RBSE Class 11 Biology Important Questions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Important Questions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन Important Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Biology Chapter 7 Important Questions प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

 

I. रिक्त स्थानों की पूर्ति के प्रश्न (Fill in the blanks type questions) 

प्रश्न 1. 
ग्रीष्म निष्क्रियता व शीत निष्क्रियता के दौरान मेंढक .......................... से श्वसन क्रिया करते है। 
उत्तर:
त्वचा 

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प्रश्न 2. 
चिकनी पेशी का संकुचन .......................... होता है। 
उत्तर:
अनैच्छिक

प्रश्न 3. 
कॉकरोच में .......................... वातावरणीय दशाओं को मापने का कार्य करती है। 
उत्तर:
शृंगिका (Antenue)

प्रश्न 4. 
कॉकरोच की ऊथीका (Ootheca) में उपस्थित अण्डों की संख्या .......................... होती है। 
उत्तर:
14 - 16

प्रश्न 5. 
केंचुए का रक्त परिसंचरण तंत्र .......................... प्रकार का होता है। 
उत्तर:
बन्द

प्रश्न 6. 
रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है जिसका कार्य .......................... है।
उत्तर:
परिवहन

प्रश्न 7. 
संयुक्त उपकला का मुख्य कार्य रासायनिक व .......................... से प्रतिरक्षा से रक्षा करता है। 
उत्तर:
यांत्रिक प्रतिबलों

प्रश्न 8. 
मेंढक का पश्च मस्तिष्क, अनुमस्तिष्क एवं .......................... से बना होता है। 
उत्तर:
मेडूला ऑब्लांगेटा

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प्रश्न 9. 
अन्तःलावी ग्रन्थियों के स्राव को .......................... कहते हैं। 
उत्तर:
हार्मोन

प्रश्न 10. 
मेंढक का लार्वा (Tadpole) .......................... के द्वारा श्वसन क्रिया करता है।
उत्तर:
गिल्स।

II. सत्य व असत्य प्रकार के प्रश्न (True and False type questions) 

प्रश्न 1. 
अस्थि कंकाल पेशी से जुड़कर परस्पर क्रिया द्वारा गति प्रदान करती है। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 2. 
कशेरुकी भ्रूण में विद्यमान अधिकांश उपास्थियाँ, वयस्क अवस्था में अस्थि द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैं। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 3. 
कॉकरोच के अण्डकवच के फटने से नवजात शिशु बाहर आते हैं। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
असत्य

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प्रश्न 4. 
अंग और अंग तंत्र की जटिलता एक निश्चित इन्द्रियगोचर प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 5. 
कॉकरोच में तंत्रिका वलय, प्रमस्तिष्क गुच्छिका के साथ मिलकर मस्तिष्क का निर्माण करती है। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
असत्य

प्रश्न 6. 
पी. अमेरिकाना का परिवर्धन पौरोमेटाबोलस (paurometabolous) प्रकार का होता है। (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 7. 
मेंढक वातावरण सन्तुलन बनाये रखने में सहायता करता है। (सत्याअसत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 8. 
दृढ़ संधि (Tight junctions) पदार्थों को ऊतक से बाहर निकलने देती है। (सत्य/असत्य)
उत्तर:
असत्य

प्रश्न 9. 
अस्थि खनिज युक्त ठोस संयोजी ऊतक (connective tissue) (सत्य/असत्य) 
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 10. 
मेंढक कभी पानी नहीं पीता बल्कि त्वचा द्वारा इसका अवशोषण करता है। (सत्य असत्य) 
उत्तर:
सत्य

III. निम्न को सुमेलित कीजिए (Match the following)

स्तम्भ - I में दिये गये पदों का स्तम्भ - II में दिये गये पदों के साथ सही मिलान कीजिए:

प्रश्न 1.

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. वसा ऊतक

(i) त्वचा

B. तरल संयोजी ऊतक

(ii) नाक

C. उपास्थि

(iii) वसा का संग्रह

D. स्तरित उपकला

(iv) रक्त


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. वसा ऊतक

(iii) वसा का संग्रह

B. तरल संयोजी ऊतक

(iv) रक्त

C. उपास्थि

(ii) नाक

D. स्तरित उपकला

(i) त्वचा


प्रश्न 2.

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. केंचुआ

(i) अवस्कर

B. मेंढक

(ii) पर्याणिका

C. कॉकरोच

(iii) पार्श्व पाद (parapodia)

D. नेरीज

(iv) गुदीय लूम


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. केंचुआ

(ii) पर्याणिका

B. मेंढक

(i) अवस्कर

C. कॉकरोच

(iv) गुदीय लूम

D. नेरीज

(iii) पार्श्व पाद (parapodia)

 

प्रश्न 3.

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. बहि:सावी

(i) हार्मोन

B. ऐच्छिक पेशी

(ii) अस्थि

C. संयोजी ऊतक

(iii) कर्ण मोम

D. अन्त:लावी

(iv) रेखित


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. बहि:सावी

(iii) कर्ण मोम

B. ऐच्छिक पेशी

(iv) रेखित

C. संयोजी ऊतक

(ii) अस्थि

D. अन्त:लावी

(i) हार्मोन

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प्रश्न 4. 

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. पेशी ऊतक

(i) न्यूरोन

B. उपकला ग्रंथिल

(ii) उपास्थि

C. तंत्रिका ऊतक

(iii) कलश कोशिका

D. विशेष संयोजी ऊतक

(iv) चिकनी पेशी


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. पेशी ऊतक

(iv) चिकनी पेशी

B. उपकला ग्रंथिल

(iii) कलश कोशिका

C. तंत्रिका ऊतक

(i) न्यूरोन

D. विशेष संयोजी ऊतक

(ii) उपास्थि


प्रश्न 5. 

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. फेरेटिमा

(i) एम्फीबिया

B. पी. अमेरिकाना

(ii) एनेलिडा

C. राना टिग्रीना

(iii) आर्थोपोडा

D. लम्ब्रिकस

 


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. फेरेटिमा

(ii) एनेलिडा

B. पी. अमेरिकाना

(iii) आर्थोपोडा

C. राना टिग्रीना

(i) एम्फीबिया

D. लम्ब्रिकस

(ii) एनेलिडा

 

प्रश्न 6. 

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. टिफ्लोसोल

(i) पाचन

B. शूक (S)

(ii) अनुहरण

C. त्वचा

(iii) अवशोषण

D. पित्त रस

(iv) गमन


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. टिफ्लोसोल

(iii) अवशोषण

B. शूक (S)

(iv) गमन

C. त्वचा

(ii) अनुहरण

D. पित्त रस

(i) पाचन

 

प्रश्न 7. 

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. टेडपोल

(i) केंचुआ

B. लिम्फ

(ii) कपाल

C. द्विलिंगी

(iii) मेंढक

D. मस्तिष्क

(iv) कॉकरोच


उत्तर:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

A. टेडपोल

(iii) मेंढक

B. लिम्फ

(iv) कॉकरोच

C. द्विलिंगी

(i) केंचुआ

D. मस्तिष्क

(ii) कपाल

 

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
ऊतक को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
समान संरचना,समान उत्पत्ति एवं समान कार्य करने वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक कहते हैं।

प्रश्न 2. 
तरल संयोजी ऊतक का नाम लिखिए। 
उत्तर:
तरल संयोजी ऊतक का नाम रुधिर (blood) है। 

प्रश्न 3. 
मेंढक का वैज्ञानिक नाम क्या है? 
उत्तर:
मेंढक का वैज्ञानिक नाम राना टिग्रीना (Rana tigrina) है।

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प्रश्न 4. 
केंचुए में किस प्रकार निषेचन होता है? 
उत्तर:
केंचुए में परनिषेचन (cross - fertilization) होता है।

प्रश्न 5. 
मेंढक का आकार बड़ा होने के कारण इसका दूसरा नाम क्या है?
उत्तर:
मेंढक का आकार बड़ा होने के कारण इसका दूसरा नाम भारतीय बुल फ्रॉग (Indian bull frog) है।

प्रश्न 6. 
वसा ऊतक का कार्य लिखिए। 
उत्तर:
वसा ऊतक ऊर्जा को संचित करने का कार्य करता है। 

प्रश्न 7. 
यदि केंचुए की त्वचा सूख जाती है तो क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर:
यदि केंचुए की त्वचा सूख जाती है तो श्वासावरोध (asphysia) द्वारा उसकी मृत्यु हो जायेगी। 

प्रश्न 8. 
केंचुए में कितनी जोड़ी हृदय पाये जाते हैं?
उत्तर:
केंचुए में चार जोड़ी हृदय पाये जाते हैं। 

प्रश्न 9. 
केंचुए में पाये जाने वाले ऐसे दो नेफ्रिडिया के नाम लिखिए जो जल संरक्षण से सम्बन्धित हैं।
उत्तर:

  • पट्टीय नेफ्रिडिया (Septal nephridia)
  • ग्रसनीय नेफ्रिडिया (Pharyngeal nephridia)।

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प्रश्न 10. 
केंचुए में शूक (Setae) किन खण्डों में पाई जाती है?
उत्तर:
केंचुए में प्रथम, अन्तिम व क्लाइटेलम को छोड़कर सभी खण्डों में शूक (Setae) पायी जाती है।

प्रश्न 11. 
कॉकरोच की टाँग का सबसे लम्बा खण्ड कौनसा है? नाम लिखिए।
उत्तर:
टीबिया (Tibia) टाँग का सबसे लम्बा खण्ड है। 

प्रश्न 12. 
कॉकरोच का बाह्य कंकाल किससे निर्मित होता है?
उत्तर:
कॉकरोच का बाह्य कंकाल काइटिन (Chitin) से निर्मित होता है।

प्रश्न 13. 
कॉकरोच में कितनी जोड़ी श्वास रन्ध्र पाये जाते हैं? 
उत्तर:
कॉकरोच में 10 जोड़ी श्वास रन्ध्र पाये जाते हैं।

प्रश्न 14. 
कॉकरोच में ऊतक तक ऑक्सीजन ले जाने का कार्य किसके द्वारा किया जाता है?
उत्तर:
कॉकरोच में ऊतक तक ऑक्सीजन ले जाने का कार्य श्वास नलिकाएँ अथवा ट्रेकिया (Trachea) द्वारा किया जाता है। 

प्रश्न 15. 
कॉकरोच के हृदय में कितने कोष्ठ पाये जाते हैं?
उत्तर:
कॉकरोच के हृदय में 13 कोष्ठ पाये जाते हैं। 

प्रश्न 16. 
मादा कॉकरोच के गोनोपोफाइसिस का कार्य लिखिए।
उत्तर:
मादा कॉकरोच के गोनोपोपाइसिस अण्डनिक्षेपक (ovipositor) का कार्य करते हैं।

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प्रश्न 17.
कॉकरोच के प्रथम जोड़ी पंख को क्या कहते हैं? 
उत्तर:
कॉकरोच के प्रथम जोड़ी पंख को प्रवार (टेग्मिना) कहते हैं।

प्रश्न 18. 
ऐच्छिक पेशियों में किसके संग्रहण के कारण थकान महसूस होती है?
उत्तर:
ऐच्छिक पेशियों में लेक्टिक अम्ल के संग्रहण से थकान महसूस होती है। 

प्रश्न 19. 
पेशियों की संरचनात्मक इकाई को क्या कहते हैं?
उत्तर:
पेशियों की संरचनात्मक इकाई को पेशी तन्तुक (myofibril) कहते हैं। 

प्रश्न 20. 
भारतीय जाति के केंचुए का वैज्ञानिक नाम क्या है?
उत्तर:
फेरेटिमा पोस्थमा भारतीय जाति के केंचुए का वैज्ञानिक नाम है।

प्रश्न 21. 
केंचुए को सीटी (Setae) की आकृति किस प्रकार की होती है?
उत्तर:
केंचुए की सीटी (Setae) की आकृति के आकार की होती है। 

प्रश्न 22. 
मेंढक में रक्षात्मक रंग परिवर्तन क्रिया को क्या कहते हैं?
उत्तर:
मेंढक में रक्षात्मक रंग परिवर्तन क्रिया को अनुहरण (mimicry) कहते हैं।

प्रश्न 23. 
केंचुए के प्रोस्टोमियम को काटकर हटा दें तो केंचुए पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर:
केंचुए के प्रोस्टोमियम को काटकर हटा देने पर केंचुए में प्रकाश ज्ञान की क्षमता कम हो जाती है। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
कॉकरोच (Cockroach) के स्वभाव एवं आवास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ये प्राय: अंधेरे, गर्म तथा नम स्थानों में मिलते हैं अर्थात् गन्दी नालियों, रसोई, पाखानों, मालगोदामों व होटलों आदि में पाये जाते हैं। ये रात्रिचर हैं तथा दिन में छिपे रहते हैं व रात के समय भोजन की खोज में निकलते हैं। इनका भोजन रोटी, मांस, अनाज, तेल, घी, कपड़ा, लकड़ी, कागज अर्थात् प्रायः सभी प्रकार की वस्तुएँ हैं, यहाँ तक कि कभी - कभी ये आपस में भी एक - दूसरे को खा जाते हैं अर्थात् ये सर्वाहारी (Omnivorous) होते हैं। यह तेज दौड़ने वाला प्राणी है व कभी - कभी थोड़ी उड़ान भी भर सकता है।

प्रश्न 2. 
नर व मादा कॉकरोच में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
नर व मादा कॉकरोच में अन्तर (Differences between Male and Female Cockroach) 

नर कॉकरोच (Male cockroach)

मादा कॉकरोच (Female cockroach)

1. नर का शरीर छोटा व अधिक चपटा होता है।

मादा का शरीर कुछ बड़ा व मोटा होता है।

2. उदर का पश्च सिरा कम चौड़ा व नुकीला - सा होता है। 

उदर का पश्च सिरा चौड़ा व नौकाकार (boat shaped) होता है।

3. उदर में 9 खण्ड स्पष्ट होते हैं।

उदर में 7 खण्ड स्पष्ट होते हैं।

4. गुदा शूक (Anal style) पायी जाती है।

गुदा शूक (Anal style) का अभाव होता है।

5. स्टिक ग्रन्धि पायी जाती है।

स्टिक ग्रन्थि नहीं पायी जाती है।

6. नर में पंख शरीर से लम्बे होते हैं।

मादा में पंख छोटे होते हैं।

7. शृंगिकाएँ शरीर से थोड़ी बड़ी होती हैं।

श्रृंगिकाएँ शरीर से अधिक लम्बी होती हैं।

8. उदर की 7वीं स्टरनम अविभाजित होती है।

उदर की 7वीं स्टरनम दो भागों में विभाजित होती है।

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प्रश्न 3. 
कॉकरोच के विभिन्न मुखांगों के नाम तथा कार्य लिखिए। 
उत्तर:

मुखांग के नाम (Name of mouth part)

मुखांगों का कार्य (Function of mouth parts)

1. लेब्रम (Labrum)

स्वाद के बारे में ज्ञान कराना।

2. मेन्डीबल (Mandible)

भोजन को कुतरना/काटना एवं चबाना।

3. प्रथम मैक्सिला (First Maxilla)

भोजन को पकड़ने में।

4. लेबियम (Labium)

पकड़े हुए भोजन को मुख द्वार से बाहर नहीं जाने देते हैं।

5. अधिग्रसनी (Hypopharynx)

जीभ का कार्य।

प्रश्न 4. 
उपकला ऊतक किसे कहते हैं? ऊतक में पायी जाने वाली संधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उपकला ऊतक (Epithelial tissue): शरीर या किसी अंग को बाह्य सतह को आवरित अथवा गुहाओं या नलिकाओं को आस्तरित करने वाले ऊतक को उपकला ऊतक कहते हैं।
उपकला ऊतक में तीन प्रकार की संधि (Junctions) पाई जाती है:

  1. दृढ़ संधि: पदार्थों को ऊतक से बाहर निकलने से रोकती है।
  2. आसंजी संधि: पड़ोसी कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य को एकदूसरे को जोड़ने का काम करती है।
  3. अंतराली संधि: आयनों तथा छोटे अणुओं एवं कभी-कभी बड़े अणुओं के तुरन्त स्थानान्तरित करने में सहायता करती है। वे ऐसा संलग्न कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य को आपस में जोड़कर करती है।

प्रश्न 5. 
ऊतक किसे कहते हैं? संयोजी ऊतक के कार्य लिखिए।
उत्तर:
ऊतक (Tissue): समान संरचना, समान उत्पत्ति एवं समान कार्य करने वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक कहते हैं।
संयोजी ऊतक के कार्य (Functions of connective tissue):

  1. यह ऊतक कोशिकाओं, ऊतकों तथा अंगों को आपस में बाँधने का कार्य करता है।
  2. यह आन्तरिक अंगों को अपने स्थान पर साधने का कार्य करता है।
  3. यह विभिन्न ऊतकों, अंगों, संरचना आदि को ढकने, उनके मध्य खाली स्थान को भरने आदि का कार्य करता है।
  4. यह अस्थियों के रूप में नई कोशिकाएँ बनाने का कार्य करता है। 
  5. यह मृत या नष्ट कोशिकाओं का स्थान ग्रहण करता है।
  6. यह रासायनिक पदार्थ का संग्रह तथा संवहन का कार्य करता है।
  7. यह कंकाल का निर्माण कर शरीर को सहारा देने तथा निश्चित आकार बनाने का कार्य करता है।
  8. यह ऊतक वसा का संचय करके ऊर्जा उत्पादन में सहायक है। 
  9. इससे स्नायु तन्तुओं का निर्माण होता है। 

प्रश्न 6. 
पर्याणिका क्या है? समझाइए एवं इसका कार्य लिखिए।
उत्तर:
केंचुए में 14, 15 व 16 खण्डों के चारों तरफ एक मोटी, ग्रन्थिल कोशिकाओं की बनी वलय या पट्टिका पायी जाती है जिसे पर्याणिका (clitellum) कहते हैं। यह रचना अपेक्षाकृत गहरे रंग की होती है अतः स्पष्ट दिखाई देती है। यह 14, 15 व 16 खण्डों को पूर्ण रूप से ढक लेती है। पर्याणिका जननकाल में कोकून का लावण करती है जिसमें अण्डे दिये जाते हैं। पर्याणिका की उपस्थिति के कारण केंचुए के शरीर को तीन भागों में विभेदित किया गया है:

  • पूर्व पर्याणिका भाग (Preclitellar region): यह 1 से 13 खण्डों तक का क्षेत्र होता है।
  • पर्याणिका भाग (Clitellar region): यह 14 से 16 खण्डों से निर्मित होता है।
  • पश्च पर्याणिका भाग (Post clitellar region): यह 17 से अन्तिम खण्ड तक होता है।

पर्याणिका (clitellum) में शूक (sctac) अनुपस्थित होती है व इस क्षेत्र में अध्यावरणीय नेफ्रिडिया (Integumentary nephridia) की अधिकता पाई जाती है, इस कारण इसे नेफ्रिडिया का जंगल (Forest of nephridia) कहते है। 

प्रश्न 7. 
कॉकरोच किस संघ का प्राणी है? इसका वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
कॉकरोच आर्थोपोडा (Arthropoda) संघ का प्राणी है। 
कॉकरोच का वर्गीकरण (Classification of Cockroach):
संघ (Phylum): आर्थोपोडा (Arthropoda) शरीर खण्डयुक्त होता है। शरीर पर कठोर क्यूटिकल का बाहा कंकाल पाया जाता है। देह खण्डों में सन्धि युक्त उपांग पाये जाते हैं। परिसंचरण तन्त्र खुले प्रकार का होता है।
वर्ग (Class): इन्सेक्टा (Insecta): शरीर सिर, वक्ष एवं उदर में बंटा होता है। वक्ष में तीन तथा उदर में अधिकतम 11 खण्ड पाये जाते हैं। एक जोड़ी भंगिकाएँ, दो जोड़ी जम्भिकाएँ तथा एक जोड़ी मेन्डीबल पाये जाते हैं। गमन के लिए वक्ष में तीन जोड़ी टाँगें व प्राय: दो जोड़ी पंख पाये जाते हैं। श्वसन ट्रेकिया (Trachea) द्वारा होता है।
गण (Order) आर्थोप्टेरा (Orthoptera): प्रथम जोड़ी पंख संकरे व चिम्मड़, तथा दूसरी जोड़ी पंख पतले व झिल्लीनुमा होते हैं। मुखांग चबाने व पीसने के उपयुक्त होते हैं।
बंश (Genus) - पेरिप्लेनेटा (Periplanata) 
जाति (Species) - अमेरिकाना (Americana)

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प्रश्न 8. 
उपकला ऊतक किसे कहते हैं? इस ऊतक के चार कार्य लिखिए।
उत्तर:
उपकला ऊतक (Epithelial tissue): शरीर या किसी अंग की बाहा सतह को आवरित अथवा गुहाओं या नलिकाओं को आस्तरित करने वाले ऊतक को उपकरला ऊतक कहते हैं।
उपकला ऊतक के कार्य (Functions of Epithelial Tissue):

  1. इनका मूल कार्य शरीर एवं आन्तरांगों के लिए सुरक्षात्मक आवरणों के रूप में होता है। ये भीतर स्थिर ऊतकों की कोशाओं को चोट से, हानिकारक पदार्थों तथा जीवाणुओं आदि के दुष्प्रभाव से और सूख जाने से बचाती हैं।
  2. शरीर एवं आन्तरांगों का अपने - अपने बाहरी वातावरण से पदार्थों का सारा लेन - देन इनके उपकला आवरणों के ही आर - पार होता है। अत: ये आवरण चयनात्मक (selective) होते हैं, आवश्यक पदार्थ ही इनके आर-पार आ-जा सकते हैं, अनावश्यक पदार्थ नहीं।
  3. आहारनाल की दीवार की भीतरी सतह पर ये पोषक पदार्थों एवं जरन के अवशोषण (absorption) का, श्वसनांगों में गैसीय विनिमय (gascous exchange) का और उत्सर्जन अंगों में उत्सर्जन का कार्य करते हैं।
  4. त्वचा पर संवेदांगों में संवेदना ग्रहण (Sensory reception) का कार्य करती है।
  5. कई नालवत् अंगों (श्वास नालों, जनन वाहिनियों, मूत्र वाहिनियों आदि) में ये श्लेष्म (mucus) या अन्य तरल पदार्थों के संवहन में सहायता करती है।

प्रश्न 9. 
कॉकरोच व कशेरुकियों के रक्त में कोई पाँच असमानताएँ लिखिए।
उत्तर:
कॉकरोच व कशेरुकियों के रक्त में पाँच असमानताएँ निम्न:

  1. कॉकरोच का रक्त रंगहीन होता है।
  2. कॉकरोच के रक्त में यूरिक अम्ल (uric acid) की मात्रा अधिक होती है।
  3. इसमें ट्राइहेलोज नामक शर्करा व फॉस्फेट पाये जाते हैं।
  4. इसमें अकार्बनिक आयनों के स्थान पर कार्बनिक अणु स्वतन्त्र एमीनो अम्लों के रूप में पाये जाते हैं।
  5. कॉकरोच का रक्त श्वसन से सम्बन्धित नहीं होता है।

प्रश्न 10. 
मेंढक का वर्गीकरण कीजिए। ये हमारे लिए किस प्रकार लाभदायक प्राणी है?
उत्तर:
मेंढक का वर्गीकरण (Classification of Frog):
संघ (Phylum) - काडेंटा (Chordata) 
वर्ग (Class) - एम्फीबिया (Amphibia)
गण (Order) - एन्यूरा (Aneura) 
बंश (Genus) -  राना (Rana) 
जाति (Species) - टिग्रीना (Tigrina)
मेंढक हमारे लिए लाभदायक प्राणी है। यह कीटों को खाता है और इस तरह फसलों की रक्षा करता है। मेंढक वातावरण में सन्तुलन बनाये रखते हैं क्योंकि यह पारिस्थितिकी तन्त्र की एक महत्वपूर्ण भोजन शृंखला (food chain) की एक कड़ी है। कुछ देशों में इसका मांसल पाद मनुष्यों द्वारा भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 11.
निष्क्रियता किसे कहते हैं? शीत निष्क्रियता का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेंढक एक अनियततापी कशेरुकी (cold blooded vertebrate) है। इसके शरीर का तापक्रम वातावरण के अनुरूप अधिक या कम होता रहता है। शीतकाल में इसका तापक्रम बहुत कम एवं ग्रीष्म काल में अधिक हो जाता है और सक्रिय नहीं रह पाता । जीवन में इस प्रकार की निष्क्रियता की स्थितियों को क्रमशः 'शीत - निष्क्रियता' (winter sleep or hibernation) तथा 'ग्रीष्म - निष्क्रियता' (summer sleep or acstivation) कहते हैं । मेंढक इन अवस्थाओं में जाने से पूर्व अपने शरीर में काफी मात्रा में भोजन - ग्लाइकोजन (glycogen) तथा वसा (fats) के रूप में एकत्र कर लेता है।
शीत निष्क्रियता (Hibernation): सर्दी के मौसम के शुरू होते ही (अक्टूबर के अन्त तक) मेंढक अपने रहने के स्थानों के आसपास की नम जमीन में नीचे जाना शुरू कर देते हैं। जमीन के भीतर मेंढक 40 - 60 सेमी. तक की गहराई में आसानी से अपने रहने की जगह कर लेता है। इस समय शरीर का तापमान कम एवं सभी क्रियाएँ मंद हो जाती हैं। मेंढक इस निष्क्रिय (dormat) अवस्था में काफी समय तक पड़ा रहता है। इस बीच मेंढक की उपापचयी (metabolic) क्रियाएँ बहुत कम हो जाती हैं। वह अपना निर्वाह बहुत कम भोजन एवं ऑक्सीजन में ही कर लेता है। पहले से जमा किये ग्लाइकोजन व वसा से शरीर को ऊर्जा मिलती रहती है। श्वसन की क्रिया में त्वचा प्रमुख रूप में सहायता करती है। इस प्रकार की निष्क्रियता शीतकाल की समाप्ति तक रहती है। जैसे - जैसे वातावरण का ताप बढ़ता है मेंढक फिर जमीन के बाहर आ जाते हैं और पुनः पूर्ण सक्रिय जीवन आरम्भ कर देते हैं।

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प्रश्न 12. 
पेप्सिन एन्जाइम आहारनाल की दीवारों को भी क्यों नहीं पचाता जो कि स्वयं भी प्रोटीन की ही बनी होती हैं? इसके दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  1. पेप्सिन एन्जाइम प्रारम्भ में निष्क्रिय अवस्था में स्रावित होता है।
  2. आहारनाल की भीतरी स्तर श्लेष्मा (mucous) से ढकी रहती है, जिसके कारण पाचक रस इस स्तर को पार करके श्लेष्मिका कला (mucous membrane) तक नहीं पहुंच पाता। श्लेष्मा से ढका खाना अधिक समय तक एक स्थान पर रुकता नहीं है, आगे बढ़ता जाता है।

प्रश्न 13. 
नर मेंढक व मादा मेंढक में विभेद कीजिए।
उत्तर:
नर मेंडक व मादा मेंढक में विभेद (Differences between Male Frog and Female Frog) 

नर मेंढक (Male Frog)

मादा मेंढक (Female Frog)

1. नर मेंढक में वाक् - कोष (vocal sac) पाये जाते हैं।

मादा में वाक् - कोष (vocal sac) नहीं पाये जाते हैं।

2. प्रजनन काल में नर की प्रथम अंगुली में मैथुन अंग (copulatory pad) विकसित हो जाता है।

मादा में मैथुन अंग (copulatory pad) नहीं पायी जाता है।

3. प्रौढ़ नर मादा से छोटा होता है।

प्रौढ़ मादा नर से बड़ी होती है।


निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
संयोजी ऊतक किसे कहते हैं? विशिष्ट संयोजी ऊतकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संयोजी ऊतक (Connective tissue):
संयोजी ऊतक विभिन्न ऊतकों को परस्पर जोड़ने में, अंगों को आलम्बन (support) प्रदान करने में तथा विभिन्न ऊतकों एवं अंगों के बीच रिक्त स्थान को भरने में प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त यह रोग एवं कीटाणुओं के विरुद्ध शरीर को सुरक्षित रखने में सहायक होता है। यह ऊतक भ्रूण के मध्य जनन स्तर (mesoderm) से परिवर्तित होता है। इसमें कोशिकाएं दूर-दूर होती हैं तथा उनके बीच भारी परिमाण में मैट्रिक्स नामक अन्तरकोशिक पदार्थ पाया जाता है।
संयोजी ऊतक को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है:

  • लचीले संयोजी ऊतक (Loose connective tissue) 
  • सघन संयोजी ऊतक (Dense connective tissue)
  • विशिष्टीकृत संयोजी ऊतक (Specialised connective tissue)

1. लचीले संयोजी ऊतक (Loose connective tissue): इस प्रकार के ऊतक का आधारभूत पदार्थ अर्थात् अधात्री या मैट्रिक्स (matrix) तरल या अर्ध तरल होता है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते है:
(अ) अन्तराली संयोजी ऊतक (Aveolar connective tissue): सामान्यत: सभी अंगों के चारों ओर पाया जाने वाला यह ऊतक पारदर्शक एवं चिपचिपे मैट्रिक्स वाला होता है। जैली के समान ढीला तथा अधिक मात्रा में 
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मैट्रिक्स होने के कारण यह ऊतक ढीला और झिल्ली के समान आवरण बनाता है। यह अनेक आन्तरागों के हिलने-डुलने, अमीबीय कोशिकाओं के विचरण, पदार्थों के विसरण आदि की सुगमता और स्वतन्त्रता के लिए यह ऊतक महत्त्वपूर्ण है। मैट्रिक्स में कई प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं:

  1. हिस्टियोसाइटस (Histiocytes): ये बड़ी - बड़ी तथा अमीबीय कोशिकाएं होती हैं और जीवाणुओं आदि का भक्षण करती हैं। 
  2. मास्ट कोशिकाएँ (Mast cells): ये हिपेरिन (heparin) तथा हिस्टेमिन (histamin) जैसे पदार्थ बनाती हैं। 
  3. फाइब्रोब्लास्ट (Fibroblasts): ये तन्तुओं के बीच दबी हुई चपटी कोशिकाएं होती हैं। ये मैट्रिक्स के जैली सदृश आधार पदार्थ एवं तन्तुओं की प्रोटीन्स का स्त्रावण करती हैं। 
  4. लिम्फाइड्स (Lymphoids): ये लसिका कोशिकाओं जैसी होती हैं तथा रोग प्रतिकारक पदार्थों (antibodies) का संश्लेषण और संवहन करती हैं। 

अन्तराली संयोजी ऊतक में दो प्रकार के तन्तु भी पाये जाते हैं

  1. श्वेत कोलेजन तन्तु (White collagen fibres): ये समूह में बंधे हुए, मोटे, रेखित, अशाखित, लहरदार तथा फीते के समान लम्बे, रंगहीन व संख्या में सबसे अधिक होते हैं। इनमें लोच बहुत कम होती है।
  2. पीले इलास्टिन तन्तु (Yellow elastin fibres): ये संख्या में कम, लोचदार, शाखित, अलग - अलग बिखरे हुए, परस्पर जुड़कर जाल बनाने वाले होते हैं। ये हल्की पीली - सी इलास्टिन नामक प्रोटीन के बने हुए पर्याप्त लचीले होते हैं। 

(ब) वसीय संयोजी ऊतक (Adipase connective tissue): अनेक जन्तुओं में विशेषकर स्तन-धारियों में यह ऊतक त्वचा के नीचे पाया जाता है। इसके अतिरिक्त या पीत अस्थि मज्जा (yellow bone marrow) तथा रुधिर वाहिनियों के पास भी मिलता है। वसा ऊतक में प्रायः बड़ी-बड़ी गोल या अण्डाकार वसा कोशिकाएँ (fat cells) अन्तराली ऊतक की थोड़ी-सी मात्रा में निलम्बित रहती हैं। इनमें वसा बिन्दु या गोलक पाये जाते हैं। वसा ऊतक वसा के महत्त्वपूर्ण भण्डार होते हैं। कैट का 'कूबड़ और मेरिनो भेड़ की मोटी पूंछ वसा संचय के कारण ही होती है। वसा ऊतक शरीर का लगभग 10% से 15% भाग बनाते हैं। ये अंगों को अत्यधिक दबाव, खिंचाव, धक्कों आदि से बचाते हैं, तापरोधक स्तरों का काम करते हैं तथा शरीर को आकृति देते हैं।
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(2) सघन संयोजी ऊतक (Dense connective tissue): इन ऊतकों में तन्तु (fibres) एवं तन्तु कोशिकाएं मजबूती से व्यवस्थित रहती हैं। अभिविन्यास (orientation) के आधार पर तन्तु (fibres) तथा तन्तुकोरक (fibroblast) सघन संयोजी ऊतक को निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है:

  1. नियमित संयोजी ऊतक (Dense regular tissue) 
  2. अनियमित संयोजी ऊतक (Dense irregular tissue)

सघन नियमित ऊतक में कोलेजन तन्तु समानान्तर तन्तुओं के गुच्छों के बीच कतार में स्थित होते हैं। कंडराएँ (tendons) जो कंकाल पेशी को अस्थि से जोड़ती हैं तथा स्नायु (ligaments) जो एक अस्थि को दूसरी अस्थि से जोड़ता है। ये इस ऊतक का उदाहरण हैं।
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सम्पन अनियमित ऊतक (dense irregular tissue) में तन्तु (fibres) एवं तन्तुकोरक (fibroblast) पाये जाते हैं। तन्तु में अधिकांश कोलेजन (collagen) तन्तु होते हैं। इस प्रकार का ऊतक त्वचा (skin) में पाया जाता है।
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(3) विशिष्टीकृत संयोजी ऊतक (Specialised connective tissue): ये तीन प्रकार के होते हैं

  • उपास्थि (Cartilage) 
  • अस्थि (Bones) 
  • रक्त (Blood)

(i) उपास्थि (Cartilage): उपास्थि में अधात्री (matrix) का निर्माण कॉण्ड्रिन (chondrin) नामक प्रोटीन द्वारा होता है। इसमें कोलेजन तन्तु पाये जाते हैं। इन्हीं की उपस्थिति के कारण उपास्थि में कड़ापन होता है। अधात्री (matrix) में उपास्थि अणु (chondrocytes) नामक कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो रिक्तिका (lacuna) नामक अवकाशों में स्थित होती हैं। प्रत्येक रिक्तिका में एक से चार तथा उपास्थि अणु उपस्थित हो सकते हैं। उपास्थि एक सपन योजी ऊतक द्वारा आवरित रहती है। इस आवरण को पर्युपास्थि (perichondrium) कहते हैं।
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कशेरुकी भ्रूण की अधिकांश उपास्थियाँ (cartilages) वयस्क अवस्था में अस्थि द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैं। वयस्क में कुछ उपास्थि नाक की नोक (tips of nose), बाह्य कर्ण संथियाँ (outer ear joints), मेरुदण्ड (vertebral column) के आस - पास की अस्थियाँ के मध्य एवं हाथ व पैर में पायी जाती हैं।

(ii) अस्थि (Bones): अस्थि में अधात्री (matris) का निर्माण औसीन (ossein) नामक प्रोटीन द्वारा होता है। इसमें कोलेजन तन्तु तथा कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के लवण भी पाये जाते हैं। इन्हीं की उपस्थिति के कारण अस्थि दृढ़ एवं कठोर होती है। अधात्री संकेन्द्री वलयों के रूप में व्यवस्थित होती है। इन वलयों को पटलिकाएँ (lamellae) कहा जाता है। अस्थि कोशिकाओं को अस्थ्यणु (osteocytes) कहते हैं तथा ये पटलिकाओं के बीच-बीच में उपस्थित होते हैं। प्रत्येक अस्थ्यणु (osteocytes) में एक बड़ा केन्द्रक होता है तथा इस कोशिका की परिधि से अनेक अनियमिति एवं शाखित प्रवर्ध निकलते हैं जो निकटवर्ती कोशिका के ऐसे ही प्रवर्षों से सम्बन्धित हो जाते हैं। प्रत्येक अस्थ्यणु भी रिक्तिका नामक अवकाश में स्थित होती है। स्वयं रिक्तिका में अनेक सूक्ष्म नलिकाएँ उत्पन्न होती हैं, इन्हीं में अस्थ्यणु के प्रवधं रहते हैं। अस्थि रेशेदार योजी ऊतक के एक मोटे स्तर द्वारा आवरित रहती है। इस आवरण को पर्यास्थिकला (periosteum) कहते हैं। कई अस्थियों में मज्जा गुहिका (marrow cavity) नामक एक केन्द्रीय गुहा पाई जाती है जो अस्थि मज्जा (bone marrow) नामक कोमल ऊतक द्वारा भरी रहती है। अस्थि मन्जा द्वारा ही R.B.C. का निर्माण होता है।
अस्थियों के कार्य (Functions of Bones):

  1. अस्थियाँ जन्तुओं के शरीर को दृढ़ता प्रदान करती हैं। 
  2. अस्थियों में उपस्थित अस्थि मज्जा में R.B.C, का निर्माण होता हैं।
  3. अस्थियाँ पेशियों को जुड़ने के लिए आधार देती हैं। 
  4. अस्थियाँ जन्तु शरीर को निश्चित आकृति प्रदान करती हैं।
  5. अस्थियाँ शरीर के कोमल अंगों को बाहा आघातों से सुरक्षा प्रदान करती हैं, जैसे अस्थियों से बनी वक्षीय कोटर में हृदय, फेफड़े एवं करोटि में मस्तिष्क सुरक्षित रहता है।
  6. श्रवणांगों में स्थित कुछ छोटी हड्डियाँ सुनने में सहायता करती हैं।

(iii) रक्त (Blood): रक्त भी एक विशेष प्रकार का तरल संयोजी ऊतक है जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ तथा ऑक्सीजन शरीर के सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। रुधिर में एक तरल माध्यम प्लाज्मा (plasma) होता है। इसमें लाल रुधिर कणिकाएँ (RBC), श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBC) एवं पट्टिकाणु (platelets) पाये जाते हैं। रेशे, जो कि अन्य योजी ऊतकों में बहुतायत से पाये जाते हैं, इसमें केवल एक रुधिर प्रोटीन-फाइब्रिनोजन (fibrinogon) के रूप में होते हैं। रुधिर का धक्का जमने के समय फाइब्रिनोजन, प्रोटीन रेशों के रूप में अवक्षेपित हो जाता हैं।

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प्रश्न 2. 
कशेरुकी के शरीर में कितने प्रकार की पेशियों पाई जाती हैं? कंकाली पेशी संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पेशी ऊतक (Muscule tissue):
उच्च स्तरीय प्राणियों में गमन तथा विभिन्न अंगों की गति के लिए पेशी ऊतक पाये जाते हैं जिनमें संकुचन (contraction) की क्षमता होती है। पेशी ऊतक पेशी कोशिकाओं द्वारा निर्मित होता है। पेशी कोशिकाएँ लम्बी-पतली होती हैं, इसलिए इन्हें पेशी तन्तु (muscle fibre) भी कहा जाता है। पेशी तन्तु के अन्दर अनेक पेशी तन्तुक (myofibrils) पाये जाते हैं। पेशियों में संकुचनशीलता एवं उत्तेजनशीलता का गुण होने के कारण ये गति एवं चलन में महत्वपूर्ण है। गमन के अलावा पेशियाँ पाचन (digestion), श्वसन (respiration), परिवहन (circulation), उत्सर्जन (excretion) एवं जनन (reproduction) आदि क्रियाओं में भी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती हैं।
पेशी ऊतक तीन प्रकार के होते हैं:

(1) रेखित पेशियाँ (Striated muscles): इन्हें कंकाली पेशियाँ (skeletal muscles) भी कहते हैं क्योंकि अस्थियों से जुड़ी रहती हैं। प्रत्येक रेखित पेशी कोशिका एक बहुकेन्द्रकी बेलनाकार कोशिका होती है। जिसकी कोशिका कला को सार्कोलेमा (sarcolemma) एवं कोशिका द्रव्य को पेशी द्रव्य (sarcoplasm) कहते हैं। पेशी द्रव्य में अनेक अत्यन्त सूक्ष्म पेशी तन्तुक (myofibrils) एक - दूसरे के समानान्तर दिशा में संयोजी ऊतक झिल्ली के द्वारा पूलों (bundles) में जुड़े रहते हैं। पेशी तन्तुओं के इन पूलों को फैसिकुलाई (Faciculi) तथा इनको बाँधने वाली झिल्ली को एपिमाइसियम कहते हैं। मोटी पेशियों में बहुत सारे फैसिकुलाई एक झिल्ली द्वारा जुड़े रहते हैं। इस झिल्ली को पेरिमाइसियम कहते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के बाहर संयोजी ऊतक होता है जिनमें तन्विकाएँ व लसीका कोशिकाएँ फैली रहती हैं। ऊतक के इस भाग को एन्डोमाइसियम कहते हैं।
प्रत्येक पेशी तन्तु में गहरी व हल्की पट्टियों के संपात (coincidence) के कारण कंकाली पेशियों के तन्तु रेखित दिखाई देते हैं।
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गहरी पट्टियों को A पट्टियाँ (Anisotropic band) व हल्की पट्टियों को I पट्टियाँ (Isotropic band) कहते हैं। प्रत्येक I पट्टी के मध्य भाग में एक गहरी Z पट्टी (Z - line or Zwiss chenscheibe
line) कहते हैं। यह धारी I पट्टी को दो समान भागों में बाँट देती है। Z पट्टी को क्राउसे झिल्ली (Karuse's membrane) भी कहते हैं। गहरी पट्टियों को A पट्टियाँ (A - band) कहते हैं। A पट्टियों के बीच तुलनात्मक रूप से एक कम गहरा क्षेत्र पाया जाता है जिसे H बैण्ड (Henson's line or disc) कहते हैं। इसी प्रकार दो Z पट्टी (Z - line) के बीच पाई जाने वाली संरचनात्मक इकाई को सारकोमियर (Sarcomere) कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक पेशी तन्तुक में अनेक सार्कोमिअर्स होते हैं जो एक रेखीय क्रम में व्यवस्थित रहते हैं। प्रत्येक सार्कोमिअर में मायोसिन (myosin) एवं एक्टिन (actin) नामक प्रोटिन्स द्वारा निर्मित दो प्रकार के सूत्रों (filaments) की विशिष्ट व्यवस्था होती है। रेखित पेशियों का संकुचन तीव्र होता है, परन्तु संकुचन प्राणी की इच्छा द्वारा नियन्त्रित होता है। इसलिए इन पेशियों को ऐच्छिक पेशियाँ (voluntary muscles) भी कहते हैं।

(2) चिकनी पेशियाँ (Smooth muscles): इन्हें अरेखित पेशियाँ भी कहते हैं। इस ऊतक की पेशी तन्तु सामान्यत: अलग - अलग रहती है। परन्तु कुछ में यह समूह में भी होती है। ये समूह योजी ऊतकों के द्वारा बंधे रहते हैं। प्रत्येक तन्तु एक पेशी कोशिका होती है। यह लम्बी तर्क के आकार (spindle shape) की होती है। इसके चारों ओर प्लाज्मा झिल्ली का आवरण होता है। इसे सार्कोलेमा (sarcolemma) कहते हैं। कोशिका में भरे हुए कोशिका द्रव्य को सार्कोप्लाज्म (Sarcoplasm) कहते हैं। इसमें एक बड़ा एवं स्पष्ट केन्द्रक पाया जाता है। सार्कोप्लाज्म में अनेक पेशी तन्तु (myofibril) पूरी लम्बाई में समानान्तर फैले रहते हैं। 
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पेशियों में संकुचन धीमी गति से लम्बे समय तक होता है। इन पर जन्तु की इच्छा का नियन्त्रण नहीं होने से इसे अनैच्छिक पेशियाँ (Involuntary muscles) भी कहते हैं। इस प्रकार पेशियाँ शरीर के
आन्तरिक अंगों में पाये जाने के कारण इन पेशियों को अन्तरांगीय पेशी (visceral muscles) भी कहा जाता है। ये पेशियाँ मूत्राशय, श्वासनली, मूत्रवाहिनियाँ, रुधिर वाहिनियाँ, अग्नाशय एवं आन्त्र में पायी जाती हैं।

(3) हृदय पेशियाँ (Cardiac muscles): ये पेशियाँ केवल पृष्ठवंशियों के हदय की भित्ति (wall) पर पाई जाती हैं। हृदय पेशी तन्तु छोटे बेलनाकार एवं शाखित होते हैं। शाखित होने के कारण एक अन्तर संयोजी जाल बनाते हैं। इनके सार्कोप्लाज्म में एक केन्द्रक मध्य में पाया जाता है। इनमें (intercalated disc) पाये जाते हैं जिनके अनुप्रस्थ रेखा कारण यह छोटे - छोटे खण्डों में विभाजित रहता है। प्रत्येक खण्ड में रेखित पेशी तन्तु के समान गहरी व हल्की पट्टियाँ पाई जाती हैं। इन पर इच्छा शक्ति का नियन्त्रण नहीं होता है, इस तरह कार्य की दृष्टि से ये अनैच्छिक होती हैं।
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ये हृदय की पेशियाँ अपने आप बिना रुके एक लय से बराबर आकुंचन करती हैं तथा इसी को हृदय की गति या धड़कन कहते हैं।

प्रश्न 3. 
लचीले संयोजी ऊतक का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
संयोजी ऊतक (Connective tissue):
संयोजी ऊतक विभिन्न ऊतकों को परस्पर जोड़ने में, अंगों को आलम्बन (support) प्रदान करने में तथा विभिन्न ऊतकों एवं अंगों के बीच रिक्त स्थान को भरने में प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त यह रोग एवं कीटाणुओं के विरुद्ध शरीर को सुरक्षित रखने में सहायक होता है। यह ऊतक भ्रूण के मध्य जनन स्तर (mesoderm) से परिवर्तित होता है। इसमें कोशिकाएं दूर-दूर होती हैं तथा उनके बीच भारी परिमाण में मैट्रिक्स नामक अन्तरकोशिक पदार्थ पाया जाता है।
संयोजी ऊतक को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है:

  1. लचीले संयोजी ऊतक (Loose connective tissue) 
  2. सघन संयोजी ऊतक (Dense connective tissue)
  3. विशिष्टीकृत संयोजी ऊतक (Specialised connective tissue)

(1) लचीले संयोजी ऊतक (Loose connective tissue): इस प्रकार के ऊतक का आधारभूत पदार्थ अर्थात् अधात्री या मैट्रिक्स (matrix) तरल या अर्ध तरल होता है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते है:
(अ) अन्तराली संयोजी ऊतक (Aveolar connective tissue): सामान्यत: सभी अंगों के चारों ओर पाया जाने वाला यह ऊतक पारदर्शक एवं चिपचिपे मैट्रिक्स वाला होता है। जैली के समान ढीला तथा अधिक मात्रा में 
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मैट्रिक्स होने के कारण यह ऊतक ढीला और झिल्ली के समान आवरण बनाता है। यह अनेक आन्तरागों के हिलने-डुलने, अमीबीय कोशिकाओं के विचरण, पदार्थों के विसरण आदि की सुगमता और स्वतन्त्रता के लिए यह ऊतक महत्त्वपूर्ण है। मैट्रिक्स में कई प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं:

  1. हिस्टियोसाइटस (Histiocytes): ये बड़ी - बड़ी तथा अमीबीय कोशिकाएं होती हैं और जीवाणुओं आदि का भक्षण करती हैं। 
  2. मास्ट कोशिकाएँ (Mast cells): ये हिपेरिन (heparin) तथा हिस्टेमिन (histamin) जैसे पदार्थ बनाती हैं। 
  3. फाइब्रोब्लास्ट (Fibroblasts): ये तन्तुओं के बीच दबी हुई चपटी कोशिकाएं होती हैं। ये मैट्रिक्स के जैली सदृश आधार पदार्थ एवं तन्तुओं की प्रोटीन्स का स्त्रावण करती हैं। 
  4. लिम्फाइड्स (Lymphoids): ये लसिका कोशिकाओं जैसी होती हैं तथा रोग प्रतिकारक पदार्थों (antibodies) का संश्लेषण और संवहन करती हैं। 

अन्तराली संयोजी ऊतक में दो प्रकार के तन्तु भी पाये जाते हैं

  1. श्वेत कोलेजन तन्तु (White collagen fibres): ये समूह में बंधे हुए, मोटे, रेखित, अशाखित, लहरदार तथा फीते के समान लम्बे, रंगहीन व संख्या में सबसे अधिक होते हैं। इनमें लोच बहुत कम होती है।
  2. पीले इलास्टिन तन्तु (Yellow elastin fibres): ये संख्या में कम, लोचदार, शाखित, अलग - अलग बिखरे हुए, परस्पर जुड़कर जाल बनाने वाले होते हैं। ये हल्की पीली - सी इलास्टिन नामक प्रोटीन के बने हुए पर्याप्त लचीले होते हैं। 

(ब) वसीय संयोजी ऊतक (Adipase connective tissue): अनेक जन्तुओं में विशेषकर स्तन-धारियों में यह ऊतक त्वचा के नीचे पाया जाता है। इसके अतिरिक्त या पीत अस्थि मज्जा (yellow bone marrow) तथा रुधिर वाहिनियों के पास भी मिलता है। वसा ऊतक में प्रायः बड़ी-बड़ी गोल या अण्डाकार वसा कोशिकाएँ (fat cells) अन्तराली ऊतक की थोड़ी-सी मात्रा में निलम्बित रहती हैं। इनमें वसा बिन्दु या गोलक पाये जाते हैं। वसा ऊतक वसा के महत्त्वपूर्ण भण्डार होते हैं। कैट का 'कूबड़ और मेरिनो भेड़ की मोटी पूंछ वसा संचय के कारण ही होती है। वसा ऊतक शरीर का लगभग 10% से 15% भाग बनाते हैं। ये अंगों को अत्यधिक दबाव, खिंचाव, धक्कों आदि से बचाते हैं, तापरोधक स्तरों का काम करते हैं तथा शरीर को आकृति देते हैं।
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(2) सघन संयोजी ऊतक (Dense connective tissue): इन ऊतकों में तन्तु (fibres) एवं तन्तु कोशिकाएं मजबूती से व्यवस्थित रहती हैं। अभिविन्यास (orientation) के आधार पर तन्तु (fibres) तथा तन्तुकोरक (fibroblast) सघन संयोजी ऊतक को निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है:

  • नियमित संयोजी ऊतक (Dense regular tissue) 
  • अनियमित संयोजी ऊतक (Dense irregular tissue)

सघन नियमित ऊतक में कोलेजन तन्तु समानान्तर तन्तुओं के गुच्छों के बीच कतार में स्थित होते हैं। कंडराएँ (tendons) जो कंकाल पेशी को अस्थि से जोड़ती हैं तथा स्नायु (ligaments) जो एक अस्थि को दूसरी अस्थि से जोड़ता है। ये इस ऊतक का उदाहरण हैं।
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सम्पन अनियमित ऊतक (dense irregular tissue) में तन्तु (fibres) एवं तन्तुकोरक (fibroblast) पाये जाते हैं। तन्तु में अधिकांश कोलेजन (collagen) तन्तु होते हैं। इस प्रकार का ऊतक त्वचा (skin) में पाया जाता है।
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(3) विशिष्टीकृत संयोजी ऊतक (Specialised connective tissue): ये तीन प्रकार के होते हैं

  • उपास्थि (Cartilage) 
  • अस्थि (Bones) 
  • रक्त (Blood)

(i) उपास्थि (Cartilage): उपास्थि में अधात्री (matrix) का निर्माण कॉण्ड्रिन (chondrin) नामक प्रोटीन द्वारा होता है। इसमें कोलेजन तन्तु पाये जाते हैं। इन्हीं की उपस्थिति के कारण उपास्थि में कड़ापन होता है। अधात्री (matrix) में उपास्थि अणु (chondrocytes) नामक कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो रिक्तिका (lacuna) नामक अवकाशों में स्थित होती हैं। प्रत्येक रिक्तिका में एक से चार तथा उपास्थि अणु उपस्थित हो सकते हैं। उपास्थि एक सपन योजी ऊतक द्वारा आवरित रहती है। इस आवरण को पर्युपास्थि (perichondrium) कहते हैं।
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कशेरुकी भ्रूण की अधिकांश उपास्थियाँ (cartilages) वयस्क अवस्था में अस्थि द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैं। वयस्क में कुछ उपास्थि नाक की नोक (tips of nose), बाह्य कर्ण संथियाँ (outer ear joints), मेरुदण्ड (vertebral column) के आस - पास की अस्थियाँ के मध्य एवं हाथ व पैर में पायी जाती हैं।

(ii) अस्थि (Bones): अस्थि में अधात्री (matris) का निर्माण औसीन (ossein) नामक प्रोटीन द्वारा होता है। इसमें कोलेजन तन्तु तथा कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के लवण भी पाये जाते हैं। इन्हीं की उपस्थिति के कारण अस्थि दृढ़ एवं कठोर होती है। अधात्री संकेन्द्री वलयों के रूप में व्यवस्थित होती है। इन वलयों को पटलिकाएँ (lamellae) कहा जाता है। अस्थि कोशिकाओं को अस्थ्यणु (osteocytes) कहते हैं तथा ये पटलिकाओं के बीच-बीच में उपस्थित होते हैं। प्रत्येक अस्थ्यणु (osteocytes) में एक बड़ा केन्द्रक होता है तथा इस कोशिका की परिधि से अनेक अनियमिति एवं शाखित प्रवर्ध निकलते हैं जो निकटवर्ती कोशिका के ऐसे ही प्रवर्षों से सम्बन्धित हो जाते हैं। प्रत्येक अस्थ्यणु भी रिक्तिका नामक अवकाश में स्थित होती है। स्वयं रिक्तिका में अनेक सूक्ष्म नलिकाएँ उत्पन्न होती हैं, इन्हीं में अस्थ्यणु के प्रवधं रहते हैं। अस्थि रेशेदार योजी ऊतक के एक मोटे स्तर द्वारा आवरित रहती है। इस आवरण को पर्यास्थिकला (periosteum) कहते हैं। कई अस्थियों में मज्जा गुहिका (marrow cavity) नामक एक केन्द्रीय गुहा पाई जाती है जो अस्थि मज्जा (bone marrow) नामक कोमल ऊतक द्वारा भरी रहती है। अस्थि मन्जा द्वारा ही R.B.C. का निर्माण होता है।
अस्थियों के कार्य (Functions of Bones):

  1. अस्थियाँ जन्तुओं के शरीर को दृढ़ता प्रदान करती हैं। 
  2. अस्थियों में उपस्थित अस्थि मज्जा में R.B.C, का निर्माण होता हैं।
  3. अस्थियाँ पेशियों को जुड़ने के लिए आधार देती हैं। 
  4. अस्थियाँ जन्तु शरीर को निश्चित आकृति प्रदान करती हैं।
  5. अस्थियाँ शरीर के कोमल अंगों को बाहा आघातों से सुरक्षा प्रदान करती हैं, जैसे अस्थियों से बनी वक्षीय कोटर में हृदय, फेफड़े एवं करोटि में मस्तिष्क सुरक्षित रहता है।
  6. श्रवणांगों में स्थित कुछ छोटी हड्डियाँ सुनने में सहायता करती हैं।

(iii) रक्त (Blood): रक्त भी एक विशेष प्रकार का तरल संयोजी ऊतक है जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ तथा ऑक्सीजन शरीर के सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। रुधिर में एक तरल माध्यम प्लाज्मा (plasma) होता है। इसमें लाल रुधिर कणिकाएँ (RBC), श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBC) एवं पट्टिकाणु (platelets) पाये जाते हैं। रेशे, जो कि अन्य योजी ऊतकों में बहुतायत से पाये जाते हैं, इसमें केवल एक रुधिर प्रोटीन-फाइब्रिनोजन (fibrinogon) के रूप में होते हैं। रुधिर का धक्का जमने के समय फाइब्रिनोजन, प्रोटीन रेशों के रूप में अवक्षेपित हो जाता हैं।

प्रश्न 4. 
तत्रिका ऊतक से क्या तात्पर्य है? इसका चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तन्त्रिका ऊतक (Nervous tissue):
तन्त्रिका ऊतक तंत्रिका कोशिका एवं न्यूरोग्लिया द्वारा बना होता है। यह ऊतक शरीर का सबसे बड़ा जटिल ऊतक है जो सघन रूप से संकुलित (densely pactied) परस्पर सम्बन्धित तन्त्रिका कोशिकाओं द्वारा निर्मित होता है। ये तंत्रिका कोशिका न्यूरोन्स (neurons) कहलाती है। यह ऊतक शरीर के विभिन्न भागों के मध्य संचार (communication) तथा उनकी गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए विशिष्टीकृत (specialized) होता है।
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न्यूरोग्लिया (Neuroglial) कोशिका की बाकी तंत्रिका तंत्र को संरचना प्रदान करती है तथा तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरोन्स) को सहारा तथा सुरक्षा देती है। इससे हमारे शरीर में न्यूरोग्लिया कोशिकाएँ तंत्रिका ऊतक का आयतन के अनुसार आधा से ज्यादा हिस्सा बनता है। तंत्रिका ऊतक की उत्पत्ति एक्टोडर्म (Ectoderm) से होती है। यह शरीर के तंत्रिका तंत्र का निर्माण करता है जो कि शरीर के कार्यों का नियंत्रण एवं समन्वयन करता है। न्यूरोन्स के मध्य कोई अन्तरकोशिकीय मैट्रिक्स नहीं पाई जाती है। इनमें सेन्ट्रियोल की अनुपस्थिति के कारण विभाजन की क्षमता समाप्त (पुनर्जनन की न्यूनतम अमता) हो जाती है। अतः इन्हें शरीर से बाहर (Invitro) संवर्धित (cultured) नहीं किया जा सकता है। तंत्रिका ऊतकों का मुख्य कार्य उत्तेजनशीलता है। 
कार्य:

  1. यह ऊतक प्रेरणाओं (impulses) का संवहन करता है जिससे पवाहक अंग (effector organs) प्रतिक्रिया करते हैं। 
  2. यह ऊतक शरीर के विभिन्न अंगों के मध्य पारस्परिक समन्वयन (coordination) स्थापित करता है।

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प्रश्न 5. 
केंचुए की आहारनाल का नामांकित चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पाचन तन्त्र (Digestive system): केंचुए में आहारनाल (Alimentary canal) पूर्ण सीधी शरीर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली रहती है। इसमें निम्न भाग होते हैं:
(1) मुख या मुख द्वार (Mouth): प्रथम खण्ड के नीचे स्थित होता है और पीछे की ओर मुख गुहा में खुलता है। इस पर ओष्ठ, दांत या जबड़े आदि नहीं पाये जाते हैं।

(2) मुख गुहा (Buccal cavity): आहारनाल का एक छोटा व संकरा भाग है। यह पहले से तीसरे खण्ड के मध्य तक सीमित होता है। इसमें बहिवर्तन अर्थात् पलट कर बाहर आने की क्षमता होती है। भोजन ग्रहण करते समय इस पर लगी अपाकुंचक (protractor) पेशियाँ सिकुड़कर इसको बाहर की ओर पलट देती हैं जिससे मुखगुहा अब भोजन पर चूषक की भाँति चिपक जाती है। जब अपाकुंचक (retractor) पेशियाँ सिकुड़ती हैं तो मुखगुहा भोजन सहित अपने स्थान पर वापस चली जाती है और भोजन आहारनाल में आ जाता है। मुखगुहा के पीछे की ओर ग्रसनी (pharynx) में खुलती है।

(3) ग्रसनी (Pharynx): मुखगुहा का अन्तिम भाग एक नखाकार (pcar shaped) मांसल ग्रसनी बनाता है। यह चौथे खण्ड में पाई जाती है और पीछे की ओर ग्रसिका में खुलती है। इसके आगे का भाग एकदम संकरा होकर फिर चौड़ा हो जाता है।
ग्रसनी की अवकाशिका (lumen) को भीतरी छत से एक बढी गाँठनुमा संरचना पायी जाती है जिसे ग्रसनी पुंज (pharyngeal mass) कहते हैं। इसमें ग्रसनी ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं जो छोटी-छोटी क्रोमोफिल कोशिकाओं से बनती हैं। ये ग्रन्थियाँ श्लेष्मा (mucin) तथा प्रोटीन अपघटक (proteolytic) एन्जाइम युक्त रस सावित करती हैं।

ग्रसनी की पार्श्व भित्तियाँ भी अन्दर की ओर धंस कर दो क्षतिज शैल्फ (horizontal shelves) बनाती हैं जिन्हें पृष्ठ (dorsal) व अधर वेश्म कहते हैं। पृष्ठ वेश्म को लार कोष्ठ (salivary chamber) कहते हैं क्योंकि इस भाग में पाचक रस या लार भोजन में मिलती है। अधर वेश्म को संवहन वेश्म (conducting chamber) कहते हैं क्योंकि इस भाग से होकर भोजन ग्रसनी से ग्रसिका (oesophagus) में जाता है।

(4) ग्रसिका (Oesophagus): एक छोटी व संकरी नलिका के समान होती है जो पाँचवें खण्ड से सातवें खण्ड तक फैली रहती है। इसमें से होकर भोजन पीछे स्थित पेषणी (gizzard) में जाता है।

(5) पेषणी (Gizzard): यह छोटी - मोटी पेशी युक्त रचना होती है, जो आठवें व नवें खण्ड में स्थित होती है। भोजन या मिट्टी को पीसने के लिए इस भाग की वर्तुल पेशियाँ बहुत मोटी व कठोर हो जाती हैं। क्यूटिकल का स्तर भी अन्य भागों की अपेक्षा इसमें अधिक मोटा हो जाता है। पेषणी पीछे की ओर आमाशय में खुलती है।

(6) आमाशय (Stomach): आहारनाल का यह भाग लम्बा व पतला (ग्रसिका से चौड़ा) होता है। यह नवें से चौदहवें खण्ड तक फैला रहता है। इसकी भित्ति संवहनीय व ग्रन्थिल होती है। आमाशय की भित्ति में अनेक छोटी-छोटी कैल्सीफेरस ग्रन्थियाँ (calciferous glands) उपस्थित होती हैं जो चूनेदार (calcareous) द्रव स्रावित करती हैं जो भोजन में उपस्थित हुयूमिक अम्ल (humic acid) को उदासीन करके माध्यम को क्षारीय बनाता है।

(7) आन्न (Intestine): आहारनाल का आमाशय से पीछे वाला भाग आन्त्र कहलाता है। यह 15वें खण्ड से आखिरी खण्ड तक फैली होती है। पटों से जुड़ने के स्थान पर आन्य कुछ पिचकी तथा शेष भाग में फूली होने से स्पष्ट रूप से विखण्डित दिखाई देती है। इसकी भित्ति भी संवहनित व ग्रन्थिल होती है। भीतरी स्तर पक्ष्माभिकरमय होता है और वलित होकर छोटे-छोटे रसांकुरों (villi) से उभरा रहता है। 26वें खण्ड से अन्तिम तेईस से पच्चीस खण्ड छोड़कर आन्त्र अवकाशिका की पूरी लम्बाई में मध्य पृष्ठ सतह से एक स्पष्ट एवं अन्य वलनों से बड़ा अनुदैर्घ्य वलन निकलता है। इस वलन को आन्न वलन (typhlosole) कहते हैं। इसका कार्य आन्य की अवशोषी सतह का विस्तार बढ़ाना है।

इस आन्न वलन की उपस्थिति के कारण आन्न तीन क्षेत्रों में बंटी होती है। पन्द्रहवें से छब्बीसवें खण्ड तक भाग आन्त्र वलन पूर्व क्षेत्र (Pretyphlosolar region) कहलाता है। 26वें विखण्ड में आन्त्र के पार्श्व क्षेत्र में एक जोड़ी छोटी व पतली अंधनाल निकलकर आगे की ओर 22वें या 23वें खण्ड तक जाती है। इन संरचनाओं को आन्त्र अंधनाल (Intestinal caeca) कहते हैं। यह एमाइलेज एन्जाइम का लावण करती है। आन्त्रवलन की उपस्थिति के 27वें खण्ड से, अन्तिम 25 खण्डों को छोड़कर, शेष क्षेत्र को आन्त्र वलन क्षेत्र (typhlosolar region) कहते हैं।

(8) मलाशय (Rectum): आहारनाल के अन्तिम 25 खण्डों के क्षेत्र को जिसमें आन्यवलन नहीं पाया जाता है, आन्त्रवलन पश्च क्षेत्र (Post - typhlosolar region) या मलाशय/पश्चांत्र कहते हैं। इसकी अवकाशिका क्यूटिकल द्वारा आस्तरित होती है।

(9) गुदा (Anus): मलाशय का अन्तिम खण्ड में उपस्थित गुदाद्वार द्वारा बाहर खुलता है जो एक दरारनुमा छिद्र होता है। पाचन क्रिया (Digestion) केंचुआ अपने भोजन तथा मिट्टी को मुखगुहा को चूषक की भांति प्रयोग में लाकर अन्तर्ग्रहित करता है।
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मुखगुहा में भोजन का पाचन नहीं होता है। प्रसनी में ग्रासन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित श्लेष्मा भोजन को चिकना बना देता है। ये ग्रन्थियाँ प्रोटीन अपघटक एन्जाइम भी सावित करती हैं जो प्रोटीन को पचाने में सहायता करते हैं। अधर वेश्म से होता हुआ भोजन ग्रसिका में आता है। यहाँ पर भी भोजन का पाचन नहीं होता है। भोजन के पेषणी में पहुंचते ही पेषणी की वर्तुल पेशियाँ भोजन को चक्की की भाँति पीसना प्रारम्भ कर देती हैं। मिट्टी के पीसने से उसमें छिपे भोज्य पदार्थ पाचक रसों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं। आमाशय की दीवारों में स्थित कैल्सीफेरस ग्रन्थियों का रस मिट्टी में उपस्थित हुमिक अम्ल को उदासीन बना देता है ताकि आन्त्र में पाये जाने वाले पाचक रस भोजन को पचा सकें। भोजन का पाचन मुख्यतया आन्त्र में होता है। आन्त्र में आन्धीय उपकला या आन्वीय सीका (intestinal caeca) के एन्जाइम पाचन का कार्य करते हैं। आन्त्र में निम्न एन्जाइम द्वारा पाचन होता है:
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स्टार्च + एमाइलेज → शर्करा
वसा + लाइपेज → ग्लिसरॉल + वसीय अम्ल
सैल्यूलोज + सैल्यूलेज → सेलूलोबिओस (cellulobios)
ग्लाइकोजन + एमाइलोप्सीन → शर्करा
काइटिन + काइटिनेज → खण्डों में पाचन
पचे हुए भोजन का अवशोषण मुख्यतया आन्त्र के वलन तथा टिफ्लोसोल के द्वारा किया जाता है। पोषक तत्व को रका विभिन्न भागों तक पहुंचाता है। अपचित भोजन मलाशय में गोलियों (pallets) के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिसे बिल के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है। अपचित भोजन को त्यागना बहिक्षेपण कहलाता है।

प्रश्न 6. 
कॉकरोच के नर जनन तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नर जनन तन्त्र (Male reproductive system): नर कॉकरोच के जननांग (reproductive organs) एक जोड़ी वृषण (testes), शुक्रवाहिकाएँ (vasdeference), स्ख लन वाहिनी (ejaculatory duct), छत्रारूपी ग्रन्धि (mushroom gland) तथा फैलिक ग्रन्थि (phallic gland) होते हैं। इसके अतिरिक्त नर में गोनोपोफाइसिस (gonopophyses) नामक बाहा जननांग (estemal genitalia) भी होते हैं।
1. वृषण (Testes): नर कॉकरोच में एक जोड़ी वृषण पाये जाते हैं जो उदर के चौथे से छठे खण्ड तक फैले रहते हैं। प्रत्येक वृषण एक लम्बी तथा पतली बेलनाकार रचना होती है जो तीन पिण्डों (lobes) की बनी होती है तथा इसका प्रत्येक पिण्ड अनेक छोटे-छोटे पिण्डकों (lobules) का बना होता है। प्रत्येक वृषण के पश्च सिरे से एक शुक्रवाहिका (vasdeference) निकलती है।

2. शुक्रवाहिकाएँ (Vasdeferences): ये पतली, लम्बी धागे के समान होती हैं। दोनों शुक्रवाहिकाएँ पीछे बढ़कर उदर के पिछले अन्त के मध्य में परस्पर मिल जाती हैं तथा एक लम्बी - चौड़ी स्खलन वाहिनी (ejaculatory duct) में खुल जाती हैं।

3. स्खलन वाहिनी (Ejaculatory duct): स्खलन वाहिनी उदर की मध्य रेखा पर पीछे बढ़कर शरीर के पश्च अन्त पर एक नर जनन छिद्र (genital aperture) द्वारा बाहर खुल जाती है।

4. छत्रारूपी ग्रन्थि अथवा यूट्रिक्यूलस (Mushroom gland or utriculus): प्रत्येक शुक्रवाहिका के अन्तिम सिरे पर अर्थात् जहाँ पर यह दूसरी ओर की शुक्रवाहिका मिलती है वहाँ पर इन्हीं से संलग्न एक बड़ी सफेद रंग की सहायक ग्रन्थि (accessory gland) स्थित होती है जो छत्रारूपी होती है। जो उदर के छठे एवं सातवें खण्ड में स्थित होती है। इस प्रन्थि को छत्रारूपी ग्रन्थि या यूदिक्यूलस (mushroom gland or utriculus) कहते हैं। इसमें तीन प्रकार की नलिकाएँ होती है:

  1. सबसे भीतरी भाग होटी एवं गोल नलिकाएँ जिन्हें शुक्राशय (seminal vesicle) कहते हैं जिनमें शुक्राणुओं का संग्रह किया जाता है। 
  2. छोटी नलिकाएँ (Small tubules): ये अग्र भीतरी भाग की ग्रन्थिल छोटी नलिकाएँ अर्थात् यूट्रीकुली ब्रिविओर्स। इनके स्राव से शुक्राणुओं का पोषण होता है। 
  3. लम्बी नलिकाएँ (Long tubules): ये लम्बी व पतली नलिकाएँ होती हैं जो परिधि की ओर पाई जाती हैं। इसे यूट्रीकुली मेजोरिस (utriculi majoris) भी कहते हैं। इनके साव से शुक्राणुधर (spermatophore) की आन्तरिक परत का निर्माण होता है। 

5. फैलिक ग्रन्थि (Phallic gland or conglobate gland): छत्रा रूपी ग्रन्थि व स्खलन वाहिनी के अधर तल पर एक तुम्बाकार थैली रूपी फैलिक ग्रन्थि स्थित होती है। इस ग्रन्थि का पिछला भाग संकरा होकर फैलिक नलिका (phallic duct) में परिवर्तित हो जाता है। फैलिक नलिका शरीर के पश्च सिरे पर एक फैलिक छिद्र द्वारा जनन छिद्र के निकट बाहर को खुलती है। इस ग्रन्थि के साव से शुक्राणुधर के बाहरी परत का निर्माण होता है।

6. गोनोपोफाइसिस (Gonopophyses): ये रचनाएँ शरीर के पिछले सिरे पर जनन छिद्र के चारों ओर नर कॉकरोच के बाह्य जननांग (extermal genitalia) बनाती हैं। इनको नर गोनोपोफाइसिस के अतिरिक्त फैलोमियर्स (phallomeres) भी कहते हैं। फैलोमियर्स असममित होते हैं तथा काइटिन के बने होते हैं। ये संख्या में तीन होते हैं:
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(1) दाहिना फैलोमियर (Right phallomere): यह दो पिण्डों द्वारा बना होता है। इस फैलोमियर में एक हुक (hook), एक आरी प्लेट (serrated lobe) तथा दो आमने-सामने स्थित प्लेट्स (opposite plates) पाई जाती हैं।
(2) बायाँ फैलोमियर (Left phallomere) का आधार भाग चपटा एवं चौड़ा होता है। इससे चार प्रवर्ध रूपी पिण्ड निकले दिखाई देते हैं, जो निम्न हैं:

  • टिटिलेटर (Titillator)
  • स्यूडोपेनिस (Pseudopenis)
  • एस्पेरेट पिण्ड (Asperate lobe)
  • एक्यूटो FITC (Acuto lobe)

(3) अधर फैलोमियर (Ventral phallomere): यह एक भूरे रंग की चपटी प्लेट होती है। नर जनन छिद्र अधर फैलोमियर पर खुलता हैं।
शक्राणधर का निर्माण (Formation of spermatophore): कॉकरोच में मैथुन से पूर्व शुक्राशय की प्रत्येक नलिका के शुक्राणु परस्पर चिपक कर एक शुक्राणुधर (spermatophore) का निर्माण करते हैं।
इसका आकार नाशपाती के समान होता है। इस पर तीन स्तर पाये जाते हैं, जिन्हें क्रमशः अन्तःस्तर, मध्य स्तर एवं बाह्य स्तर कहते हैं। 

  1. अन्तःस्तर या आन्तरिक स्तर: सबसे पहले आन्तरिक स्तर का स्रावण होता है। इसका स्रावण यूट्रीकुलर मेजोरिस द्वारा किया जाता है। 
  2. मध्य स्तर - मध्य स्तर का स्रावण स्खलन नलिका (ejaculatory duct) द्वारा किया जाता है। 
  3. बाह्य स्तर - बाह्य स्तर का लावण फैलिक ग्रन्थि द्वारा किया जाता है। मैथुन क्रिया के दौरान शुक्राणुधर का स्थानान्तरण नर से मादा को किया जाता है।

प्रश्न 7. 
केंचुए के परिसंचरण तन्व का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Blood circulatory systern): केंचुए में बन्द प्रकार का रुधिर परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है। इसे निम्न प्रकार से अध्ययन किया जाता है:
(1) रुधिर (Blood): रुधिर के दो संघटक होते हैं - प्लाज्मा (Plasma) तथा रुधिर कणिकाएँ। श्वसन वर्णक हीमोग्लोबिन प्लाज्मा में घुला रहता है। अतः हीमोग्लोबिन अन्तर - कोशिकीय होता है। रक्त का रंग लाल होता है। रुधिर के द्वारा ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, यूरिया तथा भोजन शरीर में विभिन्न भागों तक पहुंचाया जाता है। रुधिर कणिकाओं व हीमोग्लोबिन का निर्माण रुधिर ग्रन्थियों के द्वारा किया जाता है।
(2), रुधिर ग्रन्थियाँ (Blood glands): रुधिर ग्रन्थियाँ हीमोग्लोबिन व रक्त कोशिकाओं का निर्माण करती हैं जो कि 4, 5, 6वें खण्डों में पायी जाती हैं। ये हल्के गुलाबी रंग की होती हैं। रक्त कोशिकाएँ भक्षाणु प्रकृति की होती हैं।
(3) रुधिर बाहिनियाँ (Blood vessels): केंचुए में रुधिर परिसंचरण तन्त्र बन्द प्रकार का होता है जिसके लिए सुविकसित वाहिनियों की आवश्यकता होती है। इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है:

  • अनुदैर्घ्य रुधिर वाहिनियाँ (Longitudinal blood vessels) 
  • अनुप्रस्थ रुधिर वाहिनियाँ (Transverse blood vessels) 
  • आन्य जालक (Intestinal plexuses)

(i) अनुदैर्घ्य रुधिर वाहिनियाँ (Longitudinal blood vessels): इस प्रकार की रुधिर वाहिनियाँ केंचुए के शरीर की पूर्ण लम्बाई में फैली रहती हैं। इसमें पाँच मुख्य वाहिनियाँ पायी जाती हैं:
(अ) पृष्ठ रुधिर वाहिनी (Dorsal blood vessel): यह मध्य पृष्ठ अवस्था से आहार नाल के ऊपर शरीर की सम्पूर्ण लम्बाई में पायी जाती है। इसकी भित्ति मोटी तथा सकुंचनशील होती है। अत: यह हृदय (heart) की तरह कार्य करती है। इसमें रुधिर पीछे से आगे की ओर प्रवाहित होता है तथा रुधिर को पीछे की ओर बहने से रोकने के लिए प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी कपाट पाये जाते हैं। केंचुए के अन्तिम खण्ड से 14वें खण्ड तक यह रक्त के संग्रह का कार्य करती है। 13वें खण्ड से प्रथम खण्ड तक यह रक्त वितरण का कार्य करती है। प्रथम 13 खण्डों में यह इन खण्डों में स्थित आहारनाल तथा जननांगों को रक्त प्रदान करती है। पृष्ठ रुधिर वाहिनी 14वें से अन्तिम खण्डों में यह देहभित्ति, आन्त्र, जननांगों तथा अधो तन्यिकीय वाहिनी से रक्त एकत्रित करती है। 

(ब) अधर रुधिर वाहिनी (Venteral blood vessel): केंचुए की अधर रुधिर वाहिनी आहार नाल के नीचे द्वितीय से अन्तिम खण्ड तक पायी जाती है। इसकी दीवारें पतली तथा अकुंचनशील होती हैं। इसमें कपाटों का अभाव होता है। इस वाहिनी में रक्त आगे से पीछे की ओर बहता है। यह केंचुए की सम्पूर्ण लम्बाई में रक्त का वितरण कार्य करती है। 

(स) पार्श्व ग्रसिका वाहिकाएँ (Lateral - oesophageal blood vessels): यह प्रथम 13 खण्डों में आहारनाल के दोनों तरफ स्थित रहती हैं। यह प्रथम 13 खण्डों में शरीर के विभिन्न भागों से रक्त संग्रह करती हैं। इनमें भी रक्त आगे से पीछे की तरफ बहता है। 

(द) अधो - तन्त्रकीय रक्त वाहिनी (Sub - neural blood vessel): यह वाहिनी तन्त्रिका रज्जु के नीचे मध्य अधर तल पर शरीर के पश्च छोर की ओर 14वें खण्ड तक फैली होती है। इसमें रक्त आगे से पीछे की तरफ बहता है। यह रक्त के संग्रह का कार्य करती है। यह पेशीविहीन तथा कपाटविहीन नलिका है। 

(ब) अधिग्रसिका रुधिर वाहिनी (Supra - oesophogeal blood vessel): यह वाहिनी 9वें से 13वें खण्ड तक आमाशय की पृष्ठ दीवार से चिपकी रहती है। यह 10वें एवं 11वें खण्ड में स्थित अग्र पाशों (anterior loop) द्वारा पार्श्व ग्रसिका वाहिनियों से रक्त लेती है। इसके अतिरिक्त यह आमाशय तथा पेषणी की दीवार से भी रुधिर एकत्रित करती है। 

(ii) अनुप्रस्थ या पार्श्व रुधिर वाहिनियाँ (Transverse or lateral blood vessels): केंचुए की सभी प्रकार की अनुदैर्घ्य रुधिर वाहनियाँ, अनुप्रस्थ या पार्श्व रुधिर वाहिनियाँ किसी न किसी रूप में आपस में जुड़ी रहती हैं। 

(अ) हृदय (Heart): फैरिटमा पोस्थ्युमा (Pheretima posthuma) में चार जोड़ी हृदय पाये जाते हैं, जो कि 7, 9, 12 एवं 13 खण्डों में स्थित होते हैं। ये हदय नलिकाकार तथा अकुंचनशील होते हैं। 7वें तथा 9वें खण्डों के हृदय को पाव हृदय (lateral heart) कहते हैं। ये हदय पृष्ठ रुधिर नलिका से रक्त अधर रक्त नलिका में लाते हैं। प्रत्येक पार्श्व हृदय में 4 जोड़ी कपाट पाये जाते हैं। 12वें तथा 13वें खण्डों के हृदयों को पाव ग्रसिका हृदय (lateral oesophageal heart) कहते हैं।
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इस प्रकार के हदय पृष्ठ तथा अधि-ग्रसिका वाहिनियों से रक्त को अधर वाहिनी में लाते हैं। इस प्रकार के हृदय में तीन जोड़ी कपाट पाये जाते हैं। 

(ब) अन पाश (Anterior loops): केंचुए में दो जोडी अग्र पाश पाये जाते हैं। ये 10वें तथा 11वें खण्डों में पाये जाते हैं। ये अग्रपाश दोनों पार्श्व ग्रसनिका वाहिनियों को अधिग्रसिका वाहिनी से जोड़ते हैं। इनमें कपाटों का अभाव होता है तथा इसमें संकुचन का अभाव होता है। 

(स) पृष्ठ आन्त्र वाहिकाएँ (Dorso - intestinal vessels): आन्त्र रक्त का संग्रह पृष्ठ आन्त्र वाहिनियों के द्वारा होता है जो पृष्ठ वाहिनी में खुलती हैं। 

(द) अधर - आन्त्र वाहिकाएँ (Ventro - intestinal vessels): 13वें खण्ड के बाद प्रत्येक खण्ड में मध्यवर्ती अधरआन्त्र - वाहिकाएँ, अधर वाहिनी से रक्त आन्त्र भित्ति में ले जाती हैं। 

(य) संधायी वाहिकाएँ (Commissural vessels): केंचुए के 13वें खण्ड के बाद प्रत्येक खण्ड में संधायी वाहिनियाँ, अधः तन्त्रिका वाहिनी से रुधिर को पृष्ठ वाहिनी में ले जाती हैं। 
(ii) आन्बजालक (Intestinal plexuses): केंचुए की आन्य भित्ति में बहुत - सी रुधिर कोशिकाएँ होती हैं, जो दो जालिकाओं में व्यवस्थित रहती हैं। इनमें एक बाह्य जालिका होती है, जो आहार नाल की सतह पर पायी जाती है। इधर से रुधिर आन्तर - जालिका में भेज दिया जाता है।

(4) लसिका ग्रन्थियाँ (Lumph glands): फैरिटिमा पोस्थ्यमा (pherctima - posthuma) के शरीर 26वें खण्ड से अन्तिम सिरे तक गहिनी के दोनों ओर एक - एक जोड़ी लसिका ग्रन्थियाँ होती हैं। ये सम्भवतः भक्षाणुओं का निर्माण करती हैं। ये हानिकारक जीवाणुओं का सफाया करती हैं।

RBSE Class 11 Biology Important Questions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

प्रश्न 8. 
उत्सर्जन किसे कहते हैं? केंचुए में पाये जाने वाले नेफ्रीडियों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
उत्सर्जी तन्त्र (Excretory system): केंचुए में उत्सर्जन नेफ्रीडिया (Nephridia) द्वारा होता है। ये शरीर के पहले दो खण्डों को छोड़कर अन्य सभी खण्डों में पाये जाते हैं। स्थिति एवं रचना के आधार पर नेफ्रीडिया निम्न तीन प्रकार के होते हैं:
(1) अध्यावरणी नेफ्रीडिया (Inlegumentary nephridia): ये आकार में सबसे छोटे होते हैं। ये प्रथम दो खण्डों को छोड़कर शेष सभी खण्डों में स्थित होते हैं। प्रत्येक खण्ड में 200 - 250, परन्तु क्लाईटेलम में 2000 से 2500 नेफ्रीडिया होते हैं। इन्हें यहाँ पर वृक्कों के वन (Forest of nephridia) भी कहा जाता है। प्रत्येक अध्यावरणी नेफ्रोडिया 'V' आकार का होता है। प्रत्येक नेफ्रोडिया साथ शरीर के बाहर खुलते हैं इसलिए इन्हें बहिर्मुखी नेफ्रीडिया (Exonephric Inephridia) कहते हैं। इनमें नेफ्रीडिया मुख (nephrostome) का अभाव होता है।

(2) ग्रसनीय नेफ्रीडिया (Pharyngeal nephridia): ये केंचुए के ग्रसनीय प्रदेश अर्थात् 4,5 व 6 खण्ड में ग्रसनी व ग्रसिका के दोनों ओर युग्मित गुच्छों के रूप में स्थित होते हैं अतः इन्हें ग्रसनीय नेफ्रीडिया कहते हैं। प्रत्येक उपरोक्त खण्ड में 200 होते हैं जो दो समूहों में होते हैं अर्थात् एक समूह में 100 होते हैं। इन नेफ्रीडिया में नेफ्रोस्टोम (nephrostome) का अभाव होता है। प्रत्येक गुच्छे के समस्त वृक्कों की अन्तस्थ नलिकाएँ एक सहनलिका (common duct) में खुलती हैं।
RBSE Class 11 Biology Important Questions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन 14
तीनों खण्डों की सहनलिकाओं का जोड़ा आगे की ओर बढ़कर मुख गुहा व ग्रसनी में खुलता है। छठे खण्ड की सहनलिकाएँ आगे चलकर दूसरे खण्ड में मुखगुहा में खुलती हैं जबकि चौथे व पाँचवें खण्ड की सहनलिकाएँ ग्रसनी में खुलती हैं। चूंकि ये नेफ्रीडिया आहारनाल में खुलते हैं अतः इन्हें आजमखी नेफ्रीडिया (enteronephric nephridia) भी कहते हैं।

(3) पट्टीय नेफ्रीडिया (Septal nephridia): ये नेफ्रीडिया पूर्ण (complete) होते हैं जिससे इन्हें प्रारूपिक नेफ्रीडिया (typical nephridia) कहते हैं।
(1) स्थिति (Position): ये नेफ्रीडिया 15वें खण्ड के पश्चात् पटों की दोनों ओर सतहों पर एक-एक पंक्ति में होते हैं।
(2) संख्या (Number): प्रत्येक खण्ड में इनकी संख्या लगभग 80 से 100 तक होती है।
पट्टीय वृक्कीय संरचना (Structure of septal nephridia)एक प्रारूपी नेफ्रीडिया को निम्न चार भागों में बाँटा जा सकता है:

(i) वृक्कक मुख या नेफ्रोस्टोम (Nephrostome): प्रत्येक वृक्क के अन सिरे पर कीप के आकार का नेफ्रोस्टोम होता है जो ऊपरी तथा निचले ओष्ठ से घिरा रहता है। यह ओष्ठ काशाभि सीमान्तीय कोशिकाओं से बने होते हैं। 

(ii) ग्रीवा (Neck): यह एक छोटी संकरी नलिका होती है जो नेफ्रोस्टोम के शरीर (body of nephridia) से जोड़ती है। ग्रीवा की गुहा पक्ष्मी उपकला द्वारा आस्तरित होती है। 

(iii) वृक्ककाय (Body of nephridia): नेफ्रीडिया का शरीर लम्बी कुण्डलित नलिका का बना होता है और दो भागों में बाँटा गया है:
(i) सीधी पालि (straight lobe) 
(ii) कुन्तल पालि (twisted lobe)। 
सीधी पालि में चार नलिकाएँ दो लूप्स में पायी जाती हैं। प्रत्येक लूप की एक नलिका रोम युक्त होती है। कुन्तल पालि की लम्बाई सीधी पालि से दुगुनी होती है। कुन्तल पालि के दूरस्थ भाग को शीर्ष पालि कहते हैं, जिनमें दो नलिकाएँ उपस्थित रहती हैं। अन्तस्थ नलिका (Teminal duct) यह कुन्तल पालि के पास के भाग से निकलती है। इसमें एक नलिका जैसी संरचना देखी जा सकती है। यह रोम युक्त होती है। uceta o aferent (Septal excretory duct) प्रत्येक खण्ड में 4 पट्टीय उत्सर्जी नलिकाएँ उपस्थित रहती हैं।

(iv) अधि - आन्न उत्सर्जी नाल (Supra - intestinal excretory canal): यह आन्त्र के ऊपर 15वें खण्ड से अन्तिम खण्ड तक पायी जाती है। प्रत्येक खण्ड से छोटी-छोटी शाखाओं द्वारा आत्र में खुलती है अत: ये आन्त्रमुखी नेफ्रीडिया है। उत्सर्जन क्रिया (Physiology of excretion) सभी नेफ्रीडिया में रक्त वाहिनियों का एक जाल-सा फैला रहता है। उनकी ग्रन्थिल कोशिकाएँ रक्त से जल तथा नाइट्रोजनित उत्सर्जी पदार्थों को अलग करती हैं। रक्त के अलावा, पट्टीय नेफ्रीडिया, देहगुहीय द्रव से भी उत्सर्जी पदार्थों को अलग करती हैं। अध्यावरणीय नेफ्रीडिया, क्योंकि छोटे - छोटे रन्ध्रों द्वारा बाहर खुलती है अतः उत्सर्जी पदार्थों को शरीर की बाहरी सतह पर छोड़ती है। ग्रसनी तथा पट्टीय नेफ्रीडिया एन्टेरोनेफ्रिक होने के कारण उत्सर्जी पदार्थों को आहार नाल में छोड़ती है। केंचुए में मुख्य उत्सर्जी पदार्थ यूरिया होता है। अतः यह यूरियोटिलिक (Ureotelic) प्राणि है। भोजन से तृप्त केंचुआ अमोनोटे लिक (Ammonotelic) होता है।

प्रश्न 9. 
मुखांग (mouthparts) किसे कहते हैं? कॉकरोच के मुखांगों का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बाह्य आकारिकी (External Morphology): कॉकरोच का शरीर संकरा, लम्बा व पृष्ठ से प्रतिपृष्ठ की तरफ बना होता है। वयस्क कॉकरोच की लम्बाई 34 - 53 मिमी. होती है। इसका रंग चमकीला भूरा होता है। नर व मादा कॉकरोच पृथक् होते हैं। नर कुछ छोटा और अधिक चपटा होता है। कॉकरोच एक द्विपाव सममित प्राणी है। 
RBSE Class 11 Biology Important Questions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन 15
कॉकरोच का शरीर खण्डयुक्त होता है। भ्रूणीय अवस्था में 20 खण्ड पाये जाते हैं। सिर के छ: खण्ड, वक्ष के 3 व उदर के 11 खण्ड होते हैं, जबकि वयस्क में 14 खण्ड होते हैं। 
कॉकरोच का शरीर तीन खण्डों में विभक्त होता है:

  • सिर (Head) 
  • वक्ष (Thorax)
  • उदर (Abdomen)।


(i) सिर (Head): इसका सिर त्रिभुजाकार होता है। यह शरीर के लम्ब अक्ष पर समकोण स्थिति में जुड़ा रहता है। यह अपने सिर को इधर - उधर घुमा सकता है तथा सामान्य अवस्था में इसका सिर नीचे की ओर झुका रहता है। इस तरह यह हाइपोनेथस (Hyponathous) प्रकार का होता है। इसका सिर 6 भ्रूणीय खण्डों से मिलकर बना होता है। इसके सिर पर दो संयुक्त नेत्र (compound eyes) पाये जाते हैं जिनकी आकृति वृक्काकार (kidney shape) होती है। ये नेत्र वर्टेक्स (vertex) के दोनों ओर स्थित रहते हैं। प्रत्येक संयुक्त नेत्र के निकट एक छोटा - सा स्थान फेनेस्ट्रा (Fenestra) होता है। इसे साधारण नेत्र कहते हैं। सरल नेत्र प्रकाश के प्रति संवेदनशील (photo-sensitive) होते हैं लेकिन इनमें प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। कॉकरोच के सिर पर दो शृंगिकाएँ पाई जाती हैं।
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(ii) वक्ष (Thorax): कॉकरोच का वक्ष तीन खण्डों से मिलकर बना होता है: 

  • अग्र वक्ष (Prothorax)
  • मध्य वक्ष (Mesothorax)
  • पश्च वक्ष (Metathorax)।

वक्ष के प्रत्येक खण्ड में एक जोड़ी टाँगें (legs) पाई जाती हैं। इसके अलावा मध्य एवं पश्च वक्ष पर एक-एक जोड़ी पंख जुड़े रहते हैं। इस तरह वक्ष पर तीन जोड़ी टाँगें एवं दो जोड़ी पंख होते हैं।

(iii) उदर (Abdomen): इसमें 10 खण्ड पाये जाते हैं। नर के उदर में 9 व मादा के उदर में 7 खण्ड दिखाई देते हैं। इसके पिछले सिरे पर गुदा होती है। 10वें खण्ड पर प्रत्येक ओर एक सन्धियुक्त गूदलूम (Anal cerci) होता है। नर में नर्वे खण्ड के अधर पार्श्व भाग में एक जोड़ी अखण्डित गुदा शूक अथवा एनल स्टाइल (Anal style) होते हैं। मादा में एनल स्टाइल नहीं पाये जाते हैं। सातवें खण्ड के मध्य में ऊथीकल वेश्म का छिद्र होता है। नर कॉकरोच में उदर में 5वें एवं 6वें खण्ड के बीच की झिल्ली में गन्ध ग्रन्थियाँ (stink glands) का एक जोड़ा पाया जाता है।
कंकाल (Skeleton): कंकाल दो प्रकार का पाया जाता है:

(1) बाह्य कंकाल (Exo - skeleton): कॉकरोच के शरीर में काइटिन से निर्मित बाह्य कंकाल पाया जाता है। यह ठोस व सख्त होता है। काइटिन शरीर को दृढ़ता तथा सुरक्षा प्रदान करती है। इसके ऊपर मोम जैसे पदार्थ की परत चढ़ी होती है, जिससे शरीर के द्वारा होने वाली जल क्षति को रोका जा सकता है। बाह्य कंकाल छोटी - छोटी प्लेटों का बना होता है जिसे स्कलैराइटस (Sclerites) कहते हैं। ये स्कलैराइट्स परस्पर सन्धिकारी झिल्ली (Articular membranc) द्वारा जुड़े रहते हैं।
स्कलैराइटस जो शरीर के पृष्ठ तल में स्थित होते टरगम (Tergum), अधर तल में स्टर्नम (Stermum) तथा पार्श्वतलों में स्थित स्कलैराइटस प्लूरोन (Pleuron) कहलाते हैं। प्लूरोन दो होती हैं।

(2) अन्तःकंकाल (Endo - skeleton): कॉकरोच में अनेक स्थानों पर बाह्य कंकाल अन्दर की तरफ धंसकर अन्त:कंकाल का निर्माण करता है। सिर के अन्त:कंकाल को टेन्टोरियम (Tantorium) कहते हैं।

उपांग (Appendages) कॉकरोच के सिर, वक्ष तथा उदर में निम्न प्रकार के उपांग पाये जाते हैं:
(1) सिर के उपांग (Appendage of head):
(i) श्रृंगिकाएँ (Antenae): कॉकरोच के सिर पर संयुक्त नेत्रों के पास पतली, लम्बी एक जोड़ी गतिशील शृंगिकाएँ पाई जाती हैं। यह तीन खण्डों से मिलकर बनी होती है:
(अ) स्केप (Scape): यह आधार भाग होता है जिसके द्वारा शृंगिका सिर से जुड़ी होती है। 
(ब) पेडीसिल (Pedicel): शृंगिका का यह मध्य भाग कहलाता है। इस पर जानस्टन अंग (Johnston organ) पाये जाते हैं। यह गति के प्रति संवेदनशील होते हैं। 

(ii) फ्लेजिलम (Flagellum): यह शृंगिका का अन्तिम भाग है। यह धागेनुमा एवं अनेक खण्डों का बना होता है। यह स्पर्शग्राही तथा गंधग्राही होता है।
श्रृंगिका के कार्य (Functions of Antenac): 
(i) इन पर संवेदी सीटी पायी जाती हैं जो स्पर्श संवेदनाओं को ग्रहण करने का कार्य करती हैं।
(ii) ये भोजन की तलाश में सहायता करती हैं। 
(iii) मुंगिकाएँ मैथुन के दौरान नर व मादा को पहचानने में सहायता करती हैं। 
(iv) शृंगिकाएँ घ्राणग्राही भी होती हैं। 
(v) यह वातावरणीय दशाओं को मापने में सहायक हैं।

(2) मुखांग (Mouth parts): कॉकरोच के मुखांग, मुख को चारों ओर से घेरे रहते हैं। कॉकरोच में मुखांग काटने व चबाने (bitting and chewing) वाले मुखांग पाये जाते हैं। इन्हें मेन्डीब्यूलेट मुखांग (Mandibulate mouth parts) भी कहते हैं। कॉकरोच सर्वाहारी (omnivorous) पोषण के अनुकूलित होते हैं। 
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कॉकरोच के मुखांग निम्नलिखित हैं:
(i) लेबम (Labrum) - ऊपरी ओष्ठ - एक 
(ii) मेन्डीबल (Mandible)  - एक जोड़ी
(iii) मैक्सौला (Maxilla) - एक जोड़ी
(iv) लेबियम (Labium) - निचला ओष्ठ - एक 
(v) हाइपोफेरिक्स (Hypopharyne) - एक

(i) लेबम (Labrum): इसे ऊपरी ओष्ठ (upper lip) कहते हैं। यह काइटिन के द्वारा निर्मित प्लेट के समान रचना होती है। यह लचीली पेशियों द्वारा क्लाइपियस (clypeus) से जुड़ी होती है। यह सिर के तीसरे खण्ड का उपांग है। इसकी भीतरी सतह दो भागों में बँटी होती है। भीतरी सतह पर दो पंक्तियों में स्वाद संवेदी रोम (eustatory) पाये जाते हैं।

(ii) मेन्डीबल्स (Mandibles): ये एक जोड़ी मजबूत, कठोर काइटिन के बने त्रिभुजाकार गहरे भूरे या काले रंग के लेबम के नीचे दोनों पार्श्व सतहों में स्थित होते हैं। इनके भीतरी किनारों पर दंतिकाएँ (denticles) लगी रहती हैं जो भोजन को कुतरने एवं चबाने का कार्य करती हैं। प्रत्येक मेन्डीबल एक अपवर्तनी पेशी (abductor muscle) तथा एक अभिवर्तनी पेशी (adductor muscle) के द्वारा जुड़ी रहती है। अभिवर्तनी पेशी के संकुचन से मेन्डीबल्स पास-पास आते हैं व अपवर्तनी पेशी के संकुचन से मेन्डीबल्स दूर-दूर जाते हैं। मेन्डीबल सिर के चौथे खण्ड के उपांग है। दांतेदार सिरे की ओर एक कोमल गद्दी के समान रचना पाई जाती है जिसे प्रोस्थीका (Prostheca) कहते हैं। इस पर संवेदी सीटी पायी जाती है।

(iii) मैक्सीला (Maxilla): यह मेन्डीबल्स के नीचे व मुख के पाश्चों में स्थित होती है। यह सिर के 5वें खण्ड का उपांग है। मैक्सीला निम्न तीन भागों से मिलकर बनी होती है:
(i) प्रोटोपोडाइट (Protopodite): यह मैक्सीला का आधारी भाग है। यह दो खण्डों से मिलकर बना होता है, जिन्हें क्रमशः कार्डो (Cardo) व स्टाइप्स (Stipes) कहते हैं। कार्डो व स्टाइप्स के बीच 90° का कोण होता है।
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(ii) एक्सोपोडाइट (Exopodite) को मैक्सीलरी पैल्प (maxillary palp) कहते हैं। यह स्टाइप्स (stipes) की बाहरी सतह से उद्भासित होता है व पाँच खण्डों से निर्मित होता है। मैक्सीलरी पैल्प के आधार पर काइटिनी उभार पाया जाता है। इसे पैल्पीजर (palpiger) कहते हैं। इस पर संवेदी शूक (sensory sctac) पायी जाती है। 

(iii) एण्डोपोडाइट (Endopodite): स्टाइप्स पर भीतर की जुड़ा रहता है। यह दो भागों द्वारा निर्मित होता है। बाहर की ओर गैलिया (galea) व भीतर की ओर लेसिनिया (lacinia) स्थित होता है। गैलिया मुलायम अथवा कोमल होता है जबकि लैसिनिया कठोर, नुकीला एवं हुक समान होता है। इसके भीतरी सतह पर कठोर शूक पाये जाते हैं। लैसिनिया के शूक व नखर भोजन को पकड़कर मैन्डीवल्स के बीच लाने का कार्य करते हैं। लैंसिनिया के शूक, श्रृंगिकाओं मैक्सीलरी पैल्प व प्रथम जोड़ी पादों की बुश की तरह सफाई करते हैं। 

(iv) लेबियम (Labium): इसे द्वितीय मैक्सिला (second maxilla) भी कहते हैं। काइटिन युक्त लेबियम मुख की आधार दिशा में स्थित होता है अत: इसे निचला होंठ (lower lip) कहते हैं। वास्तव में लेबियम दो मैक्सिला के समेकन (fusion) से बनता है। इसके दो मुख्य खण्ड होते हैं - पोस्टमेन्टम (Postmentum) तथा प्रीमेन्टम (Prementum)। पोस्टमेन्टम दो खण्डों का बना होता है- (i) बड़ा सबमेन्टम (Submentum) तथा (ii) होटा मेन्टम (Mentum)। सबमेन्टम, सिर कोष से जुड़ा होता है तथा मेन्टम से अपेक्षाकृत अधिक मजबूत होता है। प्रीमेन्टम के पार्श्व तालों पर एक जोड़ी त्रिखण्डीय लेबियल पाल्प्स (Labial palps) लगे रहते हैं। प्रत्येक पैल्प के आधार पर एक छोटा-सा खण्ड होता है जिसे पेल्पीगर (Palpiger) कहते हैं। प्रीमेन्टम पर चार खण्ड लगे रहते हैं, जिनमें दो भीतरी खण्डों को ग्लॉसा (glossa) और बाहरी खण्डों को पैराग्लॉसा (Paraglossa) कहते हैं। ग्लॉसा व पैराग्लॉसा पकड़े हुए भोजन को मुख द्वार के बाहर नहीं जाने देते हैं। सम्भवतः ये संवेदी भी होते हैं। ग्लॉसा और पैराग्लॉसा को सम्मिलित रूप में लिगुला कहते हैं।

(v) हाइफोफरिक्स (Hypopharynx): लेबियम के ऊपर तथा मैक्सिली के नीचे मुख द्वार के पश्च छोर पर एक छोटा मुख उपांग होता है जिसे हाइपोफैरिक्स कहते हैं। इसे जीभ (tongue) भी कहते हैं। इस पर लार ग्रन्धि नलिका खुलती है। यह नॉनकाइटिनियस अंग है।

(3) वक्ष के उपांग (Appendages of thorax): कॉकरोच के वक्ष भाग में तीन जोड़ी टाँगें होती हैं। इसके अतिरिक्त दो जोड़ी पंख पाये जाते हैं।

(A) टाँगें (Legs): वक्ष के अधर तल पर तीन जोड़ी टाँगें होती हैं। तीनों जोड़ी टाँगों की रचना एक-सी होती है। प्रत्येक टाँग में पाँच खण्ड होते हैं
(i) कॉक्सा (Coxa): यह आधारी चौड़ा भाग होता है। इसके द्वारा टाँग वक्ष के पार्श्व में जुड़ी रहती है।
(ii) ट्रोकेन्टर (Trochanter): यह कॉक्सा से छोटा होता है और कॉक्सा पर भली प्रकार से हिल-डुल सकता है। 
(iii) फीमर (Femur): यह लम्बा व कुछ चौड़ा भाग होता है। इस पर काइटिन के बने दृढ़ शूक (bristles) पाये जाते हैं। 
(iv) टिबिया (Tibia): यह टाँग का सबसे लम्बा खण्ड है। इस पर कठोर काइटिनस शूक पाये जाते हैं जिन्हें टिबिबल शूक (Tibial bristles) कहते हैं। इनकी सहायता से कॉकरोच शरीर की सफाई करता है। 
(v) टारसस (Tarsus): यह टाँग का अन्तिम खण्ड है। इसमें पाँच गतिशील उपखण्ड होते हैं जो पोडोमियर्स (Podomeres) कहलाते हैं। प्रत्येक पोडोमियर पर छोटी-छोटी सीटी लगी रहती हैं तथा इनके नीचे की सतह पर गद्दियाँ पाई जाती हैं जिन्हें प्लेन्दुली (Plantuli) कहते हैं। टारसस का अन्तिम खण्ड जो प्रीटारसस (Pretarsus) कहलाता है, के स्वतन्त्र छोर पर कमान की भाँति झुके दो काँटे होते हैं जिसे क्लॉज (claws) कहते हैं। दोनों काँटों के बीच में एक गद्दी पाई जाती है जिसे पल्वीलस (Pulvillus) अथवा एरोलियम कहते हैं। खुरदरे स्थानों पर चलने के लिए क्लॉज एवं चिकनी सतह पर चलने के लिए गद्दियाँ सहायता करती हैं। टिबिया एवं फीमर पर मोटे-मोटे काटे रूपी ब्रिसल्स (bristles) लगे होते हैं। टॉरसस के खण्डों पर महीन ब्रिसल्स लगे होते हैं। ये सभी स्पर्श संवेदी होते हैं। 

(B) पंख (Wings): कॉकरोच में दो जोड़ी पंख पाये जाते हैं जो कि मध्य वक्ष (Mesothorax) तथा पश्च वक्ष (Metathorax) की पृष्ठ पार्श्व सतह से लगे रहते हैं। नर के पंख मादा की अपेक्षा लम्बे होते हैं।
प्रथम जोड़ी पंख गहरे रंग के कड़े तथा चर्मीय (leathery) होते हैं जो दूसरी जोड़ी पंखों को ढके रखते हैं इसलिए इन्हें ढापन पंख (wing covers) या टेग्मिना (Tagmina) कहते हैं। ये उड़ने में सहायता नहीं करते हैं। इन्हें एलाइदा (elytra) भी कहते हैं। पंख की दूसरी जोड़ी पारदर्शी, महीन व कोमल होती है। ये झिल्लीनुमा एवं सिमटे हुए (folded) होते हैं। ये पंख उड़ने में सहायता करते हैं।

(4) उदर के उपांग (Abdominal appendages): कॉकरोच के उदर भाग में कोई उपांग नहीं पाये जाते हैं लेकिन अन्तिम छोर पर जनन छिद्र से सम्बन्धित छोटी-छोटी रचनाएँ पायी जाती हैं। नर और मादा अलग-अलग होते हैं। 
(i) गूदा लूम (Anal cerci): ये नर तथा मादा दोनों में 10वें टरगाइट से एक जोड़ी के रूप में लगी रहती है। गुदा लूम लम्बी, पतली एवं इसमें 15 खण्ड पाये जाते हैं। इस पर संवेदी रोम पाये जाते हैं जो ध्वनि उद्दीपन को ग्रहण करने का कार्य करते हैं। इसलिए इसे कॉकरोच के कान (ear) कहा जाता है।
(ii) गुद कटिकाएँ (Anal styles): नर कॉकरोच में प्रवें स्टर्नम से एक जोड़ी धागेनुमा गुद कंटिकाएँ लगी होती हैं। ये अखण्डित (unsegmented) होती हैं तथा मैथुन क्रिया में सहायता करती हैं। मादा में ये अनुपस्थित होती हैं।

प्रश्न 10. 
कॉकरोच के परिसंचरण तन्त्र का वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
परिसंचरण तन्त्र (Circulatory system): कॉकरोच में रक्त का परिसंचरण स्पष्ट वाहनियों एवं केशिकाओं (vessels and capillaries) में नहीं होता है किन्तु रक्त सीधे ही विभिन्न आंतरांगों के सम्पर्क में आता है। रक्त अनियमित आकार के रक्त पात्रों (blood sinuses) में रहता है। ये रक्त पात्र विभिन्न आंतरांगों के चारों ओर पाये जाते हैं। वास्तव में रक्त पात्र कॉकरोच की परिवर्तित देहगुहा (coelome) है क्योंकि जन्तु की देहगुहा रक्त से भरी होती है। इसलिए इसे हीमोसील (Haemoccel) की संज्ञा दी जाती है तथा परिसंचरण तन्त्र को हीमोसीलोमिक तन्त्र (Haemococlomic system) भी कहते हैं। इस प्रकार का रक्त परिसंचरण जिसमें स्पष्ट वाहिनियों का अभाव होता है तथा रक्त पात्रों में उपस्थित रहकर सीधे ही आंतरांगों के सम्पर्क में आता है, खुला परिसंचरण तन्त्र (open circulatory system) कहलाता है।

हृदय (Heart): देह भित्ति के नीचे कॉकरोच की मध्य पृष्ठ रेखा (mid dorsal line) पर अग्र अन्त से पश्च अन्त तक एक सफेद लम्बी नलिका फैली रहती है जिसे हृदय (Heart) कहते हैं। कॉकरोच का हृदय वक्ष के पहले खण्ड से उदर के अन्तिम खण्ड तक फैला रहता है। हदय की भित्ति पेशीयुक्त होती है एवं हृदय स्पंदनशील (pulsatile) होता है। यह एक मिनट में 49 बार धड़कता है। हृदय 13 छोटे-छोटे समखण्डीय वेश्मों (segmental chambers) में बंटा होता है। देखिये चित्र में। प्रत्येक वेश्म कीपरूपी (funnel likc) होता है तथा इसके पिछले चौड़े भाग में एक जोड़ी पावर्षीय छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिन्हें ऑस्टिया (Ostia) कहते हैं। ऑस्टिया पर एक तरफ कपाट (one way valve) लगे होते हैं जो रक्त को केवल हीमोसील से हृदय में जाने देते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वेश्म तथा अगले वेश्म के बीच भी कपाट (valves) होते हैं जो रक्त को हदय में केवल पीछे से आगे जाने देते हैं।
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हृदय का पश्च सिरा बन्द होता है तथा अग्र छोर खुला होता है जो प्रोथोरेक्स के अगले भाग में एक संकरी नलिका के रूप में होता है जिसे अन महाधमनी (anterior aorta) कहते हैं जो ग्रीवा से निकलकर सिर की गुहा में खुलती है। कॉकरोच का हृदय न्यूरोजेनिक (neurogenic) प्रकार का होता है।

रक्त - पात्र (Blood sinuses): कॉकरोच की देहगुहा अर्थात् हीमोसील दो महीन झिल्लियों द्वारा तीन क्षैतिज आयाम (horizontal longitudinal) पात्रों (sinuses) में बंटी होती है। इन झिल्लियों को विभाजक पट्टियाँ (diaphragms) कहते हैं। सबसे ऊपरी पृष्ठ - पात्र जो अपेक्षाकृत संकरा होता है तथा हृदय को घेरे होता है, पेरीकार्डियल पात्र (pericardial sinus) कहलाता है। मध्य का सबसे चौड़ा पात्र जो आहारनाल आंतरांगों को घेरे होता है, पेरीविसरल पात्र (perivisceral sinus) कहलाता है। अधर का संकरा पात्र जो तन्त्रिका रन्जु को घेरे होता है, पैरीन्यूरल पात्र (perineural sinus) कहलाता है।

पेरीकार्डियल तथा पेरीविसरल पारों के बीच की विभाजक पट्टी (dorsal diaphragm) कहलाती है तथा पेरीविसरल तथा पेरीन्यूरल पात्रों को खाँच की विभाजक पट्टी अधर पट्टी (venteral diaphragm) कहलाती है। दोनों पट्टियों पर अनेक सूक्ष्म छिद्र होते हैं जिनके द्वारा रक्त एक पात्र से दूसरे पात्र में जाता है। पेरीकार्डियल पात्र तथा पृष्ठीय टरगा के भीतरी तल को 13 जोड़ी त्रिकोणाकार पंखे रूपी पेशियाँ परस्पर जोड़े रहती हैं। इन पेशियों को एलेरी पेशियाँ (alary muscles) कहते हैं। ये पेशियाँ हृदय की कार्यविधि से सम्बन्धित होती हैं।

परिसंचरण (Circulation): जब पेरिकार्डियल पात्र की एलेरी पेशियों में संकुचन होता है तब रक्त पेरीन्यूरल पात्र से पेरीविसरल पात्र में आता है तथा यहाँ से यह पेरीकार्डियल पात्र में चला जाता है तथा अन्त में ऑस्टिया द्वारा हृदय में चला जाता है। अब हदय की भित्ति की पेशियों में स्वयं संकुचन होता है तथा रक्त अन महाधमनी
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(anterior aorta) से सिरे की गुहा में पहुंचता है। यहाँ से रक्त पेरी विसरल पात्र में चला जाता है तथा साथ ही पेरीन्यूरल पात्र में भी चला जाता है। इस परिसंचरण में शरीर के विभिन्न अंग रक्त के सम्पर्क में आते हैं।
कॉकरोच का रक्त हीमोलिम्फ कहलाता है। हीमोलिम्फ रंगहीन प्लाज्मा एवं रुधिराणुओं से बना होता है। यह गैसों के परिवहन में भाग नहीं लेता है। 

प्रश्न 11. 
संयुक्त नेत्र किसे कहते हैं? इसकी इकाई की संरचना का वर्णन कीजिए। 
उत्तर:
संवेदी अंग (Sensory organs): कॉकरोच में ध्वनि, प्रकाश, गंध, स्वाद, स्पर्श रसायन व ताप आदि उद्दीपनों को ग्रहण करने के लिए संबेदी अंग पाये जाते हैं। कॉकरोच में निम्न दो प्रकार के संवेदी अंग पाये जाते हैं

  • संवेदिकाएँ (Sensillae) 
  • संयुक्त नेत्र (Compund eye)

(1) संवेदिकाएँ (Sensillae): ये संवेदिकाएँ हायपोडर्मिस (Hypodermis) में पायी जाती हैं तथा सम्पूर्ण शरीर में स्थित रहती हैं। इनकी स्थिति एवं कार्य के आधार पर निम्न प्रकार से हैं:

संवेदिकाएँ (Sensillae)

कार्य (Functions)

1. स्पर्शग्राही (Thigmoreceptors)

स्पर्श से सम्बन्धित रहती हैं।

2. स्वादग्राही (Gustoreceptors)

ये स्वाद महसूस करती हैं।

3. गंधग्राही (Olfactoreceptors)

ये गंध को ग्रहण करती हैं।

4. ध्वनिग्राही (Phonoreceptors)

ये ध्वनि को ग्रहण करती हैं।

5. तापग्राही (Thermoreceptors)

ये ताप को महसूस करती हैं।

6. प्रोपियोनाही (Propioreceptors)

ये संभवतया जोड़ों के पास की संवेदनाओं को प्राप्त करती हैं।



(2) नेत्र (Eyes): कॉकरोच के नेत्र दो प्रकार के होते हैं:
(i) सरल नेत्र (Simple eyes): ये एक जोड़ी संयुक्त नेत्रों के आन्तरिक किनारों पर स्थित होते हैं। इनमें प्रतिबिम्ब का निर्माण नहीं होता है परन्तु ये प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। 

(ii) संयुक्त नेत्र (Compound eyes): सिर के पावों में एक-एक, बड़े व काले तथा वृक्काकार (kidney shaped) से संयुक्त नेत्र कॉकरोच के सबसे महत्वपूर्ण जटिल संवेदांग हैं तथा जन्तु को प्रकाश ज्ञान (photo-reception) कराते हैं। प्रत्येक नेत्र की सतह कुछ उभरी हुई और लगभग 2000 छोटे-छोटे षटभुजीय (hexagonal) क्षेत्र में बंटी होती हैं जिन्हें फैसेट्स कहते हैं। प्रत्येक फैसेट के नीचे भ्रूण की एक्टोडर्म से बनी कई छोटी-छोटी रचनाओं की श्रृंखला होती है जो अपनी फैसेट के साथ दृष्टि ज्ञान की एक इकाई (unit) बनाती है। इस इकाई को नेत्रांशक या ओमेटीडियम (ommatidium) कहते हैं। इस प्रकार कॉकरोच के प्रत्येक संयुक्त नेत्र में दृष्टि ज्ञान की 2000 इकाइयाँ या ओमेटीडियम होते हैं।
ओमेटीडियम की संरचना: प्रत्येक ओमेटीडियम का फैसट बाइकोन्वेक्स (Biconves), पारदर्शक तथा क्यूटिकल का बना होता है जो लैन्स (lens) का कार्य करता है। अतः इसे कार्नियल लैन्स (cormeal lens) भी कहते हैं तथा सभी ओमेटीडियम के फेसेट्स मिलकर संयुक्त नेत्र का कॉर्निया (cornea) का निर्माण करते हैं। प्रत्येक कॉर्नियल लेन्स (corneal lens) के नीचे दो शंक्वाकार कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें कार्निएजन कोशिकाएँ (corneagen cells) कहते हैं। ये कोशिकाएँ कार्नियल लेन्स का लावण करती हैं।

कानिएजन कोशिकाओं के नीचे चार लम्बी शंक्वाकार कोशिकाओं का एक घेरा होता है जिन्हें शंकु कोशिकाएँ (cone cells) कहते हैं। शंकु कोशिकाओं को सम्मिलित रूप से विट्रेला (vitrella) कहते हैं। शंकु कोशिकाएँ इन्हीं के द्वारा सावित एक ठोस, पारदर्शक तथा शंक्वाकार (conical) रचना को घेरे होती हैं जिसे क्रिस्टलाइन शंकु (crystalline cone) कहते हैं। क्रिस्टलाइन शंकु के नीचे एक पतली छड़ रूपी बेलनाकार तथा वियर्तक (refractile) रब्डोम (Thabdom) नामक रचना होती है। रैण्डोम को सात लम्बी-लम्बी रेटिनल कोशिकाएँ धेरै होती हैं जो रैण्डोम का सावण करती हैं। रेटिनल कोशिकाओं (retinular cells) को सम्मिलित रूप से रेटीन्यूला (retinula) की संज्ञा दी जाती है। रैण्डोम के ठीक नीचे नेत्र की महीन आधार कला (basement membrane) स्थित होती है। रेटिनल कोशिकाओं के पश्च सिरे तन्त्रिका से जुड़े रहते हैं जो दुक-तन्त्रिका (optic nerve) से जा मिलते हैं।

प्रत्येक नेत्रांशक ओमेटीडियम के चारों ओर रंगा कोशिकाओं (pigment cells) का बना हुआ गहरे रंग का आवरण अर्थात् खोल (sheath) होती है। ये रंगा खोल दो भागों में बंटी होती है। खोल का ऊपरी भाग जो क्रिस्टेलाइन कोन (crystalline cone) को घेरता है, आइरिस रंगा खोल (Iris pigment sheath) कहलाता है तथा दूसरा निचला भाग जो रेटिनल कोशिकाओं को घेरे होता है, रेटिनल रंगा खोल (retinal pigment sheath) कहलाता है। इन रंगा खोलों में संकुचन एवं शिथिलता की क्षमता होती है।

लेकिन कॉकरोच एक रात्रिचर जन्तु है तथा यह प्रायः अंधेरे में ही अपने वास-स्थान से बाहर निकलता है परन्तु इसके संयुक्त नेत्रों में केवल मोजेक दृष्टि अथवा एपोजीशन प्रतिबिम्ब बनता है, क्योंकि इसके नेत्रांशक (ommatidia) के रम्प खोलों (pigment shcatas) में सिकुड़ने की क्षमता नहीं होती है तथा प्रत्येक ओमेटिडीया संयुक्त नेत्र की अन्य नेवांशकों से पृथक रहता है। मोजेक दृष्टि केवल रात्रि के दौरान ही सक्षम होती है।

प्रश्न 12. 
मादा कॉकरोच के जननांगों का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मादा जनन तन्त्र (Female reproductive system): मादा कॉकरोच के जननांग (reproductive organs) एक जोड़ी अण्डाशय (ovaries), अण्डवाहिनी (oviducts), योनि (vagina), शुक्रगुहिका (spermatheca) तथा कोलेटीरियल ग्रन्थियाँ (collaterial glands) होते हैं।
इसके अतिरिक्त मादा में भी बाह्य जननांग अथवा गोनोपोफाइसिस (gonopophyses) उपस्थित होते हैं।
(1) अण्डाशय (Ovaries): मादा कॉकरोच के जनद (gonads) अर्थात् प्रमुख जननांग एक जोड़ी अण्डाशय होते हैं । अण्डाशय उदर के दोनों पाश्यों में लगभग दूसरे से छठे खण्ड तक फैले रहते हैं। प्रत्येक अण्डाशय में आठ लम्बी हल्की पीली तथा नलिकाकार अण्डिकाएँ (ovarioles) पाई जाती हैं। अण्डिकाओं में अण्डाणु तलाभिसारी क्रम में विन्यासित रहते हैं।

(2) अण्डवाहिनी (Oviduct): प्रत्येक अण्डाशय के पश्च सिरे से छोटी परन्तु चौड़ी अण्डवाहिनी निकलती है। दोनों ओर की अण्डवाहिनियाँ मध्य रेखा की ओर बढ़कर योनि (vagina) में खुलती हैं।
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(3) योनि (Vagina): यह एक चौड़ी नली होती है। इसकी भित्ति पेशीय एवं ग्रन्थिल होती है। यह पश्च सिरे पर मादा जनन छिद्र द्वारा जनन वेश्म में खुलती है।

(4)शुक्रग्राहिका (Spermatheca): योनि के पृष्ठ तल पर एक जोड़ी शुक्रग्राहिका छठे खण्ड में स्थित होती है। इसकी बायीं पाली दायीं पाली की तुलना में बड़ी होती है। इस रचना में मैथुन क्रिया द्वारा नर से प्राप्त शुक्राणुओं का संग्रह किया जाता है। यह जनन वेश्म (genital chamber) में शुक्रग्राहिका अंकुर (spermathecal papilla) पर एक छिद्र द्वारा खुलती है।

(5) कोलेटीरियल ग्रन्धियाँ (Collaterial glands): जनन वेश्म के पृष्ठ पर एक जोड़ी अत्यन्त शाखान्वित कोलेटीरियल ग्रन्थियाँ उपस्थित होती हैं। बायीं कोलेटीरियल प्रन्थि सुविकसित एवं अधिक शाखित होती है। इससे घुलनशील प्रोटीन का स्राव होता है। दायीं कोलेटीरियल ग्रन्थि अल्प विकसित होती है। इससे डाइहाइड्रोक्सी फिनोल (Dihydroxy phenol) का स्राव होता है। दोनों ओर की ग्रन्थियाँ अपनी वाहिनी नलिकाओं द्वारा परस्पर मिलकर एक सह-छिद्र (common aperture) द्वारा जनन वेश्म के पृष्ठ पर ही खुल जाती हैं। इसका स्राव अण्डकवच या ऊधीका (Ootheca) बनाता है।

(6) जनन वेश्म (Genital chamber): इसको ब्रुड पाऊच (Brood pouch) भी कहते हैं तथा इसका निर्माण 8वीं तथा 9वीं स्टर्नम से होता है। यह दो भागों में बंटा होता है। इसके अग्र भाग को जननिक कोष्ठ (genital chamber) एवं पश्च भाग को ऊथीकल कक्ष (Oothecal chamber) कहते हैं। निषेचन एवं ऊथीका का निर्माण ऊधीकल कक्ष में ही होता है।

(7) गोनोपोफाइसिस (Gonopophysis): मादा कॉकरोच के जनन वेश्म में तीन जोड़ी गोनोपोफाइसिस पाये जाते हैं। गोनोपोफाइसिस अण्डनिक्षेपक (ovipositor) का कार्य करते हैं। ये निषेचित अण्डों को नव निर्माणाधीन ऊथीका में जमाते हैं। 
मैथुन तथा निषेचन (Copulation & fertilization): मैथुन क्रिया रात्रि के समय प्रजनन काल (मार्च से सितम्बर) में ही होती है। यह 'पुच्छ-पुच्छ' (Tail-Tail) अवस्था में होती है। प्रजनन काल के दौरान मादा कॉकरोच कामोत्तेजक फीरोमोन से आकर्षित होकर नर से मैथुन करती है। नर कॉकरोच फैलोमियर्स के द्वारा मादा जनन छिद्र को खोलकर शुक्राणुधर को जनन कक्ष में प्रवेश कराता है। शुक्राणुधर शुक्रग्राहिका के अंकुर से चिपक जाता है। इस कारण शुक्राणु शुक्रग्राही में प्रवेश कर जाते हैं तथा खाली शुक्राणुधर को बाहर निकाल दिया जाता है। मैथुन क्रिया के फलस्वरूप दोनों अण्डाशयों में 16 अण्डे जनन कक्ष में आते हैं। ये 8-8 की दो कतारों में अण्डनिक्षेपक द्वारा व्यवस्थित कर दिये जाते हैं। आन्तरिक निषेचन जनन कक्ष (Genital chamber) में होता है।

ऊथीका का निर्माण (Formation of ootheca): निषेचित अण्डे आण्डवार कक्ष में प्रवेश करते हैं। यहाँ कोलेटरियल ग्रन्थि, स्कलेरो प्रोटीन (sclero protein) का स्त्रावन करती है जिससे ऊथीका का निर्माण होता है। ऊथीका गहरे लाल रंग से काले भूरे रंग का 3/8 इंच (8 मिमी.) लम्बा केप्सूल होता है। इसके निर्माण में लगभग 20 घण्टे लगते हैं तथा औसतन एक मादा 9-10 ऊथीका का निमोण करती है। कुछ दिनों पश्चात् मादा इसको अंधेरे, सूखे तथा गर्म स्थान पर रख देती है। इसके ऊपर काइटिन का आवरण पाया जाता है जिसमें एक माइक्रोपाइल नामक बारीक छिद्र पाया जाता है।
भ्रूणीय परिवर्धन (Embryonic development): भ्रूणीय परिवर्धन ऊथीका में लगभग 1-3 महीनों में पूर्ण होता है तथा पेरिब्लास्टूना (periblastula) का निर्माण सतही विदलन से होता है। इसके पश्चात् गेस्टुला में परिवर्तित हो जाता है और अन्ततः तरुण कॉकरोच या निम्फ (nymph) का निर्माण होता है। परिवर्धन प्रत्यक्ष होता है। निम्फ का शरीर कोमल तथा पंख विहीन (wingless) होता है। इनमें जननांगों का विकास नहीं होता है जिनकी संख्या सोलह होती है।

कायान्तरण (Metamorphosis): निम्फ में वृद्धि कायान्तरण के द्वारा होती है तथा लगभग तेरह निर्मोचन के बाद यह वयस्क में बदल जाता है। अन्तिम निम्फ अवस्था से पहली अवस्था में पक्षतल्प (wing pad) पाये जाते हैं। कॉकरोच का जीवन काल 2 से 4 वर्षों का होता है। पेरिप्लेनेटा अमेरिकाना का परिवर्धन में अपूर्ण कायान्तरण या पौरोमेयबोलस प्रकार का होता है।

कॉकरोच का आर्थिक महत्त्व (Economic importance of cockroach):

  1. कॉकरोच एक घरेलू शत्रु (household pest) कहा जाता है। यह घरों में रखी खाद्य सामग्री को नष्ट कर देता है। 
  2. इसके कारण खाद्य पदार्थों में एक विशेष प्रकार की गंध हो जाती है, जिसके कारण यह पदार्थ खाने योग्य नहीं रह पाते हैं। 
  3. घरों में कपड़ों को काटकर एवं अण्डे देकर उन्हें नष्ट कर देता है। कॉकरोच की वयस्क व निम्फ दोनों अवस्थाएँ हानिकारक होती हैं। यह जूतों, पर्स, सैल्यूलोज आदि को भी नुकसान पहुंचाता है। 
  4. यह अनेक रोगों के वाहक का कार्य भी करता है। इसके द्वारा हैजा, कुष्ठ रोग, पेचिश, टाइफाइड एवं तपेदिक आदि रोग फैलते हैं। 
  5. कॉकरोच का उपयोग अध्ययन व शोध हेतु किया जाता हैं।

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प्रश्न 13. 
मेंढक का वैज्ञानिक नाम क्या है? इसकी बाह्य आकारिकी का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बाह्य आकारिकी (Extemal Morphology):
मेंढक की आकृति त्रिशंकु (spindle) के आकार की होती है। अग्न भाग नुकीला होता है तथा पश्च भाग थोड़ा गोलाकार होता है। राना टिग्रीना की लम्बाई 12-18 सेमी. तथा चौड़ाई लगभग 5-8 सेमी. होती है। इसकी त्वचा श्लेष्मा के कारण लसलसी एवं चिकनी होती है। त्वचा हमेशा नम रहती है। मेंढक की ऊपरी सतह पर धारियाँ हरे रंग की होती हैं जिसमें अनियमित धब्बे होते हैं जबकि अधर सतह हल्की पीले रंग की होती है। नर का रंग थोड़ा गहरा होता है। मेंढक पानी में रहते हुए कभी पानी नहीं पीता है क्योंकि इसकी त्वचा ही पानी का अवशोषण करती है।
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मेंढक का शरीर दो भागों में बंटा होता है जिन्हें क्रमशः सिर (Head) व धड़ (Trunk) कहते हैं। इस प्राणी में गर्दन व पूंछ का अभाव होता है। गर्दन की अनुपस्थिति से ही प्राणी का शरीर धारा रेखित होकर जलीय जीवन के उपयुक्त होता है।
(1) सिर - मेंढक का सिर त्रिभुजाकार तथा चपटा होता है। इसका अगला भाग संकड़ा, पिछला भाग चौड़ा होता है। सिर पर निम्नलिखित रचनाएँ पाई जाती हैं:
(i) मुख द्वार: सिर के नुकीले भाग को प्रोथ (shout) कहते हैं। प्रोथ के नीचे की ओर मुख द्वार स्थित होता है। मुख द्वार दो जबड़ों द्वारा घिरा रहता है, ऊपरी जबड़ा व नीचे वाला जबड़ा। 
(ii) बाह्य नासा छिद्र: प्रोथ के अग्र भाग में पृष्ठ तल पर एक जोड़ी सूक्ष्म छिद्र होते हैं, इन्हें बाह्य नासा द्वार कहते हैं। ये श्वसन क्रिया में सहायता करते हैं। 
(iii) नेत्र: सिर के सबसे ऊपरी भाग में एक जोड़ी बड़े उभरे हुए नेत्र होते हैं। प्रत्येक नेत्र चारों ओर घूम सकता है। नेत्र पर दो पलकें होती हैं- ऊपरी पलक व निचली पलक। ऊपरी पलक गतिहीन होती है जबकि निचली पलक गतिशील होती है। निचली पलक का ऊपरी भाग पारदर्शी झिल्ली का रूप ले लेता है। इसे निमेषक पटल कहते हैं। यह पटल जल के अन्दर आँखों की सुरक्षा करती है एवं एक चश्मे का कार्य करती है। 
कर्ण पटह: आँखों के पीछे दो गोलाकार पर्दे मिलते हैं जिन्हें कर्ण पटह कहते हैं। इनसे प्राणी को ध्वनि का ज्ञान होता है। नर प्राणियों के सिर के अधर तल पर एक जोड़ी हल्के लाल रंग की झुरींदार थैलियाँ होती हैं। इन्हें वाक कोष (vocal sic) कहते हैं। इन्हीं को फुलाकर नर मेंढक ध्वनि उत्पन्न करता है।

(2) धड़ (Trunk): सिर के पीछे का भाग धड़ कहलाता है। सम्पूर्ण धड़ की त्वचा ढीली होती है। धड़ के पिछले भाग के पृष्ठ क्षेत्र में कूबड़ पाई जाती है। यह कूबड़ श्रोणि मेखला (polvic girdlc) के मेरुदण्ड (vertebral column) से जुड़ने के कारण बन जाती है। धड़ के पिछले सिरे पर मध्य पृष्ठ रेखा के अन्त में एक वृत्ताकार छिद्र पाया जाता है, इसे अवस्कर द्वार (cloacal aperture) कहते हैं तथा इसके माध्यम से आहारनाल एवं जनन-मूत्र-तन्त्र दोनों शरीर से बाहर खुलते हैं।
धड़ पर दो जोड़ी टाँगें पाई जाती हैं: अग्र पाद (fore limb) एवं पश्च पाद (hind limb)।

(i) अन पाद (Fore limb): प्रत्येक अग्र पाद के तीन भागऊपरी बाहु (upper arm), अग्र बाहु (fore arm) एवं हस्त (hand)। अन पाद में अंगुलियों की संख्या चार होती है। मेंढक के अग्न पाद में अंगूठे का अभाव होता है। अग्न पाद अपेक्षाकृत छोटे होते हैं।

(ii) पश्च पाद (Hind limb): प्रत्येक पश्च पाद के भी तीन भाग होते हैं- ऊरु (thigh), जंघा (shank) तथा पाद (foot)। पश्च पाद में पाँच अंगुलियाँ होती हैं तथा इनके बीच त्वचा की एक झिरन्टनी फैली रहती है जिसे पाद जाल (web) कहते हैं। पश्च पाद तैरने में पतवार की तरह एवं फुदकने में स्प्रिंग की तरह कार्य कर गमन के लिए आवश्यक गति उत्पन्न करते हैं।
मेंढक में लैंगिक द्विरूपता देखी जा सकती है। नर मेंढक में टर्र..... टा..... टर्र..... टा की ध्वनि उत्पन्न करने वाले वाक कोष (vocal sac) के साथ-साथ

अन पाद की पहली अंगुली में मैथुन अंग (copulatory pad) पाये जाते हैं। ये अंग मादा मेंढक में नहीं पाये जाते हैं। वाक कोष से उत्पन्न ध्वनि नर मेंढक मादा मेंढक को मैथुन के लिए आकर्षित करता है। इसी प्रकार नर मेंढक के मैथुन अंग (copulatory pad) से चिपचिपा पदार्थ निकलता है। मैथुनी आलिंगन (Amplexus) के समय नर मेंढक इन मैथुन अंग (copulatory pad) की सहायता से मादा मेंढक को मजबूती से पकड़ने में सहायता करता है।

प्रश्न 14.
श्वसन को परिभाषित कीजिए। मेंढक में कितने प्रकार से श्वसन होता है? प्रत्येक का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्वसन (Respiration): श्वसन वह प्रक्रम है जिसमें ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का विनिमय होता है, ऊर्जा युक्त पदार्थों के ऑक्सीकरण में ऑक्सीजन का उपयोग होता है तथा निर्मित कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन होता है। मेंढक में तीन प्रकार का श्वसन पाया जाता है - त्वचीय श्वसन, मुख ग्रसनी श्वसन तथा फुफ्फुसीय श्वसन। डिम्बक अवस्था में क्लोम श्वसन पाया जाता है।
(1) त्वचीय श्वसन (Integumentary respiration): मेंढक में अधिकांशतः त्वचीय श्वसन ही पाया जाता है। मेंढक की त्वचा में रक्त वाहिनियाँ काफी संख्या में होती हैं। मेंढक की त्वचा में श्लेष्मा ग्रन्थियाँ होती हैं, जो त्वचा को नम बनाये रखती हैं। जिससे O2 त्वचा से विसरित होकर रक्त में पहुँच जाती है। यह जल में, स्थल पर, शीत व ग्रीष्म निष्क्रियता के समय विसरण विधि द्वारा गैसों का विनिमय कर श्वसन क्रिया को सम्पन्न करती है।

(2) मुखगुहीय श्वसन (Buccal respiration): मेंढक में मुखगुहा के द्वारा भी श्वसन किया जाता है। यह जब थल पर होता है, वायु मुखगुहिका में प्रवेश करती है तथा बाहर आती रहती है। मुखगुहा में रक्तवाहिनियाँ अधिक संख्या में अधिक होती हैं तथा ये ऑक्सीजन का अवशोषण करती हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकाल दिया जाता है।

(3) फुफ्फुसीय श्वसन (Pulmonary respiration): फुफ्फुस के द्वारा श्वसन फुफ्फुसीय श्वसन कहलाता है। फुप्फुस अण्डाकार गुलाबी रंग की थैलेनुमा संरचनाएँ होती हैं जो देहगुहा के ऊपरी वक्षीय भाग में पायी जाती हैं। मेंढक में फुफ्फुसीय श्वसन के साथ मुखगुहीय तथा त्वचीय श्वसन भी होता है। क्योंकि सिर्फ फुफ्फुसीय श्वसन से श्वसन क्रिया पूर्ण नहीं हो पाती है।

प्रश्न 15. 
मादा मेंडक के जनन तन्त्र का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मादा जननांग (Female reproductive system): अण्डाशय (ovary), अण्डवाहिनियाँ (oviducts), अवस्कर व अवस्कर द्वार (cloacal aperture) मिलकर मादा जननांग बनाते हैं।
(i) अण्डाशय (Ovary): प्रत्येक वृक्क के अधर तल पर अग्न भाग की ओर पीले रंग का एक अण्डाशय स्थित होता है। वृषण की भाँति, अण्डाशय भी उदर की पृष्ठ भित्ति व वृक्क से पेरीटोनियम की दोहरी झिल्ली अण्डाशयधर (mesovarium) द्वारा जुड़ा रहता है। अण्डाशय अनियमित आकार के आठ पिण्डों में बंटी एक छोटी संरचना है, जो प्रजनन ऋतु में परिपक्व व बहुत सारे अण्डों से भरी होने के कारण फूलकर देहगुहा के अधिकांश भाग को घेर लेती है। इस समय यह सफेद-काले रंग की दिखाई देती है।
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अण्डाशय की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Ovary): अण्डाशय का प्रत्येक पिण्ड छोटे-छोटे अनेक पिण्डकों में बंटा होता है। प्रत्येक पिण्डक में एक गुहा होती है जो दो पर्त मोटी भित्ति से घिरी होती है। भित्ति का बाहरी स्तर संयोजी ऊतक व भीतरी स्तर जनन उपकला (germinal epithelium) का बना होता है। जनन उपकला की कोशिकाएं विभाजित होकर छोटे-छोटे गुच्छक या पुटिकाएँ (follicles) बनाती हैं। पुटिका की एक कोशिका अन्य कोशिका से बड़ी हो जाती हैं। यही कोशिका परिवर्धित होकर अण्डाणु बनाती है। पुटिका की शेष कोशिकाएँ बड़ी कोशिका के चारों ओर एकत्रित होकर पुटिका स्तर (follicular layer) बनाती हैं। पुटिका स्तर की कोशिकाएँ (follicular cells) अण्डाणु का पोषण करती हैं। धीरे-धीरे केन्द्र स्थित कोशिका में पोषक पदार्थ पीतक (yolk) के रूप में इकट्ठे होने से कोशिका का आकार बढ़ता जाता है, जैसे-जैसे अण्ड कोशिका का आकार बढ़ता जाता है, पुटिका कोशिकाएं छोटी होती जाती हैं और अन्त में यह पीतक झिल्ली (vitelline membrane) का रूप धारण कर लेती हैं। अण्डाणु जब अण्डाशय से बाहर आता है तो इसी झिल्ली में बन्द होता है।

(ii) अण्डवाहिनी (Oviduct): मादा मेंढक के उदर में पार्श्व तल पर देहगुहा की पूरी लम्बाई में एक जोड़ी लम्बी, पतली व कुण्डलित नलिकाएँ फैली होती हैं जिन्हें अण्डवाहिनी कहते हैं। अण्डवाहिनियों का अण्डाशय से कोई संरचनात्मक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक नली का अगला सिरा ग्रसिका के पास फुफ्फुस के आधार के समीप पृष्ठ तल पर स्थित होता है। यह सिरा फूलकर एक चौड़ी कीपनुमा आकृति बनाता है। कीप के किनारे सिलिययित होते हैं। इस कीप को अण्डाशयी कीप (ovidutal funnel) व इसमें स्थित छिद्र को आस्य (ostium) कहते हैं। अण्डवाहिनी का पिछला सिर अवस्कर में खुलने से पूर्व कुछ फूलकर डिम्बकोष (ओवीसेक, ovisac) बनाता है। कुछ जन्तु विशेषज्ञ इसे गर्भाशय की संज्ञा देते हैं। परन्तु वास्तव में यह गर्भाशय नहीं है। गर्भाशय अण्डवाहिनी के उस भाग को कहते हैं, जहाँ भ्रूण का परिवर्धन होता है। चूंकि मेंढक में भ्रूण का परिवर्धन शरीर के बाहर होता है और इस भाग से अण्डे बाहर निकलने से पहले केवल कुछ समय के लिए संचित रहते हैं। इस अंग को गर्भाशय कहना उचित प्रतीत नहीं होता। डिम्बकोष एक पेपिला पर स्थित एक संकीर्ण छिद्र द्वारा अवस्कर में खुलता है।

(iii) अवस्कर (Cloaca): मादा मेंढक अवस्कर द्वार से अण्डों को बाहर निकाल देती है। ये अण्डे जैली द्वारा आवरित होते हैं।
आभासी मैथुन (Pseudocopulation) निषेचन (Fertilization) व परिवर्धन (Development): प्रजनन काल में नर मेंढक मादा मेंढक की पीठ पर चढ़ जाता है और अपने अग्र पादों से उसे मजबूती से जकड़ लेता है । नर एवं मादा के इस अस्थाई सम्पर्क को मैथुनी आलिंगन (Amplexus) अथवा आभासी मैथुन कहते हैं। क्योंकि मेंढक में मैथन अंगों का अभाव होता है।

नर व मादा मेंढकों का यह अस्थाई सम्पर्क कई घण्टों तक चलता है। इसी स्थिति में एक समय ऐसा आता है जब मादा मेंदक अवस्कर द्वार से अण्डक (ova) निकलते हैं जिनकी संख्या एक बार में 2500 से 3000 होती है। ये लसदार जैली (jelly) द्वारा आवरित रहते हैं। इसी समय नर मेंढक अपने अवस्कर द्वार से अण्डकों पर शुक्राणुओं को मुक्त कर देता है। अण्डाणु एवं शुक्राणु के संयुग्मन को निषेचन (fertilization) कहते हैं। मेंढक में यह घटना शरीर के बाहर होती है। निषेचन के फलस्वरूप युग्मनज (zygote) का निर्माण होता है। युग्मनज आगे चलकर विभाजन द्वारा टेडपोल (Tadpole) में परिवर्तित हो जाता है। टेडपोल कायान्तरण (metamorphosis) की क्रिया द्वारा वयस्क मेंढक में बदल जाता है।
आर्थिक महत्त्व (Economic Importance): मेंढक हमारे लिए लाभदायक प्राणी है। यह कीटों को खाता है और इस प्रकार फसलों की रक्षा करता है। मेंढक वातावरण में सन्तुलन बनाये रखते हैं, क्योंकि यह पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem) की एक महत्त्वपूर्ण भोजन श्रृंखला (food chain) की एक कड़ी है।

मेंढक की पिछली टाँगों को विश्व के कई भागों में खाने में प्रयुक्त किया जाता है। विशेषकर फ्रांस, जापान, अमेरिका में इन टाँगों को खाने में बड़ा पसन्द किया जाता है। अतः इन क्षेत्रों में मेंढक की टाँगों का व्यापार होता है। न्यूयार्क में मेंढक की टाँगों का उपयोग सभी होटलों में किया जाता है, क्योंकि इसके मांस में अद्वितीय स्वाद माना जाता है।

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प्रश्न 16. 
केंचुए का नामांकित चित्र बनाकर इसके बाह्य लक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आकारिकी (Morphology):
1. आकृति, परिमाप (Shape, size): केंचुए का शरीर लम्बा, पतला व नलाकार होता है। अग्र सिरा नुकीला व पश्च सिरा भौंटा (blunt) होता है। केंचुए की लम्बाई 15 से 20 सेमी, व मोटाई 03 से 0.5 सेमी. होती है।

2. रंग (Colour): इसका रंग भूरा होता है। यह रंग पोरफाइरिन (Porphyrin) वर्णक के कारण होता है। पोरफाइरिन प्रकाश की हानिकारक किरणों से जन्तु को सुरक्षा प्रदान करता है। पृष्ठ सतह का रंग अधर सतह की तुलना में अधिक गहरा होता है। इसकी मध्य पृष्ठ सतह पर त्वचा के नीचे मोटी पृष्ठ रक्त वाहिनी एक गहरे रंग की धारी के रूप में दिखाई देती है व इसी से इसकी पृष्ठ सतह पहचानी जाती है।

3. खण्डीभवन (Segmentation): केंचुए में वास्तविक खण्डीभवन (metameric segmentation) पाया जाता है। इसके शरीर में खण्डों की संख्या 100-120 तक होती है जो समान आकार के होते हैं। बाहर से केंचुए के दो खण्डों के बीच एक वृत्ताकार खाँच पाई जाती है, जिसे अन्तरखण्डीय खाँच (Inter - segmental grooves) कहते हैं। शरीर के भीतर दो विखण्डों के बीच अन्तरखण्डीय पट्ट (inter - segmental septa) पाये जाते हैं। इसके कारण आन्तरिक खण्डों की संख्या बाहरी खण्डों के बराबर होती है।

4. परिमुख व पुरोमुख (Peristomium and prostomium): केंचुए में स्पष्ट सिर (distinct) का अभाव होता हैं। इस पर नेत्र व स्पर्शकों का भी अभाव होता है। केंचुए के प्रथम खण्ड को परिमुख (peristomium) कहते हैं। इसकी अधर सतह पर एक छिद्र पाया जाता है जिसे मुख (mouth) कहते हैं। मुख को पृष्ठ से ढके हुए परिमुख से एक मांसल छोटा-सा उभार (projection) निकला रहता है जिसे पुरोमुख (Prostomium) कहते हैं। पुरोमुख को खण्ड नहीं माना जाता है क्योंकि यह परिमुख का ही एक भाग है। पुरोमुख (prostomium) द्वारा केंचुए को अंधेरे व प्रकाश का आभास होता है।
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5. पर्याणिका (Clitellum): केंचुए में 14, 15 व 16 खण्डों के चारों तरफ एक मोटी ग्रन्थिल कोशिकाओं की बनी वलय या पट्टिका पायी जाती है जिसे पर्याणिका कहते हैं। यह रचना अपेक्षाकृत गहरे रंग की होती है। यह 14, 15 व 16 खण्डों को पूर्ण रूप से ढक लेती है। पर्याणिका जनन काल में कोकून का स्रावण करती है जिसमें अण्डे दिये जाते हैं। पर्याणिका की उपस्थिति के कारण केंचुए के शरीर को तीन भागों में विभाजित किया गया है

  1. अग्न पर्याणिका (Preclitellar region): यह 1 से 13 खण्डों तक का क्षेत्र होता है।
  2. पर्याणिका भाग (Clitellar region): यह 14 से 16 खण्डों से निर्मित होता है।
  3. पश्च पर्याणिका भाग (Post-clitellar region): यह 17 से अन्तिम खण्ड तक होता है।

6. शूक (Setae): केंचुए में प्रथम, अन्तिम व पर्याणिका (14, 15 व 16) खण्डों को छोड़कर सभी खण्डों में शूक (Setae) पाये जाते हैं। प्रत्येक खण्ड में इनकी संख्या 80-120 होती है। शूक काइटिन (chitin) नामक शृंगीय पदार्थ के बने होते हैं। प्रत्येक शूक छोटा S के आकार का हल्के पीले रंग का काटे के समान दिखाई देता है। शूक देहभित्ति में एक गर्त में धंसा रहता है जिसे शूक कोष (setae sac) कहते हैं। शूक के आगे 1/3 भाग पीछे एक फूला हुआ भाग पाया जाता है जिसे ग्रन्थिका (nodulus) कहते हैं। शूक से आकुंचक (retractor muscle) तथा अपाकुंचक पेशी (protractor muscle) पायी जाती है। शूक गमन में सहायक है।

7. बाह्य छिद्र (External apertures): केंचुए की बाहरी सतह पर अनेक छिद्र पाये जाते हैं, जो निम्न प्रकार है

  • मुख (Mouth): यह एकल छिद्र प्रथम खण्ड के अधर तल पर पाया जाता है। इस खण्ड को परिमुख कहते हैं। 
  • गुदा (Anus): शरीर के अन्तिम खण्ड के छोर पर एक खड़ी दरार के रूप में गुदा पायी जाती है। शरीर के इस खण्ड को गुदा खण्ड (anal segment) अथवा पाइजीडियम कहते हैं। 
  • नर जनन छिद्र (Male genital aperture): यह 18वें खण्ड के अधर तल के पाश्वों पर स्थित होते हैं। 
  • मादा जनन छिद्र (Female genital aperture): यह एक छिद्र के रूप में क्लाइटेलम में 14वें खण्ड के अधर पर पाया जाता है। 
  • शक्रग्राहिका छिद्र (Spermathecal aperture): केंचुए में चार जोड़ी शुक्रग्राहिका छिद्र पाये जाते हैं जो ये 5/6, 6/7, 7/8 व 8/9 खण्डों के मध्य को खाँचों की अधर पार्श्व सतह पर एक जोड़ी प्रति खाँच पाये जाते हैं। 
  • पृष्ठ छिद्र (Dorsal aperture): यह 12वें खण्ड के बाद (अन्तिम खण्ड को छोड़कर) अन्तराखण्डीय खाँच के पृष्ठ पर पाया जाता है। 
  • वृक्कक छिद्र (Nephridio pore): प्रथम दो खण्डों को छोड़कर शरीर के समस्त खण्डों की अधर सतह पर अनेक सूक्ष्म छिद्र पाये जाते हैं जिनसे उत्सम पदार्थों को बाहर मुक्त करते हैं। 

8. जनन पैपिला (Genital papilla): यह 17वें व 19वें खण्ड के अधर तल के पावों में उभार के रूप में पाये जाते हैं। ये मैथुन में सहायक होते हैं।

प्रश्न 17. 
केंचुए के जनन तन्त्र का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रजनन तन्त्र (Reproductive system): केचुआ उभयलिंगी (hermophrodite) प्राणि है अर्थात् केंचुए में नर व मादा दोनों के प्रकार के जननांग होते हैं। केंचुए में केवल लैंगिक (sexual) जनन होता
(अ) नर जनन तन्त्र (Male reproductive system): केंचुए का नर जनन तन्य निम्नलिखित संरचनाओं से मिलकर बना होता है:

  1. वृषण (Testes) 
  2. वृषण कोष (Testes sac) 
  3. शुक्राशय (Seminal vesicle) 
  4. शुक्रवाहिनियाँ (Vas deference) 
  5. प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ (Prostate glands) 
  6. सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands)।

(i) वृषण (Testes): केंचुए में दो जोड़ी वृषण पाये जाते हैं। इनमें से एक जोड़ी 10वें तथा एक जोड़ी 11वें खण्ड में आहारनाल के नीचे अधर तल में अधर तन्त्रिका रुम्जु के दोनों ओर पार्श्व में स्थित होते हैं। प्रत्येक वृषण सफेद रंग की एक पालिमय रचना होती है। इसमें 4-6 अंगुलियों के समान प्रवर्थ निकले रहते हैं। 

(ii) वृषण कोष (Testes sac): केंचुए में दो जोड़ी वृषण कोष पाये जाते हैं। वृषण कोष पतली भित्ति के बने चौड़े थैलेनुमा (sac like) होते हैं। ये 10वें तथा 11वं खण्ड में पाये जाते हैं। प्रत्येक वृषण कोष में एक जोड़ी वृषण तथा एक जोड़ी शुक्रवाहिनी कीप बन्द रहते हैं। प्रत्येक वृषण कोष अपने से अगले खण्ड में स्थित शुक्राशयों से जुड़े रहते हैं। ग्यारहवें खण्डु का वृषण कोष बड़ा होता है क्योंकि उसमें वृषण शुक्रवाहिनी कीप के अलावा एक जोड़ी शुक्राशय भी बन्द होते हैं। 

(iii) शुक्राशय (Seminal vesicle): केंचुए में दो जोड़ी शुक्राशय पाये जाते हैं। इनमें से एक जोड़ी ग्यारहवें खण्ड में, दूसरी जोड़ी बारहवें खण्ड में पाये जाते हैं। दसवें खण्ड का वृषण कोष ग्यारहवें खण्ड के शुक्राशय में तथा ग्यारहवें खण्ड का वृषण कोष बारहवें खण्ड के शुक्राशय में खुलता है। ग्यारहवें खण्ड के शुक्राशय ग्यारहवें खण्ड के वृषण कोष में बन्द होते हैं जबकि बारहवें खण्ड के शुक्राशय नग्न होते हैं व देहगुहा में स्थित होते हैं। इनमें अपरिपक्व शुक्राणुओं का परिपक्वन तथा संचय किया जाता है। 

(iv) शुक्रवाहिका (Vas deference): प्रत्येक शुक्रवाहिनी कोप पीछे की तरफ पतली संकरी वाहिका में खुलती है जिसे शुक्रवाहिका (vas deferens) कहते हैं। यह अन्त:पक्ष्माभी (ciliated) होती है। ये दो जोड़ी के रूप में पायी जाती है। यह 10वें खण्ड से 18वें खण्ड व 11वें खण्ड से 18वें खण्ड तक स्थित होती है। प्रत्येक ओर की दोनों शक्रवाहिनियाँ एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं व देहभित्ति के अधर तल पर पायी जाती हैं। एक ओर की दोनों शुक्रवाहिनियाँ 18वें खण्ड में उसी ओर की प्रोस्टेट वाहिनी से मिलकर नर जनन छिद्र द्वारा 18वें खण्ड में बाहर खुलती हैं।

(v) प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ (Prostateglands): केंचुए में एक जोड़ी प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। ये गंदे सफेद रंग की होती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि अनियमित आकार की पालिदार ठोस संरचना होती है। ये आहारनाल के दाहिनी व बायीं तरफ स्थित होती हैं। ये 16वें या 20वें खण्ड तक फैली रहती हैं। ये प्रोस्टेटिक द्रव का सावण करती हैं। इससे स्रावित द्रव में शुक्राणु सक्रिय रहते हैं। ये 18वें खण्ड पर प्रोस्टेट वाहिनियों द्वारा अधर सतह
पर नर जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती हैं। 

(vi) सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands): ये दो जोड़ी प्रन्थियाँ होती हैं जो 17वें व 19वें खण्ड में जनन पेपिला (genital papilla) में खुलती हैं। इन ग्रन्थियों का सावण मैथुन क्रिया में सहायक होता है।

(ब) मादा जनन तन्त्र (Female reproductive system): केंचुए का मादा जनन तन्त्र निम्नलिखित संरचनाओं से मिलकर बना होता है -
(i) अण्डाशय (Ovary)
(ii) अण्डवाहिनी (Oviduct)
(iii) शुक्रग्राहिका (Spermatheca)
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(i) अण्डाशय (Ovary): केंचुए में एक जोड़ी अण्डाशय पाये जाते हैं जो खण्ड 12 व 13 के बीच की अन्तराखण्डीय पट से तन्त्रिका रज्जु के इधर - उधर, 13वें खण्ड की गुहा में लटके रहते हैं। प्रत्येक अण्डाशय सफेद रंग का होता है व इसमें अंगुलियों के समान प्रवर्ध पाये जाते हैं। प्रवर्षों की संख्या 8 से 12 तक होती है। प्रत्येक प्रवर्ध में रेखिक क्रम में अण्डाणु पाये जाते हैं। सबसे अधिक परिपक्व अण्डाणु प्रवर्ध के दूरस्थ व बन्द सिरे की ओर होता है व सबसे कम परिपक्व अण्डाणु प्रवर्ष के निकटस्थ सिरे की ओर होता है। 

(ii) अण्डवाहिनी (Oviduct): ये एक जोड़ी होती हैं। प्रत्येक अण्डवाहिनी का अग्न भाग चौड़ा एवं कीप (funnel) के आकार का होता है जिसे अण्डवाहिनी कीप (oviductal funnel) कहते हैं। ये 13वें से 14वें खण्ड तक पायी जाती हैं। प्रत्येक अण्डवाहिनी कीप अण्डवाहिनी में खुलती है। दोनों ओर की अण्डवाहिनियाँ 13/14 पट को भेदकर 14वें खण्ड में परस्पर मिलकर एक ही मध्य अधर मादा जनन छिद्र से बाहर खुलती हैं। 

(iii) शुक्रग्राहिका (Spermatheca): केंचुए में चार जोड़ी शुक्रग्राहिका पायी जाती हैं जो छठे से नौवें खण्ड में पायी जाती है। यह ग्रासनली के अधर पाश्वीं (ventrolateral) में एक-एक स्थित होती हैं। प्रत्येक शुक्रग्राहिका में एक ग्रन्थिल भित्ति वाली नाशपती के आकार की रचना पायी जाती है जिसे तुम्बिका (Ampulla) कहते हैं। इसका अन सिरा ग्रीवा (neck) के रूप में पाया जाता है जिसे शुक्रग्राहिका वाहिनी कहते हैं। ग्रीवा के नीचे एक छोटासा अधनाल या डाइवर्टिकुलम (diverticulum) पाया जाता शुक्रग्राहिकाएँ बाहर की ओर चार जोड़ी छिद्रों द्वारा खुलती हैं जिन्हें शुक्रग्राहिका छिद्र कहते हैं। यह 5/6, 6/7, 7/8 व 8/9 खण्डों के अधर पार्श्व में पाये जाते हैं।

कार्य: केंचुए में मैथुन क्रिया के दौरान शुक्राणुओं को ग्रहण करने तथा संचित करने का कार्य अंधनाल द्वारा किया जाता है जबकि तुम्बिका (Ampulla) शुक्राणुओं हेतु पोषक पदार्थों का सावण करती है। के चुए में मैथुन क्रिया-के चुआ एक उभयलिंगी (hermaphrodite) प्राणी है, लेकिन पुंपूर्वता (protandrous) के कारण सदैव ही परनिषेचन (cross-fertilization) होता है। मैथुन क्रिया जुलाई से अक्टूबर तक होती है। रात्रि के समय केंचुए बिल से बाहर आकर मैथुन क्रिया करते हैं। मैथुन क्रिया के समय दोनों केंचुए एक-दूसरे के समीप इस तरह आते हैं कि दोनों की अधर सतह पर एक-दूसरे के सम्मुख होती है तथा दोनों के सिरे विपरीत दिशा में होते हैं। अर्थात् "हैड ऑन टेल' (Head on Tail) अवस्था में होती है। अब ये अथर सतह से चिपक जाते हैं। इस स्थिति में एक केंचुए के 18वें खण्ड में स्थित नर जनन छिद्र दूसरे केंचुए की शुक्रग्राहिका के सम्मुख आकर एक उभार बनाता है। ये उभार शुक्रग्राहिका छिद्र में प्रवेश करा दिये जाते हैं। 17वें व 19वें खण्ड की जननिक पेपिला भी शुक्रग्राहिकाओं के छिद्रों में फंस जाती है। इस क्रिया के दौरान एक केंचुए के शुक्राणु व प्रोस्टेटिक द्रव दूसरे केंचुए के शुक्रग्राहिकाओं में मुक्त कर दिये जाते हैं। इस प्रकार शुक्रवाहिकाएं शुक्राणुओं से भर जाती हैं। मैथुन क्रिया लगभग एक घण्टे के पश्चात् समाप्त हो जाती है तथा दोनों केंचए पृथक हो जाते हैं।

कोकून का निर्माण (Cocoon formation): मैथुन के पश्चात् क्लाइटेलम में पाई जाने वाली ग्रन्थियों से स्रावित द्रव के सूखने से क्लाइटेलम के चारों ओर एक पेटी (girdle of band) के समान रचना बन जाती है। इस पेटी के भीतर एल्खुमन के एकत्रित होने से एक नलिका बन जाती है। यह एल्बुमन अधिचर्म की म्यूकस ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित किया जाता है। मादा जनन छिद्र में से निकलकर अण्डे इस नयी संरचना में एकत्रित हो जाते हैं। इसके पश्चात् केंचुआ इस पेटी से बाहर निकलने के लिए पीछे की ओर खिसकता है जिससे कोकून आगे की ओर बढ़ता है। जब यह शुक्रधानियों के स्थान पर पहुँचता है तो शुक्रधानी छिद्रों में से शुक्राणु निकलकर भी कोकून में आ जाते हैं। केंचुए के और पीछे खिसकने पर कोकून इसके शरीर से अलग हो जाता है। इसके पश्चात् इसके दोनों सिरे सिकुड़कर बन्द हो जाते हैं।

केंचुए में बाह्य निषेचन (external fertilization) कोकून में होता है। लगभग तीन सप्ताह के बाद लगभग चार की औसत से कोकून परिवर्धित केंचुए के निर्माण से लगभग 2 से 27 माह का समय लगता है। केंचुए में विकास प्रत्यक्ष (direct) होता है। इसमें लार्वा (Larva) अवस्था अनुपस्थित होती है।
आर्थिक महत्त्व (Economic Importance): केंचुए लाभकारी व हानिकारक दोनों प्रकार के कार्य करते है:

(अ) केंचुओं से लाभ

  • केंचुओं को किसानों का मित्र कहा जाता है। यह सुरंग का निर्माण करके मृदा को पोली बना देते हैं। इससे वायु व नमी भीतरी भागों तक पहुंच जाती है। 
  • केंचुए मिट्टी को उलट-पलट करके इसे उपजाऊ बनाते हैं।
  • केंचुए द्वारा मल त्याग भी मृदा में किया जाता है। मल में कैल्शियम, नाइट्रेट पोटेशियम व फास्फेट पाये जाते हैं जो मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। 
  • केंचुए की उपस्थिति से मृदा में ह्यूमस की मात्रा बढ़ जाती है।
  • आजकल शहरों में कूड़े-कचरे की समस्या से निपटने के लिए भी केंचुए का प्रयोग किया जाता है। यह कूड़े-कचरे को खाद में बदल देता है। यह कृमि संवर्धन (wormiculture) द्वारा किया जा रहा है। 
  • केंचुओं का प्रयोग मछलियों को पकड़ने हेतु प्रलोभक (bait) के रूप में किया जाता है। जल जीवशालाओं (Aquarium) में मछलियों के भोजन का निर्माण केंचुओं द्वारा किया जाता है। 
  • प्राचीनकाल में केंचुओं का प्रयोग औषधियों के रूप में किया जाता था। इसके द्वारा तैयार औषधियाँ-बवासीर (piles), गठिया, पायरिया, पीलिया, पित्ताशय की पथरी, प्रसव बाद की कमजोरी व नपुंसकता के लिए प्रयोग में ली जाती थी। 

(ब) केंचुओं से हानियाँ

  • केंचुओं के द्वारा मिट्टी कटाव (soil erosion) भी होता है। 
  • केंचुआ कुछ परजीवियों के मध्यस्थ परपोषी (intermediate host) भी है। यह चूजों के गेपवर्म (Gapeworm Syngamus) व चूजों के फीता कृमि के भी परपोषी हैं। सूअर के फुफ्फुस में पाये जाने वाले निमेटोड्स-मेयस्ट्रोग्लाइसस इलोगेटस (Metastrongylus clogatus) का परपोषी है।
  • केंचुओं की कुछ जातियाँ पौधों के लिए हानिकारक हैं। कोयम्बटूर में फेरेटिमा इलोंगेटा (pheretima elongata) नामक जाति पान की जड़ों को नुकसान पहुंचाती है। 
  • पेरिऑनिक्स (Perionyx) वंश की कुछ जातियाँ अनामलाई की पहाड़ियों में पाई जाती हैं, जो इलायची के पौधे के तने को नुकसान पहुंचाती हैं।

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प्रश्न 18. 
नर मेंढक के नर जनन तन्त्र का चित्र बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रजनन तन्त्र (Reproductive system): कशेरुकी जन्तुओं के उत्सर्जी तन्त्र एवं जनन तन्त्र परस्पर सम्बन्धित होते हैं। इसलिए इन दोनों तन्त्रों को सम्मिलित रूप से जनन-मूत्र-तन्त्र (urinogenital system) कहते हैं। सभी कशेरुकी एकलिंगी प्राणि होते हैं। इसलिए मेंढक भी एकलिंगी होता है। अर्थात् नर एवं मादा अलगअलग होते हैं। प्रजनन तन्त्र दो प्रकार का होता है:

(अ) नर जनन तन्त्र (Male reproductive system): मेंढक का नर जनन तन्त्र वृषण, शुक्र वाहिनिकाओं, मूत्र जनन वाहिनी, शुक्राशय, अवस्कर व अवस्कर द्वार का बना होता है।

(i) वृषण (Testis): प्रत्येक वृक्क की अधर तल पर अन सिरे के पास पीले रंग का बेलनाकार एक छोटा सा वृषण स्थित होता है। यह उदर गुहा की पृष्ठ भिति व वृक्क से एक पतली झिल्ली वृषणधार/ मीसोर्कियम (mesorchium) द्वारा जुड़ा रहता है। मीसोर्कियम वास्तव में पेरिटोनियम की दोहरी परत है। प्रत्येक वृषण में 10 से 12 पतलीपतली शुक्रवाहिकाएँ निकल कर मीसोर्कियम से होती हुई वृक्क के अन्दर, भीतरी किनारे के पास स्थित बिडर्स नलिका (bidder's canal) में खुलती हैं।
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वृषण की आन्तरिक संरचना-वृषण में अनेक सूक्ष्म कुण्डलित नलिकाएँ पाई जाती हैं जिन्हें शुक्रजनक नलिकाएँ (seminiferous tubules) कहते हैं। प्रत्येक शुक्रजनक नलिका की दीवार में बाहर की ओर पतली प्रोप्रिया कला (membrana propria) नामक झिल्ली होती है और इसके अन्दर की ओर जनन उपकला (eerminal epithelium) पाई जाती है। जनन उपकला की कोशिकाएं शुक्र जनन (spermatogenesis) की क्रिया द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण करती है। शुक्रजनक नलिकाओं के बीच-बीच में उपस्थित योजी ऊतक में रक्त केशिकाएँ, तन्त्रिका तन्तु एवं अन्तराली कोशिकाएँ (interstitial cells) पाई जाती हैं। अन्तराली कोशिकाओं द्वारा नर हार्मोन टेस्टोस्टेरोन (testosterone) उत्पन्न किया जाता है जिसके कारण नर मेंढक में द्वितीयक लैंगिक लक्षण (secondary sexual characters) विकसित होते हैं।

शुक्रजनक नलिकाएं एक सिरे पर बन्द होती हैं। इनके दूसरे सिरे पतले व विभाजित होकर एक महीन जाल वृषण जाल (retetestis) बनाते हैं। शुक्रवाहिकाएँ इसी जाल से निकलती हैं।

(ii) शुक्रवाहिका शुक्राणु शुक्रजनक नलिकाओं से वृषण जाल में व वृषण जाल से शुक्रवाहिका में आते हैं। यहाँ से वृक्क में स्थित बिडर्स नलिका (bidder's canal) में आ जाते हैं। बिडर्स नलिका से कई अनुप्रस्थ संग्रह नलिकाएँ निकलकर एक अनुदैर्घ्य संग्रह नलिका (longitudinal collecting tubule) में खुलती हैं जो स्वयं मूत्र वाहिनी में खुलती है।

(iii) मूत्रवाहिनी–नर मेंढक में मूत्र वाहिनी द्वारा मूत्र और शुक्राणु दोनों ही बाहर निकलते हैं। इस प्रकार मूत्रवाहिनी शुक्रवाहिनी (vasdeference) का भी कार्य सम्पन्न करती है। इसलिए इसे जनन मूत्रवाहिनी (urinogenital duct) कहते हैं।
मेंढक की कुछ जातियों में मूत्र-जनन वाहिनी का अन सिरा फूल कर शुक्राशय (seminal vesicles) बनाता है। शुक्राणु बिडर्स नलिका से अनुप्रस्थ संग्रह नलिका, अनुप्रस्थ संग्रह नलिका से अनुदैर्घ्य संग्रह नलिका में होते हुए शुक्राशय में (यदि हो तो) एकत्रित हो जाते हैं। मैथुन के समय ये शुक्राणु मूत्र जनन नलिका से निकलकर अवस्कर में आ जाते हैं।

(iv) अवस्कर—यह एक छोटा मध्य में स्थित एक कक्ष होता है जो कि मल, मूत्र तथा शुक्राणुओं को बाहर निकालता है।

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये प्रश्न

प्रश्न 1.
वे कोशिका संधियाँ जिन्हें अच्छिद्र संधि, आसंजी संधि तथा अंतराल संधि कहते हैं, किस एक ऊतक में पायी जाती हैं
(a) पेशी ऊतक
(b) संयोजी ऊतक 
(c) उपकला ऊतक
(d) तंत्रिका ऊतक 
उत्तर:
(c) उपकला ऊतक

प्रश्न 2. 
निम्नलिखित का अध्ययन कीजिये
A. यह फेफड़ों की एल्वियोलाई कैविटी का स्तर बनाती है 
B. यह नम सतह जैसे-बक्कल कैविटी व ईसोफेगस का स्तर बनाती है 
C. यह स्वेद ग्रन्थियों की नलिकाओं में पायी जाती है 
D. यह स्वेद ग्रन्थियों तथा लार ग्रन्थियों का स्तर बनाती है 
E. यह एक ढीला संयोजी ऊतक है उपरोक्त में से कितने कथन सरल उपकला ऊतक से सम्बन्धित
(a) (A) एवं (D)
(b) (B) एवं (C) 
(c) (C) एवं (A)
(d) (D) एवं (E) 
उत्तर:
(a) (A) एवं (D)

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प्रश्न 3. 
पेरिप्लेनेटा अमेरिकाना के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से सही कथन कौनसा है? चुनिए-
(a) नरों में एक जोड़ी छोटे धागे जैसे गुदाशूक होते हैं। 
(b) मध्यान्य तथा पश्चान्य में संधि स्थल पर 16 बहुत लम्बी मैलपीगी नलिकाएं होती हैं। 
(c) भोजन का पीसा जाना केवल मुख भागों द्वारा ही होता है। 
(d) पृष्ठतः स्थित तन्त्रिका तन्त्र में खण्डशः व्यवस्थित गैंगलिया (गुच्छिकाएँ) होते हैं जो एक-एक जोड़ी अनुदैर्ध्य संयोजनों द्वारा जुड़े होते हैं। 
उत्तर:
(a) नरों में एक जोड़ी छोटे धागे जैसे गुदाशूक होते हैं। 

प्रश्न 4. 
रक्त वाहिकाओं का अस्तर बनाने वाली कोशिकाएं किस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं?
(a) स्तम्भाकार एपिथीलियम 
(b) संयोजी ऊतक
(c) चिकनी पेशी ऊतक 
(d) शल्की एपिथीलियम 
उत्तर:
(d) शल्की एपिथीलियम 

प्रश्न 5.
नीचे दिये गये चार चित्रों (A, B, C तथा D) में चार प्रकार के प्राणी ऊतक दिखाये गये हैं। इनमें से किस एक को नीचे दिये गये विकल्पों में से सही पहचाना गया एवं उसके पाये जाने का स्थान तथा कार्य भी सही दिये गये हैं
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ऊतक

पाये जाने का स्थान

कार्य

(a) (B) ग्रंथिल उपकला

आंत्र

स्रावण

(b) (C) कोलेजन रेशे

उपास्थि

कंकालीय पेशियों को हड़ियों के साथ जोड़ते हैं

(c) (D) चिकनी पेशी ऊतक

हृदय

हृदय संकुचन


उत्तर:

(a) (B) ग्रंथिल उपकला

आंत्र

स्रावण

प्रश्न 6. 
नीचे दिये जा रहे एक आरेखीय चित्र में एक विशिष्ट प्रकार का संयोजी ऊतक दिखाया गया है। इसमें A, B, C तथा D नामांकित भाग क्या-क्या है, इस विषय में सही विकल्प चुनिये
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विकल्प:

भाग - A

भाग-B

भाग-C

भाग-D

(a) वृहदभक्षकाणु

तंतुकोरक

कोलेजन रेशे

मास्ट कोशिका

(b) मास्ट कोशिका

वृहदभक्षकाणु

तंतुकोरक

कोलेजन रेशे

(c) वृहदभक्षकाणु

कोलेजन रेशे

तंतुकोरक

मास्ट कोशिका

(d) मास्ट कोशिका

कोलेजन रेशे

तंतुकोरक

वृहदभक्षकाणु


उत्तर:

(a) वृहदभक्षकाणु

तंतुकोरक

कोलेजन रेशे

मास्ट कोशिका

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प्रश्न 7. 
सही सुमेलित जोड़ का चुनाव कीजिए
(a) एरियोलर ऊतक - शिथिल संयोजी ऊतक 
(b) उपास्थि - शिथिल संयोजी ऊतक 
(c) कंडरा (टेन्डन) - विशिष्टकृत संयोजी ऊतक
(d) वसा ऊतक - घना संयोजी ऊतक 
उत्तर:
(a) एरियोलर ऊतक - शिथिल संयोजी ऊतक 

प्रश्न 8. 
मानवों के बाहरी कानों तथा नाक के अगले छोर की आलम्बी कंकाली संरचनाएँ किसके उदाहरण हैं
(a) स्नायु
(b) वायवीय ऊतक 
(c) अस्थि
(d) उपास्थि 
उत्तर:
(d) उपास्थि 

प्रश्न 9. 
मानवों के रक्त प्लाज्मा में पाये जाने वाले ग्लोबुलिन्स प्राथमिक तौर पर किस कार्य में सम्मिलित होते हैं
(a) शरीर की सुरक्षा क्रियाविधियाँ 
(b) देह तरलों का परासरण सन्तुलन
(c) रक्त में ऑक्सीजन का परिवहन
(d) रक्त का थक्का बनना 
उत्तर:
(a) शरीर की सुरक्षा क्रियाविधियाँ 

प्रश्न 10. 
कॉकरोच का हृदय होता है-
(a) मायोजेनिक
(b) न्यूरोजेनिक 
(c) न्यूरो मायोजेनिक 
(d) इनमें से कोई नहीं 
उत्तर:
(b) न्यूरोजेनिक 

प्रश्न 11. 
कौनसी कोशिकाएँ किसी भी स्तर पर निर्माण नहीं करतीं किन्तु संरचनात्मक रूप से दूर होती हैं-
(a) तंत्रिका कोशिका
(b) ग्रन्थि कोशिका 
(c) पेशी कोशिका 
(d) उपकला कोशिका 
उत्तर:
(a) तंत्रिका कोशिका

प्रश्न 12. 
कॉकरोच में चबाने का कार्य करने वाला अंग है
(a) लेखम
(b) लेबियम 
(c) मेंडिबल्सा 
(d) मैक्सिला
उत्तर:
(c) मेंडिबल्सा 

प्रश्न 13. 
ऐसे लोग जो मैदानी इलाकों के रहने वाले हैं, अगर लगभग पिछले छ: महीनों से रोहतांग दरें के निकटवर्ती क्षेत्रों में जाकर रह रहे हों तो-
(a) उनमें RBCs की संख्या बढ़ जाती है जिनकी O2 के लिए बंधन बंधुता घट गयी होती है 
(b) वे शारीरिक तौर पर फुटबॉल जैसे तेज भाग-दौड़ वाले खेलों के लिए फिट नहीं होते 
(c) उनमें ऊंचाई-मिचली, थकावट आदि के लक्षण आ जाते हैं 
(d) उनमें RBC गणना तो सामान्य रहती है मगर उनके हीमोग्लोबिन में O2 के लिए बहुत अधिक बंधन बंधुता आ जाती है 
उत्तर:
(a) उनमें RBCs की संख्या बढ़ जाती है जिनकी O2 के लिए बंधन बंधुता घट गयी होती है 

प्रश्न 14. 
मानवों के रक्ताणुओं की तुलना में मेंढक के रक्ताणु
(a) केन्द्रविहीन मगर हीमोग्लोबिन युक्त होते हैं 
(b) केन्द्रकयुक्त तथा हीमोग्लोबिन युक्त होते हैं 
(c) कहीं ज्यादा छोटे और संख्या में कम होते हैं
(d) केन्द्रकयुक्त और बिना हीमोग्लोबिन वाले होते हैं 
उत्तर:
(b) केन्द्रकयुक्त तथा हीमोग्लोबिन युक्त होते हैं 

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प्रश्न 15. 
निम्नलिखित में से क्या सही है
(a) रुधिर = प्लाज्मा + RBC + WBC + रक्त प्लेटलेट्स 
(b) प्लाज्मा = रुधिर - लिम्फोसाइट 
(c) न्यूरोन = साइटोन + डेन्ड्राइट + एक्सॉन + सिनेप्स
(d) लसीका = प्लाज्मा + RBC + WBC 
उत्तर:
(a) रुधिर = प्लाज्मा + RBC + WBC + रक्त प्लेटलेट्स 

प्रश्न 16. 
वयस्क मानव की RBC अकेन्द्रकी होती है। निम्न में से कौनसा/ से कथन इस लक्षण की सबसे उचित व्याख्या करता/करते हैं
(A) इन्हें प्रजनन करने की आवश्यकता नहीं है 
(B) ये कायिक कोशिकाएँ हैं 
(C) ये उपापचय नहीं करती 
(D) इनका समस्त आन्तरिक स्थान ऑक्सीजन संवहन के लिए उपलब्ध है
(a) केवल (D)
(b) केवल (A) 
(c) (A), (C) तथा (D) 
(d) (B) और (C) 
उत्तर:
(c) (A), (C) तथा (D) 

प्रश्न 17. 
स्तम्भ - I में दी गई मदों का स्तम्भ - II की मदों से मिलान कीजिए और नीचे दिये गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए:

स्तम्भ - I

स्तम्भ - II

(A) फाइब्रिनोजन

(i) परासरणी सन्तुलन

(B) ग्लोब्यूलिन

(ii) रक्त धक्का

(C) ऐल्ब्यूमिन

(iii) प्रतिरक्षा क्रियाविधि

 

(A)

(B)

(C)

(a)  (iii)

(ii)

(i)

(b) (i)

(ii)

(iii)

(c) (i)

(iii)

(ii)

(d) (ii)

(iii)

(i)

 

उत्तर:

(d) (ii)

(iii)

(i)

प्रश्न 18. 
निम्नलिखित में से किस एक जोड़े के रासायनिक पदार्थों को सही श्रेणीगत किया गया है
(a) कैल्सिटोनिन तथा थाइमोसिन - थाइरॉइड (अवटुग्रंथि) के हॉर्मोन 
(b) पेप्सिन तथा प्रोलैक्टिन - आमाशय में सावित होने वाले दो पाचन एंजाइम 
(c) ट्रोपोनिन तथा मायोसिन - रेखित पेशियों में पाये जाने वाले सम्मिश्र प्रोटीन 
(d) सेक्रैटिन तथा रोडोप्सिन - पोलीपेप्टाइड हॉर्मोन्स 
उत्तर:
(c) ट्रोपोनिन तथा मायोसिन - रेखित पेशियों में पाये जाने वाले सम्मिश्र प्रोटीन

प्रश्न 19. 
स्लाइडिंग फिलामेन्ट सिद्धान्त की सबसे अच्छी व्याख्या की जा सकती है-
(a) एक्टिन और मायोसिन फिलामेंटों की लम्बाई कम हो जाती है, और वे एक-दूसरे पर फिसलते हुए आगे बढ़ जाते हैं। 
(b) एक्टिन और मायोसिन फिलामेंटों की लम्बाई कम नहीं होती, बल्कि वे एक-दूसरे पर फिसलते हुए आगे बढ़ जाते हैं। 
(c) जब मायोफिलामेंट एक-दूसरे पर फिसलते हुए आगे बढ़ जाते हैं; मायोसिन फिलामेंटों की लम्बाई कम हो जाती है, जबकि एक्टिन फिलामेंटों की लम्बाई कम नहीं होती है 
(d) जब मायोफिलामेंट एक-दूसरे के ऊपर फिसलते हुए लाँघ जाते हैं, एक्टिन फिलामेंट की लम्बाई कम हो जाती है, जबकि मायोसिन फिलामेंटों की लम्बाई कम नहीं होती है 
उत्तर:
(b) एक्टिन और मायोसिन फिलामेंटों की लम्बाई कम नहीं होती, बल्कि वे एक-दूसरे पर फिसलते हुए आगे बढ़ जाते हैं।

प्रश्न 20. 
निम्नलिखित में से किस एक स्थान विशेष में पायी जाने वाली पेशियों का सही वर्णन किया गया है
(a) जाँघ के भीतर की पेशियाँ रेखित एवं ऐच्छिक होती हैं। 
(b) ऊपरी भुजा वाली पेशी के तर्कुरूपी आकृति के चिकने पेशी रेशे होते हैं 
(c) हदय के भीतर की पेशियाँ अनैच्छिक एवं अरेखित चिकनी पेशियाँ होती हैं 
(d) अंतड़ी के भीतर की पेशियाँ रेखित एवं अनैच्छिक होती हैं
उत्तर:
(a) जाँघ के भीतर की पेशियाँ रेखित एवं ऐच्छिक होती हैं। 

प्रश्न 21. 
सूची - I तथा सूची - II को सुमेलित कीजिए तथा सही विकल्प का चयन कीजिए:

सूची - I (एपीथीलियल ऊतक)

सूची - II (स्थिति)

(A) घनाकार

(1) त्वचा की एपिडर्मिस

(B) पक्ष्मयुक्त

(2) रुधिर वाहिनियों का आंतरिक स्तर

(C) स्तम्भित

(3) गोल-ब्लेडर की आंतरिक सतह

(D) शल्की

(4) फेलोपियन नलिका का आंतरिक स्तर

(E) किरैटीनाइज्ड

(5) पैन्क्रियाटिक नलिका का स्तर शल्की


(a) (A) - (5), (B) - (4), (C) - (2), (D) - (3), (E)- (1) 
(b) (A) – (3), (B) - (4), (C) - (5). (D) - (2), (E) - (1) 
(c) (A) - (5), (B) - (4), (C) – (3), (D) - (2),  (E) - (1) 
(d) (A) – (3), (B) – (4), (C) – (5), (D) - (1), (E) - (2) 
(e) (A) – (3), (B) – (5), (C) – (4), (D) - (1), (E) - (2) 
उत्तर:
(c) (A) - (5), (B) - (4), (C) – (3), (D) - (2),  (E) - (1) 

प्रश्न 22. 
उत्तरोत्तर उद्दीपनों के बीच विश्रांति की कमी के कारण होने वाली दीर्घकालिक पेशी संकुचन कहलाता है
(a) ऐंठन (स्पाज्म)
(b) थकान 
(c) टिटेनस
(d) टोनस 
उत्तर:
(c) टिटेनस

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प्रश्न 23. 
कौनसा ऊतक अपनी स्थिति में सही-सही मैच करता है

ऊतक

स्थिति

(a) चिकनी पेशी

आंत्र भित्ति

(b) ऐरिओली ऊतक

कंडरा

(c) परिवर्ती उपकला

नासिकाग्र

(d) पनाकार उपकला 

आमाशय आस्तर


उत्तर:

(a) चिकनी पेशी

आंत्र भित्ति

प्रश्न 24. 
सामान्य मेंढक राना टिग्रीना के सम्बन्ध में नीचे दिये जा रहे चार वक्तव्यों (A-D) पर विचार कीजिए और वे सही (T) हैं या गलत (F) इस आधार पर उचित विकल्प छाँटिएवक्तव्य: 
(A) सूखी धरती पर यदि उसका मुँह कुछ दिन के लिए जबर्दस्ती बन्द रखा जाए तो वह मर जाएगा क्योंकि उसे O2 प्राप्त नहीं हो सकेगी 
(B) इसमें चार कक्षों वाला हृदय होता है 
(C) सूखी धरती पर यह यूरियोत्सर्जी दशा से बदल कर यूरिकोउत्सर्जी हो जाता है 
(D) इसका जीवन-इतिहास तालाब के जल के भीतर सम्पन्न होता है।
विकल्प:

(A)

(B)

(C)

(D)

(a)  F

 F

 T

 T

(b) F

 T

 T

 F

(c) T

 F

 F

 T

(d)  T

 T

 F

 F

उत्तर:

(c) T

 F

 F

 T

प्रश्न 25. 
नर मेंढक में शुक्राणुओं के स्थानान्तरण के उचित मार्ग का चयन कीजिए
(a) वृषण → बिडर नाल → वृक्क → शुक्र वाहिकाएँ → मूत्र जनन वाहिनी → अवस्कर
(b) वृषण → शुक्र वाहिकाएँ → वृक्क → शुक्राशय → मूत्र जनन वाहिनी → अवस्कर 
(c) वृषण → शुक्र वाहिकाएँ → विडर नाल → मूल वाहिनी → अवस्कर 
(d) वृषण → शुक्र वाहिकाएँ → वृक्क → बिडर नाल → मूत्र जनन वाहिनी → अवस्कर 
उत्तर:
(d) वृषण → शुक्र वाहिकाएँ → वृक्क → बिडर नाल → मूत्र जनन वाहिनी → अवस्कर

प्रश्न 26. 
मेंढक का हृदय शरीर से बाहर निकालने के पश्चात् कुछ समय तक धड़कता रहता है:
निम्न कथनों में उचित विकल्प का चयन कीजिए:
(A) मेंढक एक असमतापी है। 
(B) मेंढक में कोई हृदय परिसंचरण नहीं होता है 
(C) हृदय पेशीजनित प्रकृति का होता है 
(D) हृदय स्वउत्तेजक होता है
विकल्प: 
(a) केवल (C)
(b) केवल (D) 
(c) (A) और (B) 
(d) (C) और (D)
उत्तर:
(d) (C) और (D)

Bhagya
Last Updated on Aug. 9, 2022, 2:28 p.m.
Published Aug. 8, 2022