RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना Important Questions and Answers. 

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RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

बहुविकल्पात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
जब एक पुरुष एक समय में एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है, तो ऐसा विवाह कहलाता है. 
(अ) समूह विवाह
(ब) बहुपत्नी विवाह 
(स) बहुपति विवाह
(द) एक विवाह 
उत्तर:
(ब) बहुपत्नी विवाह 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

प्रश्न 2. 
आधुनिक समय में कौन-से प्रकार के विवाह का चलन सर्वाधिक पाया जाता है.
(अ) एक विवाह
(ब) बहुपति विवाह
(स) समूह विवाह
(द) बहुपत्नी विवाह 
उत्तर:
(अ) एक विवाह

प्रश्न 3. 
ऐसे परिवार जिनमें परिवार की सत्ता पुरुषों में निहित होती है, कहलाते हैं
(अ) मातृसत्तात्मक
(ब) मातृवंशीय 
(स) पितृसत्तात्मक
(द) मातृमार्गीय 
उत्तर:
(स) पितृसत्तात्मक

प्रश्न 4. 
जब एक पुरुष एक समय में एक स्त्री से विवाह करता है, तो ऐसा विवाह कहलाता है
(अ) एक विवाह
(ब) बहु विवाह 
(स) बहु पति विवाह
(द) बहुपत्नी विवाह 
उत्तर:
(अ) एक विवाह

प्रश्न 5. 
जब कोई व्यक्ति अपने समूह से बाहर विवाह करता है, तो इसे कहा जाता है-
(अ) अन्तर्विवाह
(ब) बहिर्विवाह 
(स) जाति विवाह
(द) समूह विवाह 
उत्तर:
(ब) बहिर्विवाह 

प्रश्न 6. 
ऐसे परिवार जिनमें परिवार की सत्ता स्त्रियों में निहित होती है, कहलाते हैं
(अ) मातृसत्तात्मक
(ब) पितृसत्तात्मक 
(स) पितृवंशीय
(द) नवस्थानीय 
उत्तर:
(अ) मातृसत्तात्मक

प्रश्न 7. 
धर्म का सम्बन्ध होता है
(अ) पवित्र वस्तुओं से
(ब) विज्ञान से 
(स) अपवित्र वस्तुओं से
(द) जादू से 
उत्तर:
(अ) पवित्र वस्तुओं से

प्रश्न 8. 
प्राचीन काल में भारत में बालक शिक्षा प्राप्त करता था
(अ) विश्वविद्यालय में
(ब) महाविद्यालय में 
(स) विद्यालयों में
(द) गुरुकुल में।
उत्तर:
(द) गुरुकुल में।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
1. सामाजिक संस्थाएँ राज्य की ............... या परिवार की तरह ............. हो सकती हैं। 
2. दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र और उत्तरी आंध्रप्रदेश में कोलम जनजाति समुदाय में .............. घर एक स्वीकृत मानक
3. आवास के नियम के अनुसार कुछ समाज अपने विवाह और पारिवारिक प्रथाओं में ............. है और कुछ
4. कठोर आर्थिक स्थितियाँ व अत्यधिक निर्धनता की अवस्थाएँ एक समूह पर अपनी आबादी ............. रखने के लिए दबाव डालती हैं। 
5. ............. में व्यक्ति उसी सांस्कृतिक समूह में विवाह करता है जिसका वह पहले से ही सदस्य है। 
6. समाज को असमान रूप से विभेदकारी मानने वाले समाजशास्त्रियों के लिए शिक्षा .............. के मुख्य अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है। 
7. धर्म एक पवित्र क्षेत्र है और अधिकतर मामलों में पवित्रता में .............. का तत्त्व होता है। 
8. नागरिकता के अधिकारों में नागरिक, राजनैतिक और ............ अधिकार शामिल हैं। 
उत्तर:
1. वृहत्, लघु 
2. महिला-प्रधान 
3. मातृ-स्थानिक, पितृ-स्थानिक 
4. सीमित 
5. अन्तर्विवाह 
6. स्तरीकरण
7. अलौकिकता 
8. सामाजिक। 

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-

1. राजनीतिक संस्थाओं का सरोकार समाज में शक्ति के बँटवारे से है। 
2. प्रकार्यवादी दृष्टिकोण राज्य को समाज के प्रभावशाली अनुभागों के प्रतिनिधि के रूप में देखता है। 
3. प्रकार्यवादी दृष्टिकोण राज्य को समाज के सभी अनुभागों के हितों के प्रतिनिधि के रूप में देखता है।
4. प्रकार्यवादियों के लिए शिक्षा स्तरीकरण के मुख्य अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है। 
5. बड़ी आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण परिवार और नातेदारी परिवर्तित और रूपान्तरित होते रहते हैं। - 
6. जीव विज्ञान के अनुसार लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के जीवित रहने के अवसर कम होते हैं।
7. आधुनिक समाजों की एक मुख्य विशेषता है-परस्पर आर्थिक निर्भरता का असीमित विस्तार। 
उत्तर:
1. सत्य 
2. असत्य 
3. सत्य 
4. असत्य 
5. सत्य 
6. असत्य 
7. सत्य 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना  

निम्न स्तंभों के सही जोड़े बनाइये-

1. समरक्त नातेदार

(अ) एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र पर राज्य का अविवादित राजनीतिक शासन

2. वैवाहिक नातेद्रार

(ब) राजनीतिक अधिकार

3. प्रभुसत्ता

(स) सामाजिक अधिकार

4. मतदान का अधिकार

(द) विवाह के माध्यम से बने नातेदार

5. भाषण एवं धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

(य) रक्त के माध्यम से बने नातेदार

6. न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने का अधिकार

(र) नागरिक अधिकार.

उत्तर:

1. समरक्त नातेदार

(य) रक्त के माध्यम से बने नातेदार

2. वैवाहिक नातेद्रार

(द) विवाह के माध्यम से बने नातेदार

3. प्रभुसत्ता

(अ) एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र पर राज्य का अविवादित राजनीतिक शासन

4. मतदान का अधिकार

(ब) राजनीतिक अधिकार

5. भाषण एवं धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

(र) नागरिक अधिकार

6. न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने का अधिकार

(स) सामाजिक अधिकार


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
संस्था किसे कहते हैं?
उत्तर:
विस्तृत अर्थ में संस्था उसे कहा जाता है जो स्थापित या कानून एवं प्रथा द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार कार्य करती है और उसके नियमित तथा निरंतर कार्य-चालन को इन नियमों को जाने बिना नहीं समझा जा सकता है।

प्रश्न 2. 
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक संस्था को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
प्रकार्यवादियों के अनुसार, सामाजिक संस्थाओं को सामाजिक मानकों, आस्थाओं, मूल्यों और समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निर्मित संबंधों की भूमिका के जटिल ताने-बाने के रूप में देखा जाता है।

प्रश्न 3. 
किन्हीं दो अनौपचारिक सामाजिक संस्थाओं के नाम लिखिये। 
उत्तर:

  1. परिवार और 
  2. धर्म अनौपचारिक सामाजिक संस्थाएँ हैं। 

प्रश्न 4. 
किन्हीं दो औपचारिक सामाजिक संस्थाओं के नाम लिखिये।
उत्तर:
राज्य, कानून तथा शिक्षा। 

प्रश्न 5. 
संघर्षवादी दृष्टिकोण की संस्थाओं के सम्बन्ध में क्या मान्यता है?
उत्तर:
संघर्षवादी दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक संस्थाएँ समाज के प्रभावशाली अनुभागों के हित में संचालित होती हैं।

प्रश्न 6. 
परिवार किसे कहते हैं? 
उत्तर:
परिवार प्रत्यक्ष नातेदारी सम्बन्धों से जुड़ा व्यक्तियों का एक समूह है जिसके बड़े सदस्य बच्चों के पालनपोषण का दायित्व लेते हैं। 

प्रश्न 7. 
नातेदारी बंधन को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नातेदारी बंधन व्यक्तियों के बीच के वे सूत्र होते हैं जो या तो विवाह के माध्यम से या वंश परम्परा के माध्यम से रक्त सम्बन्धियों (माता-पिता, बहन-भाई, संतान आदि) को जोड़ते हैं।

प्रश्न 8. 
विवाह को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
विवाह को दो वयस्क (पुरुष एवं स्त्री) व्यक्तियों के बीच लैंगिक सम्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति और अनुमोदन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

प्रश्न 9. 
जन्म-परिवार तथा प्रजनन-परिवार में क्या अन्तर है?
उत्तर:
जिस परिवार में व्यक्ति का जन्म होता है, उसे उसका ‘जन्म परिवार' कहा जाता है और जिस परिवार में ... उसका विवाह होता है, वह उसका 'प्रजनन परिवार' कहा जाता है।

प्रश्न 10. 
समरक्त नातेदार और वैवाहिक नातेदार में क्या अन्तर है?
उत्तर:
'रक्त' के माध्यम से बने नातेदारों को 'समरक्त नातेदार' और विवाह के माध्यम से बने नातेदारों को "वैवाहिक नातेदार' कहा जाता है।

प्रश्न 11. 
मातृस्थानिक परिवार से क्या आशय है? 
उत्तर:
मातृस्थानिक परिवार वह है जिसमें नव-दम्पत्ति पत्नी के अभिभावकों के साथ रहते हैं। 

प्रश्न 12. 
पितृस्थानिक परिवार से क्या आशय है?
उत्तर:
पितृस्थानिक परिवार वह है जिसमें नव-दम्पत्ति पति के अभिभावकों के साथ रहते हैं। 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

प्रश्न 13.
पितृसत्तात्मक और मातृसत्तात्मक परिवारों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
पितृसत्तात्मक परिवारों में परिवार की सत्ता, अधिकार पुरुषों के पास होते हैं जबकि मातृसत्तात्मक परिवारों में परिवार की सत्ता व अधिकार महिलाओं के पास होते हैं।

प्रश्न 14. 
वैधानिक रूप से विवाह करने वाले साथियों के रूप में विवाह के प्रकार बताइये।
उत्तर:
वैधानिक रूप से विवाह करने वाले साथियों की संख्या के संदर्भ में विवाह के दो प्रकार पाए जाते हैं

  1. एक विवाह और 
  2. बहु विवाह ।

प्रश्न 15. 
एक विवाह क्या है?
उत्तर:
एक विवाह प्रथा एक व्यक्ति को एक समय में एक ही साथी तक सीमित रखती है अर्थात् एक समय में एक पुरुष केवल एक पत्नी और एक स्त्री केवल एक पति रख सकती है। .

प्रश्न 16. 
आधुनिक भारत में विधवा महिलाओं का क्या प्रतिशत है?
उत्तर:
आधुनिक भारत में महिलाओं की जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत और पचास वर्ष से अधिक आयु की 55 प्रतिशत महिलाएँ विधवा हैं।

प्रश्न 17. 
अन्तर्विवाह क्या है?
उत्तर:
अन्तर्विवाह विवाह का एक नियम है। इसके अनुसार व्यक्ति उसी सांस्कृतिक समूह में विवाह करता है जिसका कि वह सदस्य है, जैसे-जाति।

प्रश्न 18. 
बहिर्विवाह क्या है? 
उत्तर:
बहिर्विवाह में व्यक्ति अपने समूह से बाहर विवाह करता है। 

प्रश्न 19. 
शक्ति क्या है?
उत्तर:
शक्ति व्यक्तियों या समूहों द्वारा दूसरों के विरोध करने के बावजूद अपनी इच्छा पूरी करने की योग्यता है। शक्ति दूसरों से संबंधित होती है।

प्रश्न 20. 
सत्ता क्या है? 
उत्तर:
सत्ता शक्ति का वह संस्थागत रूप है जिसे वैधता के आधार पर स्वीकार किया जाता है। 

प्रश्न 21. 
राज्य विहीन समाज से क्या आशय है? 
उत्तर:
राज्य विहीन समाज से आशय ऐसे समाज से है जिसमें सरकार की औपचारिक संस्थाओं का अभाव होता है। 

प्रश्न 22. 
नागरिक किसे कहते हैं?
उत्तर:
नागरिक एक राजनीतिक समुदाय का वह सदस्य होता है जिसकी सदस्यता के साथ अधिकार और कर्तव्य दोनों जुड़े होते हैं।

प्रश्न 23. 
शिक्षा से क्या आशय है? 
उत्तर:
शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें सीखने की औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की संस्थाएँ शामिल हैं।

प्रश्न 24. 
धर्म के पवित्र क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व सभी धर्मों के लोगों में कौनसी बातें समान होती हैं?
उत्तर:
धर्म के पवित्र क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व सभी धर्मावलम्बियों में जो बातें समान हैं, वे हैं-

  1. श्रद्धा की भावना 
  2. पवित्र स्थानों या स्थितियों की पहचान और 
  3. उनके प्रति सम्मान की भावना।

प्रश्न 25. 
सभी धर्मों की तीन समान विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
सभी धर्मों की तीन समान विशेषताएँ हैं-

  1. प्रतीकों का समुच्चय, श्रद्धा या सम्मान की भावनाएँ, 
  2. अनुष्ठान या समारोह तथा 
  3. विश्वासकर्ताओं का एक समुदाय। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
परिवार के कोई दो कार्य लिखिये। उत्तर-परिवार के कार्य-परिवार के दो प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

  1. विवाह सम्बन्ध-परिवार विवाह-सम्बन्ध द्वारा दो विपरीत लिंगियों को यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति प्रदान करता है।
  2. सन्तानोत्पत्ति-यौन सम्बन्धों के परिणामस्वरूप सन्तानोत्पत्ति होती है। समाज उन्हीं यौन-सम्बन्धों एवं सन्तानों को मान्यता प्रदान करता है, जो मान्य विवाह द्वारा उत्पन्न होते हैं। परिवार के बाहर हुई उत्पन्न सन्तानों को अवैध माना जाता है।

प्रश्न 2. 
परिवार की पांच सामान्य विशेषताएँ लिखिये। उत्तर-परिवार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. विवाह के माध्यम से परिवार का अस्तित्व निर्मित होता है। 
  2. प्रत्येक परिवार का एक वंशनाम होता है। 
  3. परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक सामान्य अर्थव्यवस्था पायी जाती है। 
  4. एक परिवार के सभी सदस्य एक सामान्य घर में रहते हैं। 
  5. परिवार के सदस्यों के मध्य भावनात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं। 

प्रश्न 3. 
आवास के नियम के आधार पर परिवार के विभिन्न स्वरूपों को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
आवास के नियम के आधार पर परिवार के तीन प्रकार बताये जा सकते हैं

  1. मातृस्थानिक परिवार-मातृ स्थानिक परिवार में नव-दम्पत्ति पत्नी के अभिभावकों के साथ रहते हैं। 
  2. पितृस्थानिक परिवार-पितृ स्थानिक परिवार में नव-दम्पत्ति पति के अभिभावकों के साथ रहते हैं।
  3. नवस्थानिक परिवार-जब विवाह के बाद नव-दम्पत्ति एक नये घर में रहने लगते हैं, तो ऐसे परिवार नवस्थानिक परिवार कहलाते हैं। .

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

प्रश्न 4. 
संख्या के आधार पर परिवार का वर्गीकरण कीजिये। उत्तर-संख्या के आधार पर परिवार के दो प्रकार बताये जा सकते हैं। ये निम्नलिखित हैं

  1. मूल परिवार-यह परिवार का सबसे छोटा और आधारभूत रूप है। इसमें विवाहित पति-पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चों को सम्मिलित किया जा सकता है।
  2. संयुक्त परिवार-जब दो या दो से अधिक पीढ़ी के सदस्य एक-साथ एक ही आवास में रहते हैं, तो ऐसे परिवार को संयुक्त परिवार कहा जाता है। इसमें एक सामान्य रसोई तथा सामूहिक पूजा पद्धति होती है।

प्रश्न 5. 
प्रकार्यवादी सामाजिक संस्थाओं को किस रूप में देखते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संस्थाओं का प्रकार्यवादी दृष्टिकोण-प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक मानकों, आस्थाओं, मूल्यों और समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निर्मित सम्बन्धों की भूमिका का जटिल ताना-बाना होती हैं। ये.सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विद्यमान होती हैं। इस प्रकार समाज में दो प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ होती हैं-

  1. औपचारिक सामाजिक संस्थाएँ, जैसे-राज्य, कानून, शिक्षा आदि; 
  2. अनौपचारिक सामाजिक संस्थाएँ, जैसे-परिवार, धर्म, नातेदारी आदि।

प्रश्न 6. 
संघर्षवादी सामाजिक संस्थाओं को किस रूप में देखते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संस्थाओं का संघर्षवादी दृष्टिकोण-एक संघर्षवादी दृष्टिकोण के अनुसार सभी सामाजिक संस्थाएँ चाहे वे पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, कानूनी या शैक्षणिक हों, समाज के प्रभावशाली अनुभागों, चाहे वे वर्ग, जाति, जनजाति या लिंग के सन्दर्भ में हों, के हित में संचालित होती हैं। प्रभावशाली सामाजिक अनुभागों का न केवल राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं पर प्रभुत्व होता है, बल्कि उनका शासकीय संस्थाओं पर भी प्रभुत्व होता है।

प्रश्न 7.
महिला-प्रधान घर से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
महिला प्रधान घर-जब पुरुष नगरीय क्षेत्रों में चले जाते हैं तो महिलाओं को हल चलाना पड़ता है और खेतों के कार्यों का प्रबन्ध करना पड़ता है । कई बार वे अपने परिवार की एकमात्र भरण-पोषण करने वाली बन जाती हैं। ऐसे परिवारों को महिला-प्रधान घर कहा जाता है। विधवापन भी ऐसी पारिवारिक व्यवस्था बन सकता है। यह स्थिति पुरुषों द्वारा दूसरा विवाह करने अथवा अपनी पत्नियों, बच्चों और अन्य आश्रितों को धन न भेजने के कारण भी बन सकती है।

प्रश्न 8. 
“भारत में संयुक्त परिवार तेजी से कम हो रहे हैं।" इस कथन की सत्यता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि औद्योगीकरण व नगरीकरण की प्रक्रिया के चलते भारत में मूल परिवार बढ़ रहे हैं और संयुक्त परिवार तेजी से कम हो रहे हैं, लेकिन समाजशास्त्रीय आनुभविक अध्ययनों से यह बात सही सिद्ध नहीं हो पाई है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दो तथ्य दृष्टव्य हैं

  1. भारत में मूल परिवार पहले से ही, विशेषतः अभावग्रस्त जातियों और वर्गों में, हमेशा विद्यमान रहे हैं।
  2. समाजशास्त्री ए.एम. शाह ने अपने आनुभविक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत में संयुक्त परिवार में निरन्तर वृद्धि हुई है। उनके अनुसार इसका मुख्य कारक था-भारत में औसत आयु में वृद्धि होना।

प्रश्न 9. 
परिवार किस तरह लिंगवादी हैं?
उत्तर:
इस विश्वास के कारण परिवार लिंगवादी हैं कि लड़का वृद्धावस्था में अभिभावकों की सहायता करेगा और लड़की विवाह के बाद दूसरे घर चली जायेगी। इस विश्वास के कारण परिवारों में लड़की की तुलना में लड़कों को अधिक महत्त्व दिया जाता है; उन पर लड़कियों की तुलना में अधिक धन खर्च किया जाता है। दूसरे, भारत में दहेज प्रथा की परम्परा ने भी लड़की को एक बोझ बना दिया है। इसके कारण भ्रूण-हत्या की घटनाएँ बढ़ी हैं और भारत में भ्रूण हत्या की घटनाओं से लिंगानुपात में एकाएक गिरावट होने लगी है। उदाहरण के लिए 1901 में लिंगानुपात 972 था जो निरन्तर घटता हुआ 1991 में 926 हो गया। भारत में अल्पायु समूह में भी लड़कियों की मृत्यु-दर लड़कों से कहीं अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में परिवार लिंगवादी हैं।

प्रश्न 10.
संयुक्त परिवार से क्या आशय है?
उत्तर:
संयुक्त परिवार वह है जिसमें सामान्यतः दो या तीन पीढ़ियाँ निवास करती हैं। डॉ. इरावती कर्वे के अनुसार, "एक संयुक्त परिवार उन दो या अधिक पीढ़ी के व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो किसी-न-किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी हैं।"

प्रश्न 11.
विवाह के स्वरूपों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैधानिक रूप से विवाह करने वाले साथियों की संख्या के सन्दर्भ में विवाह के दो रूप पाये जाते हैं-

  1. एक विवाह और 
  2. बहुविवाह । यथा

(1) एक विवाह-एक विवाह प्रथा एक व्यक्ति को एक समय में एक ही साथी तक सीमित रखती है। इस व्यवस्था में जब एक समय में एक पुरुष एक स्त्री से विवाह करता है, तो ऐसा विवाह एक विवाह कहलाता है। प्रायः कई समाजों में व्यक्तियों को पुनः विवाह की अनुमति पहले साथी की मृत्यु या तलाक के बाद दी जाती है, लेकिन वे एक समय में एक से अधिक साथी नहीं रख सकते। ऐसे विवाह को क्रमिक एक विवाह कहा जाता है।

(2) बहु-विवाह-बहुविवाह प्रथा एक समय में एक से अधिक साथी होने का द्योतक है और इसमें या तो बहुपत्नी प्रथा (एक पति और दो या अधिक पत्नियाँ) या बहुपति प्रथा (एक पत्नी और दो या अधिक पति) होती है। 

प्रश्न 12. 
बहु-पति प्रथा का प्रमुख कारण क्या है?
अथवा 
बहु-पति प्रथा के प्रचलन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
बहु-पति प्रथा के कारण. 

  1. प्रायः जहाँ आर्थिक स्थितियाँ कठोर होती हैं, वहाँ बहुपति प्रथा पायी जाती है क्योंकि ऐसी स्थितियों में एक पुरुष, पत्नी और बच्चों का पर्याप्त भरण-पोषण नहीं कर सकता है।
  2. अत्यधिक निर्धनता की अवस्थाएँ भी एक समूह को अपनी आबादी को सीमित रखने के लिए दबाव डालती हैं और इस दबाव के अनन्तर ही बहु-पति प्रथा का प्रचलन हुआ है।

प्रश्न 13. 
विवाह के लिए साथियों की तलाश किये जाने वाले तरीकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर;
कुछ समाजों में विवाह-साथी के चलन का निर्णय अभिभावकों/सम्बन्धियों द्वारा किया जाता है और कुछ अन्य समाजों में विवाह-साथी के चयन में व्यक्तियों को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। वे स्वयं विवाह साथी का चयन करने में स्वतन्त्र होते हैं।

प्रश्न 14. 
स्पष्ट कीजिए कि राजनीतिक संस्थाओं का सरोकार शक्ति से है?
उत्तर:
राजनीति-राजनीतिक संस्थाओं का सरोकार समाज में शक्ति के बँटवारे से है और राजनीतिक क्रियाओं का सरोकार शक्ति से है। शक्ति व्यक्तियों या समूहों द्वारा दूसरों के विरोध करने के बावजूद अपनी इच्छा पूरी करने की योग्यता है, अतः एक व्यक्ति की शक्ति दूसरों से सम्बन्धित होती है। शक्ति की यह अभिधारणा बहुत विस्तृत है। यह परिवार में बड़ों के द्वारा बच्चों को घरेलू जिम्मेदारियों में लगाने से लेकर विद्यालय में मुख्य अध्यापक द्वारा अनुशासन लागू करने तक; कारखाने के मुख्य प्रबन्धक द्वारा प्रबन्धकों को कार्य आवण्टित करने से लेकर अपने दलों के कार्यक्रमों को नियन्त्रित करने वाले राजनीतिक नेताओं तक फैली हुई है। प्रत्येक मामले में, व्यक्ति या समूह को उस सीमा तक शक्ति प्राप्त है, जिस सीमा तक दूसरों द्वारा उनकी इच्छा का पालन करना आवश्यक है। इस अर्थ में राजनीतिक क्रियाओं या राजनीति का सरोकार शक्ति से है।

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प्रश्न 15. 
सत्ता क्या है? लोग सत्ताधारी के आदेशों का पालन क्यों करते हैं? '
उत्तर:
सत्ता-सत्ता शक्ति का वह रूप है जिसे वैध होने के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह शक्ति का संस्थागत रूप है। शक्ति का उपयोग सत्ता के माध्यम से ही किया जाता है। इसे सही और न्यायपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह वैधता पर आधारित होती है।
सामान्यतः लोग सत्ताधारी के आदेशों का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे उसे उचित और न्यायपूर्ण मानते हैं। 

प्रश्न 16. 
राष्ट्रवाद से क्या आशय है? .
उत्तर:
राष्ट्रवाद-राष्ट्रवाद को प्रतीकों और विश्वासों के एक समुच्चय के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । जो एक राजनीतिक समुदाय का भाग होने का बोध कराता है। इस प्रकार व्यक्ति को 'ब्रिटिश', 'भारतीय', 'इंडोनेशियायी' .. या 'फ्रांसीसी' होने में गर्व और सम्बद्धता की भावना का अनुभव होता है। राष्ट्रवाद आधुनिक राज्य के विकास के साथ ही प्रकट हुआ है। समकालीन विश्व को सार्वभौमिक बाजार के तीव्र विस्तार तथा गहन राष्ट्रवादी भावनाओं और संघर्षों के लिए जाना जाता है।

प्रश्न 17. 
समाजशास्त्र के राजनीतिक क्षेत्र को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र की रुचि शक्ति के व्यापक अध्ययन में रही है। इसमें शक्ति के औपचारिक (प्रशासनिक) और अनौपचारिक दोनों रूपों का अध्ययन किया जाता है। यथा
(1) इसकी रुचि औपचारिक सरकारी तन्त्र के अध्ययन अर्थात् शक्ति और सत्ता के अध्ययन में है। 

(2) इसकी रुचि प्रजाति, भाषा, धर्म-आधारित दलों, जातियों एवं समुदायों के बीच शक्ति के वितरण में है।

(3) इसका ध्यान सिर्फ विशिष्ट राजनीतिक संगठनों, जैसे-राज्य विधानमण्डलों, नगर परिषदों और राजनीतिक दलों पर ही नहीं, अपितु अन्य संघों, जैसे-विद्यालयों, बैंकों और धार्मिक संस्थाओं पर भी है, जिनका प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक नहीं है। समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र काफी व्यापक है। इसका क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलनों, जैसे-महिला या पर्यावरण आन्दोलन से लेकर ग्रामीण दलों तक फैला हुआ है।

प्रश्न 18. 
धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन की प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं

  1. आनुभविक अध्ययन-समाजशास्त्र धर्म का आनुभविक अध्ययन करता है अर्थात् यह धर्म समाज में वास्तव में कैसे कार्य करता है और अन्य संस्थाओं के साथ इसका क्या सम्बन्ध है, के बारे में आनुभविक अध्ययन करता है।
  2. तुलनात्मक पद्धति-समाजशास्त्र धर्म के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करता है।
  3. धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों व संस्थाओं की जाँच-समाजशास्त्र समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों और संस्थाओं की जाँच करता है।

प्रश्न 19. 
दुर्थीम के धर्म के समाजशास्त्र सम्बन्धी दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दुर्थीम के अनुसार धर्म के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत समाजशास्त्री धर्म के उस पवित्र क्षेत्र को समझने में रुचि रखते हैं जिसे प्रत्येक समाज सांसारिक चीजों से भिन्न रखता है। अधिकतर मामलों में पवित्रता में अलौकिकता का तत्त्व होता है। अधिकांशतः किसी वृक्ष या मन्दिर की पवित्रता के साथ यह विश्वास जुड़ा होता है कि इसके पीछे कोई अलौकिक शक्ति है, इसलिए यह पवित्र है। लेकिन कुछ धर्मों में, जैसे—बौद्ध धर्म में, अलौकिकता की कोई कल्पना नहीं थी तथापि जिन व्यक्तियों और चीजों को वे पवित्र मानते थे, उनमें उनकी पर्याप्त श्रद्धा थी।

प्रश्न 20. 
शिक्षा के प्रकार्यवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर;
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार, शिक्षा बच्चे को विशिष्ट व्यवसाय के लिए तैयार करने वाली होनी चाहिए और साथ ही वह उसे समाज के मुख्य मूल्यों को समाहित करने में सक्षम बनाने वाली होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकार्यवादी शिक्षा को सामान्य सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाली तथा सामाजिक मानकों को सिखाने वाली संस्था मानते हैं। प्रकार्यवादियों के लिए, शिक्षा सामाजिक संरचना को बनाए रखती है और उसका नवीनीकरण करती है तथा संस्कृति का सम्प्रेषण और विकास करती है। साथ ही यह समाज में व्यक्तियों को अपनी भावी भूमिका के चयन और आवंटन के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्रियाविधि है। इसे एक व्यक्ति को स्वयं को साबित करने का भी क्षेत्र माना जाता है और इसीलिए विभिन्न प्रस्थितियों के लिए चयन का एक साधन भी, जो कि व्यक्तियों की अपनी क्षमताओं के अनुसार होता है। 

प्रश्न 21. 
विभेदकारी समाजशास्त्रियों के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाज को असमान रूप से विभेदकारी मानने वाले समाजशास्त्रियों के लिए शिक्षा मुख्य स्तरीकरण के अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है और शिक्षा के असमान अवसर भी सामाजिक स्तरीकरण के ही परिणाम हैं। दूसरे शब्दों में, हम अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में जाते हैं। चूँकि हम किसी एक प्रकार के विद्यालय में नहीं जाते हैं, इसलिए हमें विभिन्न प्रकार के विशेषाधिकार और अन्त में विभिन्न प्रकार के अवसर प्राप्त होते हैं। विशेषाधिकार प्राप्त विद्यालयों में जाने वाले बच्चों में आत्मविश्वास आ जाता है जबकि इससे वंचित बच्चे इसके विपरीत भाव का अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी बच्चे होते हैं जो विद्यालय नहीं जा सकते या विद्यालय जाना बीच में ही छोड़ देते हैं। इन सब में लिंग और जातिगत भेदभाव के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि विभिन्न सामाजिक स्थितियाँ अर्थात् प्रभावकारी सामाजिक प्रस्थितियाँ शिक्षा के अवसरों पर अतिक्रमण करती हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन को स्पष्ट कीजिए। धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ क्या सम्बन्ध है? 
उत्तर:
धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म के धार्मिक या ईश्वर मीमांसीय अध्ययन से अलग है। धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन आनुभविक है। इसकी अध्ययन पद्धति तुलनात्मक है तथा यह समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों और संस्थाओं की जाँच करता है। यथा
(1) आनुभविक अध्ययन-धर्म समाज में वास्तव में कैसे कार्य करता है और अन्य संस्थाओं के साथ इसका क्या सम्बन्ध है? इसके बारे में समाजशास्त्र आनुभविक अध्ययन करता है। आनुभविक पद्धति का अर्थ है कि समाजशास्त्री धार्मिक प्रघटनाओं के अध्ययन के लिए निर्णायक उपागम को नहीं अपनाता।

(2) तुलनात्मक पद्धति-समाजशास्त्र धर्म के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करता है । तुलनात्मक , पद्धति इस दृष्टि से महत्त्वूपर्ण है क्योंकि यह एक अर्थ में सभी समाजों को एक-दूसरे के समान स्तर पर रखती है। यह बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के अध्ययन में सहायता करती है।

(3) समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों और संस्थाओं की जाँच-समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का अर्थ है कि धार्मिक जीवन को घरेलू जीवन, आर्थिक जीवन और राजनीतिक जीवन के साथ सम्बद्ध करके ही बोधगम्य बनाया जा सकता है, इसलिए यह समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों और संस्थाओं की जाँच करता है। धर्म सभी ज्ञात समाजों में विद्यमान है, यद्यपि धार्मिक विश्वास और व्यवहार एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में बदलते रहते हैं, तथापि सभी धर्मों की कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं, जिनके आधार पर वह इनकी जाँच करता है। ये हैंश्रद्धा या सम्मान की भावनाएं, अनुष्ठान और समारोह तथा विश्वासकर्ताओं का एक समुदाय । यथा

(i) धर्म के साथ सम्बद्ध अनुष्ठान विविध प्रकार के होते हैं। अनुष्ठानिक कार्यों में प्रार्थना करना, गुणगान करना, भजन गाना, विशेष प्रकार का भोजन करना, कुछ दिनों का उपवास रखना और इसी प्रकार के अन्य कार्य शामिल होते हैं।

(ii) चूंकि अनुष्ठानिक कार्य धार्मिक प्रतीकों से सम्बद्ध होते हैं, अतः इन्हें प्रायः सामान्य जीवन की आदतों और क्रियाविधियों से एकदम भिन्न रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए-दैवीय सम्मान में दीया जलाने का महत्त्व सामान्य रूप से कमरे में रोशनी करने के उद्देश्य से दीया जलाने से एकदम भिन्न होता है।

(iii) धार्मिक अनुष्ठान प्रायः व्यक्तियों द्वारा अपने दैनिक जीवन में किये जाते हैं, लेकिन सभी धर्मों में विश्वासकर्ताओं द्वारा सामूहिक समारोह भी किये जाते हैं। सामान्यतः ये नियमित समारोह विशेष स्थानों—चर्चों, मस्जिदों, मन्दिरों, तीर्थों में आयोजित किये जाते हैं।

(iv) धर्म एक पवित्र क्षेत्र है। विभिन्न धर्मों के लोग इस पवित्र क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व श्रद्धा या सम्मान दिखाने के लिए सिर ढकते हैं, जूते उतारते हैं या विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करते हैं। इन सबमें जो बात समान है, वह हैश्रद्धा की भावना, पवित्र स्थानों या स्थितियों की पहचान और उनके प्रति सम्मान की भावना। दुर्थीम ने पवित्रता के सम्बन्ध में लिखा है कि अधिकतर मामलों में पवित्रता में अलौकिकता का तत्त्व होता है, लेकिन जिन धर्मों में अलौकिकता की कोई संकल्पना नहीं है, उनमें भी लोग पवित्र चीजों के प्रति पर्याप्त श्रद्धा रखते हैं।

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ सम्बन्ध । - 
धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन में धर्म के अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ सम्बन्धों को भी स्पष्ट किया जाता है। यथा-
(1) धर्म का शक्ति और राजनीति से सम्बन्ध-धर्म का शक्ति और राजनीति के साथ बहुत निकट का सम्बन्ध रहा है। उदाहरण के लिए, इतिहास में समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन के लिए धार्मिक आन्दोलन हुए हैं, जैसेविभिन्न जाति विरोधी आन्दोलन या लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध आन्दोलन । अतः धर्म किसी व्यक्ति की निजी आस्था का मामला ही नहीं है अपितु इसका सार्वजनिक स्वरूप भी होता है और धर्म का यही सार्वजनिक स्वरूप समाज की अन्य संस्थाओं के साथ सम्बन्ध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है। समाजशास्त्र शक्ति को व्यापक सन्दर्भ में देखता है।

यह परिवार में बड़ों के द्वारा बच्चों की घरेलू जिम्मेदारियों में लगाने से लेकर विद्यालय में मुख्य अध्यापक द्वारा अनुशासन लागू करने, कारखाने के मुख्य प्रबन्धक द्वारा प्रबन्धकों को कार्य आवण्टित करने से लेकर अपने दलों के कार्यक्रमों को नियन्त्रित करने वाले राजनैतिक नेताओं तक व्यापक है। प्रत्येक मामले में, व्यक्ति या समूह को उस सीमा तक शक्ति प्राप्त है, जिस सीमा तक दूसरों को उनकी इच्छा का पालन करना होता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत राजनीति और धार्मिक क्षेत्र के सम्बन्धों को भी समझाने का प्रयास किया जाता है। इसी अध्ययन के तहत शास्त्रीय समाजशास्त्रियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जैसे-जैसे समाज आधुनिक होता जायेगा, धर्म का जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव कम होता जायेगा। धर्म निरपेक्षता की संकल्पना भी इस प्रक्रिया का वर्णन करती है।

(2) समाज की अन्य संस्थाओं के साथ धर्म का सम्बन्ध-मैक्स वेबर का अध्ययन यह बताता है कि समाजशास्त्र सामाजिक और आर्थिक व्यवहार के अन्य पक्षों के साथ धर्म के सम्बन्धों को कैसे देखता है। वेबर ने यह स्पष्ट किया है कि कैल्विनवाद ने आर्थिक संगठन के साधन के रूप में पूँजीवाद के उद्भव और विकास को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया था। धर्म का अलग क्षेत्र के रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता। सामाजिक शक्तियाँ हमेशा और अनिवार्यतः धार्मिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक बहस, आर्थिक स्थितियाँ और लिंग सम्बन्धी मानक हमेशा धार्मिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। दूसरी तरफ, धार्मिक मानक सामाजिक समझ को प्रभावित और निर्धारित करते हैं। समाजशास्त्रियों का कार्य इन अन्तःसम्बन्धों को उजागर करना है।

प्रश्न 2. 
राजनीतिक संस्थाओं से क्या आशय है? "समाजशास्त्र की रुचि सिर्फ औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रही है अपितु शक्ति के व्यापक अध्ययन में रही है।" इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक संस्थाएँ-राजनीतिक संस्थाओं का सरोकार समाज में शक्ति के बँटवारे से है। जो सामाजिक संस्थाएँ शक्ति के बँटवारे से सम्बद्ध हैं, उन्हें राजनीतिक संस्थाएँ कहा जाता है। शक्ति व्यक्तियों या समूहों द्वारा दूसरों के विरोध करने के बावजूद अपनी इच्छा पूरी करने की योग्यता है । इस प्रकार, एक व्यक्ति या समूह के पास शक्ति पृथकता में नहीं होती बल्कि यह दूसरों से सम्बन्धित होती है। शक्ति की यह अवधारणा व्यापक है। यह परिवार, विद्यालय, कारखानों तथा राजनीतिक दलों में अनुशासन को बनाये रखने से सम्बद्ध है। प्रत्येक मामले में व्यक्ति या समूह को उस . सीमा तक शक्ति प्राप्त है कि दूसरों को उनकी इच्छा का पालन करना होता है।

इस अर्थ में राजनीतिक संस्थाओं का  सरोकार शक्ति से है। समाजशास्त्र और राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन समाजशास्त्र की रुचि सिर्फ औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं (औपचारिक सरकारी तन्त्र) के अध्ययन में ही नहीं है, बल्कि शक्ति के व्यापक अध्ययन में है। इसकी रुचि प्रभुसत्ता, नागरिकता व नागरिकता के अधिकार और राष्ट्रवाद के अध्ययन के साथ-साथ प्रजाति, भाषा और धर्म पर आधारित दलों, वर्गों, जातियों और समुदायों के बीच शक्ति वितरण में भी रही है। इसका ध्यान सिर्फ विशिष्ट राजनीतिक संगठनों, जैसे-राज्य विधानमण्डलों, नगर परिषदों और राजनैतिक दलों पर ही नहीं अपितु अन्य संघों व संगठनों, जैसे-विद्यालयों, बैंकों और धार्मिक संस्थाओं पर भी है, जिनका प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक नहीं है। समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र काफी व्यापक है। इसका क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलनों, जैसे-महिला या पर्यावरण आन्दोलन से लेकर ग्रामीण दलों तक फैला हुआ है।

प्रश्न 3. 
विवाह को परिभाषित करते हुए इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विवाह का अर्थ तथा परिभाषा-समाज द्वारा मान्य यौन स्थापन की व्यवस्था को ही विवाह का नाम दिया गया है। अगर कोई स्त्री-पुरुष बिना विवाह के परस्पर यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं, तो समाज इस प्रकार के सम्बन्ध को स्वीकृति प्रदान नहीं करता है। उनका यह सम्बन्ध अवैध होता है तथा उससे उत्पन्न सन्तानों को अवैध माना जाता है। समाज उन्हीं सन्तानों को वैध मानता है जो विवाह द्वारा स्थापित यौन सम्बन्धों के परिणामस्वरूप जन्म लेती हैं। इस प्रकार विवाह को दो वयस्क (स्त्री और पुरुष) व्यक्तियों के बीच लैंगिक सम्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति और अनुमोदन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने विचारों के अनुसार विवाह को परिभाषित करने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं 
(1) डी. एन. मजूमदार और मदान के अनुसार, “विवाह में कानूनी या/और धार्मिक आयोजन के रूप में उन सामाजिक स्वीकृतियों का समावेश होता है, जो दो भिन्न लिंगियों को यौन क्रिया और उससे सम्बन्धित सामाजिकआर्थिक सम्बन्धों में सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान करती हैं।"

(2) हैरी एम. जानसन के अनुसार, "विवाह ऐसा स्थायी सम्बन्ध है जिससे एक स्त्री और पुरुष को समुदाय की स्थिति को क्षति पहुँचाये बिना सन्तानोत्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि-

  1. विवाह विषम लिंगियों को यौन सम्बन्ध की स्वीकृति प्रदान करता है। 
  2. विवाह द्वारा जनित बच्चे माता-पिता की वैध सन्तान होते हैं। 
  3. विवाह समाज द्वारा स्वीकृत होता है। 
  4. विवाह के द्वारा परिवार का निर्धारण होता है।
  5. विवाह कानूनी या धार्मिक प्रथाओं द्वारा निश्चित होता है। 
  6. विभिन्न समाजों में विवाह के भिन्न-भिन्न स्वरूप पाये जाते हैं।

विवाह के प्रकार-
समाज के विभिन्न काल और परिस्थितियों में विवाह के भिन्न-भिन्न स्वरूप या प्रकार दिखाई देते हैं। पति-पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के निम्न प्रकार बताये जा सकते हैं
(1) एक विवाह (Monogamy)-जब एक समय में एक पुरुष एक स्त्री से विवाह करता है तो ऐसा विवाह एक विवाह कहलाता है। विवाहित स्त्री-पुरुष में से किसी एक की मृत्यु होने अथवा विवाह-विच्छेद होने पर किया जाने वाला पुनः विवाह भी सामाजिक एवं कानूनी आधार पर एक विवाह की श्रेणी में आता है। ऐसे विवाह को क्रमिक एक विवाह कहा जाता है।
विश्व के अधिकांश देशों में आज एक विवाह का चलन पाया जाता है। जो समाज सभ्यता एवं विकास में आगे निकल जाते हैं, उनमें एक विवाह की प्रथा अधिक पायी जाती है। लूसी मेयर का कहना है कि एक विवाह वास्तव में समाज की विशेषताओं को व्यक्त करता है, न कि व्यक्ति की। आधुनिक काल में एक विवाह को विवाह का सर्वोत्तम रूप माना जाता है। हमारे देश में विवाह का यही स्वरूप मान्य है।

(2) बहु-विवाह (Polygamy)-विवाह का वह प्रकार जिसमें एक से अधिक पुरुष या स्त्रियाँ परस्पर विवाह सम्बन्ध स्थापित करते हैं, बहुविवाह कहलाता है। बहुविवाह के तीन रूप पाये जाते हैं। ये हैं-
(क) बहुपत्नी विवाह, 
(ख) बहुपति विवाह और 
(ग) समूह विवाह । यथा
(क) बहुपत्नी विवाह (Polygamy)-जब एक समय में एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है, तो ऐसा विवाह बहुपत्नी विवाह कहलाता है। हमारे देश में नागा, गोंड, बैगा, टोडा, संथाल आदि जनजातियों में इस प्रकार के विवाह का प्रचलन है। मुस्लिम समाज में इस्लाम धर्म के अनुसार पुरुष को चार विवाह करने की अनुमति प्राप्त रहती है।
बहुपत्नी विवाह के प्रकार-बहुपत्नी विवाह के दो प्रकार पाये जाते हैं
(i) भगिनी बहुपत्नी विवाह-जब एक पुरुष दो या दो से अधिक सगी बहिनों से विवाह करता है तो यह भगिनी बहुपत्नी विवाह कहलाता है।

(ii) अभगिनी बहुपत्नी विवाह-जब एक पुरुष दो या दो से अधिक ऐसी स्त्रियों से विवाह करता है जो आपस में सगी बहिनें नहीं होती हैं तो ऐसा विवाह अभगिनी बहुपत्नी विवाह कहलाता है। - 

बहुपत्नी विवाह के कारण-समाजशास्त्रियों ने बहुपत्नी विवाह के अनेक कारणों का उल्लेख किया है। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(i) जिन समाजों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, उनमें बहुपत्नी विवाह का चलन अधिक पाया जाता है। कई बार कई समाजों में युद्ध आदि के कारण पुरुषों की मृत्यु दर बढ़ जाती है, जिससे लिंगानुपात असन्तुलित हो जाता है, जो बहुपत्नी विवाह को प्रोत्साहित करता है।

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(ii) कई समाजों में पुरुषों की प्रतिष्ठा इस बात से आंकी जाती है कि उसकी कितनी पत्नियाँ हैं। प्राचीन काल में राजा, महाराजा, जमींदार आदि व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए अनेक पत्नियाँ रखते थे।

(iii) नवीनता की इच्छा के कारण भी एक पुरुष अनेक स्त्रियों से सम्बन्ध बनाता है। पुरुष की अधिक काम-वासना तथा पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में शीघ्र वृद्धावस्था आना भी बहुपत्नी विवाह का एक प्रमुख कारण है।

(iv) कई जनजातियाँ अत्यधिक दुर्गम स्थानों, पहाडी क्षेत्रों में निवास करती हैं। इन स्थानों पर जीवन-यापन कठिन होता है। ऐसे समाजों में अधिक पत्नियाँ अधिक श्रम-शक्ति का परिचायक होती हैं और अधिक श्रम-शक्ति अधिक आय का साधन बनती है।

(v) कुछ समाजों में यह चलन होता है कि भाई की मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति को अपने मृत भाई की विधवा पत्नी से विवाह करना होता है। उक्त सभी कारण बहुपत्नी विवाह को प्रोत्साहन देते हैं।

(ख) बहुपति विवाह (Polyandry)-जब एक समय में एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों के साथ विवाह करती है तो ऐसा सम्बन्ध बहुपति विवाह कहलाता है।
प्रकार-बहुपति विवाह के दो रूप पाये जाते हैं-

  1. भ्रातृक बहुपति विवाह तथा 
  2. अभ्रातृक बहुपति विवाह ।

यथा-

  1. भ्रातृक बहुपति विवाह-इसमें दो या दो से अधिक सगे भाई एक ही स्त्री से विवाह करते हैं। विवाह का यह स्वरूप खस, टोडा आदि जनजातियों में पाया जाता है।
  2. अभ्रातक बहुपति विवाह-इसमें एक स्त्री के विवाहित पति आपस में भाई नहीं होते हैं। यह प्रथा टोडा तथा नायर समाजों में पायी जाती है। 

ऐसे समाज में जिनमें स्त्रियों की तुलना में पुरुष अधिक होते हैं, उनमें बहुपति विवाह की प्रथा पायी जाती है। दूसरे, वधूमूल्य की प्रथा वाले समाजों में वधूमूल्य की अधिकता की स्थिति में कई पुरुष मिलकर कन्या मूल्य को चुकाते हैं। ऐसी स्थिति में कन्या का विवाह उन सभी पुरुषों से हो जाता है। कई बार परिवार की सम्पत्ति को विभाजन से बचाने के लिए भी इस प्रकार के विवाह का प्रचलन पाया जाता है। प्रायः जहाँ आर्थिक स्थितियाँ कठोर होती हैं, वहाँ बहुपति प्रथा का प्रचलन पाया जाता है। अत्यधिक निर्धनता की अवस्थाएँ भी एक समूह पर अपनी आबादी सीमित रखने के लिए दबाव डालती हैं।

(ग) समूह विवाह (Group Marriage)-उद्विकासवादियों की मान्यता है कि विवाह का यह स्वरूप मानव विकास की प्रारम्भिक अवस्था में रहा होगा। वर्तमान समय में किसी भी समाज में इसका उदाहरण देखने को नहीं मिलता है। समूह विवाह में बहुत-से पुरुष एक-साथ बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करते हैं जिसमें प्रत्येक पुरुष समूह की सभी स्त्रियों का पति एवं प्रत्येक स्त्री समूह के सभी पुरुषों की पत्नी होती है। उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि विभिन्न समाजों में विवाह के भिन्न-भिन्न स्वरूप पाये जाते हैं। 

प्रश्न 4. 
विवाह से आप क्या समझते हैं? इसके उद्देश्य बताइये। 
उत्तर:
विवाह का अर्थ तथा परिभाषाएँ-इसके लिए प्रश्न संख्या 3 का उत्तर देखें। विवाह के उद्देश्य विभिन्न समाजों में विवाह के भिन्न-भिन्न उद्देश्य होते हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दू समाज में विवाह एक धार्मिक संस्कार है, वहीं मुस्लिम समाज में यह एक दीवानी समझौता है। इस प्रकार विवाह के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं, लेकिन कुछ सामान्य उद्देश्य भी हैं। यथा-

1. यौन सम्बन्ध-प्राकृतिक एवं शारीरिक दृष्टि से यौन इच्छाएँ स्वाभाविक क्रिया होती हैं। मानव अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति समाज द्वारा मान्य विवाह संस्था के माध्यम से करता है। मुरडॉक ने विश्व के 250 समाजों का अध्ययन कर बताया कि समाजों में विवाह का प्रथम और मुख्य उद्देश्य यौन इच्छाओं की पूर्ति करना है। बिना विवाह के यौन सम्बन्धों को समाज अनैतिक मानता है। अनैतिक यौन सम्बन्धों से समाज में व्यभिचार की स्थिति निर्मित होती है। अतः स्पष्ट है कि विवाह का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य की यौन सन्तुष्टि है।

2. सन्तानोत्पत्ति-वैवाहिक सम्बन्धों से जन्मे बच्चों को कानूनी अधिकार प्रदान करना विवाह का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। विवाह द्वारा स्थापित यौन सम्बन्धों के परिणामस्वरूप जन्मित सन्तानों को ही वैध माना जाता है और वैध सन्तानों को ही उत्तराधिकार, सम्पत्ति आदि का अधिकार प्राप्त होता है।

3. परिवार का निर्माण-विवाह का एक अन्य उद्देश्य परिवार का निर्माण है। परिवार-निर्माण का प्रथम चरण विवाह है। विवाह से वैध सन्तानों का जन्म होता है जिससे परिवार में और अधिक सुदृढ़ता आती है। जन्मित बच्चों के लालन-पालन का दायित्व परिवार के ऊपर होता है। परिवार ही बच्चों का समाजीकरण कर उनके व्यक्तित्व को निखारने का कार्य करता है।

4. आर्थिक सहयोग-विवाह का एक अन्य उद्देश्य आर्थिक सहयोग की व्यवस्था करना है। विवाह द्वारा निर्मित परिवार व्यवस्था में आर्थिक सहयोग की भावना पायी जाती है। पति-पत्नी बच्चों के लालन-पालन हेतु परस्पर आर्थिक सहयोग करते हैं। वैवाहिक सम्बन्धों का स्थायित्व परिवार पर निर्भर करता है और परिवार का स्थायित्व बहुत-कुछ आर्थिक सहयोग पर निर्भर करता है।

5. पारिवारिक उत्तरदायित्व-विवाह के माध्यम से एक व्यक्ति अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को भी पूर्ण करता है। व्यक्ति एक सन्तान के रूप में परिवार में जन्म लेता है और फिर विवाह के पश्चात् स्वयं सन्तान को जन्म देता है। इस प्रकार वह परिवार की वृद्धि एवं निरन्तरता में अपने दायित्व को निभाता है। परिवार में व्यक्ति की उत्तरदायित्व की भावना बढ़ती है।

6. सामाजिक उत्तरदायित्व-विवाह का उद्देश्य मात्र व्यक्ति या परिवार तक ही सीमित नहीं है अपितु सामाजिक आधार पर भी इसका उद्देश्य दिखाई देता है। जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि मानव सन्तानोत्पत्ति करके उनके लालन-पालन, समाजीकरण, संस्कृति का हस्तान्तरण आदि नहीं करेगा तो समाज व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा बन जायेगा। अतः समाज व्यवस्था के स्थायित्व एवं निरन्तरता के लिए विवाह नामक संस्था सामाजिक उत्तरदायित्व को भी पूर्ण करती है।

प्रश्न 5. 
विवाह का अर्थ बताते हुए इसके नियम (निषेध) लिखिए।
उत्तर:
विवाह का अर्थ-समाज द्वारा मान्य यौन सम्बन्ध स्थापन की व्यवस्था को ही विवाह का नाम दिया गया है। विवाह वह माध्यम होता है जिससे समाज की सबसे प्रारम्भिक इकाई-परिवार का निर्माण होता है। एकमात्र विवाह ऐसी संस्था है जो एक स्त्री एवं पुरुष को पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराने का कार्य करती है। अगर कोई स्त्रीपुरुष बिना विवाह के परस्पर यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो समाज इस प्रकार के सम्बन्ध को स्वीकृति प्रदान नहीं करता है। उनका यह सम्बन्ध अवैध होता है तथा इससे उत्पन्न संतान अवैध कहलाती है। अतः विवाह को दो वयस्क विषम-लिंगी व्यक्तियों के बीच लैंगिक सम्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति और अनुमोदन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

डी. एन. मजूमदार और मदान के अनुसार, "विवाह में कानूनी या/और धार्मिक आयोजन के रूप में उन सामाजिक स्वीकृतियों का समावेश होता है, जो दो भिन्न लिंगियों को यौन क्रिया और उससे सम्बन्धित सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों में सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान करती हैं।" ..हैरी एम. जानसन के शब्दों में, "विवाह ऐसा स्थायी सम्बन्ध है जिससे एक स्त्री और पुरुष को समुदाय की स्थिति को क्षति पहुँचाये बिना सन्तानोत्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है।" विवाह सम्बन्धी नियम (निषेध) प्रत्येक समाज में विवाह सम्बन्धी कुछ नियम या निषेध पाये जाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने इन नियमों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया है

(अ) निकटाभिगमन निषेध (Incest Taboo)-प्रत्येक समाज में अति निकट के सम्बन्धियों से विवाह सम्बन्ध स्थापित करना वर्जित होता है। इसी नियम को निकटाभिगमन निषेध कहा जाता है। उदाहरण के लिए, सामान्यतः सभी समाजों में पिता-पुत्री, माता-पुत्र तथा सगे भाई-बहिनों में विवाह सम्बन्ध स्थापित करना वर्जित है। प्रथा, कानून, परम्परा आदि के आधार पर लगभग सभी समाजों में इसे प्रतिबन्धित किया गया है। अनेक समाजों में निकटाभिगमन निषेध का दायरा वंश-समूह, गोत्र-समूह, भ्रातृ-समूह आदि तक विस्तारित होता है। अति निकट के सम्बन्धियों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने पर अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राणीशास्त्रीय आदि विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं।

(ब) बहिर्विवाह (Exogamy)-निकटाभिगमन निषेध के परिणामस्वरूप एक व्यक्ति को विवाह सम्बन्ध स्थापित करने हेतु अपने समूह से बाहर के समूह में विवाह करने की स्वीकृति दी जाती है। इस प्रकार जब कोई व्यक्ति अपने समूह से बाहर विवाह करता है, तो इसे बहिर्विवाह कहा जाता है। विभिन्न समाजों में यह समूह वंश, गोत्र, टोटम समूह आदि होते हैं। भारत में, विशेषकर, उत्तरी भारत के कुछ भागों में गाँव बहिर्विवाह प्रचलित है। गाँव बहिर्विवाह यह सुनिश्चित करता है कि जिन परिवारों में लड़कियों का विवाह किया जाये वे घर से काफी दूर हों। यह व्यवस्था लड़की के नातेदारों के हस्तक्षेप के बगैर उसके ससुराल में सुचारु परिवर्तन और समायोजन को सुनिश्चित करती है। बहिर्विवाह के कारण-बहिर्विवाह के कारणों की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न व्याख्यायें दी हैं। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं

  1. अति निकट के सम्बन्धियों में यौन सम्बन्ध को रोकने के लिए इस व्यवस्था का प्रचलन हुआ।
  2. बहिर्विवाह विभिन्न समाजों में सांस्कृतिक-सामाजिक भिन्नता के आधार पर होने वाले सम्भावित संघर्षों को टालता है।
  3. प्राणीशास्त्रीय आधार पर भी यह सत्य है कि बहिर्विवाह से उत्पन्न सन्तान मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से उत्तम होती है।

(स) अन्तर्विवाह (Endogamy)-अन्तर्विवाह बहिर्विवाह का विपरीत स्वरूप है। जब किसी समाज में व्यक्तियों को अपने ही सांस्कृतिक समूह में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति होती है तो ऐसी प्रथा अन्तर्विवाह कहलाती है। भारत में टोडा, भील आदि जनजातियों में यह प्रथा पायी जाती है। भारत में जाति भी एक 'अन्तर्विवाही समूह है। सम्भवतः अपरिचित लोगों के भय, सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को बनाए रखने के उद्देश्य से अन्तर्विवाह प्रथा को प्रोत्साहन मिला।

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प्रश्न 6.
परिवार को परिभाषित कीजिए और इसकी विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
परिवार का अर्थ तथा परिभाषाएँ-परिवार प्रत्यक्ष नातेदारी सम्बन्धों से जुड़े व्यक्तियों का एक समूह है जिसके बड़े सदस्य बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व लेते हैं। विवाह के माध्यम से एक परिवार का अस्तित्व बनता है। सामान्यतः एक परिवार में पति-पत्नी और उनके बच्चे आते हैं। . मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, "परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है, जो बच्चों के जनन एवं पालन-पोषण की व्यवस्था करता है।" डॉ. डी. एन. मजूमदार के अनुसार, "परिवार उन व्यक्तियों का समूह है, जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, रक्त सम्बन्धी सूत्रों से जुड़े रहते हैं तथा ये स्थान, हित, पारस्परिक कृतज्ञता आदि के आधार पर समान होने की भावना रखते हैं।" 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि परिवार के निर्माण के लिए दो विषम लिंगियों का होना आवश्यक है जिन्हें यौन-सम्बन्ध स्थापित करने हेतु समाज द्वारा स्वीकृति दी गयी हो। बच्चे भी परिवार के अंग होते हैं। परिवार में ही बच्चों को जन्म देने व लालन-पालन की व्यवस्था की जाती है। आवश्यकताओं की पूर्ति एवं सुरक्षा हेतु परिवार के सभी सदस्य एकता के सूत्र में बँधे रहते हैं। परिवार की सामान्य विशेषताएँ परिवार एक सार्वभौमिक व्यवस्था है। इसमें प्रत्येक सदस्य का एक निश्चित पद होता है तथा उस पद से जुड़ी उसकी कुछ भूमिकाएँ होती हैं। परिवार अपने सदस्यों से यह उम्मीद करता है कि वे अपनी भूमिकाएँ समाज द्वारा मान्य नियमों के अनुरूप पूर्ण करेंगे। इस दृष्टि से परिवार की निम्नलिखित सार्वभौमिक विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं

  1. विवाह-विवाह के माध्यम से परिवार का अस्तित्व निर्मित होता है। अतः परिवार के लिए विवाह होना अनिवार्य है।
  2. वंश नाम-प्रत्येक परिवार का एक वंश नाम होता है। 
  3. अर्थव्यवस्था-परिवार में सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक सामान्य अर्थव्यवस्था पाई जाती है।
  4. सामान्य घर-एक परिवार के सभी सदस्य एक सामान्य घर में रहते हैं । अतः एक परिवार का एक सामान्य घर होता है।
  5. सीमित सदस्य संख्या-एक परिवार में सदस्यों की संख्या सीमित होती है। 
  6. भावनात्मक सम्बन्ध-परिवार के सदस्यों के बीच भावनात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं। 
  7. उत्तरदायित्व की भावना-परिवार के सदस्यों में उत्तरदायित्व की भावना पायी जाती है।
  8. सदस्यों के व्यक्तित्व का विकास-परिवार सदस्यों के व्यक्तित्व के निर्माण व विकास में मुख्य भूमिका निभाता है।
  9. समाज की केन्द्रीय इकाई-परिवार सामाजिक संरचना की केन्द्रीय इकाई मानी जाती है। 
  10. प्रकृति-परिवार की प्रकृति स्थायी और अस्थायी दोनों ही तरह की होती है। 11. व्यवहारों का नियन्त्रण-परिवार अपने सदस्यों के व्यवहारों को नियमित और नियन्त्रित करता है। 

प्रश्न 7. 
परिवार के कार्यों की विवेचना कर इसके स्वरूप (प्रकार) बताइए। 
उत्तर:
परिवार के कार्य परिवार सामाजिक संरचना की आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण इकाई है। इसे समाज में अनेक कार्यों का सम्पादन करना होता है। प्रकार्यवादियों के अनुसार परिवार अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। परिवार समाज की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं और सामाजिक व्यवस्था को स्थायी बनाने में सहायता करते हैं। परिवार के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं 

1. विवाह सम्बन्ध-परिवार विवाह सम्बन्धों के द्वारा दो विपरीत लिंगियों को यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति प्रदान करता है। किसी भी समाज में मनमाने तरीके से यौन सम्बन्ध बनाने की अनुमति नहीं दी जाती है। विवाह द्वारा स्थापित यौन सम्बन्धों के परिणामस्वरूप वैध सन्तानोत्पत्ति होती है, जो नवीन नातेदारों को बनाती है; नातेदारी व्यवस्था से वंशनाम, उत्तराधिकार, पदाधिकार आदि जुड़े रहते हैं।

2. सन्तानोत्पत्ति-यौन सम्बन्धों का प्रतिफल सन्तानोत्पत्ति होती है। समाज उन्हीं यौन सम्बन्धों एवं सन्तानों को मान्यता प्रदान करता है, जो समाज द्वारा मान्य विवाह द्वारा उत्पन्न होते हैं। - संस्था के रूप में परिवार स्थायी होता है। सदस्यों की मृत्यु होने से रिक्तता की पूर्ति परिवार में जन्मित नये सदस्यों द्वारा होती रहती है। इस प्रकार सन्तानोत्पत्ति द्वारा परिवार की निरन्तरता एवं स्थायित्व बना रहता है। परिवार के बाहर होने वाली सन्तानोत्पत्ति को अवैध माना जाता है, जिसे समाज द्वारा मान्यता प्रदान नहीं की जाती है। परिवार की मात्र वैध-सन्तानों को ही उत्तराधिकार प्राप्त होता है।

3. बच्चों का लालन-पालन-मानव का शिशुकाल लम्बा होने के कारण इसके बच्चों को अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक समय तक देखभाल की आवश्यकता होती है। शिशु अवस्था में बच्चा पूर्ण रूप से अपने परिवार के ऊपर निर्भर रहता है। परिवार द्वारा ही नये सदस्य के लालन-पालन का कार्य पूर्ण किया जाता है। समाजीकरण का पहला पाठ शिशु परिवार से ही सीखता है। परिवार उसे खाने-पीने का तरीका, भाषा, रीति-रिवाजों, परम्पराओं आदि से परिचित कराता है। एक बालक परिवार से ही उत्तरदायित्व, अनुशासन, सहयोग, धैर्य, क्षमा आदि का पाठ सीखता है। परिवार के अन्य सदस्य प्रेम, सहानुभूति द्वारा शिशु के मानसिक विकास में सहायता करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि एक बच्चा समाज में सामञ्जस्य प्राप्त करने की शिक्षा परिवार से ग्रहण करता है।

4. शारीरिक सुरक्षा-परिवार अपने सदस्यों की शारीरिक सुरक्षा के प्रति सदैव सचेत रहता है। यथा-

  • गर्भवती महिला सदस्य एवं नवजात शिशु की शारीरिक सुरक्षा एवं सेवा का दायित्व परिवार के अन्य सदस्य उठाते हैं।
  • परिवार के बुजुर्ग सदस्यों, दुर्घटना, बीमारी आदि संकटकालीन समय में भी परिवार के सदस्य परस्पर सेवा एवं देखरेख का कार्य करते हैं। शारीरिक सुरक्षा का कार्य परिवार आदिकाल से करता चला आ रहा है। 

5. श्रम विभाजन-परिवार में श्रम-विभाजन का प्रारम्भिक रूप देखने को मिलता है। यथा 

  • सामान्यतः पुरुष घर से बाहर के कार्यों को संभालते हैं। बाहरी तथा अधिक परिश्रम वाले कार्यों की जिम्मेदारियाँ पुरुषों की होती हैं।
  • महिलाएं घर-गृहस्थी के कामकाज करती हैं। भोजन पकाना, घर के छोटे-बड़े कार्य करना स्त्रियों के - स्वाभाविक कार्य माने जाते हैं।
  • परिवार के बच्चों को आयु, लिंग आदि के आधार पर अन्य कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती है।

6. आय तथा सम्पत्ति का प्रबन्ध-प्रत्येक परिवार के पास अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कोई न कोई अर्थव्यवस्था अवश्य होती है। अर्थव्यवस्था के द्वारा ही परिवार को आय प्राप्त होती है। परिवार की आय पर परिवार के मुखिया का नियन्त्रण रहता है। मुखिया ही तय करता है कि परिवार का खर्च किस प्रकार से चलाया जायेगा। प्रत्येक परिवार के पास मकान, दुकान, खेत, जमीन, सोना, नकदी आदि के रूप में कुछ न कुछ चल-अचल सम्पत्ति होती है। इसकी देखरेख व सुरक्षा का काम परिवार द्वारा ही किया जाता है।

7. समाजीकरण का कार्य-मानव के जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने की प्रक्रिया को समाजीकरण कहा जाता है। एक बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया उसके परिवार से ही प्रारम्भ हो जाती है। परिवार में एक बच्चा अपने माता-पिता, भाई-बहिन, रिश्तेदारों आदि के सम्पर्क में रहकर रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परम्पराओं, संस्कृति, सभ्यता आदि को सीखने का प्रयास करता है।

8. धार्मिक कार्य-लगभग प्रत्येक परिवार किसी न किसी धर्म का अनुयायी होता है। धर्म की अभिव्यक्ति विभिन्न विश्वासों, कर्मकाण्डों द्वारा व्यक्त की जाती है। परिवार अपने सदस्यों को धार्मिक शिक्षा, नैतिकता, आराधना, पूजा पद्धति, प्रथाएँ, कर्मकाण्ड आदि से परिचित कराने का कार्य करता है। परिवार के स्वरूप (प्रकार) प्रत्येक समाज में परिवारों का एक समान स्वरूप नहीं पाया जाता। विभिन्न समाजों में अलग-अलग प्रकार के परिवारों के रूप देखने को मिलते हैं। विश्व के सभी परिवारों के मूल में पति-पत्नी और बच्चे होते हैं, फिर भी सत्ता, वंश, आकार, अधिकार, स्थान आदि के आधार पर परिवारों के अन्तर को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। इन अन्तरों के आधार पर ही परिवारों के प्रकार भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। परिवारों के प्रकारों का वर्णन निम्नलिखित है

1. संख्या के आधार पर परिवार का वर्गीकरण-संख्या के आधार पर परिवार के दो प्रकार बताये जाते हैं
(i) मूल, नाभिक या केन्द्रीय परिवार (Primary, Nuclear Family)-यह परिवार का सबसे छोटा और आधारभूत रूप है। इसमें विवाहित पति-पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चों को सम्मिलित किया जाता है। सन्तानहीन दम्पति भी इस प्रकार के परिवारों में गिने जाते हैं। वर्तमान समय यद्यपि भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, औद्योगीकरण, नगरीकरण आदि के कारण मूल परिवारों को प्रोत्साहन और बढ़ावा मिल रहा है तथापि भारत में किये गए अध्ययनं यह सुझाव देते हैं कि अर्थव्यवस्था के औद्योगिक प्रतिमानों में परिवारों के मूल होने की आवश्यकता नहीं है।

(ii) संयुक्त परिवार-जब दो या दो से अधिक पीढ़ी के सदस्य एक-साथ एक ही आवास में निवास करते हैं, तो ऐसा परिवार संयुक्त परिवार कहलाता है। श्यामाचरण दुबे के अनुसार, "कई मूल परिवार एक साथ रहते हों और इनमें निकट का नाता हो, एक ही स्थान पर भोजन करते हों और एक ही आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करते हों, तो उन्हें उनके सम्मिलित रूप में संयुक्त परिवार कहा जा सकता है।" संयुक्त परिवारों में सभी सदस्य एक ही रसोई में बना भोजन करते हैं तथा सामूहिक रूप से पूजा पद्धति में भाग लेते हैं। भारतीय ग्रामों में आज भी संयुक्त परिवार पाये जाते हैं। नगरों में संयुक्त परिवारों का प्रचलन कम है।

2. सत्ता, उत्तराधिकार, वंश स्थान के आधार पर परिवारों का वर्गीकरण-सत्ता, उत्तराधिकार, वंश स्थान के आधार पर परिवारों को निम्नलिखित तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है
(i) पितृसत्तात्मक परिवार (Patriarchal family)-जिन परिवारों में परिवार की सत्ता पुरुषों में निहित होती है, उन्हें पितृसत्तात्मक परिवार कहा जाता है। पितृसत्तात्मक परिवार प्रायः पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय होते हैं। जब परिवार का वंश नाम, उत्तराधिकार पिता से पुत्र को प्राप्त होता है, तो इसे पितृवंशीय परिवार कहते हैं। इसी प्रकार जब वधू विवाह के पश्चात् वर के घर जाकर रहने लगती है तो उसे पितृ-स्थानीय परिवार कहते हैं। हमारे देश में अधिकांश परिवार पितृसत्तात्मक हैं।

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

(ii) मातृसत्तात्मक परिवार (Matriarchal family)-जब घर की सत्ता का केन्द्र महिला के हाथ में होता है, तो ऐसा परिवार मातृसत्तात्मक कहलाता है। ऐसे परिवारों में वंश नाम, उत्तराधिकार माता से पुत्री को प्राप्त होता है तथा विवाह के पश्चात् पर वधू के घर जाकर रहने लगता है। भारत में खासी, गारो, नायर समाजों में इस प्रकार के परिवार पाये जाते हैं।

(iii) नवस्थानीय परिवार (Neolocal family)-विवाह के पश्चात् जब नव-दम्पति एक नये घर में रहने लगते हैं, तो ऐसा परिवार नवस्थानीय परिवार कहलाता है। आधुनिक नगरीय समाज में निवास की दृष्टि से परिवार का यही रूप सर्वाधिक प्रचलित है।

3. विवाह के आधार पर परिवार का वर्गीकरण-विवाह के आधार पर परिवारों को मोटे रूप से दो भागों में विभाजित किया जाता है। यथा
(i) एक-विवाही परिवार (Monogamous family) जब एक पुरुष एक स्त्री से विवाह करता है तो ऐसे विवाह से स्थापित परिवार को एक विवाही परिवार कहते हैं, लेकिन स्त्री की मृत्यु होने पर पुरुष एवं पुरुष की मृत्यु होने पर स्त्री को पुनः विवाह की स्वीकृति प्राप्त रहती है। इसी तरह तलाक पर होने वाले स्त्री-पुरुष दोनों ही अलग-अलग जीवन साथी तलाश कर सकते हैं। ये सभी एक विवाही परिवार के अन्तर्गत आते हैं।

(ii) बहु-विवाही परिवार (Polygamous family)-बहुविवाही परिवार से तात्पर्य ऐसे परिवारों से होता है जिनमें किसी एक पक्ष के एक समय में दो या दो से अधिक जीवित जीवन साथी होते हैं। बहुविवाही परिवारों के मुख्यतः तीन रूप दिखाई देते हैं। यथा
(अ) बहुपत्नी विवाही परिवार-बहुपत्नी विवाही परिवार वह है जिसमें एक पुरुष के एक समय में दो या दो से अधिक जीवित पत्नियाँ होती हैं।
(ब) बहुपति विवाही परिवार-बहुपति विवाही परिवार वह है जिसमें एक स्त्री के एक समय में दो या दो से अधिक जीवित पति होते हैं।
(स) समूह विवाही परिवार-जब कई पुरुष मिलकर अनेक स्त्रियों से विवाह करते हैं, तब ऐसा परिवार समूह विवाही कहलाता है। इसमें प्रत्येक पुरुष समूह की सभी स्त्रियों का पति तथा प्रत्येक स्त्री समूह के सभी पुरुषों की पत्नी होती है। वर्तमान में इस प्रकार के विवाहों का प्रचलन नहीं है।

प्रश्न 8. 
नातेदारी से क्या आशय है? इसके भेद लिखिये।।
उत्तर:
नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा-मानवशास्त्र शब्दकोश के अनुसार, "नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा स्वीकृत वे सम्बन्ध आ सकते हैं जो अनुमानित और रक्त-सम्बन्धों पर आधारित हों।" चार्ल्स विनिक ने नातेदारी को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा स्वीकृत वे सम्बन्ध आ सकते हैं जो कि माने हुए एवं वास्तविक  प्राणीशास्त्रीय सम्बन्धों पर आधारित हों।" . हॉबल का कहना है कि नातेदारी व्यवस्था में प्रस्थिति और भूमिकाओं की जटिल प्रथाएँ हैं जो सम्बन्धियों के व्यवहारों द्वारा संचालित होती हैं। रॉबिन फाक्स के शब्दों में, नातेदारी केवल वास्तविक या आभासीय समरक्तता वाले व्यक्तियों के मध्य सम्बन्ध है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि वास्तविक वंश-परम्परा के रक्त सम्बन्धियों या वैवाहिक सम्बन्धियों से नातेदारी व्यवस्था का निर्माण होता है। नातेदारी बंधन व्यक्तियों के बीच के वे सूत्र होते हैं जो विवाह के माध्यम से या वंश परम्परा के माध्यम से रक्त सम्बन्धियों को जोड़ते हैं। जब दो व्यक्तियों का विवाह हो जाता है तो वे परस्पर नातेदार बन जाते हैं । विवाह के माध्यम से अभिभावक, भाई-बहिन तथा अन्य रक्त सम्बन्धी जीवन-साथी के नातेदार (रिश्तेदार) बन जाते हैं। समाज द्वारा ये सम्बन्ध परिभाषित एवं मान्य होते हैं। कभी-कभी ऐसे सम्बन्धों को भी समाज स्वीकृति प्रदान करता है जिनमें रक्त या वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होते। उदाहरण के रूप में दत्तक या गोद ली हुई सन्तान। नातेदारी के भेद . नातेदारी के प्रमुखतः दो भेद होते हैं जिनका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है

(1) विवाह सम्बन्धी नातेदारी-विवाह सम्बन्ध नातेदारी व्यवस्था का प्रथम चरण है। विवाह सम्बन्ध दो विपरीत लिंगियों के बीच वह सम्बन्ध होता है जिसे समाज एवं कानून की मान्यता प्राप्त होती है। विवाह के माध्यम से पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध स्थापित होने के साथ-साथ ही दोनों परिवारों के बीच अनेक प्रकार की रिश्तेदारियाँ भी बन जाती हैं। जैसे-जब कोई विवाह होता है तब पुरुष का सम्बन्ध उसकी पत्नी के परिवार वालों से दामाद, जीजा, मौसा, फूफा, साढू, बहनोई आदि के रूप में जुड़ जाता है। इसी प्रकार स्त्री का सम्बन्ध उसके पति के परिवार वालों से बहू, भाभी, देवरानी, जिठानी, चाची, ताई आदि के रूप में हो जाता है। सम्बन्धों की यह श्रृंखला काफी विस्तृत होती है। विवाह द्वारा बनने वाली सभी रिश्तेदारियों को विवाह सम्बन्धी नातेदारी कहा जाता है।

(2) समरक्त सम्बन्धी नातेदारी-नातेदारी व्यवस्था का यह प्रकार समरक्त सम्बन्धों से निर्मित होता है। समरक्त सम्बन्धों को स्वीकृति तभी मिलती है, जब वे सामाजिक व कानूनी रूप से मान्य हों। माता-पिता व उसकी सन्तानों के मध्य, सगे भाई-बहिनों के मध्य या सगे भाई-भाई के मध्य रक्त का सम्बन्ध होता है। रक्त सम्बन्धी नातेदारी में यह सम्बन्ध वास्तविक भी हो सकता है और काल्पनिक भी अर्थात् ये सम्बन्ध प्राणीशास्त्रीय आधार पर ही निर्मित नहीं होते बल्कि सामाजिक आधार पर भी इनका निर्माण हो सकता है । दत्तक या गोद ली सन्तान के साथ माता-पिता का वास्तविक रक्त सम्बन्ध नहीं होता है, फिर भी यह सम्बन्ध रक्त सम्बन्ध की श्रेणी में आता है।

प्रश्न 9. 
नातेदारी को परिभाषित कर इसकी श्रेणियों की विवेचना कीजिये।- 
उत्तर:
नातेदारी की परिभाषाएँ-नातेदारी की परिभाषाएँ पूर्व प्रश्न के उत्तर में दी जा चुकी हैं, कृपया उनका अवलोकन करें। नातेदारी की श्रेणियाँ सभी समाजों में एक व्यक्ति के अनेक नातेदार होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का सम्पर्क, निकटता, घनिष्ठता, आत्मीयता आदि के आधार पर नातेदारी से अलग-अलग प्रकार का सम्बन्ध पाया जाता है। निकटता, घनिष्ठता, आत्मीयता आदि के आधार पर नातेदारी व्यवस्था को मुरडॉक ने निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया है

(1) प्राथमिक सम्बन्धी-प्राथमिक सम्बन्धियों में हमारे वे सम्बन्धी आते हैं जिनसे हमारा सीधा प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। पति-पत्नी और उनकी संतान ऐसे सम्बन्धी होते हैं जिनके बीच सीधा सम्बन्ध पाया जाता है। - मुरडॉक ने एक परिवार में आठ प्रकार के प्राथमिक सम्बन्धियों की चर्चा की है, जिनके बीच कोई मध्यस्थ सम्बन्धी नहीं होता है। एक परिवार में पति-पत्नी विवाह के आधार पर प्राथमिक सम्बन्धी होते हैं, जबकि सात प्राथमिक सम्बन्धी रक्त सम्बन्धी होते हैं। प्राथमिक रक्त सम्बन्धियों में पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, माता-पुत्र, माता-पुत्री, भाई-भाई, भाई-बहिन, बहिन-बहिन आदि आते हैं।

(2) द्वितीयक सम्बन्धी-प्राथमिक सम्बन्धियों के प्राथमिक सम्बन्धी द्वितीयक सम्बन्धी कहलाते हैं। द्वितीयक सम्बन्धियों से हमारा सीधा सम्बन्ध नहीं होता अपितु द्वितीयक सम्बन्धियों के वे प्राथमिक सम्बन्धी जो हमारे भी प्राथमिक सम्बन्धी होते हैं, मध्यस्थ के रूप में रहते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे दादा हमारे द्वितीयक सम्बन्धी हैं। इसी प्रकार . नाना-नानी भी हमारे द्वितीयक सम्बन्धी होंगे। इनके अतिरिक्त अन्य रक्त सम्बन्धी द्वितीयक नातेदारों में चाचा, ताऊ, मामा, मौसी आदि को गिना जा सकता है। मुरडॉक ने द्वितीयक सम्बन्धियों के 33 प्रकारों का उल्लेख किया है।

(3) तृतीयक सम्बन्धी-द्वितीयक सम्बन्धियों के प्राथमिक सम्बन्धी या प्राथमिक सम्बन्धियों के द्वितीयक सम्बन्धी तृतीयक सम्बन्धी कहलाते हैं। हमारे दादा के पिता हमारे तृतीयक सम्बन्धी हैं क्योंकि पिता हमारे प्राथमिक सम्बन्धी हैं और पिता के दादा उनके द्वितीयक सम्बन्धी हैं। दूसरे शब्दों में दादा हमारे द्वितीयक सम्बन्धी हैं और दादा के पिता उनके प्राथमिक सम्बन्धी हैं। अतः दादा के पिता हमारे तृतीयक सम्बन्धी हुए। इसी प्रकार से एक व्यक्ति के साले की संतान उसकी तृतीयक सम्बन्धी होगी। मुरडॉक ने तृतीयक सम्बन्धियों के 151 प्रकार बताये हैं।

प्रश्न 10. 
परम्परागत समाजों की तुलना में आधुनिक समाजों में धर्म के स्वरूप में क्या परिवर्तन आये हैं। आधुनिक समाज में धर्म की प्रमुख प्रवृत्तियों को इंगित कीजिये।
उत्तर:
परम्परागत समाजों से आधुनिक समाजों में धार्मिक परिवर्तन आधुनिक समाजों में औद्योगीकरण, नगरीकरण, लौकिकीकरण तथा वैज्ञानिक विचारों और तार्किकता के कारण धर्म के परम्परागत स्वरूप में निम्नलिखित परिवर्तन आए हैं ।
(1) परम्परागत समाजों में, सामान्यतः धर्म सामाजिक जीवन में एक केन्द्रीय हिस्से की भूमिका निभाता था। धार्मिक प्रतीक एवं अनुष्ठान प्रायः समाज की भौतिक और कलात्मक संस्कृति से जुड़े होते थे, लेकिन आधुनिक समाजों में धर्म के प्रभाव क्षेत्र सीमित हुआ है। समाज की भौतिक और कलात्मक संस्कृति अब धर्म से जुड़ी हुई नहीं रह गई है।

(2) परम्परागत समाजों में धार्मिक आस्था तथा विश्वास अत्यधिक सुदृढ़ होते थे तथा विभिन्न अनुष्ठानों का पालन सम्पूर्ण धार्मिक पद्धतियों के द्वारा किया जाता था। आधुनिक समाजों में धार्मिक विश्वास और आस्था का सम्मान होना आवश्यक नहीं है। धर्म में विश्वास रखते हुए भी कुछ व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठानों का सम्पादन अनिवार्य नहीं समझते हैं।

(3) परम्परागत समाजों में धर्म और राज्य अविभाज्य थे। राज्य पर धर्म का प्रभाव था। आधुनिक राज्य प्रायः धर्मनिरपेक्ष हैं अर्थात् राज्य और धर्म दोनों के अपने पृथक्-पृथक् कार्य क्षेत्र हैं। आधुनिक समाजों में धर्म में प्रमुख प्रवृत्तियाँ आधुनिक समाजों में धर्म में निम्नलिखित प्रमुख प्रवृत्तियाँ तेजी से विकसित हो रही हैं. 

  1. धर्म में रूढ़ियों, परम्पराओं तथा अनुष्ठानों आदि का महत्त्व कम हो रहा है। 
  2. धर्म में मानवतावाद की प्रवृत्ति का उदय हो रहा है। 
  3. धर्म में लौकिकीकरण और तर्कवाद की प्रवृत्तियाँ विकसित हो रही हैं। 
  4. धार्मिक क्रियाओं, पद्धतियों तथा अनुष्ठानों का संक्षिप्तीकरण हो रहा है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आधुनिक समाजों में धर्म का प्रभाव सीमित हो रहा है। 

प्रश्न 11.
धर्म की परिभाषा देते हुए सामाजिक नियंत्रण में इसके महत्त्व को प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर:
धर्म की परिभाषा-धर्म का सम्बन्ध अलौकिक शक्ति तथा. पवित्रता की भावना से होता है। व्यक्ति इस शक्ति में विश्वास और आस्था प्रकट करता है। आस्था को प्रकट करने के लिए विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड या अनुष्ठान समारोह किये जाते हैं। मैलिनोवस्की के अनुसार, "धर्म क्रिया की एक विधि है। साथ ही आस्था की एक व्यवस्था भी है और यह एक समाजशास्त्रीय प्रघटना के साथ-साथ एक वैयक्तिक अनुभव है।" सामाजिक नियंत्रण के रूप में धर्म का महत्त्व धर्म का सम्बन्ध मात्र आध्यात्मिकता से नहीं है अपितु इसका सामाजिक पक्ष भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दुर्थीम ने समाज को ही धर्म कहा है। धर्म व्यक्ति और समाज की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। सामाजिक नियंत्रण के रूप में भी धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

इसे अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) आत्मानुशासन-चूंकि धर्म समाज द्वारा मान्य होता है। इसलिए धर्म व्यक्ति को सामाजिक नियमों का पालन करने के लिये प्रेरित करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं, इच्छाओं आदि को समाज की भावनाओं के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में आत्मानुशासन का विकास होता है। यह आत्मानुशासन सामाजिक नियंत्रण में सहायक होता है। 

(2) परम्पराओं की निरंतरता-धर्म परम्पराओं को निरन्तरता प्रदान करता है। इसके कारण ही सामाजिक विरासत परम्पराओं के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती है। धर्म के विधि-विधान कर्मकाण्ड, पूजा पद्धति आदि बिना विशेष बदलाव के पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरंतर चलते जाते हैं। इस प्रकार धार्मिक कार्यों में सम्मिलित होकर व्यक्ति परम्पराओं के प्रति श्रद्धा और निष्ठा व्यक्त करते हैं। इसी श्रद्धा और निष्ठा के कारण विचार अपना प्रभाव नहीं डाल पाते, परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यवहार नियंत्रित रहता है।

(3) सामाजिक एकता-सामाजिक नियंत्रण के रूप में धर्म का महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि धर्म के माध्यम से सामाजिक एकता एवं दृढ़ता भी उत्पन्न होती है। एक समान आस्थाओं तथा जीवन पद्धति वाले व्यक्तियों में एकता और बंधुत्व पाया जाता है। बंधुत्व से उनमें हम की भावना पैदा होती है जो सामाजिक एकता को प्रोत्साहित करती है।

(4) सामूहिक कल्याण-जब व्यक्ति धार्मिक कार्यक्रमों में एकत्र होते हैं, धार्मिक उपदेशों को सुनते हैं और सामूहिक रूप से भजन गाते हैं, सत्संग सुनकर प्रार्थना करते हैं, तब इससे सामूहिक कल्याण की भावना का ही उदय होता है।

प्रश्न 12. 
शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
शिक्षा का अर्थ-शिक्षा के अर्थ को दो रूपों में व्यक्त किया जाता है-
(अ) शिक्षा का संकुचित अर्थ और 
(ब) शिक्षा का व्यापक अर्थ । यथा
(अ) शिक्षा का संकुचित अर्थ-सामान्य रूप से संकुचित अर्थ में शिक्षा से आशय औपचारिक अक्षर ज्ञान से लिया जाता है। यह अक्षर ज्ञान शिक्षा का वह माध्यम है, जिसे व्यक्ति कुछ विशेष पुस्तकों तथा विषयों के अध्ययन से प्राप्त करता है। शिक्षा के संकुचित अर्थ में वह व्यक्ति अधिक शिक्षित कहलायेगा, जिसके पास अधिक से अधिक डिग्रियाँ या उपाधियाँ होंगी। 

(ब) शिक्षा का व्यापक अर्थ-व्यापक अर्थ में शिक्षा से आशय मात्र किताबी ज्ञान या पुस्तक पढ़ने से नहीं होता, अपितु व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से सम्बन्धित सीख और प्रशिक्षण की आजीवन चलने वाली एक प्रक्रिया से होता है। व्यापक अर्थ में शिक्षा की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं स्वामी विवेकानंद के अनुसार, "मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।" महात्मा गांधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक या मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास करना है।" टी. रेमण्ड के मतानुसार, "शिक्षा विकास की वह प्रक्रिया है जिससे मनुष्य बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक क्रमशः विभिन्न तरीकों से अपने आपको भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पर्यावरण से अनुकूलन करता है।" शिक्षा की विशेषताएँ - शिक्षा का अर्थ एवं इसकी परिभाषाओं के आधार पर इसकी कुछ सामान्य विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं, जो निम्न प्रकार हैं

  1. वास्तविक ज्ञान प्राप्ति-शिक्षा का अर्थ वास्तविक ज्ञान प्राप्ति से है. न कि मात्र अक्षरों की जानकारी से। शिक्षा सीखी और सिखाई जाती है।
  2. व्यक्तित्व का विकास-शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व को सर्वांगीण रूप से विकसित करती है। 
  3. सार्वकालिक-प्रत्येक समाज और काल में शिक्षा का कोई न कोई स्वरूप अवश्य पाया जाता है। 
  4. नियंत्रण-शिक्षा मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती है। 
  5. अनुकूलनशीलता-शिक्षा में अनुकूलनशीलता का गुण होता है। 
  6. समाज का विकास-शिक्षा से व्यक्ति का ही नहीं, अपितु समाज का भी विकास होता है।
  7. समाज के नियमों का निर्धारण-शिक्षा समाज के नियमों को निर्धारित करती है।
  8. सतत प्रक्रिया-शिक्षा समाज में चलने वाली सतत प्रक्रिया है। 
  9. पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण-शिक्षा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है। 

प्रश्न 13. 
शिक्षा की परिभाषा देते हुए, इसके प्रकारों का वर्णन कीजिये। 
उत्तर:
[शिक्षा की परिभाषा-शिक्षा के अर्थ तथा परिभाषा के लिए पूर्व प्रश्न का उत्तर देखें।]
शिक्षा के स्वरूप या प्रकार विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा के भिन्न-भिन्न प्रकारों का विवेचन किया है, जैसे-व्यक्तिगत शिक्षा और सामूहिक शिक्षा; सामान्य शिक्षा और विशिष्ट शिक्षा; सकारात्मक शिक्षा और नकारात्मक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा और औपचारिक शिक्षा। शिक्षा के उक्त वर्गीकरणों में अन्तिम वर्गीकरण-अनौपचारिक शिक्षा और औपचारिक शिक्षा के 
सम्बन्ध में विद्वानों में प्रायः मतैक्य है। यथा

(1) अनौपचारिक शिक्षा (Non-formal Education)-शिक्षा का वह प्रकार या स्वरूप. जिसमें शिक्षा नियमित रूप से विद्यालय या किसी अन्य संस्था द्वारा प्रदान नहीं की जाती अपितु व्यावहारिक आधार पर प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं आदि के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है, अनौपचारिक शिक्षा कहलाती है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ ये हैं 

  • अनौपचारिक शिक्षा मुख्य रूप से परिवार, नातेदारों या परिचितों द्वारा दी जाने वाली वह शिक्षा होती है, जो मनुष्य के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ी होती है।
  • अनौपचारिक शिक्षा सामान्यतः मौखिक आधार पर दी. जाती है।
  • सभी समाजों में इस प्रकार की शिक्षा बच्चों को प्रदान की जाती है। अपनी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, धार्मिक आचरण, नैतिकता आदि सम्बन्धी शिक्षाओं को बच्चा परिवार में ही अनौपचारिक रूप से सीखता है।
  • भारत में सामुदायिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा आदि के आधार पर अनौपचारिक शिक्षा का चलन रहा है। वर्तमान में यहाँ साक्षरता कार्यक्रम के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्रदान की जा रही है।

(2) औपचारिक शिक्षा (Formal Education) औपचारिक शिक्षा में बच्चों को शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा . नियमित अध्ययन कराया जाता है। वर्तमान में पढ़ाई जाने वाली आधुनिक शिक्षा पद्धति औपचारिक शिक्षा का ही उदाहरण
भारत में औपचारिक शिक्षा-भारत में औपचारिक शिक्षा पद्धति का चलन सदियों से रहा है। इसे मोटे रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है। यथा

(1) प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा पद्धति-भारत में प्राचीन काल में बच्चा 'गुरुकुल' में जाकर शिक्षा प्राप्त किया करता था। गुरुकुल में रहकर ही विद्यार्थी धर्म सम्बन्धी ज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान, अस्त्र-शस्त्र चलाना आदि सीखता था। यहाँ विद्यार्थी 25 वर्ष की अवस्था तक रहता था। राज्य की ओर से गुरुकुलों को कुछ ग्रामदान किये जाते थे, जिनकी आय से उनका खर्च चलता था। प्रत्येक विद्यार्थी गुरुदक्षिणा के रूप में शिक्षा शुल्क देता था अथवा शुल्क के स्थान पर अपनी सेवाएं प्रदान करता था।

(2) आधुनिककालीन औपचारिक शिक्षा पद्धति-आधुनिक काल में भारत में स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा औपचारिक शिक्षा ही है। हमारे देश में इस शिक्षा पद्धति को प्रारंभ कराने का श्रेय मैकाले को जाता है जो कि एक अंग्रेज अधिकारी था। इसने भारत में दुभाषिये तथा क्लों के निर्माण के लिए इस प्रकार की शिक्षा को प्रारंभ कराया। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(क) संगठन-आधुनिक शिक्षा पद्धति के संगठन को तीन चरणों में बाँटा गया है। ये चरण हैं
(i) प्राथमिक शिक्षा स्तर-प्राथमिक स्तर की शिक्षा को दो भागों में बांटा गया है-
(अ) प्राथमिक स्तर-कक्षा एक से कक्षा 5 तक तथा 
(ब) उच्च प्राथमिक स्तर-कक्षा 6 से कक्षा 8 तक। सामान्य रूप से एक बच्चा प्राथमिक स्तर के दोनों भागों की शिक्षा 14 वर्ष तक की अवस्था में पूर्ण कर लेता है। हमारे देश में प्राथमिक स्तर की शिक्षा सभी बच्चों के लिए अनिवार्य और निःशुल्क प्रदान करने की व्यवस्था की गयी है।

  • माध्यमिक शिक्षा स्तर-माध्यमिक शिक्षा कक्षा 9 से कक्षा 10 तक मानी जाती है जबकि कक्षा 11 से कक्षा 12 को उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के रूप में पढ़ाया जाता है।
  • उच्च शिक्षा स्तर-उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा को ग्रहण करके विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए . महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश लेता है।

(ख) शैक्षणिक संस्था-औपचारिक शिक्षा के सभी स्तर जिस स्थान या भवन में दिये जाते हैं, उसे हम शैक्षणिक संस्था (विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय) के नाम से जानते हैं।

(ग) अध्यापक व कर्मचारी-प्रत्येक शैक्षणिक संस्था में आवश्यक रूप से प्राध्यापक, छात्र एवं मंत्रालयिक कर्मचारी होते हैं जिनकी नियुक्ति निश्चित मापदण्डों एवं योग्यता के अनुसार की जाती है।।

(घ) प्रवेश की योग्यता-प्रत्येक शिक्षण संस्था में प्रवेश के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित रहती है। छात्र इस शर्त को पूर्ण कर शिक्षण संस्थान में प्रवेश पा सकता है।

(ङ) शुल्क-अध्ययन के लिए छात्र को कुछ शुल्क का भुगतान करना होता है।

(च) नियम-शिक्षण संस्था के नियमों की पालना भी छात्र को करनी होती है।

(छ) शैक्षणिक संस्थाओं के प्रकार-हमारे देश में शैक्षणिक संस्थाओं के मुख्यतः तीन प्रकार पाये जाते हैं। यथा

  • अशासकीय-अशासकीय शैक्षणिक संस्थाएँ वे होती हैं जो व्यक्तिगत आधार पर संचालित की जाती हैं। इन्हें सरकार की तरफ से किसी भी प्रकार का अनुदान नहीं मिलता है।
  • अर्द्धशासकीय-अर्द्धशासकीय शैक्षणिक संस्थाओं को शासन अनुदान प्रदान करता है। 
  • शासकीय-शासकीय शैक्षणिक संस्थाएँ वे होती हैं जिनका संचालन पूर्ण रूप से सरकार द्वारा किया जाता है। उक्त दोनों ही प्रकार की संस्थाओं को सरकार के दिशा-निर्देर्शों का पालन करना होता है।

(ज) पत्राचार पाठ्यक्रम-औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का एक और तरीका पत्राचार शिक्षा का है। जो छात्र किन्हीं कारणों से पूर्णकालिक शिक्षण संस्थाओं में नियमित अध्ययन नहीं कर पाते वे पत्राचार के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी करते हैं। इसके अन्तर्गत संचार के विभिन्न साधनों का प्रयोग किया जाता है।

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना

प्रश्न 14. 
शिक्षा के उद्देश्यों की विवेचना कर, सामाजिक परिवर्तनों में इसका महत्त्व स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
शिक्षा के उद्देश्य किसी भी राष्ट्र के नवनिर्माण में शिक्षा की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। शिक्षा की विधि, पाठ्यक्रम, विद्यालय व्यवस्था आदि को निश्चित करने से पूर्व शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करना आवश्यक होता है। शिक्षा के उद्देश्य स्थायी नहीं होते अपितु देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार इनमें परिवर्तन होता रहता है। प्राचीन काल में हमारे देश में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में धार्मिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक गुणों का विकास करना था। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण बढ़ने के साथ इसके उद्देश्यों में व्यावसायिकता भी जुड़ गई। कुछ पश्चिमी देशों में इसका उद्देश्य भौतिक सुखों में उन्नति से भी रहा है और कुछ देशों में शक्ति एवं साहस को बढ़ाना ही इसका उद्देश्य रहा

वर्तमान में शिक्षा के प्रमुख सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं- 
(1) ज्ञान की प्राप्ति-शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और वृद्धि करना होता है। समस्त शिक्षा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रदान की जाती है। ज्ञान आचरण में परिवर्तित होकर अपनी सार्थकता को दिखाता है जिसका परिणाम किसी न किसी क्रिया के रूप में दिखाई देता है।

(2) पूर्ण मानसिक विकास-शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास किया जाता है। मानसिक विकास से ही स्मरण, तर्क, कल्पना आदि क्षमताओं को विकसित किया जाता है। समाजोपयोगी कार्य करने से शिक्षा का यह उद्देश्य सार्थक हो जाता है।

(3) शारीरिक विकास-प्रारम्भ से ही शारीरिक विकास शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य रहा है। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य, व्यायाम, सुनिश्चित दिनचर्या, सात्विक भोजन आदि के माध्यम से छात्र के संपूर्ण शारीरिक विकास का ध्यान रखा जाता था। वर्तमान काल में भी विद्यालयों में छात्रों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती

(4) संस्कृति का हस्तान्तरण-शिक्षा के द्वारा न केवल संस्कृति का संरक्षण किया जाता है अपितु इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित भी किया जाता है। नयी पीढ़ी के द्वारा सतत रूप से संस्कृति का परिशोधन एवं सृजन भी किया जाता है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को सुसंस्कृति का एवं सभ्य बनाने का प्रयास किया जाता है।

(5) सुचरित्र-बच्चों का चारित्रिक एवं नैतिक विकास करना भी शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य है। शिक्षा बच्चों को अच्छे आचरण का प्रशिक्षण प्रदान करती है।

(6) आध्यात्मिक विकास-शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना है। यह उद्देश्य इस रूप में महत्त्वपूर्ण है कि आध्यात्मिक विकास होने से चारित्रिक एवं नैतिक गुणों का विकास स्वतः ही हो जाता है।

(7) जीविकोपार्जन-शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य जीविकोपार्जन है। बच्चों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए कि वे अपने जीवन में सर्वांगीण विकास करते हुए जीविकोपार्जन की भी तैयारी कर लें। वर्तमान काल में इस प्रकार की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है। शिक्षा में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को शामिल कर व्यक्ति को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।  
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शिक्षा के अनेक उद्देश्य होते हैं, जो देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार समयसमय पर परिवर्तित एवं परिशोधित होते रहते हैं। सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा का महत्त्व सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है
(1) सामाजिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार करना-शिक्षा में अनुकूलनशीलता का गुण होता है, जो सामाजिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार करता है। जिन देशों-प्रदेशों में शिक्षित व्यक्तियों का प्रतिशत अधिक होता है, वे देश-प्रदेश अन्य की तुलना में अधिक विकसित और प्रगतिशील होते हैं। विकसित और विकासशील देशों की प्रगति का मूल कारण वहाँ शिक्षित व्यक्तियों का प्रतिशत अधिक होना है, पिछड़े देशों में पिछड़े होने का मूल कारण भी अशिक्षा ही होती है।

(2) विज्ञान एवं तकनीक पर आधारित तीव्र परिवर्तन-विज्ञान और तकनीक पर आधारित तीव्र परिवर्तन उन्हीं देशों और समाजों में अधिक हो रहे हैं, जहाँ शिक्षा का प्रचार और प्रसार अधिक है। हमारे देश में जिन प्रान्तों में शिक्षा एवं साक्षरता की दर अधिक है, वहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित परिवर्तनों में तीव्रता देखी जाती है।

(3) समाज में सकारात्मक परिवर्तन की कारक-शिक्षा समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने की प्रमुख कारक है। शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत व्यक्ति ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाते हैं। शिक्षा व्यक्ति में सामाजिक मूल्यों, विचारों, मान्यताओं आदि के प्रति समझ उत्पन्न करती है। शिक्षा समाजीकरण के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाती है।

(4) आर्थिक प्रगति-शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति की कार्यकुशलता बढ़ती है। यांत्रिक तथा व्यावसायिक शिक्षा के कारण उत्पादन में गुणात्मक और परिमाणात्मक सुधार देखा जा सकता है। अधिक गुणात्मक उत्पादन आर्थिक प्रगति का सूचक है और आर्थिक प्रगति सामाजिक परिवर्तनों को प्रोत्साहित एवं गतिशील बनाती है।

(5) सामाजिक बुराइयों तथा कुरीतियों को दूर कर सकारात्मक सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात करानाशिक्षा की बुद्धि समाज में अंधविश्वासों, पाखण्डों आदि को दूर करती है। कुरीतिविहीन समाज, सकारात्मक सामाजिक परिवर्तनों को शीघ्रता से आत्मसात करता है।

(6) समाजोपयोगी संस्कृति के हस्तांतरण पर बल-शिक्षा द्वारा उसी संस्कृति के हस्तान्तरण पर बल दिया जाता है, जो समाजोपयोगी और सामाजिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली होती है। इस रूप में शिक्षा संस्कृति द्वारा । होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को नियंत्रित एवं निर्देशित करती है। शिक्षा व्यक्ति को जीवन के संघर्ष में क्षमता प्रदान करती है तथा सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करती है। यह सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 15. 
धर्म से आप क्या समझते हैं? धर्म के कारकों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
धर्म का अर्थ तथा परिभाषाएँ-धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की 'धृ' धातु से मानी गयी है। इसका अर्थ है-धारण करना या आत्मसात करना। अतः शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर धर्म का अर्थ है-सृष्टि के सभी जीवों के प्रति मन में दया का भाव धारण करना। हिन्दू धर्म के अनुसार, सात्विक एवं श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करना ही धर्म माना गया है। धर्म की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. मैलिनोवस्की के अनुसार, "धर्म क्रिया की एक विधि है, साथ ही आस्था की एक व्यवस्था भी और एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ एक वैयक्तिक अनुभव भी है।"
  2. जेम्स फ्रेजर के अनुसार, "धर्म से अभिप्राय मानव से श्रेष्ठ व्यक्तियों की संतुष्टि या आराधना से है जिनके बारे में यह आस्था है कि वह शक्ति प्रकृति और मानव जीवन को निर्देशित व नियंत्रित करती है।"
  3. दुर्थीम के अनुसार, "धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की वह व्यवस्था है, जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है।" 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि धर्म का सम्बन्ध अलौकिक शक्ति से होता है। व्यक्ति इस शक्ति में विश्वास और आस्था प्रकट करता है। आस्था को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड किये जाते हैं। इस अलौकिक शक्ति के द्वारा ही मानवीय एवं प्राकृतिक घटनाएँ नियंत्रित होती हैं। धर्म के कारक या धर्म की सामान्य विशेषताएँ प्रत्येक धर्म आस्था एवं विश्वास पर आधारित रहता है। धर्म के अनुयायी अपनी आस्था को प्रकट करने के लिए कुछ क्रियाएँ, कर्मकाण्ड करते हैं। 

विभिन्न विद्वानों ने धर्म के निर्माण के लिए आवश्यक कारकों या समान विशेषताओं की विवेचना की है, जिनमें प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
(1) अनुष्ठान (Rituals)-प्रत्येक धर्म में विश्वासों को प्रकट करने के लिए कुछ-न-कुछ कर्मकाण्ड या अनुष्ठान किये जाते हैं। धार्मिक कर्मकाण्ड या अनुष्ठानों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त रहती है। इनका सम्बन्ध पवित्रता से रहता है। अनुष्ठानिक कार्यों में प्रार्थना करना, गुणगान करना, भजन गाना, उपवास रखना, विशेष प्रकार का भोजन करना और इसी प्रकार की अन्य क्रियायें शामिल हैं। ये कार्य धार्मिक प्रतीकों से सम्बद्ध होते हैं। अतः इन्हें प्रायः सामान्य जीवन की आदतों व क्रियाविधियों से एकदम भिन्न रूप में देखा जाता है।

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(2) विश्वास (Beliefs)-धर्म का एक अन्य प्रमुख कारक आस्था या विश्वास है। आस्था धर्म का प्रमुख आधार होता है। बिना आस्था के धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है। प्रत्येक धर्मावलम्बी अलौकिक शक्ति में आस्था व्यक्त करता है, उसको विश्वास होता है कि यही शक्ति उसे संकटों से उबारेगी।

(3) विश्वासकर्ताओं का एक समुदाय-प्रत्येक धर्म में विश्वासकर्ताओं का एक समुदाय होता है और विश्वास का आधार वैयक्तिक अनुभव है। वैयक्तिक अनुभव से ही विश्वास की नींव पड़ती है। धार्मिक क्रियाकलापों, प्रार्थना आदि से व्यक्ति विशेष अनुभूतियाँ अनुभव करता है। सभी धर्मों में विश्वासकर्ताओं के द्वारा धार्मिक अनुष्ठान तथा सामूहिक समारोह भी किये जाते हैं। 

(4) निषेध (Taboos)-प्रत्येक धर्म में कुछ नियम व निषेध पाये जाते हैं। धर्म के मार्ग पर चलने वालों से उम्मीद की जाती है कि वे इन नियमों व निषेधों का पालन करेंगे।

(5) प्रतीक (Symbols)-धर्म का सम्बन्ध कुछ प्रतीकों से भी होता है। इन प्रतीकों को पवित्र माना गया है। प्रत्येक धर्म में इन प्रतीकों से जुड़ी कुछ चमत्कारी पौराणिक गाथाएँ भी सुनने को मिलती हैं। ये गाथायें व्यक्तियों में धर्म के प्रति आस्था को और मजबूत करती हैं।

(6) संस्तरण (Stratification)-प्रत्येक धर्म में एक संस्तरणात्मक व्यवस्था भी देखने को मिलती है, जिसमें धार्मिक विशेषज्ञों-पुजारी, पादरी, मौलवी आदि को अन्य साधारण व्यक्तियों की तुलना में धर्म का मर्मज्ञ माना जाता है। प्रत्येक समाज में इन्हें कुछ विशेष धार्मिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं।

Prasanna
Last Updated on Sept. 12, 2022, 11:02 a.m.
Published Sept. 8, 2022