RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

Rajasthan Board RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन Important Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1. 
निर्देशन के प्रमुख आवश्यक तत्त्व हैं-
(अ) पर्यवेक्षण 
(ब) अभिप्रेरणा
(स) सम्प्रेषण 
(द) उपर्युक्त सभी 
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी 

प्रश्न 2. 
निर्देशन का प्रमुख सिद्धान्त है-
(अ) आदेश की एकता 
(ब) अधिकतम व्यक्तिगत योगदान 
(स) प्रबन्धकीय सम्प्रेषण
(द) उपर्युक्त सभी 
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी 

प्रश्न 3. 
मास्लो की अभिप्रेरक विचारधारा बतलाती है-
(अ) आवश्यकताओं की सन्तुष्टि अभिप्रेरक का कार्य करती है। 
(ब) आवश्यकताओं की सन्तुष्टि अभिप्रेरक का कार्य नहीं करती है। 
(स) आवश्यकताएँ अभिप्रेरक नहीं हैं।
(द) आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए। 
उत्तर:
(अ) आवश्यकताओं की सन्तुष्टि अभिप्रेरक का कार्य करती है। 

प्रश्न 4. 
निर्देशन की विशेषताएँ हैं-
(अ) निर्देशन क्रिया को प्रारंभ करती है 
(ब) निर्देशन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है 
(स) निर्देशन प्रबंधन के प्रत्येक स्तर पर निष्पादित होता है 
(द) उपर्युक्त सभी 
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 5. 
अभिप्रेरणा है-
(अ) आवश्यकता सन्तुष्टि प्रक्रिया 
(ब) एक सतत प्रक्रिया 
(स) गतिशील एवं जटिल प्रक्रिया
(द) उपर्युक्त सभी 
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी 

प्रश्न 6. 
"नेतृत्व एक क्रिया है व्यक्तियों को प्रभावित करने की जिससे वे स्वेच्छा से सामूहिक उद्देश्यों के लिए प्रतिस्पर्धी हो सकें।" यह परिभाषा है-
(अ) जार्ज आर. टैरी 
(ब) हेरॉल्ड कून्ट्ज 
(स) हैरॉल्ड कून्ट्ज एवं हिंज वैहरिच
(द) गे तथा स्ट्रेक 
उत्तर:
(अ) जार्ज आर. टैरी 

प्रश्न 7. 
नेतृत्व एवं प्रबन्ध हैं-
(अ) एक-दूसरे के पूरक 
(ब) एक-दूसरे से भिन्न 
(स) समानार्थक
(द) एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धी 
उत्तर:
(ब) एक-दूसरे से भिन्न 

प्रश्न 8. 
अजीम प्रेमजी द्वारा प्रोत्साहित/प्रवर्तक कम्पनी है
(अ) रिलायंस 
(ब) माइक्रोसॉफ्ट
(स) विप्रो
(द) इनफोसिस 
उत्तर:
(स) विप्रो

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प्रश्न 9. 
अंगूरीलता सम्प्रेषण तंत्र में सबसे अधिक लोकप्रिय तंत्र है-
(अ) इकहरी श्रृंखला 
(ब) गपशप/अफवाहें
(स) समूह/भीड़-भाड़ 
(द) सम्भाव्यता 
उत्तर:
(स) समूह/भीड़-भाड़

प्रश्न 10. 
सम्प्रेषण की संकेतिक बाधा है-
(अ) संदेश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति 
(ब) तकनीकी विशिष्ट शब्दावली 
(स) अस्पष्ट संकल्पनाएँ 
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
एक वाक्य में समझाइये कि निर्देशन, प्रबन्ध में गतिशीलता किस प्रकार लाता है?
उत्तर:
निर्देशन में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो अधीनस्थों को दक्षतापूर्वक कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करती हैं। फलतः प्रबन्ध में गतिशीलता आती है।

प्रश्न 2. 
"निर्देशन प्रबन्ध का एक कार्यकारी कार्य है।" कैसे? स्पष्ट कीजिये।
अथवा
एक वाक्य में समझाइये कि निर्देशन प्रबन्ध का एक कार्यकारी कार्य क्यों कहलाता है?
उत्तर:
केवल नियोजन, संगठन एवं नियन्त्रण करने मात्र से ही प्रबन्धक कार्य नहीं करवा सकता है। प्रबन्धक निर्देशन के द्वारा ही अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाकर सफलता को सुनिश्चित कर सकता है।

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प्रश्न 3. 
पर्यवेक्षण से क्या आशय है?
उत्तर:
पर्यवेक्षण से तात्पर्य अधीनस्थों द्वारा दिये गये कार्यों का निरीक्षण तथा यह निश्चित करने के लिए कि संसाधनों के अधिकतम प्रयोग एवं कार्य लक्ष्यों को पूरा करने हेतु अधीनस्थों को आवश्यक निर्देश देना है।

प्रश्न 4. 
निर्देशन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
निर्देशन व्यक्तियों को आदेश देने, मार्गदर्शन, परामर्श, अभिप्रेरित तथा कुशल नेतृत्व प्रदान करने की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति करना है।

प्रश्न 5. 
निर्देशन के कोई दो तत्त्व बताइये। 
उत्तर:

  • पर्यवेक्षण 
  • नेतृत्व।

प्रश्न 6. 
एक पर्यवेक्षक किस प्रकार प्रबन्ध एवं कार्योत्पादक कर्मचारियों के मध्य कड़ी के रूप में कार्य करता है?
उत्तर:
पर्यवेक्षक एक तरफ तो प्रबन्धकों के आदेशों-निर्देशों को क्रियान्वित करवाता है, दूसरी तरफ वह कर्मचारियों के प्रतिनिधि के रूप में उनके विचारों, कठिनाइयों तथा समस्याओं को उच्च प्रबन्धक तक पहुँचाता है।

प्रश्न 7. 
निर्देशकों के किन्हीं दो लक्षणों की गणना कीजिए।
उत्तर:

  • निर्देशन संगठन में क्रिया को प्रारम्भ करता है। 
  • निर्देशन प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर निष्पादित होता है। 

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प्रश्न 8. 
एक अच्छे नेता के किन्हीं तीन गुणों को लिखिए।
उत्तर:

  • शारीरिक गुण-उत्तम स्वास्थ्य, स्फूर्ति, सहनशीलता।
  • ज्ञान-एक अच्छे नेता में आवश्यक ज्ञान तथा कौशल अवश्य होने चाहिए। 
  • सत्यनिष्ठा ईमानदारी-एक नेता में उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी होना आवश्यक है।

प्रश्न 9. 
प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण में बाधा के रूप में 'जटिल संगठनात्मक ढाँचे' को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
जब जटिल संगठन संरचना में सूचना विभिन्न स्तरों से गुजरती है तब विभिन्न स्तरों पर सूचना की छंटाई हो सकती है। उर्ध्वगामी सम्प्रेषण विभिन्न स्तरों पर कार्य करने वालों के विरुद्ध भी हो सकते हैं। इसी कारण वे उच्च प्रबन्धक वर्ग तक पहुँच नहीं पाते हैं।

प्रश्न 10. 
किसी संगठन में अभिप्रेरण श्रमिकों की कार्यकुशलता को किस प्रकार सुधारता है? कोई तीन बिन्दु लिखिए।
उत्तर:

  • अभिप्रेरण कर्मचारियों में अधिक से अधिक कार्य करने की इच्छा उत्पन्न करता है।
  • यह कर्मचारियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है।
  • यह कर्मचारियों को कार्य सन्तुष्टि प्रदान करता है।

प्रश्न 11. 
अभिप्रेरण के अर्थ की संक्षिप्त व्याख्या करें।
उत्तर:
अभिप्रेरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को, वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है।

प्रश्न 12. 
पर्यवेक्षक के दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • अपने अधीन कार्य करने वाले कार्मिकों की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का समाधान करना।
  • अपने श्रमिकों के मध्य उच्च मनोवत्ति का विकास करता है।

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प्रश्न 13. 
मानवीय अभिप्रेरण को संचालित करने वाली आवश्यकताओं के किन्हीं तीन प्रकारों को बतलाइये।
अथवा 
मास्लो ने कितने प्रकार की आवश्यकताएँ बतलायी हैं ? केवल नाम लिखिए।
उत्तर:

  • आधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँ 
  • सुरक्षा आवश्यकताएँ 
  • सम्बन्ध/सामाजिक आवश्यकताएँ 
  • प्रतिष्ठा/मान-सम्मान आवश्यकताएँ 
  • आत्म-सन्तुष्टि आवश्यकताएँ।

प्रश्न 14. 
निर्देशन के प्रमुख तत्त्व बतलाइये।
उत्तर:

  • पर्यवेक्षण, 
  • अभिप्रेरणा, 
  • नेतृत्व, 
  • सम्प्रेषण।

प्रश्न 15. 
निर्देशन के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले कोई दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:

  • निर्देशन कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है।
  • निर्देशन संगठन में आवश्यक परिवर्तनों को प्रारम्भ करने में मदद करता है।

प्रश्न 16. 
निर्देशन के आदेश के एकता सिद्धान्त से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि कर्मचारी को केवल एक ही उच्चाधिकारी से आदेश मिलने चाहिए।

प्रश्न 17. 
पर्यवेक्षण के महत्त्व को. दो बिन्दुओं में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • पर्यवेक्षक श्रमिकों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक के रूप में कार्य करता है।
  • पर्यवेक्षक कार्य स्थल/पद कार्य पर ही कर्मचारियों तथा श्रमिकों को प्रशिक्षित करता है।

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प्रश्न 18. 
अभिप्रेरणा के सन्दर्भ में उद्देश्य से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
उद्देश्य एक आन्तरिक स्थिति है जो व्यवहार को अर्जित, सक्रिय बनाती है तथा लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिशा निर्देशित करती है।

प्रश्न 19. 
अभिप्रेरक क्या होते हैं ?
उत्तर:
अभिप्रेरक वह तकनीक है जिसका प्रयोग संगठन में लोगों को प्रेरित करने के लिये किया जाता है।

प्रश्न 20. 
अभिप्रेरणा की परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
"अभिप्रेरणा से तात्पर्य उस तरीके से है जिसमें आवेग, प्रेरणा, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, प्रयास अथवा आवश्यकताएँ मनुष्य के व्यवहार को निर्देशित, नियंत्रित तथा उसे स्पष्ट करती हैं।" -मैक्फारलैण्ड

प्रश्न 21. 
अभिप्रेरणा की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • अभिप्रेरणा एक आन्तरिक अनुभव है, यह मनुष्य के व्यवहार को प्रभावित करती है। 
  • अभिप्रेरणा एक लक्ष्य आधारित व्यवहार को जन्म देती है।

प्रश्न 22. 
नकारात्मक अभिप्रेरणा के कोई चार उदाहरण लिखिए।
उत्तर:

  • सजा देना 
  • वेतन वृद्धि रोकना 
  • दण्ड देना 
  • धमकी देना।

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प्रश्न 23. 
अभिप्रेरणा के कोई दो लाभ लिखिए।
उत्तर:

  • अभिप्रेरणा कर्मचारियों के निष्पादन स्तर को सुधारती है। 
  • अभिप्रेरणा संगठन में अनुपस्थिति को कम करने में सहायक होती है।

प्रश्न 24. 
मास्लो द्वारा बतलायी गई सुरक्षात्मक आवश्यकताओं के कोई चार उदाहरण लिखिए।
उत्तर:

  • पद में सुरक्षा, 
  • आय स्रोत में स्थिरीकरण, 
  • सेवानिवृत्ति योजना, 
  • पेंशन योजना।

प्रश्न 25. 
अभिप्रेरण किस प्रकार उच्च निष्पादन में योगदान देता है?
उत्तर:
अभिप्रेरण कर्मचारियों को स्वैच्छिक ढंग से कार्य करने के लिए अभिप्रेरित कर तथा उनकी कार्य करने की क्षमता को कार्य करने की इच्छा में परिवर्तित कर उच्च निष्पादन में योगदान देता है।

प्रश्न 26. 
अभिप्रेरण किस प्रकार आवर्तन दर को घटाने में सहायक होता है?
उत्तर:
अभिप्रेरण से कर्मचारियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है। इससे वह लम्बे समय तक संस्था में रुके रहकर कार्य करने को तत्पर होते हैं।

प्रश्न 27. 
अभिप्रेरण किस प्रकार मनोबल का निर्माण करता है?
उत्तर:
अभिप्रेरण द्वारा जब मनुष्य की सभी आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तो उसमें संस्था के प्रति अपनत्व का भाव उत्पन्न होता है, वह मन लगाकर रुचि के साथ कार्य करता है, इससे उसके मनोबल में वृद्धि होती है।

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प्रश्न 28. 
अभिप्रेरण की मास्लो की विचारधारा की प्रकृति क्या है?
उत्तर:
अभिप्रेरण की मास्लो की विचारधारा वर्णनात्मक प्रकृति की है।

प्रश्न 29. 
अभिप्रेरण गतिशील एवं जटिल प्रक्रिया क्यों है?
उत्तर:
क्योंकि इसका सम्बन्ध मानवीय आवश्यकताओं एवं मानवीय व्यवहार से है।

प्रश्न 30. 
कार्य संतुष्टि एवं अभिप्रेरण में अन्तर बतलाइये।
उत्तर:
कार्य संतुष्टि एक व्यक्ति का अपने कार्य के प्रति सकारात्मक भावनात्मक दृष्टिकोण है, जबकि अभिप्रेरण व्यक्ति की कृत्य सन्तुष्टि का परिणाम है।

प्रश्न 31. 
संस्था में कर्मचारियों को अभिप्रेरण की समुचित व्यवस्था नहीं होने के कोई दो परिणाम बतलाइये।
उत्तर:

  • कर्मचारी आवर्तन दर में वृद्धि होना, 
  • निम्न मनोबल एवं निम्न उत्पादकता का होना।

प्रश्न 32. 
मास्लो की आवश्यकता क्रमबद्धता विचारधारा की दो उच्च स्तरीय आवश्यकताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • मान-सम्मान (प्रतिष्ठा) आवश्यकताएँ, 
  • आत्म-संतुष्टि की आवश्यकताएँ।

प्रश्न 33. 
मास्लो की विचारधारा की दो मान्यताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • मनुष्य की आवश्यकताएँ कभी समाप्त नहीं होती हैं। 
  • आवश्यकताएँ सदैव एक निश्चित क्रम में उत्पन्न होती हैं।

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प्रश्न 34. 
मास्लो के अनुसार निम्नस्तरीय आवश्यकताएँ कौनसी हैं ?
उत्तर:

  • शारीरिक आवश्यकताएँ 
  • सुरक्षात्मक आवश्यकताएँ।

प्रश्न 35. 
प्रमुख वित्तीय प्रोत्साहनों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
वेतन तथा भत्ता, उत्पादकता सम्बन्धित पारिश्रमिक, बोनस/अधिलाभांश, लाभ में भागीदारी, सह-साझेदारी, सेवानिवृत्ति लाभ तथा अनुलाभ।

प्रश्न 36. 
प्रमुख गैर-वित्तीय प्रोत्साहनों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
पद प्रतिष्ठा/ओहदा, सांगठनिक वातावरण, जीवनवृत्ति विकास के सुअवसर, पद संवर्द्धन, कर्मचारियों की पहचान/मान-सम्मान, पद-सुरक्षा/स्थायित्व, कर्मचारियों की भागीदारी, कर्मचारियों का सशक्तिकरण।

प्रश्न 37. 
कर्मचारियों की भागीदारी से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
कर्मचारियों से सम्बन्धित निर्णय लेने में कर्मचारियों को भागीदारी प्रदान करना कर्मचारियों की भागीदारी कहलाती है।

प्रश्न 38. 
नेतृत्व की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व व्यक्तियों को प्रभावित करने की कला अथवा प्रक्रिया है जिससे वे अपनी इच्छा तथा उत्साह से सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धित हो सकें।" (हैराल्ड कून्ट्ज एण्ड हिंज़ वैहरिच) 

प्रश्न 39. 
नेतृत्व की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • नेतृत्व किसी व्यक्ति की दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता को दर्शाता है।
  • नेतृत्व दूसरों के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। 

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प्रश्न 40. 
नेतृत्व किस प्रकार मानव संसाधनों का विकास एवं उपयोग करता है ? समझाइये।
उत्तर:
नेतृत्व मानव संसाधनों को अभिप्रेरणा प्रदान कर, उनमें मनोबल का निर्माण कर आत्म-विश्वास एवं उत्साह का संचार कर विकास करता है और उनका अधिकतम उपयोग करता है।

प्रश्न 41. 
"सफल नेतृत्व के लिए निर्णय क्षमता अपरिहार्य है।" समझाइये।
उत्तर:
एक सफल नेता वही माना जाता है जिसमें सही समय पर परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय लेने की क्षमता होती है। वह निर्णयों को टालने में विश्वास नहीं रखता है।

प्रश्न 42. 
नेतृत्व की कोई तीन शैलियाँ बतलाइये।
उत्तर:

  • एकतंत्रीय 
  • लोकतंत्रीय 
  • अबंधता (लेसिज फेयर)।

प्रश्न 43. 
कार्य के आधार पर नेतृत्व एवं प्रबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व का कार्य सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में लोगों का स्वैच्छिक सहयोग प्राप्त करना है, जबकि प्रबन्ध का कार्य संस्था की क्रियाओं का नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण करना है।

प्रश्न 44. 
नेतृत्व के कुछ प्रमुख गुण बतलाइये।
उत्तर:
शारीरिक विशेषताएँ, ज्ञान, सत्य निष्ठा/ ईमानदारी, पहल, सम्प्रेषण कौशल, अभिप्रेरण कौशल, आत्म-विश्वास, निर्णय लेने की क्षमता, सामाजिक कौशल।

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प्रश्न 45. 
सम्प्रेषण क्या है?
उत्तर:
सम्प्रेषण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच (समान) पारस्परिक समझ बनाने के लिए, सूचनाओं के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया है।

प्रश्न 46. 
एनकोडिंग से आप क्या समझते हैं ? 
उत्तर:
यह वह प्रक्रिया है जो सन्देश को जिसे भेजना है उसे सम्प्रेषण के संकेतों में परिवर्तित कर देती है जैसे-शब्द, तस्वीरें, ग्राफ एवं आरेख चित्र, क्रिया अथवा व्यवहार इत्यादि।

प्रश्न 47. 
डिकोडिंग से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
डिकोडिंग प्रेषक द्वारा भेजे गये एनकोडिड सन्देश को समझने के लिए उसे परिवर्तित करने की प्रक्रिया है।

प्रश्न 48. 
प्रतिपुष्टि से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
प्रतिपुष्टि में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो सन्देश प्राप्तकर्ता करता है। यह संकेत देने के लिए कि उसे सन्देश मिल गया है तथा उसने उस सन्देश को उसी रूप में समझ लिया है।

प्रश्न 49. 
प्रबन्ध में सम्प्रेषण के महत्त्व को दो बिन्दुओं में स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:

  • संस्था के निर्विघ्न तथा बिना किसी अवरोध के चलने में सम्प्रेषण सहायता करता है।
  • प्रभावी सम्प्रेषण अधीनस्थों व कर्मचारियों को प्रभावित करने में सहायक होता है।

प्रश्न 50. 
औपचारिक सम्प्रेषण से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
औपचारिक सम्प्रेषण संस्था की संरचना में आधिकारिक माध्यम द्वारा प्रवाहित होता है।

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प्रश्न 51. 
एक औपचारिक संगठन में कौन-कौन से सम्प्रेषण तंत्र कार्य कर सकते हैं ? नाम लिखिए।
उत्तर:

  • श्रृंखला 
  • चक्र 
  • गोला 
  • स्वतंत्र/मुक्त प्रवाह 
  • विलोम।

प्रश्न 52. 
अनौपचारिक सम्प्रेषण किसे कहते हैं ?
उत्तर:
व्यक्तियों एवं समूहों के मध्य होने वाले सम्प्रेषण जो आधिकारिक/औपचारिक तौर पर नहीं होते हैं, उन्हें अनौपचारिक सम्प्रेषण कहा जाता है।

प्रश्न 53. 
संगठन में प्रभावी सम्प्रेषण की प्रमुख बाधाओं को कितने वर्गों में विभक्त किया गया है? नाम लिखिए।
उत्तर:

  • संकेतिक बाधाएँ
  • मनोवैज्ञानिक बाधाएँ
  • सांगठनिक बाधाएँ
  • व्यक्तिगत बाधाएँ।

प्रश्न 54. 
सम्प्रेषण की व्यक्तिगत बाधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • सत्ता के सामने चुनौती का भय 
  • अधिकारी का अपने अधीनस्थों में विश्वास का अभाव 
  • सम्प्रेषण में अनिच्छा 
  • उपयुक्त प्रोत्साहनों का अभाव।

प्रश्न 55. 
सम्प्रेषण की किन्हीं चार सांगठनिक बाधाओं के नाम बतलाइये।
उत्तर:

  • सांगठनिक नीति 
  • नियम तथा अधिनियम 
  • पदवी/पद 
  • संगठन की संरचना में जटिलता। 

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लघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
अंगूरीलता सम्प्रेषण के किन्हीं दो तंत्रों को चित्र की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
(1) इकहरी श्रृंखला तन्त्र-अंगूरीलता सम्प्रेषण के इस संचार तन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से एक क्रम में सम्प्रेषण करता है। 
चित्र द्वारा स्पष्टीकरण:
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 1
इकहरी श्रृंखला (Single Strand)

2. गपशप/अफवाह तन्त्र-अंगूरीलता सम्प्रेषण के इस संचार तन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी चयनित आधार के सभी से बातचीत करता है। 
चित्र द्वारा स्पष्टीकरण:
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 2

प्रश्न 2. 
औपचारिक सम्प्रेषण के निम्न तंत्रों को चार्ट द्वारा प्रदर्शित कीजिए-
(i) चक्र (Wheel) 
(ii) विलोम V (Inverted V) 
उत्तर:
(i) चक्र (Wheel)
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 3

(ii) विलोम V (Inverted V)
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 4

प्रश्न 3. 
औपचारिक सम्प्रेषण के निम्न तंत्रों को चार्ट द्वारा प्रदर्शित कीजिए-
(i) श्रृंखला (Chain) 
(ii) स्वतंत्र/मुक्त प्रवाह (Free Flow)।
उत्तर:
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 5

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 4. 
सम्प्रेषण प्रक्रिया का आरेख (चित्र) बनाइये।
उत्तर:
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 6

प्रश्न 5. 
निर्देशन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निर्देशन का अर्थ-शाब्दिक अर्थ में निर्देशन का तात्पर्य आदेश-निर्देश देना है, किन्तु प्रबन्धकीय कार्य के रूप में यह एक व्यापक कार्य है, जो निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत पूरा किया जाता है। वस्तुतः निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसमें प्रबन्धक द्वारा न केवल आदेश एवं निर्देश ही प्रसारित किये जाते हैं, बल्कि वह कर्मचारियों से सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्हें उचित नेतृत्व प्रदान करता है तथा कार्य करने के लिए अभिप्रेरित भी करता है।

इस प्रकार निर्देशन वह प्रबन्धकीय कार्य है, जिसके अन्तर्गत प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को आदेश एवं निर्देश देता है, उनके कार्यों का मार्गदर्शन करता है, उन्हें नेतृत्व प्रदान करता है तथा कार्य करने हेतु अभिप्रेरित करता है ताकि वे (कर्मचारी) संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में दक्षतापूर्वक एवं प्रभावकारी रूप में योगदान कर सकें।

प्रश्न 6. 
निर्देशन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
निर्देशन की मुख्य विशेषताएँ
1. निर्देशन क्रिया को प्रारम्भ करता है-निर्देशन एक मुख्य प्रबन्धकीय कार्य है। एक प्रबन्धक को इसका निष्पादन एवं अन्य क्रियाएँ जैसे-नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण तथा नियन्त्रण इत्यादि के साथ ही संगठन में अपने उत्तरदायित्त्व का निर्वाह करते हुए करना पड़ता है। निर्देशन संगठन में क्रिया को प्रारंभ करता है।

2. प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर निष्पादित-प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर अर्थात् उच्च अधिकारी से लेकर पर्यवेक्षक तक निर्देशन क्रिया का निष्पादन किया जाता है। 

3. निर्देशन एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है-निर्देशन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है; क्योंकि बिना निर्देशन के सांगठनिक क्रियाएँ आगे नहीं चल सकती हैं।

4. निर्देशन ऊपर से नीचे की ओर प्रभावितनिर्देशन पहले उच्च स्तर पर प्रारंभ होता है तथा फिर वह सांगठनिक अनुक्रम के द्वारा नीचे की दिशा में प्रवाहित होता है।

प्रश्न 7. 
निर्देशन के किन्हीं दो सिद्धान्तों को उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
निर्देशन के सिद्धान्त
1. अधिकतम व्यक्तिगत योगदान का सिद्धान्तयह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि निर्देशन की तकनीकें सभी व्यक्तियों को संस्था में सहायता दें, ताकि वे अपनी सम्भावित क्षमताओं का अधिकतम योगदान सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति में दे सकें। निर्देशन संस्था के कुशल निष्पादन के लिए कर्मचारियों की अप्रयुक्त ऊर्जा को उभारकर प्रयोग में ला सकता है।

2. सांगठनिक उद्देश्यों में तालमेल-सामान्यतया कर्मचारियों के व्यक्तिगत हितों तथा सांगठनिक उद्देश्यों में आपस में टकराव की स्थिति रहती है। उदाहरण के लिए, एक कर्मचारी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक आकर्षक वेतन तथा वित्तीय लाभों की आकांक्षा रखता है। संस्था कर्मचारियों से यह उम्मीद करती है कि वे अपनी उत्पादकता बढ़ाएँ ताकि वांछित लाभ मिल सके। परन्तु अच्छा निर्देशन इन दोनों में तालमेल बिठाता है तथा कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाता है कि कार्य-कुशलता तथा पारिश्रमिक दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

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प्रश्न 8. 
पर्यवेक्षण की प्रमुख विशेषताओं को बतलाइये।
उत्तर:
पर्यवेक्षण की प्रमुख विशेषताएँ 

  • पर्यवेक्षण प्रबन्ध के तीन स्तरों पर की जाने वाली एक सार्वभौमिक क्रिया है।
  • पर्यवेक्षण प्रबन्ध के निर्देशन कार्य का एक प्रमुख तत्त्व माना जाता है। 
  • पर्यवेक्षण एक निरन्तर जारी रहने वाली क्रिया है। पर्यवेक्षण की आवश्यकता संस्था को सदैव रहती है। 
  • पर्यवेक्षण के अन्तर्गत अधिकारी तथा अधीनस्थ के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता है; क्योंकि पर्यवेक्षण अप्रत्यक्ष रूप से नहीं हो सकता है। 
  • पर्यवेक्षण यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि संगठन में कार्य सुव्यवस्थित ढंग से चलता रहे। 
  • पर्यवेक्षण का उद्देश्य मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का अधिकतम व अनुकूलतम उपयोग करना है। 
  • पर्यवेक्षण का महत्त्व निम्न स्तरीय प्रबन्धकों के लिए अधिक होता है; क्योंकि अधिकारी उन्हीं के कार्यों पर अधिक पर्यवेक्षण करते हैं।

प्रश्न 9. 
अभिप्रेरणा के प्रमुख तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
अथवा 
अभिप्रेरणा के तत्त्वों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
अभिप्रेरणा के प्रमुख तत्त्व
1. उद्देश्य-उद्देश्य एक आन्तरिक स्थिति है जो व्यवहार को ऊर्जावान, सक्रिय बनाती है तथा लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिशा निर्देशित करती है। उद्देश्य मनुष्य की आवश्यकताओं से उत्पन्न होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य में एक बेचैनी पैदा करती है जो उसे उस बेचैनी को कम करने के लिए कुछ क्रिया करने के लिए तत्पर रहती है।

2. अभिप्रेरणा-अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है। अभिप्रेरणा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की संतुष्टि पर निर्भर करती है।

3. अभिप्रेरक-अभिप्रेरक वह तकनीक है जिसका प्रयोग संगठन में लोगों को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। प्रबन्धक विविध प्रेरकों का प्रयोग करते हैं; जैसे-वेतन, बोनस, पदोन्नति, पहचान, प्रशंसा, उत्तरदायित्व इत्यादि का संगठन में लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए किया जाता है ताकि वे अपना सर्वोत्तम योगदान दे सकें।

प्रश्न 10. 
अभिप्रेरणा के प्रमुख उद्देश्य बतलाइये। 
उत्तर:
अभिप्रेरणा के प्रमुख उद्देश्य
अभिप्रेरणा देने का मूल उद्देश्य व्यक्तियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करना है। अभिप्रेरणा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • कर्मचारियों को अधिक से अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करना। 
  • कर्मचारियों का अधिकतम सहयोग प्राप्त करना। 
  • कर्मचारियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करना। 
  • व्यवसाय में अच्छे मानवीय सम्बन्धों का निर्माण करना तथा उन्हें सुदृढ़ बनाना। 
  • कर्मचारियों के मनोबल को सुदृढ़ बनाना।
  • कर्मचारियों की कार्यक्षमता में सुधार करना तथा बनाये रखना। 
  • कर्मचारियों को कार्य-संतुष्टि प्रदान करना। 
  • मानवीय साधनों का अधिकतम सदुपयोग करना। 
  • संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करना।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 11. 
सकारात्मक तथा नकारात्मक अभिप्रेरणा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सकारात्मक अभिप्रेरणा-सकारात्मक अभिप्रेरणा वह अभिप्रेरणा है जो पुरस्कार विचारधारा पर आधारित है। सकारात्मक अभिप्रेरणा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लाभ या पुरस्कार की सम्भावना से दूसरों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए अभिप्रेरित किया जाता है। सकारात्मक अभिप्रेरणा सकारात्मक पारिश्रमिक/प्रतिफल प्रदान करती है; जैसे-वेतन में वृद्धि, पदोन्नति, प्रशंसा करना, सूचनाएँ देना, व्यक्ति में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेना, गौरव प्रदान करना, अधिकारों का प्रत्यायोजन करना आदि।

नकारात्मक अभिप्रेरणा-नकारात्मक अभिप्रेरणा में लोगों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करने के लिए भय एवं दण्ड का सहारा लेता पड़ता है। जो व्यक्ति उचित कार्य क्षमता से कार्य नहीं करते उन्हें सजा, वेतन वृद्धि रोकना, पदावनत करना, धमकी देना तथा जबरी छुट्टी आदि दी जा सकती है।

प्रश्न 12. 
अब्राहम मास्लो के जीवन परिचय को संक्षेप में बतलाइये।
उत्तर:
अब्राहम मास्लो का जीवन परिचय
अब्राहम एच. मास्लो का जन्म ब्रुकलीन न्यूयार्क में 1908 में हुआ था। उन्होंने विस्कोसिन के विश्वविद्यालय में प्राथमिक व्यवहार का अध्ययन किया, जहाँ से उन्होंने मनोविज्ञान में 1934 में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। अपने जीवन- वृत्ति की शुरुआत में, मास्लो का रुझान मानव अभिप्रेरणा तथा व्यक्तित्व के अध्ययन की तरफ हुआ। उनकी 'आवश्यकताओं के क्रमबद्धता अभिप्रेरणा का सिद्धान्त' जो व्यक्ति को आत्म-संतुष्टि के स्तर तक पहुँचाती है, वह मानवीय मनोविज्ञान के निर्माण में एक सशक्त उत्प्रेरक के रूप में मानी गई। मास्लो ने बड़ी सफलतापूर्वक अपनी आवश्यकताओं, आत्म-संतुष्ट व्यक्तियों तथा उच्च अनुभवों के सिद्धान्तों में अभिप्रेरणा तथा व्यक्तित्व की दूरी को समाप्त किया।

समकालीन मनोवैज्ञानिकों में मास्लो को एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में समझा गया है। 14 साल तक उन्होंने ब्रुकलीन कॉलेज में अध्यापन कार्य किया, फिर वे ब्रोडिस विश्वविद्यालय में वहाँ के सभापति बनकर मनोविज्ञान विभाग में चले गये। 1968 में उन्हें अमरीकन मनोविज्ञान संस्था में अध्यक्ष के रूप में चुन लिया गया। 1969 में वे मेनलो पार्क के लोगलिन संस्था में कैलिफोर्निया चले गये। सन् 1970 में उनका देहान्त हो गया।

प्रश्न 13. 
वित्तीय अभिप्रेरणाओं तथा गैर वित्तीय अभिप्रेरणाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
वित्तीय एवं अवित्तीय
अभिप्रेरणाओं में अन्तर 
1. माप-वित्तीय अभिप्रेरणाओं को मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है, जबकि अवित्तीय अभिप्रेरणाओं को मुद्रा के रूप में नहीं मापा जा सकता है।

2. उपयुक्तता-वित्तीय अभिप्रेरणाएँ श्रमिकों के लिए उपयुक्त रहती हैं, जबकि अवित्तीय अभिप्रेरणाएँ प्रबन्धकों के लिए अधिक उपयुक्त रहती हैं। 

3. समय-वित्तीय अभिप्रेरणा से व्यक्ति जल्दी ही अभिप्रेरित होते हैं, जबकि अवित्तीय अभिप्रेरणा में समय अधिक लगता है।

4. उपयोगिता-वित्तीय अभिप्रेरणाएँ उस समय उपयोगी होती हैं जब सन्देश गोपनीय रखना है, बड़े जनसमूह को सन्देश देना है व प्राप्तकर्ता अशिक्षित है; जबकि अवित्तीय अभिप्रेरणाएँ उस समय उपयोगी होती हैं जब सन्देश के प्राप्तकर्ता दूर-दूर स्थानों पर हों, सन्देश विस्तृत हों एवं चित्रों का प्रयोग जरूरी हो।

प्रश्न 14. 
अभिप्रेरणा की मास्लो विचारधारा की किन्हीं तीन मानवीय आवश्यकताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अभिप्रेरण की मास्लो विचारधारा की तीन मानवीय आवश्यकताएँ
1. आधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँ-ये आवश्यकताएँ क्रम में सबसे नीचे तथा अधिक आधारभूत हैं तथा मनुष्य की प्रथमतः आवश्यकताएँ हैं। भूख, प्यास, छत, नींद तथा काम (सैक्स) इत्यादि कुछ इस प्रकार की आवश्यकताओं के उदाहरण हैं। सांगठनिक संदर्भ में आधारिक वेतन इन सभी आवश्यकताओं को संतुष्ट करता है।

2. सुरक्षा आवश्यकताएँ-ये आवश्यकताएँ सुरक्षा तथा किसी मनोवेगों की क्षति से बचाव प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए पद की सुरक्षा, आय स्रोत में स्थिरीकरण/ नियमितता, सेवानिवृत्ति योजना तथा पेंशन आदि।।

3. संस्था से सम्बन्ध/सामाजिक आवश्यकताएँये आवश्यकताएँ स्नेह, संस्था से सम्बन्ध, स्वीकृति अथवा मित्रता जैसे भावों से सम्बन्धित हैं। मनुष्य में सामाजिक समूहों में उठने, बैठने, दूसरों से मित्रता करने, दूसरों में अपनत्व का भाव ढूंढ़ने, आपस में स्नेह, प्यार एवं समर्थन, लेन-देन की इच्छा उत्पन्न होती है। मास्लो ने इन्हें सामाजिक आवश्यकताएँ माना है।

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प्रश्न 15. 
किसी भी संगठन के कर्मचारियों को पर्याप्त रूप से अभिप्रेरित करने के लिए एक सुदृढ़ अभिप्रेरणा प्रणाली की आवश्यकता होती है, आप इसमें जिन तत्त्वों का समावेश करना चाहेंगे, उन्हें स्पष्ट कीजिये। (कोई पांच) 
उत्तर:
एक सुदृढ़ अभिप्रेरणा
प्रणाली के प्रमुख तत्त्व

  • उददेश्यपरक-एक सुदृढ़ अभिप्रेरणा प्रणाली उद्देश्य पर आधारित होनी चाहिए। ये उद्देश्य प्रारम्भ से ही स्पष्ट किये जाने आवश्यक हैं।
  • उत्पादक-सुदृढ़ अभिप्रेरणा प्रणाली इस प्रकार विकसित होनी चाहिए कि वह कर्मचारियों को पर्याप्त रूप से अभिप्रेरित कर उनकी उत्पादकता एवं कुशलता में वृद्धि कर सके।
  • पर्याप्तता-एक अच्छी अभिप्रेरण प्रणाली कर्मचारियों को पर्याप्त स्तर तक अभिप्रेरित करने वाली होनी चाहिए। अपर्याप्त अभिप्रेरित कर्मचारी अभिप्रेरण विहीन कर्मचारियों से भी अधिक हानिकारक सिद्ध होते हैं।
  • व्यापकता-एक प्रभावी अभिप्रेरण प्रणाली में व्यापकता का गुण भी पाया जाना चाहिए।
  • सकारात्मक-जहाँ तक सम्भव हो अभिप्रेरण प्रणाली सकारात्मक होनी चाहिए।

प्रश्न 16. 
'अभिप्रेरणा' को परिभाषित कीजिए। 
उत्तर:
अभिप्रेरणा का अर्थ-अभिप्रेरणा से तात्पर्य किसी भी कार्य या क्रिया को प्रेरित अथवा प्रभावित करने से है। व्यवसाय के सन्दर्भ में, अभिप्रेरणा का अर्थ उस प्रक्रिया से है जो अधीनस्थों को निर्धारित संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक वांछित रूप से कार्य करने के लिए तैयार करती है। वस्तुतः अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को, वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है।

मैक्फारलैण्ड के अनुसार, "अभिप्रेरणा से तात्पर्य उस तरीके से है जिसमें आवेग, प्रेरणा, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, प्रयास अथवा आवश्यकताएँ मनुष्य के व्यवहार को निर्देशित, नियन्त्रित तथा उसे स्पष्ट करती हैं।"

ड्यूबिन के अनुसार, "अभिप्रेरणा एक जटिल बल है जो कार्य प्रारम्भ करने तथा संगठन में व्यक्तियों को कार्यरत रखने का कार्य करती है। अभिप्रेरणा वह है जो व्यक्तियों को कार्य प्रारम्भ करने के लिए तैयार करती है तथा निरन्तर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। जो कार्य पहले से ही प्रारम्भ हो चुका है।"

फ्रेड लुथांस के अनुसार, "अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जो एक शारीरिक अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकता अथवा कमी के साथ प्रारम्भ होती है। जो किसी व्यवहार अथवा प्रेरणा को उत्पन्न करती है जिसका उद्देश्य किसी लक्ष्य अथवा प्रोत्साहन की पूर्ति करना है।"

प्रश्न 17. 
कर्मचारियों को अभिप्रेरित करते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए? 
उत्तर:
कर्मचारियों को अभिप्रेरित करते
समय ध्यान में रखने योग्य बातें

  • कर्मचारियों में सुरक्षा की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।
  • कर्मचारियों को उनकी उपलब्धियों से अवगत करवाना चाहिए। 
  • कर्मचारियों के कार्यों की प्रशंसा करनी चाहिए तथा उन्हें मान्यता दी जानी चाहिए। 
  • कर्मचारियों में संस्था के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न करना चाहिए। 
  • कर्मचारियों को उन्नति एवं विकास का अवसर देना चाहिए। 
  • कर्मचारियों को कुशल नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। 
  • कर्मचारियों के साथ मानवीय व्यवहार करना चाहिए। 
  • कर्मचारियों के विचारों का सम्मान करना चाहिए। 
  • कर्मचारियों के सुझावों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। 
  • कर्मचारियों को संस्था की नीति-निर्धारण में व महत्त्वपूर्ण निर्णयों में पर्याप्त सहभागिता प्रदान की जानी चाहिए। 
  • संगठन में समूह भावना का विकास किया जाना चाहिए। 
  • कर्मचारी के व्यक्तिगत अस्तित्व को स्वीकार किया जाना चाहिए। 

प्रश्न 18. 
अनौपचारिक सम्प्रेषण क्या है? 
उत्तर:
अनौपचारिक सम्प्रेषण से आशय-वह सम्प्रेषण जो व्यक्तियों एवं समहों के मध्य आधिकारिक या औपचारिक रूप से नहीं होता है; अनौपचारिक सम्प्रेषण कहलाता है। अनौपचारिक सम्प्रेषण के अन्तर्गत विचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान संगठन की पद-सोपान श्रृंखला के अनुसार नहीं होता है। अनौपचारिक सम्प्रेषण को ही अंगूरीलता सम्प्रेषण कहा जाता है। क्योंकि ये सूचनाएँ जो अंगूरीलता द्वारा संगठन में सभी तरफ बिना किसी आधिकारिक स्तर के आधार पर होती हैं। इस प्रकार के सम्प्रेषण में कर्मचारियों का आपस में विचारों का आदान-प्रदान जो औपचारिक माध्यमों द्वारा सम्भव नहीं है, वह इस माध्यम द्वारा पूरी होती है। संगठन की कैंटीन में जब कर्मचारी आपस में बातें करते हुए अपने अधिकारियों के बारे में चर्चा करते हैं, अफवाह उड़ाते हैं ये सब उदाहरण अनौपचारिक सम्प्रेषण के कहे जा सकते हैं। अनौपचारिक सम्प्रेषण संस्था में शीघ्रातिशीघ्र फैलता है, कभी-कभी तो इनका स्वरूप ही बदल जाता है जो संस्था के लिए घातक सिद्ध होता है।

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प्रश्न 19. 
नेतृत्व का अर्थ बतलाइये।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ-नेतृत्व दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने की एक ऐसी शक्ति है जिससे कि उन्हें सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में स्वेच्छा से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सके।

वस्तुतः नेतृत्व एक व्यावहारिक गुण या व्यवहार है जिसके द्वारा एक नेता दूसरे व्यक्तियों को स्वेच्छा से अपनी संस्था के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कार्य करने के लिए मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देता है। हैरोल्ड कून्ट्ज एवं हिंज वैहरिच के अनुसार, "नेतृत्व व्यक्तियों को प्रभावित करने की कला अथवा प्रक्रिया है जिससे वे अपनी इच्छा तथा उत्साह से सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्द्धित हो सकें।"

इस प्रकार नेतृत्व सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में स्वैच्छिक एवं उत्साहपूर्वक कार्य करने हेतु व्यक्तियों के व्यवहार, मनोवृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रभावित करने की प्रक्रिया या कला है।

प्रश्न 20. 
नेतृत्व की किन्हीं पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व की विशेषताएँ

  • दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता-नेतृत्व किसी व्यक्ति की दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता को दर्शाता है।
  • व्यवहार में परिवर्तन-नेतृत्व दूसरों के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।
  • अनुयायी होना-नेतृत्व की कल्पना बिना उसके अनुयायियों के नहीं की जा सकती है। अनुयायी ही नेतृत्व को पूर्णता प्रदान करते हैं।
  • अभिप्रेरित करने की क्रिया-नेतृत्व अपने अनुयायियों को हांकता नहीं है, वह उनसे जोरजबरदस्ती कार्य नहीं लेता वरन् उन्हें स्वेच्छापूर्वक कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है।
  • सतत प्रक्रिया-नेतृत्व एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। एक नेता अपने समूह के सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करने हेतु निरन्तर प्रयास करता रहता है। वह इस प्रक्रिया को अपने अनुयायियों के सम्पूर्ण समूह के साथ द्वि-मार्गीय सन्देश वाहन का स्वतंत्र प्रवाह बनाये रखकर संचालित करता है।

प्रश्न 21. 
"मार्गदर्शन देना एवं अभिप्रेरण करना नेतृत्व का एक प्रमुख कार्य है।" इस कथन को समझाइये।
उत्तर:
मार्गदर्शन देना एवं अभिप्रेरण करना नेतृत्व का एक प्रमुख कार्य-एक संस्था में नेतृत्व अपने अधीनस्थों एवं अनुयायियों को संस्थागत लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में स्वैच्छिक सहयोग देने के लिए न केवल अभिप्रेरित करने का कार्य करता है वरन् उनका मार्गदर्शन भी करता है। कुशल नेतृत्व संगठन में कार्य करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकताओं का पता लगाता है तथा उनको संतुष्ट करने का प्रयास भी करता है। वह उनकी आशाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं एवं इच्छाओं को समझता है तथा उन्हें मान्यता प्रदान करता है। इस प्रकार नेतृत्व अधीनस्थों एवं अनुयायियों को उच्च कोटि के निष्पादन के लिए प्रेरित करता है। यथार्थ में नेतृत्व बड़े भाई की तरह अपने अधीनस्थों एवं अनुयायियों को कार्य सम्पादन में मार्गदर्शन देता है तथा कठिनाई की दशा में उनकी सहायता करता है जिससे संगठन का कार्य बिना किसी रुकावट के सचारु रूप से चलता रहता है।

प्रश्न 22. 
"एक अच्छा नेता एक अच्छा सन्देशवाहक एवं धैर्यवान श्रोता होना चाहिए।" समझाइये। 
उत्तर:
एक अच्छा नेता अपनी सम्प्रेषण योग्यता से वह अपने अनुयायियों को अनुकूल तरीके से प्रभावित कर सकता है। यदि एक नेता में सम्प्रेषण योग्यता का अभाव है तो वह अपने विचारों, भावनाओं का अपने अधीनस्थों को प्रभावी सम्प्रेषण नहीं कर पायेगा तथा उनमें वांछित प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकेगा। इस प्रकार एक अच्छे नेतृत्व में अपनी बात, सन्देश, भावना, विचार, संवेग आदि को सही रूप में अनुयायियों तक पहुँचाने की क्षमता तथा योग्यता होनी चाहिए।

इसके साथ ही एक अच्छे नेता को धैर्यवान श्रोता भी होना चाहिए। उसे अपने अधीनस्थों एवं कर्मचारियों की बातें, विचार आदि शान्ति से सुनने चाहिए। सुनते समय क्रोध प्रदर्शित नहीं करना चाहिए। अधीनस्थों व कर्मचारियों को लगे कि उनकी बातों को ध्यान से सुना जा रहा है। ऐसी स्थिति यदि संगठन में होगी तब ही वह . संगठन अपने वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने अधीनस्थों एवं कर्मचारियों की बात सुनेगा।

प्रश्न 23. 
"एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।" इस कथन के सन्दर्भ में सफल नेता के लिए अपेक्षित गुणों को समझाइये।
उत्तर:
यह कहना शत प्रतिशत सही है कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इस दृष्टि से सफल नेतृत्व के लिए एक नेता का सुदृढ़ शरीर एवं उत्तम स्वास्थ्य होना परम आवश्यक है। जिस प्रकार एक अस्वस्थ मस्तिष्क का एवं कमजोर शारीरिक संरचना वाला व्यक्ति अपने कार्यों का भलीभांति निष्पादन नहीं कर सकता है ठीक उसी तरह अस्वस्थ एवं कमजोर शरीर वाला नेता अपने अनुयायियों को कुशल नेतृत्व प्रदान नहीं कर सकता है। एक सुदृढ़ शरीर एवं उत्तम स्वास्थ्य वाले व्यक्ति में ही तीव्र बुद्धि, सम्प्रेषण योग्यता, निर्णयन क्षमता, चतुराई तथा दृष्टि एवं दूरदर्शिता जैसे गुण अधिक पाये जाते हैं और ये सभी गुण एक नेता को सफल नेतृत्व का गुण प्रदान करते हैं। सुदृढ़ शरीर एवं उत्तम स्वास्थ्य वाला व्यक्ति ही अपने अनुयायियों को अभिप्रेरित कर सकता है।

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प्रश्न 24. 
"कार्य के प्रबंधन में नेता का निर्णायक होना अत्यंत आवश्यक है।" समझाइये।
उत्तर:
एक नेता में निर्णय लेने की क्षमता है। जब वह किसी तथ्य के विषय में संतुष्ट हो जाता है या उसे ठीक लगता है, तो उसे अपनी बात पर दृढ़संकल्प रहना चाहिए तथा अपने विचार बार-बार बदलने नहीं चाहिए। इसलिए कार्य के प्रबंधन में नेता का निर्णायक होना अत्यंत आवश्यक है।

प्रश्न 25. 
नेतृत्व के कोई दो महत्त्व बताइये। .
उत्तर:
नेतृत्व के महत्त्व-

  • नेतृत्व व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करता है तथा उन्हें अपनी श्रम/ऊर्जा को संस्था के लाभ के लिए सकारात्मक रूप से योगदन देने के लिए प्रेरित करता है। अच्छे नेता हमेशा अपने अनुयायियों के द्वारा अच्छे ही परिणाम उत्पादित करते हैं।
  • नेता अपने अधीनस्थों को प्रशिक्षण भी उपलब्ध करवाता है या देता है। एक अच्छा नेता हमेशा अपना अगला नेतृत्व प्रतिनिधि तैयार करता है ताकि नेतृत्व की उत्तरदायित्व प्रक्रिया निर्विघ्न संपन्न हो सके। 

प्रश्न 26. 
नेतृत्व की जार्ज हेरी एवं चेस्टर बर्नार्ड द्वारा एक सफल नेता के गुण लिखिए।
उत्तर:
नेतृत्व की जार्ज टेरी द्वारा एक अच्छे नेता के निम्न गुण हैं-

  • ऊर्जा, 
  • भावात्मक स्थिरता, 
  • मानवीय संबंधों का ज्ञान, 
  • अभिप्रेरणा, 
  • संप्रेषण, 
  • कौशल, 
  • शिक्षण-योग्यता, 
  • सामाजिक कौशल एवं 
  • तकनीकी दक्षता।

नेतृत्व की चेस्टर बर्नार्ड द्वारा एक अच्छे नेता के निम्न गुण हैं-

  • ओजस्विता, 
  • धैर्य/सहनशीलता, 
  • निर्णय लेने की क्षमता, 
  • दृढ़संकल्प, 
  • काम में लगे रहना, 
  • व्यवहार में स्थिरता, 
  • बौद्धिक योग्यता एवं 
  • ज्ञान

प्रश्न 27. 
नेतृत्व की शैलियों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
नेतृत्व की तीन निम्न शैलियाँ हैं-

  • एकतंत्रीय अथवा सत्तावादी नेता-एक सत्तावादी नेता आदेश देता है तथा यह अपेक्षा करता है कि उसके अधीनस्थ आदेशों का पालन करें।
  • लोकतंत्रीय अथवा सहभागी नेता-एक सहभागी नेता कार्य योजनाएँ विकसित करेगा तथा अपने अधीनस्थों की सलाह से निर्णय लेता है।
  • अबंध अथवा मुक्त-रोक नेता-इस प्रकार का नेता शक्ति के प्रयोग में विश्वास नहीं रखता जब तक कि यह अत्यावश्यक न हो। अनुगामियों को उच्च श्रेणी की स्वतंत्रता दी जाती है ताकि वे अपने उद्देश्य तथा उन्हें प्राप्त करने के तरीके तय कर सकें।

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प्रश्न 28. 
एक सफल नेता के निम्नांकित गुणों को स्पष्ट कीजिए
(i) सम्प्रेषण योग्यता 
(ii) निर्णयन क्षमता 
(iii) अभिप्रेरित करने की योग्यता।
उत्तर:
(i) सम्प्रेषण योग्यता-एक सफल नेता में प्रभावी सम्प्रेषण योग्यता का होना परम आवश्यक है। सम्प्रेषण योग्यता से वह अपने अनुयायियों को अनुकूल तरीके से प्रभावित कर सकता है अन्यथा वह अपने विचारों एवं भावनाओं का प्रभावी सम्प्रेषण नहीं कर सकता। 

(ii) निर्णयन क्षमता-एक सफल नेता में उच्च स्तर की निर्णयन योग्यता भी होनी चाहिए। उसमें शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता किन्तु उतावले निर्णयों से बचने की योग्यता होनी चाहिए। एक कुशल नेता वह होता है जिसमें सही समय पर परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय लेने की क्षमता होती है।

(iii) अभिप्रेरित करने की योग्यता-एक सफल नेता वह होता है जिसमें अपने अधीनस्थों एवं अनुयायियों को पर्याप्त रूप से अभिप्रेरित करने की योग्यता होती है।

इस प्रकार एक सफल नेता बनने के लिए व्यक्ति में इस गुण का विकास भी किया जाना चाहिए।

प्रश्न 29. 
निर्देशन के महत्त्व को बल देने वाले बिन्दुओं का विवरण दीजिए।
उत्तर:

  • संगठन में व्यक्तियों के कार्य को प्रारंभ करने में निर्देशन सहायता करता है। यह संस्था के वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किए जाते हैं।
  • निर्देशन संगठन में कर्मचारियों के व्यक्तिगत प्रयासों को इस प्रकार समाकलित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति के कार्य का योगदान संस्था के निष्पादन में तथा सफलता में होता है।
  • निर्देशन कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है जिससे वह अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं का पूर्णत: प्रयोग कर सकें।
  • निर्देशन संगठन में आवश्यक परिवर्तनों को प्रारंभ करने में मदद करता है।
  • प्रभावी निर्देशन संस्था में स्थिरता तथा संतुलन बनाए रखने में भी सहायता प्रदान करता है।

प्रश्न 30. 
सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सम्प्रेषण का अर्थ-सम्प्रेषण को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में लिया जाता है जिसके द्वारा भाव, विचार, तथ्य, अनुभव इत्यादि का आदान-प्रदान होता है, जिसका उद्देश्य दो व्यक्तियों के मध्य या आपस में समझ पैदा करना है।

लुईस ए. ऐलन के अनुसार, "सम्प्रेषण से अभिप्राय उन सभी क्रियाओं से है जो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपनी बात समझाने के लिए करता है। इसमें एक व्यवस्थित तथा निरन्तर चलने वाली कहने, सुनने तथा समझने की प्रक्रिया सम्मिलित है।"

हैराल्ड कन्ट्ज एवं हैनिज वैहरिच के अनुसार, "सम्प्रेषण सूचनाओं का प्रेषक के द्वारा प्राप्तकर्ता को स्थानान्तरण है ताकि वह उन सूचनाओं को उसी रूप में समझ सके।"

निष्कर्ष-सम्प्रेषण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच (समान) पारस्परिक समझ बनाने के लिए, सूचनाओं के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया है।

प्रश्न 31. 
औपचारिक सम्प्रेषण के गुण बतलाइये।
उत्तर:
औपचारिक सम्प्रेषण के गुण-

  • औपचारिक सम्प्रेषण में सम्प्रेषण क्रमानुसार होता है और विचार एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान ठीक से होता है।
  • औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के स्रोत का आसानी से पता लगाया जा सकता है। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण के द्वारा उच्च स्तरीय अधिकारियों के अधिकार, जो उन्हें अधीनस्थ कर्मचारियों के ऊपर प्राप्त होते हैं, कार्य करवाने में सहायता मिलती है। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण में अधीनस्थ कर्मचारियों से कार्य उपलब्धियों के बारे में जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं उनसे उच्च अधिकारियों को अधीनस्थों पर नियन्त्रण स्थापित करने में सुविधा रहती है।
  • सन्देशों का आदान-प्रदान पूर्व निर्धारित मार्गों से किया जा सकता है। 
  • सन्देश प्रायः लिखित में होने से प्रमाण का कार्य करते हैं। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण विभिन्न पदों के बीच समन्वय को आसान बना देता है। 

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प्रश्न 32. 
ऊपर की ओर सम्प्रेषण तथा नीचे की ओर सम्प्रेषण के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
ऊपर की ओर सम्प्रेषण के उदाहरणअवकाश की स्वीकृति के लिए प्रार्थना-पत्र देना, कार्य प्रगति प्रतिवेदन जमा कराना, अनुदान के लिए आवेदन करना इत्यादि।

नीचे की ओर सम्प्रेषण के उदाहरण-सभा में उपस्थित होने के लिए कर्मचारियों को नोटिस भेजना, सौंपे गये कार्य के लिए अधीनस्थों को उसे पूरा करने का आदेश देना, उच्च प्रबन्ध द्वारा निर्मित मार्गदर्शनों/निर्देशनों को अधीनस्थों को जारी करना इत्यादि।

प्रश्न 33. 
औपचारिक संगठन में चक्र एवं गोला सम्प्रेषण तंत्र को चार्ट द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
अथवा 
एक औपचारिक संगठन में कार्य करने वाले किन्हीं दो सम्प्रेषण तंत्रों के बारे में संक्षेप में बतलाइये। चित्र भी बनाइये।
उत्तर:
चक्र-चक्रतंत्र में सभी अधीनस्थ केवल एक अधिकारी के माध्यम से ही सम्प्रेषण करते हैं तथा वह अधिकारी ही उस चक्र के केन्द्र के रूप में कार्य करता है।

गोला-गोला सम्प्रेषण तंत्र में, सम्प्रेषण एक गोले में ही प्रसारित होता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने साथ के दो व्यक्तियों के साथ ही सम्प्रेषण करता है।
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प्रश्न 34. 
अच्छे नेता के किन्हीं चार गुणों का उल्लेख कीजिए। .
अथवा 
एक अच्छे नेता के क्या गुण हैं ?
उत्तर:
अच्छे/सफल नेता के गुण-
1. शारीरिक विशेषताएँ-किसी भी व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व का निर्धारण उसकी कुछ शारीरिक विशेषताएँ जैसे कद, वजन, स्वास्थ्य, रूप-रंग/उपस्थिति करती हैं। ऐसा माना जाता है कि अच्छी शारीरिक विशेषताएँ लोगों को आकर्षित करती हैं। स्वास्थ्य तथा सहनशीलता एक नेता को मेहनतपूर्वक कार्य करने में सहायता देती है जो दूसरों को उसी उत्साह तथा लगन से कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करती है। अतः एक अच्छे नेता में इस प्रकार के शारीरिक गुण होने चाहिए।

2. ज्ञान तथा कौशल-एक अच्छे नेता में आवश्यक ज्ञान तथा कौशल अवश्य होना चाहिए। केवल ऐसे ही व्यक्ति अपने अधीनस्थों को सही रूप से आदेश दे सकते हैं तथा प्रभावित कर सकते हैं।

3. सत्यनिष्ठा/ईमानदारी-एक अच्छा नेता तब ही कहलाता है जबकि उसमें उच्च स्तर की सत्य निष्ठा तथा ईमानदारी हो। वह दूसरों के लिए अर्थात् अपने अनुयायियों के लिए आदर्श होना चाहिए। उसे नैतिकता तथा मूल्यों का प्रचारक होना चाहिए।

4. सम्प्रेषण कौशल-एक अच्छा नेता वही माना जाता है जिसमें सम्प्रेषण कौशल हो। उसमें अपने विचारों को स्पष्ट समझाने की योग्यता होनी चाहिए तथा यह भी कि लोग उसके विचारों को समझ सकें। उसे केवल एक अच्छा वक्ता ही नहीं होना चाहिए वरन् एक अच्छा श्रोता, शिक्षक, परामर्शक तथा विश्वसनीय भी होना चाहिए कि वह सबसे काम करवा सके।

5. पहल-एक अच्छा या सफल नेता वही माना जाता है जिसमें साहस तथा पहल शक्ति/नेतृत्व का गुण हो। उसमें सुअवसरों को हथियाने का गुण होना चाहिए।

6. अभिप्रेरण कौशल-एक अच्छे या सफल नेता में अभिप्रेरण कौशल का भी गुण होता है। उसमें लोगों की आवश्यकताओं को समझने तथा उनकी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि द्वारा उन्हें प्रेरित करने का गुण भी होना चाहिए।

7. आत्म-विश्वास-एक सफल नेता में उच्च-स्तर का आत्म-विश्वास होता है। इस गुण के कारण ही वह अत्यन्त कठिन समय में अपना विश्वास नहीं खोता है।

8. निर्णय लेने की क्षमता-एक अच्छा या सफल नेता वही कहलाता है जिसमें समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता हो। निर्णय लेने में उसे टालमटोल नहीं होना चाहिए।

9. सामाजिक कौशल-एक अच्छे नेता में सबके साथ मिल-जुलकर चलने तथा सहकर्मियों तथा अनुयायियों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखने का गुण भी होता है।

प्रश्न 35. 
सम्प्रेषण की कोई छः विशेषताएँ बतलाइये।
अथवा 
सम्प्रेषण की प्रकृति को संक्षेप में समझाइये।
उत्तर:

  • सम्प्रेषण समन्वयन के आधार के रूप में कार्य करती है।
  • सम्प्रेषण उद्यम के निर्विघ्न चलने में सहायता करती है।
  • सम्प्रेषण निर्णय लेने की क्षमता के आधार के रूप में कार्य करती है।
  • सम्प्रेषण कुशलता को बढ़ाती है।
  • सम्प्रेषण सहयोग तथा औद्योगिक शांति को बढ़ाती है।
  • सम्प्रेषण प्रभावी नेतृत्व को स्थापित करती है। 
  • सम्प्रेषण बढ़ाती है तथा अभिप्रेरित करती है।

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प्रश्न 36. 
"केवल अभिप्रेरण के द्वारा ही प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को संगठन को अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।" इस कथन के सन्दर्भ में अभिप्रेरण के महत्त्व के चार बिन्दु समझाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरण का महत्त्व
प्रश्न में दिये गये कथन के सन्दर्भ में अभिप्रेरण के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है-
1. कार्य के प्रति लगन-अभिप्रेरणा कर्मचारियों में कार्य के प्रति लगन एवं रुचि उत्पन्न करने के लिए दी जाती है। कर्मचारी अभिप्रेरण के अभाव में अपने कार्य में रुचि नहीं लेंगे और संस्था को हानि होगी।

2. कार्यकुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धिअभिप्रेरण से कर्मचारियों की इच्छाओं एवं भावनाओं की सन्तुष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप कर्मचारियों में कार्य करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसी से अन्ततोगत्वा कर्मचारियों की कार्यकुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है।

3. सहयोग-अभिप्रेरित कर्मचारी प्रबन्धकों के साथ न केवल सहयोगपूर्ण व्यवहार करते ही हैं वरन् वे अपने सहकर्मियों के साथ भी सहयोग का व्यवहार करते हैं। अभिप्रेरित कर्मचारी संस्था का कार्य येन-केन प्रकारेण यथा-सम्भव पूरा करने का प्रयास करता है।

4. संगठन के उददेश्यों की प्राप्ति में सहायताअभिप्रेरणा के द्वारा कर्मचारियों को उन कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरित किया जाता है जिनसे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त किया जायेगा। संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अनेक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं और उन क्रियाओं को प्रबन्धक दूसरों के माध्यम से करवाता है, जिसके लिए उन व्यक्तियों को अभिप्रेरित करना पड़ता है।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि केवल अभिप्रेरण द्वारा ही प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को संगठन को अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

प्रश्न 37. 
अभिप्रेरणा की मास्लो विचारधारा की किन्हीं तीन मानवीय आवश्यकताओं को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा की मास्लो विचारधारा की तीन मानवीय आवश्यकताएँ 
ए. एच. मास्लो ने मानव की समस्त आवश्यकताओं को निम्न पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया है-

  • आधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँ 
  • सुरक्षा आवश्यकताएँ
  • संस्था से जुड़ाव/संस्था से सम्बन्ध अर्थात् सामाजिक आवश्यकताएँ
  • मान-सम्मान (प्रतिष्ठा) अर्थात् अहम आवश्यकताएँ 
  • आत्म-सन्तुष्टि आवश्यकताएँ।

उपरोक्त आवश्यकताओं में से प्रथम दो निम्न क्रम की आवश्यकताएँ हैं, जबकि तृतीय आवश्यकता का कुछ भाग तथा शेष दो आवश्यकताएँ (चतुर्थ व पंचम) उच्च क्रम की आवश्यकताएँ हैं। इनमें से तीन आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-
1. आधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँ-ये आवश्यकताएँ क्रम में सबसे आधारभूत अर्थात् निम्न हैं तथा मनुष्य की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ हैं। भूख, प्यास, धन, नींद तथा काम (सैक्स) इत्यादि कुछ इसी प्रकार की आवश्यकताएँ हैं। संगठित सन्दर्भ में आधिकारिक वेतन इन सभी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है। शारीरिक आवश्यकताएँ सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रभावी आवश्यकताएँ हैं। कोई भी व्यक्ति सबसे पहले इन्हीं आवश्यकताओं के कारण कार्य करने हेतु अभिप्रेरित होता है। जैसे ही ये आवश्यकताएँ सन्तुष्ट होती हैं, फिर ये आवश्यकताएँ व्यक्ति को अभिप्रेरित नहीं करती हैं। 

2. सुरक्षा आवश्यकताएँ-शारीरिक आवश्यकताओं के पश्चात् सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ आती हैं। ये आवश्यकताएँ सुरक्षा तथा किसी भी शारीरिक तथा मनोवेगों की क्षति से बचाव प्रदान करने का कार्य करती हैं। उदाहरण-पद में सुरक्षा, आय स्रोत में स्थिरीकरण/ नियमितता, सेवानिवृत्ति, पेंशन आदि इसी प्रकार की आवश्यकताएँ हैं। इन आवश्यकताओं के जन्म के कारण व्यक्ति भविष्य में भी आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करना चाहता है। वह इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति एवं सन्तुष्टि के लिए कार्य करने हेतु अभिप्रेरित भी होता है।

3. संस्था से जुड़ाव/संस्था से सम्बन्ध अर्थात् सामाजिक आवश्यकताएँ-मनुष्य की उपर्युक्त प्रथम दो आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तब ये आवश्यकताएँ यथा स्नेह, संस्था से सम्बन्ध, स्वीकृति अथवा मित्रता जैसे भावों से सम्बन्धित होती हैं।

सामाजिक आवश्यकताएँ उत्पन्न हो जाने के बाद व्यक्ति उनकी भी सन्तुष्टि हेतु कार्य करने को अभिप्रेरित होता है। किन्तु ऐसी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं होती है तब वह व्यक्ति कार्य में असहयोग या विरोध करने लगता है या कार्य में बाधाएँ खड़ी करने लगता है।

प्रश्न 38. 
सम्प्रेषण में कुछ ऐसी बाधाएँ हैं जो सन्देशबद्धता एवं सन्देशवाचन से सम्बन्धित हैं। ऐसी किन्हीं तीन बाधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सम्प्रेषण की बाधाएँ
1. सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-कई बार प्रबन्धक अधीनस्थों को निर्दिष्ट अर्थ नहीं समझा पाता अथवा सम्प्रेषित नहीं कर पाता है। यह सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति अपर्याप्त शब्द भण्डार के कारण, गलत शब्द प्रयोग से, आवश्यक शब्दों के प्रयोग न करने के कारण इत्यादि से हो सकती है।

2. विभिन्न अर्थों सहित संकेतक-एक शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं। किन्तु प्राप्तकर्ता को शब्द के उसी अर्थ को समझना आवश्यक है जो सन्देश प्रेषक उसे समझाना चाहता है। यदि इस चीज का अभाव रहता है तब भी सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए 'मूल्य' शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग किया गया है-प्रथम, इस पुस्तक का क्या मूल्य है; द्वितीय, मैं हमारी मित्रता का मूल्य समझता हूँ; तृतीय, कम्प्यूटर सीखने का हमारे लिये क्या मूल्य है ?

उपर्युक्त तीनों वाक्यों में 'मूल्य' शब्द भिन्न सन्दर्भो में अलग-अलग अर्थ दे रहा है। इसकी गलत समझ सम्प्रेषण बाधा को जन्म देती है। 

3. त्रुटिपूर्ण अनुवाद या रूपान्तरण-सामान्यतया कुछ स्थितियों में सम्प्रेषण का मसौदा मूल रूप से किसी एक भाषा में तैयार किया जाता है जैसे अंग्रेजी में और इसे. कर्मचारियों को समझाने के लिए इसका हिन्दी में अनुवाद करना जरूरी हो जाता है। यदि अनुवाद करने वाला दोनों ही भाषाओं का अच्छा ज्ञाता नहीं है तो सम्प्रेषण को अन्य अर्थ देने के कारण अनुवाद में गलतियाँ होना स्वाभाविक है और ऐसी स्थिति में सम्प्रेषण में बाधा आना स्वाभाविक है।

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प्रश्न 39. 
नेता और प्रबन्धक के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नेता और प्रबन्धक के बीच अन्तर 

  • नेतृत्व एक क्रिया है व्यक्तियों को प्रभावित करने की जिससे वे स्वेच्छा से सामूहिक उद्देश्यों के लिए एकत्रित हो सकें, जबकि प्रबन्धक का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत उद्देश्यों को एक कर संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करना है। 
  • नेतृत्व की आवश्यकता किसी भी परिस्थिति में और कहीं भी हो सकती है, जबकि प्रबन्धक की आवश्यकता सदा किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए होती है। 
  • नेतृत्व के अन्तर्गत अधीनस्थ कर्मचारियों के व्यवहार को प्रभावित कर उनके स्वैच्छिक सहयोग को प्राप्त किया जाता है, यह किसी व्यक्ति की दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता को दर्शाता है, परन्तु प्रबन्ध नेतृत्व से कुछ अलग है। 
  • नेतृत्व प्रबन्ध के निर्देशन कार्यों का एक दूसरा पहलू है, जबकि प्रबन्धक संस्था में प्रत्येक स्तर पर कार्य समूह के नेता समझे जाते हैं। 
  • नेता के कुछ अनुयायी अवश्य होते हैं, किन्तु प्रबन्धक के अनुयायी नहीं होकर अधीनस्थ होते हैं।

प्रश्न 40. 
पर्यवेक्षक के कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करें।
अथवा 
पर्यवेक्षक के प्रमुख कार्य बतलाइये। 
उत्तर:
पर्यवेक्षक के कार्य 
एक पर्यवेक्षक के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • सहयोग एवं परामर्श प्रदान करना-पर्यवेक्षक का प्रमुख कार्य अपने अधीनस्थों को कार्य करने में पूर्ण सहयोग प्रदान करना है तथा समय-समय पर उन्हें परामर्श देना है।
  • प्रेरणा प्रदान करना-पर्यवेक्षक अधीनस्थों के कार्यों का निरीक्षण एवं जाँच ही नहीं करता वरन् वह मिलकर कार्य करने के लिए सभी को प्रेरित करता है।
  • गलतियों को सुधारना-पर्यवेक्षक अधीनस्थ कर्मचारियों का निरीक्षण कर उनकी गलतियों का पता लगाता है तथा उन गलतियों को सुधारने का भी प्रयास करता है।
  • शिक्षा प्रदान करना-पर्यवेक्षक अधीनस्थों को सही ढंग से कार्य करने की शिक्षा भी देता है तथा अधीनस्थों की कार्य करने की गति तथा कार्यक्षमता को भी मापता है।
  • कार्य सम्पादन-पर्यवेक्षक का मुख्य कार्य निरीक्षण कार्य को सम्पादित करना भी है। वह संगठन में ऐसा वातावरण पैदा करता है जिससे कि समस्त कर्मचारी सहयोग से कार्य करते हुए कार्य सम्पादन की दिशा में अग्रसर हों।
  • उत्पादन सम्बन्धी कार्य-पर्यवेक्षक उत्पादन बजट, उत्पादन तकनीकों, कार्य प्रवाह आदि के बारे में जानकारी रखकर अधीनस्थों को निर्देश देता है। 
  • कर्मचारी व्यवस्था सम्बन्धी कार्य-पर्यवेक्षक स्वयं अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, कार्य-विभाजन, स्थानान्तरण, वेतन प्रशासन आदि कार्यों के सम्बन्ध में आवश्यक तथ्य एकत्रित करता है तथा उच्च अधिकारियों की सहायता करता है।

प्रश्न 41. 
"एक संगठन में पर्यवेक्षण की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं होती है।" क्या आप सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में कोई दो कारण दीजिये।
उत्तर:
एक संगठन में पर्यवेक्षण की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं होती, मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि पर्यवेक्षण किसी भी संगठन में नियन्त्रण का एक प्रमुख आधार व माध्यम माना जाता है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य संगठन में समन्वय स्थापित करना तथा यह देखना होता है कि संगठन का प्रत्येक व्यक्ति वही कार्य कर रहा है जो उसे दिया गया है। संगठन में पदसोपान, प्रत्यायोजन, संचार तथा नियन्त्रण आदि सभी पर्यवेक्षण के बिना अधूरे ही हैं। यथार्थ में, संगठन में पर्यवेक्षण की आवश्यकता कई कारणों से होती है। इनमें से दो कारण अग्रलिखित बतलाये जा सकते हैं-

1. कर्मचारियों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक के रूप में कार्य करना-पर्यवेक्षक प्रतिदिन कर्मचारियों के सम्पर्क में रहता है तथा उनसे मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये रखता है। एक अच्छा पर्यवेक्षक कर्मचारियों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा एक दार्शनिक के रूप में कार्य करता है।

2. प्रबन्धक तथा कर्मचारियों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करना-पर्यवेक्षक प्रबन्धक तथा कर्मचारियों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करता है। वह एक ओर तो कर्मचारियों को प्रबन्ध के विचारों से अवगत कराता है, दूसरी तरफ कर्मचारियों की समस्याओं को प्रबन्ध के सामने रखता है। पर्यवेक्षक द्वारा निभायी गई यह भूमिका उनके बीच किसी भी गलतफहमी को नहीं आने देती तथा उनके बीच किसी प्रकार के टकराव की स्थिति भी पैदा नहीं हो पाती फलतः संगठन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल रहता है।

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प्रश्न 42. 
मास्लो की आवश्यकता श्रृंखला अभिप्रेरणा की समझ के लिए आधार समझी जाती है। इस आवश्यकता श्रृंखला की अभिप्रेरणा में भूमिका समझाइये।
उत्तर:
मास्लो की आवश्यकता श्रृंखला अभिप्रेरणा में निम्न प्रकार की भूमिका निभाती है-
1. आधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँआधारभूत/शारीरिक आवश्यकताएँ मनुष्य को रुचि, लगन, इच्छा से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। कोई भी व्यक्ति सबसे पहले इन्हीं आवश्यकताओं के जन्म के कारण कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होता है और कार्य करने के लिए तैयार होता है। 

2. सुरक्षा आवश्यकताएँ-इन आवश्यकताओं की पूर्ति से व्यक्ति को आजीवन रोजगार की गारण्टी मिलती है। वृद्धावस्था के लिए पेंशन या भविष्यनिधि, बीमा आदि की आवश्यकता पूरी होती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति निडर होकर अधिक कार्य करने लगता है।

3. संस्था से जुड़ाव/संस्था से सम्बन्ध अर्थात् सामाजिक आवश्यकताएँ- इस प्रकार की आवश्यकताओं के पूरा होने से व्यक्ति को संस्था से स्नेह मिलता है, सम्बन्ध अच्छे होते हैं, स्वीकृति मिलती है अथवा मित्रतापूर्ण व्यवहार प्राप्त होता है। फलत: स्वस्थ मानवीय सम्बन्धों का विकास होता है और व्यक्ति अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित होता है।

4. मान-सम्मान (प्रतिष्ठा) आवश्यकता-इस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति होने से व्यक्ति को संस्था में आत्म-सम्मान, पद-स्वायत्तता, पहचान मिलती है, आदर-सत्कार होता है। इससे कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है और वे अधिक कार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं।

5. आत्म-सन्तुष्टि आवश्यकताएँ-इन आवश्यकताओं की पूर्ति होने से कर्मचारियों के विकास, आत्म-सन्तुष्टि तथा उद्देश्यों की पूर्ति होती है। इससे कर्मचारियों को कार्य-सन्तुष्टि प्राप्त होती है।

प्रश्न 43. 
प्रभावी सम्प्रेषण में संकेतिक बाधाएँ क्या हैं?
अथवा 
संगठन में प्रभावी संप्रेषण की सांकेतिक बाधाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रभावी सम्प्रेषण में संकेतिक बाधाएँ-
संकेत भाषा की वह शाखा है जो शब्दों तथा वाक्यों के अर्थ से सम्बन्ध रखती है। संकेतीय बाधाएँ उन समस्याओं तथा बाधाओं से सम्बन्धित हैं जो सन्देश की एनकोडिंग तथा डिकोडिंग करने की प्रक्रिया में उन्हें शब्दों अथवा संकेतों में परिवर्तित करते समय आती हैं। सामान्यतया ये बाधाएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं-

  • सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-कई बार प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को निर्दिष्ट अर्थ नहीं समझा पाता है। यह सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति, अपर्याप्त शब्द-भण्डार के कारण, गलत शब्द के प्रयोग से, आवश्यक शब्दों के प्रयोग न करने के कारण इत्यादि से हो सकते हैं।
  • विभिन्न अर्थों सहित संकेतक-एक शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं। प्राप्तकर्ता को शब्द के उसी अर्थ को समझना जो प्रेषक उसे समझाना चाहता है। इस प्रकार शब्द के अर्थ की गलत समझ सम्प्रेषण समस्याओं को उत्पन्न करती है।
  • त्रुटिपूर्ण रूपान्तर/अनुवाद-यदि अनुवादक एक भाषा को दूसरी भाषा में अनुवाद करने में पारंगत नहीं हो तो भी सम्प्रेषण को अन्य अर्थ देने के कारण अनुवाद में गलतियाँ हो सकती हैं।
  • अस्पष्ट कल्पनाएँ-कुछ सम्प्रेषणों की विभिन्न संकल्पनाएँ, भिन्न व्याख्याओं के कारण हो सकती हैं।
  • तकनीकी विशिष्ट शब्दावली-प्रायः विशेषज्ञ तकनीकी शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करते हैं उन व्यक्तियों को समझाने में जो उस सम्बन्धित क्षेत्र के विशेषज्ञ नहीं होते हैं । इसलिए, वे बहुत से ऐसे शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ नहीं पाते। .
  • शारीरिक भाषा तथा हाव-भाव की अभिव्यक्ति की डिकोडिंग-यदि जो कहा जाता है तथा जो शरीर के हाव-भाव द्वारा व्यक्त होता है उसमें तालमेल न हो तो, सम्प्रेषण का गलत अर्थ निकाला जा सकता है।

प्रश्न 44. 
अधोगामी एवं उच्चगामी सम्प्रेषण में अन्तर समझाइये।
उत्तर:
अधोगामी एवं उच्चगामी सम्प्रेषण में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित बतलाये जा सकते हैं-

  • स्रोत-अधोगामी सम्प्रेषण का स्रोत उच्च अधिकारी होते हैं जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण का स्रोत अधीनस्थ होते हैं।
  • प्रवाह की दिशा-अधोगामी सम्प्रेषण का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है।
  • प्रकृति-अधोगामी सम्प्रेषण आदेशात्मक प्रकृति का अधिक होता है, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण सुझावात्मक या प्रतिवेदन की प्रकृति का होता है।
  • माध्यम-अधोगामी सम्प्रेषण का माध्यम लिखित होता है, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण का माध्यम मौखिक अधिक होता है।
  • प्रभाव-अधोगामी सम्प्रेषण का प्रभाव गम्भीर होता है। अधीनस्थ प्रायः इनको गम्भीर रूप से लेते हैं तथा उनके अनुसार कार्य करते हैं, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण का प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता है।
  • उत्तरदायित्व-अधोगामी सम्प्रेषण में सन्देश देने का दायित्व उच्च अधिकारियों का होता है, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण में सन्देश देने का दायित्व अधीनस्थ कर्मचारियों का होता है। 
  • मानना-अधोगामी सम्प्रेषण में दिये गये आदेश अथवा निर्देश को मानना अनिवार्य होता है, जबकि उच्चगामी सम्प्रेषण में दी गई सूचना या सुझाव को मानना अनिवार्य नहीं है।

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प्रश्न 45. 
सम्प्रेषण की बाधाओं को दर करने के लिए किन्हीं चार सुझावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-
1. सम्प्रेषण करने से पहले विचार/लक्ष्य स्पष्ट करना-किसी भी विचार या लक्ष्य को अधीनस्थों को बताने से पहले अधिकारी को स्वयं ही सभी परिप्रेक्ष्य में उन्हें स्पष्ट कर लेना चाहिए। उनका गहराई से अध्ययन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए। इसके बाद ही उन्हें अधीनस्थों को बतलाना चाहिए। विचार/लक्ष्य इस प्रकार रखे जाने चाहिए कि अधीनस्थों को स्पष्ट रूप से जानकारी हो सके।

2. सन्देश-प्राप्तकर्ता की आवश्यकतानुसार सम्प्रेषण करना-सन्देश प्राप्तकर्ता की समझ के स्तर को सन्देश प्रेषक द्वारा जान लेना चाहिए और उसी के अनुसार सन्देश प्रेषित किया जाना चाहिए। अन्य शब्दों में, प्रबन्धक को अपना सम्प्रेषण अधीनस्थों की शिक्षा तथा उनकी समझ के स्तर के अनुसार ही व्यवस्थित करना चाहिए।

3. सन्देश में प्रयुक्त भाषा, शैली तथा उनकी विषयवस्तु के लिए जागरूक रहना-सन्देश की विषय-वस्तु, शैली तथा भाषा-प्रयोग, किस प्रकार से सन्देश का संचार होना है इत्यादि प्रभावी सम्प्रेषण के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। इन पर ध्यान दिये जाने से सम्प्रेषण की अनेक बाधाएँ दूर हो जाती हैं। भाषा का प्रयोग ऐसा होना चाहिए जो सन्देश प्राप्तकर्ता को समझ में आये तथा सुनने वाले की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाये । सन्देश ऐसा होना चाहिए जो सुनने वालों को उनकी प्रतिक्रियाएँ देने में भी उत्प्रेरक का कार्य करे।

4. संप्रेषण के पहले अन्य लोगों से भी परामर्श करें-संदेश को वास्तविक रूप में संप्रेषित करने से पहले, यह बेहतर है कि संप्रेषण की योजना अन्य संबंधित लोगों को सम्मिलित करके बना लेनी चाहिए।

प्रश्न 46. 
औपचारिक सम्प्रेषण के विभिन्न तन्त्रों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
औपचारिक स्रोत के विभिन्न तंत्र-
औपचारिक स्रोत के विभिन्न तंत्र निम्नलिखित हैं-

  • एकल श्रृंखला-औपचारिक सम्प्रेषण का यह तंत्र एक पर्यवेक्षक तथा उसके अधीनस्थों के मध्य स्थापित होता है, क्योंकि सांगठनिक संरचना में बहुत सारे स्तर विद्यमान होते हैं। सम्प्रेषण श्रृंखला का प्रवाह एक श्रृंखला के द्वारा प्रत्येक पर्यवेक्षक से उसके अधीनस्थ की तरफ होता है। 
  • चक्र-चक्र तंत्र में, सभी अधीनस्थ केवल एक अधिकारी के माध्यम से ही सम्प्रेषण करते हैं तथा वह अधिकारी ही उस चक्र के केन्द्र के रूप में कार्य करता है। अधीनस्थों को आपस में बात करने की अनुमति भी नहीं होती है।
  • गोला-इस तंत्र में सम्प्रेषण एक गोले में ही प्रसारित होता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने साथ के दो व्यक्तियों के साथ ही सम्प्रेषण करता है। सम्प्रेषण का प्रवाह धीमा होता है।
  • स्वतन्त्र प्रवाह-स्वतन्त्र प्रवाह तंत्र में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप से विचारों का आदानप्रदान करने के लिए मुक्त है। इस तंत्र में सम्प्रेषण का प्रवाह तीव्रता से होता है।
  • विलोम-इस तंत्र में, एक अधीनस्थ को केवल अपने एकदम ऊपर अधिकारी तथा उसके अधिकारी के साथ ही सम्प्रेषण करने की अनुमति है । तथापि बाद के केस में केवल निर्धारित सम्प्रेषण ही होता है।

प्रश्न 47. 
औपचारिक सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बतलाइये।
उत्तर:
औपचारिक सम्प्रेषण का अर्थ-जब संस्था में औपचारिक सम्बन्धों वाले व्यक्तियों के बीच सन्देशों का आदान-प्रदान किया जाता है तो उसे औपचारिक सम्प्रेषण कहा जाता है। ऐसे सम्प्रेषण में सन्देशों के आवागमन या आदान-प्रदान का मार्ग पहले से ही निर्धारित किया हुआ होता है। इस मार्ग को संस्था के नियमों, प्रक्रियाओं, संगठन चार्टी आदि में स्पष्ट किया जाता है। जब भी कोई व्यक्ति संस्था में किसी विशेष पद या स्थिति में कार्य करता है वह उन नियमों एवं प्रक्रियाओं के अनुसार ही सन्देशों का आदान-प्रदान करता है। वस्तुतः यह व्यक्तियों के बीच सम्प्रेषण नहीं होकर पदों के बीच सम्प्रेषण है, जिसका मार्ग संगठन के ढाँचे में पहले से ही निर्धारित किया हुआ होता है। यह सन्देश के प्रवाह को नियन्त्रित करने के लिए जानबूझ कर किया गया प्रयत्न होता है जिससे कि सूचनाएँ बिना किसी रुकावट के कम लागत पर, ठीक तरीके से, ठीक समय पर, वांछित स्थान पर पहुँचती हैं। इसे 'उपयुक्त श्रृंखला द्वारा सम्प्रेषण' भी कहा जाता है।

औपचारिक सम्प्रेषण की विशेषताएँ
औपचारिक सम्प्रेषण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • औपचारिक सम्बन्ध-औपचारिक सम्प्रेषण उन कर्मचारियों के बीच होता है जिनके मध्य संगठन द्वारा औपचारिक सम्बन्ध स्थापित किये गये हैं। सन्देश प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्ता का किसी न किसी रूप में संगठनात्मक सम्बन्ध होता है। 
  • निश्चित मार्ग-औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश एक व्यक्ति या कर्मचारी से दूसरे कर्मचारी तक एक पूर्व निर्धारित मार्ग द्वारा ही जाता है। क्योंकि इसमें सन्देशों के आदान-प्रदान का मार्ग पहले से ही निश्चित किया हुआ होता है।
  • जान-बूझ कर किया गया प्रयास-सम्प्रेषण की यह श्रृंखला स्वतः ही स्थापित नहीं की जाती, बल्कि इसके निर्माण के लिए प्रयासों एवं प्रयत्नों की आवश्यकता होती है। संगठन के उद्देश्यों के अनुसार इसको निश्चित किया जाता है।
  • लिखित एवं मौखिक-औपचारिक सम्प्रेषण लिखित व मौखिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। दैनिक कार्यों को मौखिक सम्प्रेषण की सहायता से निपटाया जाता है, जबकि नीति सम्बन्धी कार्यों को लिखित रूप में किया जाता है।
  • संगठनात्मक सन्देश-सम्प्रेषण श्रृंखला द्वारा संगठन से सम्बन्धित अधिकृत सूचनाओं का ही प्रेषण किया जाता है। निजी सन्देशों का प्रेषण इसके क्षेत्र के बाहर है।
  • पदों के बीच सम्प्रेषण-औपचारिक सम्प्रेषण व्यक्तियों के बीच नहीं होकर पदों के बीच होता है जिसका मार्ग संगठन के ढाँचे में पहले से ही निर्धारित होता है।

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प्रश्न 48. 
औपचारिक सम्प्रेषण के गुण-दोषों को बतलाइये। 
उत्तर:
औपचारिक सम्प्रेषण के गुणऔपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  • औपचारिक सम्प्रेषण में सम्प्रेषण क्रमानुसार होता है और विचार एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान ठीक से होता है।
  • औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के स्रोत का आसानी से पता लगाया जा सकता है। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण के द्वारा उच्च स्तरीय अधिकारियों के अधिकार, जो उन्हें अधीनस्थ कर्मचारियों के ऊपर प्राप्त होते हैं, कार्य करवाने में सहायता मिलती है। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण में अधीनस्थ कर्मचारियों से कार्य उपलब्धियों के बारे में जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं उनसे उच्च अधिकारियों को अधीनस्थों पर नियन्त्रण स्थापित करने में सुविधा रहती है। 
  • सन्देशों का आदान-प्रदान पूर्व निर्धारित मार्गों से किया जा सकता है। 
  • सन्देश प्रायः लिखित में होने से प्रमाण का कार्य करते हैं।
  • औपचारिक सम्प्रेषण विभिन्न पदों के बीच समन्वय को आसान बना देता है।

औपचारिक सम्प्रेषण के दोष-औपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  • सन्देशों के सामान्य प्रवाह में बाधा उपस्थित होती है; क्योंकि सभी सन्देश पूर्व निर्धारित मार्गों से ही भेजने पड़ते हैं।
  • औपचारिक सम्प्रेषण में कार्य में विलम्ब होता है। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण की प्रक्रिया खर्चीली होती है; क्योंकि सन्देश प्रायः लिखित में ही होते हैं। 
  • औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के हस्तान्तरण में त्रुटियाँ रह सकती हैं। 
  • सन्देश प्रेषक तथा प्राप्तकर्ता के बीच स्थिति सम्बन्धी अवरोध उत्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 49. 
अनौपचारिक सम्प्रेषण के गुण-दोषों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
उत्तर:
अनौपचारिक सम्प्रेषण के गुण-
अनौपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  • अनौपचारिक सम्प्रेषण के लिए किन्हीं औपचारिक सम्बन्धों की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • सन्देशों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रेषित किया जा सकता है। 
  • सन्देशों के आदान-प्रदान में समय बेकार नहीं जाता
  • ऐसे सम्प्रेषण में सभी को अपनी बात कहने तथा विचार-विमर्श करने का व्यापक अवसर मिलता है। 
  • यह सम्प्रेषण औपचारिक सम्प्रेषण की अनेक बाधाओं को दूर करने में सक्षम रहता है। 
  • औपचारिक रूप से जो सन्देश नहीं दिये जा सकते उन्हें अनौपचारिक सम्प्रेषण से आसानी से प्रेषित किया जा सकता है।

अनौपचारिक सम्प्रेषण के दोष-अनौपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  • अनौपचारिक सम्प्रेषण का स्रोत ढूंढ़ना बहुत कठिन होता है। 
  • अनौपचारिक सम्प्रेषण में निरन्तरता तथा क्रमबद्धता का अभाव पाया जाता है। 
  • अनौपचारिक सम्प्रेषण के आधार पर प्राप्त सन्देशों से निर्णय लेना कठिन होता है। 
  • इसमें विश्वसनीयता की सीमा निर्धारित करना कठिन होता है। 
  • अनौपचारिक सम्प्रेषण में सन्देशों पर नियन्त्रण करना कठिन होता है।
  • इसमें सन्देशों का रूप क्रमशः विकृत होता चलता जाता है।

प्रश्न 50. 
औपचारिक तथा अनौपचारिक सम्प्रेषण में अन्तर बतलाइये। 
उत्तर:
औपचारिक तथा अनौपचारिक
सम्प्रेषण में अन्तर 

  • स्थापना-औपचारिक सम्प्रेषण की स्थापना औपचारिक तथा संगठनात्मक सम्बन्धों द्वारा होती है जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण की स्थापना सामाजिक सम्बन्धों द्वारा होती है।
  • मार्ग-औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश एक निश्चित मार्ग से होकर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के पास जाता है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के लिए कोई निश्चित मार्ग नहीं होता है।
  • प्रसार की गति-औपचारिक सम्प्रेषण का एक निश्चित मार्ग होने के कारण इसकी गति धीमी होती है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण का मार्ग निश्चित नहीं होने के कारण इसकी गति तेज होती है।
  • स्रोत की पहचान-औपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के स्रोत की पहचान हो जाती है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण में सन्देश के स्रोत का पता नहीं चलता है।
  • माध्यम-औपचारिक सम्प्रेषण का माध्यम प्रायः लिखित ही होता है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण प्रायः मौखिक ही होते हैं।
  • पारस्परिक सम्बन्ध-औपचारिक सम्प्रेषण. में सदस्यों के मध्य संगठनात्मक सम्बन्ध होते हैं, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण में सदस्यों के मध्य व्यक्तिगत सम्बन्ध होते हैं।
  • विश्वसनीयता-औपचारिक सम्प्रेषण पूर्ण रूप से विश्वसनीय होता है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण विश्वसनीय नहीं होते हैं।
  • स्थिरता-औपचारिक सम्प्रेषण अधिक स्थिर होता है, जबकि अनौपचारिक सम्प्रेषण अस्थिर होता है।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 51. 
पर्यवेक्षक कौन है ?
उत्तर:
पर्यवेक्षक का अर्थ-पर्यवेक्षक का अभिप्राय एक ऐसे व्यक्ति से होता है जो अपने अधीनस्थों के दिन-प्रतिदिन के काम की प्रगति की देखभाल करने और उनका मार्गदर्शन करने का कार्य करता है। दूसरे शब्दों में, अपने अधीनस्थों के काम पर उत्तम दृष्टि रखने का कार्य जो व्यक्ति करता है, पर्यवेक्षक कहलाता है। इस प्रकार पर्यवेक्षक वह होता है जो-

  • अधीनस्थों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा एक दार्शनिक के रूप में कार्य करता है। 
  • प्रबन्धक तथा श्रमिकों के मध्य एक कड़ी के रूम में कार्य करता है। 
  • वह आन्तरिक मतभेदों को निपटाता है तथा श्रमिकों में तालमेल बिठाता है। 
  • निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार कार्य का निष्पादन सनिश्चित करता है। 
  • कार्यस्थल पर कर्मचारियों तथा श्रमिकों को प्रशिक्षित करता है। 
  • अपने श्रमिकों के मध्य उच्च मनोवृत्ति का विकास करता है। 
  • कार्यनिष्पादन का विश्लेषण करता है तथा अपनी सलाह अथवा प्रतिपुष्टि श्रमिकों को देता है। 

प्रश्न 52. 
निर्देशन के तत्त्व क्या हैं ?
अथवा 
निर्देशन के चार तत्त्वों की संक्षिप्त व्याख्या करें।
उत्तर:
निर्देशन के तत्त्व-निर्देशन कोई एक कार्य नहीं वरन् अनेक कार्यों या तत्त्वों का समूह है।
निर्देशन के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-
1. पर्यवेक्षण-पर्यवेक्षण निर्देशन कार्य का एक प्रमुख तत्त्व है। इसका अभिप्राय कार्य पर अधीनस्थों की देखभाल करना और उसकी समस्याओं के समाधान में मदद करना है ताकि संस्था के सभी कार्य योजनाओं के अनुरूप हो सकें।

2. नेतृत्व-निर्देशन का एक प्रमुख तत्त्व नेतृत्व है। नेतृत्व व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करने की वह प्रक्रिया है, जो उन्हें स्वत: ही सांगठनिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रतिस्पर्द्धित करती है। यह संकेत करती है कि किसी व्यक्ति की उस योग्यता को जो अनुयायियों के मध्य अच्छे पारस्परिक सम्बन्धों को बनाये रखने में तथा उन्हें अभिप्रेरित करने की जिससे वे सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति में अपना योगदान दे सकें।

3. अभिप्रेरणा-अभिप्रेरणा का अर्थ है किसी भी कार्य या क्रिया को प्रेरित अथवा प्रभावित करना। व्यवसाय के सन्दर्भ में, इसका अर्थ उस प्रक्रिया से है जो अधीनस्थों को निर्धारित सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक वांछित रूप से कार्य करने के लिए तैयार करती है। इस प्रकार अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को, वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है। यह व्यक्तियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर निर्भर करती है।

4. सम्प्रेषण-सम्प्रेषण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भाव, विचार, तथ्य, अनुभव इत्यादि का आदानप्रदान होता है। जिसका उद्देश्य दो व्यक्तियों के मध्य या आपस में आपसी समझ पैदा करना है।

निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
प्रभावी सम्प्रेषण की सांगठनिक बाधाएँ लिखिए।
अथवा 
सम्प्रेषण की किन्हीं चार भाषा सम्बन्धी बाधाओं का वर्णन कीजिये।
अथवा 
सम्प्रेषण की मुख्य बाधाओं को विस्तार से स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
सम्प्रेषण की बाधाएँ
सम्प्रेषण की मुख्य-मुख्य बाधाओं को निम्न प्रकार से वर्गीकृत कर स्पष्ट किया जा सकता है-
I. संकेतिक/संकेतीय बाधाएँ-
यह भाषा की वह शाखा है जो शब्दों तथा वाक्यों के अर्थ से सम्बन्ध रखती है। अत: इन्हें सम्प्रेषण की भाषा सम्बन्धी बाधाएँ भी कहा जा सकता है। ये बाधाएँ उन समस्याओं तथा बाधाओं से सम्बन्धित हैं जो सन्देश की एनकोडिंग तथा डिकोडिंग करने की प्रक्रिया में उन्हें शब्दों अथवा संकेतों में परिवर्तित करते समय आती हैं। ये बाधाएँ निम्नलिखित हैं-

1. सन्देश की अनुपयक्त अभिव्यक्ति-कई बार अधिकारी अधीनस्थों को निर्दिष्टं अर्थ नहीं समझा पाता है। यह सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति अपर्याप्त शब्द भण्डार के कारण, गलत शब्दों के प्रयोग करने से, आवश्यक शब्दों का प्रयोग नहीं करने के कारण इत्यादि से हो सकता है।

2. विभिन्न अर्थों सहित संकेतक-एक शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं। सन्देश प्राप्तकर्ता को शब्द के उसी अर्थ को समझना है जो सन्देश प्रेषक उसे समझाना चाहता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो भी सम्प्रेषण में बाधा आती है। 

3. त्रुटिपूर्ण रूपांतर/अनुवाद-कुछ स्थितियों में, सम्प्रेषण का मसौदा मूलरूप से किसी एक भाषा (अंग्रेजी) में तैयार किया जाता है और इसे कर्मचारियों को समझाने के लिए इसका हिन्दी में अनुवाद करना होता है। यदि अनुवादक दोनों ही भाषाओं का अच्छा जानकार नहीं है, तो सम्प्रेषण को अन्य अर्थ देने के कारण अनुवाद में गलतियाँ हो सकती हैं। इस प्रकार त्रुटिपूर्ण अनुवाद भी सम्प्रेषण में एक बाधा का कार्य करता है।

4. अस्पष्ट संकल्पनाएँ-कुछ सम्प्रेषणों की विभिन्न संकल्पनाएँ, भिन्न व्याख्याओं के कारण हो सकती हैं। दोनों पक्षकार जब सम्प्रेषण की अलग-अलग व्याख्या करने लगते हैं तब भी सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न हो जाती है।

5. तकनीकी विशिष्ट शब्दावली-कई बार विशेषज्ञ अपने सन्देश में ऐसे तकनीकी शब्दों का प्रयोग अधिक करते हैं जो सन्देश प्राप्तकर्ता समझ नहीं पाते हैं। क्योंकि वे सम्बन्धित क्षेत्र के विशेषज्ञ नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में सन्देशों को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण भी सम्प्रेषण में बाधा आती है।

6. शारीरिक हाव-भाव की अभिव्यक्ति की डिकोडिंग-सामान्यतया सन्देश प्रेषक के शरीर के हाव भाव तथा संकेत सन्देश देने में अत्यधिक महत्त्व रखते हैं। ङ्केऐसी स्थिति में जो कुछ कहा जाता है तथा शरीर के हावभाव द्वारा जो व्यक्त होता है उसमें यदि तालमेल नहीं हो तो भी सम्प्रेषण का गलत अर्थ निकाला जा सकता है। 

II. मनोवैज्ञानिक बाधाएँ-
भावनात्मक अथवा मनोवैज्ञानिक कारक सम्प्रेषकों की बाधाओं के कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए चिंतित व्यक्ति तथा क्रोधी व्यक्ति उपयुक्त तरीके से सम्प्रेषण नहीं कर सकता है। सम्प्रेषक की कुछ मनोवैज्ञानिक बाधाएँ निम्नलिखित हैं-
1. असामयिक मूल्यांकन-कुछ स्थितियों में लोग सन्देश के अर्थ का मूल्यांकन पहले से ही कर लेते हैं, इसके पहले कि सन्देश प्रेषक अपने सन्देश को पूरा करे। इस प्रकार का समय से पहले किया गया मूल्यांकन पूर्वकल्पित धारणाओं और पक्षपात के कारण होता है और यह स्थिति सम्प्रेषण के विरुद्ध मानी जाती है।

2. सावधानी का अभाव या ध्यान न होनासन्देश प्राप्तकर्ता का दिमाग स्थिर नहीं होकर और कहीं हो या वह ध्यानमग्न हो तो वह सन्देश को ध्यानपूर्वक नहीं सुन पायेगा। यह स्थिति भी एक मुख्य मनोवैज्ञानिक बाधा के रूप में कार्य करती है।

3. सम्प्रेषण के प्रसारण में लोभ/क्षय तथा अपर्याप्त प्रतिधारण-प्रायः मौखिक सम्प्रेषण में जब सम्प्रेषण विभिन्न स्तरों से प्रसारित होता है, उत्तरोत्तर सन्देश का प्रसारण का परिणाम सन्देश का क्षय, अथवा अशुद्ध सूचना के रूप में प्रतिफलित होता है। अकुशल प्रतिधारण क्षमता एक अन्य सम्प्रेषण की बाधा है। जो व्यक्ति सूचना को अधिक समय तक प्रतिधारण नहीं कर सकते, वे या तो रुचि नहीं लेते या असावधान होते हैं।

4. अविश्वास-सन्देश प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्ता के मध्य अविश्वास की स्थिति भी सम्प्रेषण में एक बाधा का कार्य करती है।

III. सांगठनिक बाधाएँ-
वे कारक जो सांगठनिक संरचना, आधारिक सम्बन्धों, नियम तथा अधिनियम इत्यादि से सम्बन्धित हैं, कभीकभी प्रभावी सम्प्रेषण में बाधाओं के रूप में कार्य करते हैं। कुछ प्रमुख सांगठनिक बाधाएँ निम्नलिखित हैं-
1. सांगठनिक नीति-यदि सांगठनिक नीति पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो, सम्प्रेषण के स्वतन्त्र प्रवाह में सहायक नहीं हो तो यह स्थिति सम्प्रेषण की प्रभावशीलता में बाधा पहुँचाती है।

2. नियम तथा अधिनियम-संस्था के कठोर नियम तथा बोझिल प्रतिक्रियाएँ सम्प्रेषण में बाधक हो सकती हैं। उसी प्रकार से निर्दिष्ट माध्यमों से सम्प्रेषण विलम्ब के रूप में परिलक्षित हो सकता है।

3. पदवी/पद-सन्देश प्रेषक तथा सन्देश प्राप्त करने वाले के बीच पद की दूरी मनोवैज्ञानिक बाधा उत्पन्न कर सकती है। अपनी पदवी से प्रभावित अधिकारी अर्थात् प्रेषक अपने अधीनस्थों को अपनी भावनाओं की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की अनुमति प्रदान नहीं करता।

4. संगठन-संरचना की जटिलता-किसी भी संगठन में जहाँ प्रबन्ध स्तरों की संख्या अधिक है, सम्प्रेषण में विलम्ब होता है तथा उसमें विकृति भी आने लगती है। क्योंकि सूचनाएँ विभिन्न स्तरों से जितनी बार होकर गुजरती हैं उतना ही उनका क्षय होता है या अर्थ बदल जाता है।

5. सांगठनिक सुविधाएँ-यदि सम्प्रेषण के लिए निर्बाध, स्पष्ट तथा समय पर सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हों तो सम्प्रेषण में बाधा आती है। निरन्तर सभाएँ होना, सुझाव पेटी, शिकायत पेटी, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जनसमूह, कार्य संचालन में पारदर्शिता इत्यादि सम्प्रेषण के स्वतन्त्र प्रवाह को प्रोत्साहित करती हैं। इन सुविधाओं का अभाव सम्प्रेषण सम्बन्धित समस्याएँ उत्पन्न करता है। 

IV. व्यक्तिगत बाधाएँ-
सन्देश प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्ता दोनों के व्यक्तिगत कारक भी सम्प्रेषण के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं। कुछ प्रमुख व्यक्तिगत बाधाएँ निम्नलिखित हैं-
1. सत्ता के सामने चुनौती का भय-यदि कोई अधिकारी यह अनुमान लगाता है कि कोई विशेष सूचना/सम्प्रेषण उसकी सत्ता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है तो वह उस सम्प्रेषण को रोक सकता है या प्रतिबन्ध लगा देता है।

2. अधिकारी का अपने अधीनस्थों में विश्वास का अभाव-यदि अधिकारी अपने अधीनस्थों की कुशलता, योग्यता एवं दक्षता में विश्वास नहीं करता या वह उनसे आश्वस्त नहीं होता तो वह उनके विचार तथा सुझावों को कोई महत्त्व नहीं देता है।

3. सम्प्रेषण में अनिच्छा-कभी-कभी कर्मचारी/ अधीनस्थ अपने अधिकारियों से सम्प्रेषण के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते, यदि उन्हें लगता है कि यह उनके हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहा है।

4. उपयुक्त प्रोत्साहनों का अभाव-यदि सम्प्रेषण के लिए कोई अभिप्रेरणा अथवा प्रोत्साहन नहीं हो, कर्मचारी सम्प्रेषण के लिए पहल नहीं करेंगे। उदाहरण के लिए यदि अच्छे सुझाव के लिए कोई प्रशंसा/सराहना अथवा प्रतिफल नहीं हो तो कर्मचारी कोई उपयोगी सुझाव देने के लिए इच्छुक नहीं रहेंगे।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 2. 
"एक प्रबन्धक की प्रभाविता उसके प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण की योग्यता पर निर्भर करती है।" समझाइये।
अथवा 
"एक प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था के अभाव में प्रबन्धकीय कार्यों को सम्पन्न नहीं किया जा सकता है।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने उत्तर के समर्थन में कोई चार कारण दीजिये।
उत्तर:
प्रभावी सम्प्रेषण के लक्षण
सम्प्रेषण की सफलता व सार्थकता केवल सन्देशों के प्रेषण में ही नहीं होती, अपितु सन्देश प्राप्तकर्ता पर उसका क्या प्रभाव पड़ा है इस पर भी निर्भर करती है। जब कोई सन्देश किसी व्यक्ति तक पहुँचाया जाता है तो इसका एक निश्चित उद्देश्य होता है। यदि सन्देश इस प्रकार से सम्प्रेषित किया गया है कि जिससे उस उद्देश्य की पूर्ति हो जाये तो यह प्रभावी सम्प्रेषण होने की स्थिति कहलायेगी।

संक्षेप में एक प्रभावी सम्प्रेषण के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित बतलाये जा सकते हैं-
1. सम्प्रेषण करने से पहले विचार-किसी भी सन्देश को अधीनस्थों को बतलाने से पहले अधिकारी को स्वयं ही सभी परिप्रेक्ष्य में विचार कर लेना चाहिए। जार्ज आर. टैरी ने लिखा है कि "सन्देश भेजने से पूर्व जो कुछ वह भेज रहा है, उस पर प्रेषक को स्पष्ट विचार तथा स्थिति का ज्ञान होना चाहिए।"

2. सन्देश प्राप्तकर्ता की आवश्यकतानुसार सम्प्रेषण करें-सन्देश प्रेषक को सन्देश प्राप्तकर्ता की समझ का स्तर पारदर्शक के समान स्पष्ट होना चाहिए। अधिकारी को अपना सम्प्रेषण अधीनस्थों की शिक्षा तथा उनकी समझ के स्तर के अनुसार ही व्यवस्थित करना चाहिए।

3. सम्प्रेषण में भविष्यदृष्टा हो-प्रबन्धकों को सम्प्रेषण में भावी सम्भावनाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यथार्थ में प्रभावी सम्प्रेषण पद्धति तो वह होगी जो न केवल विद्यमान समस्याओं के समाधान में ही सहायक हो, अपितु भावी सम्भावनाओं के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर सके।

4. सन्देश में भाषा, शैली तथा उसकी विषयवस्तु के लिए जागरूकता-सन्देश की विषय-वस्तु, शैली तथा भाषा का प्रयोग इस प्रकार का होना चाहिए जो सन्देश प्राप्तकर्ता को समझ में आ जाये तथा सुनने वाले की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाए। सन्देश ऐसा होना चाहिए जो सुनने वालों को उनकी प्रतिक्रियाएँ देने में उत्प्रेरक का कार्य करे।

5. सम्प्रेषण सन्देश प्राप्त करने वाले के लिए सहायक व मूल्यवान हो-सन्देश को अन्य लोगों को व्यक्त करते समय, यह आवश्यक है कि जिनके साथ सम्प्रेषण करना है उन लोगों की रुचि तथा आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाये। यदि सन्देश प्राप्तकर्ताओं की रुचि तथा आवश्यकताओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है तो यह अवश्य प्राप्तकर्ता से उनकी प्रतिक्रिया जानने में सहायक सिद्ध होगा।

6. अन्य लोगों से परामर्श करना-सन्देश को सम्प्रेषित करने से पहले यह अच्छा रहेगा कि सम्प्रेषण की योजना अन्य सम्बन्धित लोगों को सम्मिलित करके बना लेनी चाहिए। अधीनस्थों की भागीदारी, उनकी तत्काल स्वीकृति तथा वांछित सहयोग प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होती है।

7. एक अच्छा श्रोता होना-प्रबन्धक को सन्देश प्रेषित करते समय एक अच्छा श्रोता भी होना चाहिए। उसे इस प्रकार के संकेत अवश्य देने चाहिए कि वह अपने अधीनस्थों को सुनने में रुचि ले रहा है तथा उनके हितों का पूरा ध्यान रख रहा है।

8. प्रतिपुष्टि निश्चित करना-सन्देश प्रेषक प्रेषित सन्देश के सम्बन्ध में सन्देश-प्राप्तकर्ता से सम्बन्धित प्रश्न पूछकर उसकी सफलता का पता लगा सकता है। सन्देश प्राप्तकर्ता को भी सम्प्रेषण का प्रत्युत्तर द्वारा जवाब देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सम्प्रेषण की प्रक्रिया को प्राप्त प्रतिपुष्टि के आधार पर सुधारा जा सकता है ताकि वह अधिक प्रभावी बन सके। 

9. सम्प्रेषण का अनुसरण-सम्प्रेषण में नियमित रूप से दिये गये आदेशों या सन्देशों का अनुसरण होना तथा उनका पुनरावलोकन होना चाहिए। सन्देशों को निष्फल बनाने वाले कारणों का सही-सही पता लगा कर उनका निराकरण किया जाना चाहिए। इस प्रकार का अनुसरण आदेशों के या सन्देशों के सफल क्रियान्वयन में सहायक सिद्ध होता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था वही होती है जिसमें उपर्युक्त लक्षण (गुण) विद्यमान हों। इसके अभाव में प्रबन्धकीय कार्यों को सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि हम सम्प्रेषण से वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर सकते हैं। 

प्रश्न 3. 
निर्देशन का महत्त्व स्पष्ट कीजिये।
अथवा 
संगठन में प्रत्येक क्रियाकलाप निर्देशन के माध्यम से प्रारम्भ होता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में कोई चार कारण दीजिए।
अथवा 
"निर्देशन प्रबन्ध प्रक्रिया का हृदय है।" क्या आप सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में कोई चार कारण दीजिए।
उत्तर:
निर्देशन का महत्त्व 
निर्देशन का संगठन में महत्त्व इस कथन से समझा जा सकता है कि संगठन में प्रत्येक क्रियाकलाप अर्थात् प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ केवल निर्देशन के द्वारा ही होता है। यह व्यक्तियों या कर्मचारियों को, समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकत्रित. करता है। इसके माध्यम से ही प्रबन्धक संस्था में न केवल कर्मचारियों को यह बतलाते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, कब करना चाहिए तथा कार्य को कैसे करना है बल्कि यह भी देखता है कि उसके निर्देशों का क्रियान्वयन उपयुक्त परिप्रेक्ष्य में हुआ है या नहीं। यह संगठन के प्रभावपूर्ण कार्य निष्पादकता में एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में कार्य करता है। प्रबन्धक के इस कार्य की सफलता पर अन्य कार्यों की सफलता निर्भर करती है क्योंकि यह कार्य अन्य सभी कार्यों में परस्पर सम्बन्ध भी स्थापित करता है तथा संस्था की सफलता को सुनिश्चित करता है। निर्देशन के व्यापक महत्त्व के कारण ही मार्शल ई. डिमोक ने कहा है कि "निर्देशन प्रबन्ध प्रक्रिया का हृदय है।" यह कथन शतप्रतिशत सही है और हम इससे पूर्णतया सहमत हैं। निर्देशन के व्यापक महत्त्व को हम संक्षेप में निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-

1. संगठन में व्यक्तियों के कार्यों को प्रारम्भ करने में सहायता करना-संगठन में व्यक्तियों अर्थात् कर्मचारियों के उन कार्यों को प्रारम्भ करने में निर्देशन सहायता करता है जो संस्था के वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये जाते हैं।

2. संगठन में कर्मचारियों के व्यक्तिगत प्रयासों में सामन्जस्य स्थापित करना-निर्देशन संगठन में कर्मचारियों के व्यक्तिगत प्रयासों में इस प्रकार सामन्जस्य स्थापित करता है कि प्रत्येक कर्मचारी के कार्य का योगदान संस्था के कार्यों के निष्पादन में तथा सफलता में हो।

3. कर्मचारियों का मार्गदर्शन एवं नेतृत्व प्रदान करना-निर्देशन कर्मचारियों का मार्गदर्शन इस प्रकार करता है कि वे अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं का पूर्ण उपयोग कर सकें। इसके लिए निर्देशन उन्हें प्रोत्साहित करता है तथा प्रभावपूर्ण नेतृत्व भी प्रदान करता है। एक अच्छा नेता सदैव अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता की पहचान करने में सक्षम होता है तथा उन्हें प्रोत्साहित करता है कि वे उस क्षमता का पूर्ण उपयोग कार्य निष्पादन में कर सकें। 

4. संगठन में आवश्यक परिवर्तनों को प्रारम्भ करने में मदद करना-निर्देशन संगठन में आवश्यक परिवर्तनों को प्रारम्भ करने में मदद करता है। सामान्यतया कर्मचारी संगठन में नये परिवर्तनों का विरोध करते हैं। अभिप्रेरणा के द्वारा प्रभावी निर्देशन सम्प्रेषण तथा नेतृत्व में सहायता करता है।

5. संस्था में स्थिरता तथा सन्तुलन बनाये रखना-प्रभावी निर्देशन संस्था में स्थिरता तथा संतुलन बनाये रखने में भी सहायता प्रदान करता है क्योंकि यह आपसी सहयोग तथा प्रतिबद्धता को लोगों के बीच बढ़ाता है तथा विभिन्न समूहों, क्रियाओं तथा विभागों के मध्य संतुलन बनाये रखने में भी सहायक होता है।

6. वास्तविक कार्यों तथा योजनाओं या निर्णयों में दूरी को समाप्त करना-निर्देशन से वास्तविक कार्यों तथा पूर्ण नियोजित कार्यों या निर्णयों के बीच की दूरी को समाप्त (पाया) किया जा सकता है। निर्देशन में प्रबन्धक यह देखता है कि कार्य पूर्व निर्धारित योजनाओं या निर्णयों के अनुरूप हो रहे हैं अथवा नहीं। यदि नहीं, तो वह आवश्यक मार्गदर्शन एवं आदेश-निर्देश देता है।

7. प्रभावकारी समन्वय की प्राप्ति में सहायकनिर्देशन से संस्था में प्रभावकारी समन्वय की प्राप्ति संभव है। प्रभावकारी निर्देशन से संस्था के सभी व्यक्तियों, विभागों तथा कार्यों में समन्वय के साथ-साथ बाहरी पक्षकारों, सरकार, ग्राहक, प्रतिस्पर्धी संस्थाओं इत्यादि के साथ भी प्रभावकारी समन्वय आसानी से स्थापित हो जाता है।

8. मानवीय संसाधनों का विकास-प्रभावकारी निर्देशन संस्था के मानवीय संसाधनों का समुचित विकास करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रबन्धक निर्देशन कार्य के अन्तर्गत कर्मचारियों को आदेश-निर्देश ही नहीं देता है बल्कि उन्हें अभिप्रेरित भी करता है तथा उचित नेतृत्व भी प्रदान करता है।

9. भावी प्रबन्धकों का विकास-निर्देशन एक ऐसा कार्य है जिससे भावी प्रबन्धकों के विकास में भी सहायता मिलती है। जब प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को आदेश-निर्देश देते हैं, अभिप्रेरित करते हैं या नेतृत्व प्रदान करते हैं, तो वे सभी अधीनस्थ भी धीरे-धीरे उस कला को सीखने लगते हैं। इससे भावी प्रबन्धकों का स्वतः विकास होने लगता है।

10. व्यावसायिक संस्था की सफलता के लिए आवश्यक-निर्देशन के सहारे ही व्यावसायिक संस्थाएँ अपनी व्यावसायिक योजनाओं एवं निर्णयों को क्रियान्वित करती हैं। इसके सहारे ही व्यावसायिक योजनाओं एवं निर्णयों को क्रियान्वित किया जाता है। इसी से संस्था के सभी संसाधनों का पूर्ण कुशलता के साथ उपभोग किया जा सकता है।

11. अन्य प्रबन्धकीय कार्यों के संयोजन में सहायक-निर्देशन वह कार्य है जो प्रबन्ध के अन्य सभी कार्यों के बीच की एक कड़ी है। नियोजन एवं संगठन प्रबन्ध के प्रारम्भिक कार्य हैं, जबकि नियन्त्रण प्रबन्ध प्रक्रिया का अन्तिम कार्य है। निर्देशन इनके बीच का कार्य है जिसके एक ओर नियोजन एवं संगठन कार्य है तो दूसरी ओर नियन्त्रण का कार्य है। निर्देशन कार्य के द्वारा ही इन शेष कार्यों का संयोजन सम्भव है। शेष कार्यों की सफलता निर्देशन की सफलता में निहित है। 

12. उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-निर्देशन संस्था के ही नहीं, कर्मचारियों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति में भी सहायक है। प्रभावकारी निर्देशन के द्वारा प्रबन्धक संस्था में ऐसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है जिससे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करना आसान हो जाता है। इतना ही नहीं, इस वातावरण में संस्था के कर्मचारियों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक सभी उद्देश्य भी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं।

13. सामूहिक कार्यों की सफलता में सहायकसभी सामूहिक कार्यों की सफलता के लिये निर्देशन आवश्यक है। दुनिया में जहाँ कहीं भी दो या अधिक व्यक्ति मिलकर कार्य करते हैं, निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। निर्देशन के बिना सामूहिक कार्यों में सफलता प्राप्त करना कठिन नहीं, बल्कि असम्भव भी है। इसीलिए निर्देशन को एक सार्वभौमिक कार्य (Universal function) कहा जाता है।

14. प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था में सहायकनिर्देशन से प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था होती है। इसका कारण यह है कि इसमें सम्प्रेषण एकमार्गीय होता है। इसके अतिरिक्त कर्मचारियों की प्रकृति, व्यवहार एवं गुण को देखते हुए निर्देशन दिया जाता है, जिससे उनका अक्षरशः पालन होता है।

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प्रश्न 4. 
सम्प्रेषण प्रक्रिया के विभिन्न तत्त्वों को समझाइए।
अथवा 
सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख तत्त्वों को बतलाइये।
उत्तर:
सम्प्रेषण का अर्थ-सामान्य अर्थ में, सम्प्रेषण से तात्पर्य समान प्रकार की समझ बनाने से है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भाव, विचार, तथ्य, अनुभव इत्यादि का आदान-प्रदान होता है, जिसका उद्देश्य दो व्यक्तियों के मध्य आपस में आपसी समझ पैदा करना है।

लुईस ए. ऐलन के अनुसार, "सम्प्रेषण से अभिप्राय उन सभी क्रियाओं से है जो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपनी बात समझाने के लिए करता है। इसमें एक व्यवस्थित तथा निरन्तर चलने वाली कहने, सुनने तथा समझने की प्रक्रिया सम्मिलित है।"

हेरोल्ड कून्ट्ज एवं हैनिज वैहरिच के अनुसार, "सम्प्रेषण सूचनाओं का प्रेषक के द्वारा प्राप्तकर्ता को स्थानान्तरण है ताकि वह उन सूचनाओं को उसी रूप में समझ सके।"

रोजरस के अनुसार, "सम्प्रेषण एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति आपस में सूचनाओं का आदानप्रदान करते हैं ताकि वे (एक जैसी समझ बना सकें) पारस्परिक समझ बना सकें।"

निष्कर्ष-सम्प्रेषण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य (समान) पारस्परिक समझ बनाने के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान की एक प्रक्रिया है।

स्पष्ट है कि सम्प्रेषण एक व्यवस्थित एवं सतत् प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत दो या अधिक व्यक्ति सन्देशों, उनके विचारों, तथ्यों, अर्थों, मनोवृत्तियों, आपत्तियों, सम्मतियों आदि का आदान-प्रदान करते हैं। इस प्रक्रिया में एक छोर की प्रक्रिया तब पूरी हुई मानी जाती है जबकि सन्देश प्राप्तकर्ता सन्देश को ठीक उसी अर्थ एवं भावना के साथ समझ लेता है जिस अर्थ एवं भावना के साथ सन्देश प्रेषक सन्देश देता है। यदि इसमें कोई अवरोध उत्पन्न हो जाता है तो सम्प्रेषण प्रक्रिया अधूरी ही रहती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि इन अवरोधों को दूर करके आपसी समझएवं सम्मति उत्पन्न नहीं कर ली जाती है।

सम्प्रेषण के आवश्यक तत्त्व 
सम्प्रेषण प्रक्रिया के प्रमुख आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं-
1. सन्देश भेजने वाला/प्रेषक-प्रेषक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अपने विचार अथवा सूचनाएँ सन्देश प्राप्तकर्ता को भेजता है। प्रेषक वस्तुतः सम्प्रेषण के स्रोत को दर्शाता है।

2. कुट/सन्देश-सम्प्रेषण में भेजे जाने वाला सन्देश विचार, भाव, सुझाव, आदेश तथा सूचनाओं आदि के रूप में हो सकता है। क्योंकि यही सन्देश प्रेषक द्वारा सन्देश प्राप्तकर्ता को भेजा जाता है।

3. एनकोडिंग-यह वह प्रक्रिया है जो सन्देश जिसे भेजना है उसे सम्प्रेषण के संकेतों में परिवर्तित करती है, जैसे शब्द, तस्वीरें, ग्राफ एवं आरेख चित्र, क्रिया अथवा व्यवहार इत्यादि।

4. माध्यम-माध्यम वे साधन हैं जिनके द्वारा एनकोडिंग सन्देश को सन्देश प्राप्तकर्ता को भेजा जाता है। ये माध्यम एक लिखित रूप में, प्रत्यक्ष आमने-सामने बातचीत द्वारा, दूरभाष, इन्टरनेट इत्यादि हो सकते हैं।

5. डिकोडिंग-जब सन्देश प्राप्तकर्ता को सन्देश प्राप्त हो जाता है तो वह उसकी व्याख्या करता है। वह शब्दों, संकेतों, चित्रों आदि का अर्थ लगाता है और उन्हें समझने का प्रयास करता है। सम्प्रेषण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्राप्तकर्ता सन्देशों की किस प्रकार व्याख्या करता है।

6. सन्देश प्राप्तकर्ता-सन्देश प्राप्तकर्ता वह व्यक्ति होता है जो प्रेषक द्वारा भेजे गये सन्देश को प्राप्त करता है।

7. प्रतिपुष्टि-सम्प्रेषण प्रक्रिया तब पूरी होती है जबकि सन्देश प्रेषक को यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि दिया गया सन्देश यथासमय उपयुक्त व्यक्ति के पास पहुँच गया है तथा उसने उसे प्रेषक की भावना एवं अर्थों के अनुरूप समझ लिया है।

8. ध्वनि/कोलाहल-ध्वनि से तात्पर्य प्रभावी सम्प्रेषण में कुछ रुकावट या बाधा आने से है। यह बाधा प्रेषक के कारण भी हो सकती है, सन्देश अथवा सन्देश प्राप्तकर्ता के कारण भी हो सकती है। ध्वनि के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-(i) अस्पष्ट संकेत जिनसे एनकोडिंग में त्रुटि होती है, (ii) एक दयनीय दूरभाष सम्बन्ध, (iii) एक लापरवाह सन्देश प्राप्तकर्ता, (iv) त्रुटिपूर्ण डिकोडिंग अर्थात् सन्देश का गलत अर्थ निकालना, (v) पक्षपात के कारण सन्देश का सही अर्थ नहीं निकालना, (vi) संकेत तथा विशिष्ट मुद्रा जो सन्देश को विकृत करती है।

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प्रश्न 5. 
सम्प्रेषण के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
सम्प्रेषण का महत्त्व
सम्प्रेषण प्रबन्धकीय क्रियाओं के सबसे मुख्य कार्यों में से है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत समय एक प्रबन्धक पढ़ने, लिखने, सुनने, मार्गदर्शन करने, आदेश देने, अनुमोदन, डाँटने इत्यादि में अपना समय लगाता है। सम्प्रेषण कौशल पर ही प्रबन्धक की कुशलता निर्भर करती है। सम्प्रेषण योग्यता पर ही अपने अधीनस्थों तथा बाहरी एजेन्सियों के साथ उसके सम्बन्ध निर्भर करते हैं। अमेरिकन प्रबन्ध समिति के एक पूर्व सभापति ने लिखा है कि प्रबन्धक के लिए पहली समस्या आज सम्प्रेषण की है। बर्नार्ड ने इसे सभी सामूहिक क्रियाओं का आधार माना है। यथार्थ में सम्प्रेषण प्रबन्धकीय प्रक्रिया के लिए एक चिकने पदार्थ की तरह कार्य करती है। संक्षेप में, प्रबन्ध में सम्प्रेषण के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है-

1. समन्वयन के आधार के रूप में कार्य करना-सम्प्रेषण समन्वयन के एक आधार के रूप में कार्य करता है। यह विभिन्न विभागों, क्रियाओं तथा संस्था में कार्यरत व्यक्तियों के मध्य समन्वयन प्रदान करता है। इस प्रकार का समन्वय संगठन के उद्देश्यों के विवरण, इसे किस प्रकार प्राप्त करना है तथा भिन्न व्यक्तियों के मध्य परस्पर सम्बन्धों के द्वारा प्रदान/कार्यान्वित किया जाता है। 

2. उद्यम के निर्विघ्न चलने में सहायता करनाउद्यम के निर्विघ्न तथा बिना किसी अवरोध के चलने में सम्प्रेषण सहायता करता है। संगठन की सभी अन्तःक्रियाएँ सम्प्रेषण पर निर्भर करती हैं। यह केवल सम्प्रेषण ही है जो संस्था में बिना किसी बाधा या रुकावट के कार्य करने में एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। संगठन के अस्तित्व को बनाये रखने में सम्प्रेषण ही आधार का कार्य करता है।

3. निर्णयन के लिए आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध कराना-सम्प्रेषण निर्णयन के लिए आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध कराता है। इसके अभाव में प्रबन्धक के लिए कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में कठिनाई आ सकती है। यह सम्प्रेषण ही है जिसके आधार पर सही निर्णय लिये जा सकते हैं।

4. प्रबन्धकीय कुशलता में वृद्धि करनासम्प्रेषण तीव्र तथा प्रबन्धकीय कार्यों के प्रभावी निष्पादन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। प्रबन्धक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का सम्प्रेषण करते हैं, आदेश जारी करते हैं, कार्य तथा उत्तरदायित्व सौंपते हैं तथा अधीनस्थों का निरीक्षण करते हैं। इन सभी कार्यों के निष्पादन में सम्प्रेषण की आवश्यकता होती है। इस प्रकार सम्प्रेषण सम्पूर्ण संस्था में लचीलापन लाता है तथा संस्था की कार्यकुशलता को बनाये रखता है एवं उसमें वृद्धि करता है।

5. सहयोग एवं औद्योगिक शान्ति को बढ़ावा देना-सम्प्रेषण प्रबन्ध और कर्मचारियों के मध्य आपसी सहयोग स्थापित करता है। इसके साथ ही वह प्रबन्ध तथा कर्मचारियों के मध्य सहयोग एवं आपसी समझ को बढ़ाता है।

6. प्रभावी नेतृत्व को स्थापित करना-सम्प्रेषण को नेतृत्व का आधार माना जाता है। प्रभावी सम्प्रेषण अधीनस्थों को प्रभावित करने में सहायक होता है । यही कारण है कि यह सच्चाई सभी स्वीकार करते हैं कि व्यक्तियों को प्रभावित करते समय, नेता में अच्छे सम्प्रेषण कौशल का होना आवश्यक है।

7. मनोवृत्ति बढ़ाना तथा अभिप्रेरित करनाप्रभावी सम्प्रेषण कर्मचारियों को कार्य के शारीरिक तथा सामाजिक पहलुओं में व्यवस्थित/समझौता करने में सहायता करता है। यह उद्योग में मानवीय सम्बन्धों में सुधार लाता है। सम्प्रेषण, प्रबन्धकीय भागीदारी/साझेदारी · तथा संस्था के प्रजातान्त्रिक प्रतिरूप का आधार है। यह कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों की मनोवृत्ति को बढ़ाने में भी सहायक होता है।

8. प्रभावकारी नियन्त्रण व्यवस्था-सम्पूर्ण नियन्त्रण प्रक्रिया में प्रबन्धक को अनेक प्रकार की सूचनाओं की आवश्यकता होती है। इस महत्त्वपूर्ण प्रबन्धकीय कार्य को बिना प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था के पूरा करना सम्भव नहीं होता है।

9. प्रयासों में समन्वय-संस्था के कार्यों को करने के लिए अनेक व्यक्ति एवं विभाग होते हैं। इन सभी के कार्यों में एकरूपता तथा क्रमबद्धता स्थापित करने तथा संस्था के उद्देश्यों को पूरा करने में सम्प्रेषण का अपना महत्त्व होता है। क्योंकि बिना सम्प्रेषण के यह कार्य सम्भव ही नहीं है।

10. सन्देहों, भ्रमों एवं अज्ञानताओं का निवारणसन्देह एवं भ्रम सभी आपसी सम्बन्धों के विनाश की जड़ हैं । अज्ञानता मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सम्प्रेषण इन सभी विनाशकारी तत्त्वों एवं शत्रुओं का नाश करने में सहयोग करता है। यथासमय सही सूचनाओं तथा तथ्यों का आदान-प्रदान करके सन्देह एवं भ्रम को दूर किया जा सकता है। 

11. पारस्परिक सहयोग की भावना का विकासप्रभावकारी सम्प्रेषण कर्मचारियों में पारस्परिक सहयोग की भावना का विकास करता है। सम्म्प्रेषण की सहायता से कर्मचारी एक-दूसरे की भावना एवं विचारों को समझने लगते हैं तथा एक-दूसरे के लिए अधिक समन्वित भाव से सहयोग करने के लिए तत्पर होते हैं।

12. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध की स्थापना-संस्था में प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध की स्थापना के लिए सम्प्रेषण एक प्राथमिक शर्त है। इसके बिना प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध की कल्पना करना ही व्यर्थ है। 

13. बाह्य पक्षकारों से ठोस सम्बन्धों के निर्माण में सहायक-प्रत्येक संस्था को अपने अस्तित्व को बनाये रखने तथा अपना विकास करने के लिए बाह्य पक्षकारों यथा ग्राहक, श्रम संघ, विनियोजक, प्रतिस्पर्धी संस्थाएँ, स्थानीय समुदाय, सरकार, तकनीकी संस्थाएँ, धार्मिक संस्थाएँ इत्यादि से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना होता है। इस हेतु प्रभावकारी सम्प्रेषण व्यवस्था विकसित करनी पड़ती है।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 6. 
निर्देशन से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताएँ बतलाइये।
उत्तर:
निर्देशन का अर्थ-सामान्य अर्थ में निर्देशन से तात्पर्य निर्देश देने तथा व्यक्तियों के कार्य में मार्गदर्शन करने से है। संगठन के प्रबन्धन के संदर्भ में निर्देशन व्यक्तियों को आदेश देने, मार्गदर्शन, परामर्श, अभिप्रेरित तथा कुशल नेतृत्व प्रदान करने की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करना है। 

थियो हैमन के अनुसार, "निर्देशन में वे प्रक्रियाएँ तथा तकनीकें सम्मिलित हैं जिनका उपयोग निर्देश जारी करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि समस्त क्रियाएँ मूल योजना के अनुरूप हो रही हैं।"

कून्ट्ज एवं ओ'डोनेल के अनुसार, “निर्देशन वह पेचीदा कार्य है जिसमें वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो अधीनस्थों को अल्पकाल तथा दीर्घकालं दोनों में ही दक्षतापूर्वक एवं प्रभावपूर्ण तरीके से कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए की जाती हैं।"

अर्नेस्ट डेल के अनुसार, “क्या करना है, यह बताना एवं यह देखना या सुनिश्चित करना कि वे अपनी योग्यता से सर्वोत्तम ढंग से उसे पूरा करते हैं, ही निर्देशन है।"

निष्कर्ष-निर्देशन वह प्रबन्धन का कार्य है जिसके अन्तर्गत प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को आदेश एवं निर्देश देता है, उनके कार्यों का पर्यवेक्षण, निरीक्षण एवं मार्गदर्शन करता है, उन्हें नेतृत्व प्रदान करता है तथा कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है ताकि वे (कर्मचारी) संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में दक्षतापूर्वक एवं प्रभावी ढंग से योगदान कर सकें।"

निर्देशन की मुख्य विशेषताएँ 
निर्देशन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित बतलायी जा सकती हैं-
1. निर्देशन क्रिया को प्रारम्भ करती है-निर्देशन प्रबन्ध का एक मुख्य कार्य है। प्रबन्धक को इसका निष्पादन प्रबन्ध की अन्य क्रियाएँ, जैसे नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण तथा नियन्त्रण इत्यादि के साथ ही संगठन में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए करना पड़ता है। जहाँ अन्य कार्य, क्रिया के प्रारंभ होने से पूर्व की तैयारी से सम्बन्धित हैं, वहाँ निर्देशन संगठन में क्रिया को प्रारंभ करता है। 

2. निर्देशन प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर निष्पादित होता है-उच्च अधिकारी से लेकर पर्यवेक्षक तक प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर निर्देशन क्रिया का निष्पादन होता है। वस्तुतः जहाँ भी अधिकारी-अधीनस्थ सम्बन्ध है, वहाँ निर्देशन की प्रक्रिया स्वतः ही होती है।

3. यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया हैनिर्देशन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यह संगठन में हर समय चलने वाली प्रक्रिया है।

4. निर्देशन ऊपर से नीचे की तरफ प्रवाहित होता है-निर्देशन पहले उच्च स्तर से प्रारंभ होता है तथा फिर वह सांगठनिक अनुक्रम के द्वारा नीचे की दिशा में प्रवाहित होता है।

5. निर्देशन विभिन्न कार्यों का समूह है-निर्देशन कोई एक कार्य ही नहीं है बल्कि वह अनेक कार्यों का समूह है। इसके अन्तर्गत पर्यवेक्षण, नेतृत्व, सम्प्रेषण तथा अभिप्रेरण को सम्मिलित किया जाता है।

6. उद्देश्यों में समन्वय स्थापित करना निर्देशन का सार है-प्रबन्ध निर्देशन की सहायता से संस्था तथा कर्मचारियों के उद्देश्यों में सामन्जस्य स्थापित करके संस्था की सफलता तथा कर्मचारियों की संतुष्टि को सुनिश्चित करता है। 

7. मानव संसाधन से सम्बन्धित कार्य-निर्देशन कार्य के अन्तर्गत प्रबन्धक कर्मचारियों को आदेश-निर्देश देता है, मार्गदर्शन देता है, उनका निरीक्षण एवं नेतृत्व करता है तथा उन्हें अभिप्रेरित करता है। अतः यह मानव संसाधन से सम्बन्धित कार्य है।

8. व्यक्तियों का विकास-निर्देशन कार्य के द्वारा व्यक्तियों का विकास किया जाता है ताकि वे स्वतः कार्य करने के लिए प्रेरित हो सकें।

9. कार्य वातावरण का निर्माण-निर्देशन एक ऐसा कार्य है जिसके द्वारा संस्था में कार्य वातावरण का निर्माण किया जाता है।

10. यह समन्वयकारी कार्य है-निर्देशन समन्वयकारी कार्य है। प्रभावकारी समन्वय तभी सम्भव है जबकि प्रभावकारी निर्देशन किया जाये। इस कार्य में निर्देशन, मार्गदर्शन तथा प्रेरणा द्वारा कार्यों एवं व्यवहार में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।

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प्रश्न 7. 
निर्देशन के प्रमुख तत्त्वों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
निर्देशन के प्रमुख तत्त्व निर्देशन क्षेत्र में निम्नलिखित तत्त्व सम्मिलित हैं-
1. आदेश-निर्देश-आदेश-निर्देश प्रबन्धकों के निर्देशन कार्य के महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। प्रबन्धक कार्य प्रारम्भ करने, कार्यों में परिवर्तन एवं संशोधन करने, कार्यों को सम्पन्न करने तथा रोकने आदि के सम्बन्ध में आदेशनिर्देश जारी करता है। आदेश-निर्देश ऊपर से निम्न स्तर तक के कर्मचारियों तक पहुँचाये जाते हैं। इनके माध्यम से प्रबन्धक अधीनस्थों को यह बतलाता है कि कौन से कार्य करने हैं, उन्हें कब, किस प्रकार, किन साधनों से करना है। आदेश-निर्देशों का संस्था के सफल संचालन में एवं प्रबन्ध की सफलता में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

2. पर्यवेक्षण-निर्देशन का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पर्यवेक्षण है। निर्देशन के एक तत्त्व के रूप में संगठन के प्रत्येक प्रबन्धक को अपने अधीनस्थों का पर्यवेक्षण करना पड़ता है। इस अर्थ में, पर्यवेक्षण को एक प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है, जो वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर्मचारियों के प्रयासों के मार्गदर्शन तथा अन्य संसाधनों के प्रयोग से सम्बन्धित है। इसका अर्थ है अधीनस्थों द्वारा किये गये कार्यों का निरीक्षण तथा यह निश्चित करने के लिए कि संसाधनों के अधिकतम प्रयोग एवं कार्य लक्ष्यों को पूरा करने हेतु अधीनस्थों को आवश्यक आदेश-निर्देश देना है। पर्यवेक्षण को पर्यवेक्षक के एक कार्य-निष्पादन के रूप में भी समझा जा सकता है। संगठन के क्रम श्रृंखला के क्रियात्मक स्तर पर एक प्रबन्धकीय पद पर जैसे श्रमिकों के तत्काल ऊपर। पर्यवेक्षण कर्मचारियों के कार्य की समस्याओं तथा बाधाओं के निवारण में भी सक्रिय सहयोग करता है।

3. नेतृत्व-निर्देशन कार्य के लिए नेतृत्व आवश्यक है। अत: नेतृत्व भी निर्देशन का अभिन्न अंग या तत्त्व है। नेतृत्व एक कला है जिसके द्वारा प्रबन्धक अपने अधीनस्थों के व्यवहार का मार्गदर्शन करता है। नेतृत्व अपने अधीनस्थों के व्यवहार को इस प्रकार प्रभावित करता है कि वे सभी संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामूहिक रूप से उसके नेतृत्व में कार्य करने को तत्पर हो जाते हैं। इसके लिए नेता अपने गुणों एवं कार्य शैली में आवश्यक सुधार करता है। वह ऐसा आचरण करता है जिससे लोग उसे अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति का साधन समझने लगते हैं। ऐसे कुशल नेतृत्व से कर्मचारियों में अधिक लगन एवं उत्साह से कार्य करने की भावना विकसित होती है।

4. अभिप्रेरण-अभिप्रेरण भी निर्देशन का एक आवश्यक तत्त्व माना जाता है। अभिप्रेरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक अपने अधीनस्थों की इच्छाओं, भावनाओं तथा आवश्यकताओं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है ताकि वे संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में उत्साहपूर्वक सहयोग कर सकें। प्रबन्धक अपने अधीनस्थों की भावनाओं, आवश्यकताओं आदि को संतुष्ट करने के लिए वित्तीय एवं अवित्तीय, सकारात्मक एवं नकारात्मक सभी विधियों का उपयोग करता है।

5. सम्प्रेषण-निर्देशन के लिए सम्प्रेषण परम आवश्यक है। प्रभावकारी सम्प्रेषण या संचार व्यवस्था प्रबन्धकों के आदेशों-निर्देशों, कर्मचारियों की शिकायतों, समस्याओं, कार्य की रिपोर्टो, सुझावों आदि को यथासमय, यथास्थान पहुँचाने के लिए भी आवश्यक है। कुशल सम्प्रेषण व्यवस्था से संस्था में आपसी विश्वास के वातावरण का निर्माण भी किया जा सकता है। इससे संस्था में प्रजातान्त्रिक वातावरण का निर्माण भी किया जा सकता है।

प्रश्न 8. 
निर्देशन में पर्यवेक्षण के महत्त्व के किन्हीं छः बिन्दुओं को स्पष्ट कीजिए।
अथवा 
संगठन में पर्यवेक्षण के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये। उत्तर-संगठन में पर्यवेक्षण का महत्त्व पर्यवेक्षण किसी भी संगठन में नियन्त्रण का एक प्रमुख आधार व माध्यम माना जाता है। इसे निर्देशन में मुख्य तत्त्व के रूप में सम्मिलित किया जाता है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य संगठन में समन्वय स्थापित करना तथा यह देखना होता है कि संगठन में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा वही किया जा रहा है जो उसे दिया गया है। संगठन में पदसोपान, प्रत्यायोजन, संचार तथा नियंत्रण आदि सभी पर्यवेक्षण के बिना अधूरे ही हैं। पर्यवेक्षण का महत्त्व तब और बढ़ जाता है जबकि उत्तरदायित्व किसी एक का हो और कार्य किसी दूसरे के द्वारा कराया जा रहा हो। सही ढंग से पर्यवेक्षण व्यवस्था नहीं होने पर संगठन का क्रमशः ह्रास होने लगता है। संगठन अपने उद्देश्यों को ठीक से प्राप्त नहीं कर सकता है।

संक्षेप में, पर्यवेक्षण के महत्त्व को पर्यवेक्षक द्वारा निभायी गई विभिन्न भूमिकाओं द्वारा अग्र प्रकार से समझाया जा सकता है-
1. कर्मचारियों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक के रूप में कार्य करना-पर्यवेक्षक प्रतिदिन कर्मचारियों के सम्पर्क में रहता है तथा उनसे मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये रखता है। एक अच्छा पर्यवेक्षक कर्मचारियों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा एक दार्शनिक के रूप में कार्य करता है।

2. प्रबन्धक तथा कर्मचारियों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करना-पर्यवेक्षक प्रबन्धक तथा कर्मचारियों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करता है। वह एक तरफ कर्मचारियों को प्रबन्ध के विचारों से अवगत कराता है, दूसरी तरफ कर्मचारियों की समस्याओं को प्रबन्ध के सामने रखता है। पर्यवेक्षण द्वारा निभायी गई यह भूमिका प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों के बीच किसी भी गलतफहमी को नहीं आने देती तथा उनके मध्य किसी प्रकार के द्वन्द्व से भी बचाव करती है। .

3. सामूहिक एकता बनाये रखना-पर्यवेक्षक अपने अधीनस्थ श्रमिकों में जो उसके नियंत्रण में हैं उनमें सामूहिक एकता को बनाये रखने में एक मुख्य भूमिका निभाता है। पर्यवेक्षण आन्तरिक मतभेदों को निपटाता है तथा श्रमिकों में तालमेल बिठाकर रखता है।

4. कर्मचारियों के कार्य का निष्यादन सुनिश्चित करना-पर्यवेक्षक का महत्त्व इस रूप में भी है कि वह निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप कार्य का निष्पादन सुनिश्चित करता है। वह कार्य पूरा करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है तथा अपने श्रमिकों को प्रभावपूर्ण तरीके से अभिप्रेरित करता है।

5. कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना-पर्यवेक्षक कार्य-स्थल पर ही कर्मचारियों तथा श्रमिकों आदि को प्रशिक्षित करता है। एक कुशल एवं योग्य पर्यवेक्षक ही कार्य-कुशल श्रमिकों को तैयार करता है।

6. कर्मचारियों में उच्च मनोवृत्ति का विकास करना-पर्यवेक्षक नेतृत्व संगठन के कर्मचारियों एवं श्रमिकों को प्रभावित करने में एक मुख्य भूमिका निभाता है। एक पर्यवेक्षक अपने नेतृत्व के गुणों के कारण अपने कर्मचारियों तथा श्रमिकों के मध्य उच्च मनोवृत्ति का विकास कर सकता है।

7. कर्मचारियों की कार्यकुशलता के विकास के लिए सुझाव देना व तरीके बतलाना-एक अच्छा पर्यवेक्षक कार्य निष्पादन का विश्लेषण करता है तथा अपनी सलाह अथवा प्रतिपुष्टि (फीड बैक) श्रमिकों को देता है। वह कार्यकुशलता के विकास के लिए उन्हें सुझाव तथा तरीके बताता है।

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प्रश्न 9. 
अभिप्रेरणा का अर्थ बतलाइये तथा इसकी विशेषताओं (लक्षणों) को संक्षेप में समझाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा का अर्थ
सामान्य अर्थ में, अभिप्रेरणा का अर्थ है किसी भी कार्य या क्रिया को प्रेरित अथवा प्रभावित करना। व्यवसाय के संदर्भ में इसका अर्थ उस प्रक्रिया से है जो अधीनस्थों को निर्धारित सांगठनिक उददेश्यों की पूर्ति के लिए एक वांछित रूप से कार्य करने के लिए तैयार करती है। वस्तुतः अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को, वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है।

विलियम जी. स्काउट के अनुसार, “अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जो वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यक्तियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।"

मैक्फारलैण्ड के अनुसार, "अभिप्रेरणा से तात्पर्य उस तरीके से है जिसमें आवेग, प्रेरणाएँ, इच्छाएँ, प्रयास अथवा आवश्यकताएँ मनुष्य के व्यवहार को निर्देशित, नियन्त्रित तथा उसे स्पष्ट करती हैं।"

निष्कर्ष-अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक संस्था में कार्यरत मानव शक्ति की भावनाओं, संवेगों, उद्वेगों तथा आवश्यकताओं आदि का अध्ययन कर उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास किया जाता है ताकि उन्हें संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु पूर्ण लगन, निष्ठा एवं रुचि के साथ कार्य करने के लिए प्रेरित किया जा सके।

अभिप्रेरणा की विशेषताएँ अथवा लक्षण
अभिप्रेरणा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अथवा लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. अभिप्रेरणा एक आन्तरिक अनुभव हैआवेग, प्रवृत्ति, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, प्रयास तथा मनुष्य की आवश्यकताएँ जो कि आन्तरिक हैं, मनुष्य के व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

2. अभिप्रेरणा एक लक्ष्य आधारित व्यवहार को जन्म देती है-अभिप्रेरणा एक लक्ष्य आधारित व्यवहार को जन्म देती है। उदाहरण के लिए एक कर्मचारी को पदोन्नति उसके निष्पादन को सुधारने के उद्देश्य से दी जा सकती है। यदि कर्मचारी को उस पदोन्नति में रुचि है, तो यह ऐसे व्यवहार को उत्पन्न करती है जो उसके कार्य निष्पादन में सुधार लाती है।

3. अभिप्रेरणा सकारात्मक अथवा नकारात्मक दोनों प्रकार की-अभिप्रेरणा इन दोनों ही प्रकार की हो सकती है। सकारात्मक अभिप्रेरणा सकारात्मक पारिश्रमिक/प्रतिफल प्रदान करती है, जैसे वेतन में बढ़ोतरी (वृद्धि), पदोन्नति, पहचान इत्यादि । नकारात्मक अभिप्रेरणा नकारात्मक तरीकों का प्रयोग करती है, जैसे सजा, वेतन वृद्धि रोकना, धमकी देना आदि।

4. अभिप्रेरणा एक जटिल प्रक्रिया है-अभिप्रेरणा एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि मनुष्यों की अपेक्षाओं में विविधता है, उनके अवबोधन तथा प्रतिक्रियाओं में भी भिन्नता होती है। अतएव किसी एक अभिप्रेरक तत्त्व का सभी पर एक जैसा प्रभाव पड़े, यह कोई जरूरी नहीं है।

5. अभिप्रेरणा एक विधि है-अभिप्रेरणा एक निश्चित विधि है जिसके माध्यम से संवेग, उद्वेग, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, प्रयास एवं मानवीय आवश्यकताएँ मानवीय व्यवहार को निर्देशित एवं नियन्त्रित करती हैं। 

6. अभिप्रेरणा एक सतत् प्रक्रिया है-अभिप्रेरणा एक अन्तहीन सतत् प्रक्रिया है जो सदैव चलती रहती है।

7. अभिप्रेरणा मानवीय संतुष्टि का परिणाम है-अभिप्रेरणा मानवीय संतुष्टि का कारण न होकर मानवीय संतुष्टि का परिणाम है। जब प्रबन्धकों की क्रियाओं एवं प्रयत्नों से मानवीय, आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है तो व्यक्ति स्वतः कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होता है।

8. प्रत्येक मनुष्य के अभिप्रेरक तत्त्व भिन्न होते हैं-प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं और ये आवश्यकताएँ ही व्यक्ति को अभिप्रेरित करती हैं। अतः व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भिन्न होने के कारण अभिप्रेरक तत्त्व भी भिन्न होते हैं।

9. अभिप्रेरणा कई प्रकार से दी जा सकती हैअभिप्रेरणा प्रदान करने की अनेक विधियाँ हैं। सम्बन्धित व्यक्तियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए वित्तीय एवं अवित्तीय प्रोत्साहनों द्वारा अभिप्रेरण किया जा सकता है।

10. अभिप्रेरणा से मनोबल का संचार होता हैव्यक्तियों को अभिप्रेरित करके उनमें मनोबल का संचार किया जाता है जिससे उनकी कार्य योग्यता, कार्य करने की इच्छा में परिवर्तित हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि अभिप्रेरणा की प्रक्रिया से ही मनोबल का संचार होता है।

11. अभिप्रेरणा से सहयोग प्राप्त किया जा सकता है-अभिप्रेरणा कार्य करवाने के लिए ही नहीं वरन् आपसी सहयोग में वृद्धि करने के लिए भी दी जाती है। 

12. यह कर्मचारियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है-अभिप्रेरणा कर्मचारियों को अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है।

13. प्रबन्धकीय सफलता का कारण एवं परिणाम-अभिप्रेरणा प्रबन्धकीय सफलता का कारण एवं परिणाम दोनों है।

प्रश्न 10. 
अभिप्रेरणा के महत्त्व को समझाइये। 
उत्तर:
अभिप्रेरणा का महत्त्व
अभिप्रेरणा संस्था में लोगों की आवश्यकताओं को पहचानने तथा उन्हें संतुष्ट करने में सहायता करती है जिससे उन्हें अपने कार्य निष्पादन को सुधारने का अवसर मिलता है। यही कारण है कि सभी प्रमुख संगठन विभिन्न प्रकार के अभिप्रेरणात्मक कार्यक्रमों का विकास करते हैं। क्योंकि मानव संसाधन अन्य संसाधनों की तुलना में अधिकतम महत्त्वपूर्ण है तथा अभिप्रेरणा सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, मानवीय योग्यताओं के प्रभावी प्रयोग में सहायक सिद्ध हुई है। इसीलिए अभिप्रेरणा को संस्था में एक महत्त्वपूर्ण क्रिया के रूप में माना जाता है।

संक्षेप में, अभिप्रेरणा के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1. अभिप्रेरणा संगठन के सफल निष्पादन में सहायक-अभिप्रेरणा कर्मचारियों के निष्पादन स्तर में सुधार के साथ-साथ संगठनों के सफल निष्पादन में सहायक है क्योंकि उपयुक्त अभिप्रेरणा कर्मचारियों की आवश्यकताओं को संतुष्ट करती है, वे अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा अपने कार्य निष्पादन पर केन्द्रित करते हैं। संगठन में प्रभावी अभिप्रेरणा उच्च स्तरीय निष्पादन को प्राप्त करने में सहायक होती है क्योंकि अभिप्रेरित कर्मचारी सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने प्रयासों का. अधिकतम योगदान देते हैं।

2. अभिप्रेरणा कर्मचारियों में सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करती है-अभिप्रेरणा कर्मचारियों के नकारात्मक अथवा उनके निष्क्रिय या तटस्थ दृष्टिकोण को संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उनके सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सहायक होती है क्योंकि यदि कर्मचारियों को उपयुक्त प्रतिफल दिया जाये तथा पर्यवेक्षक सकारात्मक प्रोत्साहन दें तथा उनके अच्छे कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करें तो कर्मचारी धीरे-धीरे अपने कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपना सकता है।

3. संस्था की आवर्तन दर को कम करनाअभिप्रेरणा का महत्त्व इस रूप में भी है कि यह कर्मचारियों की संस्था को छोड़कर जाने की दर को कम करती है तथा इससे नई नियुक्ति तथा प्रशिक्षण लागत में बचत होती है।

4. कर्मचारियों की अनुपस्थिति की दर को कम करना-अभिप्रेरणा संस्था में कर्मचारियों की अनपस्थिति की दर को कम करने में सहायक होती है। क्योंकि प्रभावी अभिप्रेरणात्मक व्यवस्था के द्वारा बुरी कार्य स्थितियाँ, अपर्याप्त पारिश्रमिक/प्रतिफल, पहचान/ प्रतिष्ठा का अभाव, पर्यवेक्षकों व सहकर्मियों के साथ बुरे सम्बन्ध जैसी कमियों को दूर किया जा सकता है।

5. अभिप्रेरणा संस्था में प्रबन्धकों को नये परिवर्तनों को लागू करवाने में सहायता करती हैअभिप्रेरणा प्रबन्धकों को नये परिवर्तनों को प्रारंभ करने में बिना लोगों के विरोध के सहायता देती है। यदि प्रबन्धक कर्मचारियों को यह आश्वस्त कर दे कि प्रस्तावित परिवर्तन कर्मचारियों के लिए भी अतिरिक्त प्रतिफल लायेगा, तो वे इस परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते हैं। 

6. मधुर मानवीय सम्बन्ध-संस्था में कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए वित्तीय तथा अवित्तीय प्रोत्साहनों की अधिक अच्छी व्यवस्था होने से प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों के मध्य मधुर मानवीय सम्बन्ध स्थापित होते हैं।

7. संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायकअभिप्रेरणा के द्वारा कर्मचारियों को उन कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है जिनसे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार अभिप्रेरणा संगठन के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होती है।

8. कर्मचारियों की आवश्यकताओं की संतुष्टिअभिप्रेरणा की आवश्यकता कर्मचारियों की सामाजिक, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहायक है। अभिप्रेरणा कर्मचारियों की इन आवश्यकताओं की संतुष्टि करती है।

9. मनोबल का निर्माण-जब अभिप्रेरणा की सहायता से कर्मचारियों की सभी प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं तब उन्हें मानसिक संतुष्टि प्राप्त होती है, इससे कर्मचारियों में कार्य करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इस प्रकार अभिप्रेरणा मनोबल के निर्माण करने में सहायक होती है।

10. अनुकूल कार्य वातावरण का निर्माणअभिप्रेरणा के द्वारा कर्मचारियों की इच्छाओं, आवश्यकताओं एवं भावनाओं को संतुष्ट किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप संस्था में अच्छे कार्य का वातावरण का निर्माण किया जा सकता है।

11. मानसिक शान्ति-अभिप्रेरणा देने से संस्था में अच्छे मानवीय सम्बन्धों, औद्योगिक शांति तथा अनुकूल कार्य वातावरण की स्थापना होती है। इन सबके परिणामस्वरूप, कर्मचारियों को ही नहीं बल्कि प्रबन्धकों को भी मानसिक शान्ति मिलती है।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 11. 
'टाटा स्टील में कर्मचारियों को अभिप्रेरणा' पर संक्षेप में एक टिप्पणी लिखिए।।
उत्तर:
टाटा स्टील में कर्मचारियों को अभिप्रेरणा 
टाटा स्टील में अधिकारियों एवं कर्मचारियों की निर्णय लेने की प्रक्रिया में और अधिक सक्रिय भागीदारी तथा अभिप्रेरणा के स्तर को बढ़ाने के लिये अनेक प्रयास किये गये हैं जिसके लिये वैयक्तिक विकास कार्यक्रम, कौशल समीक्षा, कार्य आवर्तन प्रणाली, औपचारिक ङ्के पुरस्कार एवं उभिज्ञान प्रणाली मूल्य निर्धारण से सम्बद्ध ज्ञान, प्रबन्ध व्यवस्था, गुणवत्ता चक्रों में नेतृत्व, सुअवसर, निरन्तर सुधार तथा मूल्य अभियांत्रिकी कार्यक्रम तथा एक अत्यधिक पारदर्शी एवं विश्वसनीय बहुमार्गीय संचार प्रणाली के व्यापक प्रोत्साहन संवेगों को प्रशिक्षण के साथ समाहित कर विभिन्न प्रकार के कर्मचारियों की सभी आशंकाओं, जिज्ञासाओं को विविध प्रकार के संवादों तथा औपचारिक एवं ऑन लाइन दोनों प्रकार के साधनों द्वारा निपटाया जाता है। इसके लिए वरिष्ठ प्रबन्धकों के साथ 'एम.डी. ऑनलाइन' से विशिष्ट संचार, वीडियो कॉन्फ्रेन्स, संगोष्ठी, मीटिंग तथा सेमिनार की व्यवस्था है। इन प्रयासों ने टाटा स्टील में एक समरूप तथा संकेन्द्रित टीम बनाने में सहायता प्रदान की है। अभिप्रेरणा को बढ़ाने तथा कम्पनी को एक दूरदर्शिता से बाँधने और प्रेरक कर्मचारी सहभागितापूर्ण प्रबन्धन आधार के द्वारा लक्ष्यों को पूरा करते हुए प्रक्रम के स्वामित्व की ओर बढ़ते हैं।

टाटा स्टील वह कम्पनी है. जो सक्रियता के साथ कार्य की स्वतन्त्रता, नवाचार के लिए स्वतंत्रता और यहाँ तक कि असफल हो जाने की स्वतंत्रता को बढ़ावा देती है। एक सुदृढ़ वृद्धि के पथ पर बढ़ती यह एक कुशल, तीव्र, आधुनिक और दूरदर्शी कम्पनी है। यह कम्पनी उत्पादन सुसाध्यताओं एवं निर्माण प्रक्रम की तकनीकियों के रूप में एक क्रान्तिकारी बदलाव से गुजरी है। इन बदलावों के फलस्वरूप कम्पनी ने नई चुनौतियों से निपटने के लिए व्यापक सुअवसरों की रचना की है जिसके लिए कम्पनी ने कार्य हेतु युवाओं की भर्ती, निष्पादन आधारित आई.टी. सक्षम प्रणाली तथा उच्च स्तर के स्वचालित यंत्र जुटाये हैं। इन सभी चीजों के कारण अपनी. सर्वाधिक निम्न लागत वाली स्टील उत्पादक कम्पनी बन गई है और प्रथम ऐसी भारतीय कम्पनी बनी जिसे 'वर्ल्ड स्टील डाइनेमिक्स' ने मान्यता देते हुए विश्व स्तरीय सर्वोच्च स्टील निर्माता कम्पनी माना है। टाटा स्टील न केवल समेकित करने में आशा रखती है बल्कि संतुलित (सुदृढ़) नेतृत्व विकास व्यवस्था के द्वारा अपने नेतृत्व को बेहतर बनाती है, जिसे कम्पनी द्वारा बहुत सारी दूसरी कम्पनियों हेतु तैयार किये गये कार्यकारी अधिकारियों के रूप में देखा जा सकता है।

प्रश्न 12. 
नेतृत्व का अर्थ एवं विशेषताएँ बतलाइये।
अथवा 
नेतृत्व से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ
नेतृत्व दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने की एक ऐसी शक्ति है जिससे कि उन्हें सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में स्वेच्छा से आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया जा सके। यह एक ऐसी कला है जिसमें अनुयायी अपने पूर्वाग्रहों, पूर्व निर्धारित सोच तथा कार्य करने के ढंग को त्याग कर नेतृत्व द्वारा बतलाये गये पथ पर चलते हुए अपना सर्वोत्तम योगदान संस्था को देकर, इसके लक्ष्यों की प्राप्ति को संभव बनाते हैं।

वस्तुतः नेतृत्व एक व्यावहारिक गुण या व्यवहार है जिसके द्वारा एक नेता दूसरे व्यक्तियों को स्वेच्छा से अपनी संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करने के लिए मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देता है।

जार्ज आर. टेरी के अनुसार, "नेतृत्व एक क्रिया है व्यक्तियों को प्रभावित करने की, जिससे वे स्वेच्छा से सामूहिक उद्देश्यों के लिए प्रतिस्पर्धी हो सकें।"

हैरोल्ड कून्ट्ज एवं हिंज वैहरिच के अनुसार, "नेतृत्व व्यक्तियों को प्रभावित करने की कला अथवा प्रक्रिया है जिससे वे अपनी इच्छा तथा उत्साह से सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धी हो सकें।"

ग्लूएक के अनुसार, "नेतृत्व पारस्परिक व्यवहारों का एक समूह है जिसकी रूपरेखा कर्मचारियों को उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोग को प्रभावित करने के लिए बनायी जाती है।"

गे तथा स्ट्रेक के अनुसार, "नेतृत्व एक प्रक्रिया तथा सम्पत्ति दोनों ही है। नेतृत्व की प्रक्रिया बिना किसी दबाव के एक संगठित समूह के सदस्यों की क्रियाओं को प्रभावित तथा निर्देशित करती है जिसका उद्देश्य सामूहिक उद्देश्यों को प्राप्त करना है। एक सम्पत्ति के रूप में, नेतृत्व उन व्यक्तियों के गुणों तथा विशेषताओं का समूह है जो ऐसा समझा जाता है कि वे इस प्रकार का प्रभाव सफलतापूर्वक नियोजित कर सकते हैं।"

इस प्रकार स्पष्ट है कि नेतृत्व वह गुण है जिसके द्वारा अनुयायियों के समूह से इच्छित कार्य स्वेच्छापूर्वक अथवा बिना किसी दबाव के करवाये जाते हैं।

नेतृत्व की प्रकृति/विशेषताएँ 
नेतृत्व की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं जो उसकी प्रकृति को भी स्पष्ट करती हैं-

  • दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता-नेतृत्व किसी व्यक्ति की दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता को दर्शाता है।
  • व्यवहार में परिवर्तन-नेतृत्व दूसरे के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।
  • अनुयायी होना-नेतृत्व की कल्पना बिना उसके अनुयायियों के नहीं की जा सकती है। जिनके अनुयायी नहीं होते हैं वे नेता भी नहीं माने जाते हैं। यथार्थ में अनुयायी ही नेतृत्व को पूर्णता प्रदान करते हैं। 
  • अभिप्रेरित करने की क्रिया-नेतृत्व अपने अनुयायियों को हाँकता नहीं है, वह उनसे जोरजबरदस्ती कार्य नहीं लेता वरन् उन्हें स्वेच्छा से कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है।
  • सतत प्रक्रिया-नेतृत्व एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। एक नेता अपने समूह के सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करने हेतु निरन्तर प्रयत्न करता रहता है। 
  • नेतृत्व कार्य करने पर निर्भर करता है-नेतृत्व कार्य करने पर निर्भर करता है, किन्तु जब तक नेतृत्व कुछ करता नहीं है तब तक नेतृत्व के गुण का कोई लाभ नहीं होता है। 
  • आपसी सम्बन्धों पर आधारित-नेतृत्व आपसी सम्बन्धों की स्थिति में ही जन्म लेता है तथा विकसित होता है। ये आपसी सम्बन्ध अनुयायियों तथा नेता के बीच तथा अनुयायियों एवं अनुयायियों के बीच होना आवश्यक है।
  • सामूहिक हित या हितों की एकता-कुशल नेतृत्व के उद्देश्यों में संगठन, नेता तथा अनुयायियों तीनों के ही हित निहित होते हैं। कुशल नेतृत्व तीनों के ही हितों की पूर्ति के लिए प्रयास करता है।
  • गतिशील शक्ति या कला-नेतृत्व के सभी तरीकों, विधियों, शैलियों को सभी परिस्थितियों में समान रूप से लागू नहीं किया जाता है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप चातुर्य का उपयोग करते हुए नेतृत्व शैली का उपयोग किया जा सकता है।
  • औपचारिक एवं अनौपचारिक-नेतृत्व की एक विशेषता यह है कि नेतृत्व औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही रूपों में पाया जाता है।
  • लक्ष्य प्रधान नेतृत्व लक्ष्य प्रधान होता है। प्रत्येक नेता सामूहिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ही अपने अनुयायियों या अधीनस्थों के व्यवहार को प्रभावित करता है अथवा उनका मार्गदर्शन करता है। 
  • सकारात्मक एवं नकारात्मक-नेतृत्व सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार का हो सकता है।
  • अनुकरणीय आचरण-नेतृत्व की सफलता नेता के आचरण पर निर्भर करती है। नेता का आचरण ऐसा होना चाहिए जिसे उसके अनुयायी अपना सकें।

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प्रश्न 13. 
नेतृत्व के महत्त्व को समझाइये। 
उत्तर:
नेतृत्व का महत्त्व
यह सर्वविदित सत्य है कि संगठन की सफलता तथा असफलता के बीच अन्तर नेतृत्व का ही होता है। प्रसिद्ध प्रबन्ध परामर्शक ने लिखा है कि प्रबन्धक महत्त्वपूर्ण है, परन्तु नेता संगठन की निरन्तर सफलता के लिए अनिवार्य हैं। एक नेता न केवल अपने अनुयायियों को सांगठनिक लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध करता है बल्कि उसके लिए आवश्यक संसाधन भी एकत्रित करता है, उन्हें मार्गदर्शन देता है तथा अपने अधीनस्थों को उद्देश्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। संक्षेप में, नेतृत्व के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

1. अनुयायियों (कर्मचारियों) के व्यवहार को प्रभावित करना-नेतृत्व अपने अनुयायियों या कर्मचारियों के व्यवहार को प्रभावित करता है तथा उन्हें अपनी श्रम/ ऊर्जा को संस्था के लाभ के लिए सकारात्मक रूप से योगदान देने के लिए प्रेरित करता है।

2. अनुकूल कार्य वातावरण का सृजन करनानेतृत्व अपने कर्मचारियों के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये रखता है तथा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता करता है। वह उनमें आवश्यक आत्मविश्वास पैदा करता है, सहायता/समर्थन देता है और इसके द्वारा एक अनुकूल कार्य वातावरण का सृजन करता है।

3. संस्था में आवश्यक परिवर्तन को लागू करना-नेतृत्व संस्था में आवश्यक परिवर्तन को लागू करने में मुख्य भूमिका निभाता है। वह कर्मचारियों को संस्था में किये जाने वाले परिवर्तनों के लिए तैयार करता है।

4. टकराव को निपटाना/संभालना-एक नेता संस्था में टकराव की स्थिति को प्रभावपूर्ण ढंग से निपटाता या सम्भालता है तथा उसके दुष्परिणामों को फैलने से रोकता है। एक अच्छा नेता सदैव अपने अनुयायियों को अपनी भावनाओं तथा असहमति को प्रकट करने की पूरी अनुमति देता है। उन्हें वह उपयुक्त स्पष्टीकरण द्वारा समाधान बतलाकर आश्वस्त भी करता है।

5. प्रशिक्षण देना-नेतृत्व अपने अधीनस्थों को प्रशिक्षण भी उपलब्ध करवाता है या देता है। एक अच्छा नेता सदैव अपना अगला नेतृत्व प्रतिनिधि तैयार करता है ताकि नेतृत्व की उत्तरदायित्व प्रक्रिया बिना किसी रुकावट के सम्पन्न हो सके।

6. अभिप्रेरणा प्रदान करना-नेतृत्व कर्मचारियों की अभिप्रेरणा का स्रोत है। कुशल नेतृत्वकर्ता लोगों की इच्छाओं, भावनाओं, आवश्यकताओं को समझकर उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करता है। फलतः संस्था के कर्मचारियों में कार्य करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है।

7. समन्वय में सहायक-प्रभावी नेतृत्व संस्था में व्यक्तिगत प्रयासों के समन्वय में महत्त्वपूर्ण रूप से योगदान देता है। वास्तव में नेतृत्व एक समन्वयकारी शक्ति है जो व्यक्तियों को समूह में बनाये रखती है।

8. समूह भावना का विकास करना-नेतृत्व संस्था के कर्मचारियों में समूह भावना का विकास भी करता है। यह ऐसे कार्य वातावरण का निर्माण करता है जिसमें सम्मिलित सभी लोग अपने आपको उस समूह का अभिन्न अंग समझने लगते हैं।

9. समूह में निष्ठा उत्पन्न करना-कुशल नेतृत्व अपने कर्मचारियों व अनुयायियों में समूह के प्रति निष्ठा उत्पन्न करता है। इसके लिए वह उन्हें व्यक्तिगत हितों की तुलना में सामूहिक हितों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करता है। 

10. प्रतिनिधित्व करना-नेतृत्व अपने अधीनस्थों या अनुयायियों का प्रतिनिधित्व भी करता है। वह अपने अधीनस्थों की बातों को सही रूप में उच्चाधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करता है तथा उनके दृष्टिकोण से उन्हें अवगत करवाता है।

11. समय का सदुपयोग करना एक अच्छा तेm समय के सदुपयोग में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह अपने अधीनस्थों के कार्यक्रम को इस प्रकार निर्धारित करता है कि जिससे वह सभी अधीनस्थों का ही नहीं स्वयं के समय का भी सदुपयोग करता है।

12. प्रबन्धकीय प्रभावशीलता में वृद्धि-सम्पूर्ण संस्था के प्रभावकारी प्रबन्ध के लिए नेतृत्व एक प्राथमिक आवश्यकता है। प्रभावी नेतृत्व के अभाव में संस्था के संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं हो सकता।।

13. कर्मचारियों के मनोबल का निर्माण करनाकुशल नेतृत्व कर्मचारियों के मनोबल का निर्माण करता है। 

प्रश्न 14. 
"नेता जन्म ही नहीं लेते, बनाये भी जा सकते हैं।" इस कथन के संदर्भ को समझाइये कि सफल नेता बनाने के लिए एक व्यक्ति में किन-किन गुणों का विकास किया जाना आवश्यक है ?
अथवा
एक सफल नेता होने के लिए व्यक्ति में जिन विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक है उनमें से किन्हीं आठ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नेता जन्म ही नहीं लेते, बनाये भी जा सकते हैं-नेतृत्व के बारे में सामान्य विश्वास यह है कि नेता जन्म लेते हैं, बनाये नहीं जाते, किन्तु आधुनिक समय में इस विश्वास का कोई महत्त्व नहीं है। अब यह धारणा बलवती होती जा रही है कि नेता केवल जन्म ही नहीं लेते वरन् उनको बनाया भी जा सकता है। नेतृत्व क्षमता का व्यवस्थित विकास किया जा सकता है। लोग स्वतः भी नेतृत्व क्षमता का विकास कर लेते हैं। प्रो. रोस तथा हैडी ने ठीक ही लिखा है कि "नेतृत्व क्षमता जन्म लेती है, विकसित होती है तथा इसे प्राप्त किया जा सकता है।" अब तो व्यवस्थित शिक्षण एवं प्रशिक्षण के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों में भी नेतृत्व के गुणों का विकास किया जा सकता है जिनमें नेतृत्व के गुणों का अभाव है अथवा नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा की कमी है। भारत के विभिन्न प्रबन्ध संस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में उत्तीर्ण होने वाले प्रबन्ध स्नातकों का अपने आपको सफल नेता के रूप में स्थापित करना इसका ज्वलन्त उदाहरण है। 

एक सफल नेता में विकसित किये जा सकने वाले गुण 
आज के समय में एक सफल नेता बनाने के लिए एक व्यक्ति में मुख्य रूप से निम्नलिखित गुणों का विकास किया जाना आवश्यक है-

  • शारीरिक विशेषताएँ-सफल नेतृत्व के लिए नेता को सुदृढ़ शरीर एवं उत्तम स्वास्थ्य का होना परम आवश्यक है क्योंकि अस्वस्थ एवं कमजोर शरीर वाला नेता अपने अनुयायी को कुशल नेतृत्व प्रदान नहीं कर सकता है।
  • ज्ञान-एक अच्छे नेता में आवश्यक ज्ञान तथा कौशल अवश्य होने चाहिए। केवल ऐसे ही व्यक्ति अपने अधीनस्थों को सही रूप से आदेश दे सकते हैं तथा प्रभावित कर सकते हैं।
  • सम्प्रेषण कौशल-एक सफल नेता में प्रभावी सम्प्रेषण योग्यता का होना भी आवश्यक है। शिक्षण एवं प्रशिक्षण के माध्यम से व्यक्ति में यह योग्यता विकसित की जा सकती है। सम्प्रेषण योग्यता से नेता अपने अनुयायियों को अनुकूल तरीके से प्रभावित कर सकता है।
  • पहल-एक नेता में साहस तथा पहल शक्ति/ नेतृत्व अवश्य होना चाहिए। उसे यह इंतजार नहीं करना चाहिए कि कब उसे सुअवसर मिले, बल्कि उसे तो सुअवसर को हथियाना है तथा संस्था के लाभ के लिए प्रयोग करना है, वह करना चाहिए।
  • सामाजिक कौशल-एक नेता को सबसे मिल-जुलकर रहना चाहिए तथा अपने सहकर्मियों तथा अनुयायियों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए। उसे व्यक्तियों को समझना चाहिए तथा उनके साथ अच्छे मानवीय संबंध बना कर रखने चाहिए।
  • आत्म-विश्वास-एक सफल नेता उच्च कोटि का आत्मविश्वासी तथा सुदृढ़ इच्छा शक्ति वाला भी होना चाहिए।
  • निर्णयन क्षमता-एक सफल नेता वही होता है जिसमें शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता हो किन्तु उतावले निर्णयों से बचने की योग्यता हो।
  • अभिप्रेरणा कौशल-एक सफल नेता वह होता है जिसमें अपने अधीनस्थों एवं अनुयायियों को पर्याप्त रूप से अभिप्रेरित करने की योग्यता होती है। उसमें अपने विचारों, कार्यों तथा व्यवहार से अपने अनुयायियों को प्रभावित करने की क्षमता होनी चाहिए।
  • सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी-सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी व्यक्ति को सच्चा एवं उच्च विचार वाला व्यक्ति बनाती है तथा उसे आकांक्षाएँ एवं उच्च आदर्श प्रदान करती है। 
  • शिक्षित एवं ज्ञानवान-एक सफल नेता वही माना जाता है जो उचित रूप से शिक्षित एवं ज्ञान-सम्पन्न हो। अतः एक सफल नेता बनाने के लिए व्यक्ति में इस गुण का भी विकास किया जाना चाहिए।
  • प्रशासकीय, विश्लेषणात्मक, मानवीय सम्बन्ध तथा तकनीकी चातुर्य- प्रो. इवान्स विच ने लिखा है कि प्रबन्धकीय नेतृत्व के लिए तकनीकी चातुर्य, विश्लेषणात्मक चातुर्य, निर्णय चातुर्य, कम्प्यूटर चातुर्य तथा मानवीय सम्बन्ध चातुर्य का होना आवश्यक है।
  • मिलनसारिता-इस गुण के कारण ही नेता के अपने अनुयायियों के साथ आत्मीयता के सम्बन्ध विकसित हो सकेंगे तथा वह अपने अनुयायियों के सहयोग से अपने वांछित लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सकेगा।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि एक सफल नेता बनाने के लिए एक व्यक्ति में मुख्य रूप से उपर्युक्त गुणों का विकास तो किया ही जाना चाहिए।

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प्रश्न 15. 
“एक कमजोर नेतृत्व सर्वाधिक मजबूत संगठन को भी नष्ट कर सकता है।" इस कथन के सन्दर्भ में संगठन की सफलता में नेतृत्व की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संगठन की सफलता में नेतृत्व की भूमिका-संगठन की सफलता में नेतृत्व की भूमिका अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण होती है। एक संगठन चाहे जितना साधन-सम्पन्न क्यों न हो, उस संगठन में प्रचुर मात्रा में भौतिक संसाधन क्यों न उपलब्ध हों तथा उसमें कितने ही कुशल मानव संसाधनों की नियुक्तियाँ क्यों न की गई हों, यदि संगठन का नेतृत्व अकुशल एवं अक्षम है तो संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति, संस्था की सफलता, कुशलता, प्रभावशीलता, स्थायित्व आदि संदिग्ध ही रहेगा। प्रभावशाली सफल नेतृत्व के अभाव में एक संस्था निष्क्रिय संस्था मात्र बनकर रह जाती है। जॉन जी. ग्लोवर ने इस सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है कि "व्यावसायिक संस्थाओं की असफलता के लिए किसी अन्य कारण की अपेक्षा घटिया नेतृत्व को ही अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।" संस्था में सफल नेतृत्व की भूमिका एवं महत्त्व को बतलाते हुए न्यूस्ट्रोम तथा कीथ डेविस ने भी लिखा है कि, "नेतृत्व के बिना एक संगठन केवल व्यक्तियों एवं यन्त्रों का भ्रममात्र होगा, बिल्कुल ठीक उसी तरह जैसे एक आर्केस्ट्रा, बिना संचालक के संगीतज्ञों एवं उपकरणों का भ्रम हो जाता है। आर्केस्ट्रा तथा अन्य सभी संगठनों को अपनी बहुमूल्य सम्पत्तियों का पूर्णतः विकास करने के लिए नेतृत्व की आवश्यकता होती है।"

इस प्रकार स्पष्ट है कि नेतृत्व एक गतिशील एवं रचनात्मक शक्ति है। इसकी सभी संस्थाओं तथा सामूहिक प्रयासों की सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यही वह महत्त्वपूर्ण शक्ति है जो संस्थाओं की सफलता को निर्धारित भी करती है। 

संक्षेप में, संगठन की सफलता में नेतृत्व की भूमिका निम्न बिन्दुओं की सहायता से समझायी जा सकती है-

  • अनुयायियों के व्यवहार को प्रभावित करना। 
  • अनुकूल कार्य वातावरण का सृजन करना। 
  • संस्था में आवश्यक परिवर्तन को लागू करना। 
  • टकराव को निपटाना/सम्भालना। 
  • प्रशिक्षण देना। 
  • अभिप्रेरणा प्रदान करना। 
  • समन्वय में सहायक। 
  • समूह भावना का विकास करना। 
  • समूह में निष्ठा उत्पन्न करना। 
  • प्रतिनिधित्व करना। 
  • समय का सदुपयोग करना। 
  • प्रबन्धकीय प्रभावशीलता में वृद्धि करना। 
  • कर्मचारियों के मनोबल का निर्माण करना।

[नोट-उपर्युक्त बिन्दुओं के सम्बन्ध में पूर्व प्रश्न संख्या 13 के उत्तर में पढ़ें।]

प्रश्न 16. 
अनौपचारिक सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताएँ बतलाइये।
उत्तर:
अनौपचारिक सम्प्रेषण का अर्थव्यक्तियों एवं समूहों के मध्य होने वाले सम्प्रेषण जो आधिकारिक/औपचारिक तौर पर नहीं होते हैं, उन्हें अनौपचारिक सम्प्रेषण कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। इस प्रकार के सम्प्रेषण की सूचना प्रणाली को 'अंगूरीलता सम्प्रेषण' कहा जाता है क्योंकि ये सूचनाएँ जो अंगूरीलता सम्प्रेषण द्वारा संगठन में सभी तरफ बिना किसी आधिकारिक स्तर के आधार पर होती हैं।

अनौपचारिक सम्प्रेषण की आवश्यकता का कारण है-कर्मचारियों का आपस में विचारों का आदान-प्रदान जो औपचारिक माध्यमों द्वारा सम्भव नहीं है, वह इस व्यक्तिगत दायित्व निर्धारित नहीं होता, इसलिए बातें करते समय उनके अर्थ पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। फलतः अफवाहों का बाजार गर्म रहता है।

प्रश्न 17. 
एक संस्था में अंगूरीलता सम्प्रेषण किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अनौपचारिक सम्प्रेषण को 'अंगूरीलता सम्प्रेषण' के नाम से भी जाना जाता है। अंगूरीलता सम्प्रेषण अग्रलिखित विभिन्न तंत्रों द्वारा सम्भव होता है
1. इकहरी श्रृंखला तन्त्र-अनौपचारिक सम्प्रेषण के इस संचार तन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से एक क्रम में सम्प्रेषण कर सकता है। चित्र द्वारा स्पष्टीकरण :
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 8
इकहरी श्रृंखला (Single Strand) 

2. गपशप/अफवाह तन्त्र-अनौपचारिक सम्प्रेषण के इस संचार तन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी चयनित आधार के सभी से बातचीत करता है। 
चित्र द्वारा स्पष्टीकरण :
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 9

3. सम्भाव्य तन्त्र-अनौपचारिक सम्प्रेषण तन्त्र के संचार तन्त्र में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बिना किसी उद्देश्य के सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है। 
चित्र द्वारा स्पष्टीकरण :
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 10

4. समूह/भीड़-भाड़-अनौपचारिक सम्प्रेषण के संचार तन्त्र में समूह में, व्यक्ति उन्हीं व्यक्तियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं जिन पर उन्हें विश्वास है। 
चित्र द्वारा स्पष्टीकरण :
RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन 11
अनौपचारिक सम्प्रेषण या अंगूरीलता सम्प्रेषण के संचार तन्त्र में 'समूह' या भीड़-भाड़ तन्त्र संगठन में सर्वाधिक लोकप्रिय माना जाता है।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 18. 
निर्देशन के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
अथवा 
निर्देशन के किन्हीं छः सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निर्देशन के सिद्धान्त
अच्छा तथा प्रभावी निर्देशन प्रदान करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि इसमें बहुत-सी जटिलताएँ सम्मिलित हैं। निर्देशन के कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त हैं जो निर्देशन की प्रक्रिया में सहायक हो सकते हैं। इन सिद्धान्तों को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है-

1. अधिकतम व्यक्तिगत योगदान का सिद्धान्त-
निर्देशन का यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि निर्देशन की तकनीकें सभी व्यक्तियों को संस्था में इस प्रकार सहायता दें कि वे अपनी सम्भावित क्षमताओं का अधिकतम योगदान सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति में दे सकें और संस्था के कुशल निष्पादन के लिए कर्मचारियों की अप्रयुक्त ऊर्जा को उभार कर प्रयोग में ला सकें। 

2. सांगठनिक उद्देश्यों में तालमेल का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त यह बतलाता है कि अच्छा निर्देशन वही है जो व्यक्तिगत हितों तथा सामान्य हितों में तालमेल बिठाता है तथा कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाता है कि कार्यकुशलता तथा पारिश्रमिक दोनों एकदूसरे के पूरक हैं।

3. आदेश की एकता का सिद्धान्त-निर्देशन का यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि कर्मचारी को केवल एक ही उच्च अधिकारी से आदेश मिलने चाहिए। यदि आदेश एक से अधिक अधिकारियों से मिलते हैं, तो यह भ्रान्ति पैदा करते हैं तथा संस्था में द्वन्द्व तथा . अव्यवस्था फैलाते हैं।

4. निर्देशन तकनीकों की उपयुक्तता/औचित्ययह सिद्धान्त यह बतलाता है कि निर्देशन उपयुक्त अभिप्रेरक तथा नेतृत्व की तकनीकों का प्रयोग करते समय कर्मचारियों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, उनके दृष्टिकोण तथा अन्य वस्तुस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। कुछ व्यक्तियों के लिए पैसा एक सशक्त अभिप्रेरक का कार्य कर सकता है, दूसरी तरफ किसी के लिए पदोन्नति एक प्रभावी प्रेरक का कार्य करती है।

5. प्रबन्धकीय सम्प्रेषण का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त यह बतलाता है कि संस्था के सभी स्तरों पर प्रभावी प्रबन्धकीय सम्प्रेषण निर्देशन को भी महत्त्वपूर्ण बनाता है। अधीनस्थों की सम्पूर्ण पारस्परिक समझ को बनाने के लिए निर्देशक को स्पष्ट अनुदेश/निर्देश जारी करने चाहिए। उपयुक्त प्रतिपुष्टि के द्वारा प्रबन्धकों को यह निश्चित कर लेना चाहिए कि अधीनस्थ उसके निर्देश को स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं। . 6. अनौपचारिक संगठन का प्रयोग-प्रबन्धक को यह समझना चाहिए कि प्रत्येक औपचारिक संगठन के अन्तर्गत ही अनौपचारिक समूह तथा संगठन पाये जाते हैं। उसे उन्हें पहचान कर उन संगठनों का समुचित प्रयोग एक प्रभावी निर्देशन के लिए करना चाहिए।

7. नेतृत्व का सिद्धान्त-कर्मचारियों का निर्देशन करते समय प्रबन्धक को एक अच्छे नेतृत्व का प्रदर्शन करना चाहिए क्योंकि यह अधीनस्थों को बिना उनके बीच किसी असन्तोष की भावना से सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

8. अनुसरण करना-निर्देशन के अन्तर्गत केवल आदेश देना ही पर्याप्त नहीं है। प्रबन्धक को निरन्तर पुनरीक्षण के द्वारा अनुसरण करना चाहिए कि उनके आदेशों का यथावत् पालन हुआ है कि नहीं अथवा उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि आवश्यक हो, तो उपयुक्त संशोधन/परिवर्तन इस दिशा में किये जाने चाहिए।

प्रश्न 19. 
Y लिमिटेड एक बैंक जो भारत में कार्य कर रही है, वह बीमा क्षेत्र में जाने का भी मन बना रही है। कुछ समय पहले ही भारत सरकार ने इन्हें (बैंकों को) बीमा क्षेत्र में कार्य करने की अनुमति दी थी। पहले यह बीमा व्यवसाय का प्राधिकार केवल LIC और GIC के पास था। परन्तु अब अर्थव्यवस्था के उदारीकरण तथा दूसरी कम्पनियों से प्रतियोगिता के लिए अन्य कम्पनियों को भी बीमा व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए बीमा नियामक विकास प्राधिकरण के अन्तर्गत नये लाइसेन्स जारी किये गये।।
Y लिमिटेड कम्पनी उच्च गुणवत्ता वाले कर्मचारियों और एजेन्टों की नियुक्ति की योजना बनाती है तथा उन्हें प्रभावी निर्देशन देती है। जिससे वे जीवन बीमा और गैर-जीवन बीमा/अन्य बीमा व्यवसाय के अधिक से अधिक भाग पर अपना अधिकार कर सकें।
प्रश्न 1. वे उपाय/तरीके सुझाएँ कि कैसे कम्पनी अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों का प्रभावपूर्ण तरीके से पर्यवेक्षण करे। एक प्रभावी पर्यवेक्षण से कम्पनी को क्या लाभ होंगे?
प्रश्न 2. कौन-कौनसे वित्तीय तथा गैर-वित्तीय प्रोत्साहन हो सकते हैं जो कम्पनी अलग से अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रयोग कर सकती है ? इनसे कम्पनी को क्या लाभ होंगे?
प्रश्न 3. कम्पनी कैसे आश्वस्त करे कि कर्मचारी उच्च क्रम की आवश्यकताएँ-जैसे प्रसिद्धि तथा आत्म-सन्तुष्टि प्राप्त कर सकें जो अब्राहम मास्लो के द्वारा विशेष रूप से बतायी गयी हैं ?
प्रश्न 4. इस प्रकार के व्यवसाय में, एक अच्छे नेतृत्व के गुणों की पहचान कीजिए जो कम्पनी के प्रबन्धकों में अवश्य होनी चाहिए ताकि वे अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों को प्रोत्साहित कर सकें।
या 
इस प्रकार के व्यवसाय में एक अच्छे नेतत्व के गुणों की पहचान कीजिए जो कर्मचारियों तथा एजेण्टों को प्रोत्साहित करने के लिए कम्पनी के प्रबन्धकों में अवश्य होने चाहिए।
प्रश्न 5. एक औपचारिक सम्प्रेषण व्यवस्था के मॉडल को बताएँ जो एक कम्पनी अपना सकती है। मॉडल में किस प्रकार की बाधाएँ आ सकती हैं, उनकी पहचान कीजिए। उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है ? बताइये।
प्रश्न 6. एक अनौपचारिक सम्प्रेषण किस प्रकार से औपचारिक सम्प्रेषण मॉडल की सहायता करता है जो आपने प्रश्न 5 के उत्तर में दिया है।
उत्तर:
1. कम्पनी को अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों का प्रभावपूर्ण तरीके से पर्यवेक्षण करने के लिए निम्नलिखित आवश्यक कदम उठाने चाहिए

  • पर्यवेक्षक को कर्मचारियों के लिए एक मार्गदर्शक, मित्र तथा एक दार्शनिक के रूप में कार्य करना चाहिए।
  • पर्यवेक्षक को एक तरफ तो अपने प्रबन्धकों के विचारों को कर्मचारियों को बतलाना चाहिए तथा दूसरी तरफ कर्मचारियों की समस्याओं से प्रबन्धकों को समय-समय पर अवगत करवाना चाहिए।
  • पर्यवेक्षक को अपनी सकारात्मक भूमिका निभाकर कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाने के प्रयास करने चाहिए।
  • पर्यवेक्षक को अपने कर्मचारियों को कार्यस्थल पर ही प्रशिक्षित करना चाहिए जिससे कि कर्मचारियों को अपने कार्य के निष्पादन में आने वाली कठिनाइयों को उसी समय दूर किया जा सके।
  • पर्यवेक्षक को अपने कर्मचारियों की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए उपयुक्त सुझाव देने चाहिए।
  • पर्यवेक्षक को अपने कर्मचारियों के मध्य उच्च मनोबल का विकास करना चाहिए।

प्रभावी पर्यवेक्षक से कम्पनी को लाभ-

  • प्रभावी पर्यवेक्षक के होने से कम्पनी में कर्मचारियों व प्रबन्धकों के मध्य किसी प्रकार की भ्रम की स्थिति नहीं रहती है।
  • कर्मचारियों एवं प्रबन्धकों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहते हैं क्योंकि पर्यवेक्षक दोनों पक्षों की बातों को एक-दूसरे तक पहुँचा कर गलतफहमी को दूर करवाता है।
  • पर्यवेक्षक कर्मचारियों के आपसी मतभेदों को दूर करने में अहम भूमिका निभाता है।
  • प्रभावी पर्यवेक्षक कम्पनी के कर्मचारियों के प्रभावपूर्ण पर्यवेक्षण में सहायक होता है।
  • प्रभावी पर्यवेक्षक कम्पनी को कुशल एवं दक्ष कर्मचारी उपलब्ध कराने में सहायता करता है।

2. कम्पनी अलग से अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों को प्रोत्साहित करने के लिए निम्नलिखित वित्तीय तथा गैर-वित्तीय प्रोत्साहनों का उपयोग कर सकती है-
(1) वित्तीय प्रोत्साहन-(i) वेतन तथा भत्ता (ii) उत्पादकता सम्बन्धित पारिश्रमिक (iii) लाभ में भागीदारी (iv) सह-साझेदारी। 
(2) गैर-वित्तीय प्रोत्साहन(i) पद-प्रतिष्ठा/ओहदा (ii) सांगठनिक वातावरण (iii) कार्य-संवर्द्धन (iv) मान-सम्मान देना।

वित्तीय एवं गैर-वित्तीय अभिप्रेरकों से कम्पनी को प्राप्त होने वाले लाभ-कम्पनी को वित्तीय एवं गैर-वित्तीय प्रोत्साहनों या अभिप्रेरकों से निम्नलिखित लाभ प्राप्त हो सकते हैं-

  • ये अभिप्रेरक न केवल कर्मचारियों के कार्यनिष्पादन के स्तर को सुधारने में सहायक होते हैं वरन् संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति में भी सहायक होते हैं।
  • समस्त अभिप्रेरक कर्मचारियों की विभिन्न आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हैं। फलतः कर्मचारी संस्था में अपने सम्पूर्ण उत्साह एवं लगन से कार्य करता है।
  • कम्पनी में सन्तुष्ट कर्मचारी सदैव संस्था के लिए हर दृष्टि से लाभदायक रहता है क्योंकि ऐसे कर्मचारी न केवल वांछित निष्पादन करने में सहायता करते हैं वरन् अपना अधिकतम सहयोग कम्पनी को प्रदान करते हैं।
  • कम्पनी में अभिप्रेरित कर्मचारी सन्तुष्ट रहता है तो उसका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहता है।
  • अभिप्रेरित कर्मचारी का विचार एवं दृष्टिकोण संस्था के प्रति सकारात्मक होता है।
  • कम्पनी में वित्तीय एवं अवित्तीय अभिप्रेरकों का उपयोग किये जाने से कर्मचारियों की संस्था को छोड़कर जाने की दर कम हो जाती है। फलतः कम्पनी को भर्ती एवं प्रशिक्षण पर अधिक खर्चा करने की जरूरत नहीं होती है।

3. कम्पनी गैर-वित्तीय अभिप्रेरकों जैसे कार्यसंवर्द्धन, अच्छे अधिकतम निष्पादन पर कर्मचारी को बधाई, सूचनापट्ट पर उसका नाम, उत्कृष्ट कार्य के लिए पारितोषिक, पद सुरक्षा, कर्मचारियों के प्रबन्ध में भागीदारी व कर्मचारियों की आत्म-सन्तुष्टि आवश्यकताओं अर्थात् उच्च क्रम की आवश्यकताओं को पूरा करके कर्मचारियों को आश्वस्त कर सकती है कि उसके द्वारा उच्च क्रम की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट किया जा रहा है।

4. बैंक को बीमा क्षेत्र में व्यवसाय करने के लाइसेन्स जारी किये गये तो ऐसे बैंक में एक अच्छे नेतृत्व में निम्न गुण अवश्य होने चाहिए ताकि वे अपने कर्मचारियों तथा एजेण्टों को प्रोत्साहित कर सकें-

  • प्रबन्धक व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करने की योग्यता रखता हो।
  • प्रबन्धक कर्मचारियों के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करने में सहायक होना चाहिए, जिससे कि संगठनात्मक उद्देश्यों को कुशलतापूर्वक प्राप्त कर सकें। 
  • प्रबन्धक में निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए।
  • प्रबन्धक में आवश्यक सम्प्रेषण कौशल होना चाहिए, जिससे कि वह अपनी बातों को कर्मचारियों तक प्रभावी ढंग से पहुँचा सके और संस्था के प्रति कर्मचारियों की सकारात्मक सोच उत्पन्न कर सके।
  • प्रबन्धक में साहस तथा पहल शक्ति का भी गुण होना चाहिए।
  • प्रबन्धक में आवश्यक ज्ञान एवं कौशल होना चाहिए। 
  • प्रबन्धक आत्मविश्वास से ओत-प्रोत रहना चाहिए।

5. कम्पनी द्वारा अपनाये जाने वाला औपचारिक सम्प्रेषण तन्त्र-Y कम्पनी बीमा व्यवसाय शुरू करने जा रही है अत: उसे एक समय में कई लोगों से मिलनाजुलना पड़ता है अतः कम्पनी को गोलाकार सम्प्रेषण तन्त्र तथा स्वतन्त्र/मुक्त प्रवाह प्रेषण तन्त्र का उपयोग किया जाना चाहिए। इसके अलावा सम्प्रेषण का प्रवाह अधिकारों के लिए ऊपर से नीचे की ओर तथा उत्तरदायित्व का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर हो सकता है। 

सम्प्रेषण व्यवस्था में आने वाली कठिनाइयाँ-

  • संकेतिक बाधाएँ-इसके अन्तर्गत सन्देश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति, विभिन्न अर्थों सहित संकेत इत्यादि कठिनाइयाँ आ सकती हैं।
  • मनोवैज्ञानिक बाधाएँ-इसके अन्तर्गत कर्मचारियों के असामयिक मूल्यांकन से कर्मचारियों में रोष, कर्मचारियों द्वारा कार्य के प्रति ध्यान नहीं दिये जाने सम्बन्धी कठिनाइयाँ आ सकती हैं।
  • सांगठनिक बाधाएँ-इसके अन्तर्गत संगठन की नीति जिसका या तो कर्मचारी विरोध करते हैं या जो कर्मचारियों की समझ के परे हों, संगठनात्मक नीति नियम सम्बन्धी कठिनाइयाँ आती हैं।

सम्प्रेषण से सम्बन्धित उपर्युक्त बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-

  • सम्प्रेषण करने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण रूप से विचार कर लेना चाहिए।
  • प्रत्येक समस्या पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।
  • पर्याप्त सूचनाएँ हों तभी सम्प्रेषण किया जाना चाहिए।
  • सम्प्रेषण करने से पहले अन्य लोगों से आवश्यक परामर्श कर लिया जाना चाहिए।
  • सम्प्रेषित किये जाने वाले सन्देश में प्रयुक्त भाषा-शैली तथा उसकी विषय-वस्तु स्पष्ट होनी चाहिए।

6. एक अनौपचारिक सम्प्रेषण पूर्ण रूप से औपचारिक सम्प्रेषण में सहायता करता है क्योंकि इसके द्वारा सभी कर्मचारियों तक शीघ्रता से सूचनाएँ पहुँचती हैं तथा उन सूचनाओं को प्राप्त करने के बाद कर्मचारी क्या प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते हैं यह भी तुरन्त ही पता चल जाता है। यह स्थिति औपचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है। इस प्रकार अनौपचारिक सम्प्रेषण के माध्यम से सूचनाएँ तेजी से अफवाह की तरह सभी कर्मचारियों में फैलती हैं। अनौपचारिक सम्प्रेषण हानिकारक भी हो सकता है। परन्तु यदि इसके ऊपर प्रबन्धकों या उच्च अधिकारियों का नियन्त्रण रहे तो यह संस्था के लिए अत्यधिक लाभदायक हो सकता है।

अनौपचारिक सम्प्रेषण के माध्यम से उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों की प्रतिक्रियाओं के विषय में सभी बातों को जानकर उचित निर्णय ले सकते हैं तथा उनकी चिन्ता व तनाव को दूर करने का प्रयास कर सकते हैं और अफवाहों को समाप्त करने का प्रयास भी कर सकते हैं।

RBSE Class 12 Business Studies Important Questions Chapter 7 निर्देशन

प्रश्न 20. 
अभिप्रेरणा में 'उददेश्य', 'अभिप्रेरणा' एवं 'उत्प्रेरक' शब्दों का समावेश है। इन शब्दों को समझाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा का अर्थ है किसी भी कार्य या क्रिया को प्रेरित अथवा प्रभावित करना। व्यवसाय के संदर्भ में, इसका अर्थ उस प्रक्रिया से है जो अधीनस्थों को निर्धारित सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक वांछित रूप से कार्य करने के लिए तैयार करती है।

अभिप्रेरणा के विषय में चर्चा करते समय, यह आवश्यक है कि हम तीन परस्पर संबंधित शब्दों को समझें-उद्देश्य/लक्ष्य, अभिप्रेरणा तथा उत्प्रेरक।
(1) उद्देश्य-उद्देश्य एक आंतरिक स्थिति है जो व्यवहार को ऊर्जित, सक्रिय बनाती है तथा लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिशा निर्देशित करती है। उद्देश्य मनुष्य की आवश्यकताओं से उत्पन्न होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य में एक बेचैनी पैदा करती है जो उसे उस बेचैनी को कम करने के लिए कुछ क्रिया करने के लिए तत्पर करती है। उदाहरण के लिए, खाने की आवश्यकता। भूख पैदा करती है जिसके कारण मनुष्य खाने की खोज करता है। ऐसे ही कुछ लक्ष्य भूख, प्यास, सुरक्षा, जुड़ाव, सुख-सुविधाओं की आवश्यकता, पहचान, मान-सम्मान आदि हैं।

(2) अभिप्रेरणा-अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को. वांछित उददेश्यों की पर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है। अभिप्रेरणा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की संतुष्टि पर निर्भर करती है।

(3) उत्प्रेरक-उत्प्रेरक वह तकनीक है जिसका प्रयोग संगठन में लोगों को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। प्रबंधक विविध प्रेरकों का प्रयोग करते हैं जैसे वेतन, बोनस, पदोन्नति, पहचान, प्रशंसा, उत्तरदायित्व इत्यादि का संगठन में लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए किया जाता है ताकि वे अपना सर्वोत्तम योगदान दे सकें।

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Last Updated on June 27, 2022, 7:20 p.m.
Published June 24, 2022