी रूपांकनों के रूप में काम करते हैं तथा अंतरंग चिंतन को आमंत्रित करते हुए धार्मिक चिह्नों जैसे लगते हैं ।
दक्षिण भारत की प्राचीन मन्दिर मूर्तिकला से प्रभावित होकर गढ़ी गई गणेश की प्रतिमा गुफा और मन्दिर का एक महत्त्वपूर्ण स्वदेशी चरित्र प्रस्तुत करती है। इस मूर्ति में गणेशजी एक संगीत का एक उपकरण वीणा बजा रहे हैं। मूर्ति और सामग्री का सम्मिश्रण तकनीकी समिश्रण है। फिर भी, उसकी सतर्क कारीगरी को प्रकट करता है। उन्होंने स्वदेशी कारीगरी की गुणवत्ता का 'खुलेपन' के साथ भी प्रयोग किया है। गणेश उनकी पारंपरिक कल्पना के बारे में उनकी समझ को प्रकट करता है। यह समग्र रूप में विस्तृत रैखिक विवरण प्रस्तुत करता है। यह मूर्तिशिल्प त्रि-आयामिता पर जोर देने के स्थान पर, इसके आयतन के बावजूद रैखिक रूपरेखा की शब्दावली में सविस्तार प्रकट होता है। ताल और विकास को गीतात्मक शैलीकरण के माध्यम से शामिल किया गया है। यह लोक तथा पारम्परिक शिल्प कौशल का मिश्रण है।
14. वंशरी (Vanshri):
इस कलाकृति को मृणालिनी मुखर्जी ने 1994 में बनाया था। वह इस मूर्ति को बनाने के लिए एक असामान्य सामग्री का उपयोग करती है। वह 1970 के दशक के शुरुआत में सन के रेशों का उपयोग करती हैं, एक ऐसा माध्यम जिसका उन्होंने प्रयोग किया। प्रारम्भ में जटिल रास्ते से चलते हुए उन्होंने गाँठे बाँधकर जूट रेशों से एक जटिल आकार को बुन करके बनाया। ऐसा लगता है कि यह नई सामग्री को संभालने का वर्षों का परिणाम है। कई वर्षों तक उनके इन कार्यों को शिल्प की दृष्टि से खारिज कर दिया गया था लेकिन हाल ही में उनके रेशों की बनी हुई चीजों में लोगों को उनकी मौलिकता तथा कल्पना की 'निर्भीकता ने बहुत आकर्षित किया है। 'वंशरी' कलाकृति का मूर्तिशिल्प एक देवी का मूर्तिशिल्प है। वंशरी जंगल की देवी है, जो इस साधारण सामग्री को एक स्मारकीय रूप में बदल देती है। अगर हम आकृति के शरीर को ध्यान से देखें ,तो हम देख सकते हैं कि इसमें एक आन्तरिक अभिव्यक्ति है और उभरे हुए होंठ वाला चेहरा है और सबसे ऊपर प्राकृतिक देवत्व की एक शक्तिशाली उपस्थिति है।