Rajasthan Board RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 9 व्यावसायिक वित्त Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पीय प्रश्न-
प्रश्न 1.
वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है-
(अ) व्यवसाय की स्थिर सम्पत्तियों का आकार तथा उनका सम्मिश्रण का निर्धारण करने में
(ब) दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय राशियों को उपयोग में लाने में
(स) दीर्घकालीन वित्त का ऋण तथा समता में विभाजन में
(द) उपर्युक्त सभी में।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी में।
प्रश्न 2.
वित्तीय प्रबन्ध की परम्परागत विचारधारा है-
(अ) व्यवसाय के लिए आवश्यक वित्त की व्यवस्था करना।
(ब) स्थायी एवं चालू सम्पत्ति विनियोग निर्णय
(स) पूँजी व्यवस्था सम्बन्धी निर्णय
(द) लाभांश सम्बन्धी निर्णय।
उत्तर:
(अ) व्यवसाय के लिए आवश्यक वित्त की व्यवस्था करना।
प्रश्न 3.
वित्तीय प्रबन्ध का प्रबन्धकीय कार्य है-
(अ) वित्त के साधनों के सम्बन्ध में निर्णय लेना
(ब) आवश्यक लेखे तैयार करना
(स) आवश्यक सूचनाएँ सम्बन्धित विभागों को भेजना
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) वित्त के साधनों के सम्बन्ध में निर्णय लेना
प्रश्न 4.
वित्तीय प्रबन्ध का दैनिक कार्य है-
(अ) वित्तीय आवश्यकता का अनुमान लगाना
(ब) आवश्यक लेखे तैयार करना
(स) वित्त के साधनों के सम्बन्ध में निर्णय लेना
(द) उच्च प्रबन्ध को सलाह देना।
उत्तर:
(ब) आवश्यक लेखे तैयार करना
प्रश्न 5.
वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व है-
(अ) यह अनुकूलतम विनियोग निर्णय को सम्भव बनाता है।
(ब) यह अनुकूलतम पूँजी व्यवस्था निर्णय सम्भव बनाता है।
(स) यह अनुकूलतम लाभांश निर्णय को सम्भव बनाता है।
(द) उपर्युक्त सभी के लिए।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी के लिए।
प्रश्न 6.
वित्तीय नियोजन प्रक्रिया का प्रमुख चरण है-
(अ) वित्तीय उद्देश्यों का निर्धारण करना।
(ब) वित्तीय नीतियों का निर्धारण करना।
(स) वित्तीय कार्यविधियों का निर्धारण करना।
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
व्यावसायिक वित्त का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यावसायिक क्रियाओं के संचालन के लिए जिस धन की आवश्यकता होती है, उसे ही व्यावसायिक वित्त कहा जाता है।
प्रश्न 2.
चालू सम्पत्तियों से क्या आशय है ?
उत्तर:
चालू सम्पत्तियाँ वे होती हैं जो व्यवसाय में एक वर्ष से कम समय के लिए होती हैं। ये प्रायः अधिक तरल होती हैं।
प्रश्न 3.
'वित्तीय प्रबन्ध' (Financial Manage ment) को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
आवश्यकतानुसार वित्त की समुचित व्यवस्था करना 'वित्तीय प्रबन्ध' कहलाता है।
प्रश्न 4.
वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रश्न 5.
उस वित्तीय निर्णय का नाम बताइये जो एक व्यवसायी को अपने व्यवसाय की एक नई शाखा खोलने में मदद करेगा।
उत्तर:
दीर्घकालीन विनियोग निर्णय ।
प्रश्न 6.
"ऋण की लागत, समता अंश पूँजी की लागत से कम होती है।" कारण दीजिये तब भी एक कम्पनी केवल ऋण की सहायता से कार्य क्यों नहीं चला सकती है?
उत्तर:
क्योंकि ऋणदाता का जोखिम समता अंश पूँजी धारकों की जोखिम से कम होता है। इसके बावजूद भी समता अंश पूँजी को व्यवसाय के लिए अधिक स्थायी एवं जोखिम, रहित समझा जाता है। अतः एक कम्पनी केवल ऋण की सहायता से ही काम नहीं चलाती है।
प्रश्न 7.
सुदृढ़ कार्यशील पूँजी प्रबन्ध के किन्हीं दो आवश्यक संघटकों के नाम बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 8.
वित्तीय नियोजन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
संस्था की वित्तीय आवश्यकताओं एवं उसके उपयुक्त. स्रोतों का पूर्वानुमान लगाकर उसका कुशलतम उपयोग सुनिश्चित करना वित्तीय नियोजन है।
प्रश्न 9.
वित्तीय प्रबन्ध से क्या अभिप्राय है? वित्तीय प्रबन्धक द्वारा लिये जाने वाले किन्हीं दो वित्तीय निर्णयों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध, प्रबन्ध प्रक्रिया का वह भाग है जिसका सम्बन्ध एक संस्था की वित्तीय गतिविधियों के कुशल नियोजन एवं नियंत्रण से है।
वित्तीय निर्णय-(1) निवेश निर्णय (2) लाभांश निर्णय।
प्रश्न 10.
एक सेवा उद्योग की कार्यशील पँजी की आवश्यकताएँ एक निर्माण उद्योग की आवश्यकता से भिन्न होती हैं।
उत्तर:
सेवा उद्योग में स्टॉक एवं निर्माणी प्रक्रिया न होने के कारण कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।
प्रश्न 11.
"एक व्यवसाय के उत्थान के लिए सुदृढ़ वित्तीय प्रबन्ध कुंजी होती है।" समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध में एक व्यवसाय की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति इस ढंग से की जाती है कि व्यवसाय के उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
प्रश्न 12.
उस अवधारणा का नाम बताइये जिसमें कम्पनी के पूँजी ढाँचे में परिवर्तन करने से समता अंशों पर प्रतिलाभ बढ़ जाता है।
उत्तर:
समता पर व्यापार (Trading on Equity)।
प्रश्न 13.
एक कम्पनी एक नई इकाई की स्थापना करना चाहती है जिसमें 10 लाख रुपये की मशीनरी लगायी जाती है। वित्तीय प्रबन्ध में संलग्न इस निर्णय के प्रकार को पहचानिये।
उत्तर:
दीर्घकालीन विनियोग निर्णय।
प्रश्न 14.
वित्तीय प्रबन्ध में पूँजी संरचना (Capital Structure) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पूँजी संरचना से आशय स्वामित्व तथा ग्रहीत निधि के मिश्रण से है। अन्य शब्दों में यह निश्चित करना कि सम्पूर्ण पूँजी में कितना भाग अंशों से एवं कितना भाग ऋण-पत्र से प्राप्त किया जायेगा।
प्रश्न 15.
कार्यशील पूँजी (Working Capital) को स्पष्ट करें।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी से आशय संस्था की अल्पकालीन सम्पत्तियों जैसे स्टॉक और अल्पकालीन दायित्वों, जैसे कि लेनदार एवं देय बिल से है।
प्रश्न 16.
वित्तीय प्रबन्ध में किन-किन वित्तीय निर्णयों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर:
प्रश्न 17.
दीर्घकालीन निवेश निर्णय को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
पूँजी बजटिंग निर्णय के नाम से।
प्रश्न 18.
एक गलत पूँजी बृजटिंग निर्णय के कोई दो प्रभाव बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 19.
पूँजी बजटिंग निर्णय को प्रभावित करने वाले कोई चार कारक बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 20.
अल्पकालीन निवेश निर्णय से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अल्पकालीन निवेश निर्णय से तात्पर्य व्यवसाय में स्कन्ध, देनदार तथा रोकड़ के स्तर का निर्णय लेने से है।
प्रश्न 21.
वित्तीय प्रबन्ध के कोई चार प्रबन्धकीय कार्य बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 22.
वित्तीयन सम्बन्धी निर्णय क्या है ?
उत्तर:
यह निर्णय दीर्घकालीन स्त्रोतों से धन प्राप्त करके वित्त की प्रभामा के विषय में लिया जाता है।
प्रश्न 23.
उधारी निधियों से आपका क्या आशय है ?
उत्तर:
उधारी निधियों से आशय उस वित्त से होता है जिसका प्रबन्ध ऋणपत्रों के निर्गमन या कोई अन्य रूप में लिया हुआ ऋण से किया जाता है।
प्रश्न 24.
वित्तीय निर्णयों को प्रभावित करने वाले प्रमुख घटक बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 25.
वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व बतलाइये। (कोई दो)
उत्तर:
प्रश्न 26.
लाभांश क्या है?
उत्तर:
लाभांश, लाभ का वह भाग होता है जो अंशधारियों में वितरित किया जाता है।
प्रश्न 27.
लाभांश के निर्णय को प्रभावित करने वाले कोई चार कारक गिनाइये।
उत्तर:
प्रश्न 28.
वित्तीय नियोजन के प्रमुख उद्देश्य बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 29.
वित्तीय नियोजन का महत्त्व बतलाइये।
उत्तर"
प्रश्न 30.
एक सुदृढ़ वित्तीय योजना के आवश्यक तत्त्व बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 31.
ऋण समता अनुपात की गणना किस प्रकार की जाती है?
उत्तरः
प्रश्न 32.
ऋण का समता पूँजी से अनुपात को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
वित्तीय उत्तोलक के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 33.
किसी व्यावसायिक संस्था की पूँजी संरचना को सर्वोत्तम कब कहा जाता है ?
उत्तर:
पूँजी संरचना को सर्वोत्तम तब कहा जाता है जबकि ऋण तथा समता का अनुपात ऐसा हो कि जिसका परिणाम समता अंशों के मूल्य में वृद्धि हो।
प्रश्न 34.
समता पर व्यापार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
समता पर व्यापार से तात्पर्य समता अंशधारियों द्वारा अर्जित लाभ में वृद्धि के होने से है।
प्रश्न 35.
ब्याज आवरण अनुपात से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
ब्याज आवरण अनुपात से तात्पर्य है कि कम्पनी का ब्याज तथा कर काटने से पूर्व लाभ की मात्रा ब्याज से कितने गुना अधिक है।
प्रश्न 36.
ब्याज आवरण अनुपात (आई.सी.आर.) की उपयोगिता बतलाइये।
उत्तर:
इससे यह पता चलता है कि यह जितना अधिक होता है कम्पनी की आर्थिक दशा ब्याज का भुगतान करने के लिए उतनी ही सुदृढ़ समझी जाती है।
प्रश्न 37.
एक कम्पनी की पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले किन्हीं चार घटकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
प्रश्न 38.
एक कम्पनी की स्थायी सम्पत्तियों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्थायी सम्पत्तियाँ वे सम्पत्तियाँ होती हैं जो व्यवसाय में एक वर्ष से अधिक समय के लिए होती हैं और लम्बे समय तक कार्यान्वित रहती हैं।
प्रश्न 39.
निवेश निर्णय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कम्पनी की पूँजी को ऐसी सम्पत्तियों में लगाना जो व्यवसाय में लम्बे समय तक उपयोग में आती रहती है, निवेश निर्णय के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 40.
स्थायी पूँजी के उपयुक्त स्रोत बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 41.
पूँजी बजटिंग निर्णय के कोई तीन अनुपम उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रश्न 42.
पूँजी बजटिंग निर्णय के महत्त्व के कोई चार कारण बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 43.
स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले कोई चार कारण गिनाइये।।
उत्तर:
प्रश्न 44.
चालू सम्पत्तियों के कोई चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रश्न 45.
चालू दायित्वों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
चालू दायित्वों से तात्पर्य उन दायित्वों से है जो एक वर्ष के अन्दर ही जब बनते हैं तभी भुगतान पाने के अधिकारी होते हैं।
प्रश्न 46.
चालू दायित्वों के कोई चार उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
प्रश्न 47.
कार्यशील पूँजी की आवश्यकता क्यों होती है? कोई चार कारण बतलाइये।
उत्तर:
प्रश्न 48.
कार्यशील पूँजी के निर्धारक चार तत्त्वों को गिनाइये।
उत्तर:
प्रश्न 49.
उत्पादन चक्र से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
उत्पादन चक्र से आशय कच्चे माल की प्राप्ति तथा उस माल को पक्के माल में परिवर्तित करने तक के समय के अन्तर से है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
वित्तीय निर्णय को प्रभावित करने वाले किन्हीं चार कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय निर्णय को प्रभावित करने वाले चार कारक निम्न प्रकार हैं-
प्रश्न 2.
'ऋण-समता अनुपात' की गणना किस प्रकार की जाती है?
उत्तर:
ऋण-समता अनुपात-व्यवसाय की पूँजी संरचना में ऋण-समता अनुपात का बहुत महत्व है। व्यवसाय की पूँजी संरचना में मोटे तौर पर दो प्रकार की निधियाँ होती हैं-(1) स्वामिगत निधि, तथा (2) उधार लिया हुआ या ग्रहीत निधि । 'स्वामिगत निधि' में समता अंश, पूर्वाधिकार अंश तथा संचय एवं आधिक्य अथवा प्रतिधारित उपार्जन शामिल होते हैं। 'ग्रहीत निधि' में ऋण, ऋणपत्र, सार्वजनिक जमा आदि शामिल होते हैं। ऋण-समता अनुपात के उद्देश्य से स्वामिगत निधि को 'समता' तथा ग्रहीत निधि को 'ऋण' कहा जा सकता है।
ऋण-समता अनुपात की गणना निम्न प्रकार की जाती है-
ऋण ऋण का समस्त पूँजी से अनुपात को वित्तीय उत्तोलक के नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न 3.
वित्तीय निर्णय के अन्तर्गत निवेश सम्बन्धी निर्णय का अर्थ बताइये एवं 'अल्पकालीन निवेश निर्णय' को समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय निर्णय से तात्पर्य सर्वोत्तम वित्तीय विकल्प अथवा सर्वोत्तम विनियोग विकल्प के सम्बन्ध में निर्णय लेने से है।
निवेश सम्बन्धी निर्णय-वित्तीय निर्णय के अन्तर्गत निवेश सम्बन्धी निर्णय का सम्बन्ध इस बात से होता है कि व्यावसायिक संस्था के कोषों को विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाये ताकि वे अपने निवेशकों को अधिकतम लाभ उपार्जित करवा सकें। निवेश निर्णय दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन हो सकता है।
अल्पकालीन निवेश निर्णय-इसे चालू पूँजी निर्णय भी कहते हैं। अल्पकालीन निवेश निर्णय का अर्थ व्यवसाय में स्कंध, देनदार तथा रोकड़ के स्तर का निर्णय लेने से है। इन सम्पत्तियों के विषय में निर्णय लेने का अर्थ व्यवसाय की दैनिक कार्यवाही का निर्णय लेने से है। क्योंकि ये सम्पत्तियाँ दैनिक लेन-देन से प्रभावित होती हैं। ये दैनिक लेन-देन व्यवसाय की देयता तथा लाभदायकता को प्रभावित करते हैं। कुशल रोकड़ प्रबन्ध, स्कंध प्रबन्ध तथा प्राप्यनीय खातों का प्रबन्ध कार्यशील पूँजी प्रबन्ध के मूल संघटक हैं।
प्रश्न 4.
निम्न को समझाइये-
(i) ब्याज आवरण अनुपात (आई. सी. आर.)
(ii) निवेश पर आय (आर. ओ. आई.)
अथवा
एक फर्म की पूँजी संरचना को निर्धारित करने बाले निम्न कारकों की गणना किस प्रकार की जाती हैं?
(i) ब्याज आवरण अनुपात (Interest Coverage Ratio)
(ii) ऋण-सेवा आवरण अनुपात (Debt Service Coverage Ratio)
उत्तर:
(i) ब्याज आवरण अनुपात (Interest Coverage Ratio)-ब्याज आवरण अनुपात से आशय है कि कम्पनी का ब्याज तथा कर काटने से पूर्व लाभ की मात्रा ब्याज से कितने गुना अधिक है। अर्थात् ब्याज के आभार को भुगतान करने के लिए लाभ की मात्रा कितने गुना अधिक है। ब्याज आवरण अनुपात की गणना निम्न प्रकार से की जाती है-
ब्याज आवरण अनुपात जितना अधिक होता है कम्पनी ब्याज का भुगतान आसानी से करने में उतनी ही सामर्थ्यवान समझी जाती है। यद्यपि इस अनुपात को एक पर्याप्त अनुपात नहीं समझा जाता है। क्योंकि फर्म की ई.बी.आई.टी. ऊँची हो सकती है लेकिन रोकड़ शेष कम भी हो सकता है । ब्याज के अतिरिक्त आभारों का भुगतान भी करना हो सकता है।
(ii) निवेश पर आय (आर.ओ.आई.)- यदि कम्पनी की निवेश पर आय ऊँची दर की है तो प्रति अंश आय को बढ़ाने के लिए कम्पनी समता पर व्यापार के उपयोग का चुनाव कर सकती है। अर्थात् इसकी ऋण उपयोग की योग्यता उच्च श्रेणी की है । वस्तुत: निवेश पर आय कम्पनी की समता पर व्यापार की योग्यता का एक महत्त्वपूर्ण निर्णायक है तथा इसी प्रकार पूँजी संरचना में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
(iii) ऋण-सेवा आवरण अनुपात (Debt Service Coverage Ratio)-ऋण-सेवा आवरण अनुपात उन कमियों को दूर करता है जो ब्याज आवरण अनुपात (आई.सी.आर.) में होती हैं।
इसकी गणना निम्न प्रकार से की जाती है-
कर के बाद आय + ह्रास + ब्याज + नॉन रोकड़ व्यय पूर्वाधिकार लाभांश + ब्याज + आभारों का भुगतान
एक उच्च डी.एस.सी.आर. रोकड़ प्रतिबद्धता की बेहतर उपलब्धता को प्रदर्शित करता है और फलस्वरूप कम्पनी की अपनी स्वयं की पूँजी संरचना द्वारा ऋण तत्व को बढ़ाने की क्षमता को बतलाता है।
प्रश्न 5.
वित्तीय नियोजन के महत्त्व के कोई दो बिन्दु लिखिये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का महत्त्व-
1. यह बताता है कि भविष्य में विभिन्न व्यावसायिक परिस्थितियों में क्या घटित हो सकता है। ये स्वयं काम करके फर्म की सहायता करते हैं कि सम्भावित परिस्थितियों का कैसे, ठीक प्रकार से समाधान किया जाए। यह फर्म को भविष्य की परेशानियों का सामना करने के लिए सुदृढ़ बनाता है।
2. यह व्यावसायिक आकस्मिक परेशानियों तथा विस्मयों से बचने में सहायता करती है तथा भविष्य निर्माण में भी सहायक होती है।
प्रश्न 6.
वित्तीय प्रबन्ध के प्रमुख उद्देश्य बतलाइये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध के प्रमुख उद्देश्य-
प्रश्न 7.
'पूँजी बजटिंग निर्णय' पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पूँजी बजटिंग निर्णय-किसी भी व्यावसायिक संस्था को इस बात का चुनाव करना होता है कि वित्तीय साधनों को कहाँ पर विनियोजित किया जाये ताकि वे अपने निवेशकों को अधिकतम लाभ उपार्जित करा सकें। अतः निवेश निर्णय का सम्बन्ध इस बात से होता है कि फर्म के कोषों को विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाये। निवेश निर्णय दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन हो सकता है। एक दीर्घकालीन निवेश निर्णय को ही 'पूँजी बजटिंग निर्णय' के नाम से जाना जाता है।
वर्तमान में प्रचलित मंशीन के स्थान पर एक नई मशीन में निवेश करना या एक नई सम्पत्ति का अधिग्रहण करना या कोई नई शाखा खोलना आदि इसके उदाहरण हैं। संस्था की सम्पत्तियों का आकार, लाभदायकता तथा तुलनात्मकता सभी पूँजी बजटिंग के निर्णयों से प्रभावित होती हैं। इसके अतिरिक्त ये सभी निर्णय सामान्यतः निवेश की अत्यधिक मात्रा की राशि को सम्मिलित किये हुए होते हैं तथा इनको एक बड़ी भारी लागत में अतिरिक्त परिवर्तित भी नहीं किया जा सकता है। अतः एक बार निर्णय लेने के उपरान्त इनसे व्यवसाय को मुक्ति पाना सम्भव नहीं है तो कठिन अवश्य होता है। अतः ऐसे निर्णय उन्हीं लोगों के द्वारा लिये जाने चाहिए जो इन्हें पूर्ण रूप से जानते हों या जिन्हें ये बोधगम्य हैं।
प्रश्न 8.
लाभांश से सम्बन्धित निर्णय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लाभांश से सम्बन्धित निर्णय-वित्तीय प्रबन्ध द्वारा लाभांश के वितरण के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है। लाभांश, लाभ का वह अंश होता है जो अंशधारियों में वितरित किया जाता है। इस निर्णय में यह निश्चय किया जाता है कि अर्जित लाभ (कर का भुगतान करने के पश्चात्) का कितना भाग अंशधारियों में लाभ के रूप में वितरित कर दिया जाये तथा लाभ का कितना भाग संस्था में प्रतिधारित उपार्जन के रूप में पुनर्विनियोजनार्थ रखा जाये। ताकि विनियोग की आवश्यकता को पूरा किया जा सके। यद्यपि लाभांश वर्तमान आय का द्योतक है तो प्रतिधारित उपार्जन का पुनर्विनियोजन संस्था की भविष्य में आय में वृद्धि करने में सहायक होता है। प्रतिधारित उपार्जन की सीमा संस्था के वित्तीय निर्णय को प्रभावित करती है। जब संस्था को प्रतिधारित उपार्जन के पुनर्निवेश की उतनी आवश्यकता नहीं होती है तो लाभांश के वितरण से सम्बन्धित निर्णय करते समय अंशधारियों की सम्पत्ति को बढ़ाने के प्रयास किये जाने चाहिए।
प्रश्न 9.
वित्तीय नियोजन के क्षेत्र को बतलाइये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का क्षेत्र-
1. वित्तीय लक्ष्यों का निर्धारण करना-वित्तीय नियोजन का प्रमुख तत्त्व वित्तीय लक्ष्यों का निर्धारण करना होता है। संस्था का दीर्घकालीन वित्तीय लक्ष्य उसके उत्पादक साधनों का लाभप्रद उपयोग करना होता है, ताकि फर्म की सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि हो सके। संस्था का अल्पकालीन वित्तीय लक्ष्य फर्म की प्रत्येक क्रिया के लिए आवश्यक कार्यशील पूँजी की व्यवस्था करना होता है।
2. वित्तीय नीतियों का निर्माण करना-वित्तीय नियोजन का दूसरा तत्त्व वित्तीय नीतियों का निर्माण करना होता है। प्रमुख वित्तीय नीतियाँ निम्नलिखित हो सकती हैं-(i) पूँजी की मात्रा एवं स्रोत निर्धारित करने के सम्बन्ध में नीतियाँ, (ii) स्वामी पूँजी एवं ऋणपूँजी का अनुपात निर्धारित करने वाली नीतियाँ, (iii) आय के वितरण में सहायक नीतियाँ, (iv) स्थायी नीतियाँ तथा चालू सम्पत्तियों के कुशल प्रबन्ध सम्बन्धी नीतियाँ, (v) कार्यशील पूँजी सम्बन्धी नीतियाँ आदि।
3. वित्तीय प्रविधियों का विकास-वित्तीय नियोजन के अन्तर्गत वित्त कार्य को छोटे-छोटे उपकार्यों में बाँटकर उन कार्यों को अधीनस्थों को सौंपा जाता है। वित्तीय निष्पादन के प्रभाव निश्चित किये जाते हैं तथा वित्तीय विसंगतियों को रोकने के लिए वित्तीय नियन्त्रण की तकनीकें निर्मित की जाती हैं । निष्पादन एवं नियन्त्रण के लिए सभी वित्तीय कार्यों एवं उपकार्यों के प्रमाप निर्धारित करने चाहिए। वित्तीय नियन्त्रण में अब बजटीय नियन्त्रण, लागत नियन्त्रण तथा वित्तीय अनुपातों की गणना की जाती है।
प्रश्न 10.
वित्तीय नियोजन के प्रमुख प्रकार बतलाइये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन के प्रमुख प्रकार-
1. अल्पकालीन वित्तीय नियोजन-अल्पकालीन वित्तीय नियोजन सामान्यतः एक वर्ष की अवधि के लिए होता है। यह अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होता है। यह रोकड़ प्रवाह को सन्तुलित रखता है।
2. दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन-यह नियोजन पाँच वर्ष या अधिक अवधि के लिए होता है। इसमें दीर्घकालीन वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूँजी की मात्रा, स्थायी सम्पत्तियों के प्रतिस्थापन, विकास एवं विस्तार, पूँजी संरचना आदि बातों पर विचार किया जाता है।
प्रश्न 11.
वित्तीय नियोजन की विषय-वस्तु को संक्षेप में समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन की विषय-वस्तु-
1. पूर्वानुमानित वित्तीय विवरण-वित्तीय नियोजन के लिए संस्था में कुछ पूर्वानुमानित वित्तीय विवरण तैयार किये जाते हैं, जैसे-स्थिति-विवरण, नकद प्रवाह विवरण, कोष प्रवाह विवरण आदि।
2. विनियोग प्रस्ताव-वित्तीय नियोजन के लिए पूँजी विनियोग के विभिन्न प्रस्ताव भी तैयार किये जाते हैं। ये प्रस्ताव विकास एवं विस्तार प्रतिस्थापना, उत्पाद विविधीकरण, नवीन उत्पादों का निर्माण आदि के सम्बन्ध में पूँजी विनियोग के प्रस्ताव हो सकते हैं। ये प्रस्ताव प्रत्येक विभाग या कार्य के लिए अलग हो सकते हैं। निवेश प्रस्तावों में इनके औचित्य तथा प्रस्तावित नीतियों का वर्णन किया जाता है।
3. वित्तीय स्रोतों का निर्धारण-वित्तीय योजना का निर्माण करने के लिए वित्तीय स्रोतों का भी निर्धारण किया जाता है। जिन वित्तीय संस्थाओं की वित्तीय आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं तो वे बाह्य साधनों से वित्त प्राप्त करती हैं। संस्था की आय में कमी होने पर अंशपत्रों अथवा ऋण-पत्रों में वित्त प्राप्त करना होता है, जिन संस्थाओं में नकद प्रवाह पर्याप्त होता है, लाभांश नीति अनुदार होती है।
प्रश्न 12.
वित्तीय नियोजन की प्रमुख सीमाएँ बतलाइये। (कोई चार)
उत्तर:
वित्तीय नियोजन की प्रमुख सीमाएँ-
प्रश्न 13.
पूँजी संरचना के उददेश्य बतलाइये।
उत्तर:
पूँजी संरचना के उद्देश्य-
प्रश्न 14.
पूँजी संरचना तथा पूँजीकरण में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूँजी संरचना तथा पूँजीकरण (Capitalisation) में अन्तर-
प्रश्न 15.
अनुकूलतम पूँजी संरचना के आवश्यक तत्त्व बतलाइये।
उत्तर:
अनुकूलतम पूँजी संरचना के आवश्यक तत्त्व-
प्रश्न 16.
स्थायी पूँजी प्रबन्धन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
स्थायी पूँजी प्रबन्धन-स्थायी पूँजी प्रबन्धन का अभिप्राय स्थायी पूँजी की आवश्यकता का ठीक से अनुमान लगाने से है। यह अनुमान स्थायी सम्पत्तियों की आवश्यकता पर निर्भर करता है अर्थात् पहले स्थायी सम्पत्तियों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जाता है और फिर स्थायी पूँजी की आवश्यकता का। पर्याप्त स्थायी सम्पत्तियों पर ही व्यवसाय की सफलता निर्भर करती है।
स्थायी पूँजी को उस प्रकार की सम्पत्तियों में लगाया जाता है जो व्यवसाय में लम्बे समय तक उपयोग में आती रहती हैं। इस प्रकार के निर्णयों को निवेश निर्णयों के नाम से पुकारा जाता है। इन्हें पूँजी बजटिंग निर्णयों के नाम से भी जाना जाता है। स्थायी पूँजी का वित्त प्रबन्धन कभी भी अल्पकालीन स्रोतों से नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार का निवेश क्रय पर किया गया व्यय, विस्तार पर किया गया व्यय, आधुनिकीकरण एवं उनके प्रतिस पन पर किये गये व्यय भी सम्मिलित होते हैं। इन निर्णयों में, भूमि का क्रय, भवन, संयन्त्र तथा मशीनों आदि का क्रय तथा किसी नई उत्पाद लाइन का प्रवर्तन ताकि उत्पादन नई तकनीकों से हो सके, सम्मिलित होते हैं।
प्रश्न 17.
पूँजी बजटिंग निर्णय के महत्त्व के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूँजी बजटिंग निर्णय के महत्त्व के कारण-
1. दीर्घकालीन विकास तथा प्रभाव-पूँजी बजटिंग निर्णय दीर्घकालीन विकास के लिए किये जाते हैं। इस प्रकार के निवेश के निर्णय से भविष्य में आमद भी होती है। ये निर्णय भविष्य की सम्भावनाओं तथा प्रत्याशाओं को प्रभावित करते हैं अतः इस कारण से ये निर्णय महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
2. बड़ी मात्रा में पूँजी का स्थिर हो जाना-पूँजी बजटिंग निर्णयों के परिणामस्वरूप पूँजी का एक बड़ा भाग दीर्घकालीन परियोजनाओं में निवेश कर दिये जाने से पूँजी स्थिर हो जाती है। इसीलिए इन निर्णयों को लेने से पहले इनका विस्तृत विश्लेषण कर लेने के उपरान्त ही कार्यक्रम नियोजित किये जाते हैं। इस निर्णय में यह भी ध्यान रखा जाता है कि पूँजी को कहाँ से किस ब्याज दर पर लिया जाये।
3. जोखिम-स्थायी पूँजी में भारी मात्रा में पूँजी विनियोजित की जाती है जिसका संस्था की सम्पूर्ण आय पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है। अतः पँजी बजटिंग निर्णय संस्था की सम्पूर्ण व्यावसायिक जोखिमों को प्रभावित करते हैं।
4. अनुत्क्रमणीय निर्णय-बड़ी लागत से बनी परियोजनाओं में निवेश किये जाने के बाद भी इसके विफल होने का भय बना रहता है। अतः इस प्रकार के निर्णयों को बड़ी सावधानी से लिया जाना चाहिए तथा उचित मूल्यांकन करने के बाद ही निर्णय लेना चाहिए।
प्रश्न 18.
स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में अन्तर बतलाइये।
उत्तर:
स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में अन्तर-
प्रश्न 19.
'तरलता अनुपात' एवं 'शोधन क्षमता अनुपात' को किन्हीं दो उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
तरलता अनुपात-
उदाहरण-यदि चालू सम्पत्तियाँ 51,450 रुपये हैं और चालू दायित्व 34,300 रुपये हैं तो तरलता अनुपात होगा-
तरलता अनुपात 1.5 : 1 होगा।
शोधन क्षमता अनुपात-
उदाहरण-यदि कुल बाह्य दायित्व 1,22,500 रुपये हैं और कुल सम्पत्तियाँ 3,07,000 रुपये हैं तो शोधन क्षमता अनुपात होगा-
शोधन क्षमता अनुपात 0.4 : 1 होगा।
प्रश्न 20.
'पूँजी बजटिंग निर्णय' को प्रभावित करने वाले दो कारणों को समझाइये।
उत्तर:
1. परियोजना का रोकड़ प्रवाह-जब एक कम्पनी एक भारी धनराशि का निवेश करने का निर्णय लेती है तो वह एक समय में कुछ रोकड़ का प्रवाह अधिक होने की अपेक्षा करती है। ये रोकड़ प्रवाह रोकड़ प्राप्ति तथा रोकड़ भुगतान क्रय उस समय विशेष के लिए होते हैं जो किये हुए निवेश से होते हैं। पूँजी बजटिंग निर्णय लेने से पहले इन रोकड़ प्रवाह की धनराशियों का ठीक ढंग से विश्लेषण कर लेना चाहिए।
2. आय की दर-परियोजना की सबसे महत्त्वपूर्ण कटौती उससे होने वाली आय की दर होती है। इन गणनाओं का आधार प्रत्येक प्रस्ताव से होने वाली आय तथा उस पर होने वाली जोखिम का निर्धारण है। मान लीजिये कि 'अ' तथा 'ब' दो प्रस्ताव हैं जिनमें जोखिम बराबर है किन्तु आय की दर क्रमशः 10 तथा 12 प्रतिशत है, तो सामान्य परिस्थितियों में परियोजना 'ब' का चयन किया जायेगा।
प्रश्न 21.
स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले कोई चार घटक लिखिए।
उत्तर:
प्रश्न 22.
स्थायी पूँजी का अर्थ समझाइये। एक कम्पनी की स्थायी पूँजी को निर्धारित करने वाले कोई चार घटक संक्षेप में समझाइये।
उत्तर:
स्थायी पूँजी से आशय-स्थायी पूँजी से आशय उस पूँजी से है जो दीर्घकालीन सम्पत्तियों में निवेश की जाती है। ऐसी पूँजी ऐसी सम्पत्तियों में लगायी जाती है जो व्यवसाय में लम्बे समय तक उपयोग में आती है। स्थायी पूँजी की व्यवस्था पूँजी के दीर्घकालीन स्रोतों जैसे समता या पूर्वाधिकार अंश, ऋणपत्र, दीर्घकालीन ऋण तथा व्यवसाय के प्रति धारित उपार्जन से की जाती है।
स्थायी पूँजी को निर्धारित करने वाले घटक-
1. व्यवसाय की प्रकृति-स्थायी पूँजी की आवश्यकता व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर करती है। एक व्यापारिक इकाई की स्थायी सम्पत्तियों में निवेश की आवश्यकता एक निर्माता संगठन की अपेक्षा कम होती है क्योंकि उसे संयन्त्र तथा मशीनें आदि क्रय करने की आवश्यकता नहीं होती है।
2. संक्रिया का मापदण्ड-एक वृहद् आकार वाले संगठन जो बड़े स्तर पर.संचालित है उसे बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता होती है तथा अधिक स्थान की भी आवश्यकता होती है।
3. विविधीकरण-एक व्यावसायिक संस्था विभिन्न कारणों से अपनी संचालन प्रक्रिया में विविधीकरण द्वारा विविधता ला सकती है। यह क्रिया स्थायी पूँजी की आवश्यकता में वृद्धि करके की जा सकती है।
4. तकनीकी उत्थान-कुछ उद्योगों में सम्पत्तियाँ शीघ्र ही अप्रचलित हो जाती हैं, परिणामस्वरूप उनका प्रतिस्थापन शीघ्र ही करना होता है। ऐसी कम्पनियों में स्थायी सम्पत्तियों में भारी मात्रा में विनिवेश की आवश्यकता होती है।
प्रश्न 23.
वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ एवं उद्देश्य समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ-सामान्य अर्थ में, वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ आवश्यकतानुसार वित्त की समुचित व्यवस्था करना है। यह व्यावसायिक प्रबन्ध की वह शाखा है जो वित्त की प्राप्ति, नियोजन, आबंटन, प्रभावी उपयोग एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध रखती है। इसमें पूँजी नियोजन व बजटिंग, पूँजी लागत, आय प्रबन्ध, रोकड़ प्रवाह, कार्यशील पूँजी प्रबन्धन, कोष नियोजन, वित्तीय मापदण्डों के निर्धारण, वित्तीय नियन्त्रण आदि कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।
वस्तुतः वित्तीय प्रबन्ध वित्तीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान एवं नियोजन करने, पूँजी ढाँचे का निर्माण करने तथा पूँजी पर प्रभावी नियन्त्रण एवं प्रशासन से सम्बन्धित है।
वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य-
प्रश्न 24.
वित्तीय नियोजन का अर्थ समझाइये। यह क्यों महत्त्वपूर्ण है ? कोई दो कारण दीजिये।
अथवा
वित्तीय नियोजन के अर्थ को समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का अर्थ-व्यावसायिक संस्था की वित्त उपलब्धता तथा वित्त को प्रयोग करने सम्बन्धी योजना बनाने को वित्तीय नियोजन कहते हैं। अर्थात् वित्तीय नियोजन से तात्पर्य संस्था के वित्तीय उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं का निर्धारण करने, वित्तीय नीतियों एवं कार्यक्रमों का निर्माण करने तथा आवश्यक वित्तीय प्रविधियों का विकास करने से है। वित्तीय नियोजन इसलिये किया जाता है कि संस्थाओं को उसके द्वारा किये गये कार्यों के लिए आवश्यक वित्त उचित समय पर उपलब्ध कराया जा सके क्योंकि यदि आवश्यकता से अधिक वित्त की उपलब्धि होगी, तो संस्था को उनकी लागत वहन करनी पड़ेगी। परन्तु यदि आवश्यकता से कम वित्तीय साधन होंगे तो संस्था को अपनी देनदारी निपटाने में कठिनाई होगी।
वित्तीय नियोजन का महत्त्व-
1. व्यवसाय का कुशल संचालन-व्यवसाय के प्रवर्तन, स्थापना, सम्पत्तियाँ व सामग्री के क्रय तथा माल के निर्माण आदि सभी क्रियाओं में वित्त की आवश्यकता होती है। किन्तु इन सभी कार्यों के लिए समय पर धन उपलब्ध कराना कुशल वित्तीय नियोजन पर निर्भर करता
2. पूँजी की सुरक्षा-वित्तीय नियोजन से संस्था को अपनी पूँजी की सुरक्षा करने में बहुत सहायता मिलती है। वित्तीय नियोजन द्वारा अप्रचलन, बदलती हुई माँग व फैशन, प्रौद्योगिकी सुधार, अनुत्पादक विनियोजन आदि की जोखिमों से व्यवसाय को बचाया जा सकता है।
प्रश्न 25.
पूँजी ढाँचा/संरचना (Capital Structure) क्या है ? एक कम्पनी के पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले तीन घटक बतलाइये।
उत्तर:
पूँजी संरचना का अर्थ-पूँजी ढाँचा/ संरचना पूँजी के दीर्घकालीन साधनों का पारस्परिक अनुपात है। व्यापक रूप में पूँजी ढाँचे में समस्त दीर्घकालीन कोषों (अंशपूँजी, ऋणपत्र, दीर्घकालीन ऋणों एवं संचितों) को सम्मिलित किया जाता है।
पूँजी संरचना किसी फर्म की स्थायी वित्तीय व्यवस्था है, जो सामान्यतः दीर्घकालीन ऋण, पूर्वाधिकार अंश एवं समता अंश द्वारा व्यक्त होता है जिसमें अल्पकालीन साख शामिल नहीं है। समता में समता अंश पूँजी आधिक्य तथा संचित धारित आय शामिल है। इस प्रकार पूँजी संरचना का आशय यह निश्चित करना है कि सम्पूर्ण पूँजी में कितना भाग अंशों (समता एवं पूर्वाधिकार) से तथा कितना भाग ऋणपत्रों से प्राप्त किया जा सकता है।
एक कम्पनी के पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले घटक-
1. कर की दर-यद्यपि ब्याज कुल लागत में से कम किया जाने वाला व्यय है। ऋण की लागत कर की दर से प्रभावित होती है। कर की ऊँची दर, ऋणों को अपेक्षाकृत सस्ता करती है तथा समता में वृद्धि को आकर्षित करती है।
2. निवेश पर आय-यदि कम्पनी की निवेश पर ऊँची दर की गयी है तो प्रति अंश आय बढ़ाने के लिए ङ्केकम्पनी समता पर व्यापार के उपयोगा का चुनाव कर सकती है। अर्थात् इसकी ऋण उपयोग की योग्यता उच्च श्रेणी की है। वस्तुतः निवेश पर आय कम्पनी की समता पर व्यापार की योग्यता का एक महत्त्वपूर्ण निर्णायक है तथा इसी प्रकार पूँजी संरचना में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
3. जोखिम-पूँजी संरचना में पूँजी के विभिन्न साधनों के उपयोग की जोखिम पर भी विचार किया जाना चाहिए। अधिक जोखिम वाले व्यवसाय स्थायी पूँजी पर अधिक आश्रित रहते हैं, जबकि कम जोखिम वाले व्यवसाय ऋण पूँजी पर निर्भर करते हैं।
प्रश्न 26.
वित्तीय नियोजन के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन के उद्देश्य-वित्तीय नियोजन का मुख्य उद्देश्य पर्याप्त पूँजी की इस प्रकार की व्यवस्था करना कि व्यवसाय के संचालन के सभी साधन उपलब्ध हो कि उपार्जित आय में से समस्त व्ययों को घटाने के बाद, ये शुद्ध लाभ शेष रहे वह अंशधारियों की विनियोजित पूँजी का उचित प्रत्याय हो। संक्षेप में वित्तीय नियोजन के प्रमुख उद्देश्य हैं-
1. निधियों की आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धता का आश्वासन देना-इसका तात्पर्य निधियों का विभिन्न उद्देश्यों की आवश्यकतानुसार अनुमान लगाना है जैसे दीर्घकालीन सम्पत्तियों का क्रय करने के लिए या व्यवसाय की दैनिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति करने के लिए आदि। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि उस समय का अनुमान लगाया जाए जिस समय ये निधियाँ उपलब्ध होंगी। वित्तीय नियोजन इन निधियों के सम्भावित स्रोतों को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी करता है।
2. यह देखना कि फर्म संसाधनों में आवश्यक रूप से वृद्धि नहीं करती है-निधि आधिक्य सदैव ही अनुचित है ठीक उसी प्रकार जैसे अनुपयुक्त निधिकरण। यद्यपि कुछ धन आधिक्य मात्रा में हो सकता है, अच्छी वित्तीय योजना इसको अच्छे से अच्छे उपयोग में ला सकती है ताकि वित्तीय संसाधनों को बिना उपयोग नहीं छोड़ा जाये तथा अनावश्यक रूप से लागत में नहीं जोड़ दिया जाये।
अतः उपयुक्त निधि की आवश्यकता की तुलना तथा उसकी सुलभता वित्तीय नियोजन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।
प्रश्न 27.
"एक व्यवसाय के उत्थान के लिए सुदृढ़ वित्तीय प्रबन्ध कुंजी होती है।" समझाइये।
उत्तर:
एक व्यवसाय के उत्थान के लिए सुदृढ़ वित्तीय प्रबन्ध कुंजी होती है। यह कथन सही है। इसके पक्ष में निम्न कारण बतलाये जा सकते हैं-
1. स्थायी सम्पत्तियों का निर्धारण-एक व्यावसायिक संस्था के विकास के लिए स्थायी सम्पत्तियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वित्तीय प्रबन्ध में स्थायी सम्पत्तियों में कुल विनियोग एवं प्रत्येक स्थायी सम्पत्ति में किये जाने वाले विनियोग का निर्धारण किया जाता है।
2. चालू सम्पत्तियों की मात्रा तथा उनका रोकड़, स्कन्ध तथा प्राप्तियों में विभाजन-स्थायी सम्पत्तियों के विनियोजन में वृद्धि, कार्यशील पूँजी में भी आवश्यकतानुसार वृद्धि करता है। वित्तीय प्रबन्ध निर्णयों से चालू सम्पत्तियों की मात्रा भी प्रभावित होती है। इसके अलावा उधार नीति, स्कन्ध प्रबन्ध, देनदारों की पूर्ण राशि तथा रहतिया, चालू सम्पत्तियों तथा उनके सम्मिश्रण भी वित्तीय प्रबन्ध से प्रभावित होते हैं।
3. दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय राशियों को उपयोग में लाना-वित्तीय प्रबन्ध में दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्त के अनुपात का निर्णय भी निहित होता है।
4. दीर्घकालीन वित्त का ऋण तथा समता में विभाजन-कुल दीर्घकालीन वित्त के लिए ऋण अथवा और समता पूँजी को बढ़ाने में वित्तीय प्रबन्ध के निर्णय की मुख्य भूमिका है।
5. वित्तीय निष्पादन का मूल्यांकन-सुदृढ़ वित्तीय प्रबन्ध, संस्था में वित्तीय निष्पादन का मूल्यांकन भी करता है।
प्रश्न 28.
पूँजी बजटन (Capital Budgeting) के अर्थ एवं प्रकृति को समझाइये।
उत्तर:
पूँजी बजटन का अर्थ-किसी भी व्यावसायिक संस्था को इस बात का चुनाव करना होता है कि वित्तीय साधनों को कहाँ पर विनियोजित किया जाये ताकि वे अपने निवेशकों को अधिकतम लाभ उपार्जित करवा सकें। अत: निवेश निर्णय का सम्बन्ध इस बात से होता है कि फर्म के कोषों को विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाये। निवेश निर्णय दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन हो सकता है। एक दीर्घकालीन निवेश निर्णय को ही 'पूँजी बजटिंग निर्णय' के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में प्रचलित मशीन के स्थान पर एक नई मशीन में निवेश करना या एक नई सम्पत्ति का अधिग्रहण करना या कोई नई शाखा खोलना आदि इसके उदाहरण हैं।
मिल्टन एवं स्पेंसर के अनुसार, "पूँजी बजटिंग उन सम्पत्तियों के लिये किये जाने वाले व्ययों का नियोजन है जिनसे भावी अवधियों में लाभ प्राप्त होंगे।"
पूँजी बजटिंग की प्रकृति-
प्रश्न 29.
वित्तीय नियोजन का महत्त्व समझाइये।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का महत्त्व-किसी भी व्यावसायिक संस्था के समग्र नियोजन का वित्तीय नियोजन एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका लक्ष्य कम्पनी कोष की उपलब्धता के उपलब्ध स्रोत के सम्बन्ध में अनिश्चितता का सामना करने के योग्य बनाना है। यह संगठन के सुगम संचालन में सहायक होता है। इसके द्वारा ही संस्था के साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव होता है तथा संस्था के विकास एवं विस्तार की योजनाओं को प्रभावी बनाया जा सकता है। वित्तीय नियोजन के महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
नोट-उपर्युक्त बिन्दुओं के सम्बन्ध में निबन्धात्मक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर में यथास्थान पढ़ें।
प्रश्न 30.
अति-पूँजीकरण (Over-capitalisation) के किन्हीं तीन कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अति-पूँजीकरण के कारण-
1. अत्यधिक पूँजी का निर्गमन-जब कम्पनी द्वारा आवश्यकता से अधिक पूँजी जनता को निर्गमित कर दी जाती है, वह समस्त पूँजी लाभदेय कार्यों में नहीं आती है तो कम्पनी में अति-पूँजीकरण की स्थिति पैदा हो जाती है।
2. प्रवर्तन की ऊँची लागत-प्रवर्तन की लागत ऊँची होने से भी अति-पूँजीकरण की स्थिति पैदा होती है क्योंकि कम्पनी को अधिक लाभ होने की स्थिति में इन्हें अपलिखित करना भी आवश्यक है। यदि इनके अभिलेखन में आय का अधिकांश भाग व्यय हो जाता है तो कम्पनी सामान्य दर से लाभांश नहीं दे पाती है और धीरे-धीरे अति-पूँजीकरण हो जाता है।
3. आय का सही अनुमान नहीं होना-कम्पनी अपनी आय के आधार पर पूँजीकरण करने के लिए तो आय का अनुमान लगाती है, यदि वह सही नहीं लग पाता है तो स्वाभाविक रूप से कम्पनी अति-पूँजीकृत हो जाती है।
प्रश्न 31.
एक कम्पनी की कार्यशील पूँजी की आवश्यकता निर्धारण करने वाले किन्हीं पाँच घटकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले घटक-
1. व्यवसाय की प्रकृति-व्यवसाय की मूलभूत प्रकृति उसकी कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है। यदि संस्था को केवल माल का ही क्रय एवं विक्रय करना होता है तो वहाँ कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।
2. विकास प्रत्याशा-यदि किसी व्यवसाय की विकास की सम्भावनाएँ अधिक प्रतीत होती हैं तो उसके लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी, जिसकी सहायता से वह व्यवसाय अधिक माल का उत्पादन भी कर सकेगा तथा जब वांछनीय होगा तब विक्रय लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकेगा।
3. संचालन का स्तर-ऐसे उपक्रम जिनका संचालन स्तर बहुत ही उच्च कोटि का हो जिन्हें स्टॉक व देनदारों की मात्रा काफी अधिक रखनी पड़ती है, उन्हें अधिक कार्यशील पूँजी की मात्रा की आवश्यकता होती है अपेक्षाकृत उन उपक्रमों के जिनके व्यापारिक संचालन निम्न कोटि के हों।
4. व्यवसाय चक्र-व्यावसायिक चक्र की विभिन्न दशाएँ एवं उपक्रम को कार्यशील पूंजी की आवश्यकता प्रभावित करती है।
5. उधार विक्रय सुविधा-एक संस्था यदि उधार देने की नीति अपनाती है तथा देनदारों की संख्या में वृद्धि करने का प्रयास करती है तो अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।
प्रश्न 32.
वित्तीय प्रबन्ध में अन्तर्निहित किन्हीं तीन निर्णयों को समझाइये।
अथवा
तीन प्रमुख निर्णय हैं जो कि वित्तीय प्रबन्ध के सम्बन्ध में किसी संगठन को लेने पड़ते हैं। इनके नाम एवं संक्षेप में निर्णयों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध में अन्तर्निहित निर्णय-
1. निवेश सम्बन्धी निर्णय-सामान्यतः एक व्यावसायिक संस्था के पास अपर्याप्त वित्तीय साधन होते हैं। अतः निवेश सम्बन्धी निर्णय का सम्बन्ध इस बात से होता है कि संस्था के कोषों को विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाये। यह निवेश निर्णय दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन नहीं हो सकता है।
2. वित्तीयन सम्बन्धी निर्णय-यह वह निर्णय है जो दीर्घकालीन स्रोतों से धन प्राप्त करने के वित्त के प्रभाषा के विषय में लिया जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न उपलब्ध स्रोतों की पहचान की जाती है तथा उन स्रोतों को पहचान कर यह निर्णय लिया जाता है कि किस स्रोत से वित्त प्राप्त करना संस्था के लिए लाभदायक रहेगा। यदि एक से अधिक स्रोतों का निर्णय लिया जाता है तो वित्त प्राप्ति में उनका अनुपात क्या रहेगा।
3. लाभांश से सम्बन्धित निर्णय-लाभांश से सम्बन्धित निर्णय में संस्था के लिए यह निश्चित किया जाता है कि अर्जित लाभ (कर भुगतान के पश्चात्) का कितना भाग अंशधारियों में लाभ के रूप में वितरित कर दिया जाये तथा कितना भाग संस्था में प्रति धारित उपार्जन के रूप में पुनर्विनियोजनार्थ रखा जाये ताकि संस्था की वित्तीय आवश्यकता को पूरा किया जा सके।
प्रश्न 33.
वित्तीय प्रबन्ध के प्रमुख प्रशासनिक कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. वित्तीय पूर्वानुमान लगाना-वित्तीय प्रबन्ध को अपने उपक्रम में लक्ष्यों का विकास योजनाओं एवं कार्य की प्रकृति के अनुरूप वित्तीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना होता है।
2. वित्तीय नियोजन-वित्तीय पूर्वानुमानों के आधार पर वित्तीय प्रबन्ध वित्तीय नियोजन का कार्य करता है। इसके अन्तर्गत पूँजी की मात्रा व अवधि, वित्तस्रोत, ऋण-अंशपूँजी अनुपात, लेखांकन का प्रारूप, अंकेक्षण व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में निर्णय लिये जाते हैं। वित्तीय नियोजन में उपक्रम के वित्तीय उद्देश्यों, नीतियों, कार्यक्रमों, बजट व कार्यविधियों का निर्धारण किया जाता है।
3. वित्तीय क्रियाओं का संगठन-वित्तीय क्रियाओं के कुशल निष्पादन के लिए एक सुदृढ़ संगठन का होना आवश्यक होता है। वित्त प्रबन्धक इस सम्बन्ध में विभिन्न अनुभागों की स्थापना करने, विभिन्न पदों का सृजन करने, विभिन्न अधिकारियों के अधिकारों, दायित्व व सम्बन्धों को परिभाषित करने, वित्तीय कार्यों का वर्गीकरण एवं प्रत्यायोजन करने का कार्य करता है।
4. अन्य, विभागों से समन्वय-वित्त प्रबन्ध विभिन्न विभागों की क्रियाओं एवं योजनाओं में पारस्परिक सामंजस्य बनाये रखने का कार्य करता है।
5. वित्तीय नियन्त्रण-इसके अन्तर्गत वित्त प्रबन्ध निर्धारित कार्य प्रभावों के अनुरूप वित्तीय प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करता है एवं विचलन ज्ञात करके आवश्यक सुधारात्मक कार्यवाही करता है।
प्रश्न 34.
एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना के प्रमुख लक्षण बतलाइये।
उत्तर:
एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना के प्रमुख लक्षण-
प्रश्न 35.
कार्यशील पूँजी के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी का महत्त्व-
प्रश्न 36.
"व्यवसाय के अन्तिम खाते प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निश्चित ही प्रभावित होते हैं।" इसके पहलू लिखिए।
उत्तर:
इसके पहलू निम्नलिखित हैं-
प्रश्न 37.
पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले घटक के रूप में रोकड़ प्रवाह स्थिति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले घटक-
रोकड़ प्रवाह स्थिति
एक संस्था की पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले घटकों में एक प्रमुख घटक है-रोकड़ प्रवाह स्थिति। रोकड़ प्रवाह से तात्पर्य केवल स्थायी रूप से रोकड़ के भुगतान से ही नहीं है बल्कि पर्याप्त मात्रा में बफर का होना भी है। एक संस्था को ऋणपत्रों के निर्गमन से पहले रोकड़-प्रवाह के आकार को भी ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि एक कम्पनी या संस्था जिन आभारों का रोकड़ में भुगतान करती है वह है-(i) स्थायी सम्पत्तियों में निवेश के लिए। (ii) सामान्य व्यवसाय के कार्यों के संचालन के लिए। (ii) ऋण-सेवा वचनबद्धता का परिपालन करने के लिए अर्थात् ऋणपत्र ब्याज के भुगतान के लिए तथा ऋण के मूलधन के पुनर्भुगतान के लिए की भी व्यवस्था करनी चाहिए।
इस प्रकार संस्था या कम्पनी की पूँजी संरचना को उसकी रोकड़ प्रवाह स्थिति भी प्रभावित करती है।
प्रश्न 38.
स्थायी पूँजी की. आवश्यकता को प्रभावित करने वाले घटक बताइये।
उत्तर:
स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले घटक
प्रश्न 39.
पूँजी संरचना से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
पूँजी संरचना का अर्थ-पूँजी संरचना से आशय स्वामिगत तथा ग्रहीत निधि के मिश्रण से है। स्वामिगत निधि में समता अंश, पूर्वाधिकार अंश तथा संचय एवं आधिक्य अथवा प्रतिधारित उपार्जन सम्मिलित होते हैं। ग्रहीत निधि में ऋण, ऋण-पत्र, सार्वजनिक जमा आदि सम्मिलित होते हैं। इनको बैंक, अन्य वित्तीय संस्थाओं, ऋणपत्रधारियों एवं जनता से उधार लिया जा सकता है।
व्यवसाय की पूँजी संरचना लाभदायकता तथा वित्तीय जोखिम दोनों को प्रभावित करती है। पूँजी संरचना सर्वोत्तम तब कहलाती है जबकि ऋण तथा समता का अनुपात ऐसा हो जिसके कारण समता अंशों के मूल्य में वृद्धि होती हो। अन्य शब्दों में, पूँजी संरचना से सम्बन्धित सभी निर्णय ऐसे हों जिससे अंशधारियों की पूँजी में वृद्धि हो।
प्रश्न 40.
वित्तीय नियोजन के दो उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन के उद्देश्य-
1. निधियों की आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धता का आश्वासन देना-इसका तात्पर्य निधियों का विभिन्न उद्देश्यों की आवश्यकतानुसार अनुमान लगाना है जैसे दीर्घकालीन सम्पत्तियों का क्रय करने के लिए या व्यवसाय की दैनिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति करने के लिए आदि। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक - है कि उस समय का अनुमान लगाया जाये, जिस समय ये निधियाँ उपलब्ध होंगी। वित्तीय नियोजन इन निधियों के सम्भावित स्रोतों को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी करता है।
2. यह देखना कि फर्म संसाधनों में अनावश्यक रूप से वृद्धि नहीं करती है-निधि आधिक्य सदैव ही अनुचित है, ठीक उसी प्रकार जैसे अनुपयुक्त निधिकरण। यद्यपि कुछ थन आधिक्य मात्रा में हो सकता है, अच्छी वित्तीय योजना इसको अच्छे से अच्छे उपयोग में ला सकती है ताकि वित्तीय संसाधनों को बिना उपयोग नहीं छोड़ा जाये तथा अनावश्यक रूप से लागत में नहीं जोड़ दिया जाये। अतः उपयुक्त निधि की आवश्यकता की तुलना तथा उनकी सुलभता वित्तीय नियोजन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।
प्रश्न 41.
'आय की दर' से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
परियोजना सबसे महत्त्वपूर्ण कसौटी उससे होने वाली आय की दर होती है। इन गणनाओं का आधार प्रत्येक प्रस्ताव से होने वाली आय तथा उस पर होने वाली जोखिम का निर्धारण है। मान लीजिए कि 'अ' तथा 'ब' दो प्रस्ताव हैं (जिनमें दोनों में समान प्रकार की जोखिम हैं) आय की दर क्रमश: 10 तथा 12 प्रतिशत हैं, तो सामान्य परिस्थितियों में परियोजना 'ब' का चुनाव किया जाएगा।
निबन्धात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
व्यवसाय में स्थायी पूँजी की व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। क्यों? कारण स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
स्थायी पूँजी से आशय दीर्घकालीन सम्पत्तियों में निवेश किये जाने से है। इस पूँजी की व्यवस्था में फर्म की पूँजी का विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं में आबंटन किया जाता है जो व्यवसाय में लम्बे समय तक उपयोग में आती रहती है। स्थायी पूँजी कम्पनी की लाभदायकता, विकास तथा जोखिम को प्रभावित करती है। ये एक वर्ष से लम्बे समय के लिये होती हैं। किसी भी व्यवसाय में स्थायी पूँजी की व्यवस्था निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है-
1. दीर्घकालीन विकास तथा प्रभाव-स्थायी पूँजी की व्यवस्था व्यवसाय के दीर्घकालीन विकास के लिए किये जाने से भविष्य में आमदनी होती है। यह व्यवसाय के भविष्य की सम्भावनाओं तथा प्रत्याशाओं को प्रभावित करती है।
2. इनमें निधि की बड़ी मात्रा आलिप्त होती हैस्थायी पूँजी की व्यवस्था या निवेश या पूँजी बजटिंग निर्णयों के परिणामस्वरूप पूँजी कोष का एक बड़ा भारी भाग इन दीर्घकालीन परियोजनाओं में निवेश करने से अविचल हो जाता है अर्थात् पूँजी स्थिर हो जाती है। इसीलिए इन निर्णयों को लेने से पहले इनका विस्तृत विश्लेषण कर लेने के उपरान्त ही कार्यक्रम नियोजित किये जाते हैं। इन निर्णयों में यह भी ध्यान में रखा जाता है कि स्थायी पूँजी को कहाँ से किस ब्याज दर पर लिया जाये।
3. जोखिम का आलिप्त होना-व्यवसाय की स्थायी पूँजी में निवेश की भारी मात्रा आलिप्त होती है जिसका व्यावसायिक संस्था की सम्पूर्ण आय पर दीर्घकालीन प्रभाव होता है। अतः स्थायी पूँजी आलिप्त निवेश निर्णय, व्यावसायिक संस्था की सम्पूर्ण व्यावसायिक जोखिम को प्रभावित करते हैं। इसलिए भी व्यवसाय में स्थायी पूँजी व्यवस्था महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
4. अनुत्क्रमणीय निर्णय-यदि स्थायी पूँजी की व्यवस्था या निवेश निर्णय एक बार ले लिये जायें तो उन्हें बिना भारी हानि उठाये बदला नहीं जा सकता है। किसी परियोजना को भारी निवेश के पश्चात् बन्द करने का तात्पर्य कोषों का अपव्यय होना है जिससे बड़ी लागत से बनी परियोजनाओं के विफल होने का भय भी रहता है। अतः इस प्रकार के निर्णयों को बड़ी सावधानी से लेना चाहिये तथा सभी विवरणों या विपरीत वित्तीय परिणामों का जो बड़े भारी-भरकम भी हो सकते हैं, का उचित मूल्यांकन करने के पश्चात् ही निर्णय लिये जाने चाहिए।
5. विकास एवं विस्तार-व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के लिए स्थायी पूँजी की व्यवस्था करनी महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्थायी पूँजी की व्यवस्था से ही व्यवसाय के विकास की प्रत्याशा को सन्तुष्ट किया जा सकता है।
6. संयन्त्र एवं मशीनों के क्रय के लिए-पूँजीप्रधान व्यावसायिक संगठनों में जहाँ संयन्त्र एवं मशीनों के लिए अत्यधिक पूँजी की लम्बे समय तक आवश्यकता होती है उनमें स्थायी पूँजी की व्यवस्था करना और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
7. विविधीकरण-एक व्यावसायिक संस्था को विभिन्न कारणों से अपनी संचालन प्रक्रिया में विविधीकरण द्वारा विविधता लाना जरूरी हो जाता है। यह क्रिया स्थायी पूँजी की व्यवस्था द्वारा ही की जा सकती है। उदाहरण के लिए, एक कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एक सीमेण्ट उत्पादन संयन्त्र लगाकर विविधता ला सकती है।
8. तकनीकी उत्थान-कुछ उद्योगों में सम्पत्तियाँ शीघ्र ही अप्रचलित हो जाती हैं। फलतः उनका प्रतिस्थापन शीघ्र ही करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी कम्पनियों में स्थायी पूँजी की व्यवस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है। उदाहरण के लिए, कम्प्यूटर शीघ्र ही अप्रचलन में हो जाते हैं अतः उनका शीघ्र ही प्रतिस्थापन जरूरी हो जाता है। इसके लिए स्थायी पूँजी की व्यवस्था की जाती
प्रश्न 2.
कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले घटकों को समझाइये।
अथवा
आप एक नव-निर्मित कम्पनी के वित्तीय प्रबन्धक हैं। कम्पनी के संचालकों ने आपसे कम्पनी के लिए कार्यशील पूँजी की राशि की आवश्यकताओं के निर्धारण के लिए आग्रह किया है। आप कम्पनी के लिए कार्यशील पूँजी की आवश्यकताओं का निर्धारण करते समय जिन घटकों को ध्यान में रखेंगे उनमें से किन्हीं चार की व्याख्या कीजिए।
अथवा
कार्यशील पूँजी क्या है ? कार्यशील पूँजी. की आवश्यकताओं को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन करें।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी का अर्थ-व्यवसाय के दिन-प्रतिदिन के कार्य-कलापों के निष्पादन के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है। यह पूँजी कच्चे माल के क्रय, मजदूरी, कर्मचारियों के वेतन एवं दैनिक व्ययों के भुगतान के लिए आवश्यक होती है। इन कार्यों में लगायी जाने वाली पूँजी को कार्यशील पूँजी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, एक व्यावसायिक संस्था के दैनिक कार्यों की आवश्यकता के लिए जो पूँजी विनियोजित की जाती है, वह कार्यशील पूँजी कहलाती है। यह पूँजी 'तरल पूँजी' तथा 'चक्रीय पूँजी' के नाम से भी जानी जाती है। कार्यशील पूँजी की गणना करने के सम्बन्ध में दो अवधारणाएँ प्रचलित हैं-प्रथम, शुद्ध कार्यशील पूँजी अवधारणा तथा द्वितीय, सकल कार्यशील पूँजी अवधारणा। चालू सम्पत्तियों एवं चालू दायित्वों के अन्तर को शुद्ध कार्यशील पूँजी कहा जाता है। दूसरी तरफ चालू सम्पत्तियों के योग को सकल कार्यशील पूँजी कहा जाता है। यहाँ चालू सम्पत्तियों में रोकड़ हस्ते/रोकड़ बैंक में, विक्रय योग्य प्रतिभूतियाँ, प्राप्य बिल, देनदार, तैयार माल रहतिया, अर्द्ध-निर्मित माल, कच्चा माल, पूर्व दत्त व्यय आदि को सम्मिलित किया जाता है। चालू दायित्वों में देय विपत्र, लेनदार, अदत्त व्यय, ग्राहकों से प्राप्त पूर्व भुगतान आदि को सम्मिलित किया जाता है।
कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक
अथवा
कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख घटक
1. व्यवसाय की प्रकृति-व्यवसाय की मूलभूत प्रकृति उसकी कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है। एक व्यावसायिक संगठन को जहाँ केवल माल का क्रय एवं विक्रय ही होता है कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है अपेक्षाकृत एक निर्माणक संगठन के जहां कच्चा माल क्रय करके उसका उपभोक्ता वस्तु के रूप में निर्माण किया जाता है।
2. संचालन का स्तर-ऐसे उपक्रम जिनका संचालन स्तर बहुत ही उच्च कोटि का है जिन्हें स्टॉक व देनदारों की मात्रा काफी अधिक रखनी पड़ती है, उन्हें अधिक कार्यशील पूँजी की मात्रा की आवश्यकता होती है अपेक्षाकृत उन उपक्रमों के जिनका व्यापारिक संचालन निम्न कोटि का है।
3. व्यवसाय चक्र-व्यवसाय चक्र की विभिन्न दशाएँ एक उपक्रम की कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती हैं। व्यापार की शीर्ष स्थिति में बिक्री एवं उत्पादन दोनों में वृद्धि होती है। अतः अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत आर्थिक मन्दी के समय जबकि बिक्री एवं उत्पादन दोनों ही निम्न स्तर के होते हैं अतः कार्यशील पूँजी की कम आवश्यकता होती है।
4. मौसमी कारक-कुछ व्यवसाय मौसमी होते हैं। मौसम के चरम का शीर्ष स्तर पर, जब उसकी क्रिया अधिक गतिशील होती है, अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। जब मौसम का उतार होता है या मौसम बदल जाता है तो उस व्यवसाय की क्रिया मंद हो जाती है तब कार्यशील पूँजी की कम आवश्यकता होती
5. उधार विक्रय सुविधा-एक उपक्रम यदि उधार देने की नीति अपनाता है तथा देनदारों की संख्या में वृद्धि करने का प्रयास करता है तो अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।
6. उधार क्रय सुविधा-जब कोई उपक्रम अपने ग्राहकों को उधार माल बेचता है तो उसे उधार क्रय पर माल मिल जाता है। जितना अधिक कोई कम्पनी उधार माल क्रय करेगी, उसे उतनी ही कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।
7. उत्पादन चक्र-कुछ व्यवसायों का उत्पादन चक्र दीर्घकालीन होता है तो अन्य का अल्पकालीन समय की अवधि एवं उसकी दूरी उत्पादन चक्र के अनुसार कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है। क्योंकि कच्चा माल तथा उत्पादन व्ययों के भुगतानार्थ कार्यशील पूँजी आवश्यक होती है। अतः उन व्यवसायों में जहाँ उत्पादन चक्र लम्बा है वहाँ कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक होती है।
8. कुशल संचालन-व्यावसायिक उपक्रम अपने व्यवसाय का कुशलतापूर्वक संचालन करते हैं। उदाहरणार्थ, एक व्यावसायिक उपक्रम अपने कच्चे माल की प्रबन्ध कुशलता का प्रबन्ध करने में कम माल के शेष (स्टॉक) से ही काम चला रही है तो यह कम्पनी के उच्च कोटि के स्कन्ध आवर्त अनुपात.का द्योतक है। इसी प्रकार ऋणदाताओं से शीघ्रातिशीघ्र धन की वसूली अच्छे प्राप्यकीय आवर्त अनुपात का द्योतक है। इससे कार्यशील पूँजी की कम ही आवश्यकता होती है। अच्छी बिक्री करने के प्रयास तैयार माल को स्टॉक में रखे रहने की मात्रा में कमी लाते हैं।
9. मुद्रास्फीति-मुद्रास्फीति की अवस्था में प्रत्येक वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है और उत्पादन तथा बिक्री को स्थायी बनाये रखने के लिए अधिक वित्त की आवश्यकता है। अतः मुद्रास्फीति के अधिक होने से कार्यशील पूँजी की आवश्यकता भी बढ़ जाती है।
10. प्रतियोगिता का स्तर-उच्चस्तरीय प्रतियोगिता की अवस्था में अधिक तैयार माल की आवश्यकता होगी ताकि ग्राहकों को तुरन्त, आदेशानुसार माल की पूर्ति की जा सके। इससे कार्यशील पूँजी की आवश्यकता में भी वृद्धि होगी। ऐसी स्थिति में उधार विक्रय भी करना पड़ेगा, इसलिए भी अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।
11. कच्चे माल की उपलब्धि-यदि कच्चा माल तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ आसानी एवं सुगमता से उपलब्ध होती रहती हैं तथा उनकी आवक में कोई रुकावट नहीं होती है तो माल का थोड़ा स्टॉक रखना ही पर्याप्त रहेगा और कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत माल आसानी से उपलब्ध नहीं होता है तो माल का भारी स्टॉक रखना होगा। ऐसी स्थिति में अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।
12. विकास प्रत्याशा-यदि किसी व्यवसाय के विकास की सम्भावनाएँ अधिक प्रतीत होती हैं तो उसके लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी, जिसकी सहायता से वह व्यवसाय अधिक माल का उत्पादन भी कर सकेगा।
प्रश्न 3.
"प्रत्येक व्यावसायिक इकाई की सफलता के लिए सुदृढ़ वित्तीय नियोजन का होना आवश्यक है।" कोई छः कारण देते हुए इस कथन को समझाइये।
अथवा
वित्तीय नियोजन के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सुदृढ़ वित्तीय नियोजन की आवश्यकता अथवा महत्त्व
किसी भी व्यावसायिक संस्था के समग्र नियोजन का वित्तीय नियोजन एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका लक्ष्य कम्पनी कोष की उपलब्धता के उपलब्ध स्रोत के सम्बन्ध में अनिश्चितता का सामना करने के योग्य बनाना है। यह संगठन के सुगम संचालन में सहायक होता है। इसके द्वारा ही संस्था के वित्तीय साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव होता है तथा संस्था के विकास एवं विस्तार की योजनाओं को प्रभावी बनाया जा सकता है। यथार्थ में प्रत्येक व्यावसायिक इकाई की सफलता के लिए सुदृढ़ वित्तीय नियोजन का होना आवश्यक है। सुदृढ़ वित्तीय नियोजन की आवश्यकता एवं महत्त्व के अग्रलिखित कारण गिनाये जा सकते हैं-
1. संस्था को भविष्य के लिए सुदृढ़ बनानावित्तीय नियोजन व्यावसायिक संस्था को भविष्य की परेशानियों का सामना करने के लिए सुदृढ़ बनाता है। उदाहरण के लिए, एक कम्पनी की बिक्री में 20% की वृद्धि का अनुमान लगाया जाता है। लेकिन यह भी सम्भव हो सकता है कि यह वृद्धि 10 या 30 प्रतिशत हो। बहुत से व्ययों की मदें इन तीनों परिस्थितियों में भिन्न होंगी। ब्लू-प्रिंट बनाकर प्रबन्ध यह निश्चित कर सकता है कि इन तीनों परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए। स्थानापन्न वित्तीय नियोजनों की इस तरह की तैयारी कुछ विभिन्न परिस्थितियों में स्पष्ट रूप में व्यवसाय के सुगम संचालन में सहायता प्रदान करती है।
2. आकस्मिक परेशानियों से बचने में सहायता करना-वित्तीय नियोजन आकस्मिक परेशानियों व विस्मयों से बचने में सहायता करता है तथा यह भविष्य निर्माण में भी सहायक होता है।
3. व्यावसायिक कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना-वित्तीय नियोजन संस्था के विभिन्न व्यावसायिक कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने में सहायता करता है।
4. अपव्यय, पुनरावृत्ति तथा नियोजन अन्तराल को कम करना-वित्तीय प्रबन्धन में कार्य की विस्तृत योजना तैयार करके अपव्यय को कम किया जा सकता है तथा क्रियाओं की पुनरावृत्ति तथा नियोजन में अन्तराल को भी कम किया जा सकता है।
5. वास्तविक निष्पादन का मूल्यांकन-वित्तीय नियोजन विभिन्न व्यावसायिक खण्डों के उद्देश्यों की व्याख्या करके वास्तविक निष्पादन का आसानी से मूल्यांकन करता है।
6. व्यवसाय का कुशल संचालन-व्यवसाय के प्रवर्तन, स्थापना सम्पत्तियाँ व सामग्री के क्रय तथा माल के निर्माण आदि सभी क्रियाओं में वित्त की आवश्यकता होती है। किन्तु इन.सभी कार्यों के लिए समय पर धन उपलब्ध कराना कुशल वित्तीय नियोजन पर ही निर्भर करता है।
7. न्यूनतम मूल्य पर पूँजी की उपलब्धता-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन के द्वारा व्यावसायिक संस्था के लिए न्यूनतम लागत पर वित्त की अनुकूलतम व्यवस्था की जा सकती है।
8. पूँजी की सुरक्षा-वित्तीय नियोजन से संस्था को अपनी पूँजी की सुरक्षा करने में बहुत ही सहायता मिलती है। वित्तीय नियोजन द्वारा अप्रचलन, बदलती हुई माँग व फैशन, प्रौद्योगिकी सुधार, अनुत्पादक विनियोजन आदि की जोखिमों से व्यवसाय को बचाया जा सकता है।
9. व्यवसाय का विकास एवं विस्तार-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन से व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के समय वित्तीय कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता
10. पर्याप्त तरलता-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन से व्यवसाय में पर्याप्त तरल कोष बने रहते हैं तथा अति व्यापार की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है । व्यवसाय अपनी देनदारियों के भुगतान में सक्षम रहता है।
11. उचितं प्रत्याय-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन से संस्था के कार्य रुकते नहीं हैं तथा वित्तीय साधनों का भी पूर्ण उपयोग सम्भव होता है। फलतः विनियोजित पूँजी का उचित प्रतिफल प्राप्त होता है।
12. लागत नियन्त्रण एवं संचालन में मितव्ययिता-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन के द्वारा संस्था के सभी कार्यों की लागतों को पूर्व निर्धारित प्रमापित लागतों की सीमा में रख कर नियन्त्रित किया जा सकता है। वित्तीय नियोजन के द्वारा अपव्यय को रोकना भी आसान हो जाता है।
13. संचालन क्रियाओं में मितव्ययिता-सुदृढ़ वित्तीय नियोजन द्वारा अविवेकपूर्ण कार्यों, अपव्यय तथा अलाभप्रद क्रियाओं को रोककर व्यवसाय की प्रभावशीलता को बढ़ाया जा सकता है।
प्रश्न 4.
आप एक नवनिर्मित कम्पनी के वित्तीय प्रबन्धक हैं। कम्पनी के संचालकों ने आपसे कम्पनी के लिए स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं के निर्धारण के लिए आग्रह किया है। आप कम्पनी के लिए स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं का निर्धारण करते समय जिन घटकों को ध्यान में रखेंगे, उनमें से किन्हीं चार की व्याख्या कीजिये।
अथवा
स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं को निर्धारित अथवा प्रभावित
करने वाले विभिन्न घटक
एक व्यावसायिक कम्पनी की स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं को निर्धारित अथवा प्रभावित करने वाले प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं-
1. व्यवसाय की प्रकृति-स्थायी पूँजी की आवश्यकता व्यवसाय की प्रकृति एवं प्रकार पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, एक कम्पनी की स्थायी सम्पत्तियों में निवेश की आवश्यकता एक निर्माता कम्पनी की अपेक्षा कम होती है, क्योंकि उसे संयन्त्र तथा मशीनें आदि क्रय करने की आवश्यकता नहीं होती है।
2. व्यवसाय का आकार-एक बड़ी औद्योगिक कम्पनी जो बड़े स्तर पर संचालित है उसे बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता होती है तथा उसे अधिक स्थान की भी आवश्यकता होती है। अतः उसे स्थायी सम्पत्तियों में निवेश के लिए अधिक धनराशि की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत छोटी कम्पनी को कम स्थान की आवश्यकता होती है।
3. विविधीकरण-एक व्यावसायिक संस्था विभिन्न कारणों से अपनी संचालन प्रक्रिया में विविधीकरण द्वारा विविधता ला सकती है। यह क्रिया स्थायी पूँजी की आवश्यकता में वृद्धि करके ही की जा सकती है।
4. तकनीक का विकल्प-सामान्यतः पूँजी-प्रधान कम्पनियों में संयन्त्र एवं मशीनों के खरीदने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है क्योंकि इनमें मानवीय श्रम की कम आवश्यकता होती है। ऐसे उपक्रमों में स्थायी पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। दसरी तरफ श्रम-प्रधान संगठनों में स्थायी सम्पत्तियों में निवेश की आवश्यकता कम ही होती है क्योंकि उनको. स्थायी पूँजी की आवश्यकता भी कम होती है। .
5. तकनीकी उत्थान-कुछ उद्योगों या कम्पनियों में सम्पत्तियाँ शीघ्र ही अप्रचलित हो जाती हैं, परिणामस्वरूप उनका प्रतिस्थापन शीघ्र ही करना होता है। ऐसी कम्पनियों में स्थायी सम्पत्तियों में भारी मात्रा में विनिवेश की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, कम्प्यूटर शीघ्र ही अप्रचलित हो जाते हैं तथा शीघ्र ही उनका प्रतिस्थापन भी किया जाता है।
6. सहयोग का स्तर-कभी-कभी कुछ व्यावसायिक संगठन एक-दूसरे की सुविधाओं का उपयोग करते हैं। जैसे एक बैंक से दूसरे बैंक को ऑटोमैटिक टेलर मशीन (ए.टी.एम.) का उपयोग कर सकती है। यह तभी सम्भव होता है कि उनमें से प्रत्येक का संचालन पैमाना उस स्तर का नहीं होता कि वह उस सुविधा का पूरा लाभ उठा सके। इस प्रकार के सहयोग स्थायी सम्पत्तियों में निवेश के स्तर को कम करने में सहायक होते हैं।
7. विकास की प्रत्याशा-किसी कम्पनी में ऊँची दर से विकास की प्रत्याशा की सन्तुष्टि के लिए प्रायः स्थायी सम्पत्तियों की व्यवस्था के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता होती है। यद्यपि जब इस प्रकार के विकास की आशा की जाती है, तब व्यवसाय के सामने माँग को शीघ्र पूरा करने के लिए ऊँची दर की क्षमता का निर्माण करे। यह स्थायी सम्पत्तियों में ऊँची दर के निवेश को आवश्यक बनाता है तथा तत्पश्चात् ही ऊँची दर की स्थायी सम्पत्तियों में वृद्धि भी होती है।
8. वित्तीय विकल्प-एक विकसित वित्तीय बाजार कुछ विक्रय के लिए विकल्प के रूप में पट्टेदारी सुविधा मुहैया करा सकता है। जब एक सम्पत्ति पट्टे पर ली जाती है तो क्रेता फर्म विक्रेता को पट्टेदारी किराया देता है तथा सम्पत्ति को अपने प्रयोग में लाता है। ऐसा करने से वह एक बड़ी भारी रकम, जो उस सम्पत्ति के क्रय करने के लिए चाहिए थी, की व्यवस्था करने से बच जाता है। इस प्रकार पट्टेदारी की सुविधाएँ मिलने से उन निधियों की ङ्के अआवश्यकता कम हो जाती है, जिसकी स्थायी सम्पत्तियों में निवेश के लिए आवश्यकता होती है अतः स्थायी पूँजी क्रय करने की आवश्यकता कम होती है। इस प्रकार की व्यूह-रचना उन कम्पनियों में अधिक उपयुक्त होती है जहाँ पर जोखिम की मात्रा अधिक होती है।
9. चालू सम्पत्तियों के स्थायी भाग की मात्राचालू सम्पत्तियों का कुछ भाग ऐसा होता है जिसमें स्थायी विनियोग की जरूरत होती है । चालू सम्पत्ति के ऐसे भाग के लिए भी स्थायी पूँजी की जरूरत होती है। अत: जिन संस्थाओं में यह भाग अधिक होता है उन्हें अधिक स्थायी पूँजी की जरूरत होती है।
प्रश्न 5.
'वित्तीय प्रबन्ध' शब्द को समझाइये। वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्यों एवं महत्त्व का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ-सामान्य अर्थ में, वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ आवश्यकतानुसार वित्त की समुचित व्यवस्था करना है। यह व्यावसायिक प्रबन्ध की वह शाखा है जो वित्त की प्राप्ति, नियोजन, आबंटन, प्रभावी उपयोग एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध रखती है। इसके अन्तर्गत पूँजी नियोजन एवं बजटिंग, पूँजी लागत, आय प्रबन्ध, रोकड़ प्रवाह, कार्यशील पूँजी प्रबन्धन, कोष नियोजन, वित्तीय मापदण्डों के निर्धारण, वित्तीय नियन्त्रण आदि कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।
वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य-
वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व
वित्तीय प्रबन्ध के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है-
1. वित्तीय साधनों का अनुकूलतम उपयोग-वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व इस रूप में है कि यह संस्था के वित्तीय साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव बनाता है। वित्तीय साधनों के अनुकूलतम उपयोग से ही उच्च लाभदायकता प्राप्त की जा सकती है।
2. संस्था के अस्तित्व एवं विकास हेतु आवश्यक-अधिकांश अनार्थिक एवं रुग्ण इकाइयों के विश्लेषण से यह ज्ञात हआ है कि उनके रुग्ण होने का प्रमुख कारण उनका दोषपूर्ण वित्तीय प्रबन्ध होना है। इसीलिए यह कहा जाता है कि उपक्रम की मितव्ययिता, अस्तित्व, सफलता एवं विकास के लिए वित्तीय प्रबन्ध का अपना महत्त्व है।।
3. विभिन्न विभागों के मध्य समन्वय-वित्तीय प्रबन्ध संस्था के सभी विभागों की क्रियाओं के लिए आवश्यक वित्त का अनुमान लगाकर उसके लिए उचित वित्त की व्यवस्था करने का कार्य करता है। इसीलिये यह कहा जाता है कि उपक्रम के विभिन्न विभागों के साथ वित्तीय प्रबन्ध का प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है और वित्तीय प्रबन्ध उपक्रम के सभी विभागों के मध्य वित्तीय समन्वय स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।
4. लाभदेयता में वृद्धि-वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व इस रूप में भी अधिक है कि यह व्यावसायिक उपक्रम की लाभदेयता में वृद्धि के लिए बहुत सार्थक सिद्ध होता है। इसका कारण यह है कि वित्त का नियोजन एवं नियन्त्रण रोकड़ एवं साख का उचित प्रवाह, उचित साधनों से वित्त का एकीकरण और अधिक कुशलता के साथ वित्त का अधिकतम सदुपयोग करने में बहुत सहायक होता है।
5. वित्त का सदुपयोग-वित्तीय प्रबन्ध वित्त के सुदृढ़ नियोजन एवं नियन्त्रण द्वारा अनावश्यक व्ययों पर रोक लगाने में समर्थ होता है। यह रोकड़ एवं साख के प्रवाह को निरन्तर बनाये रखता है। परिणामस्वरूप उपक्रम में मितव्ययिता एवं कुशलतापूर्वक वित्त का उपयोग सम्भव बनता है।
6. पूँजी निर्माण में सहायक-वित्तीय प्रबन्ध संस्था के पूँजी निर्माण में भी सहायक होता है। वित्तीय प्रबन्ध के द्वारा विभिन्न प्रकार के उपयोगी निर्णय लिये जाते हैं। जैसे-विनियोग सम्बन्धी निर्णय, लाभांश सम्बन्धी निर्णय तथा सम्पत्ति प्रबन्ध सम्बन्धी निर्णय आदि। वस्तुत: वित्तीय प्रबन्ध सदैव संस्था के वित्तीय कोषों के प्रभावी उपयोग के लिए प्रयत्नशील रहता है। परिणामतः पूँजी निर्माण की सम्भावना में वृद्धि होती है।
7. उचितं स्रोतों से पर्याप्त वित्त जुटाना-वित्तीय प्रबन्ध के द्वारा व्यवसाय के लिए उचित स्रोतों से पर्याप्त वित्त जुटाने का कार्य किया जाता है।
8. वित्तीय अनुशासन एवं नियन्त्रण-उपक्रम से वित्त का दुरुपयोग रोकने हेतु वित्तीय व्यवहारों के नियमन एवं नियन्त्रण हेतु नीतियाँ तथा नियम बनाने एवं उनके क्रियान्वयन का कार्य भी वित्तीय प्रबन्ध का ही है। इसीलिए वित्तीय अनुशासन एवं नियन्त्रण हेतु भी वित्तीय प्रबन्ध का अपना महत्त्व है।
9. विभिन्न वर्गों के हितों की पूर्ति में सहायकवित्तीय प्रबन्ध केवल व्यावसायिक उपक्रम या प्रबन्ध के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं होता है अपितु यह उपक्रम से जुड़े अन्य पक्षकारों के हितों की पूर्ति के लिए भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
10. उपक्रम की सभी क्रियाओं का सफलतापूर्वक संचालन-वित्तीय प्रबन्ध उपक्रम की सभी क्रियाओं यथा उत्पादन, विपणन, सेविवर्गीय आदि के लिए वित्त प्रदान करता है। यह नियोजन, समन्वय एवं नियन्त्रण हेतु आधार प्रस्तुत करने का कार्य करता है। फलतः उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं का सफलतापूर्वक संचालन सम्भव होता है।
11. वित्तीय दोषों को दूर करना-वित्तीय प्रबन्ध, वित्तीय नियोजन एवं मूल्यांकन के द्वारा वित्तीय दोषों को दूर किया जा सकता है।
प्रश्न 6.
पूँजी संरचना से क्या तात्पर्य है ? पूँजी संरचना के चयन को निर्धारित करने वाले घटकों को बताइये।
अथवा
पूँजी ढाँचा/संरचना क्या है? पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन करें।
उत्तर:
पूँजी ढाँचा/संरचना का अर्थ-पूँजी ढाँचे/संरचना से आशय स्वामित्व तथा ग्रहीत निधि के मिश्रण से है। स्वामिगत निधि में समता अंश; पूर्वाधिकार अंश तथा संचय एवं आधिक्य अथवा प्रतिधारित उपार्जन सम्मिलित होते हैं। ग्रहीत निधि में ऋण, ऋणपत्र, सार्वजनिक ऋण आदि सम्मिलित होते हैं। इनको बैंक, अन्य वित्तीय संस्थाओं, ऋणपत्रधारियों तथा जनता से उधार लिया जा सकता है। अन्य शब्दों में, पूँजी ढाँचा/ संरचना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यवसाय हेतु आवश्यक पूँजी के स्रोतों का कुल पूँजी अनुपात क्या होगा जिससे संस्था की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूर्णतः उपयुक्त हो। इस प्रकार पूँजी संरचना एक प्रक्रिया है जिसमें किसी संस्था के अन्तर्गत विभिन्न वित्तीय स्रोतों के अनुपातों का निर्धारण किया जाता है और यह भी निर्धारित किया जाता है कि किसी संस्था की दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति में स्थायी स्रोतों का कितना-कितना उपयोग किया जायेगा। पूँजी संरचना सर्वोत्तम तब कहलाती है जबकि ऋण तथा समता का अनुपात ऐसा हो जिसके कारण समता अंशों के मूल्य में वृद्धि होती है।
पूँजी संरचना के चयन को निर्धारित करने वाले घटक
अथवा
पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले घटक
1. रोकड़ प्रवाह स्थिति-ऋण-पत्रों के निर्गमन से पूर्व रोकड़ प्रवाह के आकार को ध्यान में अवश्य रखा जाना चाहिए। रोकड़ प्रवाह से तात्पर्य केवल स्थायी रूप से रोकड़ के भुगतान से ही नहीं है बल्कि पर्याप्त मात्रा में बफर का होना भी है। इस प्रकार पूँजी संरचना को रोकड़ प्रवाह की स्थिति भी प्रभावित करती है।
2. ब्याज आवरण अनुपात (आई.सी.आर.)इस अनुपात का तात्पर्य है कि कम्पनी का ब्याज तथा कर काटने से पूर्व लाभ की मात्रा ब्याज से कितना गुना अधिक है। इसकी गणना निम्न प्रकार से की जाती है
(आय ब्याज व कर काटने से पूर्व)
यह अनुपात जितना अधिक होता है कम्पनी की आर्थिक दशा ब्याज का भुगतान करने के लिए उतनी ही सुदृढ़ समझी जाती है अर्थात् कम्पनी ब्याज का भुगतान आसानी से करने में सामर्थ्यवान समझी जाती है।
3. ऋण-सेवा आवरण अनुपात (डी.एस.सी.आर.)-यह अनुपात उन कमियों पर ध्यान देता है जो ऋण आवरण अनुपात में होती हैं। इसकी गणना निम्न प्रकार की जाती है-एक उच्च डी.एस.सी.आर. प्रदर्शित करता है रोकड़ प्रतिबद्धता की बेहतर उपलब्धता को और निरन्तरता को, कम्पनी की ऋण तत्त्व को बढ़ाने की क्षमता को अपने स्वयं की पूँजी संरचना द्वारा।
4. निवेश पर आय (आर.ओ.आई.)-यदि कम्पनी की निवेश पर आय ऊँची दर की है तो प्रति अंश आय को बढ़ाने के लिए कम्पनी समता पर व्यापार के उपयोग का चुनाव कर सकती है। अर्थात् इसकी ऋण उपयोग की योग्यता उच्च श्रेणी की है। वस्तुतः निवेश पर आय कम्पनी की समता पर व्यापार की योग्यता का एक महत्त्वपूर्ण निर्णायक है तथा इसी प्रकार पूँजी संरचना में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
5. कर-दर-यद्यपि ब्याज कुल लागत में से कम किया जाने वाला व्यय है। ऋण की लागत कर दर से प्रभावित होती है। कर की ऊँची दर, ऋणों को अपेक्षाकृत सस्ता करती है तथा समता में वृद्धि को आकर्षित करती है।
6. ऋण की लागत-एक कम्पनी द्वारा नीची ब्याज की दर पर ऋण लेना उसकी ऊँची दर से ऋण विनियोजन क्षमता को प्रदर्शित करता है। अत: यदि नीची दर की ब्याज पर ऋण लिये जा सकते हों तो अधिक मात्रा में ऋणों का उपयोग किया जा सकता है।
7. प्रवर्तन लागत-जब अंशों तथा ऋण-पत्रों का जनता में निर्गमन किया जाता है तो कुछ यथेष्ट व्ययों का भुगतान करने की आवश्यकता भी होती है। किसी वित्तीय संस्था से ऋण प्राप्त करने में इतनी ज्यादा लागत नहीं आती है। ये मान्यताएँ अंश निर्गमन या ऋण ग्रहण करने के मध्य चुनाव को प्रभावित कर सकती हैं तथा पूँजी संरचना भी प्रभावित होती है।
8. समता पर व्यापार-इस सिद्धान्त के अनुसार समता अंशों का निर्गमन बहुत थोड़ी मात्रा में करके शेष पूँजी का प्रबन्ध दीर्घकालीन ऋणों के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार उपक्रम के स्वामी बहुत कम विनियोग करके अधिकतम सम्पत्तियों के मालिक हो जाते हैं। उपक्रम में कुल उपयोग पर प्राप्त होने वाली आय दीर्घकालीन ऋणों पर देय ब्याज से कहीं अधिक होती है। अत: समता अंशों पर अधिक दर से लाभांश वितरित किया जा सकता है। इस प्रकार प्रबन्धक न्यूनतम विनियोग के द्वारा व्यवसाय पर अधिकतम नियन्त्रण की इच्छा रखते हैं जिससे समता अंशों पर ऊँचा लाभांश घोषित करके अधिकतम लाभांश अर्जित किया जा सके।
9. जोखिम-पूँजी संरचना में पूँजी के विभिन्न साधनों के उपयोग की जोखिम पर भी विचार किया जाना चाहिए। पूँजी संरचना में ऋण-पूँजी का अनुपात निर्धारित करने के पूर्व उपक्रम की ऋण क्षमता का सही आकलन एवं जोखिम का सही पूर्वानुमान कर लेना चाहिए। जोखिम में व्यवसाय की जोखिम में पूजी साधन के उपयोग की जोखिम दोनों पर ही विचार किया जाना आवश्यक है।
10. नियन्त्रण की इच्छा-पूँजी संरचना व्यापार पर समूह विशेष द्वारा नियन्त्रण करने की इच्छा से भी प्रभावित होती है। यदि कम्पनी इसके प्रवर्तकों, संस्थापकों अथवा कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में इसका नियन्त्रण केन्द्रित करना चाहती है तो समता अंशों का निर्गमन किया जाता है।
11. भावी योजनाएँ-किसी भी उपक्रम की पूँजी संरचना में वर्तमान आवश्यकताओं के साथ-साथ उसकी भावी विकास योजनाओं को भी ध्यान में रखा जाता है जिससे जरूरत होने पर भविष्य में अतिरिक्त पूँजी जुटायी जा सके।
12. कार्य स्वतन्त्रता-कई बार प्रबन्धक व्यवसाय की नीति निर्धारण एवं महत्त्वपूर्ण निर्णयों में अन्य व्यक्तियों का हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं। अत: वे पूँजी संरचना का निर्माण इस प्रकार करते हैं कि उनके हाथों में ही नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन के समस्त अधिकार आ जायें।
13. प्रबन्ध दृष्टिकोण-प्रबन्धकों का दृष्टिकोण, अनुभव, स्वभाव, मान्यताओं, कौशल आदि के प्रभाव का भी पूँजी संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
14. परिचालन लागत-परिचालन अनुपात का पूँजी संरचना से गहरा सम्बन्ध होता है। इस अनुपात की गणना बेचे गये माल की लागत एवं व्ययों के योग में शुद्ध विक्रय का भाग देकर की जाती है।
15. नियामक ढाँचा-प्रत्येक कम्पनी का नियामक ढाँचा, जिसका निर्माण विधान के अनुसार होता है, के अधीन चलना होता है। उदाहरण के लिए, अंशों या ऋण-पत्रों का निर्गमन सेबी की हिदायतों के अन्तर्गत ही होता है। यदि बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना होता है तो मानकों का पूरा किया जाना आवश्यक होता है।
16. शेयर बाजार की दशाएँ-यदि शेयर बाजार में तेजड़ियों का बोलबाला है तो समता अंशों का विक्रय सुगम होता है। यहाँ तक कि बड़ी ऊँची कीमत पर भी विक्रय सम्भव होता है। ऐसी अवस्था में कम्पनियों द्वारा समता अंश-पूँजी को ही प्राथमिकता दी जाती है। इसके विपरीत मन्दी की स्थिति में प्रायः कम्पनियाँ ऋण लेना ही उपयुक्त समझती हैं।
17. अन्य कम्पनियों की पूँजी संरचना-पूँजी संरचना नियोजन में एक उपयोगी मार्गदर्शक अन्य कम्पनियों का, जो इसी प्रकार के व्यवसाय में संलग्न हैं ऋण समता अनुपात है।
प्रश्न 7.
एक कम्पनी की लाभांश नीति को प्रभावित करने वाले घटकों (किन्हीं पाँच) का वर्णन कीजिए।
अथवा
लाभांश निर्णय को प्रभावित करने वाले घटकों को समझाइये।
उत्तर:
लाभांश नीति (निर्णय) को प्रभावित करने वाले घटक
[नोट-लाभांश नीति (निर्णय) को प्रभावित करने वाले घटकों के सम्बन्ध में इसी अध्याय के पाठ्य-पुस्तक के निबन्धात्मक प्रश्न संख्या 4 के उत्तर में पढ़ें।]
प्रश्न 8.
"पूँजी संरचना उचित 'जोखिम प्रतिफल' (Risk-return) सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक है।" विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पूँजी संरचना के अन्तर्गत जिन प्रतिभूतियों अर्थात् अंश व ऋण-पत्रों द्वारा आवश्यक वित्त एकत्रित किया जायेगा उनके प्रकार तथा उनका पारस्परिक अनुपात निश्चित करना पड़ता है। पूँजी संरचना में पूँजी का संघटन निर्धारित किया जाता है।
कोई भी कम्पनी व्यावसायिक क्षेत्र में अपना पूँजीकरण अंशों और ऋण-पत्रों द्वारा कर सकती है। अंश दो प्रकार के हो सकते हैं-समता तथा पूर्वाधिकार। इसके अलावा कम्पनी लाभों के पुनर्विनियोग तथा ऋण द्वारा भी पूँजीकरण की मात्रा एकत्रित कर सकती है। ऋण-पत्रों तथा अन्य ऋणों पर एक निश्चित दर से ब्याज देना पड़ता है, चाहे कम्पनी को लाभ हो या हानि। पूर्वाधिकारी अंशों पर लाभ की स्थिति में निश्चित दर से लाभांश देना पड़ता है और यदि ये अंश असंचयी हैं तो हानि वाले वर्ष के लिए लाभांश देने की आवश्यकता नहीं और यदि ये अंश संचयी हैं तो हानि वाले वर्ष का लाभांश भी अगले वर्ष के लाभ में से देना होता है। दूसरी तरफ समता अंश पर लाभांश की दर निश्चित नहीं होती है और यह लाभ की मात्रा के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। लाभों के पुनर्विनियोग पर कोई प्रतिफल नहीं देना पड़ता है।
इस प्रकार पूँजीकरण के विभिन्न स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-निश्चित प्रतिफल वाली प्रतिभूतियाँ और अनिश्चित प्रतिफल वाली प्रतिभूतियाँ। इन दो प्रकार की प्रतिभूतियों के पारस्परिक अनुपात को पूँजी-मिलान कहा जाता है। अन्य शब्दों में, "पूँजी मिलान का आशय विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों तथा कुल पूँजीकरण के मध्य अनुपात निर्धारित करना है।" जब किसी कम्पनी के कुल पूँजीकरण का अधिकांश भाग ऋण-पत्रों, पूर्वाधिकार अंशों तथा अन्य _स्थायी प्रतिफल वाली प्रतिभूतियों द्वारा किया जाता है तो उसे उच्च पूँजी मिलान कहते हैं। इसके विपरीत जब पूँजी संरचना में इन प्रतिभूतियों का भाग गौण होता है तो उसे निम्न पूँजी मिलान कहा जाता है। उदाहरण के लिए, दो कम्पनियों 'अ' तथा 'ब' का कुल पूँजीकरण एक-एक करोड़ रुपये है। कम्पनी 'अ' की पूँजी संरचना इस प्रकार है-50 लाख रुपये ऋण-पत्र, 20 लाख रुपये पूर्वाधिकार अंश तथा 30 लाख रुपये समता अंश। दूसरी तरफ कम्पनी 'ब' में 60 लाख रुपये समता अंश, 20 लाख रुपये ऋण-पत्र तथा 30 लाख रुपये पूर्वाधिकार अंश से है। कम्पनी 'अ' में उच्च पूँजी मिलान है जबकि कम्पनी 'ब' में निम्न पूँजी मिलान है।
संस्था की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने तथा इसके कुशल संचालन के लिए पूँजी का उचित मिलान आवश्यक है। पूँजी मिलान के द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त पूँजी में एक उचित अनुपात निर्धारित किया जाता है, जिससे धन का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है। पूँजी मिलान के द्वारा विभिन्न प्रतिभूतियों का एक सन्तुलित मिश्रण निर्धारित किया जा सकता है। पूँजी मिलान पूँजी संरचना के गुणात्मक पहलू को सुदृढ़ बनाता है। यह पूँजी संरचना को एक विवेकपूर्ण सन्तुलन प्रदान करता है।
प्रश्न 9.
एक व्यावसायिक संगठन की पूँजी संरचना में परिवर्तनों को प्रेरित करने वाले कौनकौनसे तत्त्व हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूँजी संरचना में परिवर्तनों को प्रेरित करने वाले तत्त्व
किसी भी व्यावसायिक संगठन की पूँजी संरचना में परिवर्तन करने के लिए निम्नलिखित कारण प्रेरित करते है।
1. उद्देश्यों की प्राप्ति-संस्था की वित्त व्यवस्था में उत्पन्न पूँजी सम्बन्धी तनाव को दूर करने तथा कम्पनी को उद्देश्य प्राप्ति में अधिक गतिशील बनाने के लिए कभी-कभी उसकी पूँजी संरचना में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है।
2. संचित लाभों का पूँजीकरण-जब कम्पनी में प्रति अंश उपार्जन राशि बढ़ जाती है तथा कम्पनी के लाभ बढ़ जाते हैं तो उनकी सहायता से नये अंशों का निर्गमन करके उनका पूँजीकरण किया जा सकता है।
3. अंशों के मूल्य को समुचित स्तर पर रखनाकई बार कम्पनी ऊँचे मूल्य के अंशों को निम्न मूल्य के अंशों में बदल कर उन्हें आकर्षक बना सकती है। उदाहरण के लिए, अधिकांश विनियोक्ता 100-100 रुपये के 10 अंशों के बजाय 10-10 के 100 अंश खरीदना अधिक पसन्द करते हैं। इसमें वे अधिक अंश क्रय किये जाने का गर्व भी अनुभव करते हैं।
4. वैयक्तिक सम्पत्ति वितरण-सम्पत्ति कर की बढ़ती हुई दरों के कारण स्वामित्वधारी अपनी सम्पत्तियों का वितरण करने अथवा कुछ सम्पत्ति को बेचकर नकदी प्राप्त करने के लिए विवश हो जाते हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि अंशों के सम मूल्य में कमी करके इनकी संख्या में वृद्धि की जाये।
5. वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति-कई बार कम्पनी को कानूनी प्रावधानों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के अधीन पूँजी ढाँचे में परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़ जाती है।
6. बाजार की तेजी-मन्दी-बाजार में तेजी व मन्दी के समय कम्पनी को इनके दुष्प्रभावों से बचाने के लिए पूँजी संरचना में पुनः समायोजन आवश्यक हो जाता है।
7. संयोजन एवं एकीकरण-व्यावसायिक जगत में बनाये जाने वाले संयोजनों, संविलयनों व एकीकरण के फलस्वरूप भी पूँजी ढाँचे में कई प्रकार के परिवर्तन करने पड़ जाते हैं। इसमें अंशों का उपविभाजन एवं पुनर्मूल्यन आवश्यक हो जाता है।
8. परिवर्तनशील प्रतिभूतियों का निर्गमन-जब एक कम्पनी परिवर्तनशील ऋण-पत्रों अथवा बॉण्डों का निर्गमन करती है तो यह आवश्यक हो जाता है कि समस्त परिवर्तन हेतु अनिर्गमित एवं अधिकत समता अंश तैयार रखे। इससे पूँजी संरचना में पुनः समायोजन आवश्यक हो जाता है।
9. पूँजी ढाँचे को सरल बनाना-कई बार पूँजी संरचना में सरलीकरण के लिए कुछ परिवर्तन आवश्यक हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, विभिन्न अधिकार वाली प्रतिभूतियों को समाप्त करने के लिए पूर्वाधिकार अंशों का निर्मगन आवश्यक होता है। इससे पूँजी संरचना को सरल बनाया जा सकता है।
प्रश्न 10.
वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाले तत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाले तत्त्व
वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हो सकते हैं-
1. व्यवसाय की प्रकृति-व्यवसाय की प्रकृति का उसके वित्तीय नियोजन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जैसे पूँजी-प्रधान उद्योगों जैसे लोहा एवं इस्पात उद्योग, चीनी उद्योग आदि में अधिक वित्त की आवश्यकता होती है, जबकि श्रम-प्रधान उद्योगों जैसे हथकरघा उद्योग आदि में कम पूँजी की आवश्यकता होती है।
2. जोखिम का स्तर-व्यावसायिक वित्त के लिए स्थायी पूँजी के साथ-साथ ऋण-पूँजी का भी प्रयोग किया जाता है तो यह व्यवसाय के स्वामियों के लिए लाभदायक रहेगा। किन्तु ऋण-पूँजी का उपलब्ध होना व्यवसाय के जोखिम पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
3. स्वामियों की सोच-वित्तीय नियोजन में विभिन्न वित्तीय स्रोतों का चयन करना भी सम्मिलित है। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली पँजी का स्वरूप स्वामियों के विचारों या सोच पर निर्भर करता है। यदि स्वामी कम्पनी पर अपना नियन्त्रण रखना चाहते हैं तो समता अंश अधिक मात्रा में निर्गमित किये जायेंगे।
4. विकास एवं विस्तार की सम्भावना-व्यवसाय के विस्तार एवं विकास की सम्भावना वित्तीय नियोजन को प्रभावित करती है। जिस व्यवसाय में विकास एवं विस्तार की सम्भावना अधिक है उसमें भविष्य में पूँजी की अधिक आवश्यकता होगी। अतः ऐसे व्यवसाय में वित्तीय योजना लोचशील होनी चाहिए।
5. फैक्टरिंग सुविधा-यह वित्त व्यवस्था का एक नया साधन है। इसके अन्तर्गत फैक्टरिंग एजेन्सी विक्रेताओं को उनके उधार विक्रय पर अग्रिम धन उपलब्ध करवाती है और देनदारों से भुगतान एकत्रित करने का काम भी करती है। अपनी सेवाओं के बदले में फैक्टरिंग एजेन्सी कमीशन व ब्याज भी प्राप्त करती है। जिन व्यवसायों में यह सुविधा उपलब्ध हो वहाँ उधार विक्रय में अधिक पूँजी नहीं लगानी पड़ती है। अतः ऐसे व्यवसाय में कम पूँजी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार यह सुविधा भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करती है।
6. सरकारी नीतियाँ-सरकार की नीतियाँ भी व्यवसाय के वित्तीय नियोजन को प्रभावित करती हैं। सामान्यतः वित्तीय नियोजन करते समय स्वामी पूँजी व ऋण-पूँजी का अनुपात सरकारी नीति के अनुसार ही रखा जाता है।
7. पट्टे की सुविधा-जिन व्यवसायों में मशीनरी व अन्य स्थायी सम्पत्तियाँ पट्टे पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं उनमें पूँजी की आवश्यकता कम होती है। इसके विपरीत स्थिति में पूँजी की आवश्यकता अधिक होती है। अतः वित्तीय नियोजन करते समय इस सुविधा को भी ध्यान में रखा जाता है।
8. व्यवसाय की आय-जिन व्यवसायों में नियमित एवं स्थिर आय प्राप्त होती है, उनमें कम पूँजी से भी काम चल जाता है, किन्तु अत्यधिक उच्चावचन करने वाले व्यवसायों में अधिक पूँजी की आवश्यकता बनी रहती है।
9. व्यवसाय की ख्याति एवं आकार-व्यवसाय की छवि, कार्यक्षेत्र, आकार आदि तत्त्व भी उसके वित्तीय नियोजन को प्रभावित करते हैं।
10. बाह्य पूँजी की आवश्यकता-जब व्यवसाय को अस्थायी तौर पर विशिष्ट लक्ष्यों के लिए धन की आवश्यकता होती है तो उनके लिए शोधनीय पूर्वाधिकार अंश अथवा ऋण-पत्र निर्गमित किये जाते हैं।
11. उपलब्ध वित्तीय साधन-एक संस्था का वित्तीय नियोजन समय विशेष पर उपलब्ध वैकल्पिक साधनों पर निर्भर करता है। सामान्यतया उपलब्ध वित्तीय साधनों में से उन साधनों को चुना जाता है जो लाभदायकता की दृष्टि से व्यवसाय के लिए श्रेष्ठ हैं।
प्रश्न 11.
एक व्यावसायिक संस्था में वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
एक व्यावसायिक संगठन में वित्तीय प्रबन्ध की भमिका
किसी भी व्यावसायिक संगठन में वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि वित्तीय प्रबन्ध का व्यवसाय की वित्तीय व्यवस्था से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। वित्तीय विवरण अर्थात् स्थिति विवरण व लाभ-हानि खाता व्यावसायिक संस्था की आर्थिक स्थिति तथा अन्तिम व्यवस्था को स्पष्ट करते हैं। व्यवसाय के अन्तिम खातों के सभी मदों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय प्रबन्ध के निर्णय ही महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। निम्नलिखित कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय एवं पहलू हैं जिनमें वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है-
1. व्यवसाय की स्थिर सम्पत्तियों का आकार एवं उनका सम्मिश्रण-व्यवसाय की स्थिर सम्पत्तियों का आकार एवं उनका सम्मिश्रण किस प्रकार का रहेगा यह वित्तीय प्रबन्ध के निर्णय पर बहुत कुछ प्रभावित रहता है। उदाहरण के लिए, वित्तीय प्रबन्ध स्थायी सम्पत्तियों में 100 करोड़ रुपये के विनियोग का पूँजी बजट निर्णय लेता है तो इस धनराशि से स्थायी सम्पत्तियों का आकार बहुत अधिक बढ़ जायेगा।
2. चालू सम्पत्तियों की मात्रा तथा उनका रोकड़, स्टॉक (स्कन्ध) तथा प्राप्तियों में विभाजन-स्थायी सम्पत्तियों के विनियोजन में यदि वृद्धि की जाती है तो कार्यशील पूँजी में भी उसी प्रकार से वृद्धि होना स्वाभाविक है। इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध के निर्णयों से चालू सम्पत्तियों की मात्रा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती है। इसके अतिरिक्त उधार नीति, स्कन्ध प्रबन्ध, देनदारों की पूर्व राशि तथा रहतिया, चालू सम्पत्तियों तथा उनके सम्मिश्रण सम्बन्धी निर्णय में वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
3. दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय राशियों को उपयोग में लाना-वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका इस रूप में भी होती है कि दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय राशियों को किस प्रकार से उपयोग में लिया जायेगा, इस सम्बन्ध में निर्णय लेता है। इनका अनुपात क्या होगा, यह भी निर्णय लेता है। एक उपक्रम को यदि अधिक तरल पूँजी की आवश्यकता है तो उसे उसके अनुपात में दीर्घकालीन स्रोतों से अधिक राशि जुटानी होगी। तरलता तथा लाभदायकता में विकल्प होता है और मान्यता यह है कि दीर्घकालीन दायित्वों की अपेक्षा अल्पकालीन दायित्व कम खर्चीले होते हैं।
4. दीर्घकालीन वित्त का ऋण तथा समता में विभाजन-व्यावसायिक संस्था में यदि कुल दीर्घकालीन वित्त की व्यवस्था करनी है तो ऋण तथा समता पूँजी में वृद्धि किस प्रकार, कितनी व किस अनुपात में करनी होगी यह निर्णय भी वित्तीय प्रबन्ध ही लेता है। ऋणराशि, समता अंश-पूँजी, पूर्वाधिकारी अंशपूँजी भी वित्तीय प्रबन्ध के निर्णय से प्रभावित होती है।
5. वास्तव में लाभ-हानि खाते की सभी मदें जैसे ब्याज, व्यय, ह्रास आदि-सामान्यतः ऋण के अधिक मात्रा में भार से भविष्य में ब्याज का भार भी अधिक ही होता है जैसे समता का अधिक उपयोग, लाभांश की मात्रा में भुगतानार्थ वृद्धि ही करता है। समान रूप में एक व्यवसाय में वृद्धि जो कि पूँजी बजट निर्माण का ही परिणाम होता है और जो वित्तीय प्रबन्ध ही लेता है, व्यवसाय के लाभ-हानि खाते की सभी मदों को प्रभावित करता है। वस्तुतः व्यवसाय के वित्तीय विवरणों का मुख्यतः निर्धारण वित्तीय प्रबन्ध द्वारा पहले से लिये गये निर्णयों से अत्यधिक प्रभावित होता है। एक व्यावसायिक संस्था का सम्पूर्ण वित्तीय ढाँचा उसके वित्तीय प्रबन्ध के स्वरूप द्वारा ही निर्धारित होता है। एक अच्छे वित्तीय प्रबन्ध का लक्ष्य यह भी रहता है कि वित्तीय स्रोतों को कम-से-कम कीमत पर जुटाकर अधिक से अधिक लाभदायक क्रियाओं में लगाया जाये। इस रूप में वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है और इसी पर व्यावसायिक संस्था की सफलता निर्भर करती है।
प्रश्न 12.
वित्तीय निर्णय के क्षेत्र को समझाइये।
अथवा
वित्तीय निर्णय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वित्तीय निर्णय
वित्तीय सन्दर्भ में वित्तीय निर्णय से तात्पर्य सर्वोत्तम वित्तीय विकल्प अथवा सर्वोत्तम विनियोग विकल्प के सम्बन्ध में निर्णय लेने से है। वित्तीय निर्णय लेने का अर्थ निम्न प्रकार के निर्णयों के लेने से है-
1. निवेश सम्बन्धी निर्णय-निवेश सम्बन्धी निर्णय का सम्बन्ध इस बात से होता है कि व्यावसायिक संस्था के कोषों की विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाये ताकि वे अपने निवेशकों को अधिकतम लाभ उपार्जित करवा सकें। निवेश निर्णय दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन हो सकता है। दीर्घकालीन निवेश निर्णय को पूँजी बजटीय निर्णय भी कहा जाता है। किसी भी व्यवसाय के लिए ऐसे निर्णय बड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये दीर्घकाल में संस्था की लाभदायकता को प्रभावित करते हैं। सम्पत्तियों का आकार, लाभदायकता तथा तुलनात्मकता सभी पूँजी बजटिंग निर्णयों से प्रभावित होती हैं। ये सभी निर्णय सामान्यतः निवेश की भारी मात्रा की राशि को सम्मिलित किये हुए होते हैं तथा इनको एक बड़ी भारी लागत में अतिरिक्त परिवर्तित भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे निर्णयों को लेते समय अत्यधिक सावधानी बरतने की जरूरत होती है क्योंकि इनके सम्बन्ध में यदि गलत निर्णय ले लिया जाता है तो यह व्यवसाय की कार्यक्षमता को तो ङ्केनुकसान पहुंचाता ही है, भविष्य में भी वित्तीय हानि होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
पूँजी बजटिंग निर्णय को परियोजना का रोकड़ प्रवाह, आय की दर, निवेश कसौटी अन्तर्भावितता तथा अल्पकालीन निवेश निर्णय आदि प्रभावित करते हैं।
2. वित्तीयन सम्बन्धी निर्णय-वित्तीयन सम्बन्धी निर्णय दीर्घकालीन स्रोतों से धन प्राप्त करके वित्त के उचित उपयोग के सम्बन्ध में लिया जाता है। इसके अन्तर्गत पूँजी के विभिन्न उपलब्ध स्रोतों की पहचान की जाती है। सामान्यतः या व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा दीर्घकालीन वित्त प्राप्ति के लिए अंशधारी कोष तथा उधार निधियों को अपनाया जाता है। अंशधारी कोष से तात्पर्य समता पूँजी तथा प्रतिधारित उपार्जन से होता है। उधार निधियों से तात्पर्य उस वित्त से होता है जिसका प्रबन्ध ऋणपत्रों के निर्गमन या कोई अन्य रूप में लिये हुए ऋण से है। व्यावसायिक संस्था द्वारा समता पूँजी निधि तथा उधार निधियों का अनुपात कितना रखा जायेगा यह उसके अपने स्वयं के आधारभूत लक्षणों पर निर्भर करता है। उधार निधियों पर एक तो कम्पनी को पूर्व निश्चित दर से ब्याज देना पड़ता है, साथ ही पुनर्भुगतान भी एक निश्चित समय के उपरान्त करना पड़ता है। भुगतान न करने की चूक को वित्तीय जोखिम कहा जाता है जिसे कम्पनी के पास पर्याप्त मात्रा में लाभ का न होना भी कहा जाता है; क्योंकि निश्चित समय पर कम्पनी के पास भुगतान करने के लिए पर्याप्त मात्रा में लाभ नहीं होता है। दूसरी तरफ अंशधारियों की निधि की ओर से कोई इस प्रकार की वचनबद्धता नहीं होती है कि वे प्रति लाभ या पँजी का पुनर्भुगतान करेंगे। अत: एक व्यावसायिक संस्था को वित्तीय निर्णय लेने में विवेकसंगत होना चाहिए ताकि ऋण तथा समता का अनुपात उचित हो। इन वित्तीय निर्णयों में ऋण या समता तथा पूर्वाधिकार अंशपूँजी तथा प्रतिधारित उपार्जन हो सकते हैं।
प्रत्येक प्रकार के वित्त की लागत का अनुमान लगाया जाता है। कुछ स्रोत दूसरों की अपेक्षा सस्ते हो सकते हैं। प्रत्येक प्रकार के स्रोत के लिए सहयोगी जोखिम भी पृथक् ही है। यह वित्तीय जोखिम कुल पूँजी में ऋण के अनुपात पर भी निर्भर करती है। सामान्यतया वित्तीय निर्णय को लागत, जोखिम, प्रवर्तन लागत, रोकड़ प्रवाह स्थिति, स्थायी संचालन लागत का स्वर, नियन्त्रण प्रतिफल तथा पूँजी बाजार की स्थिति आदि प्रभावित करते हैं।
3. लाभांश से सम्बन्धित निर्णय-लाभांश से सम्बन्धित निर्णय में यह निश्चित किया जाता है कि अर्जित लाभ (कर का भुगतान न करने के पश्चात्) का कितना लाभ अंशधारियों में लाभ के रूप में वितरित कर दिया जाये तथा लगभग कितना भाग संस्था में अर्जित लाभ को पुनः विनियोजनार्थ रखा जाये ताकि विनियोग की आवश्यकता को पूरा किया जा सके। यद्यपि लाभांश वर्तमान आय का द्योतक है तो अर्जित लाभ का पुनर्विनियोजन संस्था की भविष्य में आय में वृद्धि करने में सहायक होता है। अर्जित आय की सीमा संस्था के वित्तीय निर्णय को प्रभावित करती है। जब संस्था को प्रतिधारित उपार्जन के पुनर्निवेश की उतनी आवश्यकता नहीं होती है जितना कि प्रतिधारित उपार्जन की मात्रा कम्पनी में उपलब्ध है तो लाभांश के वितरण से सम्बन्धित निर्णय करते समय अंशधारियों की सम्पत्ति को उच्चतम सीमा तक बढ़ाने के उद्देश्य को ध्यान में रख कर लेना चाहिए।
लाभांश निर्णय को उपार्जन, उपार्जन का स्थायित्व, लाभांश का स्थायित्व, संवृद्धि सुयोग, रोकड़ प्रवाह स्थिति, पूर्वाधिकारी अंशधारी, करारोपण नीति, शेयर बाजार प्रतिक्रिया, पूँजी बाजार तक पहुँच, कानूनी बाध्यता तथा संविदात्मक प्रतिबन्ध आदि कारक प्रभावित करते
प्रश्न 13.
व्यावसायिक संस्थान में कार्यशील पूँजी के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यावसायिक संस्थान में कार्यशील पूँजी का महत्त्व
पर्याप्त कार्यशील पूँजी के होने से व्यावसायिक संस्था को निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं जो इसके महत्त्व को भी स्पष्ट करते हैं-
1. सफलता का आधार-कार्यशील पूँजी व्यावसायिक सफलता का प्रमुख आधार है। व्यवसाय को चलाने के लिए केवल स्थायी पूँजी ही पर्याप्त नहीं हैं, वरन् कच्चा माल खरीदने, उत्पादन करने, विक्रय व्यवस्था करने, दैनिक व्ययों के लिए तथा उधार माल देने आदि अनेक कार्य कार्यशील पूँजी द्वारा ही किये जाते हैं।
2. कार्यकुशलता में वृद्धि-पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने पर संस्था के प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों पर एक अच्छा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। उन्हें समय पर वेतन सुविधाएँ मिलने से उनमें आत्मविश्वास जगता है और उनके मनोबल में वृद्धि होती है। फलतः उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
3. संकटों का सामना-पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने से कोई भी व्यावसायिक इकाई छोटे-बड़े संकटों, आकस्मिक घटनाओं या व्यापारिक प्रतिकूल परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती है।
4. बैंक ऋण में सुविधा-पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने के कारण संस्था को बैंकों से बिना गारण्टी के ऋण लेने में सहायता मिलती है, क्योंकि चालू सम्पत्तियों का चालू दायित्वों पर आधिक्य स्वयं में एक अच्छी गारण्टी मानी जाती है।
5. पूर्तिकर्ताओं को तत्काल भुगतान-पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने पर संस्था अपने पूर्तिकर्ताओं को तत्काल भुगतान कर सकती है, जिससे उनसे नियमित रूप से कच्चा माल उचित मूल्य तथा सही समय पर प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती।
6. नकद छूट का लाभ प्राप्त-व्यावसायिक संस्था अपने पूर्तिकर्ताओं को माल के मूल्य का नकद भुगतान करके माल क्रय करते समय नकद छूट का लाभ प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार व्यावसायिक संस्था निर्मित माल की लागत कम करके माल के मूल्य में कमी कर सकती है तथा अपने ग्राहकों को माल का मूल्य कम रखकर तथा आकर्षक छूट देकर अपनी बिक्री बढ़ा सकती है।
7. पर्याप्त लाभांश का वितरण-जिन संस्थाओं में कार्यशील पूँजी की कमी होती है वे लाभों का पुनर्विनियोजन करके अपनी कार्यशील पूँजी में वृद्धि करती हैं। किन्तु ऐसा करने पर अधिक लाभ होने की दशा में भी अच्छे लाभांश का वितरण नहीं कर सकती हैं। किन्तु पर्याप्त कार्यशील पूँजी के होने से संस्था आकर्षक लाभांश का वितरण करके अपने अंशों का मूल्य एवं साख बनाये रख सकती है।
8. ऋण क्षमता एवं साख में वृद्धि-संस्था में . पर्याप्त कार्यशील पूँजी का होना वित्तीय सुदृढ़ता का परिचायक होता है। यह संस्था की अच्छी शोधन क्षमता को भी दर्शाता है। फलतः संस्था को वित्त की आवश्यकता पड़ने पर तत्काल ऋण प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। इससे फर्म की ख्याति व साख दोनों ही बढ़ती हैं।
9. अनुकूल अवसरों का लाभ-पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने पर एक संस्था किसी भी व्यावसायिक अवसर का आसानी से फायदा उठा सकती है, जैसे अचानक बड़ा आदेश प्राप्त होने पर कच्चे माल का मूल्य बढ़ने वाला हो ऐसी दशा में संस्था इन अवसरों का लाभ उठा सकती है।
10. स्थायी सम्पत्तियों की उत्पादकता में वृद्धिस्थायी सम्पत्तियों की उत्पादकता कार्यशील पूँजी पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, यदि पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल या श्रमिक आदि उपलब्ध नहीं हों तो मशीनों की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि बिना कार्यशील पूँजी के स्थायी सम्पत्तियाँ ठीक वैसी ही होती हैं जैसे बिना कारतूस के बन्दूक।
प्रश्न 14.
पूँजी बजटिंग निर्णयों को प्रभावित करने वाले कारकों को समझाइए।
उत्तर:
निम्नलिखित कुछ कारक हैं जो पूँजी बजटिंग निर्णय को प्रभावित करते हैं-
(1) परियोजना का रोकड़ प्रवाह-जब एक कंपनी एक भारी धनराशि का निवेश करने का निर्णय लेती है तो वह एक समय में कुछ रोकड़ का प्रवाह अधिक होने की अपेक्षा करती है अर्थात् कुछ रोकड़ अधिक प्राप्त करना चाहती है। ये रोकड़ प्रवाह रोकड़ प्राप्ति तथा रोकड़ भुगतान क्रम उस समय विशेष के लिए होते हैं जो किए हुए निवेश से होते हैं। पूँजी बजटिंग निर्णय लेने से पहले इन रोकड़ प्रवाह की धनराशियों का भली-भाँति विश्लेषण कर लेना चाहिए।
(2) आय की दर-परियोजना सबसे महत्त्वपूर्ण कसौटी उससे होने वाली आय की दर होती है। इन गणनाओं का आधार प्रत्येक प्रस्ताव से होने वाली आय तथा उस पर होने वाली जोखिम का निर्धारण है। मान लीजिए कि 'अ' तथा 'ब' दो प्रस्ताव हैं (जिनमें दोनों में समान प्रकार की जोखिम हैं) आय की दर क्रमशः 10 तथा 12 प्रतिशत हैं, तो सामान्य परिस्थितियों में परियोजना 'ब' का चुनाव किया जाएगा।
(3) निवेश कसौटी अंतर्भावितता-किसी विशेष परियोजना में निवेश का निर्णय करने के लिए अनेक गणनाओं जैसे निवेश की राशि, ब्याज की दर, रोकड़ प्रवाह तथा आय की दर आदि की गणना करनी पड़ती है। निवेश प्रस्तावों के मूल्यांकन की अनेक तकनीकें हैं जिन्हें पूँजी बजटिंग तकनीकों के नाम से पुकारा जाता है। किसी एक विशेष प्रस्ताव का चुनाव करने से पूर्व इन तकनीकों का उपयोग सभी प्रस्तावों के लिए किया जाता है।