Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
समाजशास्त्र परिचय पुस्तक के प्रथम अध्याय की चर्चा 'यूरोप में आधुनिक युग का आगमन' को देखें। वह कौनसे परिवर्तन थे जिनसे यह तीनों प्रक्रियाएँ जुड़ी हुई थीं?
उत्तर:
यूरोप का आधुनिक युग व आधुनिकता तीन मुख्य प्रक्रियाओं की देन हैं
(1) प्राकृतिक विज्ञान के वैज्ञानिक सिद्धान्त-ज्ञानोदय, एक यूरोपीय बौद्धिक आंदोलन जो 17वीं सदी के अंतिम वर्षों एवं 18वीं शताब्दी में चला, कारण और व्यक्तिवाद पर बल देता है। उस वक्त वैज्ञानिक जानकारी उन्नत अवस्था में थी और साथ ही एक बढ़ता हुआ दृढ़ विश्वास यह भी था कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है और करना भी चाहिए। प्रारंभिक आधुनिक काल के विचारक इस बात से सहमत थे कि ज्ञान में वृद्धि से सभी सामाजिक बुराइयों का समाधान संभव है।
(2) पूँजीवाद-औद्योगिक क्रांति एक नए गतिशील आर्थिक क्रियाकलाप-पूँजीवाद पर आधारित थी। औद्योगिक उत्पादन की उन्नति के पीछे यही पूँजीवादी व्यवस्था एक प्रमुख शक्ति थी। पूँजीवाद में नयी अभिवृत्तियाँ एवं संस्थाएँ सम्मिलित थीं। उद्यमी निश्चित और व्यवस्थित मुनाफे की आशा से प्रेरित थे। बाजारों ने उत्पादनकारी जीवन में प्रमुख साधन की भूमिका अदा की और माल, सेवाएँ एवं श्रम वस्तुएँ बन गईं जिनका निर्धारण तार्किक गणनाओं के द्वारा होता था।
(3) समय का महत्त्व-यूरोप में आधुनिक युग के आगमन तथा उक्त तीनों प्रक्रियाओं के पीछे एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व था—घड़ी के अनुसार समय का महत्त्व जो सामाजिक संगठन का आधार भी था। इसके अनुसार 18वीं और 19वीं शताब्दी में खेतिहर और औद्योगिक मजदूरों की बढ़ती संख्या ने तेजी से घड़ी और कलेंडर के अनुसार अपने को ढालना शुरू किया जो आधुनिक समय से पूर्व के काम के तरीके से एकदम भिन्न था।
औद्योगिक पूँजीवाद के विकास के पहले काम की लय दिन के उजाले और जीतोड़ परिश्रम के बीच आराम या सामाजिक कर्तव्यों के आधार पर तय होती थी। कारखानों के उत्पादन ने श्रम को समकालिक बना दिया। इससे समय की पाबंदी, एक तरह की स्थिर रफ्तार, कार्य करने के निश्चित घंटे और हफ्ते के दिन निर्धारित हो गए। इसके अलावा घड़ी ने कार्य करने की अनिवार्यता पैदा कर दी। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिए 'समय अब धन है' यह व्यतीत नहीं होता बल्कि खर्च हो जाता है। पृष्ठ 78
प्रश्न 2.
हालांकि इसे भी 'वर्ग' कहा जाता है
(क) क्या आप तथा आपके सहपाठियों द्वारा बनाए गए समूह मार्क्सवादी अर्थ में 'वर्ग' कहलायेंगे? इस दृष्टिकोण के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिये।
(ख) क्या कारखानों तथा कृषि कार्य करने वाले मजदूर एक ही वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं?
(ग) क्या अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक जो नगरों में रहते हैं तथा जिसके पास कोई कृषि भूमि नहीं है एक ही वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं, जैसे गरीब कृषक मजदूर जो गाँव में रहता है तथा जिसके पास कोई जमीन नहीं है?
(घ) एक जमींदार जो काफी जमीन का मालिक है और एक छोटा किसान जिसके पास कम भूमि है क्या ये दोनों एक ही वर्ग से सम्बन्धित होंगे यदि वे एक ही गाँव में रहते हों तथा दोनों जमींदार हों?
उत्तर:
(क) हमारे और हमारे सहपाठियों द्वारा बनाए गए समूह मार्क्सवादी अर्थ में 'वर्ग' नहीं कहलायेंगे क्योंकि मार्क्सवादी अर्थ में वर्ग' उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़े दो प्रकार के समूह हैं। एक वे जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं और केवल श्रम करके अपना जीवनयापन करते हैं, मार्क्स ने इसे आधुनिक पूँजीवादी युग में 'सर्वहारा वर्ग' कहा है और दूसरा वर्ग वह है जो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और उत्पादन के लाभ का स्वामी होता है, मार्क्स ने इसे 'बुर्जुआ वर्ग' कहा है। दूसरा वर्ग पहले वर्ग का शोषण करता है। रेमण्ड एरन ने लिखा है कि मार्क्स ने 'सामाजिक वर्ग' नामक अध्याय में आय के विभिन्न स्रोतों के आधार पर तीन वर्गों का वर्णन किया है, जो निम्न प्रकार हैं
(1) वेतनभोगी वर्ग-वेतनभोगी श्रमिकों की आय का साधन विभिन्न प्रकार की मजदूरी होती है। इस वर्ग के सदस्य साधारण श्रम-शक्ति के स्वामी होते हैं।
(2) पूँजीपति वर्ग-पूँजीपति वर्ग समाज के वे वर्ग होते हैं जिनके पास बहुत अधिक पूँजी होती है। ये पूँजी के स्वामी होते हैं। इनकी आय का साधन अतिरिक्त मूल्य के द्वारा लाभ कमाना है।
(3) भू-स्वामी वर्ग-भू-स्वामी वर्ग के सदस्य भू-स्वामी होते हैं। इनकी आय का साधन भूमि कर होता है। यह वर्ग कृषि समाज में पाया जाता है। वेनडिक्स तथा लिप्सेट ने मार्क्स की वर्ग की अवधारणा को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "मार्क्स की शब्दावली में एक सामाजिक वर्ग किन्हीं व्यक्तियों का वह समूह है जो उत्पादन के संगठन में समान भूमिका निभाते हैं।" इस प्रकार वर्ग व्यवसाय या आय द्वारा निर्धारित नहीं होता बल्कि व्यक्ति ने जो प्रस्थिति ग्रहण की हुई है तथा उत्पादन प्रक्रिया में वह जो भूमिका निभाता है, उसके आधार पर निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए, दो बढ़ई (खाती) जिनमें एक दुकान का मालिक है और दूसरा उसका नौकर है, दोनों भिन्न-भिन्न वर्गों से सम्बन्धित होंगे, यद्यपि उनका व्यवसाय समान है।
मार्क्स के वर्ग सिद्धान्त के विपक्ष में तर्क-
मार्क्स के वर्ग सिद्धान्त के विपक्ष में निम्न प्रमुख तर्क दिये गए हैं-
(ख) हाँ, कारखानों तथा कृषि कार्य करने वाले मजदूर एक ही वर्ग-वेतनभोगी वर्ग या सर्वहारा वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं।
(ग) नहीं, अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक जो नगरों में रहता है तथा जिसके पास कोई कृषि भूमि नहीं है और गरीब कृषक मजदूर जो गाँव में रहता है तथा जिसके पास कोई जमीन नहीं है; दोनों अलग-अलग वर्ग हैं। उद्योगपति या फैक्ट्री मालिक पूँजीपति वर्ग के अन्तर्गत आयेगा क्योंकि उसकी आय का स्रोत अतिरिक्त मूल्य है; जबकि गाँव के भूमिहीन गरीब मजदूर का वर्ग वेतनभोगी वर्ग या श्रमिक वर्ग या सर्वहारा वर्ग कहलायेगा क्योंकि उसकी आय का स्रोत स्वयं का श्रम है।
(घ) एक जमींदार जो काफी जमीन का मालिक है और एक छोटा किसान जिसके पास कम भूमि है; ये दोनों एक ही गाँव में रहते हैं तथा दोनों जमींदार हैं। लेकिन आवश्यक नहीं है कि दोनों एक ही वर्ग में शामिल हों। एक छोटा किसान, स्वयं परिश्रम करके अपनी जीविका खेती करके कमाता है, सर्वहारा वर्ग के अन्तर्गत आयेगा, लेकिन एक जमींदार, जिसके पास काफी जमीन है और जो अपनी जीविका या तो भूमि से कमाता है या उसकी भूमि पर भूमिहीन श्रमिक काम करते हैं, जिसके श्रम के लाभ को 'अतिरिक्त आय' के रूप में प्राप्त करता है, सर्वहारा वर्ग में न आकर भू-स्वामी वर्ग या बुर्जुआ वर्ग में आयेगा। . |
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प्रश्न 3.
दुीम तथा मार्क्स ने सामाजिक श्रम विभाजन के विषय में क्या कहा? तुलना कीजिये।
उत्तर:
दुर्थीम तथा मार्क्स दोनों इस बात पर सहमत हैं कि जैसे-जैसे समाज का उद्विकास होता है, उत्पादन के साधन जटिल होते जाते हैं। श्रम विभाजन और विस्तृत हो जाता है और यह विभिन्न सामाजिक समूहों में पारस्परिक निर्भरता को बढ़ाता है। परन्तु जहाँ दुर्थीम एकता पर बल देते हैं, वहीं मार्क्स संघर्ष पर। यथा दुर्थीम का श्रम विभाजन का सिद्धान्त-दुर्शीम ने श्रम-विभाजन को सामाजिक एकता का आधार बताया है। सामाजिक एकता एक नैतिक आवश्यकता है और श्रम विभाजन इसी नैतिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। उसे केवल आर्थिक तथ्य मानना उचित नहीं है।
श्रम विभाजन को एक नैतिक आवश्यकता के रूप में स्पष्ट करके दुर्थीम ने यह सत्य प्रकट किया है कि सामाजिक जीवन एक नैतिक वास्तविकता है। श्रम विभाजन के कारण-दुर्शीम श्रम-विभाजन के कारणों को सामाजिक संरचना में खोजते हैं । वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि श्रम विभाजन और नैतिक नियम दोनों ही सामाजिक परिवेश में उत्पन्न परिवर्तनों के कारण होते हैं । वे श्रम-विभाजन के द्वितीयक कारण आनुवंशिकता को मानते हैं। मार्क्स का श्रम विभाजन का सिद्धान्त-मार्क्स के लिए, व्यक्ति को सामाजिक समूहों में विभाजित करने का मुख्य तरीका उत्पादन प्रक्रिया के संदर्भ में था । सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं ।
उत्पादन प्रक्रिया में अपनी स्थिति के अनुसार तथा सम्पत्ति के सम्बन्धों में उनके एक जैसे हित और उद्देश्य होते हैं। मार्क्स का कहना है कि श्रम विभाजन का आधार वर्गों का निर्माण है और वर्गों का निर्माण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत होता है, जो उत्पादन में सहायक शक्तियों की स्थिति में परिवर्तन तथा पहले से विद्यमान वर्गों के मध्य होने वाले संघर्षों के फलस्वरूप होता है। जैसे-जैसे उत्पादन के साधन-उत्पादन तकनीक तथा उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन आता है, तो विभिन्न वर्गों में संघर्ष बढ़ जाता है जिसका परिणाम संघर्ष होता है। इस प्रकार मार्क्स के अनुसार श्रम-विभाजन का आधार आर्थिक है।
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प्रश्न 4.
आप किस हद तक सोचते हैं कि कहाँ तक निम्नलिखित समूहों अथवा गतिविधियों में वेबर के अर्थों में नौकरशाही सत्ता का प्रयोग हुआ है?
(क) आपकी कक्षा
(ख) आपका विद्यालय
(ग) फुटबॉल टीम
(घ) एक गाँव की पंचायत समिति
(ङ) लोकप्रिय अभिनेता के प्रशंसकों का संघ
(च) ट्रेन या बस में रोजाना सफर करने वाले लोगों का समूह
(छ) सामूहिक परिवार
(ज) ग्रामीण समुदाय
(झ) जहाज का क्रू
(ब) अपराधियों का गिरोह
(ट) धार्मिक नेता के अनुयायी
(ठ) सिनेमा घर में सिनेमा देखते लोग।
उत्तर:
(ख) आपका विद्यालय
(ग) फुटबॉल टीम
(घ) एक गाँव की पंचायत समिति में वेबर के अर्थों में नौकरशाही सत्ता का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न 1.
बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?
उत्तर:
बौद्धिक ज्ञानोदय-17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध व 18वीं सदी में पश्चिमी यूरोप में संसार के बारे में सोचनेविचारने के बिल्कुल नये व मौलिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ जिसे बौद्धिक ज्ञानोदय के नाम से जाना जाता है। ज्ञानोदय ने एक तरफ मनुष्य को ब्रह्माण्ड के केन्द्रबिन्दु के रूप में स्थापित किया, तो दूसरी तरफ विवेक को मनुष्य की प्रमुख विशेषता बताया। विवेकपूर्ण तथा आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन कर दिया। इसने मानव को 'ज्ञान के पात्र' की उपाधि दी। साथ ही उसे ही पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया जो विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार सकते थे।
जो इस योग्य नहीं थे, उन्हें आदिमानव या बर्बर मानव कहा गया। चूँकि मानव समाज मनुष्य द्वारा बनाया गया है। इसका युक्तिसंगत विश्लेषण आवश्यक था। इस विश्लेषण के लिए प्रकृति, धर्म-संप्रदाय व देवी-देवताओं के महत्त्व को कम करना आवश्यक था, क्योंकि ज्ञानोदय से पूर्व मानव-जगत को जानने-समझने के लिए इन्हीं पर निर्भर थे। बौद्धिक ज्ञानोदय ने मानव के दृष्टिकोण में परिवर्तन कर 'वैज्ञानिक सोच' के दृष्टिकोण को स्थापित किया, जो समाजशास्त्र के विकास के लिए अति आवश्यक था।
प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है?
उत्तर:
औद्योगिक क्रांति समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है क्योंकि
(1) औद्योगिक क्रांति के कारण उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन आया-औद्योगिक क्रांति से आधुनिक उद्योगों की नींव रखी गयी। इसके कारण नयी मशीनों का आविष्कार हुआ तथा ऊर्जा के नये साधनों का औद्योगिक कामों में उपयोग हुआ। दूसरे, इसने श्रम तथा बाजार को नए ढंग से व बड़े पैमाने पर संगठित करने के तरीके विकसित किये। फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति ने औद्योगिक उत्पादकता को बढ़ाया, उत्पादन प्रक्रिया को सुगम बनाया। इससे अधिक उत्पादन होने लगा और उत्पादन बड़े पैमाने पर सम्पूर्ण विश्व के बाजारों के लिए किया जाने लगा तथा इन उत्पादों के निर्माण के लिए आवश्यक कच्चा माल भी विश्वभर से प्राप्त किया जाने लगा।
(2) सामाजिक जीवन में परिवर्तन-उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन होने के कारण सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन आया। उद्योगों का केन्द्रीकरण शहरी क्षेत्र में होने से नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई, नगरों का विस्तार हुआ, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं में वृद्धि हुई, गाँवों से आये मजदूरों ने श्रम की माँग को पूरा किया, साथ ही शहरों में झुग्गी-झोंपड़ी वाली गन्दी बस्तियों का निर्माण हुआ। शहरों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ा। यहाँ ऊँच-नीच की विषमताओं में बँटा विशाल जनसमूह थोड़े मगर सघन आबादी के भीड़-भाड़ भरे इलाकों में रहने लगा।
(3) नई राजकीय जिम्मेदारियों को निभाने के लिए शासन तंत्र को नए ज्ञान की आवश्यकता-शहरों में सामाजिक जीवन में परिवर्तन आने से राज्य के समक्ष स्वास्थ्य, सफाई-व्यवस्था, आपराधिक गतिविधियों व व्यवसायों पर नियंत्रण व सर्वांगीण विकास जैसे सार्वजनिक सामूहिक विषयों की जिम्मेदारी उठानी पड़ी। इन सभी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए शासन तंत्र को नए प्रकार की जानकारी व ज्ञान की आवश्यकता महसूस हुई। नए ज्ञान के लिए उभरती माँग ने समाजशास्त्र के अभ्युदय व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। किसी भी समाज को समझने का आधार, वहाँ के राज्य द्वारा तैयार की गयी वैज्ञानिक सूचना बनी जो इसके सामाजिक संकायों की देख-रेख करती है। समाजशास्त्रीय चिंतन इसी चिंतन-मनन का परिणाम है।
प्रश्न 3.
उत्पादन के तरीकों के विभिन्न घटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
उत्पादन के तरीकों के विभिन्न घटक अर्थव्यवस्था के बारे में मार्क्स की धारणा थी कि यह उत्पादन के तरीकों पर आधारित होती है। इसमें उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन सम्बन्ध शामिल होते हैं। इस प्रकार मार्क्स के अनुसार उत्पादन के तरीकों के घटकों को मोटे रूप से दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा-
(1) उत्पादन की शक्तियाँ-उत्पादन की शक्तियों से तात्पर्य उत्पादन के सभी साधनों से है; जैसे-भूमि, मजदूर, तकनीक, ऊर्जा के विभिन्न साधन (बिजली, कोयला, पैट्रोलियम) आदि।
(2) उत्पादन के सम्बन्ध-उत्पादन के सम्बन्ध के अन्तर्गत वे सभी आर्थिक सम्बन्ध आते हैं जो मजदुर संगठन के रूप में उत्पादन में भाग लेते हैं। उत्पादन के सम्बन्ध, सम्बन्धी भी होते हैं क्योंकि ये उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण से सम्बन्धित होते हैं।
उदाहरण के लिए, आदिम साम्यवाद में उत्पादन के तरीकों के अन्तर्गत मुख्यतः प्रकृति-जंगल, भूमि, जानवर तथा तकनीक इत्यादि साधन आते हैं। इसमें तकनीक के आदिम तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे-पत्थर के सरल औजार तथा शिकार के हथियार। इसमें उत्पादन के सम्बन्ध सामूहिक सम्पत्ति पर आधारित थे। इस समय निजी सम्पत्ति की अवधारणा नहीं थी। शिकार तथा संग्रहण के आदिम तरीके मजदूर संगठन के रूप में थे।
प्रश्न 4.
मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्यों होते हैं?
उत्तर:
मार्क्स वर्ग संघर्ष के प्रतिपादक थे। उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं। उत्पादन प्रक्रिया में अपनी स्थिति के अनुसार तथा सम्पत्ति के सम्बन्धों में उनका समान हित तथा उद्देश्य होते हैं। मार्क्स का कहना है कि प्रत्येक काल के समाज में मुख्यतः दो वर्ग रहे हैं। एक वर्ग वह है जिसका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण होता है और दूसरा वर्ग वह है जो साधनहीन होता है। पहला वर्ग शोषक वर्ग होता है और दूसरा वर्ग शोषित । मार्क्स और एंगेल्स के शब्दों में, "आजाद तथा दास, कुलीन तथा सामान्यजन, जमींदार एवं सर्फ, श्रेणी प्रमुख तथा कारीगर; एक शब्द में क्रमशः शोषक और शोषित, एक दूसरे का निरन्तर विरोध करते रहे हैं।" इस वर्ग-संघर्ष के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) वर्गों के हितों में परस्पर विरोध-प्रत्येक काल के समाज में दो वर्-साधनसम्पन्न वर्ग और साधनहीन वर्ग पाये जाते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में दोनों वर्गों के हित परस्पर विरोधी होते हैं।
(2) वर्ग-चेतना-मार्क्स का कहना है कि दो वर्ग सिद्धान्ततः एक-दूसरे के विरोधी भी हों तो भी वे स्वतः संघर्ष में नहीं पड़ते हैं। संघर्ष होने के लिए आवश्यक है कि वे अपने वर्ग हित तथा पहचान के प्रति जागरूक हों, साथ ही, अपने विरोधी के हितों तथा पहचान के प्रति सजग रहें । इसे मार्क्स ने 'वर्ग चेतना' का नाम दिया है। इस प्रकार की 'वर्ग चेतना' के विकसित होने के बाद राजनैतिक गोलबंदी के तहत वर्ग संघर्ष होते हैं। इस प्रकार आर्थिक प्रक्रियाएँ ज्यादातर वर्ग संघर्ष को जन्म देती हैं।
(3) राजनैतिक और सामाजिक स्थितियाँ-वर्ग चेतना के उत्पन्न होने के बाद राजनैतिक गोलबन्दी के तहत वर्ग संघर्ष होते हैं। राजनैतिक गोलबन्दी के निर्धारण में प्रभुत्व वर्ग की विरोधी विचारधारा तथा सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाएँ भी वर्ग-संघर्ष को प्रेरित करती हैं। अनुकूल सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के अन्तर्गत वर्ग-संघर्ष क्रांति के रूप में परिणत हो जाता है।
प्रश्न 5.
सामाजिक तथ्य क्या हैं ? हम उन्हें कैसे पहचानते हैं ?
उत्तर:
सामाजिक तथ्य से आशय-सामाजिक तथ्य वस्तुओं की तरह होते हैं। वे व्यक्ति के लिए बाह्य होते हैं जिसे केवल अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है। ये कोई स्थिर धारणाएँ नहीं हैं, बल्कि इन्हें गतिशील धारणा के रूप में समझा जाना चाहिए। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के आचरण को नियंत्रित करते हैं। दुर्शीम ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि सामाजिक तथ्यों को वस्तुओं के समान समझना चाहिए सामाजिक तथ्यों में कार्य करने, सोचने, अनुभव करने के तरीके सम्मिलित हैं, जो व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं तथा जो अपनी दबाव शक्ति के माध्यम से व्यक्ति को नियंत्रित करते हैं। सामाजिक तथ्य की पहचान-सामाजिक तथ्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं, जिनके आधार पर हम सामाजिक तथ्यों को पहचान सकते हैं
(1) सामाजिकता-सामाजिक तथ्य सामूहिक प्रतिनिधान होते हैं जिनका उद्भव व्यक्तियों के संगठन से होता है। इसकी उत्पत्ति का आधार व्यक्ति न होकर सामाजिक साहचर्य है। इसका विकास सामाजिक चेतना से होता है। इसलिए लोग सामाजिक तथ्य के दबाव के अनुरूप व्यवहार करते हैं।
(2) बाह्यता-सामाजिक तथ्य में बाह्यता की विशेषता होती है। इसका निर्माण व्यक्ति नहीं करता है, बल्कि समाज करता है। अतः सामाजिक तथ्य व्यक्ति की चेतना से बाहर है। इसके उदाहरणों में सामाजिक मूल्य, परम्पराएँ, रीति-रिवाज-त्यौहार, अभिवादन के व्यवहार आदि को लिया जा सकता है।
(3) बाध्यता-सामाजिक तथ्यों की एक अन्य विशेषता उसकी बाध्यता है। सामाजिक तथ्यों का निर्माण अनेक व्यक्तियों द्वारा या व्यक्तियों के संगठन द्वारा होता है। अतः ये अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं और किसी भी व्यक्ति पर इनका बाध्यतामूलक प्रभाव पड़ता है। इसलिए सामाजिक तथ्य न केवल व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं, बल्कि उसके सोचने, विचारने आदि के तरीकों को भी प्रभावित करते हैं। सामाजिक तथ्यों की यह बाध्यता व्यक्ति के व्यवहार को समाज के मानक और मूल्यों के अनुरूप बनाने के लिए अभिप्रेरित करती है। अतः सामाजिक तथ्य कार्य करने का वह तरीका है जो व्यक्ति पर बाहर से दबाव डालने की क्षमता रखता है। समाज में प्रचलित अनेक सामाजिक तथ्य, जैसेनैतिक नियम, धार्मिक विश्वास, वित्तीय व्यवस्थाएँ आदि सभी मनुष्य के व्यवहार तथा तरीकों को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। सामाजिक तथ्य की यह बाध्यता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में हो सकती है।
(4) अधिवैयक्तिकता-दुर्थीम का कहना है कि व्यक्ति की चेतना पर सामाजिक तथ्यों का दबाव इतना अधिक हो जाता है कि व्यक्तिगत चेतना गौण हो जाती है। सामाजिक तथ्य सामाजिक संगठनों की उपज हैं और इन सामाजिक संगठनों के काम करने की एक निश्चित पद्धति, नियम, उपनियम तथा परम्पराएँ होती हैं। ये सब व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं।
(5) सामाजिक धाराएँ-कुछ ऐसे भी सामाजिक तथ्य हैं जो सामाजिक संगठनों व उनके नियम, उपनियमों व परम्पराओं की तरह स्पष्ट तो नहीं हैं, लेकिन उनका अन्य सामाजिक तथ्यों की तरह ही व्यक्ति के ऊपर वर्चस्व होता है। ऐसे सामाजिक तथ्यों को दुीम ने सामाजिक धाराएँ (social currents) कहा है। जैसे—भूकम्पपीड़ितों या बाढ़पीड़ितों के प्रति सम्पूर्ण समाज में उत्पन्न सहानुभूति या हमदर्दी की धारा।
(6) क्रिया के तरीके-दुर्थीम के अनुसार, सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने तथा अनुभव करने के तरीके हैं। दुर्शीम ने क्रिया के तरीकों में निवास करने अथवा रहने के तरीकों को भी शामिल किया है। इनमें सामान्यतः स्थिरता पाई जाती है। प्रत्येक समाज में मकान बनाने के अलग-अलग तरीके हैं जो उनकी सामूहिक क्रिया-पद्धति को प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार भोजन, खान-पान इत्यादि जीवन बिताने के भिन्न-भिन्न तरीके भी सामाजिक तथ्य हैं क्योंकि वे भी बहुत कम परिवतर्तित होते हैं। अतः हम सामाजिक तथ्यों को उसकी बाह्यता, बाध्यता, सामाजिकता, अधिवैयक्तिकता तथा क्रिया के तरीकों की विशेषताओं के द्वारा पहचान सकते हैं।
प्रश्न 6.
यांत्रिक और सावयवी एकता में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
यांत्रिक और सावयवी एकता में अन्तर दुर्शीम ने समाज का वर्गीकरण सामाजिक एकता की प्रकृति के आधार पर दो प्रकारों—यांत्रिक एकता वाला समाज और सामाजिक एकता वाला समाज में किया है। यांत्रिक और सावयवी एकता में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं
(1) प्राचीन एवं आधुनिक समाज का अन्तर-यांत्रिक एकता का प्रचलन आदिम एवं प्राचीन समाजों में ही पाया जाता है, जबकि सावयवी एकता वर्तमान में व्याप्त आधुनिक समाजों में पायी जाती है।
(2) समाज में व्यक्ति के मध्य सम्बन्ध का अन्तर-यांत्रिक एकता प्रत्यक्ष व्यक्तिगत सम्बन्धों पर आधारित होती है जबकि सावयवी एकता में व्यक्ति का समाज के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता।
(3) व्यक्तिगत एकरूपता तथा विषमता सम्बन्धी अन्तर-यांत्रिक एकता का आधार व्यक्तिगत एकरूपता होती है जबकि सावयवी एकता का आधार इसके सदस्यों की विषमताएँ हैं अर्थात् यह व्यक्तिगत विषमताओं पर आधारित होती
है।
(4) जनसंख्या सम्बन्धी अन्तर-यांत्रिक एकता कम जनसंख्या वाले समाजों में पायी जाती है, जबकि सावयवी एकता वृहद् जनसंख्या वाले समाजों में पायी जाती है।' कम जनसंख्या वाले समाजों में व्यक्तिगत एकरूपता होती है तथा व्यक्तिगत सम्बन्ध प्रत्यक्ष होते हैं। अतः इसमें व्यक्तियों के बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध पाये जाते हैं। दूसरी तरफ वृहद् जनसंख्या वाले समाजों में व्यक्तियों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होते, बल्कि अप्रत्यक्ष सम्बन्ध पाये जाते हैं। इस प्रकार सावयवी एकता में अधिकतर सामाजिक सम्बन्ध अवैयक्तिक होते हैं।
(5) स्वावलम्बन तथा परस्पर निर्भरता सम्बन्धी अन्तर-यांत्रिक एकता में विशिष्ट रूप से विभिन्न स्वावलम्बित समूह होते हैं जहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट समूह के अन्तर्गत एक जैसे क्रियाकलापों तथा प्रकार्यों में लिप्त रहता है। . दूसरी तरफ सावयवी एकता में समाज का आधार संस्थाएँ होती हैं और प्रत्येक इकाई अपने आप में स्वावलम्बी न होकर दूसरी इकाई पर आश्रित होती है। अतः सावयवी एकता में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है।
(6) दमनकारी तथा क्षतिपूरक कानून सम्बन्धी अन्तर-यांत्रिक एकता की अभिव्यक्ति दमनकारी कानूनों में निहित है, जबकि सावयवी एकता वाले समाजों में प्रतिकारी या क्षतिपूरक कानूनों की प्रमुखता होती है।
(7) सामूहिक चेतना तथा कार्यात्मक भिन्नता सम्बन्धी अन्तर-यांत्रिक एकता की शक्ति सामूहिक चेतना की शक्ति में व्याप्त होती है, जबकि सावयवी एकता की शक्ति श्रम-विभाजन या कार्यात्मक भिन्नता में निहित है।
प्रश्न 7.
उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती हैं?
उत्तर:
दुर्थीम के मतानुसार किसी भी समाज की मुख्य विशेषता उसकी नैतिक संहिताएँ होती हैं जो व्यक्तिगत आचरण को निर्धारित करती हैं । दुर्थीम के लिए समाज एक सामाजिक तथ्य था जिसका अस्तित्व नैतिक समुदाय के रूप में व्यक्ति से ऊपर था। दुीम के अनुसार, सामाजिकता को नैतिक आचरण की संहिताओं में पाया जा सकता था जो व्यक्ति पर सामूहिक समझौते के तहत जबरदस्ती थोपे जाते थे। अतः दुर्शीम ने लिखा है कि सामाजिक एकता एक नैतिक प्रघटना है। इसमें व्यक्तियों के नैतिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। नैतिक संहिता के कारण एकता निर्धनता और आदिमता में भी मनुष्यों को प्रसन्न और संतुष्ट रहने की प्रेरणा देती है। उदाहरण के लिए प्राचीन समाजों में भौतिकता के अभाव के बावजूद अधिक प्रसन्नता और संतोष दिखाई देता था। इसका कारण प्राचीन समाज में पाई जाने वाली नैतिक संहिता थी जो सामाजिक एकता की सूचक थी।
प्रश्न 8.
नौकरशाही की बुनियादी विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
नौकरशाही का अर्थ-कोई भी ऐसा पदसोपानिक संगठन जो बहुत बड़े आधार पर प्रशासनिक कार्यों को तर्कसंगत रूप से चलाने के लिए बहुत से व्यक्तियों के कार्यों द्वारा समन्वित होता है, उसे नौकरशाही कहा जाता है। -
नौकरशाही की विशेषताएँ नौकरशाही की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) अधिकारियों के प्रकार्य-नौकरशाही में प्रत्येक कर्मचारी व अधिकारी का कार्यक्षेत्र निश्चित रूप से विभाजित होता है जो साधारणतया नियमों, विधि तथा प्रशासनिक विधानों से नियंत्रित होता है। इन्हें हम निम्न भागों में बाँट सकते हैं
(2) सोपानिक क्रम-अधिकारी तथा कार्यालय श्रेणीगत सोपान पर आधारित होते हैं, जहाँ उच्च अधिकारी द्वारा निम्न अधिकारियों का निर्देशन किया जाता है। निम्न अधिकारियों के निर्णय से असंतुष्ट होने पर उसके निर्णय के विरुद्ध बड़े अधिकारियों के पास अपील की जा सकती है।
(3) लिखित दस्तावेजों की विश्वसनीयता-नौकरशाही व्यवस्थाओं का प्रबंधन लिखित दस्तावेजों के आधार पर चलाया जाता है तथा फाइलों को रिकॉर्ड के रूप में संभाल कर रखा जाता है। इस तरह के कार्यालयों के कार्यों के संचालन के लिए एक अधीनस्थ कर्मचारी समूह होता है।
(4) कार्यालय प्रबंधन-नौकरशाही. में कार्यालय प्रबंधन विशिष्ट तथा आधुनिक क्रिया है। अतः यहाँ कार्य के लिए प्रशिक्षित और कुशल कर्मचारियों की आवश्यकता होती है।
(5) कार्यालयी आचरण-कार्यालयी क्रियाकलाप कर्मचारियों से सम्पूर्ण एकाग्रता की अपेक्षा करते हैं। अतः कार्यालय में एक कर्मचारी का आचरण नियमों तथा कानूनों द्वारा नियंत्रित होता है। ये नियम तथा कानून उसके सार्वजनिक आचरण को निजी व्यवहार से अलग करते हैं। चूँकि ये नियम तथा विधान कानूनी रूप में पहचाने जाते हैं, अतः कर्मचारियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। .
(6) वेतन व पेन्शन अधिकार-नौकरशाही में संगठन की आय के आधार पर कर्मचारियों का वेतन तय नहीं किया जाता वरन् पदसोपान में उसके स्तर, पद के दायित्व, सामाजिक स्थिति आदि के आधार पर तय किया जाता है।
(7) आजीवन व्यवसाय तथा पदोन्नति-नौकरशाही में प्रत्येक कर्मचारी अपने पद को आजीवन बना लेता है। वरिष्ठता या कार्य सम्पन्नता के आधार पर उसकी पदोन्नति होती रहती है।
प्रश्न 9.
सामाजिक विज्ञान में किस प्रकार विशिष्ट तथा भिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता होती
उत्तर:
वेबर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विशिष्ट तथा जटिल प्रकार की 'वस्तुनिष्ठता' की बात की जिसे सामाजिक विज्ञान को अपनाना था। सामाजिक विश्व की खोज मनुष्य के व्यवहार के अर्थों, मूल्यों, समझ, पूर्वाग्रह, आदर्शों इत्यादि पर आधारित है। सामाजिक विज्ञान के इन विषयगत अर्थों को समझने के लिए तथा उसका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिए, सामाजिक वैज्ञानिकों को सदैव 'समानुभूति समझ' (अनुभूति के साथ समझ) को अपनाना पड़ेगा और इसे अपनाने के लिए स्वयं को उनके स्थान, जिनकी क्रियाओं का वे अध्ययन कर रहे होते हैं, पर रखना पड़ेगा। लेकिन यह अध्ययन वस्तुनिष्ठ तरीके से करना था, जबकि यह मामला विषयगत था।
अतः वेबर ने इसीलिए इसके लिए विशिष्ट और भिन्न या जटिल प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता पर बल दिया है। अतः 'समानुभूति.समझ' के लिए यह आवश्यक है कि समाजशास्त्री, बिना स्वयं की निजी मान्यताओं तथा प्रक्रिया से प्रभावित हुए, पूर्णरूपेण विषयगत अर्थों तथा सामाजिक कर्ताओं की अभिप्रेरणाओं को ईमानदारीपूर्वक अभिलिखित करे अर्थात् समाजशास्त्री दूसरों की विषयगत भावनाओं का वर्णन करे, न कि परखे। वेबर ने इस वस्तुनिष्ठता को 'मूल्य तटस्थता' कहा है। समाजशास्त्री इन विषयगत मूल्यों का वर्णन तटस्थ होकर, इन मूल्यों के प्रति अपनी धारणाओं में बिना बहे करते हैं। यद्यपि यह बहुत कठिन या जटिल है।
प्रश्न 10.
क्या आप ऐसे किसी विचार अथवा सिद्धान्त के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आंदोलन को जन्म दिया है?
उत्तर:
हाँ, नारीवादी सिद्धान्त ने आधुनिक भारत में 'महिला आंदोलन' को जन्म दिया है। समानता के सिद्धान्त से प्रेरित होकर आधुनिक भारत में महिलाओं ने 'आर्थिक और सामाजिक समानता' की प्राप्ति के लिए एक आन्दोलन प्रारंभ किया। परिणामस्वरूप आज महिलाएँ शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं और आर्थिक क्षेत्र में विभिन्न सेवाओं एवं स्वरोजगार द्वारा आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करती जा रही हैं।
इस 'महिला-आंदोलन' के परिणामस्वरूप सन् 2005 में 'हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम' के द्वारा पैतृक सम्पत्ति में पुत्री को पुत्र के समान अधिकार प्रदान कर दिया है। वर्तमान में 'महिला आंदोलन' राजनीतिक सत्ता में समानता प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण प्राप्त हो गया है। अब यह आंदोलन विधानसभाओं एवं संसद में महिला आरक्षण हेतु सक्रिय है।
प्रश्न 11.
मार्क्स तथा वेबर ने भारत के विषय में क्या लिखा है ? पता करने की कोशिश कीजिए।
उत्तर:
भारत के विषय में मार्क्स का लेखन मार्क्स के समय भारत में 1857 का विद्रोह हो चुका था। मार्क्स की पुस्तक 'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' सन् 1847 में प्रकाशित हुई और इसके दस वर्ष बाद ही भारत में प्रथम स्वाधीनता संग्राम हुआ। मार्क्स ने भारत के इस स्वाधीनता संग्राम को भारत में पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का एक प्रयास बताया। लंदन से प्रकाशित एक समाचारपत्र में मार्क्स ने टिप्पणी की कि "फ्रांस की क्रांति जब मजदूर को उसका हक दिला सकती है तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता।" 14 मार्च 1883 को मार्क्स का निधन हो गया।
वे भारत के बारे में उत्कृष्ट विचार रखते थे। भारत के विषय में मैक्स वेबर का लेखन मैक्स वेबर एक समाजशास्त्री थे। प्रथम विश्व युद्ध को वेबर ने अपनी आँखों से देखा था। वे भारत द्वारा इस युद्ध में भाग लेने के विरोधी थे तथा भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वेबर ने भारत के हिन्दू धर्म की व्याख्या बहुत विस्तार से की है। भारत के धर्म के विषय में वेबर के विचारों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) जाति-वेबर के अनुसार भारत में जाति सामाजिक संरचना की एक महत्त्वपूर्ण केन्द्रीय धुरी है। वेबर ने जातियों को एक विशेष प्रकार का जन्मानुगत प्रस्थिति बताया जिनके नियंत्रण के व्यवहार, मात्रा और विस्तार दोनों में, अतुलनीय हैं। इस प्रकार के नियंत्रणों में अन्तर्विवाह, खान-पान के नियम प्रमुख थे। जाति-प्रणाली के सम्बन्ध में वेबर ने अपने विचारों को विजयों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव पर संस्कृतिकरण तथा प्रजातीय मिश्रण तथा जनजातियों द्वारा हिन्दू धर्म को स्वीकार करने आदि के रूप में हुआ। वेबर का कहना है कि जातियाँ अपनी स्वीकारोचित आजीविकाओं को सीमित रखती हैं, वे एक निश्चित मर्यादा के एक प्रस्थिति समूह के अनुरूप हैं, वे विशुद्ध सामाजिक समूह हैं और वे अन्तर्विवाह को व्यवहार में लाती हैं।
(2) ब्राह्मणों की स्थिति-वेबर का मानना है कि संभवतः भारतीय समाज की आरंभिक स्थिति में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे ब्राह्मणों की स्थिति राजाओं के काल में सुधरने लगी और बाद में वे इसलिए प्रमुख हो गए कि राजाओं और अभिजात व्यक्तियों के कुल पुरोहितों के रूप में उन्हें उन पुरोहितों के मुकाबले प्रधानता मिल गयी जो सामुदायिक यज्ञ करवाते थे। उन पुरोहितों के पद के अनुरूप ब्राह्मण-जाति की वृत्ति में वैदिक अध्ययन, धार्मिक शिक्षा और पुरोहिती कार्य सम्पादित करना था। इन सेवाओं के द्वारा एक ब्राह्मण केवल दक्षिणा स्वीकार करता था। जो लोग उसकी सेवा की प्रार्थना करते थे, उनका धार्मिक कर्त्तव्य था कि वे दक्षिणा दें।
(3) धर्मनिरपेक्ष नीति-वेबर ने भारत के बौद्ध, जैन और हिन्दू परम्परावाद को ऐसे सुसंस्कृत संभ्रांत वर्ग के धार्मिक आंदोलनों के रूप में देखा, जो धर्म के सभी मामलों में साधारणजनों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानता है। प्रारंभिक बौद्ध धर्म ने साधारणजनों पर कोई विशेष कठोर नियम नहीं लादे । इस प्रकार उसने धर्मनिरपेक्ष शासन समूह के हितों की व्यवस्था की। ऐसी परिस्थिति में भारत के प्रमुख धर्म जनप्रिय बनने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करने लगे और बौद्ध धर्म एक बड़ा धर्म-प्रचारक आन्दोलन बन गया। इसकी प्रतिक्रिया में ब्राह्मण परम्परावादिता ने भी अपने को सामान्य अनुयायियों के धार्मिक हितों के अनुकूल बनाया।
(4) धार्मिक विश्वासों का अध्ययन-वेबर ने हिन्दू धर्म के धार्मिक विश्वासों का अध्ययन किया है और लिखा है कि हिन्दू धर्म के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं-
प्रत्येक जन्म में पूर्व जन्म के पापों के अनुसार फल मिलता है। आत्मा को अमर नहीं माना जाता और मृत आत्मा - की शांति के लिए पूजा आदि की जाती है जिससे दिवंगत आत्मा को भूखा मरने से बचाया जा सकता है। अंत में ब्राह्मणो की कल्पना ने यह विचार व्यक्त किया कि मृत आत्मा दूसरा जीवन पायेगी। पुनर्जन्म के इस विचार को मनुष्यों के अच्छेबुरे कर्मों के फल के विचार से जोड़ दिया गया। वेबर ने कहा कि मनुष्य के कर्मों का प्रभाव अगले जन्म में उसके भाग्य पर अनिवार्य रूप से पड़ता है और प्रत्येक मनुष्य का सामाजिक पद जाति व्यवस्था से बंधा हुआ है। इस प्रकार वेबर ने भारतीय समाज की संरचना और धार्मिक विकास के अध्ययन में मुख्य रूप से धार्मिक नेतृत्व और जाति-व्यवस्था के संदर्भ में जनता की धार्मिक रुचि पर विचार किया है।
प्रश्न 12.
क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतकों के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चाहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है? इनके कार्यों का अध्ययन न करने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
हमें समाजशास्त्र के उन चिंतकों का अध्ययन करना चाहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है क्योंकि
(1) इससे समाजशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा का ज्ञान होता है कि किस प्रकार उनके विचारों ने समाजशास्त्र की नींव रखी तथा उसका विकास किया।
(2) दूसरे, इनके विचार और सोच आधुनिक परिवेश में भी प्रासंगिक हैं। उनके सिद्धान्तों की समालोचना होती है और इनमें समय के साथ महत्त्वपूर्ण संशोधन भी होते रहते हैं। जिससे ये विचार आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक बने रहते
(3) तीसरे, उन चिंतकों द्वारा प्रदान की गई अवधारणाएँ उनके सामाजिक परिवेश से प्रभावित थीं, इससे हमें उस काल के सामाजिक परिवेश का पता लगता है कि किन सामाजिक परिवेश व परिस्थितियों से प्रभावित होकर उन चिंतकों ने ये विचार प्रस्तुत किये।
(4) इन चिंतकों द्वारा अध्ययन की जो पद्धतियाँ काम में ली गई हैं, हमें उनकी जानकारी मिलती है और हमारे ज्ञान का विकास होता है। उन पद्धतियों की गुणवत्ता पर हम विचार कर सकते हैं और उपयोगी पाते हुए हम अपने अध्ययन में उसे अपना सकते हैं।
(5) इन चिंतकों के कार्यों का अध्ययन कर हम किसी विषय के विकास-क्रम का पता लगा सकते हैं और यह भी देख सकते हैं कि तत्कालीन समाज पर इन विचारों ने क्या प्रभाव डाला? इनके विचारों से समाज में क्या परिवर्तन आया? और वर्तमान में इन विचारों की क्या प्रासंगिकता है।