RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

RBSE Class 11 Sociology समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Intext Questions and Answers

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प्रश्न 1. 
(क) अपने बड़े-बुजुर्गों (दादा-नाना) अथवा उनकी पीढ़ी के अन्य लोगों से बातचीत कर यह पता कीजिए कि परिवारों/विद्यालयों में किस प्रकार का परिवर्तन आया है तथा किन-किन पक्षों में वे आज भी वैसे ही हैं।
(ख) पुराने चलचित्रों/धारावाहिकों/उपन्यासों में परिवारों के प्रस्तुतीकरण की तुलना समकालीन प्रस्तुतियों से कीजिए।
(ग) क्या आप अपने परिवार में सामाजिक आचरण के प्रतिमानों (पैटर्न्स ) और नियमितताओं को समझते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या आप अपने परिवार की संरचना का वर्णन कर सकते हैं?
(घ) विद्यालय को एक संरचना के रूप में आपके शिक्षक कैसे लेते हैं? इस पर उनसे विचार-विमर्श कीजिये। क्या छात्रों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों को इस संरचना को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष रूप में काम करना पड़ता है।
(ङ) क्या आप अपने विद्यालय अथवा परिवार में किसी प्रकार के परिवर्तन के बारे में सोच सकते हैं? क्या इन परिवर्तनों का विरोध हुआ है? किसने इनका विरोध किया और क्यों?
उत्तर:
क) अपने बुजुर्गों से बातचीत कर परिवारों/विद्यालयों में आये परिवर्तनों का पता छात्र स्वयं करें।
सामान्यतः परिवारों में निम्न प्रकार का परिवर्तन आया है-
(1) भारत में पहले अधिकांश परिवार संयुक्त परिवार थे। तीन या चार-पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते थे। उसकी पूँजी, पूजा घर, रसोई संयुक्त थे। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी था। सम्पत्ति में उनका दखल नहीं था। शिक्षा के क्षेत्र में वे पिछड़ी हुई थीं। वे पुरुष पर पूर्णतः आश्रित थीं। वर्तमान में संयुक्त परिवार धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं और एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है। जिसमें पतिपत्नी और अविवाहित बच्चे होते हैं। परिवार में स्त्री का कद बढ़ा है। वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर घर से बाहर भी कार्य कर रही है। शिक्षा के क्षेत्र में वह तेज गति से आगे बढ़ रही है तथा सम्पत्ति के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो रही है। 

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सामान्यतः परिवार कुछ पक्षों में आज भी पहले की तरह हैं । ये पक्ष हैं

  1. परिवार में आचरण के कुछ मानक स्तर, 
  2. विवाह के तौर-तरीके, 
  3. सम्बन्धों के अर्थ, उम्मीदें तथा 
  4. उत्तरदायित्व, 
  5. वृद्ध सदस्यों की मृत्यु और इनके स्थान पर नए सदस्यों का प्रवेश आदि।

इसी प्रकार विद्यालयों में आए परिवर्तनों को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है-

  1. विद्यालय परिसर में आया अन्तर, 
  2. विद्यालय की घर से दूरी में आया अन्तर, 
  3. विद्यालय पाठ्यक्रम में आया अन्तर।
  4. विद्यालयों में वे क्रियाकलाप जो अब भी दोहराए जा रहे हैं; वे इस प्रकार बताए जा सकते हैं
  5. विद्यालय में दाखिले के तरीके 
  6. आचरण सम्बन्धी नियम 
  7. वार्षिकोत्सव, 
  8. प्रातः कालीन सभा और विद्यालयी प्रार्थना या गीत, 
  9. पुराने विद्यार्थियों का चले जाना तथा इनके स्थान पर नए सदस्यों का प्रवेश।
  • छात्र यह परियोजना स्वयं करें। 
  • यह परियोजना भी छात्र स्वयं करें। (अपने परिवार की संरचना का वर्णन करें।) 
  • शिक्षक से विचार-विमर्श का कार्य छात्र स्वयं करें।

छात्रों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों को विद्यालय की संरचना को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष कार्य करने पड़ते हैं। यथा-प्रत्येक सामाजिक संरचना में उसकी इकाइयाँ एक-दूसरे से प्रकार्यात्मक रूप से संबंधित होती हैं। विद्यालय की संरचना में भी छात्र, शिक्षक और कर्मचारी प्रकार्यात्मक रूप से परस्पर संबंधित रहते हैं। इनके कार्यों में एक प्रकार की अन्तर्निहित नियमितता पाई जाती है। जैसे-विद्यार्थियों का कार्य है-कक्षाओं में अपनी निर्धारित सीट पर बैठकर अध्यापक द्वारा समझाई जा रही बातों को समझना अर्थात् ज्ञान अर्जित करना, अध्यापक का कार्य है-ज्ञान प्रदान करना तथा कर्मचारियों का कार्य है-इन दोनों प्रक्रियाओं को ठीक प्रकार से संचालित करने हेतु आवश्यक सुविधाओं का रखरखाव करना तथा आवश्यक सहयोग करना। ये तीनों विशिष्ट प्रकार के कार्य एक नियमितता में संयोजित होकर ही विद्यालय नामक सामाजिक संस्था की संरचना करते हैं; क्योंकि कोई भी सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा संबंधों से बनती है, जो तत्त्व इन्हें नियमितता प्रदान करता है, वह है-इन क्रियाओं एवं सम्बन्धों का लगातार दोहराया जाना।- (ङ) छात्र इस परियोजना को स्वयं करें।  

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प्रश्न 2. 
कुछ ऐसे उदाहरण सोचिए जो दोनों स्थितियों को प्रकट करते हों-किस प्रकार मनुष्य सामाजिक संरचना से बाध्य होता है तथा जहाँ व्यक्ति सामाजिक संरचना की अवहेलना करता है और उसे बदल देता है।
उत्तर:
बाध्यता-दुर्थीम के अनुसार, सामाजिक संरचना, हमारी क्रियाओं को समानान्तर रूप से बाध्य करती है, इसकी सीमा तय करती है कि हम एक व्यक्ति के रूप में क्या कर सकतेहैं? क्योंकि यह हमसे बाह्य है। उदाहरण के लिए, जब मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन एक भाई, एक पति अथवा एक देश के नागरिक के रूप में करता हूँ तथा दिए गए अपने वचन को पूर्ण करता हूँ। मैं अपने दायित्वों को पूरा करता हूँ जिन्हें कानून तथा प्रथा में परिभाषित किया गया है तथा जो मुझसे तथा मेरी क्रियाओं से परे या बाह्य हैं। .............. ठीक इसी प्रकार एक भक्त जन्म से ही, पूर्व स्वीकृत, अपने धार्मिक जीवन की मान्यताओं और क्रियाओं का पालन करता है, जिनका अस्तित्व उसके जन्म से पूर्व भी था, तो इसका अर्थ है कि उनका अस्तित्व उसके बाहर है। इस प्रकार व्यक्ति सामाजिक संरचना से बाध्य होता है। 

सामाजिक संरचना की अवहेलना-कार्ल मार्क्स सामाजिक संरचना की बाध्यता को स्वीकार करने के साथसाथ मनुष्य की सृजनात्मकता को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं, जो सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है और उसे पुनः उत्पादित भी करती हैं। मार्क्स का तर्क है कि मनुष्य इतिहास बनाता है, परन्तु वह इतिहास का निर्माण न तो उसकी इच्छा पर और न ही उसकी मनपसंद शर्तों पर आधारित होता है, बल्कि उन ऐतिहासिक तथा संरचनात्मक स्थिति की उन बाध्यताओं तथा संभावनाओं के अन्तर्गत होता है, जहाँ वह जीवनयापन कर रहा है। उदाहरण के लिए, बाद भारत में अछूतों द्वारा सामूहिक रूप से मंदिर में प्रवेश करने के लिए आंदोलन करना; स्त्री द्वारा परिवार में पर्दा प्रथा को नकारना आदि सामाजिक संरचना की अवहेलना के उदाहरण हैं।

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प्रश्न 3. 
अपने प्रतिदिन के जीवन में सहयोग, प्रतियोगिता तथा संघर्ष के उदाहरण हूँढिये।
उत्तर:
इन उदाहरणों को छात्र स्वयं अपने प्रतिदिन के जीवन से खोजें। इन उदाहरणों को निम्नलिखित दृष्टिकोण के आधार पर खोजों
(1) मनुष्यों को अपनी आवश्यक (बुनियादी) आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग करना पड़ता है और अपने और अपनी दुनिया के लिए उत्पादन और पुनः उत्पादन करना पड़ता है। सामान्यतः सरल समाजों में जहाँ अतिरिक्त उत्पादन नहीं होता था, वहाँ व्यक्तियों तथा समूहों में आपसी सहयोग था।

(2) जिस समाज में अतिरिक्त उत्पादन होता था, उस पर प्रभावशाली वर्ग का अधिकार होता था। अतः वहाँ समाज दो वर्गों में बंट गया-साधन सम्पन्न वर्ग, सामान्य वर्ग। इस समाज में उत्पादन में सहयोग भी संघर्ष और प्रतियोगिता से जुड़ा होता है।

3) जब उत्पादन के साधनों पर प्रभावशाली वर्ग का अधिकार हो जाता है। और सामान्य वर्ग साधनहीन हो जाता है, तो दोनों के सम्बन्धों में भिन्नता और असमानता आ जाती है। अतः कारखाने के मालिक और मजदूर अपने प्रतिदिन के कार्यों में सहयोग करते हैं, लेकिन इस सहयोग में भी उनके हितों में संघर्ष विद्यमान होता है।

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प्रश्न 1. 
कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए। 
उत्तर:
अपने साधारण अर्थ में सहयोग से आशय समान हितों की पूर्ति हेतु एक साथ मिलकर कार्य करना है। दुर्थीम की मान्यता है कि एकता समाज का नैतिक बल है और सहयोग समाज के प्रकार्यों को समझने के लिए बुनियादी अवयव है। श्रम विभाजन की भूमिका जिसमें सहयोग निहित है, समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। दुर्थीम ने यांत्रिक और सावयवी एकता में अन्तर स्पष्ट किया जो क्रमशः पूर्व औद्योगिक अर्थात् कृषि समाजों तथा जटिल औद्योगिक समाजों की विशेषता थी। कृषि के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता-कृषि समाज में यांत्रिक एकता पायी जाती है। इस समाज के अधिकांश सदस्य एक जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। इसमें कम-से-कम श्रम-विभाजन को हमेशा आयु तथा लिंग से जोड़ा जाता है। कृषि समाज में सहयोग के निम्नलिखित कार्यों की आवश्यकता होती है

(1) एक परिवार जो कृषि कार्य में संलग्न है, उसके सभी सदस्य मिलकर कृषि कार्यों में सहयोग करते हैं।

(2) कृषि में उत्पादन हेतु जिन कार्यों की आवश्यकता होती है, वे हैं-खेत जोतना, बीज बोना, सिंचाई करना, फसल पकने तक उसकी रखवाली करना, फसल काटना आदि। ये सभी कार्य बिना एक-दूसरे के सहयोग के सम्पन्न नहीं हो सकते। परिवार के सभी सदस्य अपनी योग्यता, कुशलता, आयु, लिंग आदि के आधार पर परस्पर सहयोग करके इन कार्यों को आसानी से पूरा कर लेते हैं। उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता-दुर्थीम के मतानुसार औद्योगिक समाज में सावयवी एकता पायी जाती है। यह एकता श्रम विभाजन पर आधारित है।

श्रम विभाजन के फलस्वरूप औद्योगिक समाज के सदस्यों में सह निर्भरता पायी जाती है। जैसे-जैसे कार्यों का विशेषीकरण होता जाता है, वैसे-वैसे दूसरे पर उसकी निर्भरता बढ़ती जाती है। कृषि आधारित जीविका में लगा. एक परिवार अपने जैसा काम करने वालों की थोड़ी या बगैर किसी मदद के जीवित रह सकता है, लेकिन किसी उद्योग में लगा व्यवसायी अन्य विशिष्ट कर्मचारियों के बिना जीवित नहीं रह सकता, जो उसकी मूल जरूरतों को पूरा करते हैं। इस प्रकार औद्योगिक कार्यों के संदर्भ में भी सहयोग की आवश्यकता को देखा जा सकता है। कार्ल मार्क्स ने इसलिए कहा है कि, "सहयोग के बिना मानव जीवन पशु जीवन के समान है।"

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प्रश्न 2. 
क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलात् होता है? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है अथवा मानदण्डों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है? उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर:
सहयोग एक निरन्तर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है। एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में सहयोग प्रत्येक समाज में पाया जाता है। सहयोग के रूप-सहयोग के अनेक रूप हैं। यथा
(1) स्वैच्छिक सहयोग-दुर्थीम का मत है कि यांत्रिक समाजों में स्वैच्छिक सहयोग पाया जाता है; क्योंकि यह समाज बुनियादी रूप से एकरूपता पर आधारित है। इस समाज के अधिकांश सदस्य एक जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। इस समाज के सदस्य परस्पर अपनी मान्यताओं तथा संवेदनाओं, अन्तर्विवेक तथा चेतना से जुड़े होते हैं। इस प्रकार स्वैच्छिक सहयोग का आधार रक्त सम्बन्ध, भावनाएँ तथा पारस्परिक उत्तरदायित्व होते हैं। इस सहयोग में व्यक्तियों में स्वार्थभिन्नता नहीं पायी जाती। उद्देश्यों तथा साधनों में समानता पाई जाती है। - ऐसे स्वैच्छिक सहयोग का प्रमुख उदाहरण परिवार है। इस प्रकार के सहयोग के लिए व्यक्ति को बाध्य नहीं किया जाता।

(2) मानदण्डों की शक्ति के कारण सहयोग-सावयवी समाज में सहयोग मानदण्डों की शक्ति के कारण पाया जाता है। इस समाज में व्यक्ति अन्य समूहों के साथ अपने स्वार्थों तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करता है। इसमें स्वीकृति भी होती है और नियमों की शक्ति भी। व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों को उसी सीमा तक सहयोग किया जाता है, जितना उसके स्वार्थ पूर्ति के लिए आवश्यक है। आधुनिक समाजों में श्रम-विभाजन और विशेषीकरण की प्रक्रियायें इसी का उदाहरण हैं। ट्रेड यूनियनों, उद्योगों, कार्यालयों में सहयोग का यही रूप पाया जाता है। दुर्थीम ने प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि यांत्रिक और सावयिक दोनों प्रकार के समाजों में स्वैच्छिक सहयोग पाया जाता है । सहयोग के पीछे बाध्यता नहीं होती। हाँ, दोनों प्रकार के स्वैच्छिक सहयोग का रूप अलग-अलग होता है।

(3) बलात् सहयोग-मार्क्स का मत है कि ऐसे समाज में जहाँ वर्ग विद्यमान हैं, वहाँ सहयोग स्वैच्छिक नहीं होता। यह स्वयं की सम्मिलित ताकत का परिणाम न होकर एक अनजान ताकत का परिणाम है, जो उनके बाहर स्थित है। एक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर जिसका एक मात्र कार्य पूरे दिन में लीवर खींचना या बदन दबाना होता है। इसमें उस श्रमिक को संतुष्टि और सृजनात्मकता की संतुष्टि नहीं मिलती। इन हालातों में सहयोग आरोपित होता है। इसमें जीवन निर्वाह हेतु श्रमिक को श्रम करके सहयोग करने की बाध्यता होती है तथा नियमों की शक्ति ऐसे सहयोग को निश्चित करती है। ऐसे सहयोग में श्रमिक की मंजूरी भी होती है, लेकिन यह मंजूरी विवशताओं के कारण होती है, स्वैच्छिक नहीं। 

प्रश्न 3. 
क्या आप भारतीय समाज से संघर्ष के विभिन्न उदाहरण ढूँढ़ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में वे कौनसे कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
संघर्ष से आशय-संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट। संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है। संघर्ष के आधार भिन्न-भिन्न होते हैं। ये हैं-वर्ग, जाति, जनजाति, लिंग, नृजातीयता तथा साम्प्रदायिकता आदि। जहाँ समाज जाति, वर्ग अथवा पितृ सत्ता के आधार पर बँटा होता है, वहीं कुछ समूह सुविधावंचित हैं तथा एक-दूसरे के प्रति भेदभावमूलक स्थिति बरतते हैं। इससे भी आगे, प्रभावशाली समूहों में यह स्थिति सांस्कृतिक मानदण्डों, ज्यादातर जबरदस्ती अथवा हिंसा द्वारा भी उत्पन्न की जाती है। इस प्रकार अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए प्रत्यक्षतः हिंसात्मक तरीके अपनाना या हिंसात्मक तरीका अपनाने की धमकी देना संघर्ष है। यह जानबूझकर किया जाने वाला प्रयत्न है। भारतीय समाज में संघर्ष के उदाहरण व रूप भारतीय समाज से संघर्ष के निम्नलिखित उदाहरण व रूप बताये जा सकते हैं

(1) कृषक आंदोलन-जहाँ संघर्ष खुलकर प्रकट किये जाते हैं वहाँ वे विसंगति या प्रत्यक्ष झड़प के रूप में दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में भूमि संसाधनों पर गहरे संघर्षों की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया का परिणाम है कृषक आंदोलन। भारत में जमींदारों और जागीरदारों ने किसानों पर अत्यधिक कर लगा दिये, जिससे किसानों की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई। परिणामस्वरूप इनके विरोध में, किसानों के साथ किये जाने वाले अत्याचारों और बेगार के विरोध में, किसानों ने आंदोलन किये। इन कृषक आंदोलनों को दबाने के लिए शासकों ने उत्पीड़न का सहारा लिया तो यह संघर्ष लम्बा होता चला गया।

(2) परिवार में अप्रत्यक्ष संचालित महिला संघर्ष-चूँकि संघर्षों को प्रत्यक्ष रूप से संप्रेषित नहीं किया जाता। अतः यह देखा गया है कि मध्य वर्ग तथा अधीनस्थ वर्ग, जैसे घर में महिलाएँ, संघर्षों में समायोजन तथा सहयोग पाने के लिए व्यक्ति एवं समूह विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ बनाते हैं। घरेलू वस्तुओं के वितरण में विभेदीकृत कार्य तथा अपने आने वाले समय में सुरक्षा के लिए अन्य घरेलू सम्बन्धों एवं संसाधनों तक पहुँच न मिलने के कारण वे बेटे को मान्यता देती हैं।

लेकिन उनका संघर्ष अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहा है। वे अपने विश्वसनीय दोस्तों (रिश्तेदार या पड़ोसी) का उपयोग अपनी तरफ से छोटे-मोटे व्यापार करने में तथा छुप कर लेन-देन करने, परदा तथा मातृत्व जैसी लैंगिक विचारधारा पर बातचीत करने की रणनीतियाँ अपना कर पुरुष शक्ति का प्रतिरोध कर रही हैं। उनके प्रतिरोध का यह गोपनीय रूप घर के बाहर सहयोग के विकल्पों की कमी तथा खुले संघर्ष से जुड़े सहवर्ती जोखिमों को दिखाता है।

(3) जातीय संघर्ष-भारत में जब वर्ण-व्यवस्था ने कर्म सिद्धान्त के स्थान पर जन्म सिद्धान्त को अपना लिया तो वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में बदल गयी। जाति व्यवस्था में सामाजिक असमानता का रूप स्थिर सा हो गया। इस प्रकार भारत में स्तरीकरण के सिद्धान्त के तहत जाति-व्यवस्था का जन्म हुआ। इस जाति व्यवस्था के आधार पर भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक असमानताएँ उत्पन्न होती चली गईं। जाति प्रथा के कारण समाज में विद्यमान असमानता, भेदभाव और छुआछूत की भावना आदि ने भारत में जातिगत संघर्ष को जन्म दिया है। इस संघर्ष को जातिवाद का नाम दिया जाता है। 

(4) जनजातीय संघर्ष-स्वतंत्रता के बाद भारत में जनजातीय संघर्ष उभरा है। जनजातियों ने पृथक् राज्य की मांग को लेकर संघर्ष चला रखा है। इसी संघर्ष के कारण उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे नवीन राज्यों का गठन हुआ है। जनजातीय संघर्ष के कारण-वर्तमान में सम्पूर्ण जनजातीय भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इस संक्रमण के कारण जनजातियों में अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गई हैं। इन समस्याओं के कारण अलग-अलग जनजातियों में भिन्नभिन्न हैं। यथा-

(i) कुछ जनजातियों में जनसंख्या बढ़ रही है, जैसे-भील और गोंड लेकिन कुछ जनजातियों, जैसेटोडा और कोरबा, में जनसंख्या घट रही है।

(ii) कई जनजातियाँ नगरीय संस्कृति के सम्पर्क में आई हैं, जिसके फलस्वरूप उनकी मूल संस्कृति में कई . परिवर्तन हुए हैं। उनमें दिशाहीनता एवं सांस्कृतिक छिन्न-भिन्नता उत्पन्न हुई है तथा मानसिक असन्तोष में वृद्धि हुई है। जनजातियों के निवास क्षेत्र में व्यापारी और ठेकेदार लोगों ने पहुँचकर उनका आर्थिक शोषण किया। वे कम मजदूरी देकर उनसे अधिक श्रम लेने लगे। सूदखोरों ने ऋण का जाल फैलाकर इन लोगों की जमीनें कम दामों में खरीद लीं और वे अपने ही घर में कृषि मजदूर के रूप में काम करने लगे। कभी-कभी इनसे बेगार भी ली जाने लगी। ठेकेदारों एवं व्यापारियों ने कहीं-कहीं जनजातीय स्त्रियों के साथ अनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित किये, जिसके परिणामस्वरूप अनेक जनजातीय लोग गुप्त रोग से पीड़ित हो गये। इस सम्पर्क के फलस्वरूप जनजातियों में वेश्यावृत्ति पनपी।

(iii) ईसाई मिशनरियों ने जनजातीय धर्म के स्थान पर ईसाई धर्म को स्थापित कर आदिवासियों को अपने पड़ौसी समुदाय से अलग कर दिया। इससे उनमें सामाजिक और धार्मिक एकता का संकट पैदा हो गया; सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्यायें खड़ी हुईं, उनमें पृथकता की भावना पनपी और वे पृथक् राज्य की मांग करने लगीं। इसके लिए संघर्ष प्रारंभ हुआ। इसी संघर्ष के कारण उत्तरांचल, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड जैसे नवीन राज्यों का गठन हुआ। ..

प्रश्न 4. 
संघर्ष को किस प्रकार कम किया जाता है? इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिये।
उत्तर:
संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट । संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है। संघर्ष के आधार भिन्न-भिन्न होते हैं। ये वर्ग अथवा जाति, जनजाति अथवा लिंग, नृजातीयता अथवा धार्मिक समुदायों में हो सकते हैं। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहे हैं। परन्तु संघर्ष किसी भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव से रहा है। सामाजिक परिवर्तन और लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधा वंचित तथा भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा हक जताना संघर्षों को और उभारता है। संघर्ष को कम करने की रणनीतियाँ समाज में संघर्ष को कम करने के लिए समूह सहयोग और समायोजन हेतु विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ बनाते हैं। यथा-

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(1) अप्रत्यक्ष संघर्ष तथा प्रत्यक्ष सहयोग-चूँकि संघर्षों को प्रत्यक्ष रूप से संप्रेषित नहीं किया जाता। अतः यह देखा गया है कि मध्य वर्ग तथा अधीनस्थ वर्ग, चाहे घर में महिलाएँ हों या कृषक समाज में किसान, संघर्षों में समायोजन तथा सहयोग पाने के लिए व्यक्ति या समूह विभिन्न प्रकार की रणनीति बनाते हैं। अनेक समाजशास्त्रीय अध्ययन इस सम्बन्ध में अप्रत्यक्ष संघर्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग को दिखाते हैं, जो सामान्य है। उदाहरण के लिए, एक परिवार में स्त्रियाँ घरेलू वस्तुओं के वितरण में विभेदीकृत कार्य, अपने आने वाले समय में सुरक्षा के लिए अन्य घरेलू सम्बन्धों तथा संसाधनों तक पहुँच न मिलने के कारण उनमें अप्रत्यक्ष संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष का समायोजन या समाधान वे प्रत्यक्ष सहयोग के रूप में करती हैं।

इस हेतु वे अपने बेटे को मान्यता देती हैं। अपने अनियमित भविष्य के बीमा के लिए अपने बेटों को सहयोगी के रूप में जीतने के लिए, उनके लिए 'स्वार्थरहित' समर्पण ही उनका निवेश होता है। 'मातृ परहितवादिता' उत्तरी भारत के मैदानों में बेटों को लेकर पूर्वाग्रहित है तथा इसे स्त्री के पितृसत्तात्मक जोखिम के प्रत्युत्तर के रूप में देखा जा सकता है। इस अप्रत्यक्ष संघर्ष का प्रतिरोध इन स्त्रियों ने अन्य रूपों में भी किया है, जैसे-विश्वसनीय दोस्तों का उपयोग (रिश्तेदार या पड़ोसी) अपनी तरफ से छोटे-मोटे व्यापार करने में, पैसों का छुपकर लेन-देन, परदा तथा मातृत्व जैसी लैंगिक विचारधारा पर बातचीत करना वे रणनीतियाँ हैं जिनके आधार पर स्त्रियों ने पुरुष की शक्ति का प्रतिरोध किया है। उनके प्रतिरोध का यह गोपनीय रूप घर के बाहर सहयोग के विकल्पों की कमी तथा प्रत्यक्ष संघर्ष से जुड़े सहवर्ती जोखिमों को दिखाता है।

(2) दबाव-संघर्षपूर्ण सामाजिक सम्बन्धों में शक्तिशाली व्यक्तियों या समूहों द्वारा शक्तिहीन समूहों पर दबाव बनाया जाता है । कमजोर व्यक्ति समूह इस दबाव को स्वीकारता है और समायोजन करता है । इस प्रकार का दबाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में हो सकता है। दासता, अधिनायकशाही आदि दबावात्मक संघर्ष समाधान के उदाहरण हैं।

(3) समझौता-जब संघर्षशील पक्षों की शक्ति और क्षमता समान होती है तो दोनों पक्ष मुद्दों पर विवेक से विचार करते हैं और अपनी मांगों को लेकर समझौता करते हैं। इस समझौते में एक पक्ष दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को समझने की चेष्टा करता है। इस प्रकार के समझौते में समानता और न्याय के तत्व प्रधान होते हैं । यह संघर्ष को समाप्त करने के चेतन विधि है।

(4) मध्यस्थता-जब किसी मुद्दे पर दो संघर्षरत पक्षों में कोई समझौता या समायोजन नहीं हो पाता है तो किसी तीसरे पक्ष की निष्पक्ष मध्यस्थता की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। मध्यस्थ की भूमिका का परामर्शदाता जैसी होती है। वह दोनों पक्षों से विचार-विमर्श के बाद समझौते की शर्ते रख सकता है जिसे दोनों पक्ष मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र होते हैं।

(5) मतैक्य-जब किसी मुद्दे पर दोनों पक्षों के व्यक्तियों या समूहों में सहमति हो जाती है, तो वह मतैक्य कहलाता है। एक बार मतैक्यता प्राप्त करने के बाद शांतिपूर्ण समाधान की प्रक्रिया चालू हो जाती है।

(6) सहिष्णुता-संघर्ष के समाधान की एक अन्य पद्धति सहिष्णुता है। भारतीय समाज सहिष्णुता का ज्वलन्त उदाहरण है। भारतीय सामाजिक संरचना में विविधता के बावजूद सहिष्णुता के कारण शांतिपूर्ण सहअस्तित्व विद्यमान है।

(7) उचित समाजीकरण-समाज में पैदा होने वाले अन्तः पीढ़ी संघर्ष के समाधान के लिए समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को समाज के आदर्शों तथा मूल्यों को सिखाती है, उसे संस्कार के रूप में आदतन अभ्यास कराती है। इससे दोनों पीढ़ियों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग उत्पन्न हो जाता है।

(8) सहयोग-समाज में, विशेषकर परिवार जैसे संगठनों में, जहाँ अन्तः पीढ़ी संघर्ष और लैंगिक संघर्ष खुलकर तो सामने नहीं आता, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहता है। अन्तःपीढ़ी संघर्ष के समाधान का पहला रास्ता तो उचित समाजीकरण है तथा इसका दूसरा रास्ता दोनों पीढ़ियों के सदस्यों का पारस्परिक सहयोग । जहाँ पारस्परिक सहयोग की स्थिति कमजोर होगी, अन्तः पीढ़ी संघर्ष मुखरित होगा । लैंगिक संघर्ष के समाधान के लिए भी सहयोग की प्रमुख भूमिका संजीव पास बुक्स रहती है। इन संघर्षों को सहयोग के आपसी व्यवहार द्वारा निपटाया जाना चाहिए तथा संघर्ष को विचलित व्यवहार के रूप में देखा जाये।

प्रश्न 5. 
ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं है, क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?
उत्तर:
प्रतियोगिता विश्वव्यापी तथा स्वाभाविक है । प्रतियोगिता का उद्भव समाज में हुआ है तथा एक निश्चित ऐतिहासिक समय में यह प्रभावी रही है। समकालीन समय में यह सर्वप्रमुख विचार है तथा ऐसे समाज की कल्पना करना मुश्किल है जहाँ प्रतियोगिता एक मार्गदर्शक ताकत न हो। यद्यपि प्रतियोगिता मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति नहीं है। मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति तो सहयोग तथा सामूहिक अनुभव है, लेकिन समाज के विकास के साथ-साथ इसका भी जन्म समाज के एक स्वाभाविक तत्व के रूप में हुआ है। यही कारण है कि परम्परागत सरल और स्थिर समाजों की तुलना में आधुनिक जटिल एवं गतिशील समाजों में प्रतिस्पर्धा अधिक पायी जाती है। लेकिन ऐसे समाज की कल्पना जहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं हो, संभव नहीं है। क्योंकि
(1) प्रतियोगिता एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। यह सभी समाजों में हमेशा पायी जाती रही है।

(2) प्रतियोगिता एक अवैयक्तिक प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति का स्थान गौण एवं उद्देश्य प्राप्ति का लक्ष्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

(3) प्रतियोगिता एक अचेतन प्रक्रिया है। प्रतिस्पर्धी एक-दूसरे के प्रयत्नों के प्रति अनभिज्ञ होते हुए भी इस प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं।

(4) समकालीन विश्व में प्रतियोगिता एक प्रमुख मानदण्ड तथा परिपाटी है। दुर्थीम और मार्क्स ने आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद तथा प्रतियोगिता के विकास को एक साथ आधुनिक समाजों में देखा है। आधुनिक पूँजीवादी समाज जिस प्रकार कार्य करते हैं, वहाँ दोनों का एक साथ विकास स्वाभाविक है; क्योंकि दोनों अत्यधिक कार्यकुशलता तथा लाभ कमाने पर बल देते हैं।

(5) प्रतियोगिता बेहतरीन होने का पुरस्कार प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करती है कि सर्वाधिक कार्यकुशल फर्म बची रहे; अधिकतम अंक पाने वाला छात्र अथवा बेहतरीन छात्र को प्रसिद्ध कॉलेजों में दाखिला मिल सके और फिर बेहतरीन रोजगार प्राप्त हो सके।

(6) प्रतियोगिता से जुड़े व्यक्तियों में अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षमता का विकास होता है; उनमें अपने दायित्वों के प्रति समर्पण की भावना पैदा होती है। लोग अपनी गुणवत्ता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। आर्थिक प्रतियोगिता निम्नतम लागत पर अधिकतम उत्पादन को प्रेरित करती है। प्रतियोगिता आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है।
इस प्रकार प्रतियोगिता सबसे आगे निकलने की प्रक्रिया, समाज के विकास की प्रक्रिया है। इसके बिना समाज अधूरा है।

प्रश्न 6. 
अपने माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों तथा उनके समकालीन व्यक्तियों से चर्चा कीजिए कि क्या आधुनिक समाज सही मायनों में प्रतियोगात्मक है अथवा पहले की अपेक्षा संघर्षों से भरा है और अगर आपको ऐसा लगता है तो आप समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में इसे कैसे समझायेंगे।
उत्तर:
यह चर्चा विद्यार्थी स्वयं करें। माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों तथा उनके समकालीन व्यक्तियों से चर्चा करने पर दोनों ही स्थितियाँ उभर सकती हैं कि
(अ) आधुनिक समाज सही मायनों में प्रतियोगात्मक है।

(ब) आधुनिक समाज पहले की अपेक्षा संघर्षों से भरा है। इन दोनों ही स्थितियों को समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(अ) आधुनिक समाज सही मायनों में प्रतियोगात्मक है समकालीन विश्व में प्रतियोगिता एक प्रमुख मानदण्ड तथा परिपाटी है। समाजशास्त्रीय विद्वान् एमिल दुर्शीम तथा कार्ल मार्क्स  के अनुसार आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद तथा प्रतियोगिता का विकास एक साथ हुआ है। आधुनिक पूँजीवादी समाज जिस प्रकार कार्य करते हैं, वहाँ व्यक्तिवाद और प्रतियोगिता-दोनों का एक साथ विकास स्वाभाविक है।  आधुनिक पूँजीवादी समाज में अत्यधिक कार्यकुशलता तथा लाभ के कमाने पर बल दिया जाता है। इस समाज की , मौलिक मान्यताएँ ये हैं

  1. व्यापार का विस्तार 
  2. श्रम विभाजन 
  3. विशेषीकरण, और
  4. बढ़ती उत्पादकता।

RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

ये प्रक्रियाएँ पूँजीवाद के केन्द्रीय विचार से बढ़ावा पाती हैं। बाजार क्षेत्र में विद्यमान मुक्त प्रतियोगिता में तार्किक व्यक्ति, अपने लाभों को अधिक बढ़ाने के प्रयत्नों में लगा रहता है। प्रतियोगिता की विचारधारा पूँजीवादी आधुनिक समाज की एक सशक्त विचारधारा है। इस विचारधारा का तर्क यह है कि बाजार इस प्रकार से कार्य करता है कि अधिकतम कार्यकुशलता सुनिश्चित हो सके । उदाहरण के लिए, प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करती है कि सर्वाधिक कार्यकुशल फर्म बची रहे । प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करती है कि अधिकतम अंक पाने वाला छात्र अथवा बेहतरीन छात्र को प्रसिद्ध कॉलेजों में दाखिला मिल सके और फिर बेहतरीन रोजगार प्राप्त हो सके। इन सभी स्थितियों में बेहतरीन होना सबसे बड़ा भौतिक पुरस्कार सुनिश्चित करता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के अत्यन्त तीव्र गति से विकास को वहाँ प्रतियोगिता की अधिकतम उपस्थिति के रूप में देखा जा सकता है।

(ब) आधुनिक समाज पहले की अपेक्षा संघर्षों से भरा है - 
संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट। संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है। संघर्ष के आधार भिन्न-भिन्न होते हैं। . ये वर्ग, जाति, जनजाति, लिंग, नृजातीयता अथवा धार्मिक समुदायों में हो सकते हैं। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहे हैं। परन्तु संघर्ष किसी भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव रहा है।

आधुनिक लोकतांत्रिक युग में सामाजिक परिवर्तन तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधा वंचित तथा भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा हक जताना संघर्षों को और उभारता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पहले भी समाज में संघर्ष रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता की बढ़ती चेतना के कारण सुविधा वंचित और भेदभाव का सामना कर रहे समूहों ने अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए हक जताना प्रारंभ कर रखा है, इससे आधुनिक समाज पहले की अपेक्षा अधिक संघर्षों से भरा हुआ है। यथा 

(1) आज विश्व में वर्ग, जाति, जनजातीय, नृजातीय व धार्मिक समुदायों के परम्परागत संघर्ष तो विद्यमान हैं ही। इसके साथ-ही-साथ अनेक नवीन संघर्ष भी सामने मुखरित हुए हैं। यथा
(i) व्यापारिक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों तथा राष्ट्रों के समूह के बीच संघर्ष है।

(ii) एक ही राष्ट्र के अन्दर कई प्रकार के संघर्ष विद्यमान हैं। जैसे-साम्प्रदायिक संघर्ष, क्षेत्रीय संघर्ष, वर्ग-संघर्ष, जातिगत संघर्ष, भूमि-संघर्ष, पृथकतावादी संघर्ष आदि।

(iii) नवीन और पुराने के बीच संघर्ष आज विकासशील देशों के मंच बने हैं। प्राचीन प्रणाली नवीन ताकतों का मुकाबला नहीं कर पा रही है, न ही लोगों की नवीन आशाओं तथा आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इससे स्पष्ट होता है कि आधुनिक समाज पहले से अधिक संघर्षों से भरा है।

Prasanna
Last Updated on Sept. 7, 2022, 5:36 p.m.
Published Sept. 7, 2022