RBSE Class 11 Economics Notes Chapter 3 उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण : एक समीक्षा

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RBSE Class 11 Economics Chapter 3 Notes उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण : एक समीक्षा

→ परिचय: भारत को वर्ष 1991 में विदेशी ऋण संकट का सामना करना पड़ा। देश के पास आवश्यक वस्तुओं के आयात हेतु विदेशी मुद्रा रिजर्व का अभाव हो गया। इन संकटों का सामना करने हेतु सरकार ने कुछ नई नीतियों को अपनाया जिसके फलस्वरूप हमारी विकास रणनीतियों की सम्पूर्ण दिशा बदल गई।

→ पृष्ठभूमि: स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के विकास हेतु सरकार को अपनी आय से अधिक व्यय करना पड़ता था। अतः सरकार द्वारा जनसाधारण, सरकारी बैंकों एवं अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा उधार लिया जाता था। 1980 के दशक के अन्त तक सरकार का खर्च अत्यधिक बढ़ गया जिसके फलस्वरूप वित्तीय संकट और बढ़ गया। देश के आयातों में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी। विदेशी मुद्रा कोष लगभग समाप्त हो गया। इस विकट स्थिति में भारत सरकार ने विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद मांगी। इन संस्थाओं ने भारत को कुछ शर्तों के आधार पर ऋण प्रदान किया। भारत सरकार ने इन शर्तों के आधार पर नई आर्थिक नीति की घोषणा की जिसके अन्तर्गत उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति अपनाई गई। इस नई नीति में सरकार ने दो प्रकार के उपाय अपनाएस्थायित्वकारी उपाय तथा संरचनात्मक सुधार के उपाय।

→ उदारीकरण:
उदारीकरण विभिन्न प्रतिबन्धों को दूर करके अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को मुक्त करने की नीति थी। इसमें कुछ विशेष क्षेत्रों में सुधार किए गए, जैसे-औद्योगिक क्षेत्रक, वित्तीय क्षेत्रक, कर-सुधार, विदेशी विनिमय बाजार, व्यापार तथा निवेश क्षेत्रक। उदारीकरण सुधारों की समीक्षा निम्न आधारों पर की जा सकती है
(i) औद्योगिक क्षेत्रकका विनियमीकरण: इसके अन्तर्गत औद्योगिक लाइसेन्सिंग नीति का सरलीकरण किया गया। नई आर्थिक नीति में कई प्रतिबन्धित उद्योगों को निजी क्षेत्र हेतु खोला गया। अधिकांश उद्योगों हेतु लाइसेन्स की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। सार्वजनिक क्षेत्रक को बहुत सीमित कर दिया गया। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ अब अनारक्षित श्रेणी में आ गईं।

(ii) वित्तीय क्षेत्रक सुधार: नई आर्थिक नीति के अन्तर्गत वित्तीय क्षेत्र में सुधार हेतु अनेक कदम उठाए गए। रिजर्व बैंक की नियन्त्रक की भमिका से एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया। भारत में निजी एवं विदेशी बैंकों को अनुमति प्रदान की गई। बैंकों में विदेशी पूँजी निवेश सीमा में वृद्धि की गई। विभिन्न विदेशी निवेश संस्थाओं, व्यापारिक बैंकों, म्युचुअल फण्ड तथा पेंशन कोष आदि हेतु भारतीय अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया।

(iii) कर व्यवस्था में सुधार: उदारीकरण के फलस्वरूप कर व्यवस्था में भी सुधार किए गए। आयकर की दरों में 1991 के पश्चात् निरन्तर कमी की गई, साथ ही निगम कर की दर को भी कम किया गया। इन आर्थिक सुधारों में अप्रत्यक्ष करों में भी सुधार हेतु प्रयास किए गए। नवीन नीति में कर प्रक्रियाओं को भी सरल बनाया गया।

(iv) विदेशी विनिमय सुधार: वर्ष 1991 में भुगतान सन्तुलन की समस्या के निदान हेतु भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन किया गया। विदेशी विनिमय बाजार में रुपये के मूल्य के निर्धारण को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त किया गया।

(v) व्यापार एवं निवेश नीति में सुधार: इस नीति में अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादों और विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापार और निवेश व्यवस्थाओं का उदारीकरण प्रारम्भ किया गया। आन्तरिक उद्योगों को संरक्षण देने हेतु आयातों पर प्रतिबन्ध लगाए गए थे किन्तु नई नीति के फलस्वरूप इन प्रतिबन्धों को समाप्त किया गया। आयात लाइसेन्स व्यवस्था को समाप्त किया गया, साथ ही | निर्यात-शुल्क भी हटाया गया।

RBSE Class 11 Economics Notes Chapter 3 उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण : एक समीक्षा 

→ निजीकरण: निजीकरण का तात्पर्य किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्थायित्व या प्रबन्ध का सरकार द्वारा त्याग करने से है। इसके अन्तर्गत सरकार अपना स्वामित्व विनिवेश प्रक्रिया के तहत निजी क्षेत्र को बेच देती है। विनिवेश का मुख्य ध्येय वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना था।

→ वैश्वीकरण: वैश्वीकरण से तात्पर्य देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है। इसका उद्देश्य विश्व को परस्पर निर्भर और अधिक एकीकृत करना है। वैश्वीकरण के अन्तर्गत कम्पनियाँ किसी बाहरी स्रोत (संस्था) से नियमित सेवाएँ प्राप्त करती हैं, इसे बाह्य प्रापण की प्रक्रिया कहा जाता है। संचार साधनों के विकास से यह प्रक्रिया काफी सुदृढ़ हो गई। कई विकसित देशों की कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से भी ये सेवाएँ प्राप्त करती हैं।

→ विश्व व्यापार संगठन: व्यापार और सीमा शुल्क महासन्धि (GATT) को वर्ष 1995 में बदल कर विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना की गई। इस संगठन का उद्देश्य विश्व व्यापार को बढ़ावा देना है तथा विश्व व्यापार के मार्ग में आने वाली रुकावटों को दूर करना है।

→ सुधारकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था: एक समीक्षा-वर्ष 1991 में हुई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया का अर्थव्यवस्था पर कई प्रकार से प्रभाव पड़ा, जैसे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विनिमय रिजर्व में तेजी से वृद्धि हुई है, भारत कई उत्पादों के निर्यातक के रूप में उभरा है आदि। आर्थिक सुधारों के अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़े। इन सुधारों के प्रभावों को निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है

  • संवृद्धि और रोजगार-इन सुधारों के फलस्वरूप देश की संवृद्धि दर में वृद्धि हुई किन्तु रोजगार पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
  • कृषि में सुधार-इन सुधारों का कृषि पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा तथा कृषि संवृद्धि दर में निरन्तर कमी हुई है।
  • उद्योगों में सुधार-इन सुधारों से औद्योगिक उत्पादों की माँग में कुछ गिरावट आई। भारतीय उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा जिसका रोजगार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
  • विनिवेश-इन सुधारों के अन्तर्गत सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों के सम्बन्ध में विनिवेश की नीति अपनाई। परन्तु विनिवेश के सकारात्मक प्रभाव कम ही रहे। 
  • सुधार और राजकोषीय नीतियाँ-आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप सार्वजनिक व्यय में कुछ कमी आई। परन्तु कर राजस्व को बढ़ाने में भी विशेष सफलता नहीं मिली।
Prasanna
Last Updated on July 4, 2022, noon
Published July 4, 2022