Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
वैज्ञानिक पद्धति का प्रश्न विशेषतः समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
समाजशास्त्र को एक सामाजिक विज्ञान कहा जाता है। क्योंकि अन्य सभी वैज्ञानिक विषयों की तरह समाजशास्त्र में भी पद्धतियाँ या कार्यविधियाँ महत्त्वपूर्ण हैं जिनके द्वारा ज्ञान एकत्रित होता है। अंतिम विश्लेषण में समाजशास्त्री आम व्यक्तियों से अलग होने का दावा कर सकते हैं । इसका कारण यह नहीं है कि वे कितना जानते हैं या वे क्या जानते हैं, परन्तु इसका कारण है कि वे अपने ज्ञान को कैसे प्राप्त करते हैं। यही एक कारण है कि समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति का विशेष महत्त्व है।
प्रश्न 2.
सामाजिक विज्ञान में, विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में 'वस्तुनिष्ठता' के अधिक जटिल होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:
वस्तुनिष्ठता से आशय-दैनिक जीवन की भाषा में 'वस्तुनिष्ठ' का अर्थ पूर्वाग्रह रहित, तटस्थ या केवल तथ्यों पर आधारित होता है। किसी वस्तु के बारे में वस्तुनिष्ठ होने के लिए हमें वस्तु के बारे में अपनी भावनाओं या मनोवृत्तियों को अवश्य अनदेखा करना चाहिए। सभी विज्ञानों से 'वस्तुनिष्ठ' होने व केवल तथ्यों पर आधारित पूर्वाग्रह रहित ज्ञान उपलब्ध कराने की आशा की जाती है, परन्तु प्राकृतिक विज्ञानों की तुलना में सामाजिक विज्ञानों में ऐसा करना बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, जब संजीव पास बुक्स एक भू-वैज्ञानिक चट्टानों का अध्ययन करता है, तो वे सावधान रहते हैं कि उनके व्यक्तिगत पूर्वाग्रह या मान्यताएँ उनके काम को प्रभावित न कर पाएँ। उन्हें तथ्यों को वैसे ही प्रस्तुत करना चाहिए जैसे वे हैं ।
चूँकि भू-वैज्ञानिक स्वयं उस संसार का हिस्सा नहीं होते जिनका वे अध्ययन करते हैं, जैसे-चट्टानों की प्राकृतिक दुनिया। इसके विपरीत समाज विज्ञानी उस संसार का अध्ययन करते हैं जिसमें वे स्वयं रहते हैं-जो मानव सम्बन्धों की दुनिया है। इससे सामाजिक विज्ञान, विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में वस्तुनिष्ठता की विशेष समस्या उत्पन्न हो जाती है। समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता की जटिलता के कारण समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता के अधिक जटिल होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) पूर्वाग्रह की समस्या-समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता की जटिलता का प्रमुख कारण पूर्वाग्रह की समस्या है क्योंकि समाजशास्त्री भी समाज के सदस्य हैं, उनकी भी अन्य लोगों की तरह सामान्य पसंद तथा नापसंद होती हैं। पारिवारिक सम्बन्धों का अध्ययन करने वाला समाजशास्त्री भी स्वयं एक परिवार का सदस्य होगा तथा उसके अनुभवों का उस पर प्रभाव हो सकता है। दूसरे, समाजशास्त्री को अपने अध्ययनशील समूह के साथ कोई प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में उसके अपने सामाजिक संदर्भो के मूल्यों तथा पूर्वाग्रहों से प्रभावित होने की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, अपने से अलग किसी जाति या धार्मिक समुदाय का अध्ययन करते समय समाजशास्त्री उस समुदाय की कुछ मनोवृत्तियों से प्रभावित हो सकता है जिसका कि वह सदस्य है।
(2) सामाजिक विश्व में सत्य के अनेक रूपों का होना-समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता के साथ अन्य समस्या यह तथ्य है कि सामान्यतः सामाजिक विश्व में सत्य के अनेक रूप होते हैं। वस्तुएँ विभिन्न लाभ के बिन्दुओं से अलगअलग दिखाई देती हैं तथा इसी कारण से सामाजिक विश्व में सच्चाई के अनेक प्रतिस्पर्धी रूप या व्याख्यायें शामिल हैं। उदाहरण के लिए, 'सही कीमत' के बारे में एक दुकानदार तथा एक ग्राहक के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। एक युवा व्यक्ति तथा एक बुजुर्ग व्यक्ति के लिए अच्छे भोजन' के विषय में, इसी प्रकार अन्य विषयों के बारे में अलगअलग विचार हो सकते हैं। कोई भी ऐसा सरल तरीका नहीं है जिससे किसी विशेष व्याख्या के सत्य या अधिक सही होने के बारे में निर्णय लिया जा सके। वास्तव में समाजशास्त्र इस तरीके से जाँचने का प्रयास भी नहीं करता है क्योंकि इसकी वास्तविक रुचि इसमें होती है कि लोग क्या सोचते हैं और ऐसा क्यों सोचते हैं?
(3) विभिन्न विरोधाभासी विचार-सामाजिक विज्ञानों में वस्तुनिष्ठता के संदर्भ में एक अन्य समस्या उनमें उपस्थित बहुविध मतों से उत्पन्न होती है। समाजशास्त्र भी एक 'बहु निर्देशात्मक' विज्ञान है जिसमें प्रतिस्पर्धी तथा परस्पर विरोधी विचारों वाले क्षेत्र विद्यमान हैं। इन सबसे समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता एक बहुत कठिन तथा जटिल वस्तु बन जाती है।
प्रश्न 3.
वस्तुनिष्ठता को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को किस प्रकार की कठिनाइयों और प्रयत्नों से गुजरना होता है?
उत्तर:
वस्तुनिष्ठता को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को अनेक कठिनाइयों तथा प्रयत्नों से गुजरना होता है। यथा
(1) पूर्वाग्रह-रहित, तटस्थ तथा केवल तथ्यों पर आधारित रहने की समस्या-किसी भी वस्तु के बारे में वस्तुनिष्ठ होने के लिए हमें वस्तु के बारे में अपनी भावनाओं या मनोवृत्तियों को अवश्य अनदेखा करना चाहिए। सभी विज्ञानों से वस्तुनिष्ठ होने व केवल तथ्यों पर आधारित पूर्वाग्रह रहित ज्ञान उपलब्ध कराने की आशा की जाती है, लेकिन समाजशास्त्र में ऐसा करना बहुत कठिन है क्योंकि
(i) समाजशास्त्री जिस संसार का अध्ययन करते हैं, वह मानव सम्बन्धों की सामाजिक दुनिया है, जिसके स्वयं भी एक हिस्से हैं। वे भी उसी समाज के सदस्य हैं, उनकी भी अन्य लोगों की तरह सामान्य पसंदगी तथा नापसंदगी होती है। उदाहरण के लिए, पारिवारिक सम्बन्धों का अध्ययन करने वाला समाजशास्त्री भी स्वयं एक परिवार का सदस्य होता है तथा उसके अनुभवों का उस पर प्रभाव हो सकता है।
(ii) समाजशास्त्री को अपने अध्ययनशील समूह के साथ कोई प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव नहीं होता है। इससे वह अपने सामाजिक संदर्भो के मूल्यों तथा पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। उदाहरण के लिए, अपने से अलग किसी जाति या धार्मिक समुदाय का अध्ययन करते समय समाजशास्त्री उस समुदाय की कुछ मनोवृत्तियों से प्रभावित हो सकता है जिसका कि वह स्वयं एक सदस्य है। पूर्वाग्रह से बचने के प्रयत्न-समाजशास्त्री पूर्वाग्रह से बचने के लिए निम्नलिखित प्रयत्न करता है
(क) स्ववाचक या आत्मवाचक तकनीक-समाजशास्त्री अनुसंधान के विषय में अपनी भावनाओं तथा विचारों को लगातार कठोरता से जांचने का प्रयत्न करता है। इस हेतु अधिकांश समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान कार्य को दूसरे की आँखों से देखने का प्रयास करते हैं। इस तकनीक को 'स्ववाचक' या 'आत्मवाचक' कहते हैं। समाजशास्त्री लगातार अपनी मनोवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जाँच करते रहते हैं। वे अन्य व्यक्तियों के मतों को सावधानीपूर्वक अपनाते रहते हैं, विशेषकर उनके मतों को जो उनके अनुसंधान का विषय होते हैं। कार्य का सावधानीपूर्वक दस्तावेज़ीकरण करना-आत्मवाचकता का एक व्यावहारिक पक्ष है-किसी व्यक्ति द्वारा किये जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक दस्तावेजीकरण करना। दस्तावेजीकरण यह सुनिश्चित करता है कि हमारे द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु किए गए उपायों को अन्य अपना सकते हैं तथा वे स्वयं देख सकते हैं कि हम सही हैं या नहीं। इससे हमें अपनी सोच या तर्क की दिशा को परखने या पुनः परखने में सहायता मिलती है।
(ख) अनुसंधान के विषय पर संभावित पूर्वाग्रह के स्रोत के रूप में प्रासंगिक लक्षणों का उल्लेखसमाजशास्त्री स्ववाचक होने का कितना भी प्रयास करे, अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना सदा रहती है। इस संभावना से निपटने के लिए समाजशास्त्री अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के उन लक्षणों का स्पष्ट रूप में उल्लेख करते हैं जो कि अनुसंधान के विषय पर संभावित पूर्वाग्रह के स्रोत के रूप में प्रासंगिक हो सकते हैं।
यह पाठकों को पूर्वाग्रह की संभावना से सचेत करता है तथा अनुसंधान के अध्ययन को पढ़ते समय यह उन्हें मानसिक रूप से इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए तैयार करता है।
(2) सच्चाई के अनेक प्रतिस्पर्धी रूप या व्याख्यायें-सामजशास्त्र में वस्तुनष्ठिता के साथ एक अन्य समस्या यह तथ्य है कि सामान्यतः सामाजिक विश्व में 'सत्य' के अनेक रूप होते हैं। वस्तुएँ विभिन्न लाभ के बिन्दुओं से अलग-अलग दिखाई देती हैं तथा इसी कारण से सामाजिक विश्व में सच्चाई के अनेक प्रतिस्पर्धी रूप या व्याख्यायें शामिल हैं। उदाहरण के लिए 'सही कीमत' के बारे में एक दुकानदार तथा एक ग्राहक के अत्यधिक अलग-अलग विचार हो सकते हैं। इसी प्रकार एक बुजुर्ग व्यक्ति और एक युवा व्यक्ति के लिए अच्छे भोजन' के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं।
कोई भी ऐसा सरल तरीका नहीं है जिससे किसी विशेष व्याख्या के सत्य या अधिक सही होने के बारे में निर्णय लिया जा सके। वास्तव में समाजशास्त्र इस तरीके से जांचने का प्रयास भी नहीं करता क्योंकि इसकी वास्तविक रुचि इसमें होती है कि लोग क्या सोचते हैं तथा वे ऐसा क्यों सोचते हैं?
(3) प्रतिस्पर्धी तथा परस्पर विरोधी विचारों का होना-समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता के मार्ग की एक अन्य समस्या उसमें उपस्थित बहुविध मतों से उत्पन्न होती है। समाजशास्त्र एक बहु-निर्देशात्मक विज्ञान है। इसका आशय यह है कि इस विषय में प्रतिस्पर्धी तथा परस्पर विरोधी विचारों वाले क्षेत्र विद्यमान हैं। इन सबसे समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता एक बहुत कठिन तथा जटिल वस्तु बन जाती है। वस्तुनिष्ठता की नई संकल्पना-वस्तुनिष्ठता की शास्त्रीय या परम्परागत धारणा को वर्तमान में एक पुराना दृष्टिकोण माना जाता है। समाजशास्त्रियों का अब इसमें विश्वास नहीं है कि परम्परागत वस्तुनिष्ठता को समाजशास्त्र में प्राप्त किया जा सकता है। इस आदर्श को वे भ्रामक बताते हैं। अब वस्तुनिष्ठता से उनका तात्पर्य यह है कि वस्तुनिष्ठता को पहले से प्राप्त अंतिम परिणाम के स्थान पर लक्ष्य प्राप्ति हेतु निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में सोचा जाना चाहिए।
प्रश्न 4.
प्रतिबिंबता का क्या तात्पर्य है तथा यह समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
प्रतिबिंबित होने का तात्पर्य है-एक अनुसंधानकर्ता की वह क्षमता जिसमें वह स्वयं का अवलोकन और विश्लेषण करता है। समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। वे अपने-आपको तथा अपने अनुसंधान कार्य को दूसरे की आंखों से देखने का प्रयास करते हैं। वे लगातार अपनी मनोवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जांच करते रहते हैं।-समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता प्रतिबिंबित होने के पश्चात् पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नहीं रहता तथा परिणाम सटीक आते हैं।
प्रश्न 5.
सहभागी प्रेक्षण के दौरान समाजशास्त्री और सामाजिक मानव-विज्ञानी क्या कार्य करते हैं?
उत्तर:
सहभागी प्रेक्षण से आशय-समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान में सहभागी प्रेक्षण का आशय एक विशेष अध्ययन पद्धति से है जिसके द्वारा वे उस समाज, संस्कृति तथा उन लोगों के बारे में सीखते हैं, जिनका कि वह अध्ययन कर रहे होते हैं। इसमें अनुसंधान के विषय के साथ लम्बी अवधि की अंतःक्रिया शामिल होती है। सामान्यतः समाजशास्त्री या सामाजिक मानव विज्ञानी लगभग एक वर्ष या कभी-कभी इससे ज्यादा भी, उन लोगों के बीच, उनकी तरह बनकर, व्यतीत करते हैं जिनका उन्हें अध्ययन करना होता है। सहभागी प्रेक्षण के दौरान सामाजिक मानव विज्ञानी के कार्य सहभागी प्रेक्षण के दौरान एक सामाजिक मानव विज्ञानी निम्नलिखित कार्य करता है।
(1) समुदाय की जनगणना करना-सामाजिक मानवशास्त्री सामान्यतः उस समुदाय की जनगणना कर कार्य प्रारंभ करता है, जिसका वह अध्ययन करता है। इसमें समुदाय में रह रहे सभी लोगों के बारे में विस्तृत सूची, जिसमें उनके लिंग, आयु, वर्ग तथा परिवार जैसी सूचना भी है, बनाना शामिल है।
(2) समुदाय का भौतिक नक्शा बनाना-जनगणना के कार्य के साथ ही वह गाँव या रहने की जगह का भौतिक रूप से नक्शा बनाने का प्रयास करता है, जिसमें घरों तथा सामाजिक तौर पर संबंधित अन्य जगहों की स्थिति भी शामिल होती है।
(3) समुदाय की वंशावली बनाना-अपने क्षेत्रीय कार्य की प्रारंभिक अवस्था में मानवविज्ञानियों द्वारा प्रयुक्त सबसे महत्त्वपूर्ण तकनीक है-समुदाय की वंशावली बनाना । यह जनगणना द्वारा प्राप्त सूचना पर आधारित हो सकती है; परन्तु इसका आगे विस्तार होता है क्योंकि इसके आधार पर वह प्रत्येक सदस्य का वंशवृक्ष बनाता है तथा जहाँ तक संभव हो सके वंशवृक्ष का पीछे की तरफ विस्तार करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए, किसी भी परिवार या घर के मुखिया से उसके रिश्तेदारोंउसकी अपनी पीढ़ी में भाइयों, बहनों तथा चचेरे भाई-बहनों के बारे में, तत्पश्चात् उसके माता-पिता की पीढ़ी में-उनके पिता, माता, उनके भाइयों, बहनों आदि के बारे में; इसके बाद परदादा-दादी तथा उनके भाइयों, बहनों के बारे में और आगे इसी तरह पूछा जा सकता है।
यह कार्य उतनी पीढ़ियों तक के लिए किया जा सकता है जितना व्यक्ति याद रख सकता है। किसी एक व्यक्ति से प्राप्त सूचना की जांच अन्य संबंधियों से वही प्रश्न पूछकर की जा सकती हैं तथा पुष्टि होने के बाद एक विस्तृत वंशवृक्ष बनाया . जा सकता है। यह अभ्यास सामाजिक मानव विज्ञानियों को समुदाय की नातेदारी व्यवस्था को समझने में सहायता करता है तथा व्यक्तियों की विभिन्न अन्तःक्रियाओं को समझने में सहायता करता है। इससे मानव विज्ञानी को समुदाय की संरचना, लोगों की जीवन-शैली का पता लगता है।
(4) समुदाय में रहकर समुदाय की भाषा सीखना-समुदाय का निवासी न होने के कारण मानव विज्ञानी को अपने आपको मूल निवासियों की संस्कृति में उनकी भाषा सीखकर तथा उनके प्रतिदिन के जीवन में निकट से सहभागी बनकर उनमें ही मिलना पड़ता है ताकि समस्त स्पष्ट तथा अस्पष्ट ज्ञान तथा कौशल को प्राप्त किया जा सके जो कि समुदाय में रह रहे निवासियों के पास होता है। वंशावली बनाकर और नातेदारी को जानकर वह समुदाय के लोगों से मिलने तथा उसकी जीवन-शैली में घुलने-मिलने का प्रयास करता है। इस आधार पर चलकर वह लगातार समुदाय की भाषा सीखता है।
(5) समुदाय का प्रेक्षण-सामाजिक मानवविज्ञानी वहाँ रहकर, वहाँ की भाषा सीखकर, वहाँ की जीवन-शैली को अपनाते हुए उस समुदाय के जीवन का प्रेक्षण करता है तथा एक विस्तृत नोट तैयार करता है जिसमें सामुदायिक जीवन के महत्वपूर्ण पक्षों का उल्लेख होता है।
(6) सूचनादाताओं से सूचनाएँ प्राप्त करना-मानव विज्ञानियों की रुचि विशेष रूप से त्यौहारों, धार्मिक या अन्य सामूहिक घटनाओं, आजीविका के साधनों, पारिवारिक सम्बन्धों, बच्चों के पालन-पोषण के साधनों जैसे प्रसंगों में होती है। इन संस्थाओं के बारे में जानने के लिए उन्हें उनके बारे में ऐसे प्रश्न पूछने पड़ते हैं जिन्हें समुदाय के सदस्य कोई महत्व नहीं देते। इस तरह एक बच्चे की तरह वह हमेशा क्यों, क्या एवं अन्य प्रश्न पूछता रहता है। इसके लिए मानवविज्ञानी अधिकांश सूचना हेतु एक या दो व्यक्तियों पर निर्भर होता है, जिन्हें 'सूचनादाता' कहा जाता है । सूचनादाता मानवविज्ञानी के लिए अध्यापक का काम करते हैं तथा मानव विज्ञानीय अनुसंधान की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यकर्ता होते हैं।
(7) विस्तृत नोट तथा दैनिक डायरी तैयार करना-क्षेत्रीय कार्य के दौरान मानव विज्ञानी विस्तृत क्षेत्रीय नोट तैयार करता रहता है। इनको वह प्रतिदिन बिना किसी त्रुटि के लिखे जाता है तथा ये एक दैनिक डायरी का रूप भी ले सकते हैं या इनके साथ एक दैनिक डायरी भी लिखी जा सकती है। सहभागी प्रेक्षण के दौरान एक समाजशास्त्री के कार्य समाजशास्त्री जब क्षेत्रीय कार्य करते हैं तो सामान्यतः उन्हीं तकनीकों का उपयोग करते हैं जिनको सामाजिक मानवशास्त्री अपनाते हैं। इनका विवेचन किया जा चुका है। एक समाजशास्त्री भी एक समुदाय में रहता है और उसके अन्दर का निवासी बनने का प्रयास करता है। लेकिन एक मानव विज्ञानी जहाँ क्षेत्रीय कार्य करने के लिए दूर-दराज के जनजातीय समुदाय में चला जाता है तथा क्षेत्र में रहकर कार्य करता है; जबकि एक समाजशास्त्री अपना क्षेत्रीय कार्य सभी प्रकार के समुदायों में करता है और उसका क्षेत्र में रहना भी आवश्यक नहीं होता, यद्यपि उसे अपना अधिकांश समय समुदाय के सदस्यों के साथ बिताना पड़ता है।
प्रश्न 6.
एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की क्या-क्या खूबियाँ और कमियाँ हैं?
उत्तर:
सहभागी प्रेक्षण (अवलोकन) पद्धति की खूबियाँ (महत्त्व) एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की प्रमुख खूबियाँ निम्नलिखित हैं
(1) गहन व सक्ष्म अध्ययन-सहभागी अवलोकन पद्धति के आधार पर जीवन के किसी भी पहलू का अध्ययन संभव है। इसमें अनुसंधानकर्ता को समूह के समस्त पक्षों की छोटी से छोटी जानकारी प्राप्त करने तथा जीवन की विभिन्न घटनाओं एवं तथ्यों को देखने के अवसर प्राप्त होते हैं। इसकी मुख्य ताकत यह है कि यह 'अंदर के' व्यक्ति के दृष्टिकोण से जीवन की महत्वपूर्ण और विस्तृत तस्वीर उपलब्ध कराता है। यह आन्तरिक दृष्टिकोण ही है जो क्षेत्रीय कार्य करने के लिए दिए समय तथा प्रयास के अत्यधिक निवेश के बदले में प्राप्त होता है। अधिकांश अन्य अनुसंधान पद्धतियां काफी लम्बे समय के उपरान्त भी 'क्षेत्र' का विस्तृत ज्ञान होने का दावा नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे सामान्यतः संक्षिप्त तथा जल्दी में की गई क्षेत्रीय यात्राओं पर आधारित होती हैं।
(2) प्रारंभिक प्रभावों में सुधार की गुंजाइश-सहभागी प्रेक्षण पद्धति के तहत क्षेत्रीय कार्य में प्रारंभिक प्रभावों में सुधार करने की गुंजाइश होती है जो कि प्रायः त्रुटिपूर्ण या पूर्वाग्रहित हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त यह अनुसंधानकर्ता को रुचि के विषय में हुए परिवर्तनों को जानने तथा विभिन्न परिस्थितियों या संदर्भो के प्रभाव जानने में भी सहायता करता है। उदाहरण के लिए, किसी अच्छी फसल के साल में और बुरी फसल के साल में सामाजिक संरचना या संस्कृति के विभिन्न पक्षों को जाना जा सकता है, रोजगार या बेरोजगार व्यक्तियों का व्यवहार अलग-अलग हो सकता है आदि।
(3) पूर्वाग्रहों से बचाव-सहभागी प्रेक्षक पद्धति के अन्तर्गत सहभागी प्रेक्षक क्षेत्र में पूरा समय व्यतीत करता है, इसलिए उन अनेक त्रुटियों या पूर्वाग्रहों से बच सकता है जिनसे सर्वेक्षणों, प्रश्नावलियों या अल्पकालीन प्रेक्षणों के द्वारा नहीं बचा जा सकता।
(4) प्रत्यक्ष अध्ययन-सहभागी प्रेक्षण पद्धति का एक अन्य गुण यह है कि इसमें सामाजिक परिस्थितियों का प्रत्यक्ष अध्ययन संभव है। इस पद्धति में प्रेक्षणकर्ता, अध्ययन के अन्तर्गत सम्मिलित किये गये समुदाय के मध्य एक अस्थायी सदस्य के रूप में निवास करता है एवं उन लोगों के विविध क्रियाकलापों में सम्मिलित होकर, उस समुदाय की mसंजीव पास बुक्स सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बारे में भी अपनी जानकारी को विकसित करता है और इस प्रकार घनिष्ठ एवं अनौपचारिक सम्बन्धों के स्थापित होने के कारण वह सामुदायिक व्यवहार का प्रत्यक्ष अध्ययन कर पाता है।
(5) वास्तविक व्यवहारों का अध्ययन-सहभागी अवलोकन पद्धति के माध्यम से मानव के वास्तविक व्यवहारों के बारे में बहुत ही अच्छी तरह से अध्ययन किये जा सकते हैं। मानव के वास्तविक व्यवहारों की खुलावट समूह व्यवहारों में ही देखने को मिलती है । त्यौहारों, भिन्न-भिन्न सामूहिक संस्कारों, जन-रीतियों, रूढ़ियों एवं प्रथाओं को अपनाते समय वास्तविक व्यवहार स्वतः ही अवलोकनकर्ता के सम्मुख आ जाते हैं। सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता समुदाय में समुदाय के लोगों के साथ घुल-मिलकर रहता है। ऐसी स्थिति में उसके समक्ष ये व्यवहार सामने आ जाते हैं।
(6) अधिक विश्वसनीयता-सहभागी अवलोकन पद्धति से प्राप्त आंकड़े व तथ्य बहुत ही विश्वसनीय होते हैं। ये सूक्ष्म अवलोकन पर आधारित होते हैं। अतः उनमें प्रामाणिकता का गुण पाया जाता है।
सहभागी प्रेक्षण पद्धति की सीमाएँ (कमियाँ) . यद्यपि सहभागी अवलोकन पद्धति एक महत्वपूर्ण प्रणाली है तथापि इसमें निम्नलिखित सीमाएँ या कमियां भी विद्यमान हैं
(1) सीमित क्षेत्र में अध्ययन-अपनी प्रकृति के कारण सहभागी अवलोकन में क्षेत्रीय कार्य लम्बे समय तक चलने वाला तथा किसी एक अकेले अनुसंधानकर्ता द्वारा किया जाने वाला गहन अनुसंधान निहित होता है। अतः यह विश्व के एक छोटे से भाग को ही अनुसंधान में शामिल कर पाता है। सामान्यतः यह एक अकेला गांव या छोटा समुदाय होता है। इसके आधार पर हम कभी भी यह निश्चित नहीं कर सकते कि समाजशास्त्री द्वारा क्षेत्रीय कार्य के दौरान किये गए प्रेक्षण बड़े समुदायों में भी समान होंगे। सहभागी अवलोकन पद्धति की यह सबसे बड़ी कमी है कि इसे विशाल जन-समूह में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता।
(2) पूर्वाग्रह की संभावना-सहभागी अवलोकन पद्धति से किये गये क्षेत्रीय कार्य में सदैव त्रटि या पर्वाग्रह की संभावना बनी रहती है। इसमें हमें यह पता नहीं होता कि यह समाजशास्त्री या अनुसंधानकर्ता का कथन है या उन लोगों का जिनके बारे में अध्ययन किया गया है। इसमें सदैव यह संभावना रहती है कि अनुसंधानकर्ता द्वारा चेतन या अवचेतन मन से उसके नोट्स में लिखी गई बातों के चयन तथा उनके प्रस्तुतीकरण में पूर्वाग्रह का प्रवेश हुआ है।
(3) अत्यधिक खर्चीली प्रणाली-सहभागी अवलोकन पद्धति द्वारा एक विशेष किन्तु छोटे समाज (समुदाय) का गहन अनुसंधान किया जाता है। इस कारण इसमें व्यय अधिक आता है, जबकि दूसरी प्रणालियों के द्वारा कम व्यय से अधिक समुदायों का अध्ययन किया जा सकता है।
(4) समूह के व्यवहार में परिवर्तन-प्रायः यह देखा गया है कि मानव में परिवर्तन का गुण विद्यमान है। सहभागी अवलोकन पद्धति के द्वारा किसी समुदाय का अध्ययन लम्बी अवधि में हो पाता है। अतः जब तक अध्ययन समाप्त होता है तब तक समाज के व्यवहारों में काफी परिवर्तन आ जाता है। अतः इसके अध्ययन द्वारा समुदाय की जो तस्वीर प्रस्तुत की जाती है, वह काफी पिछड़ी रह जाती है। इसलिए यह तस्वीर परिहास का विषय बन जाती है।
(5) अव्यावहारिक-यह पद्धति प्रायः अव्यावहारिक मानी गयी है क्योंकि अधिकांशतः तो पूर्ण सहभागिता संभव ही नहीं हो पाती है। साधारण व्यक्ति कभी भी इस बात को स्वीकार करना पसन्द नहीं करता कि कोई उसके व्यक्तिगत जीवन की बातों को एकत्रित करके समाज में प्रस्तुत करने का प्रयास करे। अतः पूर्ण सहभागी अवलोकन के आधार पर अनुसंधान कार्य संभव नहीं हो पाता है।
प्रशन 7.
सर्वेक्षण पद्धति के आधारभूत तत्व क्या हैं? इस पद्धति के प्रमुख लाभ क्या हैं?
उत्तर:
सर्वेक्षण पद्धति के आधारभूत तत्त्व सर्वेक्षण पद्धति के निम्नलिखित चार आधारभूत तत्त्व हैं
(1) सामाजिक सर्वेक्षण के निर्देशन तथा इकाइयों का चुनाव-सर्वेक्षण में सम्पूर्ण तथ्यों का पता लगाने का प्रयास किया जाता है। यह किसी विषय पर सावधानीपूर्वक चयन किये गए लोगों के प्रतिनिधि समुच्चय (निदर्शन) से प्राप्त सूचना का व्यापक या विस्तृत दृष्टिकोण होता है। ऐसे लोगों को प्रायः उत्तरदाता कहा जाता है। ये अनुसंधानकर्ता द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हैं। अध्ययन के लिए इतनी इकाइयों का चयन किया जाता है जो समग्र का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व कर सकें तथा जिनमें समग्र की सभी विशेषताएँ हों। प्रतिनिधित्व-पूर्ण इकाइयों का चुनाव सर्वेक्षण की वह धुरी है जिसके चारों ओर प्रस्तावित अध्ययन केन्द्रित रहता है। इसी के माध्यम से सूचनाएँ या आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं।
(2) सर्वेक्षण का नियोजन तथा संगठन-सर्वेक्षण कार्य को ठीक प्रकार से संचालित करने के लिए एक संगठन की आवश्यकता होती है। सामाजिक सर्वेक्षण सामान्यतया एक विस्तृत दल द्वारा किया जाता है जिसमें अध्ययन की योजना बनाने वाले तथा रूपरेखा तैयार करने वाले (अनुसंधानकर्ता) तथा उनके सहयोगी और सहायक (जिन्हें 'अन्वेषक' या 'अनुसंधान सहायक' कहा जाता है) शामिल होते हैं। सर्वेक्षण के संगठन के अन्तर्गत एक केन्द्रीय कार्यालय, कार्यकर्ताओं का दल, सर्वेक्षण समिति तथा अन्य अनेक उप-समितियाँ बनाई जाती हैं। उप-समितियों में प्रमुखतः बजट उप-समिति, निदर्शन-उप-समिति, कार्यक्रम उप-समिति तथा प्रतिवेदन उप-समिति आदि होती हैं। इन सब में सर्वेक्षण कार्य के नियोजन से लेकर प्रतिवेदन लेखन तक कार्य के विभिन्न पक्षों पर विचार कर कार्यक्रम को अन्तिम रूप दिया जाता है।
(3) आंकड़ों का संकलन-इस स्तर पर वास्तविक सर्वेक्षण कार्य प्रारंभ होता है। अनुसंधानकर्ता विभिन्न विधियों से उत्तरदाताओं से सूचनाएँ प्राप्त कर उनका संकलन करते हैं। सर्वेक्षण के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे जा सकते हैं तथा उनके उत्तर भी विभिन्न प्रकार से दिये जा सकते हैं । प्रायः अन्वेषक द्वारा व्यक्तिगत दौरे के दौरान इन्हें मौखिक रूप से पूछा जाता है तथा कभी-कभी दूरभाष द्वारा पूछा जाता है। अन्वेषक द्वारा लाई गई अनुसूचियों या डाक द्वारा प्राप्त 'प्रश्नावलियों' से भी उत्तर प्राप्त किये जा सकते हैं। कंप्यूटरों तथा दूरसंचार तकनीक के बढ़ते प्रयोग के फलस्वरूप आज इलैक्ट्रॉनिक रूप में सर्वेक्षण करना भी संभव हो गया है। इस प्रारूप में उत्तरदाता प्रश्नों को ई-मेल, इंटरनेट या इसी प्रकार इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा प्राप्त करता है तथा इसके द्वारा ही उत्तर देता है।
(4) आंकड़ों का विश्लेषण तथा विवेचन-तथ्यों के संकलन के बाद उनका वगीकरण, सारणीयन कर विश्लेषण व विवेचन किया जाता है तथा इससे प्राप्त परिणामों का सामान्यीकरण कर इसे सम्पूर्ण जनसंख्या पर लागू किया जाता है।
(5) आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण-अन्त में आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। तथ्यों का बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित करना भी एक गहनतम कला है। यही कारण है कि सर्वेक्षणकर्ता इस प्रक्रिया पर विशेष ध्यान देते हैं। आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण इस तरह से करते हैं कि आम आदमी अपनी व्यस्त जिंदगी में भी इन सूचनाओं को देखते ही जीवन की भिन्न-भिन्न वस्तुओं के बारे में आसानी से समझ सके। इसमें रेखाचित्रों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि रेखाचित्रों के द्वारा अनेक तरह के सामाजिक तथ्यों को बहुत ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है।
सर्वेक्षण पद्धति के लाभ सर्वेक्षण पद्धति के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) सीमित प्रयास, समय तथा धन के निवेश द्वारा बड़ी जनसंख्या का अध्ययन संभव-सामाजिक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में सर्वेक्षण का मुख्य लाभ यह है कि इसके द्वारा जनसंख्या के केवल छोटे से भाग पर सर्वेक्षण करके इसके परिणामों को बड़ी जनसंख्या. पर लागू किया जा सकता है। इस प्रकार सीमित समय, प्रयास तथा धन के निवेश द्वारा सर्वेक्षण बड़ी जनसंख्याओं या बड़े भाग के अध्ययन को संभव बनाता है। यही कारण है कि सामाजिक विज्ञानों तथा अन्य क्षेत्रों में यह अत्यन्त लोकप्रिय पद्धति है।
(2) समग्र तस्वीर प्रस्तुत करना-सर्वेक्षण का दूसरा प्रमुख लाभ यह है कि यह एक समग्र तस्वीर उपलब्ध कराता है अर्थात् एक व्यक्ति के स्थान पर सामूहिकता के आधार पर बनी तस्वीर दिखाता है। बहुत सी सामाजिक समस्यायें तथा मुद्दे इस समग्र स्तर पर दिखाई देते हैं, इन्हें खोज के अत्यधिक सूक्ष्म स्तरों पर पहचाना जा सकता है।
(3) प्रामाणिकता तथा विश्वसनीयता-सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति एक ऐसी पद्धति है, जिसके विश्लेषण अधिक प्रामाणिक तथा विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इसके आधार पर समाज की अच्छाइयों एवं बुराइयों दोनों पक्षों की व्याख्याएँ स्पष्ट रूप में दी हुई रहती हैं। इस आधार पर प्रस्तुत किये जाने वाली सभी प्रकार की सामाजिक तस्वीरों पर सभी लोग सहज रूप में विश्वास कर लेते हैं।
प्रश्न 8.
प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन के कुछ आधार बताएँ।
उत्तर
प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्श के चयन के आधार व्यापक रूप से प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्श के चयन की प्रक्रिया दो मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित है। यथा
(1) सभी महत्त्वपूर्ण उपसमूहों को प्रतिदर्श में प्रतिनिधित्व दिया जाये-प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्श के चयन की प्रक्रिया का पहला सिद्धान्त या आधार यह है कि जनसंख्या में सभी महत्त्वपूर्ण उपसमूहों को पहचाना जाये तथा प्रतिदर्श में उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाए। यथा
(i) अधिकतर बड़ी संख्यायें एकसमान नहीं होती हैं। उनमें अनेक स्पष्ट उप-श्रेणियाँ होती हैं। इसे स्तरीकरण कहा जाता है। जैसेशहरी और ग्रामीण जनसंख्या; जनसंख्या का वर्ग, जाति, लिंग, आयु, धर्म या अन्य मानदण्डों के आधार पर इसका पुनः विभाजन आदि। इस प्रकार स्तरीकरण की यह धारणा हमें बताती है कि प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्श दी गई जनसंख्या के सभी संबद्ध स्तरों की विशेषताओं को दर्शाने की सक्षमता पर निर्भर है।।
(ii) किस प्रकार के प्रतिदर्शों (इकाइयों) को प्रासंगिक माना जाये यह अनुसंधान के अध्ययन के विशिष्ट उद्देश्यों पर निर्भर है। उदाहरण के लिए, धर्म के प्रति मनोवृत्तियों के बारे में अध्ययन करते समय यह महत्त्वपूर्ण हो सकता है कि सभी धर्मों के सदस्यों को शामिल किया जाए। इसी प्रकार मजदूर संघों के प्रति मनोवृत्तियों पर अनुसंधान करते समय कामगारों, प्रबंधकों तथा उद्योगपतियों को शामिल करना चाहिए।
(2) यादृच्छीकरण-प्रतिदर्श चयन का दूसरा सिद्धान्त है-वास्तविक इकाई (व्यक्ति या गांव या घर) का चयन पूर्णतया अवसर आधारित होना चाहिए। इसे यादृच्छीकरण कहा जाता है जो कि स्वयं संभाविता की संकल्पना पर आधारित है। संभाविता का आशय घटना के घटित होने के अवसरों से है। उदाहरण के लिए, जब हम सिक्का उछालते हैं तो यह या तो चित की ओर पड़ता है या फिर पट की ओर। सामान्य सिक्कों में चित या पट आने का अवसर या संभाविता लगभग एकसमान है अर्थात् सिक्के के प्रत्येक पहलू के 50 प्रतिशत अवसर हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सिक्का उछालने के बाद सिक्का चित आता है या पट, यह पूरी तरह से अवसर पर निर्भर करता है और किसी बात पर नहीं। इसी प्रकार के अवसरों को यादृच्छिक अवसर कहा जाता है। इसी यादृच्छीकरण के आधार पर हम यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि प्रतिदर्श में चयन किए गए व्यक्ति या घर या गांव पूर्णतः अवसर द्वारा चयनित हों, किसी अन्य तरह से नहीं।
अतः प्रतिदर्श में चयन होना किस्मत की बात है, जैसे कि लॉटरी जीतना । ऐसा होने पर ही प्रतिदर्श प्रतिनिधित्वपूर्ण हो सकेगा। यदि कोई सर्वेक्षण दल अपने प्रतिदर्श में केवल उन्हीं गांवों का चयन करता है जो मुख्य सड़क के निकट हों तो यह प्रतिदर्श संयोगपूर्ण न होकर पूर्वाग्रहित होंगे। इसी तरह से यदि हम अधिकतर मध्यम वर्ग के घरों का या अपने जानकार घरों का चयन करते हैं तो प्रतिदर्श पुनः पूर्वाग्रहित होंगे। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जनसंख्या से संबंधित स्तरों का पता लगाने के बाद प्रतिदर्श घरों या उत्तरदाताओं का वास्तविक चयन पूर्णतया संयोग के आधार पर होना चाहिए। इसे विभिन्न तरीकों, जैसलॉटरी निकालना, पाँसे फेंकना, प्रतिदर्श नंबर प्लेटों के प्रयोग तथा गणकों या संगणकों द्वारा बनाई गई प्रतिदर्श संख्याओं, से सुनिश्चित किया जा सकता है।
प्रश्न 9.
सर्वेक्षण पद्धति की कुछ कमजोरियों का वर्णन करें।
उत्तर:
सर्वेक्षण पद्धति की सीमाएँ या कमजोरियाँ सर्वेक्षण पद्धति की प्रमुख कमजोरियाँ या सीमाएँ निम्नलिखित हैं
(1) गहनता की कीमत पर विस्तार-यद्यपि सर्वेक्षण पद्धति में व्यापक विस्तार की संभावना होती है, लेकिन यह विस्तार भी गहनता के मूल्य पर प्राप्त किया जाता है। सामान्यतया एक बड़े सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं से गहन सूचना प्राप्त करना संभव नहीं होता। उत्तरदाताओं की संख्या अधिक होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति पर व्यय किया जाने वाला समय सीमित होता है।
(2) प्रश्न पूछने या उत्तर रिकार्ड करने के तरीके में अन्तर होने के कारण त्रुटियों की संभावना-अन्वेषकों .. द्वारा जो सर्वेक्षण प्रश्नावलियां उत्तरदाता को उपलब्ध कराई जाती हैं, उनमें यह सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है कि जटिल प्रश्नों या जिन प्रश्नों के लिए विस्तृत सूचना चाहिए, उन्हें उत्तरदाताओं से ठीक एक ही तरीके से पूछा जायेगा। प्रश्न पूछने या उत्तर रिकार्ड करने के तरीके में अन्तर होने पर सर्वेक्षण में त्रुटियाँ आ सकती हैं।
(3) गैर-प्रतिदर्श त्रुटियों का होना-अन्वेषक तथा उत्तरदाता के बीच चूँकि किसी प्रकार के दीर्घकालिक सम्बन्ध नहीं होते तथा इसके कारण कोई आपसी पहचान या विश्वास नहीं होता। इसलिए
(i) सर्वेक्षण में ऐसे ही प्रश्न पूछे जा सकते हैं, जो अजनबियों के मध्य पूछे जा सकने योग्य हों तथा उनका उत्तर दिया जा सकता हो।
(ii) सर्वेक्षण में कोई भी निजी या संवेदनशील प्रश्न नहीं पूछा जा सकता और अगर पूछा भी जाता है तो इसका उत्तर सच्चाईपूर्वक देने के स्थान पर सावधानीपूर्वक दिया जाता है। ये त्रुटियाँ यद्यपि प्रतिदर्श की प्रक्रिया के कारण नहीं होतीं बल्कि अनुसंधान रूपरेखा में कमी या त्रुटि के कारण होती हैं या इसके क्रियान्वयन की विधि के कारण होती हैं। इन त्रुटियों के कारण से.सर्वेक्षण में गलती होना तथा जनसंख्या की विशेषताओं के बारे में भ्रामक या गलत अनुमान लगाया जा सकता है।
(4) कठोर संरचित प्रश्नावली पर आधारित होना-सर्वेक्षण कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए कठोर संरचित प्रश्नाबली पर आधारित होना पड़ता है। इसमें पूर्व निर्धारित रूपरेखा के अनुसार किसी कार्यक्रम को अपनाया जाता है। सर्वेक्षणकर्ता को निरन्तर निष्पक्षता बनाए रखने के कारण अपने व्यवहारों पर कठोर नियंत्रण रखना होता है। इससे न तो वह पूरी तरह से अपनी बुद्धि का प्रयोग कर पाता है और न ही वह अपने स्वयं के निजी विचारों का ही प्रयोग कर पाता है। दूसरे, कठोर संरचित प्रश्नावली परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुकूल नहीं होती तथा प्रक्रिया में परिवर्तन करना अत्यन्त कठिन होता है।
(5) धन तथा समय अधिक लगना-सर्वेक्षण पद्धति में अनुसंधान में समय तथा धन अधिक लगता है क्योंकि अधिकांश सर्वेक्षणकर्ताओं को पुनरावृत्ति सर्वेक्षणों के आधार पर तथ्यों को एकत्रित करना होता है। सर्वेक्षण के आधार पर शोध कार्य करने हेतु न केवल अधिक सर्वेक्षणकर्ताओं को नियुक्त करना पड़ता है बल्कि क्षेत्रीय खर्चे भी चाहे-अनचाहे रूप में निरन्तर बढ़ते रहते हैं। सीमित साधनों वाले सामाजिक सर्वेक्षणकर्ता को सर्वेक्षण के विभिन्न यंत्रों, प्रश्नावलियों का मुद्रण तथा भेजने का डाक-व्यय, टेपरिकार्डर, कैमरा तथा चित्रों द्वारा सामग्री का प्रदर्शन आदि महत्त्वपूर्ण मदों पर व्यय कार्यकर्ताओं के खर्चों के अतिरिक्त करना पड़ता है। इस कारण कभी-कभी उन्हें अपने कार्य को रोकना पड़ जाता है।
(6) अन्वेषकों तथा उत्तरदाताओं की अन्तःक्रियाओं की प्रकृति तथा उत्तरदाताओं के सहयोग पर निर्भरसर्वेक्षण पद्धति की सफलता के लिए जहाँ प्रश्नावली की रूपरेखा का अच्छा होना आवश्यक है, वहाँ दूसरी तरफ इसकी सफलता अन्वेषकों तथा उत्तरदाताओं पर निर्भर है। इसकी सफलता अन्वेषकों और उत्तरदाताओं की अन्तःक्रियाओं की प्रकृति पर तथा विशेष रूप से उत्तरदाता की सद्भावना तथा सहयोग पर निर्भर करती है।
प्रश्न 10.
अनुसंधान पद्धति के रूप में साक्षात्कार के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार-साक्षात्कार मूलतः अनुसंधानकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच निर्देशित बातचीत होती हैं, हालांकि इसके साथ कुछ तकनीकी पक्ष जुड़े होते हैं। .
साक्षात्कार के प्रमुख लक्षण साक्षात्कार के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) साक्षात्कार एक उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप है।
(2) साक्षात्कार एक मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक प्रक्रिया है।
(3) साक्षात्कार सूचना संकलन की एक मौखिक विधि है।
(4) साक्षात्कार के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक है जो परस्पर सम्पर्क, वार्तालाप एवं अन्तःक्रिया करते हैं।
(5) साक्षात्कार में एक साक्षात्कार लेने वाला होता है और दूसरा साक्षात्कार देने वाला या उत्तरदाता होता है।
(6) साक्षात्कार में दोनों पक्षों के बीच आमने-सामने के और प्राथमिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं।
(7) इसमें शोधकर्ता अध्ययन विषय से सम्बन्धित सूचनाओं एवं तथ्यों का संकलन करता है।
(8) साक्षात्कार की एक अन्य प्रमुख विशेषता इसका लचीलापन है। साक्षात्कार में प्रश्नों को पुनः निर्मित किया जा संजीव पास बुक्स सकता है या अलग ढंग से बताया जा सकता है, विषयों या प्रश्नों का क्रम आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है, उन्हें विस्तारित किया जा सकता है या उन्हें संक्षिप्त रूप दिया जा सकता है। यह सब साक्षात्कार के दौरान किया जा सकता है।
(9) साक्षात्कार पद्धति की एक अन्य विशेषता उसकी विविधता में निहित है। यथा—साक्षात्कार लेने की अनेक शैलियाँ हैं। मुख्य रूप से इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है-
इसी प्रकार साक्षात्कार के रिकार्ड करने के विभिन्न तरीके हैं जो परिस्थितियों तथा वरीयताओं के अनुसार काम में लाये जाते हैं जिनमें वास्तविक वीडियो या ऑडियो रिकार्ड करना, विस्तृत नोट तैयार करना, स्मरण शक्ति पर निर्भर करना आदि। बाद में प्रकाशन के लिए साक्षात्कार को लिखने तथा अनुसंधान रिपोर्ट के हिस्से के रूप में लिखने का तरीका भी भिन्न हो सकता है। कुछ अनुसंधानकर्ता इसे वर्णनात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं तो कुछ मूल वार्तालाप के यथा रूप को बनाए रखना चाहते हैं।