These comprehensive RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 3 मुगल लघु चित्र शैली will give a brief overview of all the concepts.
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→ मुगल चित्रकला का प्रारम्भिक परिचय:
→ मुगल चित्रकला पर प्रभाव (Influences on Mughal Painting):
(i) फारस एवं यूरोप का प्रभाव-लघु चित्रकला की मुगल शैली फारसी व बाद के यूरोपीय विषयों व शैलियों के साथ-साथ स्वदेशी विषयों व शैलियों के एकीकरण हेतु उत्तरदायी थी। इस काल की कला विदेशी प्रभाव एवं स्वदेशी रुचि के संश्लेषण को प्रतिबिम्बित करती है। मुगल चित्रकला का चरम स्तर इस्लामिक, हिन्दू व यूरोपियन दृश्य सौन्दर्य एवं संस्कृति का परिष्कृत मिश्रण है। इस विविध लेकिन समावेशी प्रकृति को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस काल में निर्मित कलाकृतियों की समृद्धि तत्कालीन परम्परागत एवं स्वदेशी भारतीय व ईरानी चित्रों से अधिक थी। इस शैली की महत्ता इसके संरक्षकों के उद्देश्य एवं प्रयासों तथा इसके कलाकारों की अदम्य क्षमता कौशल में निहित है। उन्होंने एक साथ सभी रुचियों, दर्शन और विश्वासों के समूह की परिकल्पना अपनी असाधारण दृश्य भाषा के माध्यम से किया है एवं व्यक्त किया है।
(ii) ईरान का प्रभाव-मुगल दरबारों में, कला बहुत औपचारिक हो गई थी क्योंकि अब यहाँ कलाशालाएँ थीं और बहुत सारे कलाकारों को ईरान से लाया गया था, जो कि भारतीय एवं ईरानी शैली के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण का परिणाम था, यह कार्य विशेषतः प्रारम्भिक वर्षों में हुआ था। मुगल कला में यह प्रसिद्धि केवल इसके विशिष्ट लक्षण के कारण हुई जिसने भारतीय एवं ईरानी कलाकारों को एकजुट किया एवं कला के कार्य में संलग्न किया। जिन्होंने मुगल शैली के कलात्मक प्रतिमानों के निर्माण एवं आगामी कलाकृति के आदर्शों को ऊँचा उठाने में योगदान किया था।
मुगल चित्रशाला में सुलेखक (calligraphers), चित्रकार, मुलमची (gilders) और जिल्दसाज शामिल थे। चित्रों में महत्त्वपूर्ण घटनाओं, शासकों के व्यक्तित्व और रुचियों का लेखा-जोखा एवं आलेख किया जाता था। यह केवल शाही लोगों द्वारा देखने के उद्देश्य से बनते थे। शाही लोगों की संवेदनाओं एवं बुद्धिमान लोगों की उत्सुकताओं के अनुकूल इन चित्रों का निर्माण किया जाता था। ये चित्र पाण्डुलिपियों एवं एलबम के भाग होते थे।
(iii) भारतीय स्वदेशी शैलियों का प्रभाव-कला और चित्र बनाने की परम्परा भारत के इतिहास में गहरी जड़ें रखती है। भारतीय इतिहास में कला एवं चित्र निर्माण की परम्परा प्राचीन काल से विद्यमान रही है। चित्रकला की प्रसिद्ध मुगल शैली का भारत भूमि पर विकास अन्य विभिन्न शैलियों के प्रभाव एवं सम्मिश्रण का परिणाम है। मुगल शैली को प्रभावित करने वाली शैलियों में भारतीय स्वदेशी, फारस की मुगल पूर्व एवं समकालीन कला शैलियाँ शामिल थीं। मुगल चित्रकला शैली ने पहले से विद्यमान कला के अन्य रूपों एवं शैलियों से प्रत्यक्ष अन्तक्रिया (परस्पर क्रिया) करके स्वयं का विकास किया। भारतीय स्वदेशी एवं मुगल चित्र शैली ने साथ-साथ विकास किया। इन दोनों शैलियों ने विभिन्न प्रभावों और विशेषताओं को भिन्न प्रकार से अपनाया। प्रसिद्ध मुगल मुहावरा जो भारतीय धरती पर विकसित हुआ, उसे उन विभिन्न शैलियों की अन्तक्रिया के परिणाम के रूप में समझा जाना चाहिए, जिनमें भारत तथा फारस के मुगल पूर्व एवं समकालीन कला शैलियाँ शामिल थीं। इसने कला के अन्य रूपों एवं शैलियों से सीधी अन्तःक्रिया करके अपना पालन-पोषण किया जो पहले से ही विद्यमान थे। भारतीय स्वदेशी एवं मुगल चित्र शैली एक साथ सहअस्तित्व में रहीं। इन दोनों शैलियों ने विभिन्न प्रभावों और देशी प्रतिभाओं को अलग-अलग तरीकों से आत्मसात किया।
भारत में मुगलों से पूर्व एवं समकालीन स्वदेशी शैलियों के चित्रों का शक्तिशाली विशिष्ट अंदाज, सौन्दर्य बोध एवं उद्देश्य था। भारतीय स्वदेशी शैली ने समान दृष्टिकोण, रेखाओं के प्रभावी उपयोग, जीवंत रंग पटिया (Palette) और आकृतियों के स्पष्ट एवं स्थापत्य कला के बड़े स्वरूप पर जोर दिया। मुगल शैली ने सूक्ष्मता | एवं चतुरता दर्शाया, लगभग त्रिआयामी आकृतियों को चित्रित किया एवं स्पष्ट दिखने वाली वास्तविक रचना की। शाही दरबार के दृश्य, चित्र, वनस्पति एवं वन्य जीवों के चित्रण इत्यादि मुगल कलाकारों की पसन्दीदा विषय-वस्तु रही थी। इस तरह से, मुगल चित्रकला ने उस समय की भारतीय कलाओं में एक नई शैली और परिष्कार का सूत्रपात किया।
मुगल संरक्षकों ने मुगल शैली के चित्रों के प्रसार में योगदान दिया, जिनमें उनकी विशेष कलात्मक प्राथमिकताएँ, विषय का चुनाव, दर्शन एवं सौन्दर्य की संवेदनाएँ शामिल थीं। इस अध्याय के आगामी भाग में हम मुगल लघु शैली के चित्रों के क्रमानुसार विकास के बारे में जानेंगे।
→ प्रारम्भिक मुगल चित्रकला (Early Mughal Painting):
(1) बाबर के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
(2) हुमायूँ के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
(3) अकबर के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
हुमायूं द्वारा प्रारम्भ की गई चित्रकला की परम्परा एवं आकर्षण उसके प्रसिद्ध पुत्र अकबर (1556-1605) द्वारा आगे ले जाए गए। अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल फजल अकबर के गहरे कलाप्रेम के बारे में लिखता है। उसने लिखा है कि शाही कलाशाला में सौ से अधिक कलाकार नियुक्त थे। इसमें स्वदेशी भारतीय कलाकार एवं कुशल फारसी कलाकार शामिल थे। भारत-फारसी कलाकारों के इस एकीकृत रचना ने इस काल में विशिष्ट शैली का विकास किया था। इन कलाकारों ने साथ में मिलकर महत्त्वाकांक्षी कार्यों का विकास किया जिन्होंने नवीन कलात्मक मानकों को दृश्य भाषा एवं विषय के सन्दर्भ में स्थापित किया था। अकबर को वाकविकार (dyslexia) नामक बीमारी थी जिससे उसे पढ़ने में दिक्कत आती थी। उसने पाण्डुलिपि के चित्रण पर खास जोर दिया था। उसके संरक्षण में अनुवाद एवं पाण्डुलिपि चित्रण के कई मौलिक कार्यों को किया गया था।
हमज़ानामा की कहानियाँ और उसमें चित्रित चित्र-अकबर के प्रारम्भिक कार्यों में सबसे पहले उसके पिता से प्राप्त हमज़ानामा की कलात्मक विरासत की निरन्तरता है, जिसमें हमजा के साहसिक कार्यों का चित्रण किया गया था जो कि पैगम्बर मुहम्मद का चाचा था। अकबर को हमजा की कहानियाँ सुनने में आनन्द आता था, हमजा मध्य पूर्व के लोकप्रिय और बौद्धिक हलकों (circles) में बहुत पसंद किया जाने वाला चरित्र था। हमजा की कहानियाँ व्यावसायिक कथाकारों द्वारा जोर से पढ़ी जाती थीं। उसी समय सम्बन्धित पन्नों (folios) एवं हमज़ानामा का चित्रण स्पष्ट दृष्टिकोण के लिए आयोजित किया गया। सम्राट को हमज़ानामा की चित्रकथा एवं सस्वर पाठ में गहरी रुचि थी। इन चित्रों के विशिष्ट कार्य के कारण, इनका स्वरूप बड़ा है। इसकी आधार सतह कपड़ा था जिसके पीछे कागज लगा था, जिस पर विवरणात्मक लेख लिखा था ताकि कथाकार की सहायता की जा सके तथा ग्वाशे (gouache) तकनीक प्रयुक्त की गई है, जो कि जल-आधारित है तथा निष्प्रभ (opaque) रंगों में बनी है।
मुगल चित्रकला कलाकारों के एक समूह का सामूहिक कार्य था, जो कि विभिन्न कलात्मक परम्पराओं से प्रेरित हो सकती है । तात्कालिक प्राकृतिक आस-पास के क्षेत्र वनस्पति एवं पशु-पक्षियों के चित्रों के स्रोत बन गए थे, जहाँ से उन्हें प्राप्त कर चित्रित किया जाता था। हमज़ानामा के चित्रांकित पन्ने (folios) सारे संसार में फैले थे एवं विभिन्न संग्रहों में संकलित थे। यह अभिलेखित है कि इसके 40 अंक तथा 1400 चित्र थे एवं इसे पूर्ण होने में करीब 15 वर्ष लगे थे। इस शानदार परियोजना की सुझावात्मक तिथि 1567-1582 है एवं इसे मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद नामक फारसी कलाकारों के पर्यवेक्षण में पूर्ण किया गया।
हमज़ानामा का चित्र 'कैमर शहर पर जासूसों का आक्रमण' (1567-82):
इस चित्र में, स्थान को इस तेजी से काटा और बांटा गया है कि कथा के दृश्य को सुविधाजनक रूप से पढ़ा जा सके। जीवंत रंगों का अधिक प्रयोग यहाँ किया गया है जिससे कि कहानी के प्रकटीकरण को सक्रिय किया जा सके, जहाँ पर हमजा के जासूस कैमर शहर पर आक्रमण करते हैं। एक दृढ़ बाहरी रेखा पत्तों (foliage) एवं अन्य रूपों को परिभाषित करती है। चेहरे बड़े पैमाने पर पार्श्वचित्र में दिख रहे हैं । यद्यपि, तीन-चौथाई चेहरों को भी दिखाया गया है। फर्श, | कॉलम एवं मंडप पर समृद्ध जटिल पैटर्न के स्रोत फारसी हैं, उसी प्रकार से चार अंगों वाले जानवर एवं चट्टानें
भी वहीं की हैं। वृक्ष एवं लताएँ भारतीय स्रोत से हैं उसी तरह शुद्ध पीले, लाल एवं भूरे रंग की उन्नत पटिया (Palette) का प्रयोग भी भारतीय है।
→ हिन्दू ग्रन्थ-महाभारत एवं रामायण का फारसी में अनुवाद एवं चित्रण:
अकबर ने सांस्कृतिक एकीकरण की कल्पना की एवं कई सम्मानजनक हिन्दू ग्रन्थों के अनुवाद को आगे बढ़ाया। उसने सम्मानजनक संस्कृत के ग्रन्थों का अनुवाद एवं चित्रण को फारसी में करवाया। फारसी में हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुवाद एवं चित्रण को इस काल में रज्मनामा के नाम से जाना जाता है। इसे 1589 में मुख्य कलाकार दसवंत के पर्यवेक्षण में पूर्ण किया गया था। यह पाण्डुलिपि अलंकृत सुलेख में लिखी गई जिसमें 169 चित्र हैं। इसी समय के दौरान रामायण का भी अनुवाद एवं चित्रांकन किया गया था। गोवर्धन एवं मिस्किन जैसे कलाकार दरबार के दृश्यों के लिए प्रसिद्ध थे।
अकबर स्वयं कलाकारों के साथ व्यस्त होता एवं कला के कार्य का निरीक्षण एवं मूल्यांकन करता था। अकबर के संरक्षण में मुगल चित्रकला विभिन्न विषयों को दर्शाती थी जिसमें व्यापक राजनैतिक अभियान, मौलिक दरबार के दृश्य, लौकिक ग्रन्थ, हिन्दू गाथाओं के साथ महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के चित्र और फारसी एवं इस्लामिक विषयवस्तु शामिल थे। अकबर का भारतीय धर्मग्रन्थों के प्रति आकर्षण एवं भारत के प्रति सम्मान ने उसे देश का सबसे प्रसिद्ध सम्राट बनाया।
→ अकबरनामा, एक असाधारण पाण्डुलिपि जिसमें अकबर के राजनैतिक एवं व्यक्तिगत जीवन का विस्तृत विवरण है, अकबर द्वारा शुरू किया गया सबसे महंगा कार्य है।
→ मैडोना एवं बच्चे का चित्र (1580):
बहुत से चित्रों में जो उस समय उत्पादित किए गये थे जब यूरोप के लोग अकबर दरबार के सम्पर्क में थे, हम इनमें प्रकृतिवाद के प्रति बढ़ती हुई प्राथमिकता को देख सकते हैं जिसमें मध्यकालीन भारत में बढ़ती अनेकता को लिया गया था। इस सन्दर्भ में, मैडोना एवं बच्चा (1580) अस्पष्ट पानी के रंग में कागज पर बनाया गया मुगल शैली चित्रकला का एक महत्त्वपूर्ण चित्र है। यहाँ मैडोना एक असाधारण विषय है जो कि बीजान्टिन कला से ली गई है जो कि मुगल कलाशाला में यूरोपियन शास्त्रीय और उसकी पुनर्जागरण कला है, जहाँ पर इसका अनुवाद एवं परिवर्तन पूर्णतः अलग दृश्य अनुभव पर आधारित है। कुँवारी मैरी को प्रतिष्ठित तरीके से वस्त्रों में लपेटा गया है। माता एवं बच्चे के मध्य प्रदर्शित जुड़ाव यूरोपीय पुनर्जागरण कला के मानवतावादी व्याख्या से प्रेरित है। बालक का शरीर, कुछ निश्चित विवरण जैसे पंखा, आभूषण आदि पूर्णतया भारतीय परिवेश से गूंथे हुए हैं।
अकबर की कला में रुचि से प्रेरित होकर, कई उप-शाही दरबारों ने इस उत्साह को अपनाया एवं कला के कई महान कार्यों को उच्चवर्गीय परिवारों हेतु उत्पादित किया गया था। जिन्होंने मुगल दरबारी कलाशालाओं की नकल करने का प्रयास किया और ऐसे कार्यों को उत्पादित किया जो कि क्षेत्रीय पद्धति में विशिष्ट विषयों और दृश्य प्राथमिकताओं को प्रस्तुत करते हैं।
(4) जहाँगीर के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
अकबर की कलाशाला, जहाँ पर कार्यों का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था, के विरोधाभास में, जहाँगीर की कलाशाला ने कम संख्या में और एकल मुख्य कलाकार द्वारा निर्मित कलाकृतियों की बेहतर गुणवत्ता को प्राथमिकता दी। मुरक्का के व्यक्तिक चित्र जिन्हें एलबम में लगाया गया था, वे जहाँगीर के संरक्षण में प्रसिद्ध हो गये थे। चित्रों के हाशिये को बेहतर ढंग से स्वर्ण से एवं वनस्पति, पशु-पक्षी एवं प्रायः संतुलित मानवीय आकृतियों से अलंकृत किया गया था। युद्ध के दृश्य, चित्र, कथाएँ एवं कहानी कहने की कला अकबर की शैली में विद्यमान थी, उन्हें महीन विवरण एवं शुद्धता से शाही दरबारी दृश्यों, उच्च वर्गों, शाही व्यक्तित्वों एवं चरित्र की विशेषताओं तथा विशिष्ट पशु-पक्षी एवं वनस्पतियों के चित्रण द्वारा पछाड़ दिया गया।
जहाँगीर को चित्र एवं सजावटी वस्तुएँ भेंट की जाती थीं जिसमें यूरोप की उच्च कला का चित्रण किया गया होता था, जो कि उन यूरोपियन की ओर से उपहार होती थीं जो उसके दरबार में आया करते थे। अंग्रेजी ताज (Crown) से जहाँगीर का सम्पर्क होने से, उसके यूरोपीय कला और विषयवस्तु हेतु आकर्षण ने उसे प्रेरित किया कि वह अपने संग्रह में इस तरह की कलाकृतियों को और अधिक संकलित करे। बहुत सारी प्रसिद्ध धार्मिक ईसाई विषयवस्तुएँ जहाँगीर के शाही कलाशाला में बनाई गई थीं। इस सांस्कृतिक एवं कलात्मक प्रदर्शन को देखते हुए, यूरोपियन कला संवेदनाओं ने प्रचलित भारत-ईरानी शैली में अपना मार्ग बनाया। इस प्रकार से, जहाँगीर की कला शैली. और अधिक प्रभावी व जीवन्त बन गयी। रचना की स्थानिक गहराई और जीवन का प्राकृतिक प्रतिनिधित्व संवेदनशील संरक्षक द्वारा अपने जीवनकाल में निर्मित उच्च विशिष्टता को झलकाता है। मुगल कलाशाला के कलाकारों ने रचनात्मक रूप से तीन शैलियों को आत्मसात किया-जो कि स्वदेशी, फारसी एवं यूरोपियन थी, उन्होंने मुगल कला शैली को अपने समय की जीवन्त शैलियों का पिघलता हुआ पात्र (Pot) बनाया जो कि अपने आप में बहुत विशिष्ट था।
→ जहाँगीरनामा में चित्रित चित्र 'जहाँगीर दरबार में' (1620):
जहाँगीरनामा में चित्रित चित्र 'जहाँगीर दरबार में', जो कि अबुल हसन एवं मनोहर (1620) द्वारा निर्मित श्रेष्ठ चित्र है। जहाँगीर केन्द्र में अपने उच्चतम स्तर पर है, जहाँ पर आँखें तुरन्त ही उसकी बेल-बूटेदार चौखटे (frame) से स्पष्ट चमकीले रंगों से घिरे अद्भुत सफेद खम्भों तथा शानदार ढंग से तैयार ऊपरी छत की ओर घूम जाती हैं। दाईं ओर, खुर्रम अपने हाथों को बाँधकर सेवा में खड़ा है जो कि अपने पुत्र शुजा से घिरा हुआ है। शुजा मुमताज महल का बेटा है, जो कि दरबार में नूरजहाँ के द्वारा पाला-पोषा गया था। दरबारी अपने पद के अनुसार खड़े हैं उन्हें सरलता से पहचाना जा सकता है क्योंकि उनका चित्र उत्तम एवं वास्तविक है। एक ईसाई (Jesuit) पादरी फादर कोरसी जिसका नाम वहाँ लिखा है जो सरलता से पहचानने में सहायक है कि वह अन्य भद्र व्यक्तियों के साथ दर्शकों के मध्य खड़ा है। हाथी और घोड़े इस घटना की उत्सवी महत्ता बढ़ा रहे हैं एवं जहांगीर को सलाम करने के लिए हाथ उठे हैं तथा सिर झुके हुए हैं।
→ चित्रकार अबुल हसन द्वारा चित्रित चित्र 'जहाँगीर का सपना' (1618-22):
'जहाँगीर का सपना' (1618-22) चित्र को अबुल हसन द्वारा बनाया गया, उसे 'नादिर अल जमन' की उपाधि दी गई, जिसका अर्थ 'युग का आश्चर्य' है। यह चित्र सम्राट के सपनों को बताता है जिसमें फारसी सफाविद सम्राट शाह अब्बास जहाँगीर से मिलता है जो कि उसका प्रतिद्वंद्वी था, जिसके पास कन्धार का प्रान्त था जिसे जहाँगीर ने बहुत चाहा था। इसे एक अच्छा प्रतीक मानकर, उसने दरबारी कलाकार अबुल हसन को उसके सपने का चित्र बनाने के लिए कहा। इस चित्र में, राजनैतिक कल्पना खत्म हो जाती है एवं जहाँगीर की उपस्थिति रचना पर हावी रहती है। फारसी शाह कमजोर और भेद्य (vulnerable) दिखाई देता है क्योंकि जहाँगीर ने उसे गले लगा लिया है। दोनों सम्राट एक ग्लोब (Globe) पर खड़े हैं और उनके बीच, वे भारत और मध्य पूर्व के अधिकांश भाग पर मँडराते (hover) हैं। दो जानवर शान्ति से सो रहे हैं । यद्यपि, इसके चित्रण का प्रतीक दर्शक से नहीं बचता है । शक्तिशाली शेर जिस पर जहाँगीर खड़ा है एवं विनम्र (docile) भेड़ जिस पर फारसी शाह खड़ा है, वे दो पंखों वाले स्वर्गदूतों द्वारा धारण किए गए सूर्य और चन्द्रमा के एक शानदार देदीप्यमान (resplendent) सुनहरे प्रभामण्डल (halo) को साझा करते हुए मुगल दरबार में आने वाली यूरोपीय कला रूपांकनों (motifs) और छवियों से प्रेरित होने का संकेत देते हैं।
→ चित्रकार बिचित्र द्वारा चित्रित चित्र जहाँगीर समय बिताने वाले यंत्र पर बैठा है:
चित्र में, 'जहाँगीर समय बताने वाले यंत्र पर बैठा है' (1625), दरबारी चित्रकार 'बिचित्र' द्वारा यह चित्र प्रतीकात्मक बनाया गया है, जो सम्राट के दाहिनी तरफ कोने में अपने हाथ में एक चित्र लिए खड़ा दिखाई देता है। उसके हाथ में जो चित्र है, वह शक्तिशाली सम्राट को उसकी भेंट हो सकती है। फारसी सुलेख से ऊपर और नीचे को सजाया गया है, जो पद्य (verse) में यह कहते हैं कि इस संसार के सभी शाह उसके सामने खड़े हो सकते हैं क्योंकि जहांगीर संसार के दरवेशों (dervishes) को प्राथमिकता देता है। चित्र में प्रतीत होता है कि तुर्क (Ottomon) सुल्तान, इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम भी शक्तिशाली सम्राट के लिए उपहार लेकर दाहिनी ओर खड़े हैं। जहांगीर चिश्ती धर्मस्थल के शेख हुसैन को एक पुस्तक देता है, जो कि शेख सलीम का वशंज है जिसके सम्मान में अकबर ने अपने बेटे का नाम सलीम रखा था।
(5) शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
(6) दाराशिकोह के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
शाहजहाँ का वैध उत्तराधिकारी, उसका पुत्र दाराशिकोह था जो कि साम्राज्य एवं जीवन को अंगीकृत नहीं कर सका। एक उदार अपरम्परागत मुगल के रूप में दारा की सूफी धर्मवाद से प्रतिबद्धता रही एवं उसकी वेदान्तिक शैली की विचारधारा में गहरी रुचि थी। असाधारण चित्र 'दारा शिकोह साधुओं के साथ बगीचे में' (1635) में उसके व्यक्तित्व को अमरता प्रदान की गई थी। अपने लोगों का प्रिय, दारा विद्वान था, जो बहुत सारी भाषाओं को जानता था जिनमें संस्कृत भी शामिल थी वह यहाँ केन्द्रीय विषय रही है। एक कवि और कला मित्र होने के नाते उसने चित्रों के एक विशेष एलबम को अपनी पत्नी को भेंट देने के लिए नियोजित किया था। दुर्भाग्य से, दारा साहित्य एवं दर्शन में अपनी गहरी रुचि के कारण, लोगों द्वारा गलत तरीके से व्यक्त किया गया कि उसका व्यक्तित्व राजनैतिक प्रशासन में दक्षता की कमी रखता है। दारा, बाहरी स्वरूप में अपने भाई औरंगजेब के विपरीत दिखाई देता था, वह उदारवादी, दार्शनिक एवं वैचारिक मुद्दों और मतभेदों के प्रति अपनी समझ को समाहित कर लेता था।
(7) औरंगजेब के शासनकाल में मुगल चित्रकला का विकास:
→ बाद में मुगल चित्रकला (Later Mughal Painting):
उत्कट संरक्षण में निरन्तर गिरावट के कारण, उच्च कौशल प्राप्त मुगल कलाकारों ने कलाशाला छोड़ दिया एवं उनका प्रान्तीय मुगल शासकों द्वारा सम्मान किया गया। इन शासकों ने मुगलिया शाही तरीकों की नकल की एवं वे चित्रों में अपने वंश एवं दरबार की घटनाओं की आभा को पुनर्निर्मित करवाना चाहते थे। यद्यपि कुछ कृतियाँ मुहम्मद शाह रंगीला, शाह आलम द्वितीय और बहादुर शाह जफर के काल में निर्मित की गईं, फिर भी ये मुगल लघु-चित्रकला की मोमबत्ती में फड़फड़ाती हुई अन्तिम लौ मात्र ही रहीं। बहादुर शाह जफर चित्र 1838 में उसे बर्मा हेतु ब्रिटिश सरकार द्वारा निष्कासित करने के दो दशकों पूर्व ही बनाई गई थी। ब्रिटिश यह देख रहे थे कि मुगल शासकों का कोई भी दावेदार दिल्ली या उसके नजदीक नहीं रहे जिससे कि वे अपने शासन का दावा कर सकें, जब 1857 की भारतीय क्रान्ति असफल रही थी। वह अन्तिम मुगल शासक था, जो कवि, विद्वान एवं कलाप्रेमी भी था।
नया राजनैतिक वातावरण, अस्थिर क्षेत्रीय राज्य और अंग्रेजों के आधिपत्य के खतरे ने भारत का कला परिदृश्य पुनः बदल दिया। चित्रकार बदलते संरक्षकों के अनुसार पनपने लगे, उनके सौन्दर्य बोध की समझ, विषयवस्तु के चयन और दृश्य भाषा के अनुसार समृद्ध होने लगे। उसी समय मुगल लघुचित्र शैली प्रांतीय एवं कम्पनी शैली के अनुसार अन्य तरीकों में बदलने लगी।
→ मुगल चित्रकला की प्रक्रिया (Process of Mughal Painting):
अधिकांश चित्र जो कि हम मुगल लघु चित्रों के रूप में देखते हैं, वे पाण्डुलिपियों एवं शाही एलबम के | भाग थे, जिसमें दृश्य तथा पाठ हेतु दिए गए प्रारूप में स्थान बँटे होते हैं। पुस्तक चित्र निर्माण हेतु निम्न प्रक्रिया का अनुसरण किया गया। हाथ से बने कागज की शीटें बनाई गईं एवं पाण्डुलिपि के आकार के अनुसार इन्हें काटा गया। एक खास जगह कलाकार के लिए छोड़ी गई जिसे उचित दृश्य रचना द्वारा भरा जाना है। तब, पृष्ठों पर लकीरें खींची गईं तथा उन्हें शब्दों से भरा गया। जब एक बार पाठ लिख दिए गए तो उन्हें चित्रकार को दिया गया जो कि पाठ का प्रतिनिधित्व करने वाले संयुक्त दृश्यों की रचना करेगा। चित्रकार रचना बनाने के चरण से प्रारम्भ करेगा, जैसे-तड़ (tarh), और पोर्टेट 'चिहरनामा' से होते हुए रंग करने के अन्तिम चरण 'रंगमीजी' तक काम करेगा।
→ मुगल चित्रकला के रंग एवं तकनीकी (Colours and Technique of Mughal Painting):
→ मुगलकालीन शैली के कुछ प्रमुख चित्र
(1) नोआ की नाव (Noah's Ark):
(2) कृष्ण का गोवर्धन पर्वत उठाना (Krishna Lifts.Mount Govardhan):
कृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाना जो कि विछिन्न हरिवंश पुराण से सम्बन्धित है एवं इसके चित्रण का श्रेय मिस्किन (1585-90) को दिया जाता है। यह न्यूयार्क, यूएसए के मेट्रोपोलिटन कला संग्रहालय के संग्रह में है। हरिवंश पुराण संस्कृत के कई हस्तलिपियों में से एक है, जिसका मुगलों ने फारसी में अनुवाद करवाया था। यह चित्र हरिवंश के एक विषय पर आधारित है। अकबर के दरबार में बदायूनी नामक विद्वान था जिसे भगवान कृष्ण पर आधारित इस ग्रंथ को फारसी में अनुवाद का कार्य दिया गया था। यह ध्यान देना रुचिकर है कि बदायूनी अपने धार्मिक दृष्टिकोण की कट्टरता हेतु प्रसिद्ध था, यह अबुल फजल के बहुत विपरीत था जो कि अकबर के दरबार का दूसरा प्रसिद्ध विद्वान था। हरि या भगवान कृष्ण ने एक अन्य शक्तिशाली देवता इन्द्र द्वारा भेजी गई मूसलाधार बारिश से बचाने के उद्देश्य से गोवर्धन पर्वत को उसमें रहने वाले सभी प्राणियों के साथ उठाया-इसमें ग्रामीण लोग और उनके मवेशी शामिल थे, जो उनके अनुयायी थे। हरि ने पर्वत को एक विशाल छाते की तरह प्रयोग किया जिसके नीचे सारे गाँव ने शरण ली थी।
(3) एक पक्षी विश्राम (अड्डे) पर बाज (Falcon on a Bird Rest):
(4) जेबरा (Zebra):
(5) दारा शिकोह के विवाह का जुलूस (The Marriage Procession of Dara Shikoh):
यह चित्र कलाकार हाजी मदनी द्वारा शाहजहाँ के शासनकाल में बनाया गया था, जिस शाहजहाँ ने आगरा में ताजमहल बनवाया था। यह दारा शिकोह के विवाह जुलूस का चित्र है, जो कि सम्राट शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था। मुगल राजकुमार को एक भूरे रंग के स्टैलियन (Stallion) घोड़े पर बैठा दिखाया गया है एवं चेहरे पर परम्परागत सेहरा लगा है एवं साथ में उसका पिता शाहजहाँ है, जो सफेद घोड़े पर बैठा है और जिसके सिर के चारों ओर एक देदीत्यमान प्रभामण्डल है। इस विवाहोत्सव का संगीत, नृत्य, उपहार और पटाखों के साथ सम्मान किया गया है। कलाकार ने पूरे दिखावे एवं चमक के साथ विवाह उत्सव की आभा को बनाया था। यह चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, भारत के संग्रह में है।