RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 1 पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा

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RBSE Class 12 Drawing Chapter 1 Notes पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा

→ विष्णुधर्मोत्तर पुराण का 'चित्रसूत्र' अध्याय भारतीय चित्रकला का स्रोत:

  • विष्णुधर्मोत्तर पुराण का तृतीय खण्ड, जो कि पाँचवीं शताब्दी का ग्रन्थ है, जिसमें चित्रसूत्र नामक एक अध्याय है, इसको सामान्यतः भारतीय कला और विशेषतः चित्रकला का एक स्रोत माना जाना चाहिए। यह अध्याय 'प्रतिमा लक्षण' के अन्तर्गत प्रतिकृति की कला के बारे में बात करता है, जो कि चित्रकला के सिद्धान्त हैं। यह खण्ड मानव आकृति के त्रिआयामी दृष्टिकोण, तकनीक, उपकरण, सामग्री, सतह (दीवार), अनुभूति के बारे में विमर्श करता है।
  • यह चित्र के विभिन्न अंगों जैसे रूपभेद (roopbheda) या बाहरी स्वरूप, प्रमाण या मापन, अनुपात और ढाँचा; भाव या व्यक्त करना, लावण्य योजना या सौन्दर्य रचना, सादृश्यता या समरूपता; और वर्णिकाभंग या रंगों और ब्रुश का उपयोग के बारे में बहुत विस्तार से उदाहरणों सहित बताता है। इन सभी के बहुत सारे उप खण्ड हैं। इन सिद्धान्तों को कलाकारों द्वारा पढ़ा और समझा गया एवं शताब्दियों तक इनका अनुसरण किया गया, इस प्रकार से यह भारत में चित्रकला के विभिन्न तरीकों एवं संगठनों का आधार बना है। 

→ पाण्डुलिपि चित्रकला:
चित्रों के उस बड़े भाग को सही तरीके से पाण्डुलिपि चित्रकला कहा जाता है जब कवि की कविता या गीत, जो महाकाव्यों, विभिन्न सिद्धान्तों, साहित्यिक कविताओं या संगीत के हस्तलिखित पाठों से लिये गए हैं, को चित्रों के रूप में अनुवादित किया जाता है तथा कवि की उस शब्दावली को सुन्दर तथा स्पष्ट हस्तलिपि में उस चित्र के सबसे ऊँचे एक बॉक्स जैसे भाग में सीमांकित कर दर्शाया जाता है। कभी-कभी यह लिखित शब्दावली कला कार्य के सामने नहीं वरन् पृष्ठ भाग में लिखी जाती थी।
पाण्डुलिपि चित्रों को सिद्धान्ततः विषयवस्तु के समूह के रूप में माना गया है (प्रत्येक समूह के विभिन्न प्रकार के अलग कई चित्र या ग्रन्थ समाहित हैं)। चित्र का प्रत्येक जिल्द समानान्तर अध्याय रखता है जिसे या तो चित्र के ऊपरी हिस्से में या इसके पृष्ठ में विशिष्ट स्थान पर उकेरा गया है । इस प्रकार से प्रत्येक समूह में रामायण या भागवत पुराण, या महाभारत, या गीत गोविन्द, रागमाला इत्यादि के चित्रों के अनुसार समूह है। प्रत्येक समूह को कपड़े के एक टुकड़े में लपेटकर राजा या संरक्षक के पुस्तकालय में एक बण्डल के रूप में संचित किया हुआ है।

→ कॉलफॅन (पुष्पिका) पृष्ठ (Colophon Page):

  • समूह का सबसे महत्त्वपूर्ण पृष्ठ कॉलफॅन (पुष्पिका) का पृष्ठ होता था, जो संरक्षक, कलाकार या उकेरने वाले, संगठन या कार्य के पूर्ण होने की तिथि और स्थान और अन्य महत्त्वपूर्ण विवरण की सूचनाएँ प्रदान करता था।
  • यद्यपि समय के प्रकोपों के कारण कॉलफॅन'(पुष्पिका) के पृष्ठ प्रायः गुम हो गए हैं, अपने उद्यम या संगठन के कहने पर कला-विद्वानों ने गुम हो चुके विवरणों को उनके गुणों के आधार पर बनाया है। कला के कमजोर भाग होने, चित्रों को गलत तरीके से रखे जाने, आग, नमी या अन्य इस प्रकार की विपदाएँ या बाधाओं के कारण कला के संवेदनशील कार्य बन गए।

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→ लघु चित्र

  • मध्यकालीन युग से चित्रकला ने एक सामान्य नाम अर्जित किया उदाहरणार्थ लघु चित्र। अपनी संक्षिप्त आकृति के कारण इन्हें लघु कहते हैं। इन लघु चित्रों को हाथ में लेकर इनकी संक्षिप्त आकृति के कारण निकट से देखा जाता था। संरक्षक के घर की दीवारों को भित्ति चित्रों से सजाया जाता था।
  • लघु चित्र जिन्हें कला का बहुमूल्य एवं कीमती रूप माना गया एवं इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना भी सुगम था। अतः इन चित्रों को राजकुमारियों को उनके विवाह के समय दहेज के रूप में उपहार में दिया जाता था। इन्हें आभार के स्वरूप में राजाओं एवं दरबारियों के मध्य उपहार के रूप में भी आदान-प्रदान किया जाता था. और सुदूर स्थानों पर इनका व्यापार किया जाता था। चित्र भी तीर्थयात्रियों, साधु-सन्तों, साहसिक यात्रियों, व्यापारियों और व्यावसायिक रूप में वक्ता का कार्य करने वालों के साथ-साथ सुदूरवर्ती क्षेत्रों में यात्राएँ करते थे। इस प्रकार, उदाहरणार्थ मेवाड़ के चित्र किसी को बूंदी के राजा के यहाँ या उसी प्रकार से बूंदी के चित्र मेवाड़ के राजा के यहाँ मिल सकते थे। 

→ चित्रों के इतिहास का पुनर्निर्माण (Reconstructing the history of Paintings):
चित्रों के इतिहास का पुनर्निर्माण एक अभूतपूर्व कार्य है। वहाँ पर कुछ तिथिवार समूह हैं जिनकी बिना । तिथि के समूहों से तुलना करते हैं। अगर इन सभी को क्रमानुसार व्यवस्थित किया जाए तो इनके बीच कुछ खाली स्थान रह जाते हैं जहाँ पर कोई केवल चित्रांकन गतिविधि के प्रकार को देख सकता है, जो उस समय पनपा था।

अगर इन विषयों को अलग हटकर देखा जाए तो जिल्द के अन्तर्गत खुले हुए चित्र मूल-जिल्द के भाग नहीं हैं और इन्हें विभिन्न अजायबघरों या निजी संग्रहों में बाँट दिया गया है। जिन चित्रों ने समय की सतह को बनाये रखा है अर्थात् जिन पर तिथि पड़ी हुई और पुनः निर्धारित समय सीमा को चुनौती दे रहे हैं और वे विद्वानों को इतिहास के क्रम को संशोधित करने और पुनः परिभाषित करने को विवश करते हैं। इस प्रकाश में, शैली और अन्य परिस्थितिजन्य गवाहों के आधार पर चित्रों के बिना तिथि के समूहों को परिकल्पना की समयबद्धता के अनुसार उत्तरदायी माना गया है।

→ पश्चिमी भारतीय चित्र शैली (Western Indian School of Painting):
चित्रकला के कार्य जो कि भारत के पश्चिमी भाग में बड़े रूप में पनपे हैं, उसमें पश्चिमी भारतीय चित्र शैली का प्रमुख केन्द्र गुजरात है, इसमें अन्य केन्द्रों के रूप में राजस्थान का दक्षिणी भाग और मध्य भारत का पश्चिमी भाग भी हैं। इसमें गुजरात के कुछ प्रमुख बन्दरगाहों की उपस्थिति के साथ, इन क्षेत्रों से गुजरने वाले व्यावसायिक मार्गों का एक जाल है जिसमें वहाँ के स्थानीय शक्तिशाली सरदार, सौदागर और व्यापारी व्यापार से अर्जित अपनी धन-सम्पदा और समृद्धि के कारण कला के संरक्षक बन गये थे। व्यापारी वर्गों में मुख्यतः जैन समुदाय के प्रतिनिधि होते थे जो कि जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित विषयवस्तु की कला के महत्त्वपूर्ण संरक्षक बने थे। 

→ जैन चित्र शैली (Jain School of Painting)

  • पश्चिमी भारतीय चित्रकला के वे भाग जो जैन विषयवस्तु और हस्तलिपि का चित्रण करते थे उसे जैन चित्र शैली के नाम से जाना जाता है।
  • जैन चित्रों को प्रोत्साहन भी मिला क्योंकि इस समुदाय में प्रचलित शास्त्रदान (पुस्तकों को दान देना) की अवधारणा ने इसका समर्थन किया, जहाँ उद्धरित चित्रों को मठों की लाइब्रेरी, जिसे भण्डार कहा जाता था, में दान देने के कार्य को उदारता, आभार एवं अधिकारिता के भाव के रूप में महिमामंडित किया जाता था।
  • जैन परम्परा के निम्नलिखित प्रमुख ग्रन्थ हैं जिनमें जैन शैली के चित्र चित्रित किये गये हैं

(1) कल्पसूत्र (Kalpasutra):
जैन परम्परा में कल्पसूत्र को सर्वाधिक चित्रांकन वाला ग्रंथ माना गया है। इसके एक भाग में 24 तीर्थंकरों के जीवन से घटनाओं को गाते हुए बताया है जो कि उनके जन्म से लेकर मोक्ष तक उद्धृत हैं जो कि कलाकारों को उनकी जीवन की गाथा पर चित्र बनाने हेतु सामग्री उपलब्ध कराता है। पाँच प्रमुख घटनाएँ जिन्हें विस्तृत रूप में बताया गया है, वे हैं-अवधारणा, जन्म, त्याग, प्रबोधन और प्रथम उपदेश और कल्पसूत्र के अधिकांश भागों में तीर्थंकरों के जीवन एवं उनसे सम्बन्धित घटनाओं से मोक्ष।

(2) कालकाचार्यकथा (Kalakacharyakatha):
अन्य दूसरे चित्रित ग्रन्थों में प्रमुख हैंकालकाचार्यकथा और संग्रहिणी सूत्र । कालकाचार्य ग्रंथ आचार्य कालक की कथा का वर्णन है। कालक अपनी अपहृत बहन जो कि एक जैन साध्वी थी को एक दुष्ट राजा से बचाने के अभियान पर था। यह हमें कालक की बहुत से सिहरन पैदा कर देने वाली और साहसी घटनाओं के बारे में बताता है, जैसे-अपनी बहन का पता लगाने हेतु जमीन का शुद्धिकरण करना, अपनी जादुई शक्तियों का प्रदर्शन करना, अन्य राजाओं से सम्बन्ध बनाना और आखिर में दुष्ट राजा से लड़ना।

(3) संग्रहिणी सूत्र (Sangrahini Sutra):
संग्रहिणी सूत्र एक ब्रह्माण्डव्यापी ग्रंथ है जिसे 12वीं शताब्दी में लिखा गया था। इसमें ब्रह्माण्ड के ढाँचे एवं अन्तरिक्ष के मापन की अवधारणाएँ विद्यमान हैं । जैनियों के द्वारा असंख्य रूप से इन सभी ग्रंथों की प्रतियाँ लिखी गईं। इनमें या तो कम या बहुत दरियादिली से चित्रों को बनाया गया। इस प्रकार से एक विशिष्ट चित्र या पृष्ठ को कई भागों में विभक्त किया गया जिसमें मूल पाठ को लिखने एवं जो लिखा गया है उसका चित्रण करने हेतु स्थान प्रदान किया गया। केन्द्र में धागे से समस्त पृष्ठों को एक साथ बाँधने हेतु एक छोटा छिद्र बनाया गया। इन्हें सुरक्षित करने के उद्देश्य से लकड़ी के आवरण से ढका जाता था जिसे 'पटलिस' के नाम से पुकारा जाता है जो पाण्डुलिपि के सबसे ऊपर एवं पैंदे में लगाया जाता था।

(4) उत्तरध्यान सूत्र (Uttaradhyana Sutra):
उत्तरध्यान सूत्र में महावीर स्वामी की शिक्षाएँ लिखी हुई हैं जो एक साधु के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार के बारे में बताती हैं।
ताड़ की पत्तियों पर चित्रित जैन चित्र-प्रारम्भिक जैन चित्र कागज के आगमन से पूर्व ताड़ की पत्तियों पर पारम्परिक रूप से की जाती थीं। कागज 14वीं शताब्दी में आया था और भारत के पश्चिमी क्षेत्र से सबसे पुरानी ताड़ के पत्तों की सुरक्षित रखी जा सकी पाण्डुलिपि 11वीं शताब्दी की है। ताड़ की पत्तियों पर चित्रकारी करने से पूर्व उनका ठीक प्रकार से रखरखाव किया जाता था एवं एक तीखी सुलेख लिखने वाली लेखनी से शब्दों को लिखा जाता था।
ताड़ की पत्तियों के संकरे एवं छोटे स्थान के कारण प्रारम्भिक रूप से चित्रकारियाँ 'पटलिस' तक ही सीमित थीं जिन पर उदारतापूर्वक तेज चमकीले रंगों में देवी और देवताओं के चित्र बनाये जाते थे और जैन आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का चित्रण किया जाता था।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 1 पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा

→ जैन चित्र शैली की विभिन्न विशेषताएँ:
जैन चित्रों ने चित्रकला की एक सरल एवं योजनाबद्ध भाषा का विकास किया। यह प्रायः विभिन्न प्रकार की घटनाओं को अपने अन्दर समाहित करने के लिए विभिन्न भागों के मध्य जगह प्रदान कर देती थी। किसी ने यह ध्यान से देखा कि वहाँ चटकीले रंगों हेतु लग्न और वस्त्रों के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करने हेतु रुचि उत्पन्न की। रचना में पतली रेखाएँ पहले से ही प्रभुत्व लिए हुए हैं एवं चेहरे को त्रिआयामी बनाने के प्रयास में एक अतिरिक्त आँख आगे की ओर जोड़ी गई हैं। जहाँ पर यह चित्रकारियाँ की गई हैं वहाँ की स्थापत्य कला के तत्व जैसे सुलतान के काल के मकबरे और ऊँचे गुम्बदों को बताते हैं वे गुजरात, माण्डु, जौनपुर, पाटन के साथ अन्य क्षेत्रों में सुल्तान की राजनीतिक उपस्थिति का संकेत देते हैं । वस्त्र के परदों के और दीवार पर टंगे चित्रों की कई स्वदेशी विशेषताएँ और स्थानीय सांस्कृतिक जीवन शैली के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इसी तरह फर्नीचर, वेशभूषा एवं अन्य उपयोगी वस्तुओं में भी यह प्रभाव दिखता है।

भू-भाग की विशेषताएँ केवल सुंझावात्मक हैं और सामान्यतः इन्हें विस्तृत रूप में नहीं दिखाया गया है। जैन चित्रकला के लिए लगभग 1350-1450 का लगभग सौ वर्षों की अवधि सर्वाधिक रचनात्मक अवधि प्रतीत होती है। अगर देखा जाए तो मुख्य घटना के जिल्द के हाशिये पर बने चित्रों में मुख्य प्रतिनिधित्व करने वाले चित्र बदलकर आकर्षक रूप से चित्रित किए गए भू-भाग, नृत्य करते हुए कलाकारों का चित्रण, संगीतकारों द्वारा विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाते हुए का चित्रण किया गया है।

इन चित्रों में अपने संरक्षकों की सामाजिक प्रतिष्ठा एवं धन सम्पदा को इंगित करती, अत्यधिक रूप से स्वर्ण | का उपयोग करते हुए मूल्यवान नीले रंग के पत्थर का प्रयोग किया गया है। इन चित्रों में धर्म से ऊपर उठकर जैन समुदाय हेतु तीर्थीपत, मण्डल और पंथनिरपेक्ष, धर्म-विधान से रहित कथाओं के चित्र भी बनाए गए हैं।

→ व्यापारियों के अतिरिक्त सामन्तों के मध्य चित्र परम्परा:
धनी व्यापारियों एवं समर्पित धार्मिक व्यक्तियों द्वारा संरक्षित जैन चित्रकला के अतिरिक्त, सामन्तों के मध्य चित्रों की एक समानान्तर परम्परा भी विद्यमान रही है। 15वीं और 16वीं शताब्दियों के उत्तरार्द्ध के दौरान जिसने धर्मनिरपेक्ष, धार्मिक तथा साहित्यिक विषयवस्तुओं पर बने चित्रों को अपने आवरण में लपेटा था। यह परम्परागत चित्र-शैली राजस्थान के दरबारी शैली के निर्माण और मुगल प्रभाव के मिश्रण से पूर्व का प्रतिनिधित्व भी करती है।

→ स्वदेशी चित्रकला शैली:
हिन्दू और जैन विषयों को चित्रित करने के अतिरिक्त कुछ अन्य चित्रों द्वारा महापुराण, चारूपंचशिखा, महाभारत का आरण्यक पर्व, भागवत पुराण, गीत गोविन्द आदि का चित्रण भी किया गया है। इस समयावधि और चित्र-शैली को जिसे मुगल पूर्व या राजस्थानी चित्रकारी के पूर्व की चित्रकला के रूप में भी बताया गया है, 'स्वदेशी चित्रकला शैली' के नाम से जाना जाता है। 

→ विशिष्ट कलात्मक विशेषताएँ (Distinctive stylistic features):
इस काल और चित्रों की शैली के साथ विशिष्ट कलात्मक विशेषताओं का विकास इस दौरान हुआ था। वस्त्रों की पारदर्शिता को चित्रित करती एक विशेष प्रकार की आकृति का उद्भव हुआ-इसमें नायिका के सिर पर ओढ़नी गुब्बारे के आकार में फूलती हुई थी जिसके किनारे सख्त और ढलवां स्वरूप में थे। स्थापत्य कला सन्दर्भात्मक एवं सुझावात्मक थी। जल जीवों को चित्रित करती और विशेष तरीकों से क्षितिज, वनस्पति, जीव इत्यादि को चित्रित करती विभिन्न प्रकार की छाया रेखा का उद्भव हुआ। यह सभी औपचारिक तत्व राजस्थानी चित्रकारी के तरीकों को प्रदर्शित करती 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध को व्यक्त कर रही थी।

उत्तर, पूर्व और पश्चिम में कई क्षेत्र मध्य एशिया की कई सल्तनत वंशों के शासन को 20वीं शताब्दी के अन्त तक ले आई, प्रभाव का एक अन्य प्रवाह जो पर्शिया, टर्की और अफगानिस्तान से प्रसारित होते मुख्य भूमि तक पहुँच गया और मालवा, गुजरात, जौनपुर और अन्य केन्द्रों की संरक्षित चित्रकारियों में दृष्टिगोचर होने लगा था। कुछ मध्य एशियाई कलाकार जो कि वहाँ के स्थानीय कलाकारों के साथ इन दरबारों में कार्य करते थे, इसके प्रभाव स्वरूप स्वदेशी कला के तरीकों के साथ पारसी कला की विशेषताएँ आपस में मिल गईं एवं एक नवीन कला का प्रादुर्भाव हुआ जिसे सल्तनत काल की चित्रकारी का नवीन नाम दिया गया। यह कला की एक शैली का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें स्वदेशी चित्र-शैली पर पारसी कला की संकर किस्म का प्रभाव है। यह स्वदेशी विशेषता के साथ इसमें रुचिपूर्णता से पारसी तत्व या पूर्व में वर्णित विशेषताएँ मिल गईं। इन विशेषताओं में रंगों की पटिया, मुख की आकृति, साज-सज्जा युक्त विवरण के साथ सरलीकृत भूभाग इत्यादि शामिल हैं।

→ 'निमतनामा' पुस्तक में चित्रित चित्र:
'निमतनामा' नामक पुस्तक इस शैली का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व करने वाला उदाहरण है जिसे नासिर शाह खिलजी (1500-1510) के शासनकाल के दौरान माण्डु में चित्रित किया गया था। यह खाना बनाने की विधि की पुस्तक है जिसका एक भाग शिकार करने, औषधियाँ, शृंगार प्रसाधन, सुगन्ध को बनाने के तरीकों और उनके प्रयोगों के दिशा-निर्देशों पर आधारित है। . सूफी विचारों से ओत-प्रोत कहानियाँ और लौरचन्दा के चित्र इस शैली में लोगों द्वारा सराहे गये।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 1 पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा

→ पाल चित्र शैली (Pala School of Painting):

  • जैन पुस्तकों और चित्रकलाओं की तरह, 11वीं और 12वीं शताब्दियों की पूर्वी भारत के पालों की उद्धरित वर्णित पाण्डुलिपियाँ (mannuscripts) प्रारम्भिक चित्रों के रूपों के उदाहरण हैं। पालों की कालावधि (750 ईसा से मध्य 12वीं शताब्दी) ने भारत में बुद्ध कला के अन्तिम काल को देखा है। नालन्दा और विक्रमशीला मठ बौद्ध की शिक्षा और कला के मठ रहे हैं और यहाँ की ताड़ के पत्तों पर चित्रित बौद्ध विषयों तथा वज्रनारायण बौद्ध देवताओं के चित्रों से युक्त असंख्य पाण्डुलिपियाँ मिली हैं।
  • इन केन्द्रों में पीतल की मूर्तियों को बनाने का समूह कार्य भी किया गया। दक्षिण-पूर्वी एशिया से छात्र एवं तीर्थयात्री इन मठों पर शिक्षा और धर्म को सीखने हेतु आते थे एवं अपने साथ पीतल के आकृतियों या विस्तृत उल्लेखित पाण्डुलिपियों के रूप में बौद्ध कला के नमूने अपने साथ ले जाते थे। इससे पाल की कला नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका और जावा में फैल पाने में सक्षम हो पाई। जैन चित्रों की संक्षिप्त रेखाओं से भिन्न, शान्त रंगों की आभा में एक गतिशील व लहरदार रेखा पाल चित्रों की विशेषता है ।
  • अजन्ता की तरह, इन मठों और कलाकारों द्वारा निर्मित आकृतियों की पाल मूर्तिकला शैली, समान भाषा लिए हुए हैं। पाल बौद्ध की ताड़ की पाण्डुलिपि की चित्रकला का एक श्रेष्ठ उदाहरण अष्टासहश्रिका प्रज्ञानपरमपिता या 'बुद्धि की प्रवीणता' आठ हजार पंक्तियों में लिखी गई है।
  • पाल राजा, रामपाल के शासनकाल के 15वें वर्ष में नालन्दा मठ में बनाये गये चित्र 11वीं शताब्दी के अन्तिम समय के हैं। इसमें छः पृष्ठों के चित्र और लकड़ी के आवरण दोनों तरफ से चित्रित किए गए हैं।
Prasanna
Last Updated on July 15, 2022, 4:46 p.m.
Published July 15, 2022