Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
अनन्तकृष्ण अय्यर तथा शरतचन्द्र रॉय ने सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया?
उत्तर:
अनन्तकृष्ण अय्यर का सामाजिक मानव विज्ञान का अभ्यास श्री एल. के. अनन्तकृष्ण अय्यर ने अपने व्यवसाय की शरूआत एक क्लर्क के रूप में की; फिर स्कूली शिक्षक और उसके बाद कोचीन रजवाड़े के महाविद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए, जो आज केरल राज्य का भाग है। इन्होंने सामाजिक मानव विज्ञान का अभ्यास निम्न प्रकार से किया
(1) सन् 1902 में ब्रिटिश सरकार के चाहे जाने पर कोचीन के दीवान द्वारा इन्हें राज्य के नृजातीय सर्वेक्षण में मदद के लिए कहा गया। अनन्तकृष्ण अय्यर ने इस कार्य को पूर्णरूपेण एक स्वयंसेवी के रूप में किया। महाविद्यालय के शिक्षक के रूप में, एरनाकुलम स्थित महाराजा कॉलेज में पढ़ाते हुए, इसके लिए उन्होंने सप्ताहांतों में नृजातीय विभाग में अवैतनिक सुपरिन्टेंडेंट के रूप में कार्य किया। उनके काम की अपने समय के ब्रिटिश मानव विज्ञानी प्रशासकों ने काफी प्रशंसा की।
(2) बाद में इन्हें इसी प्रकार के सर्वेक्षण में सहायता करने के लिए मैसूर रजवाड़े में आमंत्रित किया गया। इससे उन्हें एक विद्वान, शिक्षाविद और मानव विज्ञानी के रूप में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली।
(3) इसके बाद उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में नियुक्ति मिली, जहाँ उन्होंने भारत के सर्वप्रथम स्नातकोत्तर मानव विज्ञान विभाग की स्थापना करने में मदद की। 1917 से 1932 तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही रहे । उन्हें इंडियन साइंस कांग्रेस के नृजातीय विभाग का अध्यक्ष चुना गया तथा जर्मनी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी गई।
शरतचन्द्र रॉय का सामाजिक मानव विज्ञान का अभ्यास-
शरतचन्द्र रॉय भी अकस्मात मानव विज्ञानी बने । रॉय ने अंग्रेजी विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि तथा कानून की डिग्री ली तथा 1898 में रांची जाकर ईसाई मिशनरी विद्यालय में अंग्रेजी शिक्षक के रूप में कार्य करने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय ने उन्हें सामाजिक मानव विज्ञानी बना दिया; क्योंकि अगले 44 वर्ष तक वे रांची में रहे और छोटा नागपुर में रहने वाली जनजातियों की संस्कृति तथा समाज के विशेषज्ञ बने। यथा-
प्रश्न 2.
'जनजातीय समुदायों को कैसे जोड़ा जाए'-इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे?
उत्तर:
सन् 1930 और 1940 के दशकों में इस विषय पर काफी वाद-विवाद हुआ कि भारत में जनजातीय समाज का क्या स्थान हो और राज्य उनसे किस प्रकार का व्यवहार करे। इस विवाद के दो प्रमुख पक्ष थे और उनके अपने-अपने तर्क थे। यथा
(1) ब्रिटिश प्रशासक और मानव विज्ञानियों का पक्ष तथा उनके तर्क-कई ब्रिटिश प्रशासक-मानव विज्ञानी भारतीय जनजातियों में रुचि रखते थे, और उनका मानना था कि ये आदिम लोग थे, जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी जो हिन्दू- मुख्य धारा से काफी अलग थी। उनका मानना था कि सीधे-सादे जनजातीय लोग हिन्दू समाज तथा संस्कृति से न केवल शोषित होंगे; बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी उनका पतन होगा। इस कारण को ध्यान में रखते हुए उन्हें लगा कि यह राज्य का कर्तव्य है कि वे जनजातियों को संरक्षण दें ताकि वे अपनी जीवन-पद्धति तथा संस्कृति को बनाए रख सकें क्योंकि उन पर लगातार यह दबाव बन रहा था कि वे हिन्दू संस्कृति की मुख्य धारा में अपने आपको मिला लें।
(2) राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थकों तथा घुर्ये का मत व उनके तर्क-
(i) राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थकों का मत था कि जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के उपर्युक्त प्रयास दिशाहीन थे और आदिम संस्कृति को बचाने का कार्य वास्तव में गुमराह करने की कोशिश थी। इसके परिणामस्वरूप जनजातियों के पिछड़ेपन को आदिम संस्कृति के 'संग्रहालय' के रूप में ही बनाए रखा था।
(2) घुर्ये ने इस बात पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को 'पिछड़े हिन्दू समूह' के रूप में पहचाना जाए न कि एक भिन्न सांस्कृतिक समूह के रूप में। इसके पक्ष में उन्होंने निम्न तर्क दिए
अतः स्पष्ट है कि संरक्षणवादियों का तर्क था कि हिन्दुओं में समायोजन का परिणाम जनजातियों के शोषण तथा उनकी संस्कृति की विलुप्तता के रूप में सामने आयेगा। दूसरी तरफ घुर्ये तथा राष्ट्रवादियों का तर्क था कि ये दुष्परिणाम भारतीय समाज के सभी पिछड़े और दलित वर्गों में समान रूप से देखे जा सकते हैं। विकास के मार्ग में आने वाली ये वे आवश्यक कठिनाइयाँ हैं, जिनसे बचा नहीं जा सकता।
प्रश्न 3.
भारत में प्रजाति तथा जाति के सम्बन्धों पर हर्बर्ट रिजले तथा जी.एस. घुर्ये की स्थिति की रूपरेखा
उत्तर:
भारत में प्रजाति तथा जाति के सम्बन्धों पर हर्बर्ट रिजले के विचार रिजले तथा अन्य लोगों की मान्यता थी कि भारत विभिन्न प्रजातियों के उविकास के अध्ययन की एक विशिष्ट 'प्रयोगशाला' था। रिजले का मुख्य तर्क था कि जाति का उद्भव प्रजाति से हुआ होगा; क्योंकि विभिन्न जाति-समूह किसी विशिष्ट प्रजाति से सम्बन्धित लगते हैं। यथा
(1) सामान्य रूप से उच्च जातियाँ तकरीबन भारतीय आर्य प्रजाति की विशिष्टताओं से मिलती हैं।
(2) निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों, मंगोल अथवा अन्य प्रजातियों के गुण देखने को मिलते हैं।
(3) विभिन्न वर्गों की भिन्नताओं के औसतन आधार, जैसे-खोपड़ी की चौड़ाई, नाक की लम्बाई अथवा कपाल का भार या खोपड़ी का वह हिस्सा जहाँ दिमाग की स्थिति होती है आदि, पर रिजले तथा अन्य लोगों ने यह सुझाव दिया कि निम्न जातियाँ ही भारत की वास्तविक आदि निवासी हैं; उन्हें आर्यों द्वारा दबाया गया जो कहीं बाहर से आकर भारत में बस गए थे।
भारत में प्रजाति तथा जाति के सम्बन्धों पर घुर्ये की स्थिति-
रिजले द्वारा दिए गए तर्कों को घुर्ये अंशतः सत्य मानते थे। उन्होंने उन समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया, जो केवल औसत के आधार पर, बिना परिवर्तनों को ध्यान में रखे, किसी भी समुदाय पर विशिष्ट मापदंड लागू कर दिये जाने से होती हैं। यथा
(1) घुर्ये का यह विश्वास था कि रिजले के शोध-प्रबन्ध में उच्च जातियों को आर्य तथा निम्न जातियों को अनार्य बताया गया है, यह व्यापक रूप से केवल उत्तरी भारत के लिए ही सही है। भारत के अन्य भागों में, अन्तरसमूहों की भिन्नताएँ मानवमिति माप बहुत व्यापक अथवा व्यवस्थित नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अधिकांश भारत में, केवल गंगा-सिंधु के मैदान को छोड़कर, विभिन्न प्रजातीय वर्गों का आपस में काफी लम्बे समय से मेल-मिलाप था।
(2) प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर-भारत में बची हुई थी, क्योंकि वहाँ अन्तर्विवाह निषिद्ध था। शेष भारत में अन्त:विवाह का प्रचलन उन वर्गों में हुआ, जो प्रजातीय स्तर पर वैसे ही भिन्न थे। वर्तमान में जाति का प्रजातीय सिद्धान्त अमान्य है।
प्रश्न 4.
जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बतायें।
उत्तर:
जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा जाति एक जटिल अवधारणा है। यह जन्म पर आधारित एक ऐसा समूह है, जो अपने सदस्यों को खान-पान, विवाह, व्यवसाय और सामाजिक सम्पर्क के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबंध मानने को निर्देशित करता है।
प्रश्न 5.
'जीवन्त परम्परा' से डी.पी. मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाजशास्त्रियों ने अपनी परम्परा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया?
उत्तर:
'जीवन्त परम्परा' से तात्पर्य-डी.पी. मुकर्जी के अनुसार जीवन्त परम्परा एक परम्परा है, जो भूतकाल से कुछ ग्रहण कर उससे अपने सम्बन्ध बनाए रखती है और साथ ही नयी चीजों को भी ग्रहण करती है। अतः एक जीवन्त परम्परा पुराने तथा नए तत्वों का मिश्रण है। यह समय के साथ अपने आपको विकसित करती रही है। भारतीय समाजशास्त्रियों को अपनी परम्परा से जुड़े रहना चाहिए डी.पी. मुकर्जी ने लिखा है कि भारत में समाज की केन्द्रीय स्थिति सामाजिकता की अधिकता की स्थिति-को देखते हुए, भारतीय समाजशास्त्री का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह सामाजिक परम्पराओं के बारे में पढ़े तथा जाने; क्योंकि परम्परा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था; बल्कि यह परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़ा था।
(1) भारतीय सामाजिक व्यवस्था को भली-भाँति समझने की दृष्टि से भारतीय समाजशास्त्री लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा परम्पराओं से जुड़कर ही अपनी सामाजिक व्यवस्था को ठीक प्रकार से समझ पायेगा। इसलिए भारतीय समाजशास्त्रियों को न केवल संस्कृत, फारसी अथवा अरबी भाषाओं का ज्ञान हो; बल्कि उन्हें स्थानीय बोलियों की भी जानकारी होनी चाहिए।
(2) भारतीय समाज के परिवर्तन और अनुकलन को समझाने की दृष्टि से भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः समूह, सम्प्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है, न कि स्वैच्छिक व्यक्तिगत कार्यों द्वारा। इनके क्रियाकलापों को परम्पराओं के माध्यम से भली-भाँति समझा जा सकता है। परम्परा की मजबूत जड़ें भूतकाल में होती हैं और उन्हें कहानियाँ तथा मिथकों द्वारा पढ़कर और सुनकर जीवित रखा जाता है। परिवर्तन भी भूतकाल से उसके सम्बन्ध को तोड़ नहीं पाया है, बल्कि यह अनुकूलन की प्रक्रिया को इंगित करता है।
(3) वर्ग-संघर्ष को समझने के लिए-डी.पी. मुकर्जी का मानना था कि भारतीय संदर्भ में वर्ग-संघर्ष जातीय परम्पराओं से प्रभावित होता है और उसे अपने में सम्मिलित कर लेता है।
(4) अनुभव पर बल-भारतीय समाज में परिवर्तन का सर्वप्रमुख सिद्धान्त समूहों का सामूहिक अनुभव था और परम्पराएँ अनुभव को बल देती हैं। भारतीय संदर्भ में संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं। परन्तु परम्परा का लचीलापन इसका ध्यान रखता है कि संघर्ष का दबाव परम्पराओं को बिना तोड़े उनमें परिवर्तन लाये। भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया परम्पराओं की सीमाओं में रहती है। यह ठेठ जातिगत समाज का लक्षण है, जहाँ वर्गों के बनने तथा वर्ग-चेतना को अवरोधित कर दिया गया है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्रियों से अपनी परम्परा से जुड़े रहने पर बल दिया।
प्रश्न 6.
भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशिष्टताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे को कैसे प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति तथा समाज की विशेषताएँ भारतीय समाज तथा संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) प्राचीनता-भारतीय संस्कृति का इतिहास अति प्राचीन है। जिस समय विश्व की अधिकांश संस्कृतियाँ बर्बरता के दौर से गुजर रही थीं, उस समय भारतीय संस्कृति बहुत उन्नत अवस्था में थी। सिंधु घाटी और हड़प्पा की सभ्यता की खोज और अन्वेषण ने भारतीय समाज और संस्कृति के प्राचीन और अति मौलिक स्वरूप का विलक्षण प्रमाण प्रस्तुत किया है। अभी लगभग तीन दशक पूर्व सतलज घाटी में राजस्थान के जैसलमेर में और दक्षिण की ओर अहमदाबाद के निकट लोथल में सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सभ्यता सिंधु घाटी तक ही सीमित न थी; बल्कि पूर्व और दक्षिण की ओर आधे भारतीय उपमहाद्वीप में प्रागैतिहासिक काल में एक अत्यन्त उन्नत सभ्यता और संस्कृति भारतवर्ष में रही है।
(2) निरन्तरता-भारतीय समाज तथा संस्कृति की दूसरी प्रमुख विशेषता उसकी निरन्तरता है। इसकी निरन्तरता का प्रवाह किसी आघात से एकाएक खण्डित नहीं हुआ; बल्कि इसका एक निश्चित विकास और प्रसार होता रहा है। भारतीय संस्कृति और समाज चार सहस्र वर्षों से अब तक जीवित रही है और अपनी परम्पराएँ अक्षुण्ण रख सकी है।
(3) सहिष्णुता-भारतीय संस्कृति तथा समाज की एक अन्य विशेषता उसकी सहिष्णुता है। इसमें विश्व की विभिन्न संस्कृतियाँ अपना पृथक् अस्तित्व समाप्त कर इसके मूल भाव में विलीन हो गईं। शक, हूण, सिथियन, ईसाई, मुस्लिम, हिन्दू आदि अनेक संस्कृतियों को भारतीय समाज ने स्वीकारा । भारत ने सभी धर्मों, जातियों, प्रजातियों, सम्प्रदायों के प्रति उदारता, सहिष्णुता व प्रेमभाव रखा । इस प्रकार सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का सार तत्व है।
(4) समन्वयशीलता-भारतीय समाज एवं संस्कृति की एक अन्य विशेषता समन्वयता है। भारत में अनेक जातियाँ, उप-जातियाँ, धर्म और प्रजातियाँ आदि आए हैं, मिले हैं, झगड़े हैं और फिर भी वे सभी भाई-भाई की तरह रह रहे हैं। ये सभी भारतीय संस्कृति के रक्त में घुल-मिल गए हैं। भारतीय संस्कृति ने इन सबको अपने अनुकूल ढाल लिया है। अपनी इसी समन्वयता की विशेषता के कारण ही भारतीय संस्कृति में निरन्तरता और सक्रियता आज भी विद्यमान है।
(5) अनुकूलनशीलता-भारतीय संस्कृति व समाज की एक अन्य विशेषता इसकी अनुकूलनशील प्रवृत्ति का होना है। इस कारण इसमें परिवर्तन के साथ कदम मिलाकर चलने की शक्ति विद्यमान है। भारतीय सामाजिक संस्थाएँ अपने को इन परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बनाकर तथा सामाजिक शक्ति के विभिन्न प्रभावों को स्वीकार करके चिर-नूतन तथा चिर-सक्रिय बना रही हैं।
(6) आध्यात्मिकता और धर्म प्रधानता-भारतीय समाज और संस्कृति धर्म प्रधान रही है। भारतीय संस्कृति में भौतिक सुख और भोग लिप्सा को कभी भी जीवन का ध्येय नहीं माना गया। यहाँ आत्मा और ईश्वर के महत्त्व को स्वीकार किया गया है और शारीरिक सुख के स्थान पर मानसिक एवं आध्यात्मिक आनंद को सर्वोपरि माना गया है।
(7) विविधता में एकता-भारतीय समाज और संस्कृति की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता विविधता में एकता है। भारत में विभिन्न धर्म, भाषा, जाति, प्रजाति, रीति-रिवाज, परम्पराएँ तथा प्रथाओं से युक्त मानव समुदाय हैं; लेकिन इन बाह्य विभिन्नताओं के होते हुए भी इन मानव-समुदायों के मध्य अन्त:निहित मौलिक एकता विद्यमान है।
(8) सर्वांगीणता-भारतीय संस्कृति की एक अन्य विशेषता उसकी सर्वांगीणता भी है। इसका अभिप्राय हैव्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना । व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए ही यहाँ अनेक व्यवस्थाओं की स्थापना की गई है। इनमें प्रमुख हैं पुरुषार्थ, कर्म तथा पुनर्जन्म, ऋण, संस्कार, वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था तथा संयुक्त परिवार।
प्रश्न 7.
कल्याणकारी राज्य क्या है? ए.आर. देसाई कुछ देशों द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की विशेषताएँ-आधुनिक पूँजीवादी राज्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता 'कल्याणकारी राज्य का दृष्टिकोण' है। ए.आर. देसाई ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अपने निबंध "द मिथ ऑफ द वेलफेयर स्टेट" में इसकी विस्तारपूर्वक विवेचनात्मक समीक्षा की है। समाजशास्त्रीय साहित्य की प्रमुख परिभाषाओं को ध्यान में रखते हुए देसाई ने कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं
(1) एक सकारात्मक राज्य-कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है। ऐसा राज्य कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता है, बल्कि यह राज्य हस्तक्षेपीय राज्य होता है और समाज के हित के लिए सामाजिक नीतियों को तैयार करता है तथा उन्हें लागू करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग सक्रिय रूप से करता है।
(2) लोकतांत्रिक राज्य-कल्याणकारी राज्य लोकतांत्रिक राज्य होता है। इसके जन्म के लिए लोकतंत्र एक अनिवार्य दशा है। औपचारिक लोकतांत्रिक संस्थाओं, विशेषकर बहुदलीय निर्वाचन, कल्याणकारी राज्य की पारिभाषिक विशेषता समझी जाती है।
(3) मिश्रित अर्थव्यवस्था-कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है। मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ है ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ निजी पूँजीवादी कम्पनियाँ तथा राज्य अथवा सामूहिक कम्पनियाँ दोनों साथ-साथ कार्य करती हों। एक कल्याणकारी राज्य न तो पूँजीवादी बाजार को ही खत्म करना चाहता है और न ही यह उद्योगों तथा दूसरे क्षेत्रों में जनता को निवेश करने से रोकता है। इसमें राज्य आवश्यकता की वस्तुओं और सामाजिक अधिसंरचना पर ध्यान देता है, जबकि उपभोक्ता वस्तुओं पर निजी उद्योगों का वर्चस्व होता है। देसाई द्वारा कुछ देशों द्वारा कल्याणकारी राज्य के दावों की आलोचना ए.आर. देसाई निम्नलिखित आधारों पर उन देशों के कार्यों का परीक्षण करते हैं, जिनको प्रायः कल्याणकारी राज्य कहा जाता है; जैसे-ब्रिटेन, अमेरिका तथा यूरोप के अधिकांश भाग । यथा-
(1) निम्नतम आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा-कल्याणकारी राज्य से यह अपेक्षा की कि वह राज्य की गरीबी, सामाजिक भेदभाव से मुक्ति तथा अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखे। इस दृष्टि से देखें तो अधिकांश आधुनिक पूँजीवादी कल्याणकारी राज्य, यहाँ तक कि विकसित देश भी, अपने नागरिकों को निम्नतम आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा देने में असफल रहे हैं।
(2) आर्थिक असमानताओं में कमी लाना-कल्याणकारी राज्य का एक अन्य प्रमुख कार्य यह है कि वह आय से सम्बन्धित असमानताओं को दूर करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाये; जैसे-धन के जमाव को रोके अथवा अमीरों की आय के कुछ भाग को गरीबों में पुनः बाँटना आदि। इस दृष्टि से पूँजीवादी देशों के कल्याणकारी राज्य के कार्यों की परीक्षा करने पर श्री देसाई ने यह पाया कि ये देश आर्थिक असमानताओं को कम करने में सफल नहीं हो पाये हैं और अधिकांशतः उसे प्रोत्साहित ही करते हैं।
(3) बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास-कल्याणकारी राज्य का एक अन्य प्रमुख कार्य यह होना चाहिए कि वह स्थायी राज्य के विकास के लिए आर्थिक मंदी तथा तेजी से मुक्त व्यवस्था बनाए रखे। इस दृष्टि से परीक्षण करने पर श्री देसाई ने यह पाया कि तथाकथित कल्याणकारी राज्य बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास करने में भी असफल रहे हैं।
(4) अन्य असफलताएँ-ए. आर. देसाई ने अतिरिक्त धन की उपस्थिति अर्थात् पूँजीपतियों का और धनी होते जाना तथा अत्यधिक बेरोजगारी इसकी अन्य असफलताएँ बताई हैं। उपर्युक्त तर्कों के आधार पर ए.आर. देसाई ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को एक भ्रम बताया है तथा कुछ देशों द्वारा कल्याणकारी राज्य के दावों की आलोचना की है।
प्रश्न 8.
समाजशास्त्रीय शोध के लिए 'गाँव' को एक विषय के रूप में लेने पर एम.एन. श्रीनिवास तथा लुई ड्यूमो ने इसके पक्ष-विपक्ष में क्या तर्क दिये हैं?
उत्तर:
गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गये लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं
दूसरे प्रकार के लेखन अर्थात् गाँव की एक अवधारणा के रूप में उपयोगिता के प्रश्न पर श्रीनिवास और लुई ड्यूमो में विवाद हुआ। यथा
(1) भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक अवधारणा के विपक्ष में लुई ड्यूमो के तर्क-लुई ड्यूमो श्रीनिवास के इस विचार से असहमत हैं कि भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में उपयोगी हैं। उन्होंने इसके विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किये
(i) ड्यूमो का मानना था कि जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं; क्योंकि गाँव केवल कुछ लोगों का समूह था जो कि एक विशेष स्थान पर रहते थे।
(ii) गाँव बने रह सकते हैं या समाप्त हो सकते हैं और लोग एक गाँव को छोड़कर दूसरे गाँव को जा सकते हैं, लेकिन उनकी सामाजिक संस्थाएँ, जैसे-जाति अथवा धर्म सदैव उनके साथ रहते हैं और जहाँ वे जाते हैं, वहाँ सक्रिय हो जाते हैं। इस कारण से ड्यूमो का मानना था कि गाँव को एक इकाई के रूप में महत्त्व देना गुमराह करने वाला हो सकता
(2) भारतीय ग्राम सामाजिक विश्लेषण की एक अवधारणा के पक्ष में श्रीनिवास के तर्क-श्रीनिवास ने अपने निबन्धों में इस बात पर बल दिया है कि भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करते हैं तथा वे सामाजिक विश्लेषण की एक एक-इकाई के रूप में उपयोगी हैं। इस बात के समर्थन में श्रीनिवास ने निम्न तर्क दिये हैं
प्रश्न 9.
भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन का क्या महत्त्व है? ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में एम.एन. श्रीनिवास की क्या भूमिका रही?
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन का महत्त्व-
भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) नृजातीय शोधकार्य की पद्धति के महत्त्व से परिचय-गाँव, ग्रामीण शोधकार्यों के स्थल के रूप में भारतीय समाजशास्त्र को इस रूप में लाभान्वित करते हैं कि इसने नृजातीय शोधकार्य की पद्धति के महत्त्व से परिचित कराने का एक मौका दिया।
(2) तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन की प्रत्यक्ष जानकारी-नव-स्वतंत्र राष्ट्र जब विकास की योजनाएँ बना. रहा था, ऐसे समय में ग्रामीण अध्ययनों ने भारतीय गाँवों में तीव्र गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन के बारे में आँखों देखी जानकारी दी। ग्रामीण भारत से सम्बन्धित इन विविध जानकारियों की उस समय काफी प्रशंसा हुई; क्योंकि नगरीय भारतीय तथा नीति-निर्माता इससे अनुमान लगा सकते थे कि भारत के आंतरिक हिस्सों में क्या हो रहा था।
(3) समाजशास्त्र को एक नयी भूमिका प्रदान की-ग्रामीण अध्ययनों ने समाजशास्त्र जैसे विषय को स्वतंत्र राज्य के परिप्रेक्ष्य में यह नई भूमिका दी कि मात्र आदिम मानव के अध्ययन तक सीमित न रहकर, इसे आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज के लिए भी उपयोगी बनाया जा सकता है। ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में श्रीनिवास की भूमिका एम.एन. श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव तथा ग्रामीण समाज में जीवन भर बनी रही। मैसूर के निकट रामपुर गाँव में एक वर्ष तक कार्य करने के पश्चात् इन्हें ग्रामीण समाज के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त हुई तथा यह अनुभव उनके व्यवसाय तथा बौद्धिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुआ।
ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में श्रीनिवास की भूमिका को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है-
(1) ग्रामीण समाज से सम्बन्धित ब्यौरों का समन्वय-1950-60 के दौरान श्रीनिवास ने ग्रामीण समाज से सम्बन्धित विस्तृत नृजातीय ब्यौरों के लेखे-जोखों को तैयार करने में सामूहिक परिश्रम को न केवल प्रोत्साहित किया; बल्कि उसका समन्वय भी किया।
(2) ग्रामीण अध्ययन को प्रभावशाली बनाया-श्रीनिवास ने एस.सी. दुबे तथा डी.एन. मजूमदार जैसे विद्वानों के साथ मिलकर भारतीय समाजशास्त्र में उस समय के ग्रामीण अध्ययन को प्रभावशाली बनाया।
(3) गाँव को सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई बनाना-गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गये लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं। सर्वप्रथम, गाँवों में किये गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा और इन ब्यौरों पर परिचर्चा । द्वितीय प्रकार के लेखन में भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करते हैं-इस पर ऐतिहासिक तथा अवधारणात्मक परिचर्चाएँ। इस सम्बन्ध में श्रीनिवास ने यह स्पष्ट किया कि गाँव एक आवश्यक सामाजिक पहचान है। गाँवों ने अपनी एक एकीकृत पहचान बनाई है तथा ग्रामीण एकता ग्रामीण सामाजिक जीवन में काफी महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक सामाजिक साक्ष्य देकर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि गाँव कभी आत्म-निर्भर नहीं थे और वे विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक सम्बन्धों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे। इसलिए उनमें महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन आए हैं।