RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Important Questions and Answers. 

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RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

बहुविकल्पात्मक प्रश्न  

प्रश्न 1. 
वह आर्थिक प्रणाली जहाँ उत्पादन के साधन पर निजी अधिकार होता है तथा जिसका प्रयोग बाजार व्यवस्था में लाभ कमाना है, कहलाती है
(अ) पूँजीवादी 
(ब) समाजवादी
(स) साम्यवादी
(द) अराजकतावादी 
उत्तर:
(अ) पूँजीवादी 

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ  

प्रश्न 2. 
वह अवधारणा, जिसमें मजदूरों का अपने श्रम तथा श्रम उत्पाद पर किसी प्रकार का अधिकार न होने के कारण
कार्य के प्रति उनकी रुचि समाप्त होने लगती है, कहलाती है
(अ) परहितवाद
(ब) अलगाव 
(स) श्रमविभाजन
(द) प्रतिमानहीनता 
उत्तर:
(ब) अलगाव 

प्रश्न 3. 
वह सिद्धान्त अथवा चिंतन जो समूह के स्थान पर व्यक्तियों की स्वायत्तता को महत्त्व देता है, कहलाता है
(अ) समाजवाद
(ब) साम्यवाद 
(स) व्यक्तिवाद
(द) समूहवाद 
उत्तर:
(स) व्यक्तिवाद

प्रश्न 4. 
सामाजिक बाध्यता सामाजिक तथ्य का एक विशिष्ट लक्षण है। यह कथन है
(अ) कार्ल मार्क्स का
(ब) मैक्स वेबर का 
(स) पारसन्स का
(द) एमिल दुर्थीम का। 
उत्तर:
(द) एमिल दुर्थीम का। 

प्रश्न 5. 
निम्नलिखित में कौनसी विशेषता यांत्रिक एकता की नहीं है?
(अ) इसमें परम्परागत संस्कृति में सरल श्रम विभाजन पाया जाता है। 
(ब) इसमें समाज के अधिकांश सदस्य एक जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। 
(स) इसमें समाज के सदस्य परस्पर अपनी मान्यताओं से जुड़े होते हैं। 
(द) इसके अन्तर्गत समाज व्यक्ति की आर्थिक निर्भरता तथा अन्य कार्यों से बंधा होता है।
उत्तर:
(द) इसके अन्तर्गत समाज व्यक्ति की आर्थिक निर्भरता तथा अन्य कार्यों से बंधा होता है।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
1. दुर्थीम के अनुसार, सामाजिक संरचना, हमारी क्रियाओं को समानांतर रूप से ............. करती है, इसकी .............. तय करती है। 
2. मार्क्स के अनुसार इतिहास का निर्माण उन ऐतिहासिक तथा संरचनात्मक स्थिति की उन बाध्यताओं तथा ........... के अन्तर्गत होता है, जहाँ वह जीवनयापन कर रहा है। 
3. सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में ................. के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है।।  
4. सामान्यत ............. संघर्ष के परिप्रेक्ष्य से जुड़े हुए हैं तथा ........... सामान्यतः प्रकार्यवादी संदर्भ में पहचाने जाते हैं। 
5. संघर्ष का दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि समूहों तथा व्यक्तियों का स्थान उत्पादन प्रणाली के सम्बन्ध में भिन्न तथा ............ होता है। 
6. प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य का सरोकार मुख्य रूप से समाज में ............ की आवश्यकता से है। 
7. श्रम विभाजन एक ही समय में जहाँ प्रकृति का नियम है, वहीं दूसरी ओर मनुष्य व्यवहार का ..............

उत्तर:
1. बाध्य, सीमा 
2. संभावनाओं 
3. असमानता 
4. कार्ल मार्क्स, एमिल दुर्खाइम 
5. असमान 
6. व्यवस्था 
7. नैतिकनियम। 

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. प्रतिस्पर्धा की विचारधारा पूँजीवाद की सशक्त विचारधारा है। 
2. सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव अपरिवर्तित रहा है। 
3. पारंपरिक तौर पर परिवार तथा घर सामञ्जस्यपूर्ण इकाई के रूप में देखे जाते रहे हैं। 
4. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सहयोग, प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष की प्रक्रियाएँ स्वाभाविक नहीं मानी जातीं। 
5. किसी प्रणाली में तकनीकी स्तर व्यक्तियों तथा समूहों के बीच सहयोग की आवश्यकता को प्रभावित नहीं करता
6. सामाजिक संरचना के संदर्भ में सामाजिक स्तरीकरण, व्यक्ति को कार्य करने हेतु बाध्य करता है। 
7. समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का एक मुख्य उद्देश्य व्यक्ति तथा समाज के द्वन्द्वात्मक संबंधों को समझना है। 
उत्तर:
1. सत्य 
2. असत्य 
3. सत्य 
4. सत्य 
5. असत्य
6. सत्य 
7. सत्य 

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये-

1. सामाजिक संरचना हमारी क्रियाओं की सीमा तय करती है

(अ) कार्ल मार्क्स

2. सामाजिक संरचना मनुष्य को बाध्य करती है, साथ ही मनुष्य की सृजनात्मकता सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है

(ब) सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप

3. वर्ग-विभाजन

(स) पूँजीवाद

4. प्रतिस्पर्द्ध की विचारधारा

(द) मार्क्सवाद

5. संघर्ष की विचारधारा

(य) एमिल दुर्खीम

उत्तर:

1. सामाजिक संरचना हमारी क्रियाओं की सीमा तय करती है

(य) एमिल दुखीम

2. सामाजिक संरचना मनुष्य को बाध्य करती है, साथ ही मनुष्य की सृजनात्मकता सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है

(अ) कार्ल मार्क्स

3. वर्ग-विभाजन

(ब) सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप

4. प्रतिस्पर्द्ध की विचारधारा

(स) पूँजीवाद

5. संघर्ष की विचारधारा

(द) मार्क्सवाद


RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का एक उद्देश्य लिखिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति तथा समाज के द्वन्द्वात्मक संबंधों को समझना है।

प्रश्न 2. 
समाज और व्यक्ति के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों को समझने के लिए किन तीन संकल्पनाओं को समझना आवश्यक है?
उत्तर:
समाज और व्यक्ति के द्वन्द्वात्मक संबंधों को समझने के लिए तीन मुख्य संकल्पनाओं-सामाजिक संरचना, सामाजिक स्तरीकरण तथा सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना आवश्यक है।

प्रश्न 3. 
सामाजिक संरचना से क्या आशय है?
उत्तर:
सामाजिक संरचना का अर्थ एक सामाजिक वातावरण में व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच नियमित और बार-बार होने वाली अन्तःक्रिया के प्रतिमानों से है।

प्रश्न 4. 
व्यक्तियों तथा समूहों के मध्य सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष किस पर निर्भर करते हैं?
उत्तर:
व्यक्तियों तथा समूहों के मध्य सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष सामाजिक संरचना तथा स्तरीकरण की व्यवस्था में व्यक्तियों एवं समूह की स्थिति पर निर्भर करता है।

प्रश्न 5. 
एमिल दुर्थीम सामाजिक संरचना की किस विशेषता पर बल देते हैं?
उत्तर:
एमील दुर्थीम सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देते हैं कि यह हमारी क्रियाओं को समानान्तर रूप से बाध्य करती है।

प्रश्न 6. 
दुर्थीम के अनुसार सामाजिक संरचना अपनी किस विशेषता के कारण व्यक्ति की क्रियाओं को बाध्य करती है?
उत्तर:
सामाजिक संरचना में बाह्यता, दृढ़ता अथवा कठोरता है। इस कारण यह व्यक्ति की क्रियाओं को बाध्य करती है।

प्रश्न 7. 
कार्ल मार्क्स के अनुसार मनुष्य की कौनसी विशेषता सामाजिक संरचना को भी परिवर्तित करती है?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स के अनुसार मनुष्य की सृजनात्मकता सामाजिक संरचना को भी परिवर्तित करती है और उसे पुनः उत्पादित करती है।

प्रश्न 8. 
मार्क्स के अनुसार इतिहास का निर्माण किस प्रकार होता है? 
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार इतिहास का निर्माण उन ऐतिहासिक तथा संरचनात्मक स्थिति की उन बाध्यताओं तथा संभावनाओं के अन्तर्गत होता है, जहाँ मनुष्य जीवन- यापन कर रहा है।

प्रश्न 9. 
सामाजिक स्तरीकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व तथा भौतिक अथवा प्रतीकात्मक पुरस्कारों की पहुँच से है।

प्रश्न 10. 
आधुनिक समाज किन दो असमानताओं के कारण पहचाने जाते हैं? 
उत्तर:
आधुनिक समाज धन तथा शक्ति की असमानताओं के कारण पहचाने जाते हैं। 

प्रश्न 11. 
स्तरीकरण के पाँच प्रमुख आधारों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
स्तरीकरण के प्रमुख आधार ये हैं-

  1. वर्ग 
  2. जाति 
  3. प्रजाति 
  4. क्षेत्र 
  5. समुदाय 
  6. जनजाति तथा 
  7. लिंग।

प्रश्न 12. 
सामाजिक स्तरीकरण सामाजिक संरचना के भाग के रूप में किसके द्वारा पहचाना जाता है?
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है।

प्रश्न 13. 
लाभ के तीन बुनियादी प्रकार कौनसे हैं, जिनका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा उपभोग किया जाता है?
उत्तर:
लाभ के तीन बुनियादी प्रकार, जिनका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा उपभोग किया जाता है, इस प्रकार हैं-

  1. जीवन अवसर
  2. सामाजिक प्रस्थिति
  3. राजनैतिक प्रभाव।

प्रश्न 14. 
परहितवाद से क्या आशय है?
उत्तर:
परहितवाद के अन्तर्गत सिद्धान्ततः बिना किसी लाभ के दूसरों के हित के लिए काम करने की भावना पाई जाती है।

प्रश्न 15. 
प्रतिमानहीनता की स्थिति से दुर्थीम का क्या आशय है?
उत्तर:
दुर्थीम के लिए प्रतिमानहीनता वह सामाजिक स्थिति है जहाँ व्यवहार को पथप्रदर्शित करने वाले मानदण्ड नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति बिना सामाजिक बाध्यता अथवा पथ प्रदर्शन के रह जाता है।

प्रश्न 16. 
पूँजीवाद से क्या आशय है?
उत्तर:
पूँजीवाद वह आर्थिक प्रणाली है जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी अधिकार होता है तथा जिसका प्रयोग बाजार व्यवस्था में लाभ कमाना है। इसमें श्रम मजदूरों द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 17. 
व्यक्तिवाद क्या है? 
उत्तर:
व्यक्तिवाद वह सिद्धान्त अथवा चिन्तन है, जो समूह के स्थान पर व्यक्तियों की स्वायत्तता को महत्त्व देता है। 

प्रश्न 18. 
उदारवाद क्या है?
उत्तर:
उदारवाद वह राजनैतिक तथा आर्थिक दृष्टिकोण है, जो इस सिद्धान्त पर आधारित है कि सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में अहस्तक्षेपीय नीति अपनाई जाये तथा बाजार एवं संपत्ति मालिकों को पूरी छूट दे दी जाये।

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प्रश्न 19. 
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य का सरोकार किससे है?
उत्तर:
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य का सरोकार मुख्य रूप से समाज में 'व्यवस्था की आवश्यकता' से है-जिन्हें कुछ प्रकार्यात्मक अनिवार्यताएँ, प्रकार्यात्मक अपेक्षा तथा पूर्वापेक्षाएँ कहा जाता है। ये व्यवस्था के अस्तित्व के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा करती हैं।

प्रश्न 20. 
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य में प्रतियोगिता तथा संघर्ष को किस दृष्टि से देखा जाता है?
उत्तर:
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य में प्रतियोगिता तथा संघर्ष को इस दृष्टि से भी समझा जाता है कि अधिकतर स्थितियों में ये बिना ज्यादा हानि या कष्ट के सुलझ जाते हैं तथा साथ ही ये समाज की भी विभिन्न प्रकार से मदद करते हैं।

प्रश्न 21. 
सहयोग, प्रतियोगिता एवं संघर्ष के आपसी सम्बन्ध कैसे होते हैं?
उत्तर:
सहयोग, प्रतियोगिता एवं संघर्ष के आपसी सम्बन्ध अधिकतर जटिल होते हैं तथा ये आसानी से अलग नहीं किये जा सकते।

प्रश्न 22. 
दुर्थीम किसे मानव-दुनिया का विशिष्ट लक्षण मानते हैं? 
उत्तर:
दुर्थीम परार्थवाद तथा एकता को मानव दुनिया का विशिष्ट लक्षण मानते हैं। 

प्रश्न 23. 
मार्क्स किस आधार पर मनुष्य और पशु जीवन में अन्तर स्पष्ट करते हैं? 
उत्तर:
मार्क्स चेतना चेतना के आधार पर मनुष्यों तथा पशुओं में अन्तर स्पष्ट करते हैं। प्रश्न 24. दुर्थीम का एकता से क्या आशय है?
उत्तर-दुर्थीम के लिए एकता समाज का नैतिक बल है तथा यह सहयोग और समाज के प्रकार्यों को समझने के लिए बुनियादी अवयव है।।

प्रश्न 25. 
मार्क्स के अनुसार वर्गीय समाज में सहयोग किस प्रकार का होता है? 
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार ऐसे समाज में जहाँ वर्ग विद्यमान हैं, वहाँ सहयोग स्वैच्छिक न होकर आरोपित होता है। 

प्रश्न 26. 
पूँजीवाद की चार मौलिक मान्यताएँ लिखिये।
उत्तर:
पूँजीवाद की मौलिक मान्यतायें ये हैं-

  1. व्यापार का विस्तार
  2. श्रम विभाजन
  3. विशेषीकरण और
  4. बढ़ती उत्पादकता।

प्रश्न 27. 
प्रतियोगिता की संकल्पना के कोई दो लाभ लिखिये।
उत्तर:

  1. अधिकतम कार्यकुशलता पर बल। 
  2. निम्नतम लागत तथा अधिकतम उत्पादन पर बल। 

प्रश्न 28. 
क्या समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष की प्रक्रियाएँ स्वाभाविक मानी जाती
उत्तर:
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से ये प्रक्रियायें स्वाभाविक नहीं मानी जातीं, ये सामाजिक विकास से जुड़ी हुई हैं। 

लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. 
अलगाव से क्या आशय है?
उत्तर:
मार्क्स ने अलगाव की अवधारणा का प्रयोग मजदूरों का अपने श्रम तथा श्रम उत्पाद पर किसी प्रकार के अधिकार न होने के संदर्भ में किया है। इससे मजदूरों की कार्य के प्रति रुचि समाप्त होने लगती है।

प्रश्न 2. 
श्रम-विभाजन को स्पष्ट कीजिये। .
उत्तर:
श्रम-विभाजन में कार्य का विशिष्टीकरण होता है, जिसके माध्यम से विभिन्न रोजगार उत्पादन प्रणाली से जुड़े होते हैं। प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में श्रम विभाजन होता है, विशेषकर पुरुषों को दिये गए कार्य और महिलाओं को दिए गए कार्य । अन्य किसी भी प्रकार के उत्पादन की तुलना में, औद्योगीकरण के विकास के साथ श्रम विभाजन और जटिल हो गया है। आधुनिक विश्व में श्रम-विभाजन का क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है।

प्रश्न 3. 
यांत्रिक एकता से क्या आशय है?
उत्तर:
यांत्रिक एकता-यांत्रिक एकता संहति का एकरूप है, जो बुनियादी रूप से एकरूपता पर आधारित है । यांत्रिक एकता वाले समाज के अधिकांश सदस्य एक जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। सरल श्रम-विभाजन इसकी विशेषता है । समाज के अधिकतर सदस्य एक जैसे कार्यों में लगे रहते हैं । अतः वे एक-दूसरे के साथ सामान्यतः समान प्रकार के अनुभव तथा मान्यताओं से बंधे होते हैं।

प्रश्न 4. 
दुखीम की सावयवी एकता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सावयवी एकता-सावयवी एकता सामाजिक संहति का वह रूप है जो श्रम-विभाजन पर आधारित है। तथा जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्यों में सह-निर्भरता है। सावयवी एकता के अन्तर्गत समाज, व्यक्ति की परस्पर आर्थिक निर्भरता तथा दूसरे के कार्यों की महत्ता, से बंधा होता है। इसमें श्रम-विभाजन अत्यन्त जटिल होता है। लोग एक-दूसरे पर अधिक से अधिक आश्रित होते हैं; क्योंकि प्रत्येक को वह उत्पाद चाहिए, जिसका उत्पादन दूसरे व्यक्ति करते हैं।

प्रश्न 5. 
किस हद तक व्यक्ति सामाजिक संरचना से बाध्य होता है?
उत्तर:
दुर्थीम के अनुसार, सामाजिक संरचना हमारी क्रियाओं को समानान्तर रूप से बाध्य करती है, इसकी सीमा तय करती है कि हम एक व्यक्ति के रूप में क्या कर सकते हैं? यह हमसे 'बाह्य' है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक कमरे की दीवारें हैं। इसका आशय यह है कि एक व्यक्ति ऐसे कमरे में खड़ा है जहाँ बहुत सारे दरवाजे हैं । कमरे की संरचना व्यक्ति की संभावित क्रियाओं को बाध्य करती है, कमरे के दीवारों तथा दरवाजों की स्थिति, प्रवेश तथा निकास के रास्तों को दर्शाती है। ये स्थितियाँ व्यक्ति की संभावित क्रियाओं को बाध्य करती हैं। इसी प्रकार समाज की संरचनाएँ, स्तरीकरण आदि अपने सदस्यों की क्रियाओं पर प्रतिबंध लगाते हैं। सामाजिक संरचना में एक प्रकार की नियमितता अथवा प्रतिमान होता है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य समाज में अपनी क्रियाओं को दोहराते हैं।

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प्रश्न 6. 
व्यक्ति किस हद तक सामाजिक संरचना के अन्तर्गत स्वतंत्र होता है?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देने के साथ-साथ मनुष्य की सृजनात्मकता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। मनुष्य की सृजनात्मकता सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है और उसे पुनः उत्पादित भी करती है। मार्क्स ने तर्क दिया है कि मनुष्य इतिहास बनाता है, परन्तु वह इतिहास निर्माण न तो उसकी इच्छा पर और न ही उसकी मनपसंद शर्तों पर आधारित होता है, बल्कि उन ऐतिहासिक तथा संरचनात्मक स्थिति की उन बाध्यताओं और संभावनाओं के अन्तर्गत होता है, जहाँ वह जीवन-यापन कर रहा है। सामाजिक संरचना के अन्तर्गत व्यक्ति समाज स्वीकृत आदर्शों और मूल्यों का पालन करते हुए, प्रस्थितियों के अनुरूप अपनी भूमिकाएँ करने के लिए स्वतंत्र होता है। 

प्रश्न 7. 
समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति उसकी व्यक्तिगत रुचियों को किस सीमा तक निर्धारित करती है?
उत्तर:
सामाजिक संरचना में सामाजिक व्यवहार के निश्चित प्रतिमान निहित होते हैं। सामाजिक स्तरीकरण सामाजिक-संरचना के एक भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है। असमानता के ये प्रतिमान व्यवस्थित रूप से विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूहों की सदस्यता से जुड़े होते हैं, जो व्यक्तियों की भिन्नभिन्न प्रस्थितियों को निर्धारित करते हैं। समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति के अनुरूप भूमिकाएँ करता है। प्रस्थितियाँ उसकी व्यक्तिगत रुचियों को भी काफी सीमा तक निर्धारित करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि वह उच्च प्रस्थिति में है तो उसका यह प्रयत्न होता है कि उसकी विशेषाधिकृत स्थिति उसके बच्चों को मिल जाये। 

प्रश्न 8. 
स्पष्ट कीजिये कि सामाजिक पुनरुत्पादन और सामाजिक संरचना परस्पर जुड़े हुए हैं?
उत्तर:
सामाजिक संरचना और सामाजिक पुनरुत्पादन में सम्बन्ध-सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों से बनती है। जो पक्ष इन्हें नियमितता प्रदान करता है, वह है-  अलग-अलग काल अवधि एवं भिन्नभिन्न स्थानों में इन क्रियाओं एवं सम्बन्धों का लगातार दोहराया जाना। अतः सामाजिक विश्लेषण की प्रक्रिया में सामाजिक पुनरुत्पादन तथा सामाजिक संरचना एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, एक विद्यालय की संरचना को लेते हैं। विद्यालय में कुछ विशिष्ट प्रकार के क्रियाकलाप वर्षों से दोहराए जाते हैं, जो आगे चलकर संस्थाएँ बनते हैं, जैसे-विद्यालय में दाखिले के तरीके, आचरण सम्बन्धी नियम, वार्षिकोत्सव, प्रातः कालीन सभा और कहीं-कहीं विद्यालयी गीत। विद्यालय से पुराने विद्यार्थियों का चले जाना एवं इनके स्थान पर नए सदस्यों का प्रवेश होता रहता है और यह संस्था चलती रहती है। साथ ही विद्यालय के अन्दर परिवर्तन होते रहते हैं। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक पुनरुत्पादन और सामाजिक संरचना एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मनुष्य विद्यालय में प्रतिदिन विभिन्न स्तरों पर पुर्रचना के लिए सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष करते रहते हैं।

प्रश्न 9. 
सामाजिक स्तरीकरण से क्या आशय है? इसके प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण से आशय-सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है, भौतिक अथवा प्रतीकात्मक पुरस्कारों की पहुँच से है। सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है और यह असमानता व्यवस्थित रूप से विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूहों की सदस्यता से जुड़ी हुई है। सामाजिक स्तरीकरण के आधार-आधुनिक समाजों में स्तरीकरण का सर्वाधिक प्रचलित आधार वर्ग है। इसके अतिरिक्त प्रजाति, जाति, क्षेत्र, समुदाय, जनजाति, लिंग आदि भी सामाजिक स्तरीकरण के आधार रहे हैं।

प्रश्न 10. 
लाभ के उन प्रकारों को स्पष्ट कीजिये, जिनका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा उपभोग किया जाता है?
उत्तर:
लाभ के प्रकार-लाभ के निम्नलिखित तीन बुनियादी प्रकार हैं, जिनका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा 'उपभोग किया जाता है-
(1) जीवन अवसर-वे सभी भौतिक लाभ जो प्राप्तकर्ता के जीवन की गुणवत्ता को सुधारते हैं उनमें न केवल सम्पत्ति तथा आय जैसे आर्थिक लाभों को ही शामिल किया जाता है; बल्कि अन्य सुविधाओं; जैसे-स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा और मनोरंजन को भी शामिल किया जाता है।

(2) सामाजिक प्रस्थिति-मान-सम्मान तथा समाज के अन्य व्यक्तियों की नजरों में उच्च स्थान ।

(3) राजनैतिक प्रभाव-एक समूह द्वारा दूसरे समूह अथवा समूहों पर प्रभुत्व जमाना अथवा निर्णय निर्धारण में प्रमाणाधिक्य प्रभाव या निर्णयों से अत्यधिक लाभ उठाना।

प्रश्न 11. 
समाजशास्त्र में सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने के प्रकार्यवादी परिश्रम को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य-
(1) प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य इस तथ्य पर आधारित है कि समाज के विभिन्न भागों का एक प्रकार्य अथवा भूमिका होती है, जो सम्पूर्ण समाज की प्रकार्यात्मकता के लिए जरूरी होती है। इस संदर्भ में सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष को प्रत्येक समाज की सार्वभौमिक विशेषता के रूप में देखा जा सकता है, जो समाज में रहने तथा इच्छा पूर्ति करने वाले विभिन्न व्यक्तियों की अनिवार्य अन्तः क्रियाओं का परिणाम है।

(2) इस परिप्रेक्ष्य का मुख्य जोर व्यवस्था को बनाए रखने पर है, इसलिए प्रतियोगिता तथा संघर्ष अधिकतर स्थितियों में बिना ज्यादा हानि एवं कष्ट के सुलझ जाते हैं तथा साथ ही ये समाज की भी विभिन्न प्रकार से मदद करते हैं।

(3) इस परिप्रेक्ष्य के प्रमुख प्रतिपादक एमिल दुर्थीम हैं। ये समाज की भी विभिन्न प्रकार से मदद करते हैं। 

प्रश्न 12. 
समाजशास्त्र में सामाजिक प्रक्रियाओं के समझने के संघर्ष परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट कीजिये। उत्तर-संघर्ष परिप्रेक्ष्य-संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में इस बात पर बल दिया गया है कि
(1) सहयोग के प्रकारों ने एक ऐतिहासिक समाज को दूसरे ऐतिहासिक समाज में परिवर्तित किया है। उदाहरण के लिए, सामान्यतः सरल समाजों में जहाँ अतिरिक्त उत्पादन नहीं होता था, वहाँ व्यक्तियों तथा समूहों में आपसी सहयोग था और वे वर्ग, जाति अथवा प्रजाति में नहीं बंटे थे। लेकिन जिस समाज में अतिरिक्त उत्पादन होता था, वहाँ प्रभावशाली वर्ग का अतिरिक्त उत्पादन पर अधिकार होता था और सहयोग भी संभावित संघर्ष तथा प्रतियोगिता से जुड़ा होता है।

(2) समूहों तथा व्यक्तियों का स्थान उत्पादन प्रणाली के सम्बन्धों में भिन्न तथा असमान होता है। जैसेकारखाने के मालिक तथा मजदूर अपने प्रतिदिन के कार्यों में सहयोग करते हैं, परन्तु कुछ हद तक उनके हितों में संघर्ष उनके सम्बन्धों को परिभाषित करते हैं।

(3) जहाँ समाज जाति, वर्ग अथवा पितृसत्ता के आधार पर बंटा होता है, वहीं कुछ समूह सुविधायुक्त हैं तथा एक-दूसरे के प्रति भेदभावमूलक स्थिति बरतते हैं। प्रभावशाली समूहों में यह सुविधामयी स्थिति सांस्कृतिक मानदण्डों, जबरदस्ती अथवा हिंसा द्वारा भी उत्पन्न की जाती है।

(4) समाजशास्त्र में संघर्ष परिप्रेक्ष्य के प्रमुख प्रतिपादक कार्ल मार्क्स हैं।

प्रश्न 13. 
समाजशास्त्र में प्रक्रियाओं को समझने के प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य और संघर्ष परिप्रेक्ष्य के अन्तर को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समाजशास्त्र में प्रक्रियाओं को समझने के दो परिप्रेक्ष्य हैं-

  1. प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य और 
  2. संघर्ष परिप्रेक्ष्य ।

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ये दोनों परिप्रेक्ष्य यह मानकर चलते हैं कि मनुष्यों को अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग करना पड़ता है तथा अपने और अपनी दुनिया के लिए उत्पादन और पुनः उत्पादन करना पड़ता है। दोनों परिप्रेक्ष्यों

की इस मौलिक समानता के बावजूद दोनों संदर्भ सहयोग, प्रतियोगिता और संघर्ष की प्रक्रियाओं को थोड़ा हटकर समझना चाहते हैं। इन दोनों में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं
(1) प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य के प्रमुख प्रतिपादक एमिल दुर्थीम हैं, तो संघर्ष परिप्रेक्ष्य के प्रमुख प्रतिपादक कार्ल मार्क्स हैं।

(2) प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य प्रक्रियाओं के प्रकार्यों को समाज की सम्पूर्णता के रूप में समझाता है, जबकि संघर्ष परिप्रेक्ष्य इन प्रक्रियाओं के प्रकार्यों को उस संदर्भ में समझाता है, जहाँ 
प्रभावशाली समूहों द्वारा समाज को नियंत्रित किया जाता है।

(3) प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य का मुख्य बल व्यवस्था को बनाए रखने पर है। इसलिए प्रतियोगिता तथा संघर्ष को भी वह इस दृष्टि से देखता है कि ये समाज की विभिन्न प्रकार से मदद करते हैं संघर्ष परिप्रेक्ष्य का प्रमुख जोर सामाजिक परिवर्तन से है और वर्गीय संघर्ष से है, जो सुविधायुक्त या प्रभावशाली लोग मानदण्डों, जबरदस्ती तथा हिंसा के द्वारा अपनी सुविधाजनक स्थिति को बनाए रखना चाहते हैं, लेकिन सुविधावंचित वर्ग वर्गीय चेतना के द्वारा इसमें परिवर्तन लाना चाहता है। संघर्ष व प्रतियोगिता इसी के परिणाम हैं, जिसकी अन्तिम परिणति व्यवस्था के परिवर्तन में होती है। 

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
सामाजिक प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार की सामाजिक प्रक्रियाओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक प्रक्रिया का अर्थ तथा परिभाषा-एक व्यक्ति या समूह की दूसरे व्यक्ति या समूह के साथ अन्तः क्रिया होती है। यह अन्तः क्रिया सहयोग, संघर्ष, प्रतियोगिता आदि किसी भी रूप में हो सकती है। अन्तः क्रिया के इन विभिन्न स्वरूपों को ही सामाजिक प्रक्रिया कहते हैं। जब अन्तः क्रिया में निरन्तरता पायी जाती है और साथ ही जब वह किसी निश्चित परिणाम की ओर बढ़ती है तो ऐसी अन्तः क्रिया सामाजिक प्रक्रिया के नाम से जानी जाती है। पाल बी. हर्टन व चेस्टर ए. हट के शब्दों में, "सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक जीवन में पाये जाने वाले व्यवहारों की पुनरावृत्ति अथवा अन्तः क्रिया है।" - सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रकार सामाजिक प्रक्रियाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है
(1) सहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियायें-इसके अन्तर्गत सहयोग, समायोजन, समन्वय, अनुकूलन, एकीकरण व आत्मीकरण आते हैं। इन प्रक्रियाओं से सामाजिक एकता मजबूत होती है।

(2) असहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियायें-इसके अन्तर्गत प्रतियोगिता, संघर्ष व अन्तर्विरोध आते हैं। इन प्रक्रियाओं का दीर्घकालीन अनियंत्रित प्रभाव समाज को विघटित करता है। .. मोटे रूप से सामाजिक प्रक्रियाओं को तीन प्रमुख प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। ये हैं-

  1. सहयोग 
  2. प्रतियोगिता और 
  3. संघर्ष। यथा

(1) सहयोग-सहयोग का अर्थ है-साथ-साथ कार्य करना, मिलकर कार्य करना। सहयोग का विचार मानव व्यवहार की कुछ मान्यताओं पर आधारित है। यथा-

  • मनुष्य के सहयोग के बिना मानव-जाति का अस्तित्व कठिन हो जायेगा। यह सामाजिक जीवन का मूल आधार है।
  • बिना सहयोग के किसी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। 
  • हमारी विभिन्न आवश्यकताएँ हमें परस्पर सहयोग करने के लिए प्रेरित करती हैं। 

समाजशास्त्र में दुर्थीम ने प्रकार्यवादी संदर्भ में तथा मार्क्स ने संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में सहयोग की प्रक्रिया की अलगअलग ढंग से व्याख्या की है। दुर्थीम परार्थवाद तथा एकता को मानव-समाज का विशिष्ट लक्षण मानते हैं और सहयोग को समझने के लिए यह बुनियादी अवयव है। श्रम-विभाजन में निहित सहयोग समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता मार्क्स व्यक्ति के चेतना पर अधिक बल देते हुए कहते हैं कि मनुष्य केवल सहयोग के लिए ही समायोजन तथा सामञ्जस्य नहीं करते; बल्कि वे सहयोग की प्रक्रिया में समाज को बदलते भी हैं। मार्क्स के अनुसार ऐसे समाज में जहाँ वर्ग विद्यमान हैं, वहाँ स्वैच्छिक सहयोग नहीं होता, बल्कि ऐसे.समाजों सहयोग आरोपित होता है। यह व्यक्तियों की सम्मिलित ताकत का परिणाम न होकर एक अनजान ताकत का परिणाम है, जो उनके बाहर स्थित है।

(2) प्रतियोगिता-प्रतियोगिता एक असहयोगात्मक प्रक्रिया है; क्योंकि प्रतियोगियों में कम या अधिक मात्रा में एक-दूसरे के प्रति कुछ ईर्ष्या-द्वेष के भाव पाये जाते हैं। प्रत्येक दूसरों को पीछे रखकर स्वयं आगे बढ़ना चाहता है, अपने उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है। समकालीन विश्व में प्रतियोगिता विश्वव्यापी है। अधिकतर यह समझना कठिन है कि कहीं ऐसा समाज हो सकता है जहाँ प्रतियोगिता एक मार्गदर्शक ताकत न हो। समाजशास्त्रीय दृष्टि से प्रतियोगिता व्यक्ति या समाज की एक स्वाभाविक वृत्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। दुर्थीम तथा मार्क्स ने आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद तथा प्रतियोगिता के विकास को एक साथ देखा है। पूँजीवादी समाज में व्यक्तिवाद को प्रमुख बल दिया गया है।

अतः प्रतियोगिता की विचारधारा पूँजीवादी समाज की सशक्त विचारधारा है। इसीलिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था के अत्यन्त तीव्र गति से विवाह को वहाँ प्रतियोगिता की अधिकतम उपस्थिति के गुण के रूप में देखा जा सकता है। फिर भी समाजशास्त्री प्रतियोगिता की भावना की तीव्रता को विभिन्न समाजों में आर्थिक विकास की दर के साथ सकारात्मक सहसम्बन्ध के रूप में नहीं देखते हैं अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और प्रतियोगिता में वृद्धि में सकारात्मक सह-सम्बन्ध हो। अनियंत्रित एवं अनुचित साधनों के प्रयोग से प्रतियोगिता संघर्ष एवं सामाजिक विघटन को बढ़ावा भी देती है।

(3) संघर्ष-संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट। संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है। संघर्ष के आधार भिन्न-भिन्न होते हैं। इनमें प्रमुख हैं वर्ग, जाति, जनजाति, लिंग, नृजातीयता, साम्प्रदायिकता आदि। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहे हैं। परन्तु संघर्ष प्रत्येक समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव रहा है।

सामाजिक परिवर्तन तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधा वंचित तथा भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा हक जताना संघर्षों को और उभारता है। संघर्ष प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में पाया जाता है। जब संघर्ष प्रत्यक्ष झड़प के रूप में खुलकर प्रकट होते हैं, उन्हें प्रत्यक्ष संघर्ष कहा जाता है और संघर्ष प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषित नहीं किया जाता। जैसे-परिवार में महिलाओं ने विस्तृत मानक बाध्यताओं के कारण अपने-आपको प्रत्यक्ष झड़प या खुलकर संघर्ष से अलग रखा है और समायोजन किया

प्रश्न 2. 
सहयोग की प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं? सहयोग की संघर्ष तथा प्रकार्यात्मक व्याख्या को स्पष्ट कीजिये।
अथवा 
सहयोग की प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं? सहयोग की प्रक्रिया पर दुर्थीम और मार्क्स के विचारों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
सहयोग का अर्थ-सहयोग शब्द अंग्रेजी के co-operation का हिन्दी अनुवाद है। 'कोऑपरेशन' शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों 'को' अर्थात् 'साथ-साथ' तथा 'ऑपेरी' अर्थात् 'कार्य' से व्युत्पन्न हुआ है। इस प्रकार सहयोग (कोऑपरेशन) का अर्थ हुआ है-'साथ-साथ कार्य करना।' यह एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है। सहयोग की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
(1) प्रो. ग्रीन के अनुसार, "सहयोग दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी कार्य को करने या किसी समान इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला निरन्तर एवं सामूहिक प्रयत्न है।"

(2) प्रो. डेविस के अनुसार, "एक सहयोगी समूह वह है, जो एक ऐसे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मिलजुलकर कार्य करता है, जिसको सभी चाहते हैं।"
(अ) सहयोग की प्रकार्यात्मक व्याख्या-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य इस तथ्य पर आधारित है कि समाज के विभिन्न भागों का एक प्रकार्य या भूमिका होती है, जो सम्पूर्ण समाज की प्रकार्यात्मकता अर्थात् समाज व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरूरी होती है। इस संदर्भ में सहयोग को प्रत्येक समाज की सार्वभौमिक विशेषता के रूप में देखा जा सकता है, जो समाज में रहने तथा इच्छा पूर्ति करने वाले विभिन्न व्यक्तियों की अनिवार्य अन्तः क्रिया का परिणाम है। दुःम के मत में परार्थवाद और एकता समाज का नैतिक बल है तथा सहयोग को समझने के लिए यह परार्थवाद और एकता बुनियादी तत्व है। श्रम विभाजन की भूमिका जिसमें सहयोग निहित है, यथार्थ रूप से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। मनुष्य के सहयोग के बिना मानव जाति का अस्तित्व कठिन हो जायेगा।
दुर्शीम ने समाज को दो भागों में विभाजित किया है-

  1. पूर्व औद्योगिक समाज और 
  2. जटिल औद्योगिक समाज।

(1) पूर्व औद्योगिक समाज में यांत्रिक एकता थी और इस यांत्रिक एकता के कारण लोग साथ-साथ मिलजुल कार्य करते थे। इस समाज के अधिकांश सदस्य एक जैसा जीवन व्यतीत करते हैं, श्रम-विभाजन या विशिष्टता कम-से-कम है। समाज के सदस्य परस्पर अपनी मान्यताओं, अंतर विवेक तथा चेतना से जुड़े होते हैं।

(2) जटिल औद्योगिक समाज में सावयवी एकता पाई जाती है। यह एकता श्रम विभाजन पर आधारित है। इसके फलस्वरूप समाज के सदस्यों में सह-निर्भरता है। जैसे-जैसे व्यक्ति विशिष्टता हासिल करता है, वैसे-वैसे दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है। औद्योगिक समाज में रहने वाले व्यक्ति अन्य दूसरे लोगों के सहयोग के बिना जीवित नहीं रह सकते। अतः प्रकार्यवादी दृष्टिकोण से सहयोग वह सामाजिक प्रक्रिया है, जो समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है। समाज-व्यवस्था को बनाए रखने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

(ब) सहयोग का संघर्ष परिप्रेक्ष्य-मार्क्स ने संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में सहयोग की व्याख्या की है। - मार्क्स के अनुसार ऐसे समाज में जहाँ वर्ग विद्यमान हैं, वहाँ सहयोग स्वैच्छिक न होकर आरोपित होता है। उनका तर्क है कि, "सामाजिक शक्ति अर्थात् बहुस्तरीय उत्पादक शक्तियाँ, जिनका उद्भव विभिन्न व्यक्तियों के सहयोग तथा श्रम विभाजन द्वारा होता है, इन व्यक्तियों को लगता है कि उनका सहयोग स्वैच्छिक न होकर अस्वाभाविक होता है, वह स्वयं की सम्मिलित ताकत का परिणाम न होकर एक अनजान ताकत का परिणाम है, जो उनके बाहर स्थित है।"

मार्क्स ने 'अलगाव' के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि औद्योगिक समाज में उत्पादन कारखानों में होता है। उत्पादन करने वाले मजदूर का अपने कार्य को अपने ढंग व्यवस्थित करने अधिकारी नहीं होता है। इस प्रकार उत्पादन के श्रम पर उसका नियंत्रण नहीं रहता। फलतः उमसें सृजनात्मक के भाव का अभाव आ जाता है। अतः उत्पादन कार्य में उसका सहयोग स्वैच्छिक न होकर आरोपित होता है।

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प्रश्न 3. 
प्रतियोगिता की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्रतियोगिता का अर्थ-प्रतियोगिता एक असहयोगी सामाजिक प्रक्रिया है; क्योंकि प्रतियोगिता में कम या अधिक मात्रा में एक-दूसरे के प्रति कुछ ईर्ष्या-द्वेष के भाव पाये जाते हैं। प्रतिस्पर्धा में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ नियम, प्रथा या परम्पराएँ होती हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य होता है। यह हिंसा रहित विरोधात्मक प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति अथवा समूह कुछ निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक दूसरे से आगे बढ़ने की चेष्टा करते हैं। इसकी कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं बोगार्ड्स के अनुसार, "प्रतियोगिता किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए होड़ है जो कि इतनी मात्रा में नहीं पायी जाती है कि उसकी माँग को पर्याप्त रूप से पूरा किया जा सके।"

हार्टन तथा हंट के शब्दों में, "किसी भी पुरस्कार को प्रतिद्वन्द्वियों से प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रतियोगिता है।" सदरलैंड, वुडवर्ड तथा मैक्सवेल के अनुसार, "प्रतियोगिता कुछ व्यक्तियों तथा समूहों के बीच उन संतुष्टियों को प्राप्त करने के लिए होने वाला अवैयक्तिक, अचेतन तथा निरन्तर संघर्ष है, जिनकी पूर्ति सीमित होने के कारण उन्हें सभी व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकते।" प्रतिस्पर्धा (प्रतियोगिता) की विशेषताएँ प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताओं को अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

  1. दो या अधिक व्यक्तियों या समूहों के बीच-प्रतियोगिता दो या दो से अधिक व्यक्तियों या समूहों के बीच सीमित वस्तु, अधिकार या सेवा, जिसकी पूर्ति मांग की तुलना में कम है, की प्राप्ति का प्रयत्न है।
  2. तीसरे पक्ष की आवश्यकता-प्रतियोगिता में किसी तीसरे पक्ष का होना आवश्यक है, जिसके समर्थन को प्राप्त करने का प्रयत्न दोनों पक्षों द्वारा किया जाता है। परीक्षार्थियों के लिए परीक्षक तीसरा पक्ष है।
  3. अवैयक्तिक प्रक्रिया-प्रतियोगिता सामान्यतः एक अवैयक्तिक प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति का स्थान गौण एवं उद्देश्य प्राप्ति का लक्ष्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
  4. अचेतन प्रक्रिया-प्रतियोगिता सामान्यतः एक अचेतन प्रक्रिया है। प्रतियोगी प्रायः एक दूसरे के प्रयत्नों के प्रति अनभिज्ञ होते हुए भी इस प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं।
  5. निरन्तर प्रक्रिया-प्रतियोगिता एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हर समय पायी जाती है।
  6. सार्वभौमिक प्रक्रिया-प्रतियोगिता एक सार्वभौमिक तथा विश्वव्यापी प्रक्रिया है। यह सभी समाजों में हमेशा विद्यमान रही है।
  7. अन्य विशेषताएँ-
  • परम्परागत सरल एवं स्थिर समाजों की तुलना में आधुनिक जटिल एवं गतिशील समाजों में प्रतियोगिता अधिक प्रभावी है। 
  • समकालीन विश्व में प्रतियोगिता एक प्रमुख मानदण्ड तथा परिपाटी है। यह पूँजीवाद की सशक्त विचारधारा है।

सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रतियोगिता की अवधारणा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रतियोगिता को एक सामाजिक तथ्य के रूप में समझा जाता है, जिसका समाज में उद्भव हुआ है तथा एक निश्चित ऐतिहासिक समय में यह प्रभावी रही है। समकालीन विश्व में प्रतियोगिता प्रत्येक समाज में विद्यमान है तथा एक मार्गदर्शक ताकत बनी हुई है। लेकिन समाजशास्त्रीय दृष्टि से प्रतियोगिता मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं मानी जाती है, बल्कि इसका उद्भव समाज में हुआ है।

(1) प्रतियोगिता व्यक्तिवाद की सहचरी के रूप में-शास्त्रीय समाजशास्त्रियों जैसे-दुर्थीम और कार्ल मार्क्स ने आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद तथा प्रतियोगिता के विकास को एक साथ पाया है।

(2) प्रतियोगिता की विचारधारा पूँजीवाद की सशक्त विचारधारा के रूप में-आधुनिक पूँजीवादी समाज जिस प्रकार कार्य करते हैं, वहाँ दोनों का एक साथ विकास स्वाभाविक है । पूँजीवाद में अत्यधिक कार्यकुशलता तथा लाभ के कमाने पर बल दिया जाता है। पूँजीवाद की मौलिक मान्यताएँ हैं

  • व्यापार का विस्तार 
  • श्रम विभाजन 
  • विशेषीकरण और 
  • बढ़ती उत्पादकता।

ये प्रक्रियायें पूँजीवाद के केन्द्रीय विचार से बढ़ावा प्राप्त करती हैं। बाजार में विद्यमान मुक्त प्रतियोगिता में तार्किक व्यक्ति अपने लाभों को अधिक बढ़ाने की कोशिश में लगा रहता है। पूँजीवादी विचारधारा का तर्क है कि बाजार इस प्रकार से कार्य करता है कि अधिकतम कार्यकुशलता सुनिश्चित हो सके। इस प्रकार प्रतियोगिता पूँजीवाद के जन्म के साथ प्रबल इच्छा के रूप में फली-फूली है।

(3) प्रतियोगिता का गुण : आर्थिक विकास-यद्यपि प्रतियोगिता आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने में यूरोप तथा .अमेरिका में आवश्यक रही है, तथापि इसे सभी समाजों के विकास में सकारात्मक सह-सम्बन्ध के रूप में नहीं पाया गया है।

(4) प्रतियोगिता का दुष्प्रभाव-प्रतियोगिता की विचारधारा यह मानकर चलती है कि व्यक्ति बराबरी के स्तर पर प्रतियोगिता करता है। लेकिन स्तरीकरण अथवा असमानता में व्यक्ति को समाज में भिन्न प्रकार से अवस्थित किया गया है, जिसके चलते काफी लोग हमेशा के लिए प्रतियोगिता से बाहर हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में काफी बच्चे या तो स्कूल में प्रवेश नहीं ले पाते हैं या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, ऐसी स्थिति में वे हमेशा के लिए प्रतियोगिता से बाहर हो जाते हैं तथा उनका विकास रुक जाता है।

प्रश्न 4.
संघर्ष की प्रक्रिया से क्या आशय है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
संघर्ष का अर्थ-संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट। जब कोई व्यक्ति या समूह अपने किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विरोधी को नुकसान पहुंचाने, नष्ट करने या उसके कार्य में बाधा डालने का प्रयत्न करता है, तो इसे संघर्ष के नाम से पुकारा जाता है। ऐसे प्रयत्न में शक्ति, हिंसा या विरोध का सहारा लिया जाता है।

संघर्ष की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, "संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अथवा समूह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति, विरोधी को प्रत्यक्ष हिंसा या हिंसक चुनौती देकर करते हैं।"
  2. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, "सामाजिक संघर्ष में वे सभी क्रिया कलाप सम्मिलित हैं, जिनमें मनुष्य किसी भी उद्देश्य के लिए एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते या विवाद करते हैं।"

संघर्ष की विशेषताएँ उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर संघर्ष की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं

  1. दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य संघर्ष-संघर्ष के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों अथवा समूहों का होना आवश्यक है, जो एक-दूसरे के हितों को हिंसा, हिंसा की धमकी, आक्रमण, विरोध या उत्पीड़न से चोट पहुँचाने की कोशिश करते हैं।
  2. चेतन प्रक्रिया-संघर्ष एक चेतन प्रक्रिया है जिसमें संघर्षरत व्यक्तियों या समूहों को एक दूसरे की गतिविधियों का ध्यान रहता है। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के साथ-साथ विरोधी को मार्ग से हटाने का भी प्रयत्न करते हैं।
  3. वैयक्तिक प्रक्रिया-संघर्ष एक वैयक्तिक प्रक्रिया है अर्थात् इसमें ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित न होकर प्रतिद्वन्द्वियों पर केन्द्रित होता है। प्रतिद्वन्द्वी एक-दूसरे को भली-भाँति जानते हैं।
  4. अनिरन्तर प्रक्रिया-संघर्ष एक अनिरन्तर प्रक्रिया है अर्थात् संघर्ष सदैव नहीं चलता रहता बल्कि रुक-रुक कर चलता है; क्योंकि संघर्ष के लिए शक्ति और अन्य साधन जुटाने पड़ते हैं, जो किसी भी व्यक्ति या समूह के पास असीमित मात्रा में नहीं पाये जाते।
  5. सार्वभौमिक प्रक्रिया-संघर्ष एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। यह किसी न किसी रूप में प्रत्येक समाज और प्रत्येक काल में कम या अधिक मात्रा में अवश्य पाया जाता है। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहे हैं। परन्तु संघर्ष किसी भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव से रहा है।
  6. दूसरे पक्ष को नियंत्रित करना-संघर्ष की प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य दूसरे पक्ष को सीमित, नियंत्रित अथवा पूर्णतया समाप्त करना होता है।
  7. सामाजिक शक्ति की प्राप्ति से सम्बन्धित-संघर्ष का सम्बन्ध हमेशा सामाजिक शक्ति की प्राप्ति अथवा उसके उपयोग से है।

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प्रश्न 5. 
संघर्ष के कारणों तथा परिणामों को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
संघर्ष के कारण-संघर्ष के कारणों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(1) संसाधनों की कमी-संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है।

(2) वर्ग, जाति, जन जाति, लिंग, नृजातीयता, धार्मिक समुदाय के आधार पर समाज में असमानता व स्तरीकरण-जहाँ समाज जाति, वर्ग अथवा पितृसत्ता के आधार पर बंटा होता है, वहीं कुछ समूह सुविधायुक्त तथा कुछ समूह सुविधा वंचित हो जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रति भेदभावमूलक स्थिति बरतते हैं। इसे बनाए रखने के लिए सुविधा सम्पन्न प्रभावशाली समूह सांस्कृतिक मानदण्डों तथा हिंसा, जोर- जबरदस्ती द्वारा इसे बनाए रखने का प्रयास करते हैं। इससे समाज में संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है।

(3) अधिकारों की चेतना और माँग-सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति और रूप सदैव परिवर्तित रहे हैं। सामाजिक परिवर्तन और लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधा वंचित और भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा जब अपना हक जताया जाता है, तो संघर्षों में तेजी आ जाती है।

संघर्ष की प्रक्रिया के परिणाम-
संघर्ष के परिणामों के सम्बन्ध में प्रकार्यवादियों और संघर्ष अवधारणा के विचारकों में मतभेद हैं
1. प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य के अनुसार संघर्ष के प्रकायों को समाज की सम्पूर्णता के रूप में समझाता है। उसका मुख्य उद्देश्य समाज में व्यवस्था की आवश्यकता' से है। उसका मुख्य उद्देश्य समाज में 'व्यवस्था की आवश्यकता' से है। इसके अनुसार समाज के विभिन्न भागों का एक प्रकार्य अथवा भूमिका होती है, जो सम्पूर्ण समाज की प्रकार्यात्मकता के लिए जरूरी होती है। इस संदर्भ में संघर्ष को प्रत्येक समाज की एक सार्वभौमिक विशेषता के रूप में देखा जाता है, जो समाज में रहने तथा इच्छा पूर्ति करने वाले विभिन्न व्यक्तियों की अन्तः क्रियाओं का परिणाम है। चूँकि इस परिप्रेक्ष्य का लक्ष्य व्यवस्था को बनाए रखना है। इस दृष्टि से संघर्ष को इस दृष्टि से समझा जाता है कि अधिकतर स्थितियों में ये बिना ज्यादा हानि एवं कष्ट के सुलझ जाते हैं तथा साथ ही ये समाज की भी विभिन्न प्रकार से मदद करते हैं । यथा

(1) अन्तःसमूह की दृढ़ता-संघर्ष एक ओर जहाँ कुछ सम्बन्धों को भंग करता है, वहीं दूसरी ओर यह समाज में एकता को भी बढ़ाता है। उदाहरण के लिए, परिवार और दम्पत्तियों के बीच की आंतरिक कटुता और विरोध के बावजूद बाह्य विवाद की स्थिति में उन्हें आपस में जोड़े रहते हैं । युद्ध की स्थिति में देश के लोग आपसी मतभेदों को भुलाकर एकजुट होकर शत्रु देश का मुकाबला करते हैं।

(2) सामाजिक जीवन के विकास में सहायक-लेविस कोजर ने संघर्ष के प्रकार्यात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए कहा है कि संघर्ष सामाजिक जीवन के विकास में सहायक है। संघर्ष सम्बन्धों की निरन्तरता और स्थायित्व की दृष्टि से लाभदायक होता है। अन्य समूह से संघर्ष के समय समूह की आन्तरिक एकता बढ़ जाती है, जिसमें दृढ़ता आ जाने से आन्तरिक विघटन को रोकने, व्यवस्था को कायम रखने, समाज को नियंत्रित करने और आचरण सम्बन्धी नियमों की स्थापना करने में भी संघर्ष सहायक होता है।

(3) शक्ति संतुलन में सहायक-कोजर का मानना है कि शक्ति सन्तुलन में भी संघर्ष की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। संघर्ष की परिस्थिति नये मित्रों तथा सहयोगियों की खोज के लिए अवसर प्रदान करती है। दूसरे समूहों से संघर्ष करने वाले समूह अपने अस्तित्व के लिए निरन्तर सजग व जागरूक रहते हैं।

(4) समूह के संरक्षण व एकीकरण में सहायक-संघर्ष समूह के संरक्षण व एकीकरण में सहायक होता है। विघटनकारी तत्वों से बचने के लिए समूह ऐसे संघर्षों को प्रोत्साहन दे सकता है, जो एकीकरण में सहायक हैं।

2. संघर्ष परिप्रेक्ष्य-कार्ल मार्क्स ने संघर्ष परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य से भिन्न संघर्ष की प्रक्रिया की व्याख्या की है। संघर्ष परिप्रेक्ष्य का मुख्य लक्ष्य व्यवस्था में परिवर्तन लाना है। उसके अनुसार जब समाज में अतिरिक्त उत्पादन पर प्रभावशाली समूह ने अपना अधिकार जमा लिया, तो समाज में असमानता बढ़ गयी। समाज में दो वर्ग पैदा हो गए। एक सुविधा सम्पन्न वर्ग और दूसरा सुविधाहीन वर्ग। सुविधा सम्पन्न वर्ग का उत्पादन के साधनों पर अधिकार हो गया। इस प्रकार सुविधा सम्पन्न वर्ग सुविधावंचित वर्ग का शोषण करने लगा। इस शोषण के विरोध में चेतना उत्पन्न होने पर सुविधांवंचित वर्ग ने एकजुट होकर अपने हक की मांग की। यही से संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस संघर्ष के निम्नलिखित नकारात्मक परिणाम निकलते हैं ।
(1) सामाजिक व्यवस्था का विघटन-संघर्ष वर्तमान शोषण मूलक सामाजिक व्यवस्था का विघटन करता है तथा सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर होता है।

(2) सामूहिक एकता का विघटन-संघर्ष से सामाजिक एकता विघटित हो जाती है। वैवाहिक संघर्ष कई परिवारों को नष्ट एवं विघटित कर देता है। औद्योगिक संघर्ष में उद्योगपति और मजदूर दोनों को हानि उठानी पड़ती है। धार्मिक संघर्ष समुदायों की एकता की भावना को ठेस पहुंचाता है।

(3) समूह का विघटन-समूह के आन्तरिक संघर्ष से समूह का विघटन होता है। 

प्रश्न 6. 
सामाजिक संरचना किसे कहते हैं? इसके विभिन्न तत्वों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक संरचना का अर्थ-'सामाजिक संरचना' शब्द इस तथ्य को दर्शाता है कि समाज संरचनात्मक है अर्थात् अपने विशिष्ट रूप में वह क्रमवार तथा नियमित है। समाज में लोगों के आचरण तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों में एक प्रकार की अन्तर्निहित नियमितता होती है। सामाजिक संरचना की संकल्पना इन्हीं नियमितताओं को इंगित करती है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक संरचना का तात्पर्य उन विभिन्न पद्धतियों से है जिनके अन्तर्गत सामूहिक नियमों, भूमिकाओं तथा कार्यों के साथ एक स्थिर प्रतिमान संगठित होता है। अतः सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों से बनती है, जो पक्ष इन्हें नियमितता प्रदान करता है, वह है-अलग-अलग काल अवधि में एवं भिन्न-भिन्न स्थानों में इन क्रियाओं एवं सम्बन्धों का लगातार दोहराया जाना। सामाजिक संरचना की तुलना एक भवन से की जा सकती है। एक भवन के अन्तर्गत निम्नलिखित तीन तत्व पाए जाते हैं

  • भवन निर्माण सामग्री, जैसे-ईंटें, गारा, बीम तथा स्तंभ। 
  • इन सभी को एक निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है तथा एक-दूसरे से मिलाकर रखा जाता है। 
  • भवन सामग्री के इन सब तत्वों को मिलाकर भवन का निर्माण एक इकाई के रूप में किया जाता है। 

इसी प्रकार सामाजिक संरचना का निर्माण निम्नलिखित तत्वों से मिलकर होता है-

  • स्त्री, पुरुष, बच्चे, अनेक प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह।
  • समाज के विभिन्न अंगों में अन्तर्सम्बन्ध जैसे-पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध, माता-पिता तथा बच्चों के बीच सम्बन्ध तथा विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सम्बन्ध।
  • समाज के सभी अंगों को इस प्रकार मिला दिया जाता है कि वे एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें। 

सामाजिक संरचना की परिभाषा-सामाजिक संरचना की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं टॉलकॉट पारसन्स के अनुसार, "सामाजिक संरचना परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, अभिकरणों और सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों एवं कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते जॉनसन के शब्दों में, "किसी भी वस्तु की संरचना उसके अंगों में पाये जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अन्तः सम्बन्धों को कहते हैं ।

सामाजिक व्यवस्था के अंतः सम्बन्धित कार्यों से निर्मित होती है, इसलिए इसकी संरचना की खोज इन कार्यों में नियमितता या पुनरावृत्ति की कुछ मात्रा में की जाती हैं।" रॉबर्ट के. मर्टन के अनुसार, सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थागत प्रतिमानों के बीच पाया जाने वाला संतुलन ही सामाजिक संरचना है। सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ सामाजिक संरचना की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं
 

  1. प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं-  (i) संरचनात्मक पक्ष और  (ii) प्रकार्यात्मक पक्ष । अतः सामाजिक संरचना सामाजिक व्यवस्था का एक पक्ष है।
  2. मानव आवश्यकताएँ सामाजिक संरचना का मूल आधार हैं। 
  3. सामाजिक संरचना भूमिका तथा प्रस्थिति पर निर्भर है। 
  4. सामाजिक संरचना के मुख्य भाग हैं-समुदाय, समूह, समिति तथा संगठन।
  5. सामाजिक संरचना की प्रकृति मूल्यपरक होती है। इसके अन्तर्गत प्रथाएँ, जनरीतियाँ, मूल्य, सांस्कृतिक मापदण्ड (cultural patterms) तथा कानून आदि होते हैं।
  6. सामाजिक संरचना के मुख्य भाग-समुदाय, समूह, समिति तथा संगठन-परस्पर प्रथाओं, जनरीतियों, मूल्यों तथा कानूनों द्वारा सम्बद्ध होते हैं।
  7. सामाजिक संरचना के इन सभी भागों के अपने-अपने प्रकार्य हैं। जिनका निर्धारण सामाजिक प्रतिमानों तथा मूल्यों द्वारा होता है।

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सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व

सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) आदर्शात्मक व्यवस्था-आदर्शात्मक व्यवस्था समाज के सम्मुख कुछ आदर्शों तथा मूल्यों को प्रस्तुत करती है, जिनके अनुसार संस्थाओं तथा समितियों को अन्तः सम्बन्धित किया जाता है। व्यक्तियों द्वारा समाज स्वीकृत आदर्शों तथा मूल्यों के अनुसार अपनी भूमिकाओं को निभाया जाता है।

(2) पद-व्यवस्था-पद व्यवस्था के अन्तर्गत समाज में व्यक्तियों की प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं को निर्धारित किया जाता है।

(3) अनुज्ञा (Sanction) व्यवस्था-प्रत्येक समाज में आदर्शों तथा मूल्यों को समुचित तरीके से क्रियान्वित करने के लिए अनुज्ञा व्यवस्था होती है। इसी पर सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों का समन्वय निर्भर करता है।

(4) पूर्वानुमानित अनुक्रिया व्यवस्था-यह व्यवस्था लोगों से सामाजिक व्यवस्था में भागीदारी की मांग करती है। इसके द्वारा सामाजिक संरचना को गति मिलती है।

(5) क्रिया व्यवस्था-क्रिया-व्यवस्था के द्वारा सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने को पूर्ण किया जाता है, जो सामाजिक संरचना को आवश्यक गति भी प्रदान करता है।

प्रश्न 7. 
सामाजिक संरचना तथा सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति की कार्यप्रणाली को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संरचना और मानवीय क्रिया का सम्बन्ध-सामाजिक संरचना व्यक्ति की कार्य प्रणाली को निम्न रूपों में प्रभावित करती है-
(1) बाध्यता-समाज अपने सदस्यों की क्रियाओं पर सामाजिक प्रतिबन्ध लगाते हैं । व्यक्ति पर समाज का प्रभुत्व होता है। समाज व्यक्ति की कुल क्रियाओं से कहीं अधिक है। इसमें दृढ़ता अथवा कठोरता है, जो भौतिक पर्यावरण की संरचना के समान है। इसी आधार पर दुर्थीम ने कहा है कि सामाजिक संरचना व्यक्ति की संभावित क्रियाओं को बाध्य करती है। यह हमारी क्रियाओं को समानान्तर रूप से बाध्य करती है, इसकी सीमा तय करती है कि हम एक व्यक्ति के रूप में क्या कर सकते हैं। सामाजिक संरचना हमसे ठीक उसी तरह 'बाह्य' है, जैसे-एक कमरे की दीवारें होती हैं। कार्ल मार्क्स की सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देते हैं।

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

(2) संभावनाएँ-कार्ल मार्क्स ने सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देने के साथ ही मनुष्य की सृजनात्मकता को भी महत्त्वपूर्ण माना है, जो सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है और उसे पुनः उत्पादित भी करती है। मार्क्स ने यह तर्क दिया है कि मनुष्य इतिहास बनाता है, परन्तु वह इतिहास का निर्माण न तो अपनी इच्छानुसार और न ही अपनी मनपसन्द शर्तों पर, बल्कि उन ऐतिहासिक तथा संरचनात्मक स्थिति की उन बाध्यताओं तथा संभावनाओं के अन्तर्गत होता है, जहाँ वह जीवन-यापन कर रहा है। सामाजिक स्तरीकरण और व्यक्ति की क्रिया में सम्बन्ध - सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है।

आधुनिक समाज धन तथा शक्ति की असमानताओं के कारण पहचाने जाते हैं। आधुनिक समाज में स्तरीकरण का सर्वाधिक प्रचलित रूप वर्ग-विभाजन है। सामाजिक स्तरीकरण में असमानता कोई ऐसा अवयव नहीं है, जो समाज में विभिन्न व्यक्तियों के बीच आकस्मिक रूप से वितरित हो। यह तो व्यवस्थित रूप से विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूहों की सदस्यता से जुड़ी हुई है। स्तरीकरण में एक समूह के सदस्यों की विशेषताएँ समान होती हैं और यदि वे उच्च स्थिति में हैं, तो उनका प्रयत्न होगा कि उनकी विशेषाधिकृत स्थिति उनके बच्चों को मिल जाये।

इस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था एक निश्चित प्रतिमान के रूप में व्यक्ति के कार्यों को प्रभावित करती है। सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार, जैसे-लिंग अथवा वर्ग सामाजिक प्रक्रियाओं-सहयोग, प्रतियोगिता व संघर्ष को बाधित करते हैं। - अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति तथा वर्गों को मिलने वाले अवसर तथा संसाधन, जो प्रतियोगिता, सहयोग अथवा संघर्ष के रूप में सामने आते हैं, इन्हें सामाजिक संरचना तथा सामाजिक स्तरीकरण के द्वारा आकार दिया जाता है। साथ ही मनुष्य पूर्व स्थित संरचना तथा स्तरीकरण में परिवर्तन लाने का भी प्रयास करता है।

Prasanna
Last Updated on Sept. 13, 2022, 9:44 a.m.
Published Sept. 12, 2022