Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Political Science Chapter 9 भारतीय राजनीति: नए बदलाव Textbook Exercise Questions and Answers.
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क्रियाकलाप सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
(पृष्ठ संख्या 173)
प्रश्न 1.
मैं सोचती हूँ - काश! कांग्रेस अपनी पुरानी महिमा को फिर से हासिल कर पाती!
उत्तर:
सन् 1989 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। जिस पार्टी ने सन् 1984 में लोकसभा की 415 सीटें जीती थीं, वह इस चुनाव में मात्र 197 सीटें ही जीत सकी। सन् 1989 में ही उस परिघटना की समाप्ति हो गयी थी, जिसे राजनीति विज्ञानी अपनी खास शब्दावली में 'कांग्रेस प्रणाली' कहते हैं। अब इसमें दलीय प्रणाली के भीतर जैसी प्रमुखता जो पहले के दिनों में हासिल थी, वैसी अब न रही। कांग्रेस देश का सबसे पुराना दल था तथा एक लम्बे समय तक इसका प्रभुत्व कायम रहा। इसे देखकर लगता है कि कांग्रेस अपनी पुरानी महिमा को हासिल कर ले तो बहुत अच्छा है।
(पृष्ठ संख्या 174)
प्रश्न 2.
मैं पक्के तौर पर यह जानना चाहता हूँ कि इस घटना के दूरगामी परिणाम हुए!
उत्तर:
सन् 1990 के दौर में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में 'मंडल मुद्दे' का उदय था। सन् 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की नई सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अन्तर्गत प्रावधान किया गया कि केन्द्र सरकार की नौकरियों में 'अन्य पिछड़ा वर्ग' को आरक्षण दिया जाएगा। सरकार के इस फैसले से देश के विभिन्न भागों में मंडल विरोधी हिंसक प्रदर्शन हुए। इसने सन् 1989 के बाद की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस घटना के अत्यन्त दूरगामी परिणाम हुए। सवर्णों के बीच रोष उत्पन्न हुआ तथा वे भी अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर आए। उन्होंने आरक्षण का पुरजोर विरोध किया। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की माँग व्यापक स्तर पर उठायी गयी।
(पृष्ठ संख्या 174)
प्रश्न 3.
अगर हर सरकार एक - सी नीति पर अमल करें, तो मुझे नहीं लगता कि इससे राजनीति में कोई बदलाव आएगा।
उत्तर:
अगर हर सरकार एक: सी नीति पर अमल करे तो राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना संभव नहीं है अर्थात् इससे हमारी राजनीति व्यवस्था स्थिर और मंद हो जायेगी। लोकतंत्र में जनता के हित सर्वोपरि होते हैं जो अलग - अलग होते हैं। सरकार को जनता की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सभी सरकारें एक जैसी नीति का अनुसरण नहीं कर सकी। इसके अतिरिक्त भारत एक बहुदलीय व्यवस्था वाला देश है जिसके प्रत्येक दल की विचारधारा व कार्यक्रमों में व्यापक अन्तर देखने को मिलता है। सत्ता में आने पर राजनीतिक दल अपनी - अपनी नीतियों को लागू करते हैं। अतः सभी सरकारों द्वारा एक - सी नीतियों को लागू करना बिल्कुल भी संभव नहीं है।
(पृष्ठ संख्या 177)
प्रश्न 4.
अपने माता - पिता से सन् 1990 के दशक के बारे में पूछे और इस समय की उनकी यादों को करेदें। उनसे पूछिए कि उस दौर की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के बारे में वे क्या सोचते हैं। समूह बनाकर एक साथ बैठिए और अपने माता - पिता द्वारा बतायी गयी घटनाओं की एक व्यापक सूची बनाइए। देखिए कि किस घटना का जिक्र ज्यादा आया है। फिर, इस अध्याय में जिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बदलावों का जिक्र आया है उनसे तुलना कीजिए। आप इस बात पर चर्चा कर सकते हैं कि कुछ घटनाएँ क्यों कुछ लोगों के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण थीं, जबकि दूसरों के लिए नहीं।
उत्तर:
सन् 1990 के दशक में घटी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के विषय में अपने माता - पिता से चर्चा करने के बाद उन्होंने जो घटनाएँ बताईं उनकी सूची निम्नानुसार है।
(i) मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना: केन्द्र सरकार ने सन् 1978 में एक आयोग बैठाया। इसके जिम्मे पिछड़ा वर्ग की स्थिति को सुधारने के उपाय बताने का काम सौंपा गया। आमतौर पर इस आयोग को इसके अध्यक्ष बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के नाम पर 'मंडल कमीशन' कहा जाता है। सन् 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों में से एक को लागू करने का फैसला किया। यह सिफारिश केन्द्रीय सरकार और उसके उपक्रमों की नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के संबंध में थी।
(ii) धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति का उदय: 'भाजपा' ने 'हिन्दुत्व' की राजनीति का रास्ता चुना और हिन्दुओं को लामबंद करने की रणनीति अपनाई। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिन्दू राष्ट्रवाद के तत्वों पर जोर देना शुरू किया।
(iii) अयोध्या विवाद-जो संगठन राम मंदिर के निर्माण का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने सन् 1992 के दिसम्बर में एक 'कारसेवा' का आयोजन किया। 6 दिसम्बर, 1992 को देश के विभिन्न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने मस्जिद को गिरा दिया। इस खबर से देश के कई भागों में हिन्दू और मुसलमानों के बीच झड़पें हुईं।
अयोध्या विवाद के सिलसिले में भी हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्षों में लामबंदी होने लगी। अनेक हिन्दू और मुस्लिम संगठन इस मसले पर अपने - अपने समुदाय को लामबंद करने की कोशिश में जुट गए। जनवरी 1993 में मुम्बई में हिंसा भड़की तथा अगले दो हफ्तों तक जारी रही।
(पृष्ठ संख्या 180)
प्रश्न 5.
चलो मान लिया कि भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक राजनीति का तकाजा ही गठबंधन बनाना है। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि हमारे देश में हमेशा से गठबंधन बनते चले आ रहे हैं अथवा राष्ट्रीय स्तर के दल एक बार फिर अपना बुलन्द मुकाम हासिल करके दिखाएँगे?
उत्तर:
सन् 1989 के चुनावों में कांग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्यवस्था से उसका दबदबा खत्म हो गया। भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक राजनीति का तकाजा ही गठबंधन बनाने का था। कांग्रेस को बहुमत न मिलने के कारण राष्ट्रीय मोर्चे को परस्पर विरुद्ध दो राजनीतिक समूहों भाजपा और वाम मोर्चे ने समर्थन दिया। इस समर्थन के आधार पर राष्ट्रीय मोर्चा ने एक गठबंधन सरकार बनाई लेकिन इसमें भाजपा और वाम मोर्चे ने शिरकत नहीं की। सन् 1996 में बनी संयुक्त मोर्चे की सरकार में इन पार्टियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। संयुक्त मोर्चा सन् 1989 के राष्ट्रीय मोर्चे के ही समान था, क्योंकि इसमें भी जनता दल और कई क्षेत्रीय पार्टियाँ शामिल थीं।
इस प्रकार सन् 1989 के चुनावों से भारत में गठबंधन की राजनीति के एक लम्बे दौर की शुरुआत हुई। इसके साथ ही कई क्षेत्रीय दलों का भी उदय हुआ। सन् 1980 के दशक में दलित जातियों के राजनीतिक संगठनों का भी उभार हुआ। इन सभी कारणों से गठबंधन सरकारें बनीं क्योंकि मतदाताओं का रुझान अलग - अलग पार्टियों की ओर होने लगा। यदि राष्ट्रीय स्तर के दल अपने एजेंडे को बहुत प्रभावी बना सकें तथा देश की समस्याओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कार्रवाई करें तो फिर से बुलन्द मुकाम हासिल कर सकते हैं।
(पृष्ठ संख्या 180)
प्रश्न 6.
मुझे इसकी चिंता नहीं कि सरकार किसी एक पार्टी की है या गठबंधन की। मसला तो यह है कि कोई सरकार काम कौन-से कर रही है। क्या गठबंधन सरकार में ज्यादा समझौते करने पड़ते हैं? क्या गठबंधन सरकार साहसी और कल्पनाशील नीतियाँ नहीं अपना सकती?
उत्तर:
गठबंधन सरकारों का युग लम्बे समय से जारी कुछ प्रवृत्तियों की परिणति है। पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में गुपचुप बदलाव आ रहे थे और इन बदलावों ने जिन प्रवृत्तियों को जन्म दिया, वे भारतीय राजनीति को गठबंधन की सरकारों के युग की तरफ ले आईं। शुरुआती सालों में कांग्रेस खुद में ही एक गठबंधननुमा पार्टी थी। इसमें विभिन्न हित, सामाजिक समूह और वर्ग एक साथ रहते थे। इस परिघटना को 'कांग्रेस प्रणाली' कहा गया।
सन् 1989 के गठबंधन युग के बाद हमने जितनी भी सरकारें देखी हैं ये किसी - न - किसी समझौते पर ही चल रही थीं। समझौते के बिना गठबंधन सरकार बन ही नहीं सकती। मेरे विचार में गठबंधन की सरकारों की नीतियाँ साहसी तथा कल्पनाशील नहीं हो सकती। ऐसी सरकारों के प्रमुख (प्रधानमंत्री) की नीतियों, कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अनेक बाधाएँ उठ खड़ी होती हैं। सत्तारूढ़ दल भी सोचता है कि यदि सरकार चलानी है तो सबको साथ लेकर चलना पड़ेगा।
(पृष्ठ संख्या 183)
प्रश्न 7.
क्या इससे पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं को लाभ होगा या इन समूहों के भीतर मौजूद कुछ ताकतवर जातियाँ और परिवार ही सारे फायदे अपनी मुट्ठी में कर लेंगे?
उत्तर:
सन् 1980 के दशक में दलित जातियों के राजनीतिक संगठनों का भी उभार हुआ। बामसेफ ने 'बहुजन' यानि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्त तरफदारी की। सन् 1989 और सन् 1991 के चुनावों में इस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली।
आजाद भारत में यह पहला मौका था जब कोई राजनीतिक दल मुख्यतया दलित मतदाताओं के समर्थन के बल पर ऐसी राजनीतिक सफलता हासिल कर पाया था। दरअसल कांशीराम के नेतृत्व में बसपा ने अपने संगठन की बुनियाद व्यवहार केन्द्रित नीतियों पर रखी थी। बहुजन (यानि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक) देश की आबादी में सबसे अधिक हैं, परन्तु इससे लगता है कि पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं को लाभ होगा।
प्रश्न 8.
असल मुद्दा नेताओं का नहीं, जनता का है। क्या इस बदलाव से सचमुच के वंचितों के लिए बेहतर नीतियाँ बनेंगी और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा या फिर यह सारा कुछ एक राजनीतिक खेल मात्र बनकर रह जाएगा।
उत्तर:
जितने भी नियम, कानून तथा योजनाएँ बनाई जाती हैं वह असल में नेताओं के लिए नहीं बल्कि इन सबका वास्ता जनता से होता है। बसपा उत्तर प्रदेश राज्य में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी और उसने एक से ज्यादा बार यहाँ सरकार बनाई। इस पार्टी का सबसे ज्यादा समर्थन दलित मतदाता करते हैं, लेकिन अब इसने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अपना जनाधार बढ़ाना शुरू किया है। भारत के कई हिस्सों में दलित राजनीति और अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने स्वतंत्र रूप धारण किया है। परन्तु इनके द्वारा बनाई गई नीतियों पर कारगर तरीके से अमल करना होगा तभी समाज के वास्तविक वंचितों के लिए अच्छी नीतियाँ बनेंगी और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा।
(पृष्ठ संख्या 188)
प्रश्न 9.
क्या यही हमारा भविष्य होने जा रहा है? क्या ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि हम इन बातों को बीते हुए दिनों की बात बना दें?
उत्तर:
सन् 2002 के फरवरी: मार्च में गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गुजरात के गोधरा स्टेशन पर घटी एक घटना इस हिंसा का तात्कालिक कारण साबित हुई। अयोध्या की ओर से आ रही एक ट्रेन की बोगी कारसेवकों से भरी हुई थी और इसमें आग लगाई। अगले दिन गुजरात के कई भागों में मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गुजरात में घटी ये घटनाएँ हमें चेतावनी देती हैं कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक हो सकता है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा पैदा हो सकता है।
प्रश्न 10.
क्या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जो लोग ऐसे जनसंहार की योजना बनाएँ, अमल करें और उसे समर्थन दें, वे कानून के हाथों से बच न पाएँ? ऐसे लोगों को कम - से - कम राजनीतिक रूप से तो सबक सिखाया ही जा सकता है।
उत्तर:
गुजरात की घटनाओं से पूरा देश दुखी रहा। इन घटनाओं की शुरुआत गोधरा कांड से हुई और फिर लगातार दो महीने से भी ज्यादा हिंसा का तांडव मचा, जिससे पूरा गुजरात राज्य दहल उठा। इसमें कोई शक नहीं कि मानवाधिकार आयोग की राय में राज्य सरकार लोगों के जीवन, स्वतंत्रता, समता और गरिमा के हनन को रोकने में बुरी तरह नाकाम रही। घावों को भरना और शांति-सौहार्द्र से भरे भविष्य की राह तलाशना जरूरी है; लेकिन इन उच्च आदर्शों को पाने की कोशिश न्याय तथा देश के संविधान के मूल्यों और कानून की बुनियाद पर ही की जानी चाहिए। हमें यह साबित करना ही होगा कि हम अपने ऊपर शासन कर सकते हैं और किसी दूसरे पर शासन करने की हमारी महत्त्वाकांक्षा नहीं है। जो लोग जनसंहार की योजना बनाएँ या उस पर अमल करें, उन्हें कानून द्वारा कठोर से कठोर सजा दी जानी चाहिए। ऐसे, लोगों को सबक सिखाया जाना चाहिए ताकि देश की शान्ति और सौहार्द्र की रक्षा हो सके।
(पृष्ठ संख्या 192)
प्रश्न 11.
मेरा सवाल है कि क्या लोकतंत्र बचेगा या फिर असली सवाल यह हो सकता है कि क्या लोकतंत्र के भीतर से सार्थक नेतृत्व उभरकर सामने आएगा?
उत्तर:
अब हम ऐसे पड़ाव पर पहुँचे हैं, जहाँ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा तेज है लेकिन इस प्रतिस्पर्धी राजनीति के बीच मुख्य राजनीतिक दलों में कुछ मसलों पर सहमति है। गरीबी, विस्थापन, न्यूनतम मजदूरी, आजीविका और सामाजिक सुरक्षा के मसले जन आन्दोलनों के जरिए राजनीतिक एजेंडे के रूप में सामने आ रहे हैं। ये आन्दोलन राज्य को उसकी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत कर रहे हैं। अब देखना यह है कि लोकतंत्र के भीतर पुन: सार्थक नेतृत्व कब उभरकर सामने आता है। लोग न्याय तथा लोकतंत्र के मुद्दे उठा रहे हैं। हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि भारत में लोकतांत्रिक राजनीतिक जारी रहेगी तथा कुछ चीजों के मंथन के बीच आकार ग्रहण करेगी।
प्रश्न 1.
उन्नी - मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है। आप इन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें:
(अ) मंडल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा।
(ब) जनता दल का गठन।
(स) बाबरी मस्जिद का विध्वंस।
(द) इंदिरा गाँधी की हत्या।
(ङ) राजग सरकार का गठन।
(च) संप्रग सरकार का गठन।
(छ) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम।
उत्तर:
कालक्रम के अनुसार निम्नलिखित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है:
(द) इंदिरा गाँधी की हत्या सन् 1984
(ब) जनता दल का गठन सन् 1988
(अ) मण्डल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा सन् 1990
(स) बाबरी मस्जिद का विध्वंस सन् 1992
(ङ) राजग सरकार का गठन सन् 1998
(छ) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम सन् 2002
(च) संप्रग सरकार का गठन सन् 2004
प्रश्न 2.
निम्नलिखित में मेल करें:
(अ) सर्वानुमति की राजनीति |
(i) शाहबानो मामला |
(ब) जाति आधारित दल |
(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार |
(स) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय |
(iii) गठबंधन सरकार |
(द) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत |
(iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति |
उत्तर:
(अ) → (iv), (ब) → (ii), (स) → (i), (द) → (iii)
प्रश्न 3.
1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे क्या रहे हैं? इन मुद्दों से राजनीतिक दलों के आपसी जुड़ाव के क्या रूप सामने आए हैं?
उत्तर:
सन् 1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे:
(i) लोकसभा के आम चुनावों में कांग्रेस की भारी हार हुई। उसे केवल 197 सीटें ही मिलीं। अतः सरकारें अस्थिर रहीं तथा सन् 1991 में दुबारा मध्यावधि चुनाव हुआ। कांग्रेस की प्रमुखता समाप्त होने के कारण देश के राजनीतिक दलों में आपसी जुड़ाव बढ़ा। राष्ट्रीय मोर्चे की दो बार सरकारें बर्नी परन्तु कांग्रेस द्वारा समर्थन खींचने तथा विरोधी दलों में एकता की कमी के कारण देश में राजनैतिक अस्थिरता रही।
(ii) देश की राजनीति में मंडल मुद्दे का उदय हुआ। इसने सन् 1989 के पश्चात् की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सभी दल वोटों की राजनीति करने लगे, अत: अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण दिए जाने के मामले में अधिकांश दलों में परस्पर जुड़ाव हुआ।
(iii) सन् 1990 के पश्चात् विभिन्न दलों की सरकारों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाईं, वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। आर्थिक सुधार व नवीन आर्थिक नीति के कारण देश के अनेक दक्षिणपंथी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों में आपसी जुड़ाव होने लगा। इस संदर्भ में दो प्रवृत्तियाँ उभरकर आईं। कुछ पार्टियाँ गैर कांग्रेसी गठबंधन और कुछ दल गैर भाजपा गठबंधन के समर्थक बने ।
(iv) दिसम्बर 1992 में अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचा विध्वंस कर दिया गया। इस घटना के पश्चात् भारतीय राष्ट्रवाद एवं धर्मनिरपेक्षता पर बहस तेज हो गयी। इन परिवर्तनों का सम्बन्ध भाजपा के उदय तथा हिन्दुत्व की राजनीति से है।
प्रश्न 4.
“गठबंधन की राजनीति के इस नए दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।" इस कथन के पक्ष या विपक्ष में आप कौन-से तर्क देंगे?
अथवा
"1989 के चुनावों के बाद गठबंधन की राजनीति का युग आरम्भ हुआ जिसमें राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।" व्याख्या कीजिए।
अथवा
"1989 से, गठबंधन की राजनीति में, राजनीतिक दल सहमति के दायरे में सक्रिय होते हुए, विचारधारागत मतभेद के स्थान पर, सत्ता में हिस्सेदारी की बातों पर क्यों जोर दे रहे हैं?" व्याख्या कीजिए।
अथवा
1989 के चुनावों के बाद गठबंधन की राजनीति का युग विचारधारा पर नहीं बल्कि निम्नलिखित पहलुओं पर निर्भर
उत्तर:
1. नयी आर्थिक नीति पर सहमति: कई समूह नयी आर्थिक नीति के खिलाफ हैं, लेकिन ज्यादातर राजनीतिक दल इन नीतियों के पक्ष में हैं। अधिकतर दलों का मानना है कि नई आर्थिक नीतियों से देश समृद्ध होगा और भारत, विश्व की एक आर्थिक शक्ति बनेगा।
2. पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की स्वीकृति: राजनीति दलों ने पहचान लिया है कि पिछड़ी जातियों के सामाजिक और राजनैतिक दावे को स्वीकार करने की जरूरत है। इस कारण आज सभी राजनीतिक दल शिक्षा और रोजगार में पिछड़ी जातियों के लिए सीटों के आरक्षण के पक्ष में हैं। राजनीतिक दल यह भी सुनिश्चित करने के लिए तैयार हैं कि 'अन्य पिछड़ा वर्ग' को सत्ता में समुचित हिस्सेदारी मिले।
3. देश के शासन में प्रांतीय दलों की भूमिका की स्वीकृति: प्रांतीय दल और राष्ट्रीय दल का भेद अब लगातार कम होता जा रहा है। प्रांतीय दल केन्द्रीय सरकार में साझीदार बन रहे हैं और इन दलों ने पिछले बीस सालों में देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
4. विचारधारा की जगह कार्यसिद्धि पर जोर और विचारधारागत सहमति के बगैर राजनीतिक गठजोड़-गठबंधन की राजनीति के इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारागत अंतर की जगह सत्ता में हिस्सेदारी की बातों पर जोर दे रहे हैं, मिसाल के लिए अधिकतर दल भाजपा की 'हिन्दुत्व' की विचारधारा से सहमत नहीं हैं, लेकिन ये दल भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हुए और सरकार बनाई, जो पाँच साल तक चली।
प्रश्न 5.
आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी। इस दौर में इस पार्टी के विकास-क्रम का उल्लेख करें।
उत्तर:
आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा के विकास-क्रम का वर्णन निम्नांकित है।
(1) आपातकाल के बाद के दौर में ही भाजपा का गठन हुआ। सन् 1980 में भारतीय जनसंघ को समाप्त कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष बने।
(2) सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या हो जाने के बाद चुनावों में सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस की जीत हुई और भाजपा को केवल दो सीटें ही प्राप्त हुईं। इसी बीच राम जन्मभूमि का ताला खुलने का अदालती आदेश आ चुका था। कांग्रेस सरकार ने वहाँ का ताला खुलवाया। भाजपा ने इसका राजनीतिक लाभ उठाने का निर्णय लिया।
(3) सन् 1989 के चुनावों में भाजपा को आशा से अधिक सफलता प्राप्त हुई और इसने कांग्रेस का विकल्प बनने की इच्छाशक्ति दिखाई, कांग्रेस से बाहर हुए वी.पी.सिंह ने जनता दल का गठन किया और सन् 1989 के लोकसभा चुनाव लड़े। उन्हें पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ लेकिन भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा की सरकार गठित की।
(4) भाजपा ने सन् 1991 और सन् 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। सन् 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण प्राप्त हुआ, किन्तु अधिकांश संसद सदस्य भाजपा की कुछ नीतियों के विरुद्ध थे और इसी कारण भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। अन्त में भाजपा एक गठबंधन के अगुवा के रूप में सत्ता में आयी तथा मई 1998 से जून 1999 तक सत्ता में रही।
सन् 1999 में इस गठबंधन ने फिर से सत्ता प्राप्त की। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की इन दिनों की सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। सन् 1999 की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूर्ण किया। सन् 2004 तथा 2009 के चुनाव में भी पार्टी को अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में एवं 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता प्राप्त हुई और आज वह सरकार में है।
प्रश्न 6.
कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
मैं इस कथन से असहमत हूँ कि कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। 1989 की हार के साथ भारत की दलीय व्यवस्था में उसका दबदबा समाप्त हो गया। 1991 के पश्चात इस पार्टी की सीटों की संख्या एक बार फिर बढ़ी। 2004 व 2009 के चुनावों में कांग्रेस ने पुनः अपना रंग दिखाया और पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत प्राप्त की लेकिन 2014 के चुनाव में यह पार्टी मात्र 44 सीटों पर सिमटकर सत्ता से बाहर हो गयी। 2019 के चुनावों में जहाँ भाजपा को 303 सीटें मिली वहीं कांग्रेस 52 सीटों पर सिमटकर रह गयी। राज्यों में इसका प्रभाव कम हो रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है तथा देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर धीरे-धीरे कम हो रहा है।
प्रश्न 7.
अनेक लोग सोचते हैं कि सफल लोकतंत्र के लिए दो-दलीय व्यवस्था जरूरी है। पिछले बीस सालों के भारतीय अनुभवों को आधार बनाकर एक लेख लिखिए और इसमें बताइए कि भारत की मौजूदा बहुदलीय व्यवस्था के क्या फायदे हैं?
अथवा
द्वि - दलीय प्रणाली लोकतंत्र के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है, परन्तु भारत में बहुदलीय प्रणाली है। भारत में बहुदलीय प्रणाली के लाभों का आकलन कीजिए।
उत्तर:
दलीय प्रणाली: सफल लोकतंत्र हेतु दलीय प्रणाली आवश्यक है। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं।
भारत में बहुदलीय प्रणाली के लाभ- भारत में बहुदलीय प्रणाली के निम्नांकित लाभ हैं।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें। भारत की दलगत राजनीति ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस-प्रणाली ने अपना खात्मा ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस के जमावाड़े के बिखर जाने से आत्म-प्रतिनिधित्व की नई प्रवृत्ति का भी जोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे। राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनीतिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरीके से विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट करें .......... जोया हसन (अ) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं? (ब) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना क्यों जरूरी है? (स) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनीतिक दलों की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की?
उत्तर:
(अ) इस अध्याय को पढ़ने के बाद निम्नलिखित दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं।
(ब) लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न वर्गों, समूहों, सम्प्रदायों के हितों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। इस भिन्नता का आधार जाति, वंश, सम्प्रदाय, लिंग, वर्ग आदि हो सकते हैं। परन्तु यदि विभिन्नताओं को देखते हुए भारतवासी छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहेंगे तो सम्पूर्ण देश में एकजुटता नहीं रह सकेगी। अतः विभिन्न हितों का समाहार करके सौहार्द्र, शान्ति, एकजुटता, परस्पर प्रेम, अहिंसा आदि तथ्यों का समावेश कर पाएँगे। ये सभी चीजें लोकतंत्र की प्रणाली की सफलता के लिए आवश्यक हैं।
(स) इस अध्याय में हमने अयोध्या के विवादित ढाँचे के विषय में पढ़ा। इस विवाद को भारत के राजनैतिक दलों के सामने एक - दूसरे के साथ मिल - बैठकर समझना, समझाना, एक - दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना, समाहार की क्षमता के लिए चुनौती इसलिए पेश की क्योंकि सभी राजनीतिक दल राष्ट्र के बजाय अपने राजनैतिक स्वार्थों को अधिक महत्त्व देते हैं तथा वोटों की राजनीति करते हैं।
हमें अपनी संस्कृति के अनुरूप सभी के साथ कुशल और सद्व्यवहारपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। अधिकतर राजनीतिक दलों ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा की और इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के विरुद्ध बताया। इसी अवधि में चुनावी उद्देश्य के लिए धार्मिक भावनाओं के इस्तेमाल पर भी बहस छिड़ी। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति इस वायदे पर आधारित है कि सभी धार्मिक समुदाय किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल धार्मिक समुदाय पर आधारित दल नहीं होगा।