Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Business Studies Chapter 1 प्रबन्ध की प्रकृति एवं महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.
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अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
प्रबंधन से क्या आशय है ?
उत्तर:
प्रबंधन को प्रभावी ढंग से और कुशलता से लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जाने वाले कार्यों के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह एक ऐसा पर्यावरण तैयार करने और बनाए रखने की प्रक्रिया है जिसमें समूहों में काम करने वाले व्यक्ति, चयनित उद्देश्यों को कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।
प्रश्न 2.
प्रबंधन की किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का नाम दें।
उत्तर:
प्रश्न 3.
उस घटक को पहचानने और बताएँ जो प्रबंधन के सभी अन्य कार्यों को बाँधता है।
उत्तर:
समन्वय वह शक्ति है जो प्रबंधन के सभी अन्य कार्यों को उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक सूत्र में बाँधती है।
प्रश्न 4.
किसी संगठन के विकास के किन्हीं भी दो संकेतकों की सूची बनाइए।
उत्तर:
प्रश्न 5.
भारतीय रेलवे ने एक ब्रॉड गेज सौर ऊर्जा ट्रेन शुरू की है जिसका उद्देश्य ट्रेनों को हरित और पर्यावरण के अनुकूल बनाना है। सौर ऊर्जा डी.ई.एम.यू. (डीजल इलेक्ट्रिक मल्टीपल यूनिट) में 6 ट्रेलर कोच हैं और इससे लगभग 21,000 लीटर डीजल की बचत और प्रति वर्ष 12,00,000 रुपये की लागत बचत सुनिचित करने की उम्मीद है। उपरोक्त मामले में भारतीय रेलवे द्वारा हासिल प्रबंधन के उद्देश्यों का नाम दें।
उत्तर:
भारतीय रेलवे द्वारा प्राप्त प्रबंधन उद्देश्य सामाजिक उद्देश्य है। सामाजिक उद्देश्यों में समाज के लिए लाभ का सृजन शामिल है। इसमें समग्र रूप से समाज के लिए लगातार आर्थिक मूल्यों की रचना करना शामिल है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
रितु एक बड़े कॉर्पोरेट हाउस के उत्तरी प्रभाग की प्रबंधक है। वह संगठन में किस स्तर पर काम करती है ? उसके बुनियादी कार्य क्या हैं?
उत्तर:
रितु संगठन के उत्तरी प्रभाग की प्रबंधक होने के नाते मध्यम स्तर के प्रबंधन में है। वह और अन्य प्रबंधन शीर्ष प्रबंधन एवं परिचालन प्रबंधन के बीच एक कड़ी की तरह काम करते हैं। निम्नलिखित उसके मूल कार्य हैं-
प्रश्न 2.
एक पेशे के रूप में प्रबंधन की मूल विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
पेशे के रूप में प्रबंधन की विशेषताएँ-
प्रश्न 3.
प्रबन्ध को बहु-आयामी अवधारणा क्यों माना गया है?
उत्तर:
प्रबन्ध एक बहु-आयामी अवधारणा है-प्रबन्ध एक बहुरूपीय या बहु-आयामी अवधारणा है। यह निम्न प्रकार से स्पष्ट होती है-
(1) कार्य का प्रबन्ध-सभी संगठन किसी न किसी कार्य को करने के लिए होते हैं। प्रबन्ध समस्याओं का समाधान करना, निर्णय लेना, योजनाएँ बनाना, बजट बनाना, दायित्व निश्चित करना एवं अधिकारों का प्रत्यायोजन करना आदि विभिन्न कार्य करता है। प्रबन्ध इन कार्यों को प्राप्य उद्देश्यों में परिवर्तित कर देता है तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने का मार्ग निर्धारित करता है।
(2) लोगों का प्रबन्ध-संगठन में लोगों से कार्य करवाने का कार्य भी प्रबन्ध करता है। यह लोगों की ताकत को प्रभावी बनाकर एवं उनकी कमजोरी को अप्रासंगिक बनाकर उनसे संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य कराता है।
(3) परिचालन का प्रबन्ध--प्रत्येक संगठन में एक ऐसी उत्पादन प्रक्रिया की आवश्यकता होती है जो आगत माल को उपभोग के लिए आवश्यक निर्गत माल में बदलने के लिए आगत माल एवं तकनीक के प्रवाह को व्यवस्थित करती है। यह कार्य के प्रबन्ध एवं लोगों के प्रबन्ध दोनों से जुड़ी होती है।
प्रश्न 4.
इन दिनों कंपनी एक्स के सामने नई समस्याएँ आ रही हैं। यह कंपनी वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव ओवन, रेफ्रीजरेटर और एयर कंडीशनर्स जैसे उत्पाद बनाती है। कंपनी के मार्जिन दबाव में हैं और मुनाफा और बाजार हिस्सेदारी कम हो रही है। उत्पादन विभाग बिक्री लक्ष्यों को पूरा न करने के लिए विपणन को दोषी ठहराता है और विपणन ग्राहकों की अपेक्षा के अनुसार गुणवत्तायुक्त माल उत्पादन न करने के लिए उत्पादन विभाग को दोष देता है। वित्त विभाग घटते निवेश पर प्रतिफल और खराब विपणन के लिए उत्पादन और विपणन दोनों विभागों को पूरी तरह दोषी ठहराता है। आपके अनुसार कंपनी में किस प्रकार के प्रबंधन की कमी है? संक्षेप में बताएँ। कंपनी को वापस पटरी पर लाने के लिए कंपनी प्रबंधन को क्या कदम उठाने चाहिए?
उत्तर:
दी गई स्थिति के अनुसार, कंपनी में समन्वय की कमी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कंपनी के घटते मुनाफे और बाजार हिस्सेदारी के लिए विभिन्न विभाग एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं। समन्वय एक पथ को संदर्भित करता है जिससे सामूहिक कार्यों में एकात्मकता आती है। दी गई स्थिति में, एक-दूसरे को दोष देने के बजाय विभिन्न विभागों को एक-दूसरे के साथ समन्वित तरीके से काम करना चाहिए और लाभ मार्जिन और बाजार हिस्सेदारी के संबंध में कम्पनी की स्थिति में सुधार करने के लिए सामूहिक रूप से काम करना चाहिए।
कंपनी को पटरी पर लाने के लिए प्रबंधन द्वारा निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं-
प्रश्न 5.
समन्वय प्रबंधन का सार है। क्या आप सहमत हैं ? कारण बताइए।
उत्तर:
हाँ, समन्वय वास्तव में प्रबंधन का सार है। समन्वय से हमारा तात्पर्य एक पथ से है जिसके माध्यम से समूह कार्य जुड़े हुए हैं। यह वह शक्ति है जो, प्रबंधन के अन्य सभी कार्यों को एक-दूसरे से बाँधती है। यह सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किए गए व्यक्तिगत प्रयत्नों में एकता लाता है।
निम्नलिखित बिंदु प्रबंधन में समन्वय के महत्त्व को उजागर करते हैं-
प्रश्न 6.
अशिता और लक्षिता एक आभूषण उद्यम में काम करने वाली कर्मचारी हैं। फर्म को 1000 कंगन का एक तत्काल आदेश प्राप्त हुआ जिसे 4 दिनों के भीतर वितरित भी किया जाना था। उन दोनों में से प्रत्येक को 100 रुपये प्रति कंगन की दर से 500 कंगन बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। अशिता निर्धारित समय के भीतर 55,000 रुपये की लागत से आवश्यक 500 कंगन का उत्पादन करने में सफल रही, जबकि लक्षिता 90 रुपये प्रति यूनिट की दर से केवल 450 इकाइयों का उत्पादन कर सकी। क्या अशिता और लक्षिता कशल और प्रभावी हैं? अपने उत्तर का औचित्य सिद्ध करते हुए कारण दें।
उत्तर:
अशिता प्रभावी है, लेकिन कुशल नहीं है। इसकी वजह यह है कि अशिता ने समय पर काम पूरा कर लिया लेकिन अधिक लागत पर। प्रभाव का तात्पर्य अंतिम परिणामों पर ध्यान देने के साथ दिए गए कार्य को आवश्यक समय में पूरा करना है। जबकि, लक्षिता न तो कुशल है और न ही प्रभावी। ऐसा इसलिए है क्योंकि लक्षिता ने लक्ष्य पूरा नहीं किया था। भले ही उसने कम लागत पर इकाइयों का उत्पादन किया, लेकिन लक्ष्य को प्राप्त नहीं करना उसे अक्षम और अप्रभावी बना देगा।
निबन्धात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
प्रबंधन को कला और विज्ञान दोनों माना जाता है। व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रबन्ध विज्ञान है या कला
प्रबन्ध के क्षेत्र में यह प्रश्न सदैव विवादास्पद रहा है कि प्रबन्ध एक विज्ञान है या कला या दोनों। इसके प्रत्युत्तर में यह जानना होगा कि वर्तमान में प्रबन्ध का स्वरूप क्या है ? यहाँ हम विज्ञान एवं कला दोनों के अर्थ एवं विशेषताओं को समझने के पश्चात् ही यह निर्णय करेंगे कि प्रबन्ध विज्ञान है या कला या दोनों है।
प्रबंध एक कला है-कला इच्छित परिणामों को पाने के लिए वर्तमान ज्ञान का व्यक्तिगत एवं दक्षतापूर्ण उपयोग है। कला के आधारभूत लक्षण इस प्रकार हैं-
(1) सैद्धांतिक ज्ञान का होना-सभी कला विषय सैद्धांतिक ज्ञान पर आधारित होते हैं, जैसे-नृत्य, कला, संगीत आदि उसी तरह प्रबंधन और इसकी शाखाओं पर बहुत सारा साहित्य उपलब्ध है-वित्त, विपणन, मानव संसाधन आदि।
(2) व्यक्तिगत योग्यतानुसार उपयोग-इस मूलभूत ज्ञान का उपयोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अलग-अलग होता है। दो नर्तक, दो वक्ता, दो कलाकार या दो लेखक सभी अपने तरीके से अपने ज्ञान का उपयोग करते हैं। उसी तरह से दो प्रबंधकों ने जो एक ही ज्ञान प्राप्त किया है वह इसे अपने अलग-अलग तरीकों से काम पाने के लिए उपयोग कर सकता है।
(3) व्यवहार एवं रचनात्मकता पर आधारितसभी कला व्यावहारिक होती हैं। इसमें रचनात्मक अभ्यास शामिल है। हम जितना बेहतर इसका अभ्यास करते हैं, हम उतना ही बेहतर होते जाते हैं। इसके लिए रचनात्मक की भी आवश्यकता होती है। उसी तरह प्रबंधक एक अनोखे तरीके से अपने अर्जित ज्ञान को लागू करता है। अधिक अभ्यास उसे एक बेहतर प्रबंधक बनाता है और वह प्रबंधन की अपनी शैली भी विकसित करता है।
प्रबन्ध एक कला है क्योंकि यह निम्न विशेषताओं को पूरा करती है-
(1) प्रबन्ध कला अध्ययन, अवलोकन एवं अनुभव पर आधारित-एक सफल प्रबन्धक, प्रबन्ध कला का संस्था के दिन-प्रतिदिन के प्रबन्ध में उपयोग करता है जो कि अध्ययन, अवलोकन एवं अनुभव पर आधारित होती है।
(2) प्रबन्ध के सिद्धान्तों का उपयोग-प्रबन्ध के विभिन्न सिद्धान्त हैं जिनका प्रतिपादन कई प्रबन्धशास्त्रियों ने किया है तथा जो कुछ सर्वव्यापी सिद्धान्तों को अधिकृत करते हैं। प्रबन्धक अपनी सजनात्मकता के आधार पर इन सिद्धान्तों को अलग-अलग ढंग से प्रयुक्त करते हैं।
(3) ज्ञान का व्यक्तिनुसार एवं दक्षतानुसार उपयोग करना-एक प्रबन्धक इस प्राप्त ज्ञान का परिस्थितिजन्य वास्तविकता के परिदृश्य में व्यक्तिनुसार एवं दक्षतानुसार उपयोग करता है। वह नाजुक परिस्थितियों का अध्ययन करता है एवं अपने सिद्धान्तों का निर्माण कर दी गई परिस्थितियों के अनुसार इनको उपयोग में लाता है।
प्रबन्ध विज्ञान है
प्रबन्ध एक क्रमबद्ध ज्ञान समूह है जो किन्हीं सामान्य सत्य अथवा सामान्य सिद्धान्तों को स्पष्ट करता है। यह कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध स्थापित करता है और अवलोकन एवं परीक्षणों पर आधारित होता है।
प्रबन्ध विज्ञान है। यह समझाने से पहले विज्ञान की कुछ मूलभूत विशेषताओं को जान लेना आवश्यक है-
(1) क्रमबद्ध ज्ञान-समूह-विज्ञान, ज्ञान का क्रमबद्ध समूह है। इसके सिद्धान्त कारण एवं परिणाम सम्बन्ध पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए, पेड़ से सेब का टूटकर पृथ्वी पर आना गुरुत्वाकर्षण को जन्म देता है। उसी तरह सभी प्रबंधकीय सिद्धांतों के कारण और प्रभाव में संबंध है।
(2) परीक्षण पर आधारित सिद्धान्त-वैज्ञानिक सिद्धांतों को पहले अवलोकन के माध्यम से विकसित किया जाता है और फिर नियंत्रित परिस्थितियों में बारबार परीक्षण कर उसकी जाँच की जाती है। उसी तरह प्रबंधन सिद्धांत भी अवलोकन और बार-बार प्रयोग के बाद भी प्रतिपादित किए जाते हैं।
(3) व्यापक वैधता-सभी वैज्ञानिक सिद्धांतों में सार्वभौमिक वैधता है। वे जहाँ भी आवेदन करते हैं, वही परिणाम देते हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध भी एक विज्ञान है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(1) प्रबन्ध भी क्रमबद्ध ज्ञान समूह है-प्रबन्ध के अपने सिद्धान्त एवं नियम हैं जो समय-समय पर विकसित हुए हैं लेकिन ये अन्य विषय जैसे अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र एवं गणित से प्रेरित होते हैं।
(2) परीक्षण एवं अवलोकन पर आधारितविज्ञान की भाँति प्रबन्ध के सिद्धान्त भी विभिन्न संगठनों में बार-बार किये गये परीक्षण एवं अवलोकन के आधार पर विकसित हुए हैं। प्रबन्ध का सम्बन्ध मनुष्य एवं मानवीय व्यवहार से है, इसलिए इन परीक्षणों के परिणामों से विज्ञान की तरह न तो सही भविष्यवाणी की जा सकती है और न ही यह प्रतिध्वनित होते हैं। इन सीमाओं के होते हुए भी प्रबन्ध के विद्वान प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों की पहचान करने में सफल रहे हैं।
(3) सार्वभौमिक उपयोग-यद्यपि प्रबन्ध के सिद्धान्त विज्ञान के सिद्धान्तों के समान विशुद्ध नहीं होते हैं और न ही इनका उपयोग सार्वभौमिक होता है। ये प्रबन्धकों को मानक तकनीक प्रदान करते हैं जिन्हें भिन्नभिन्न परिस्थितियों में उपयोग में लाया जा सकता है।
प्रश्न 2.
क्या आपको लगता है कि प्रबंधन में एक पूर्ण पेशे की विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
प्रबन्ध में एक सम्पूर्ण पेशे की विशेषताएँ हैं या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले हमें पेशे की प्रमुख विशेषताओं का अध्ययन करना होगा और यह देखना होगा कि प्रबन्ध इनको पूरा करता है या नहीं।
पेशे की विशेषताएँ-पेशे की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हैं-
(1) भली-भाँति परिभाषित ज्ञान का समूहसभी पेशे भली-भाँति परिभाषित ज्ञान के समूह पर आधारित होते हैं जिसे शिक्षा से अर्जित किया जा सकता है। पेशे की यह विशेषता प्रबंधन के पास भी है। परिभाषाओं, अवधारणाओं, सिद्धांतों आदि के रूप में प्रबंधन पर विशाल ज्ञान उपलब्ध है।
(2) अवरोधित प्रवेश-सभी व्यवसायों में प्रवेश, परीक्षा अथवा शैक्षणिक योग्यता के द्वारा सीमित होती है। उन्हें पेशेवर होने के लिए एक विशिष्ट डिग्री हासिल करनी होती है, जैसे चार्टर्ड एकाउंटेंट बनना है तो उसे भारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंट संस्थान द्वारा आयोजित की जाने वाली एक विशेष परीक्षा को पास करना होगा, लेकिन प्रबंधक एम.बी.ए. योग्य हो सकता है या नहीं।
(3) पेशागत परिषद्-सभी पेशे एक पेशेवर एसोसिएशन से जुड़े होते हैं जो प्रवेश का नियमन करते हैं, कार्य करने के लिए प्रमाण पत्र जारी करते हैं एवं आधार संहिता तैयार करते हैं तथा उसको लागू करते हैं । जैसे वकील को वकालत का अभ्यास करने के लिए बार काउंसिल का सदस्य बनना होता है। सभी प्रबंधकों के लिए ए.आई.एम.ए. (ऑल इंडिया मैनेजमेंट एसोशिएशन) का सदस्य होना अनिवार्य नहीं है।
(4) नैतिक आचार संहिता-सभी पेशे आचार संहिता से बंधे हैं जो उनके सदस्यों के व्यवहार को दिशा देते हैं। लेकिन जैसा कि सभी प्रबंधकों को ए.आई.एम.ए. के सदस्य होने के लिए अनिवार्य नहीं है, वे सभी ए.आई.एम.ए. के आचार संहिता के निर्धारित कोड के बारे में नहीं जानते होंगे।
(5) सेवा का उद्देश्य-पेशे का मूल उद्देश्य निष्ठा एवं प्रतिबद्धता है तथा अपने ग्राहकों के हितों की साधना है। उदाहरण-एक वकील यह सुनिश्चित करता है कि उसके मुवक्किल को न्याय मिले। सभी प्रबंधक इस तरीके से भी काम करते हैं जहाँ वे अपनी प्रभावशीलता और दक्षता दिखाते हैं जिससे ग्राहकों को उचित मूल्य पर श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तु प्रदान की जा सके।
पेशे की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर कहा जाये तो प्रबन्ध इन्हें पूरी नहीं करता है। वैसे प्रबन्ध में पेशे की निम्न कुछ विशेषताएँ होती हैं-
1. ज्ञान के व्यवस्थित समूह पर आधारितसम्पूर्ण विश्व में प्रबन्ध विशेष रूप से एक संकाय के रूप में विकसित हुआ है। यह ज्ञान के व्यवस्थित समूह पर आधारित है जिसके भली-भाँति परिभाषित सिद्धान्त हैं जो व्यवसाय की विभिन्न स्थितियों पर आधारित हैं। प्रबन्ध का ज्ञान विभिन्न महाविद्यालयों एवं पेशेवर संस्थानों से अर्जित किया जा सकता है। प्रबन्ध को भी विषय के रूप में विभिन्न संस्थानों जैसे भारतीय प्रबन्ध संस्थान आदि में पढ़ाया जाता है।
2. ज्ञान एवं प्रशिक्षण-चिकित्सा अथवा- कानून के पेशे में डॉक्टर अथवा वकील के पास वैध डिग्री का होना आवश्यक है। लेकिन पूरे विश्व में भी प्रबन्धक के लिए कोई डिग्री विशेष, कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है। लेकिन यदि इस पेशे का ज्ञान अथवा प्रशिक्षण है तो यह इसकी उचित योग्यता मानी जाती है। जिन लोगों के पास प्रबन्ध की प्रतिष्ठित संस्थानों की डिग्री है तो उनकी माँग अधिक है। इस प्रकार प्रबन्ध पेशे की दूसरी आवश्यकता की पूरी तरह से पूर्ति नहीं होती है।
3. आचार संहिता-पेशे के समान ही भारत में प्रबन्ध में लगे प्रबन्धकों के कई संगठन हैं जैसे ऑल इण्डिया मैनेजमेंट एसोसिएशन। जिसने अपने सदस्यों के कार्यों के नियमन के लिए आचार संहिता बनाई है। लेकिन प्रबन्धकों के लिए इनकी सदस्यता अनिवार्य नहीं है और न ही इनकी कोई वैधानिक मान्यता है।
4. सेवा का उद्देश्य-प्रबन्ध का मूल उद्देश्य संगठन को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करना है। यह उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना हो सकता है या फिर अधिकतम सेवा। वैसे आज के युग में प्रबन्ध का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना नहीं होकर उचित मूल्य पर अच्छी किस्म की वस्तुएँ उपलब्ध कराकर सामाजिक सेवा करना है। . उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि प्रबन्ध पेशे की कुछ विशेषताओं को तो पूरा करता है परन्तु कुछ विशेषताओं का इसमें अभी पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। अतः प्रबन्ध पूर्ण रूप से पेशे का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है।
प्रश्न 3.
"एक सफल उद्यम को अपने लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक हासिल करना होता है।" स्पष्ट करें।
उत्तर:
यह बिल्कुल सही है कि एक सफल उद्यम को अपने लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक हासिल करना होता है। यह केवल प्रबन्ध के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। प्रबन्धक ही प्रभावपूर्णता एवं कुशलता में सन्तुलन स्थापित करता है। प्रबन्ध के महत्त्व को हम निम्न बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं-
1. प्रबन्ध सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है-प्रबन्ध की आवश्यकता प्रबन्ध के लिए नहीं वरन् संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए होती है। प्रबन्ध का कार्य संगठन के कुल उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रयासों को सही दिशा प्रदान करना होता है।
2. कार्य क्षमता में वृद्धि करना-प्रबन्धक का लक्ष्य संस्था की क्रियाओं के श्रेष्ठ नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियुक्तिकरण एवं नियन्त्रण के माध्यम से लागत को कम करना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है। फलतः कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
3. प्रबन्ध गतिशील संगठन का निर्माण करता है-प्रत्येक संगठन का प्रबन्ध निरन्तर बदलते रहने वाले पर्यावरण के अन्तर्गत करना होता है। सामान्यतः किसी भी संस्था या संगठन में कार्यरत लोग परिवर्तन का सदैव विरोध करते हैं क्योंकि इसका तात्पर्य परिचित, सुरक्षित पर्यावरण से नवीन एवं अधिक चुनौतीपूर्ण पर्यावरण की ओर रुख करना होता है। प्रबन्ध का महत्त्व इस रूप में है कि यह लोगों को इन परिवर्तनों को अपनाने में सहायक होता है। इससे संस्था अपनी प्रतिस्पर्धी श्रेष्ठता को बनाये रखने में सफल रहती है।
4. व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायकप्रबन्ध का महत्त्व इस रूप में भी होता है कि यह अपनी टीम को इस प्रकार से प्रोत्साहित करता है एवं उसका नेतृत्व करता है कि प्रत्येक सदस्य संस्था या संगठन के उद्देश्यों में योगदान देते हुए व्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त करता है।
5. प्रबन्ध समाज के विकास में सहायक होता है-प्रबन्ध श्रेष्ठ किस्म की वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध कराने, रोजगार के अवसर पैदा करने, लोगों की भलाई के लिए नयी तकनीकों को अपनाने, बुद्धि एवं विकास के रास्ते पर चलने में सहायक होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध समाज के विकास में सहायक होता है।
प्रश्न 4.
प्रबन्ध सतत् पारस्परिक कार्यों की एक श्रृंखला है। टिप्पणी कीजिये।
उत्तर:
प्रबन्ध प्रक्रिया निरन्तर, एकजुट लेकिन पृथक्-पृथक् कार्यों यथा नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियुक्तिकरण एवं नियन्त्रण की एक श्रृंखला है। इन कार्यों को सभी प्रबन्धक सदा साथ-साथ ही निष्पादित करते हैं। प्रबन्धक के कार्यों में कार्यों की श्रृंखला सम्मिलित है जो निरन्तर सक्रिय रहती है। प्रबन्ध के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
1. नियोजन-नियोजन प्रबन्ध का महत्त्वपूर्ण कार्य है, जिसमें भविष्य के बारे में पहले से ही चिन्तन किया जाता है। नियोजन पहले से ही यह निर्धारित करने का कार्य है कि क्या करना है। किस प्रकार तथा किसको करना है। इसका अर्थ है उद्देश्यों को पहले से ही निश्चित करना एवं दक्षता से एवं प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिए मार्ग निर्धारित करना। यदि कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व इन बातों पर गहन सोच-विचार नहीं किया जाये तो व्यवसाय के उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
2. संगठन-संगठन पूर्व निर्धारित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कार्य सौंपने, कार्यों को समूहों में बाँटने, अधिकार निश्चित करने एवं संसाधनों के आवंटन के कार्य का प्रबन्धन करता है। एक बार जब संस्था के उददेश्यों को पूरा करने के लिए विशिष्ट योजना तैयार कर ली जाती है तो फिर संगठन योजना के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक क्रियाओं एवं संसाधनों की जाँच की जाती है। यह आवश्यक कार्यों एवं संसाधनों का निर्धारण करता है तथा निर्णय लेता है कि किस कार्य को कौन करेगा तथा इन्हें कहाँ और कब किया जायेगा। इस प्रकार संगठन ही वह व्यवस्था है जिसमें प्रबन्धक इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्यों का व्यक्तियों में इस प्रकार विभाजन करता है कि निर्धारित समय में उपलब्ध साधनों का उपयोग करते हुए लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
3. कर्मचारी नियुक्तिकरण-इसका अर्थ है सही कार्य के लिए उचित व्यक्ति को ढूँढना। इसमें कर्मचारियों की भर्ती, चयन, कार्य पर नियुक्ति एवं प्रशिक्षण सम्मिलित हैं। इस प्रकार, सही व्यक्ति को सही काम पर रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
4. निदेशन-निदेशन का कार्य कर्मचारियों को नेतृत्व प्रदान करना, प्रभावित करना एवं अभिप्रेरित करना है जिससे कि वे सौंपे गये कार्य को पूरा कर सकें। इसके लिए एक ऐसा वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है जो कर्मचारियों को सर्वश्रेष्ठ ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करे। अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व, निर्देशन के दो मूल तत्त्व हैं। साथ ही निर्देशन में यह भी आता है कि संस्था में सम्प्रेषण प्रभावशाली ढंग से हो एवं कर्मचारियों का कार्यस्थल पर पर्यवेक्षण हो। एक अच्छा प्रबंधक प्रशंसा एवं आलोचना से निर्देशन करता है ताकि कर्मचारी अपना श्रेश्ठतम योगदान दे सकें।
5. नियन्त्रण-प्रबन्ध के इस नियन्त्रण कार्य में निष्पादन के स्तर निर्धारित किये जाते हैं। वर्तमान निष्पादन को मापा जाता है और इसका पूर्व निर्धारित स्तरों से मिलान किया जाता है। विचलन की स्थिति में सुधारात्मक कदम उठाये जाते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि एक प्रबन्धक पहले योजना तैयार करता है, फिर संगठन बनाता है, इसके बाद नियुक्ति का कार्य करता है तत्पश्चात् निर्देशन करता है और अन्त में नियन्त्रण करता है। वास्तव में प्रबन्धक शायद ही इन कार्यों को एक-एक करके करता है। प्रबन्धक के ये कार्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तथा यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि कौनसा कार्य समाप्त हुआ और कौनसा कार्य कहाँ से प्रारम्भ हुआ? इसीलिए कहा जाता है कि प्रबन्ध सतत् पारस्परिक कार्यों की एक श्रृंखला है।
प्रश्न 5.
एक कंपनी कम बिक्री के कारण बाजार में अपने मौजूदा उत्पाद को संशोधित करना चाहती है। आप किसी भी उत्पाद की कल्पना कर सकते हैं जिसके बारे में आप परिचित हैं। प्रबंधन के प्रत्येक स्तर को इस निर्णय को प्रभावी करने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?
उत्तर:
बाजार में मौजूदा उत्पाद को संशोधित करने के लिए, प्रबंधक के प्रत्येक स्तर पर निम्नलिखित निर्णय/ कदम उठाए जाने चाहिए-
उच्च स्तरीय प्रबंध-
मध्य स्तरीय प्रबंध-
पर्यवेक्षीय अथवा प्रचालन प्रबंधक-
प्रश्न 6.
एक फर्म भविष्य की योजनाएँ तैयार करती है और कुशल पर्यवेक्षी कर्मचारियों और नियंत्रण प्रणाली के साथ उसके संगठन का ढाँचा भी मजबूत है, लेकिन कई अवसरों पर यह पाया जाता है कि योजनाओं का पालन नहीं किया जा रहा है। इससे भ्रम और काम का दोहराव उत्पन्न होता है। उपाय सुझाएँ।
उत्तर:
संगठन में जिस मुख्य पहलू पर काम करने की आवश्यकता है, वह है समन्वय।
समन्वय के लिए उद्धरण-कई अवसरों पर यह पाया जाता है कि योजनाओं का पालन नहीं किया जा रहा है। इससे भ्रम और काम का दोहराव उत्पन्न होता है।
समन्वय का अर्थ है समूहों और व्यक्तियों के कार्यों को जोड़ना। यह संगठन की सुचारू कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए कर्मचारियों की गतिविधियों के बाँधता है।
(1) विभिन्न प्रबंधन कार्यों को मजबूत समन्वय के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि काम में किसी भी भ्रम से बचा जा सके।
(2) प्रबंधन के हर स्तर-नियोजन के चरण से, जहाँ उद्देश्य निर्धारित हैं, एक-दूसरे के साथ समन्वित होना चाहिए। इसके बाद प्लानिंग स्टेज और स्टाफिंग स्टेज के बीच की जरूरत होती है, ताकि सही लोगों को काम पर रखा जा सके। अगला, निर्देशन और नियंत्रण के कार्यों को भी एक दूसरे के साथ समन्वित किया जाना चाहिए।
(3) यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कार्यबल को उचित दिशा देने के साथ-साथ प्रेरणा भी दी जाए ताकि काम में किसी तरह की अराजकता और दोहराव से बचा जा सके।
(4) यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अंतर्विभागीय टकराव से बचा जाए। प्रत्येक विभाग का कार्य, हालांकि स्वतंत्र है, को साथ-साथ किया जाना चाहिए।
(5) यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि व्यक्तियों के व्यक्तिगत लक्ष्यों को संगठन के समग्र उद्देश्यों के साथ एकात्मक किया जाए ताकि योजनाओं का सही तरीके से पालन हो सके।