Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
ज्ञात करें कि आपके समाज में विवाह के कौन-से नियमों का पालन किया जाता है? कक्षा में अन्य विद्यार्थियों द्वारा किए गए प्रेक्षणों से अपने प्रेक्षण की तुलना करें तथा चर्चा करें।
उत्तर:
हमारे समाज में विवाह-साथी के चयन का निर्णय अभिभावकों/संबंधियों द्वारा किया जाता है। लेकिन किस व्यक्ति से विवाह किया जा सकता है और किससे नहीं; इस सम्बन्ध में अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह के नियमों का पालन किया जाता है। यथा -
(1) अन्तर्विवाह सम्बन्धी नियम-अंतर्विवाह में व्यक्ति उसी सांस्कृतिक समूह में विवाह करता है जिसका वह पहले से ही सदस्य है। उदाहरण के लिए मैं ब्राह्मण जाति का सदस्य हूँ तो ब्राह्मण कन्या से ही विवाह कर सकता हूँ।
(2) बहिर्विवाह सम्बन्धी नियम-विवाह का बहिर्विवाह सम्बन्धी नियम यह है कि व्यक्ति अपने समूह से बाहर विवाह करेगा। विभिन्न समाजों में यह समूह वंश, गोत्र, टोटम समूह होते हैं। हमारे समाज में अपने वंश और गोत्र में विवाह नहीं किया जा सकता। इससे बाहर के समूह-भिन्न गोत्र व भिन्न वंश की कन्या से ही विवाह किया जा सकता
(3) निकटाभिगमन निषेध-इसके अतिरिक्त हमारे समाज में अति निकट के सम्बन्धियों से विवाह स्थापित करना वर्जित होता है। जैसे-पिता-पुत्री, माता-पुत्र, सगे भाई-बहिनों, वंश-समूह, गोत्र-समूह, मातृ-समूह आदि। (नोट-कक्षा में अन्य विद्यार्थियों द्वारा किये गये प्रेक्षणों से अपने प्रेक्षण की तुलना विद्यार्थी स्वयं करें तथा उस पर चर्चा करें।)
प्रश्न 2.
ज्ञात करें कि व्यापक संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने से परिवार में सदस्यता, आवासीय प्रतिमान और यहाँ तक कि पारस्परिक सम्पर्क का तरीका कैसे परिवर्तित होता है? उदाहरण के लिए प्रवास।
उत्तर:
यद्यपि हमारे दैनिक जीवन में हम प्रायः परिवार को अन्य क्षेत्रों, जैसे-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक से भिन्न और अलग देखते हैं; तथापि व्यापक संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने से परिवार में सदस्यता, आवासीय प्रतिमान और पारस्परिक सम्पर्क के तरीके भी परिवर्तित होते हैं। इसका कारण यह है कि परिवार, गृह, उसकी संरचना और प्रतिमान शेष समाज से गहरे जुड़े हुए हैं।
उदाहरण के लिए 1990 के दशक में एकीकरण के बाद जर्मनी में विवाह प्रणाली में तेजी से गिरावट आयी क्योंकि नए जर्मन राज्य ने एकीकरण से पूर्व परिवारों को प्राप्त संरक्षण और कल्याण की सभी योजनाएँ रद्द कर दी थीं। आर्थिक असुरक्षा की बढ़ती भावना के कारण लोग विवाह से इन्कार करने लगे।
इस प्रकार बड़ी आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण परिवार और नातेदारी परिवर्तित और रूपान्तरित होते रहते हैं, लेकिन परिवर्तन की दिशा सभी देशों और क्षेत्रों में हमेशा एक समान नहीं हो सकती। हालांकि इस परिवर्तन का यह भी अर्थ नहीं है कि पिछले नियम और संरचना पूरी तरह नष्ट हो गई हैं। परिवर्तन और निरन्तरता सहवर्ती होते हैं।
प्रश्न 3.
कार्य पर एक निबन्ध लिखिये। कार्यों की विद्यमान श्रेणी क्या हैं और ये किस तरह बदलती हैं? दोनों पर ध्यान केन्द्रित करें।
उत्तर:
कार्य से तात्पर्य-हम कार्य को शारीरिक और मानसिक परिश्रमों के द्वारा किये जाने वाले ऐसे सवैतनिक या अवैतनिक कार्यों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिनका उद्देश्य मानव की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करना है। कार्य के आधनिक रूप और उनका परिवर्तन कार्यों की विद्यमान श्रेणी और उनके परिवर्तन की प्रक्रिया को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है -
(1) कृषि कार्य तथा औद्योगिक कार्य-पूर्व आधुनिक समाज में अधिकतर लोग खेतों में कार्य करते थे या पशुओं की देखभाल करते थे। औद्योगिक रूप से विकसित आधुनिक समाज में जनसंख्या का बहुत छोटा भाग ही कृषि कार्यों में लगा हुआ है और बड़ा भाग औद्योगिक व गैर-कृषि कार्यों में लगा हुआ है। दूसरे, स्वयं कृषि का भी औद्योगीकरण हो गया है। अब कृषि कार्य मानव द्वारा करने की अपेक्षा अधिकांशतः मशीनों द्वारा किया जाने लगा है।
(2) श्रम विभाजन तथा कार्य विशेषीकरण-पारम्परिक समाजों में जो गैर-कृषि कार्य होता था, वह हस्तकौशल की दक्षता से जुड़ा था। हस्तकौशल लम्बे प्रशिक्षण के माध्यम से सीखा जाता था और सामान्यतः श्रमिक उत्पादन प्रक्रिया के आरंभ से अंत तक सभी कार्य करता था। आधुनिक औद्योगिक समाजों में श्रम विभाजन अत्यधिक जटिल हो गया है। कार्य असंख्य विभिन्न व्यवसायों में विभाजित हो गया है जिनमें लोग विशेषज्ञ हैं।
(3) कार्य स्थिति में परिवर्तन-औद्योगीकरण से पूर्व, अधिकतर कार्य घर पर किये जाते थे और कार्य पूरा करने में परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से हाथ बंटाते थे। औद्योगिक प्रौद्योगिकी में विकास (बिजली और कोयले से संजीव पास बुक्स मशीन संचालन) ने घर को कार्य से अलग कर दिया और अब पूँजीपतियों या उद्योगपतियों के कारखाने कार्य का केन्द्र स्थल बन गये। उद्योगों में नौकरी पाने वाले लोग विशिष्ट कार्यों को करने के लिए प्रशिक्षित थे और इस कार्य के बदले उन्हें वेतन मिलता था। प्रबंधक कार्यों का निरीक्षण करते थे क्योंकि उनका कार्य श्रमिक की उत्पादकता बढ़ाना और अनुशासन बढ़ाना था।
(4) आर्थिक निर्भरता का असीमित विस्तार-आधुनिक समाजों में परस्पर आर्थिक निर्भरता का असीमित विस्तार हुआ है। हम सभी बहुत से अन्य श्रमिकों पर निर्भर करते हैं जो हमारे जीवन को बनाए रखने वाले उत्पादों और सेवाओं के लिए सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। आधुनिक समाजों में अधिकतर लोग अपने भोजन या अपने उपभोग की भौतिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हैं।
(5) कार्य का रूपान्तर-औद्योगिक प्रक्रियाएँ उन सरल क्रियाओं में विभाजित हो गई हैं जिनके सही समय का निर्धारण, संगठन और निगरानी किया जा सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया में अनेक नव परिवर्तन हुए हैं। ये हैं-स्वचालित उत्पादन की कड़ियों का निर्माण; उत्पादन के महंगे उपकरण और उनकी निगरानी की निरन्तर व्यवस्था, उदार उत्पादन तथा कार्य का विकेन्द्रीकरण आदि।
प्रश्न 4.
अपने समाज में विद्यमान विभिन्न प्रकार के अधिकारों की चर्चा करें। वे आपके जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
हमारे समाज में विद्यमान अधिकार-हमारे समाज में नागरिकता के तीन प्रकार के अधिकार हैं -
यथा -
(1) नागरिक अधिकार-नागरिक अधिकारों में व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार रहने की जगह चुनने (निवास) का अधिकार, भाषण और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, अपनी सम्पत्ति रखने का अधिकार तथा कानून के समक्ष न्याय का अधिकार शामिल हैं। नागरिक को देश के अन्दर कहीं भी आने-जाने तथा कोई भी व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
(2) राजनीतिक अधिकार-राजनीतिक अधिकारों में मत देने का अधिकार, चुनावों में भाग लेने और सार्वजनिक पद के लिए खड़े होने के अधिकार शामिल हैं। हमारे देश में वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।
(3) सामाजिक अधिकार-तीसरे प्रकार के नागरिकता के अधिकार सामाजिक अधिकार हैं। इनका सरोकार प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न्यूनतम स्तर तक आर्थिक कल्याण और सुरक्षा प्राप्त होने के विशेष अधिकार से है। इन अधिकारों में शामिल हैं-स्वास्थ्य लाभ, बेरोजगारी भत्ता और न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने के अधिकार।
प्रश्न 5.
समाजशास्त्र धर्म का अध्ययन कैसे करता है?
उत्तर:
धर्म काफी लम्बे समय से अध्ययन और चिंतन का विषय रहा है। लेकिन समाज के बारे में सामाजिक निष्कर्ष धार्मिक चिंतनों से अलग है। धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म के धार्मिक या ईश्वरीय मीमांसीय अध्ययन से अलग है। धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है
(1) आनुभविक अध्ययन-समाजशास्त्र, धर्म समाज में वास्तव में कैसे कार्य करता है और अन्य संस्थाओं के साथ इसका क्या सम्बन्ध है, के बारे में आनुभविक अध्ययन है। दूसरे शब्दों में समाजशास्त्र धर्म का आनुभविक पद्धति से अध्ययन करता है। आनुभविक पद्धति का अर्थ है कि समाजशास्त्री धार्मिक प्रघटनाओं के लिए निर्णायक. उपागम को नहीं अपनाता। धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हुए हम यह प्रश्न पूछते हैं कि धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ . क्या सम्बन्ध है? जैसे कि, धर्म का शक्ति और राजनीति के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है।
उदाहरण के लिए, इतिहास में समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन के लिए धार्मिक आंदोलन हुए हैं, जैसे - विभिन्न जाति- विरोधी आंदोलन या लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन। धर्म का एक सार्वजनिक स्वरूप भी होता है और धर्म का यही सार्वजनिक स्वरूप समाज की अन्य संस्थाओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण होता है।
(2) तुलनात्मक पद्धति का उपयोग-समाजशास्त्र समाज के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करता है। तुलनात्मक पद्धति इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह एक अर्थ में सभी समाजों को एक-दूसरे के समान स्तर पर रखती है। यह बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के अध्ययन में सहायता करती है। धर्म सभी ज्ञात समाजों में विद्यमान है। धार्मिक विश्वास और संस्कृति में अन्तर होने के बावजूद सभी धर्मों की कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं। ये हैं -
धर्म के साथ संबद्ध अनुष्ठान विविध प्रकार के होते हैं; जैसे-प्रार्थना करना, गुणगान करना, भजन गाना, विशेष प्रकार का भोजन करना, कुछ दिनों का उपवास रखना और इसी प्रकार के अन्य कार्य। चूंकि आनुष्ठानिक कार्य धार्मिक प्रतीकों से सम्बद्ध होते हैं, अतः उन्हें प्रायः सामान्य जीवन की आदतों और क्रियाविधियों से एकदम भिन्न रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए दैवीय सम्मान में मोमबत्ती जलाने का महत्त्व सामान्य रूप से कमरे में रोशनी के लिए मोमबत्ती जलाने के कार्य से अधिक तथा भिन्न होता है। धार्मिक अनुष्ठान प्रायः व्यक्तियों द्वारा अपने दैनिक जीवन में किये जाते हैं।
सभी धर्मों में विश्वासकर्ताओं द्वारा सामूहिक समारोह भी किये जाते हैं। सामान्यतः ये नियमित समारोह विशेष स्थानों-चर्च, मस्जिद, मंदिर या तीर्थों में आयोजित किये जाते हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का अर्थ है कि धार्मिक जीवन को केवल घरेलू जीवन, आर्थिक जीवन और राजनीतिक जीवन के साथ सम्बद्ध करके ही बोधगम्य बनाया जा सकता है और सभी धर्मों में व्यापक सामान्य विशेषताओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा धर्म का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है।
(3) समाजशास्त्र समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में धार्मिक विश्वासों, व्यवहारों और संस्थाओं की जाँच करता है-मैक्स वेबर के महत्त्वपूर्ण कार्य दर्शाते हैं कि समाजशास्त्र सामाजिक और आर्थिक व्यवहार के अन्य पक्षों के साथ धर्म के सम्बन्धों को कैसे देखता है। वेबर का तर्क है कि कैल्विनवाद ने आर्थिक संगठन के साधन के रूप में पूँजीवाद के उद्भव और विकास को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया था। कैल्विनवादियों का विश्वास था कि इस संसार में किया गया कोई भी कार्य उसके गौरव के लिए किया जाता है।
यहाँ तक कि सांसारिक कार्यों को भी पूजनीय कार्य बना दिया। दूसरे, कैल्विनवादी भाग्य की संकल्पना में इस रूप में विश्वास करते थे कि कौन स्वर्ग में जाएगा और कौन नर्क में, यह पहले से निश्चित था। फलतः लोग इस संसार में अपने कार्यों में भगवान की इच्छा का संकेत देखने लगे। इस प्रकार व्यक्ति चाहे जो भी व्यवसाय करता हो यदि वह अपने व्यवसाय में दृढ़ और सफल है तो उसे भगवान की प्रसन्नता का संकेत माना जाता था।
अर्जित किये गये धन के सम्बन्ध में कैल्विनवाद का सिद्धान्त-मितव्ययता-से रहने का था। इसका अर्थ था कि निवेश को एक तरह का पवित्र सिद्धान्त माना जाता था। पूँजीवाद के केन्द्र में भी निवेश की संकल्पना है जिसमें पूँजी का निवेश अधिक वस्तुएँ बनाने के लिए किया जाता है जिससे अधिक लाभ होता है और अधिक पूँजी उत्पन्न होती है। इस प्रकार वेबर ने यह प्रतिपादित किया कि कैल्विनवादी धर्म, आर्थिक विकास पर प्रभाव डालता है। अतः स्पष्ट है कि धर्म समाज का महत्त्वपूर्ण भाग है और अन्य भागों से अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। समाजशास्त्रियों का कार्य इन विभिन्न अन्तःसम्बन्धों को उजागर करना है।
प्रश्न 6.
सामाजिक संस्था के रूप में विद्यालय पर एक निबन्ध लिखिये। अपनी पढ़ाई और वैयक्तिक प्रेक्षणों दोनों का इसमें प्रयोग कीजिये।
उत्तर:
शिक्षा की आवश्यकता-शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें सीखने की औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की संस्थाएँ शामिल हैं। रोजगार प्राप्त करने, आवश्यक सामाजिक दक्षताएँ प्राप्त करने के लिए शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। समाजशास्त्र शिक्षा की आवश्यकता को समूह की विरासत के प्रेषण/संप्रेषण की प्रक्रिया के रूप में देखता है जो सभी समाजों में पायी जाती है।
औपचारिक विद्यालय की आवश्यकता-साधारण समाजों में औपचारिक विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं थी। बच्चे बड़ों के साथ क्रियाकलापों में शामिल होकर प्रथाओं और जीवन के व्यापक तरीके सीख लेते थे, संजीव पास बुक्स लेकिन जटिल समाजों में श्रम का आर्थिक विभाजन बढ़ रहा है, घर के कार्यों का विभाजन हो रहा है। इसलिए विशिष्ट शिक्षा और दक्षता प्राप्त करने की आवश्यकता है।
इसके साथ ही साथ जटिल समाजों में राजनीतिक व्यवस्थाओं, राष्ट्रों और प्रतीकों व विचारों के जटिल समुच्चय की उत्पत्ति हो रही है। आधुनिक जटिल समाज अमूर्त सार्वभौमिक मूल्यों पर निर्भर करते हैं। ऐसी स्थिति में अनौपचारिक शिक्षा संभव नहीं रही। ऐसा सामाजिक संदर्भ में शिक्षा का औपचारिक और सुनिश्चित होना आवश्यक हो गया। आधुनिक समाजों में विद्यालयों की रचना एकरूपता, मानकीकृत प्रेरणाओं और सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए की जाती है। इसे करने के कई तरीके हैं, जैसे-विद्यालय के बच्चों की एक जैसी वर्दी का होना आदि।
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण से शिक्षा एवं विद्यालय की व्यवस्था-प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों के लिए शिक्षा सामाजिक संरचना को बनाए रखती है और उसका नवीनीकरण करती है तथा संस्कृति का संप्रेषण और विकास करती है। प्रकार्यवादियों के अनुसार विद्यालय समाज में व्यक्तियों की अपनी भावी भूमिका के चयन और आवंटन के लिए एक महत्त्वपूर्ण संस्था है। इसे एक व्यक्ति को खुद को साबित करने का क्षेत्र भी माना जाता है।
विभेदकारी दृष्टिकोण से शिक्षा तथा विद्यालय-समाज को असमान रूप से विभेदकारी मानने वाले समाजशास्त्रियों के लिए शिक्षा मुख्य स्तरीकरण अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है। और शिक्षा के असमान अवसर भी सामाजिक स्तरीकरण का ही परिणाम है। दूसरे शब्दों में, हम अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में जाते है। चूँकि हम किसी एक प्रकार के विद्यालय में जाते हैं, हमें विभिन्न प्रकार के विशेषाधिकार और अन्त में वैसे ही अवसर प्राप्त होते हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ लोग तर्क देते हैं कि विद्यालयी शिक्षा 'संभ्रान्त और सामान्य' के बीच भेद को और गहरा करती है। विशेषाधिकार प्राप्त विद्यालयों में जाने वाले बच्चों में आत्मविश्वास आ जाता है जबकि इससे वंचित बच्चे इसके विपरीत भाव का अनुभव कर सकते हैं। इसके साथ ही ऐसे भी अनेक बच्चे हैं जो विद्यालय नहीं जा सकते या विद्यालय जाना बीच में ही छोड़ देते हैं। लिंग और जातिगत भेदभाव शिक्षा के अवसरों पर अतिक्रमण करते हैं।
छोटे बच्चों के एक विद्यालय के अध्ययन से पता लगता है कि बच्चों ने यह सीखा है कि -
प्रश्न 7.
चर्चा कीजिए कि सामाजिक संस्थाएँ परस्पर कैसे सम्पर्क करती हैं? आप विद्यालय के वरिष्ठ छात्र के रूप में स्वयं के बारे में चर्चा आरंभ कर सकते हैं। साथ ही विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा आपके व्यक्तित्व को किस प्रकार एक आकार दिया गया, इसके बारे में भी चर्चा करें। क्या आप इन सामाजिक संस्थाओं से पूरी तरह नियंत्रित हैं या आप इनका विरोध या इन्हें पुनः परिभाषित कर सकते हैं?
उत्तर:
इस परियोजना को विद्यार्थी स्वयं करें। (संस्था उसे कहा जाता है जो स्थापित या कानून व प्रथा द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार कार्य करती है। ये व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगाती हैं, साथ ही ये व्यक्तियों को अवसर भी प्रदान करती हैं।) सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विद्यमान होती हैं। ये सामाजिक मानकों, आस्थाओं, . मूल्यों और समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परस्पर सम्पर्क करती हैं।