RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि

RBSE Class 11 Sanskrit नवद्रव्याणि Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
एकपदेन उत्तरत। 
(क) पदार्थाः कति भवन्ति? 
(ख) पृथिव्याः कति भेदाः उक्ता:? 
(ग) तेजः कीदृशं कथ्यते? 
(घ) अतीतादिव्यवहारहेतुः कः? 
(ङ) आत्मा कतिविधः? 
उत्तराणि :
(क) सप्त। 
(ख) द्वौ भेदौ। 
(ग) उष्णस्पर्शवत्। 
(घ) कालः। 
(ङ) द्विविधः।

प्रश्न 2. 
पूर्णवाक्येन उत्तरत। 
(क) कस्मात् ग्रन्थात् सङ्गृहीतः एषः पाठः? 
उत्तरम् : 
एषः पाठः 'तर्कसंग्रहः' इति ग्रन्थात् सगृहीतः। 

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(ख) कानि पञ्चकर्माणि पाठे वर्णितानि? 
उत्तरम् : 
उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चन-प्रसारण-गमनानीति पञ्चकर्माणि पाठे वर्णितानि। 

(ग) मनः कस्य साधनम्? 
उत्तरम् :
मनः दुःखाद्युपलब्धिसाधनम्। 

(घ) वायोः कति भेदाः? 
उत्तरम् : 
वायोः द्वौ भेदौ स्त:-नित्यः, अनित्यश्च। 

(ङ) अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः, स च कीदृशः? 
उत्तरम् : 
अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः चैको विभुर्नित्यश्च। 

प्रश्न 3. 
मञ्जूषातः पदान्यादाय रिक्तस्थानानि पूरयत। 
त्रिविधम्, गन्धवती, प्रसारण, परमाणुरूपः, अनन्तम्। 
(क) आपः शरीरेन्द्रियविषयभेदात् ............. भवति। 
(ख) वायोः द्वौ भेदौ नित्यः ................ अनित्यः कार्यरूपश्च। 
(ग) पृथिवी ............... सा नित्याऽनित्या, परमाणुरूपा कार्यरूपा च। 
(घ) उत्क्षेपणाऽपक्षेपणाऽऽकुञ्चन .......... गमनानि पञ्चकर्माणि भवन्ति। 
(ङ) मनः प्रत्यात्मनियतत्वात्. .परमाणुरूपं नित्यं च। 
उत्तरम् : 
(क) त्रिविधम्। 
(ख) परमाणुरूपः। 
(ग) गन्धवती। 
(घ) प्रसारण। 
(ङ) अनन्तम्।

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प्रश्न 4.
यथोचितं योजयत। 
(क) शीतस्पर्शवत्यः - सर्वज्ञः
(ख) चतुर्विधः - रूपरहितः 
(ग) ईश्वरः - अभावः 
(घ) वायुः - आकाशम् 
(ङ) शब्दगुणकम् - आपः 
उत्तरम् :  
(क) शीतस्पर्शवत्यः - आपः 
(ख) चतुर्विधः - अभावः 
(ग) ईश्वरः - सर्वज्ञः
(घ) वायुः - रूपरहितः 
(ङ) शब्दगुणकम् - आकाशम् 
 
प्रश्न 5. 
सन्धिविच्छेदं कृत्वा सन्धेः नाम लिखत। 
उत्तरम् :  
RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि 1

प्रश्न 6. 
प्रदत्तपदान्यधिकृत्य वाक्यानि रचयत। 
अनित्यम्, चतुर्विंशतिः, नवैव, समवायः, रूपरहितः।।
उत्तरम् :  
पदानि - वाक्यानि 

  1. अनित्यम् - तेजः नित्यम् अनित्यं च भवति। 
  2. चतुर्विंशतिः - तर्कशास्त्रे गुणाः चतुर्विंशतिः सन्ति। 
  3. नवैव - तर्कशास्त्रानुसारं द्रव्याणि नवैव भवन्ति। 
  4. समवायः - समवायस्तु एक एव।
  5. रूपरहितः - वायुः रूपरहितः भवति। 

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प्रश्न 7. 
पाठात् विपरीतार्थकपदानि चित्वा लिखत। 
उत्तरम् :  
(क) उत्क्षेपणम् - अपक्षेपणम् 
(ख) सामान्यम् - विशेषः 
(ग) अनित्या - नित्या 
(घ) पृथिवी - आकाशम् 
(ङ) अनन्तम् - एकः 

प्रश्न 8. 
अ. अधोलिखितपदानां मूलशब्दं, विभक्तिं, वचनं, लिङ्गं च लिखत। 
उत्तरम् :  
RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि 2

आ. समस्तपदानां विग्रहं कृत्वा लिखत। 
उत्तरम् :  
(क) सप्तपदार्थाः - सप्त पदार्थाः इति। 
(ख) अनन्ताः - न अन्ताः इति। 
(ग) शरीरेन्द्रियविषयभेदात् - शरीरस्य इन्द्रियस्य विषयस्य च भेदात्।
(घ) व्यवहारहेतुः - व्यवहारस्य हेतुः। 
(ङ) रूपरहितः - रूपेण रहितः।

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प्रश्न 9. 
कानि पञ्चकर्माणि? सोदाहरणं स्पष्टयत। 
उत्तरम् :
उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चन-प्रसारण-गमनानि पञ्चकर्माणि। ऊर्ध्वदेशसंयोगहेतुरुत्क्षेपणम्। अधोदेशसंयोगहेतु रपक्षेणम्। शरीरस्य सन्निकृष्टसंयोगहेतुराकुञ्चनम्। विप्रकृष्टसंयोगहेतुः प्रसारणम्। अन्यत्सर्वं भ्रमणं रेचनादिकं गमनम्। 

RBSE Class 11 Sanskrit नवद्रव्याणि Important Questions and Answers

संस्कृतभाषया उत्तरम् दीयताम् - 

प्रश्न: 1. 
कति पदार्थाः सन्ति? तेषां नामानि लिखत। 
उत्तरम् : 
पदार्थाः सप्त सन्ति द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाभावाश्चेति। 

प्रश्न: 2. 
कति द्रव्याणि? कानि च तानि? 
उत्तरम् :
द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव सन्ति। 

प्रश्न: 3. 
तर्कसंग्रहानुसारेण गुणाः कति भवन्ति? 
उत्तरम् : 
तर्कसंग्रहानसारेण गणाः चतुर्विंशतिः भवन्ति। रूप-रस-गन्ध-स्र्पशादयः।

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प्रश्न: 4. 
पञ्च कर्माणि कानि सन्ति? 
उत्तरम् :
उत्क्षेपण-अवक्षेपण-आकुञ्चन-प्रसारण-गमनानि चेति पञ्चकर्माणि सन्ति। 

प्रश्नः 5. 
सामान्यं कतिविधं भवति? 
उत्तरम् : 
सामान्यं द्विविधं भवति - परम् अपरञ्च। 

प्रश्नः 6.
अभावः कतिविधः भवति? नामानि लिखत। 
उत्तरम् : 
अभावः चतुर्विधः भवति-1. प्रागभावः, 2. प्रध्वंसाभावः, 3. अत्यन्ताभावः, तथा च 4. अन्योन्याभावः। 

प्रश्नः 7. 
का पृथिवी कथ्यते? सा कतिविधा? 
उत्तरम् :
गन्धवती पृथिवी कथ्यते। सा द्विविधा-नित्याऽनित्या च। 

प्रश्नः 8. 
काः आप:? ताः कतिविधाः? 
उत्तरम् : 
शीतस्पर्शवत्यः आपः। ताः द्विविधाः-नित्या अनित्याश्च।

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प्रश्नः 9. 
किम् तेजः? तच्च कतिविधम्? 
उत्तरम् : 
उष्णस्पर्शवत्तेजः। तच्च द्विविधम - नित्यमनित्यं च। 

प्रश्नः 10. 
कीदृशः वायुः? सः कस्मात् त्रिविधः? 
उत्तरम् :
रूपरहितः स्पर्शवान वायः। सः शरीरेन्द्रियविषयभेदात त्रिविधः। 

प्रश्न: 11. 
शब्दगुणकं किम्? तच्च कतिविधम्? 
उत्तरम् : 
शब्दगुणकमाकाशम्। तच्चैकं विभु नित्यं च। 

प्रश्न: 12. 
कः कालः कथ्यते? सः च कतिविधः? 
उत्तरम् : 
अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः कथ्यते। सः चैको विभुर्नित्यश्च। 

प्रश्न: 13. 
का दिक् कथ्यते? सा च कतिविधा? 
उत्तरम् : 
प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक कथ्यते। सा चैका। नित्या विभ्वी च। 

प्रश्न: 14.
कः आत्मा? सः च कतिविधः?
उत्तरम् :
ज्ञानाधिकरणमात्मा। सः च द्विविधः-जीवात्मा परमात्मा चेति।

RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि

प्रश्न: 15. 
मनः किम् कथ्यते? 
उत्तरम् : 
सुख-दु:खाधुपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः कथ्यते।

नवद्रव्याणि Summary and Translation in Hindi

पाठ के गद्यांशों का सप्रसंग हिन्दी-अनुवाद/व्याख्या एवं सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -

1. द्रव्य-गुण-कर्म ...................................................चतुर्विंशतिर्गुणाः॥ 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • अप = जल। 
  • दिक् = दिशा। 
  • आत्ममनांसि = आत्मा और मन। 
  • दुःखेच्छा = दु:ख और इच्छा। 

प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती' के 'नवद्रव्याणि' शीर्षक पाठ से उद्धत है। यह पाठ मूलतः अन्नभट्ट द्वारा रचित 'तर्कसंग्रह' से संकलित है। 'तर्कसंग्रह' ग्रन्थ न्याय एवं वैशेषिक दर्शन के प्रवेश की कुञ्जी है। प्रस्तुत अंश में सप्त पदार्थों , नव द्रव्यों तथा चौबीस गुणों का नामोल्लेख किया गया है। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - न्याय-दर्शन के अनुसार पदार्थ सात माने गए हैं - 1. द्रव्य, 2. गुण, 3. कर्म, 4. सामान्य, 5. विशेष, 6. समवाय और 7. अभाव। 

इन सप्त पदार्थों में द्रव्य नामक पदार्थ नौ प्रकार का होता है - 1. पृथिवी, 2. जल, 3.  तेज, 4. वायु, 5. आकाश, 6. काल, 7. दिक्, 8. आत्मा और 9. मन। 

उक्त सप्त पदार्थों में द्वितीय गुण नामक पदार्थ चौबीस प्रकार का होता है - 1. रूप, 2. रस, 3. गन्ध, 4. स्पर्श, 5. संख्या, 6. परिमाण, 7. पृथक्त्व, 8. संयोग, 9. विभाग, 10. परत्व, 11. अपरत्व, 12. गुरुत्व, 13. द्रवत्व, 14. स्नेह, 15. शब्द, 16. बुद्धि, 17. सुख, 18. दु:ख, 19. इच्छा, 20. द्वेष, 21. प्रयत्न, 22. धर्म, 23. अधर्म और 24. संस्कार। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -

प्रसङ्गः - प्रस्तुतगद्यांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शाश्वती' इत्यस्य 'नवद्रव्याणि' इति शीर्षकपाठाद् उद्धतः। मूलतः पाठोऽयम् अन्नभट्टविरचितस्य न्यायदर्शनस्य प्रमुखग्रन्थात् तर्कसङ्ग्रहात् सङ्कलितः। अंशेऽस्मिन् सप्तपदार्थानां नवद्रव्याणां चतुर्विंशतिगुणानाञ्च नामोल्लेखं कृतम्।

संस्कृत-व्याख्या - न्यायदर्शनानुसारेण पदार्थाः सप्त भवन्ति - 1. द्रव्यम्, 2. गुणः, 3. कर्म, 4. सामान्यम्, 5. विशेषः, 6. समवायः, 7. अभावश्चेति। एतेषु सप्तपदार्थेषु द्रव्यत्वं पदार्थः नवविधः भवति अर्थात् नव द्रव्याणि भवन्ति-1. पृथिवी, 2. अप् = जलम्, 3. तेजः, 4. वायुः, 5. आकाशः, 6. कालः, 7. दिक् = दिशा, 8. आत्मा, 9. मनश्चेति। 

न्यायदर्शनानुसारेण सप्तपदार्थेषु 'गुणः' इति पदार्थस्यापि चतुर्विंशतिः भेदाः भवन्ति, अर्थात् गुणा: चतुर्विंशतिः भवन्ति - 1. रूपम्, 2. रसः, 3. गन्धः, 4. स्पर्शः, 5. संख्या, 6. परिणामः, 7. पृथक्त्वम्, 8. संयोगः, 9. विभागः = वियोगः, 10. परत्वम्, 11. अपरत्वम्, 12. गुरुत्वम्, 13. द्रवत्वम्, 14. स्नेहः, 15. शब्दः, 16. बुद्धिः, 17. सुखम्, 18 दु:खम्, 19. इच्छा, 20. द्वेषः, 21. प्रयत्नम्, 22. धर्म:, 23. अधर्मः, 24. संस्कारश्चेति। 

विशेषः - 'पदजन्यप्रतीतिविषयत्वं पदार्थः।' ज्ञानस्य विषयः पदार्थ: कथ्यते। अन्येषु दर्शनेषु पदार्थानां भिन्न-भिन्नं संख्या वर्तते। वेदान्ते चित्, अचिच्चेति द्वावेव पदार्थो भवतः। मीमांसका: अष्टपदार्थाः स्वीकुर्वन्ति। सांख्यदर्शने पञ्चविंशतिपदार्थाः वर्णिताः। किन्तु न्यायवैशिषिकमतेन संसारे यत् किञ्चिदपि वर्तते तस्य द्रव्यादि सप्तपदार्थेष्वेवान्तर्भावः भवति। द्रव्यम् द्रव्यत्वजातिमत्वं गुणवत्त्वं वा द्रव्यसामान्यलक्षणम्। 

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2. उत्क्षेपणापक्षेपणा.............................................................भावश्चेति। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • उत्क्षेपणम् = ऊर्ध्व स्थान संयोग का कारण (ऊपर फेंकना)। 
  • अपक्षेपणम् = निम्न स्थान के संयोग का हेतु (नीचे फेंकना)। 
  • आकुञ्चनम् = शरीर के संकोचरूपी संयोग का हेतु (सिकोड़ना)। 
  • प्रसारणम् = शरीर के विस्ताररूपी संयोग का हेतु (फैलाना)। 
  • समवायः = जिसके कारण यह इसमें है, ऐसी अनुभूति होती है, वह समवाय है। 
  • अभाव = निषेधमुख अर्थात् नहीं है ऐसी अनुभूति का विषय। 
  • प्रागभाव = कार्य की उत्पत्ति से पूर्व की अवस्था। 

प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'नवद्रव्याणि' शीर्षक पाठ से उद्धत है। मूलतः यह पाठ श्री अन्नभट्ट विरचित 'तर्कसंग्रह' नामक न्याय-दर्शनग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस अंश में सप्त पदार्थों के अन्तर्गत कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव नामक पदार्थों के भेदों का नामोल्लेख किया गया है। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - तर्कसंग्रह के अनुसार 'कर्म' नामक पदार्थ पाँच प्रकार का होता है-1. उत्क्षेपण (ऊर्ध्व स्थान संयोग का कारण, ऊपर फेंकना), 2. अपक्षेपण (निम्न स्थान के संयोग का हेतु, नीचे फेंकना), 3. आकुञ्चन (शरीर के संकोचरूपी संयोग का हेतु, सिकोड़ना), 4. प्रसारण (शरीर के विस्ताररूपी संयोग का हेतु, फैलाना) तथा 5. गमन। 

'सामान्य' नामक पदार्थ दो प्रकार का होता है - पर और अपर।
 
नित्य द्रव्य (पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणु तथा आकाश) में रहने वाले 'विशेष' नामक पदार्थ हैं जो (परमाणु आदि के अनन्त होने के कारण) अनन्त हैं। 

'समवाय' नामक पदार्थ तो एक ही प्रकार का होता है। नित्य सम्बन्ध को समवाय कहते हैं। जैसे - जाति और व्यक्ति, गुण और गुणी आदि में इनका जो परस्पर सम्बन्ध है, उसे समवाय कहते हैं। 

(जिसका ज्ञान उसके विरोधी पदार्थ के ज्ञान पर आधारित हो वह अभाव है) नामक पदार्थ चार प्रकार का होता है - 1. प्रागभाव, 2. प्रध्वंसाभाव, 3. अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव। 

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सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -

प्रसङ्गः - प्रस्तुतगद्यांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शाश्वती' इत्यस्य 'नवद्रव्याणि' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं श्रीमदन्नभट्टविरचितात् 'तर्कसङ्ग्रहः' इति न्यायदर्शनग्रन्थात् सङ्कलितः। अंशेऽस्मिन् सप्तपदार्थेषु कर्म-सामान्य 

विशेष - समवायाभावपदार्थानां भेदानामुल्लेखो कृतः। 

संस्कृत-व्याख्या - 'चलनात्मकं कर्म' अर्थात् चलनस्य स्वभावं 'कर्म' कथ्यते। तर्कसङ्ग्रहानुसारं 'कर्म' नामकः पदार्थः पञ्चविधः भवति, यथा - 1. उत्क्षेपणम् ऊर्ध्वदेशसंयोगहेतुः, 2. अपक्षेपणम् = अधोदेशसंयोगहेतुः, अधः प्रक्षेपणम्, 3. आकुञ्चनम् = शरीरस्य सन्निकृष्टसंयोगहेतुः, 4. प्रसारणम् = विप्रकृष्टसंयोगहेतुः, तथा च 5. गमनम्। 

न्यायशास्त्रे वर्णितेषु सप्तपदार्थेषु सामान्यमपि पदार्थमेकं वर्तते। सामान्यस्य लक्षणमस्ति - 'नित्यम् एकम् अनेकानुगतम्।' अथवा 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्त्वम्'। सामान्यमिदं द्विप्रकारकं भवति - (i) परम्, (ii) अपरञ्चेति। सामान्यसत्ता परं कथ्यते, यतोहि सत्तायाः विषयः व्यापकः अधिकश्च भवति। परापेक्षया अपरसामान्यम् अल्पविषयकं भवति। यथा-द्रव्ये द्रव्यत्वम्, गुणे गुणत्वम्। सामान्यं 'जातिः' इत्यपि कथ्यते। 

सप्तपदार्थेषु विशेषोऽपि एकः पदार्थः वर्तते। तस्य लक्षणं कुर्वन् कथितं यत्—'नित्यद्रव्यवृत्तयो विशेषः'। अर्थाद् पृथिवी-जल-तेजादिनित्यद्रव्येषु स्थितः 'विशेषः' कथ्यते। सः च परमाण्वादेः अनन्तत्त्वाद् अनन्तः = असंख्यः वर्तते। अस्यान्या परिभाषा वर्तते “अन्त्यत्त्वे सति नित्यद्रव्यवृत्तित्वं विशेषत्त्वम्।" 

'समवायः' इति पदार्थः एक एव भवति। इहेदमिति यतः सः समवायः। 'नित्यसम्बन्धत्वं समवायत्वम्।' अर्थात् नित्यसम्बन्धः समवायः कथ्यते। यथा—अंग-अंगी, गुण-गुणी, इत्यादिनां सम्बन्धः समवायः भवति। समवाय एक एव भवति। न्यायशास्त्रे सप्तपदार्थेषु अभावस्यापि गणना कृता। तस्य लक्षणं कथितं यत् - 'भावोऽभावः इति योगार्थबलेन भावभिन्नत्वमभावः।" अथवा "प्रतियोगिज्ञानाधीन ज्ञानविषयत्त्वमभावः।" अयमभावः चतुर्विधः भवति - (i) प्रागभावः = अनादिः सान्तः प्रागभावः, (ii) प्रध्वंसाभावः = सादिरनन्तः उत्पत्त्यनन्तरं कार्यस्य, (iii) अत्यन्ताभावः = त्रैकालिकसंसर्गाभावः, तथा च (iv) अन्योन्याभावः = तादात्म्यसम्बन्धाभावः। 

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विशेष: - प्रस्तुतांशे सप्तपदार्थेषु न्यायदर्शनानुसारेण कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाभावश्चेति पञ्चपदार्थानां भेदानामुल्लेखो कृतः। 

3. तत्र गन्धवती पृथिवी ................................................... विषयभेदात्। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • गन्धवती = गन्धगुण से युक्त। 
  • शीतस्पर्शवत्यः = शीतल स्पर्श का आश्रय। 
  • आपः = जल। 
  • पुनः = फिर से, कार्यरूप जल। 
  • उष्णस्पर्शवत् = उष्ण स्पर्श वाला। 

प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश 'नवद्रव्याणि' शीर्षक पाठ से उद्धत है। मूलतः यह पाठ न्यायशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'तर्कसंग्रह' से संकलित किया गया है। नव-द्रव्यों के वर्णन-प्रसंग में प्रस्तुत अंश में पृथिवी, जल एवं तेज नामक द्रव्यों के लक्षण और भेदों का वर्णन किया गया है। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - नव द्रव्यों में पृथ्वी वह द्रव्य है जिसमें गन्धगुण समवाय-सम्बन्ध से रहता है। वह पृथ्वी दो प्रकार की है - नित्य और अनित्य। नित्य परमाणु रूप है और अनित्य कार्यरूप। 

शीतल स्पर्शयुक्त द्रव्य को जल कहते हैं। वह दो प्रकार का है - एक नित्य, दूसरा अनित्य। परमाणु रूप जल नित्य है और कार्यरूप जल अनित्य। पुनः (कार्यरूप जल) शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का है। 

उष्ण स्पर्श वाला द्रव्य तेज कहलाता है। अर्थात् जिसका स्पर्श उष्ण होता है एवं जो प्रकाशक होता है, जैसे अग्नि, चन्द्र, सूर्य आदि, ये सब तेज द्रव्य हैं। तेज द्रव्य भी दो प्रकार का होता है - नित्य और अनित्य। नित्य तेज परमाणु रूप और अनित्य तेज कार्यरूप होता है। यह अनित्य तेज पुनः शरीररूप, इन्द्रियरूप और विषयरूप भेद से तीन प्रकार का माना जाता है। सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या . प्रसङ्गः - प्रस्तुतगद्यांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शाश्वती' इत्यस्य 'नवद्रव्याणि' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं न्यायशास्त्रस्य सुप्रसिद्धग्रन्थात् तर्कसंग्रहात् सङ्कलितः। नवद्रव्याणां वर्णनप्रसङ्गे प्रस्तुतांशे 'पृथिवी, जलम्, तेजश्चेति' द्रव्याणां लक्षणानि भेदाश्च वर्णिताः। 

संस्कृत-व्याख्या - न्यायशास्त्रे नवद्रव्येषु पृथिव्याः गणना भवति। तस्याः लक्षणं कुर्वन् कथितं यत् समवायसम्बन्धेन गन्धस्य यत् कारणं तत् पृथ्वीः कथ्यते। समवायसम्बन्धः नित्यसम्बन्धः भवति। अतएव पृथ्वीगन्धयोः नित्यसम्बन्धः वर्तते। वी च। नित्या पृथिवी परमाणुरूपा भवति, यतोहि परमाणोः कदापि विनाशः न भवति। द्रव्यणुकादिरूपा पृथ्वी अनित्या वर्तते, इयं कार्यरूपा कथ्यते। 

नवद्रव्येषु जलस्यापि गणना कृता। तर्कसंग्रहानुसारं शीतलस्पर्शयुक्तः आपः = जलं कथ्यते। अर्थात् यस्य द्रव्यस्य स्पर्श: शीतलः भवति, तत् द्रव्यं जलं कथ्यते। यथा अग्नौ स्पर्शः वर्तते किन्तु शीतत्वं नास्ति, स तु उष्णः भवति। एवमेव आकाशे स्पर्श नास्ति। तच्च जलं द्विविधं भवति–नित्यम् अनित्यं चेति। नित्यं परमाणुरूपे भवति, अनित्यञ्च कार्यरूपे। व्यावहारिकदृष्ट्या जलपदार्थस्य शरीरेन्द्रियविषयभेदात् त्रयः भेदाः भवन्ति। जलशरीरं वरुणलोके तिष्ठति, रसग्राहकं जिह्वाग्रवर्ति रसना एव जलरूपं इन्द्रियं वर्तते, सरित-समुद्रादिषु विद्यमानं जलं विषयः कथ्यते। 

तर्कसंग्रहे तेजद्रव्यस्य लक्षणं प्रतिपादयन् कथितं यत् "उष्णस्पर्शवत्तेजः" अर्थात् समवायसम्बन्धेन उष्णस्पर्शः तेजः कथ्यते। यथा - अग्निः, चन्द्रः सूर्योदयः। तेजद्रव्यमपि द्विविधं भवतिनित्यम् अनित्यञ्च। नित्यतेजः परमाणुरूपम् अनित्येजः च कार्यरूपं भवति। अनित्यतेजः पुनश्च शरीरेन्द्रियविषयभेदात् त्रिविधं भवति। 

विशेष: - अत्र न्यायदर्शनानुसारेण नवद्रव्येषु पृथिव्याः, जलस्य तेजसश्च लक्षणं भेदाश्च दर्शिताः। 

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4. रूपरहितः स्पर्शवान् वायु:........................................................नित्यंच। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • रूपरहितः = रूप से रहित। 
  • त्रिविधः = तीन प्रकार का। 
  • विभुः/विभु/विभ्वी = (पु./नपुं./स्त्री.) सर्वव्यापक। 
  • दिक् = पूर्व-पश्चिम आदि दिशा। 
  • अधिकरणम् = आधार। 
  • प्रत्यात्मम् = प्रत्येक आत्मा में। 
  • सर्वज्ञः = सब कुछ जानने वाला। 

प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'नवद्रव्याणि' शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ श्री अन्नभट्ट विरचित 'तर्कसंग्रह' ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस अंश में वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मन नामक द्रव्यों के लक्षण व भेद दिये गए हैं। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या - नव द्रव्यों के अन्तर्गत 'वायु' नामक द्रव्य का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि "रूपरहित और स्पर्शवान् को वायु कहते हैं। यह दो प्रकार का है - नित्य और अनित्य। नित्य परमाणु रूप है तथा अनित्य कार्यरूप है। अनित्य वायु भी तीन प्रकार का होता है-शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से।" 

'आकाश' नामक द्रव्य का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि शब्द-गुण के आश्रय द्रव्य को आकाश कहते हैं, अर्थात् शब्द-गुण वाला द्रव्य आकाश है। वह एक, व्यापक और नित्य है। 

'काल' नामक द्रव्य का लक्षण करते हुए कहा है कि अतीत आदि (भूत, वर्तमान और भविष्य) व्यवहार के असाधारण कारण को काल कहते हैं। यह एक, विभु (व्यापक) और नित्य द्रव्य है। 

'दिशा' (दिक्) का लक्षण इस प्रकार है-प्राची (पूर्व दिशा) आदि (पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा) इस व्यवहार के कारण को 'दिक्' (दिशा) कहा गया है। वह एक, नित्य और विभु (व्यापक) है। 

ज्ञान नामक गुण के आश्रय द्रव्य को 'आत्मा' कहते हैं। वह आत्मा दो प्रकार का है - जीवात्मा और परमात्मा। इनमें पमात्मा ईश्वर है, वह सर्वज्ञ और एक है। जीव तो प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है। आत्मा विभु और नित्य द्रव्य है। 

'मन' नामक द्रव्य का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि - सुख और दुःख की उपलब्धि (प्राप्ति) के हेतु इन्द्रिय को 'मन' कहते हैं। वह प्रत्येक आत्मा के साथ अलग-अलग नियत है, इसलिए मन भी आत्मा के समान अनन्त है तथा मन परमाणु रूप और नित्य है। 

RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit Shashwati Chapter 14 नवद्रव्याणि

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -

प्रसङ्गः - प्रस्तुतगद्यांशः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शाश्वती' इत्यस्य 'नवद्रव्याणि' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं श्रीमदन्नभट्टविरचितात् तर्कसंग्रहात् सङ्ककलितः। अंशेऽस्मिन् वायु-आकाश-काल-दिक्-आत्मा-मनश्चेत्यादिनां द्रव्याषणां लक्षणानि भेदाश्च वर्णिताः।

संस्कृत-व्याख्या - वायुद्रव्यस्य लक्षणं कुर्वन् कथितं यत्"रूपरहितस्पर्शवान् वायुः।" अर्थाद् रूपरहितं स्पर्शगुणयुक्तञ्च पदार्थः वायुः भवति। कालिकदृष्ट्या वायुः द्विविधा भवति–नित्या अनित्या च। नित्या परमाणुरूपे सदैव तिष्ठति, अनित्या णिका भवति। व्यावहारिकदृष्ट्या वायुः शरीरन्द्रियविषयभेदात् त्रिविधाः भवति। शरीररूपवायुः वायुलोके तिष्ठति। इन्द्रियरूपवायुः स्पर्शग्राहकं त्वक् सर्वशरीरवर्तिः भवति। वृक्षादिकम्पनहेतुः विषयरूपवायुः भवति। 

अन्नभट्टेन आकाशद्रव्यस्य लक्षणं प्रतिपादयन् कथितंयत्'शब्दगणकमाकाशम्।' अर्थाद यस्मिन द्रव्ये समवायसम्बन्धेन शब्दगुणः भवति, तत् आकाशं वर्तते। तच्च आकाशम् एकं व्यापकं नित्यं च वर्तते। अत्र शब्दगुणस्य उत्पत्तिः सर्वत्र समानभावेन भवति। पृथिव्यादिपञ्चमहाभूतेषु अनेकत्वं अव्यापकत्वञ्च दृश्यते। व्यापकत्वपदार्थः कदापि अनित्यं न भवति। सः तु सदैव नित्यं तिष्ठति। अस्मादेव आकाशम् एकं नित्यञ्च वर्तते। आकाशस्य शरीरादिविषयभेदं न भवति, केवलं श्रोत्रेन्द्रियरूपं भवति। 

श्रीअन्नभट्टेन तर्कसंग्रहे नवद्रव्येषु कालस्याषि गणना कृता। सस्य लक्षणं प्रतिपादयन् तेन कथितं यत् "अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः"। अर्थाद् इदमासीत्, इदमस्ति, इदं भविष्यतीति भूतभविष्यवर्तमानव्यवहारस्य निमित्तकारणं कालः वर्तते। अयं कालोऽपि आकाशवत् व्यापकः नित्यश्च वर्तते। उपाधिभेदेन कालोऽपि क्षण-दिवस-मास-ऋतु वर्षादिरूपेण विविधरूपो भवति। किन्तु व्यवहारहेतोः एकमात्र आधारत्वेन काल: एक एव मन्यते, तथा च व्यापकत्वदृष्ट्याऽपि अयं नित्यः। 

आचार्यः अन्नभट्टः दिशः लक्षणं प्रतिपादयन् कथयति यत्"प्रांच्यादि व्यवहारहेतुर्दिक्।" अर्थात् इयं प्राची, इयमवाची, इयं प्रतीची, इयमुदीची इत्यादि व्यवहाराऽसाधारणं कारणं दिक् वर्तते। इयं दिक् व्यापका एका नित्या चास्ति। 

वस्तुतः दिक् एका एव वर्तते, प्राची, प्रतीची इत्यादयः भेदा: तु औपादिकाः सन्ति। आत्मनः लक्षणं भेदाश्च वर्णयन् तर्कसंग्रहे कथितं यत्-"ज्ञानाऽधिकरणमात्मा।" अर्थात् समवायसम्बन्धेन ज्ञानस्य आश्रयः आत्मा वर्तते। अयमात्मा नित्यः व्यापकश्च वर्तते। 

न्यायशास्त्रे आत्मा द्विविधो मन्यते जीवात्मा परमात्मा चेति। यः परमेश्वरः, सर्वज्ञश्चास्ति सः परमात्मा एक एवास्ति। जीवात्मा शरीरभेदेन भिन्नः भवति। द्वावपि नित्यौ व्यापकौ च स्तः। अयं जीवात्मा पृथ्वी-जल-तेज-वायु-परमाणुभिर्निर्मित पार्थिवादिषु सर्वेषु पिण्डेषु विद्यमानत्वाद् असंख्यः वर्तते। आत्मनः कदापि विनाशः न भवति, अत एवायं नित्यः। 

न्यायशास्त्रे नवद्रव्येषु मनसः अपि गणना कृता। तस्य लक्षणं प्रतिपादयन् तर्कसंग्रहकारेण कथितं यत् "सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः।" अर्थात् यत् सुख-दु:खादिनां प्रत्यक्षे कारणं भवति, तत् मनः कथ्यते। यथा - 'अहं सुखी, अहं दु:खी वा' इत्यादेः साक्षात्कारः केनापि इन्द्रियमाध्यमेनैव भवति। अत एव एतादृशस्य साक्षात्कारस्य साधनभूतम् इन्द्रिय एव मनः कथ्यते। इदं मनः आत्मना सह संयुक्तरूपेण तिष्ठति। अस्मिन् संख्या-परिमाण-पृथक्त्वादयः अष्टगुणाः भवन्ति। 

मनः प्रत्येकस्य जीवात्मनः कृते नियतमस्ति, अत एव भिन्नम् अनन्तञ्च वर्तते। मनः प्रत्यक्षं न भवति, स्वल्पं च मन्यते, अतः परमाणुरूपं नित्यञ्चास्ति।

Prasanna
Last Updated on Aug. 26, 2022, 5:47 p.m.
Published Aug. 11, 2022