These comprehensive RBSE Class 12 Home Science Notes Chapter 1 कार्य, आजीविका तथा जीविका will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 12 Home Science Chapter 1 Notes कार्य, आजीविका तथा जीविका
→ कार्य:
- कार्य मूलतः ऐसी गतिविधि है, जिसे सभी मनुष्य करते हैं और जिसके द्वारा प्रत्येक, इस संसार में एक स्थान पाता है, नए संबंध बनाता है, अपनी विशिष्ट प्रतिभाओं और कौशलों का उपयोग करता है, अपनी पहचान और समाज के प्रति लगाव की भावना को विकसित करता है।
- सभी मनुष्यों के लिए कार्य मुख्यतः दैनिक जीवन की अधिकांश गतिविधियाँ हैं। लोगों द्वारा किये जाने वाले कार्य शिक्षा, स्वास्थ्य, आयु, लिंग, अवसर की सुलभता, वैश्वीकरण, भौगोलिक स्थिति, वित्तीय लाभ, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि अनेक कारकों पर निर्भर होते हैं।
- अधिकांश व्यक्ति इतना धन अर्जित करने के लिए कार्य करते हैं जिससे परिवार का खर्च चल सके और साथ ही आराम, मनोरंजन, खेल और खाली समय के लिए समुचित व्यवस्था हो सके। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जो आनंद, बौद्धिक प्रोत्साहन, कर्तव्य तथा समाज को योगदान इत्यादि के लिए निरंतर कार्य करते हैं, इस तथ्य के बावजूद कि वे इससे कोई धन अर्जित नहीं कर रहे हैं। जैसे-गृहणियाँ, माताएँ आदि।
→ अर्थपूर्ण कार्य:
अर्थपूर्ण कार्य समाज अथवा अन्य लोगों के लिए उपयोगी होता है, जिसे जिम्मेदारी से किया जाता है और करने वाले के लिए आनंददायक भी होता है। ऐसा कार्य व्यक्तिगत विकास में योगदान देता है, व्यक्ति में विश्वास जागृत करता है तथा इससे कार्य-क्षमता मिलती है।
→ नौकरी और जीविका में भेद:
नौकरी और करिअर (जीविका) में अन्तर है। अधिकांश धन कमाने के लिए किए जाने वाले कार्यों को परम्परागत रूप से नौकरी कहा जाता है। अतः नौकरी उसके निमित्त कार्य करना है, जबकि करिअर | (जीविका) जीवन को बेहतर बनाने की प्रबल इच्छा और आगे बढ़ने, विकसित होने तथा चुने हुए कार्य क्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करने की आवश्यकता से जुड़ा होता है।
→ जीविका:
जीविका का अर्थ है - साधन और व्यवसाय तथा जिसके द्वारा कोई, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं की सहायता करता है और अपनी जीवन शैली को बनाए रखता है। जीविका एक जीवन-प्रबंध संकल्पना है जिसमें विकास होता रहता है।
→ कार्य के परिप्रेक्ष्य:
कार्य के बहुत से परिप्रेक्ष्य होते हैं। व्यापक रूप से इसके प्रचलित अर्थ हैं-
- एक नौकरी व जीविका के रूप में कार्य
- जीविका के रूप में कार्य और
- जीविका के रूप में मनपसंद कार्य।
→ आराम और मनोरंजन:
- अवकाश या मनोरंजन की गतिविधियाँ वे हैं, जो आराम, सुख, भागीदारी उपलब्ध कराती हैं तथा विशेष रूप से हँसी-मजाक, मनोरंजन और स्वास्थ्य को बढ़ावा देती हैं।
- प्रत्येक व्यक्ति को आराम और अवकाश का अधिकार है। साथ ही कार्य करने के समय की एक औचित्यपूर्ण सीमा के अलावा समय-समय पर सवैतनिक छुट्टियाँ मिलनी चाहिए।
- विश्राम के लिए व्यक्ति जिन गतिविधियों को अपनाता है, वे आरामदायक, स्वास्थ्यप्रद और आनंदप्रद होनी चाहिए।
→ जीवन-स्तर और जीवन की गुणवत्ता:
- जीवन-स्तर-सामान्यतः धन-दौलत और आराम का स्तर, भौतिक-सामग्री और उपलब्ध आवश्यकताओं का द्योतक है। जीवन-स्तर अनेक कारकों पर आधारित होता है, जैसे-आय, माल और सेवाओं की लागत, रोजगार की गुणवत्ता और उपलब्धता, सकल घरेलू उत्पाद, राष्टीय आर्थिक वृद्धि, घरों की गुणवत्ता तथा उनको खरीदने की सामर्थ्य, प्रति वर्ष सवैतनिक छुट्टियाँ, शिक्षा की गुणवत्ता और उपलब्धता, बीमारी के प्रसंग, आर्थिक और राजनैतिक स्थिरता, जीवन-प्रत्याशा, पर्यावरणीय गुणवत्ता, सुरक्षा, जलवायु, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल की सामर्थ्य, आवश्यकता की वस्तुओं को खरीदने के लिए उपलब्ध धन तथा कार्य के घंटे आदि।
- जीवन की गुणवत्ता में जीवन के भौतिक मानकों के साथ-साथ मानव-जीवन के अमूर्त पहलू, जैसेअवकाश, सुरक्षा, सांस्कृतिक स्रोत, सामाजिक जीवन, पर्यावरणीय गुणवत्ता आदि भी शामिल होते हैं। जीवन की गुणवत्ता को मापने के कारक हैं-स्वतंत्रताएँ, सुरक्षा, विभिन्न अधिकार, रोजगार, न्याय, समानता आदि का होना।
- जीवन के उच्चतर स्तर का अर्थ है-प्रत्येक व्यक्ति और समाज को उच्चतर गुणवत्ता और उचित मात्रां में सामग्री और सेवाएँ उपलब्ध हों तथा जो शारीरिक स्वास्थ्य के लिए योगदान करें।
- गरीबी रेखा आय का वह न्यूनतम स्तर है जो किसी देश में जीवन का उपयुक्त स्तर पाने के लिए आवश्यक होता है। इस स्तर में भोजन, वस्त्र और मकान जैसी आवश्यकताएं पूरी होती हैं।
- विकास, गरीबी कम करने का मूल्यांकन है। परन्तु किसी राष्ट्र या वर्ग के विकास की गति उसके सभी सदस्यों की उत्पादकता और सफलता पर निर्भर करती है।
→ सामाजिक दायित्व:
सामाजिक दायित्व में, विशेष रूप से सरकार, संस्थाओं और कंपनियों के द्वारा, ऐसी कार्यवाही और प्रक्रियाओं की आवश्यकता है, ताकि जरूरतमंद व्यक्तियों को मदद मिल सके और समाज पूर्ण रूप से सम्पन्नता की ओर अग्रसर हो। अतः सामाजिक दायित्व का दृष्टिकोण आजकल समाज के अभावग्रस्त वर्गों की मदद के लिए 'कल्याणकारी मॉडल' बन गया है।
→ स्वैच्छिक सेवा:
स्वैच्छिक सेवा (स्वेच्छावृत्ति) ऐसा आचरण है जिसमें व्यक्ति बिना किसी वित्तीय या भौतिक लाभ की प्राप्ति के उद्देश्य से दूसरों के लिए कार्य करता है। इसमें व्यक्ति अपने समय/प्रतिभा/कौशल/ऊर्जा का योगदान सामान्यतः अपने समाज के लिए परोपकार, शिक्षा, सामाजिक-राजनीतिक अथवा अन्य उचित उद्दश्यों के लिए स्वतंत्र रूप से और बिना किसी धन प्राप्ति के उद्देश्य से करता है। यह नि:स्वार्थ सेवा भाव तथा जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के उद्देश्य से की जाती है। यह अनेक प्रकार के व्यक्तियों द्वारा की जा सकती है, जैसे-चिकित्सा कार्य, शिक्षा, विपदा राहत और अन्य प्राकृतिक तथा मानव निर्मित विपत्तियाँ।
इसके दो रूप उल्लेखनीय हैं
- कौशल आधारित स्वेच्छावृत्ति और
- पर्यावरणीय स्वैच्छिक सेवा।
→ स्वैच्छिक सेवा या सामाजिक सेवा का महत्त्व
- सामाजिक सेवा से मन को शांति मिलती है।
- यह रचनात्मकता को बढ़ाने और नया सोचने में मदद करती है।
- इससे व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व तरोताजा हो जाता है।
- यह समता और न्याय को बढ़ावा देती है।
→ श्रमदान:
श्रमदान से आशय है श्रम का दान अर्थात् दूसरों की भलाई के लिये कार्य करना। यह स्वयं के महत्त्व के बोध को विकसित करता है तथा व्यक्ति को स्वयं में परिवर्तन लाने और सशक्तीकरण के लिए भी प्रेरित करता है।
→ कार सेवा:
कार सेवा वह श्रमदान है, जहाँ सेवक धार्मिक कार्यों में निःशुल्क सेवाएँ देते हैं।
→ निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व (सी.एस.आर.):
आजकल समाज के साथ अपना लाभ बाँटने के दृष्टिकोण से बड़ी कम्पनियों द्वारा निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व को व्यवसाय से जोड़ा जा रहा है। निगम के नेता और कंपनियाँ उनकी गतिविधियों का उपभोक्ताओं, कर्मचारियों, समुदायों, स्टेकहोल्डरों और जनता तथा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की जिम्मेदारी लेते हैं। इसमें समुदाय आधारित विकास योजनाएँ भी सम्मिलित हैं।
→ भारत के परम्परागत व्यवसाय
(i) कृषि जनसंख्या के एक बड़े भाग के मुख्य व्यवसायों में से एक रहा है क्योंकि यहाँ की जलवायुवीय परिस्थितियाँ कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त हैं। देश की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जिसके लिए कृषि ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है।
देश के अधिकांश भागों में किसान 'नकदी फसलें उगाते हैं और कुछ क्षेत्रों में आर्थिक महत्त्व वाली फसलें, जैसे-चाय, काफी, इलायची, रबड़ आदि, उगाते हैं। इनसे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
(ii) भारत में दूसरा महत्त्वपूर्ण व्यवसाय मछली पकड़ने का है, क्योंकि देश की तटरेखा काफी लम्बी है।
(iii) भारतीय गाँवों के परम्परागत व्यवसायों में हस्तशिल्प भी एक प्रमुख व्यवसाय है, जैसे- काष्ठशिल्प, मिट्टी के बर्तन, धातुशिल्प, आभूषण बनाना, कंघा-शिल्प, काँच और कागज शिल्प, कशीदाकारी, बुनाई, रंगाई और छपाई शैली शिल्प, चित्रण कला, मूर्तिकला, दरी, गलीचे, कार्पेट, मिट्टी व लोहे की वस्तुएँ इत्यादि।
प्रत्येक राज्य के विशिष्ट वस्त्र, कसीदाकारी और परंपरागत परिधान होते हैं। भारत विभिन्न प्रकार की बुनाई के लिए प्रसिद्ध है।
परंपरागत रूप से, शिल्प निर्माण/उत्पादन करने की विधियाँ, तकनीक और कौशल परिवार के सदस्यों को पीढ़ीदर-पीढ़ी सौंप दिये जाते हैं। ऐसे अनेक परम्परागत व्यवसाय हैं, जैसे-माला बनाना, नमक बनाना, ताड़ का रस निकालना, ईंट व टाइल बनाना, पुजारी, सफाई करने वाले, चमड़े का काम करने वाले आदि।
(iv) बुनाई, कशीदाकारी और चित्रण कलाओं के समान भारत के प्रत्येक क्षेत्र की विशिष्ट पाक प्रणाली भी है। अनेक व्यक्तियों के लिए यह आजीविका का स्रोत है। भारत में चित्रण कलाओं की भी विविधता है।
(v) भारतीय परम्परागत व्यवसायों व कलाओं के लिए चुनौतियाँ-निरक्षरता, सामाजिक-आर्थिक पिछडापन, भूमि सुधार की धीमी गति, अपर्याप्त व अकुशल वित्तीय और विपणन सेवाएँ, वन-आधारित संसाधनों का कम होना, सामान्य पर्यावरणीय निम्नीकरण आदि।
इनके उत्थान के लिए-नए डिजाइन बनाना, संरक्षण और परिष्करण नीतियाँ बनाना, पर्यावरण हितैषी कच्चे माल का उपयोग, पैकेजिंग व प्रशिक्षण सुविधाओं की व्यवस्था आदि की आवश्यकता है।
→ लिंग (सेक्स) तथा जेंडर (स्त्री-पुरुष) से जुड़े कार्यों के मुद्दे-.
- सामान्यतः मानव जाति को दो लिंगों में बाँटा गया है-पुरुष और स्त्रियाँ । लेकिन हाल ही में भारत के सर्वोच्च | न्यायालय ने पारजेंडर (ट्रांसजेंडर) लोगों को तीसरे जेंडर के रूप में मान्यता दी है। .
- लिंग (सेक्स) अनुवांशिकी, जनन अंगों इत्यादि के आधार पर जैविक वर्ग से संबंधित है जबकि जेंडर सामाजिक पहचान पर आधारित है। प्रत्येक समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाएँ तय करती हैं कि विभिन्न जेंडरों को कैसा व्यवहार करना है और उन्हें किस प्रकार के कार्य करने हैं। व्यवहार सम्बन्धी ये मानदण्ड व प्रथाएँ पीढ़ी-दरपीढ़ी हस्तांतरित होने और निरन्तर चलन में रहने से जेंडर शब्द की रचना सामाजिक रूप से बनाई गई हैं।
- सामान्य और अपेक्षित व्यवहार से अलग किसी भी तरह का विचलन अनौपचारिक, अपरंपरागत और कभीकभी अवज्ञाकारी हो जाता है।
- समय बीतने के साथ-साथ भूमिकाएँ और आचरण विकसित हो रहे हैं, जिसका परिणाम 'परिवर्तन के साथ निरंतरता' में हो रहा है। यही कारण है कि आज पूरे भारत में स्त्रियाँ उत्पादन संबंधी कार्यों, विपणन सम्बन्धी कार्यों से जुड़कर परिवार की आय में योगदान कर रही हैं।
- कमाने में सक्रिय भागीदारी और परिवार के संसाधनों में योगदान देने के बावजूद स्त्रियों को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने और स्वतंत्र रहने की मनाही है। इस कारण स्त्रियाँ निरंतर शक्तिहीन रहती चली आ रही हैं।
- महिलाएँ तब तक सशक्त नहीं हो सकती जब तक कि घर पर किए गए उनके कार्यों का मूल्य नहीं आंका जाता और उसे सवैतनिक कार्य के बराबर नहीं माना जाता।
- घर के बाहर काम-काजी महिलाओं पर दोहरा भार पड़ गया है क्योंकि अभी भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे घर का अधिकांश काम-काज करें और मुख्य देखभाल करने वाली बनी रहें।
→ स्त्रियाँ और उनके कार्य से संबंधित मुद्दे और सरोकार
(i) कुशल कारीगरों की आवश्यकता के कारण श्रम-बाजार में स्त्रियों की भागीदारी के अवसरों में कमी आई है।
(ii) आदमी को मुख्य कमाई करने वाला माना जाता है और स्त्रियों की कमाई पूरक और गौण मानी जाती है।
(iii) स्त्रियों से संबंधित अन्य मुद्दे हैं
(1) तनाव और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव
(2) बिना जेंडर भेद-भाव के कार्यस्थलों पर सुनिश्चित सुरक्षा
(3) मातृत्व लाभ तथा
(4) बच्चे की देखभाल के लिए सामाजिक सहायता। संवैधानिक अधिकार, अधिनियम और सरकारी पहल
- भारत का संविधान सभी क्षेत्रों में पुरुष व स्त्री-दोनों को समानता की गारण्टी देता है। यह रोजगार के अवसर की समानता के साथ-साथ महिला मजदूरों के लिए मानवोचित परिस्थितियाँ देने तथा उन्हें शोषण से बचाने की बात भी करता है।
- भारतीय संविधान महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने के लिए राज्य को शक्तियाँ प्रदान करते
- ये अधिनियम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करते हैं
- (1) 1948 का फैक्ट्री अधिनियम,
- (2) 1951 का बागान श्रम अधिनियम
- (3) 1952 का खदान अधिनियम
- (4) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम और मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961।
- महिलाओं के हित में सरकार ने अनेक पहले की हैं । यथा-
- श्रम मंत्रालय में महिला मजदूरों की समस्याओं का निपटारा करने के लिए महिला प्रकोष्ठों की स्थापना की गई।
- समान वेतन हेतु समान पारिश्रमिक अधिनियम लागू किया गया।
- ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसरों को बढ़ाने हेतु एक कार्यकारी समूह बनाया गया। साथ ही एक परिचालन समिति भी बनाई गई।
- शिक्षा हेतु कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया। यह योजना भारत सरकार के कानून राइट टू एजूकेशन को लागू करने में सहायक होगी।
→ बाल श्रम और बच्चों के कार्य:
(i) संयुक्त राष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संस्था के अनुसार, "बाल श्रम सामान्यतः 15 वर्ष से कम आयु के बालक द्वारा की गई आर्थिक गतिविधि को कहा जाता है।" - सरकारों और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने काम के लिए आयु सम्बन्धी नियम पारित कर रखे हैं जो विश्व में अलगअलग हैं। परन्तु जोखिम भरे कार्यों को करने के लिए 18 वर्ष की आयु से पहले अनुमति नहीं है। आई.एल.ओ. ने उन देशों के लिए न्यूनतम 15 वर्ष की आयु तय की है, जहाँ अनिवार्य स्कूली शिक्षा 15 वर्ष तक पूरी हो जाती है।
विश्व बैंक के अनुसार चार करोड़ से ज्यादा बच्चे आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत हैं। भारत में 5-14 वर्ष वाली आयु-समूह के 1 करोड़ पचास लाख बच्चे घरेलू कार्य सहित कई प्रकार के पारिश्रमिक वाले और बिना पारिश्रमिक वाले कामों में कार्यरत हैं।
(ii) केवल आयु ही नहीं, काम का प्रकार और काम की परिस्थितियाँ भी सोच-विचार के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों ने ऐसे अनेक संकटदायी कार्यों की पहचान की है। हमारे देश में बाल श्रम अधिनियम में पचास से अधिक ऐसे व्यवसायों की सूची दी हुई है, जो बच्चों के लिए संकटदायी हैं। इसमें घरों में किये जाने वाले घरेलू कार्य और होटलों तथा रेस्टोरेंटों में किये जाने वाले सेवा-कार्य भी सम्मिलित हैं।
(iii) भारत में अनेक घरों में पैसे देकर छोटी लड़कियों से घरेलू कार्य कराना असामान्य नहीं माना जाता है। इससे | उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, शारीरिक एवं भावनात्मक कुशलता की उपेक्षा होने और खतरे में पड़ने की संभावना रहती है।
(iv) सामाजिक और पारिवारिक स्तरों पर जो कारण बच्चों को काम करने के लिए विवश करते हैं, उनमें प्रमुख हैं—गरीबी, परिवार पर कर्जा, परिवारों का गाँवों से शहरों की ओर स्थानान्तरण, विद्यालय छोड़ देना, माता-पिता की मृत्यु, दुनिया की चकाचौंध और आकर्षण आदि।
(v) पूरे विश्व में बाल श्रम को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की दो एजेन्सियों-यूनिसेफ और आई.एल.ओ. ने अपना ध्यान इस ओर खींचा है। इसके परिणामस्वरूप बाल श्रम के विरुद्ध लगभग 20 अन्तर्राष्ट्रीय संधियाँ हैं। इन्हें राष्ट्रीय स्तरों पर दृढ़ता से लागू करने के लिए सरकारों को चाहिए कि
- बाल श्रम के खराब रूप को रोकने के प्रभावी कार्यक्रम लागू करें,
- बच्चों के पुनर्वास हेतु सीधी सहायता दें,
- निःशुल्क शिक्षा सुनिश्चित करें,
- विशिष्ट खतरों में पड़े बच्चों की पहचान करें तथा
- उनकी विशेष परिस्थितियों पर ध्यान दें।
→ कार्य और वयोवृद्ध
(1) भारत में साठ वर्ष के व्यक्ति को वृद्ध अथवा वरिष्ठ नागरिक मान लिया जाता है। नौकरी करने वाले लोगों के लिए वृद्धावस्था बताने वाला सूचक उनके सक्रिय कार्य से सेवानिवृत्ति है।
(2) वृद्ध व्यक्तियों को सक्रिय कार्य से सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ भ्रांतियाँ
इस प्रकार हैं
- उन्हें नए प्रक्रमों या प्रौद्योगिकी का प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता,
- वे युवकों के समान दक्ष व उत्पादक नहीं हो सकते,
- वे बीमार पड़ जाते हैं ।
- वे प्रायः अनुपस्थित रहते हैं ।
- वे युवकों की अपेक्षा अधिक सख्त होते हैं। लेकिन ये भाँतियाँ मात्र हैं।
(3) वरिष्ठ नागरिक परंपरागत सेवानिवृत्ति के बाद भी निम्न कारणों से काम करना पसंद करते हैं
- कार्य में आनंद लेना,
- स्वाभिमान और आत्मसम्मान हेतु,
- सामाजिक अर्थपूर्ण योगदान देने हेतु,
- आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु,
- स्वावलम्बी बने रहने हेतु।
(4) वृद्ध कर्मचारियों की नियुक्ति निम्न कारणों से उपयोगी होती है
- वे अनुभवी और भरोसे योग्य होते हैं।
- वे भिन्न प्रकार के तरीकों और प्रेरणा का समावेश कर सकते हैं।
- वे वेतन के स्थान पर सामग्री अथवा सुविधाएँ लेना स्वीकार कर सकते हैं।
- उनकी नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी पर जाने की संभावना कम रहती है।
- वे अनुपस्थित कम रहते हैं।
(5) वृद्ध व्यक्तियों के कार्य करते रहने के विरुद्ध ये तर्क दिए जाते हैं
- ये श्रम बाजार से अनुवर्ती पीढ़ी को हटा देंगे।
- युवा सहकर्मियों की उन्नति के अवसरों को रोक सकते हैं।
(6) लेकिन वरिष्ठ लोगों को सक्रिय रूप से काम में लगाए रखना लाभप्रद है क्योंकि वे निरन्तरता बनाए रखते हैं, अनुभवी होते हैं तथा युवा कर्मचारियों पर एक शांत प्रभाव डालते हैं।
(7) वृद्ध जनसंख्या कई प्रकार की समस्याओं का सामना करती है। यथा
- सुनिश्चित और पर्याप्त आय का अभाव
- खराब स्वास्थ्य,
- सामाजिक भूमिका तथा पहचान का खो जाना,
- खाली समय में रचनात्मक अवसरों का अभाव आदि।
(8) इन समस्याओं के समाधान के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1999 में वयोवृद्धि सम्बन्धी एक राष्ट्रीय नीति बनाई है, जिसमें निराश्रित वृद्धों को वृद्धावस्था पेंशन दी जा रही है।
→ कार्य के प्रति मनोवृत्तियाँ और दृष्टिकोण
- कार्य के प्रति मनोवृत्ति केवल कार्य/नौकरी के लिए नहीं होती बल्कि इसलिए भी होती है कि कोई व्यक्ति अपने कार्य की परिस्थिति को कैसे समझता है और नौकरी की परिस्थितियों, आवश्यकताओं तथा विभिन्न आवश्यक कार्यों से कैसे निपटता है।
- कुछ लोग काम को इस दृष्टि से देखते हैं कि उन्हें यह किसी प्रकार या कैसे भी करना है और इसलिए कार्य का आनंद लेने में असमर्थ रहते हैं। दूसरी तरफ, कुछ लोग अपने कार्य का आनंद लेते हैं, चुनौतियों से निपटते हैं, कठिन कार्यों को सकारात्मक दृष्टि से संभालते हैं। कार्य उनके जीवन की गुणवत्ता में योगदान करता है।
→कार्य जीवन की गुणवत्ता
संस्थाओं द्वारा कर्मचारियों के कार्य जीवन की गुणवत्ता को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि लोग जब अपनी कार्य की परिस्थितियों से संतुष्ट होते हैं तो बेहतर काम करते हैं। इसलिए कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी आर्थिक आवश्यकताओं के साथ-साथ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ भी पूरा करना आवश्यक है, जैसे-नौकरी और जीविका संतुष्टि, साथियों के साथ अच्छे सम्बन्ध, काम में तनाव न होना, निर्णय करने में भागीदारी के अवसर, कार्य और घर में संतुलन आदि । नियोक्ता को चाहिए कि वह एक स्वस्थ कार्य परिवेश बनाए तथा इसके लिए आवश्यक बातों पर ध्यान केन्द्रित करे। ये बातें उन सब कर्मचारियों का मनोबल बढ़ाने में सहायक होती हैं जो कार्यस्थल पर कार्यरत हैं।
→ आजीविका के लिए जीवन कौशल
(1) अर्थ-अनकल और सकारात्मक व्यवहार के लिए जीवन कौशल वे क्षमताएँ हैं जो व्यक्तियों को जीवन की दैनिक आवश्यकताओं और चुनौतियों को प्रभावशाली तरीके से निपटने के योग्य बनाती हैं।
(2) प्रमुख जीवन कौशल-विशेषज्ञों द्वारा पहचाने गए दस कौशल ये हैं
- स्व-जागरूकता,
- संप्रेषण,
- निर्णय लेना,
- सृजनात्मक चिंतन,
- मनोभावों से जूझना,
- परानुभूति,
- अंतरवैयक्तिक सम्बन्ध,
- समस्या का सुलझाना,
- आलोचनात्मक चिंतन,
- तनाव से जूझना।
(3) महत्त्व:
- ये चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में लोगों को उचित रूप से व्यवहार योग्य बनाते हैं।
- नकारात्मक एवं अनुचित व्यवहार को रोकते हैं।
- लोगों के स्वास्थ्य व विकास को प्रोत्साहित करते हैं।
- सामुदायिक विकास में योगदान करते हैं।
→ अपना खुद का कार्य जीवन सुधारना
प्रत्येक कर्मचारी के लिए अति आवश्यक है कि वह ईमानदारी के साथ अपना कार्य-जीवन सुधारे, जिससे उसे नौकरी से संतोष मिले तथा उत्पादन की गुणवत्ता और उसकी मात्रा में वृद्धि हो। इस संदर्भ में कुछ सामान्य सुझाव ये हैं
- स्वस्थ व्यक्तिगत प्रवृत्तियाँ विकसित करें।
- परानुभूतिशील तथा सहानुभूतिशील बनें।
- कार्य में लगे सभी व्यक्ति परस्पर निर्भरता का ध्यान रखें।
- संगठन के प्रति निष्ठा और वचनबद्धता बनाए रखें।
- साझेदारों को प्रोत्साहन दें।
- दूसरों के साथ मिलकर काम करें।
- परिस्थितियों के प्रति प्रतिसंवेदी हों।
- कार्य में लचीलापन रखें।
- अच्छा नागरिक बनें।
- जीवन के अनुभवों से सीखें।
→ कार्यस्थल पर आवश्यक प्रक्रिया कौशल
कार्यस्थल पर आवश्यक प्रक्रिया कौशल के अंग हैं
- उत्पादकतापूर्ण कार्य
- प्रभावी ढंग से सीखना
- स्पष्ट संप्रेषण
- मिलजुलकर कार्य करना
- विवेचनात्मक और रचनात्मक सोच
- अन्य अपेक्षित कौशल,
जैसे - एकाग्रता, सतर्कता, सूझ-बूझ, व्यवहार-कुशलता, प्रशिक्षण देना, दूसरों से काम करवाने की योग्यताएँ, विविध कार्यों को करने की योग्यता आदि।
→ कार्य, नैतिकता और श्रम का महत्त्व
- कोई व्यक्ति जो भी कार्य करता है, उसे मूल्यों और नैतिकता के आधार पर आंकना चाहिए। मूल्य और नैतिकता व्यावहारिक नियम देते हैं। छः महत्त्वपूर्ण मूल्य हैं - सेवा, सामाजिक न्याय, लोगों की मान-मर्यादा, उपयोगिता, मानव सम्बन्धों का महत्त्व तथा ईमानदारी।
- नीतिशास्त्र एक औपचारिक प्रणाली अथवा नियमों का समुच्चय है, जिसे लोगों के एक समूह द्वारा स्पष्टतया अपनाया जाता है। नैतिकता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है, "एक व्यक्ति अथवा व्यवसाय के विभिन्न सदस्यों के आचरण का परिचालन करने वाले नियम या मानक।"
- कार्यस्थल पर मूल्य और नैतिकता समय और धन के अपव्यय को कम करने में सहायक होते हैं। ये कर्मचारी के मनोबल, आत्मविश्वास और उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
→ निष्पादन
- निष्पादन की व्याख्या दिए गए कार्य को पूरा करने के रूप में की जा सकती है। निष्पादन को यथार्थता, पूर्णता, लागत और समय के मानकों को ध्यान में रखकर मापा जाता है।
- मनुष्यों द्वारा कार्य निष्पादन का निर्धारण-कार्य करने की इच्छा, प्रेरणा, योग्यता और क्षमता से किया जाता है।
- निष्पादन को प्रभावित करने वाले अन्य तत्त्व हैं—कार्य परिवेश, साधन सम्पन्न और नवाचारी होने की योग्यताएँ। रचनात्मकता
- (i) रचनात्मकता सामान्य और सुविदित को नए, अनोखे और मौलिक में बदलने की योग्यता है।
- (ii) व्यक्तियों में रचनात्मक प्रेरणा अनेक बातों से प्रभावित होती है, जैसे-आंतरिक प्रेरणा, कुछ नया, अलग और मौलिक विकसित करने का उत्साह, संसाधन तथा रचनात्मक सोच।
- (iii) रचनात्मकता के उत्पाद भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
- कार्यस्थल पर रचनात्मकता की प्रेरणाएँ हैं
- (1) कार्य करने की स्वतंत्रता,
- (2) मेहनत,
- (3) आवश्यक संसाधन,
- (4) अच्छे कार्य-मॉडलों द्वारा प्रोत्साहन,
- (5) कार्यकारी टीमों की सहायता।
- रचनात्मकता को विकसित करने की विधियाँ हैं-प्रत्यक्ष अनुभव, खेल-खेलना, पहेलियों का हल निकालना, उपजीविका, ललित कलाएँ, पढ़ना, लिखना, विचार-मंथन, अनुभूतियाँ, प्रश्न पूछना, चिंतन और कल्पना करना।
- रचनात्मकता में बाधाएँ हैं-स्व-हतोत्साहित होना, असफल होने का भय, आलोचना का भय, स्वयं अपनी रचनात्मक क्षमता पर विश्वास न करना, दढ़ता की कमी, देखने-समझने की कमी, पूर्वाग्रही होना, निष्क्रियता तथा घर/ विद्यालय की बंधनयुक्त परिस्थितियाँ।
→ नवाचार
नवाचार का अर्थ है-नए विचारों को प्रभावी और सफलतापूर्वक उपयोग में लाना। इस प्रकार नव-प्रवर्तन का अर्थ वर्तमान उत्पाद या सेवा का नवीकरण हो सकता है। इसके लिए दो शर्त हैं
- वर्तमान स्थिति से असंतुष्टि,
- रचनात्मक सोच । इसमें सामान्यतः 1 प्रतिशत कुछ नया होता है और 99 प्रतिशत मेहनत होती है।
→रोजगार संतुष्टि
(i) वे रोजगार जो उसे पहचान देते हैं, कौशलों में विविधता देते हैं, व्यक्ति को उत्तरदायित्व, स्वतंत्रता और कार्रवाई की स्वाधीनता और आगे बढ़ने के अवसर देते हैं, संभवतः अधिक संतुष्टि देने वाले होते हैं।
(ii) रोजगार संतुष्टि से जो लाभ मिलते हैं, वे हैं
(1) बेहतर निष्पादन और उत्पादकता
(2) अधिक उत्पादन तथा
(3) कर्मचारियों की अनुपस्थिति में कमी। उत्पादकता
- उत्पादकता को संसाधनों के कारगर उपयोग के रूप में समझा जा सकता है। संसाधन विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं- श्रम, पूँजी, भूमि, ऊर्जा, सामग्री, विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन की जानकारी और सेवाएँ। इसे निवेश के प्रति इकाई से प्राप्त होने वाले आउटपुट से मापा जाता है।
- उत्पादकता में
- दक्षता और
- प्रभावात्मकता की विशेषताओं का समावेश किया जाता है।
- वैश्विक स्तर पर, उत्पादकता की संकल्पना अधिकाधिक गुणवत्ता से जुड़ती जा रही है।
- उत्पादकता मुख्य रूप से इस बात से निर्धारित की जाती है कि किसी देश के उत्पादों की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कैसी है।
- कम उत्पादकता के परिणाम होते हैं-मुद्रा स्फीति, व्यापार का प्रतिकूल संतुलन, अल्प वृद्धि दर और बेरोजगारी।
- उत्पादकता बढ़ाने के उपाय हैं—शिक्षा-प्रशिक्षण, काम करने के लिए सकारात्मक अभिवृत्तियों का पोषण, बेहतर प्रदर्शन को प्रोत्साहन, पुरस्कार, रोजगार सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, उन्नत कार्यविधियाँ तथा प्रौद्योगिकी का उपयोग।
→ समय-प्रबन्धन
- समय प्रबंधन में स्वयं के प्रबंधन के साथ-साथ उन आदतों/कार्यविधियों को ग्रहण करने के लिए तैयार रहें ताकि समय का अधिक से अधिक सदुपयोग किया जा सके।
- समय प्रबंधन-कौशल के साथ समय, तनाव और ऊर्जा पर नियंत्रण किया जा सकता है, काम और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ नए अवसरों के लिए शांतिपूर्वक विचार किया जा सकता है।
→ बहुकार्यता.
- इसे आधुनिक समय में कार्यस्थलों पर एक आवश्यक कौशल माना जाता है। इसमें विविध कौशल और अनुकूलतम उपयोग शामिल हैं।
- बहुत से काम समय में पूरे करना एक चुनौती है। इन्हें पूरा करने के कुछ सुझाव इस प्रकार हैं
- कार्यों की वरीयता क्रम में एक सूची बनाएं।
- सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य से आरंभ करे।
- कठिन कार्य को पहले करें।
- जो कार्य हाथ में है, उसी पर ध्यान देते हुए प्रभावी ढंग से पूरा करें।
- बीच-बीच में थोड़ा आराम करें।
- आने वाले अवरोधों को कम करें।
→ कार्य और कार्य परिवेश
एक खुशहाल और स्वस्थ कार्य-परिवेश की संस्कृति तैयार करना महत्त्वपूर्ण है। एक स्वस्थ कार्य परिवेश को एक सकारात्मक परिवेश भी कहा जा सकता है। ऐसा परिवेश निम्नलिखित पर ध्यान देकर तैयार किया जा सकता है
- संगठन और कर्मचारी सम्बन्धी आवश्यकताओं पर समुचित ध्यान देना।
- एक आकर्षक और सुरक्षित परिवेश देकर कर्मचारी से उसकी योग्यतानुसार कार्य कराना ।
- कार्य के अनुरूप व्यक्ति की उपयुक्तता देखना।
- तकनीकी क्षमता को सुनिश्चित करना।
- कार्य को रोचक और चुनौतीपूर्ण बनाना ।
- टीम भावना का विकास करना।
- लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना।
- एक सकारात्मक कार्य-परिवेश तैयार करना।
- कर्मचारियों के विकास के दीर्घकालीन अवसर प्रदान करना
- कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना
- कर्मचारियों को आवश्यक अधिकार देकर सशक्त करना।
→ व्यवसाय से संबंधित स्वास्थ्य
- परिभाषा-"सभी व्यवसायों में कर्मचारियों के शारीरिक, मानसिक और स्वास्थ्य-कल्याण के लिए उच्चतम स्तर पर प्रोत्साहन एवं रख-रखाव उपलब्ध कराना है।"
- उद्देश्य
- कर्मचारियों के स्वास्थ्य-कल्याण को बनाए रखना और बढ़ावा देना।
- अधिकतम मानव व मशीन दक्षता प्राप्त करना।
- व्यावसायिक दुर्घटनाओं/संकटों को कम करना।
- व्यावसायिक रोगों एवं क्षति को रोकना।
- अनुपस्थिति को कम करना तथा उत्पादकता बढ़ाना।
- श्रम प्रभाविकी के सिद्धान्तों का क्रियान्वयन।
- व्यावसायिक और व्यक्तिगत सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु कार्य पूर्तियाँ
- कार्यस्थल, मशीनें और सामग्री निरापद हों।
- कार्यप्रणालियाँ, कार्यपरिवेश व सुविधाएँ निरापद हों।
- ध्वनि स्तरों, औद्योगिक स्वच्छता, बिजली के झटके से सुरक्षा, विकिरणों से सुरक्षा, कंपन व झटकों से सुरक्षा निरक्षा निरापद हों।
- कार्य-भार की तुलना में कर्मचारियों की कार्य-क्षमता व उनके स्वास्थ्य स्तर का आंकलन किया जाए।
→ व्यवसाय सम्बन्धी खतरे
व्यवसाय सम्बन्धी खतरे कई प्रकार के होते हैं। यथा
- भौतिक खतरे-ये ऊष्मा सम्बन्धी, शीत सम्बन्धी, शोर सम्बन्धी, विकिरण सम्बन्धी तथा विद्युत सम्बन्धी हैं।
- रासायनिक खतरे-ये खतरे आविषालुता, श्वासरोध, उत्तेजक गैसें, अकार्बनिक धूल और जैविक धूल से संबंधित हैं।
- जैविक खतरे-ये खतरे जीवाणु, विषाणु, प्रोटोजुआ और परजीवी संबंधी हैं।
- यांत्रिक खतरे-ये खतरे चोट तथा एर्गोनॉमिक विकार से संबंधित हैं।
- मनोवैज्ञानिक व व्यावहारिक खतरे-ये कार्य संतुष्टि में कमी, असुरक्षा, कार्य-दबाव, विद्वेष, अस्पष्टता, शरीर-दर्द, आक्रामकता, चिंता, अवसाद, मदिरापान, ड्रग्स की लत तथा बीमारी और अनुपस्थिति सम्बन्धी हैं।
→ व्यवसाय सम्बन्धी स्वास्थ्य की देखभाल और सुरक्षा के उपायों का महत्त्व
(अ) कर्मचारियों के लिए
- बेहतर स्वास्थ्य और कमाई की क्षमता
- कार्य जीवन की बेहतर गुणवत्ता
- किसी अस्थायी या स्थायी अपंगता की रोकथाम
- बेहतर मनोबल और अधिक उत्पादकता।
(ब) नियोक्ता के लिए
- कम अनुपस्थिति के परिणामस्वरूप अधिक उत्पादकता
- कर्मचारियों के स्वस्थ रखने से अधिक लाभ
- संस्थान को मुख्य व्यवसाय पर केन्द्रित करने का अवसर।
- संकट और मुकदमे के खर्च में कमी।
- दिए जाने वाले मुआवजों से होने वाले खर्चों में कमी।
- कर्मचारियों को बेहतर प्रोत्साहन और निष्पादन।
(स) दुर्घटनाओं से होने वाले खर्चे-दुर्घटनाओं से होने वाले प्रत्यक्ष खर्चे हैं
श्रमिक का क्षतिपूर्ति का दावा तथा बीमार (घायल) का चिकित्सीय खर्च। इसके अप्रत्यक्ष खर्चे हैं.-घायल कर्मचारियों के स्थान पर लाए गए कर्मचारियों का प्रशिक्षण, सम्पत्ति की मरम्मत, दुर्घटना जाँच, बीमा राशि के भुगतान के खर्चे, काम में देरी, समय में| वृद्धि, निम्न मनोबल, अनुपस्थिति में वृद्धि तथा ग्राहक सम्बन्धों में कमजोरी।
प्रभावी व्यवसाय संबंधी स्वास्थ्य और सुरक्षा कार्यक्रम-यह कार्यक्रम निम्नलिखित छः बातों पर केन्द्रित होता है
- कार्यस्थल सुरक्षा और रोजगार संकटों के विश्लेषण का मूल्यांकन
- खतरों की रोकथाम और नियंत्रण
- स्वास्थ्य और सुरक्षा के मुद्दों से संबंधित स्टाफ का प्रशिक्षण
- प्रबंध समिति की प्रतिबद्धता
- कर्मचारियों की भागीदारी
- स्वास्थ्य सम्बन्धी सभी पहलुओं के प्रबंधन के साथ-साथ पुनर्वास कार्यक्रमों पर स्वास्थ्य परामर्श की व्यवस्था करना।
→ सुकार्यिकी (एर्गोनॉमिक्स)
1.सकार्यिकी का अर्थ-सुकार्यिकी अपने-अपने कार्य स्थलों पर कार्य करते समय लोगों का किया जाने वाला अध्ययन है, ताकि व्यवसाय सम्बन्धी आवश्यकताओं को, कार्य करने की विधियों को, इस्तेमाल किए जाने वाले औजारों को. और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए लोगों के जटिल अन्तर्सम्बन्धों को समझ सकें। इसे 'मानव-कारक अभियांत्रिक' भी कहा जा सकता है।
2. प्रमुख पहलू-सुकार्यिकी द्वारा जिन महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया जाता है, वे हैं
- श्रमिक क्षमता,
- कार्य की माँग, और
- कार्य परिवेश।
3. अध्ययन के स्तंभ-सुकार्यिकी का अध्ययन चार स्तंभों पर व्यवस्थित है। ये हैं
- मानवमिति
- जैवयांत्रिकी
- शरीर क्रिया विज्ञान और
- औद्योगिक मनोविज्ञान।
4. सुकार्यिकी की आवश्यकता
- निरापद और बेहतर स्वास्थ्य हेतु
- बेहतर प्रभावी रोजगार हेतु
- रोजगार प्रभाविता में वृद्धि हेतु।
5. सुकार्यिकी के लाभ
- चोट और दुर्घटना के जोखिमों को कम करता है।
- उत्पादकता को बढ़ाता है।
- त्रुटियों को कम करता है।
- दक्षता को बढ़ाता है।
- कर्मचारियों की अनुपस्थिति को कम करता है।
- कर्मचारियों के मनोबल को बढ़ाता है।
→ उद्यमिता
1. उद्यमिता एक नया उद्यम/सेवा स्थापित करने का कार्य है।
2. एक उद्यमी नवप्रवर्तक, रचनात्मक, सुव्यवस्थित और जोखिम उठाने वाला व्यक्ति होता है। वह एक नए विचार को वास्तविकता का रूप देने का जोखिम उठाता है। श्री नारायणमूर्ति, जे.आर.डी. टाटा, धीरूभाई अंबानी इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
3. उद्यमियों के लक्षण
- कड़ी मेहनत करने की इच्छा
- योजना बनाने और क्रियान्वयन करने का ज्ञान और कौशल
- वित्त, सामग्री, व्यक्तियों और समय के प्रबंध का कौशल,
- जोखिम उठाने का साहस,
- एक साथ कई कार्यों को आरंभ करने की योग्यता और तत्परता
- कौशलों को सीखने की योग्यता व क्षमता
- कठिन मुद्दों का समाधान ढूँढ़ने की क्षमता,
- यथार्थवादिता,
- चुनौतियों का सामना करने की योग्यता,
- भागीदारी विकसित करना;
- समझौते करने की योग्यता,
- विनम्रता तथा
- अच्छा संप्रेषण कौशल।