RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र एवं समाज

RBSE Class 11 Sociology समाजशास्त्र एवं समाज Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
समाजशास्त्र के उद्गम और विकास का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
समाजशास्त्र मानव समाज का एक अन्तःसम्बन्धित समग्र के रूप में अध्ययन करता है। इसमें समाज का विधिवत अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन दार्शनिक और धार्मिक अनुचिन्तन एवं समाज के रोजमर्रा के सामान्य प्रेक्षण से एकदम अलग है।

(1) समाज के अध्ययन में सहायता - समाज के अध्ययन का यह अलग तरीका तब अधिक अच्छी तरह से समझा जा सकता है, जब हम पीछे मुड़कर बौद्धिक विचारों एवं भौतिक स्थितियों पर ऐतिहासिक दृष्टि डालें जिसमें समाजशास्त्र का जन्म एवं विकास हुआ। दूसरे शब्दों में समाजशास्त्र के उद्गम और विकास के अध्ययन के द्वारा हम समाज को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं।

(2) सामाजिक व्यवस्था की पद्धति का ज्ञान - समाजशास्त्र का उद्गम और विकास पश्चिम में हुआ। डार्विन के जीव विकास के विचारों आरम्भिक समाजशास्त्रीय विचारों पर दृढ़ प्रभाव पड़ा। इसके प्रभावस्वरूप पश्चिम में समाज को व्यवस्था के भागों के रूप में देखने के तरीके ने सामाजिक संस्थाओं एवं संरचनाओं के अध्ययन को बहुत प्रभावित किया। इस प्रकार समाजशास्त्र के उद्गम और विकास के अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि समाजशास्त्र आनुभविक वास्तविकता का अध्ययन किस प्रकार करता है।

(3) समाजशास्त्र के अध्ययन में वैज्ञानिकता और तार्किकता का समावेश कैसे हुआ - समाजशास्त्र के उद्गम और विकास का अध्ययन करने से हमें 17वीं तथा 18वीं सदी में यूरोप के बौद्धिक आन्दोलन-ज्ञानोदय-का पता चलता है कि उसने इस बात पर बल दिया कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र के उद्गम व विकास में वैज्ञानिकता, तार्किकता की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

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(4) पूँजीवाद का वैश्वीकरण - पश्चिम में समाजशास्त्र के विकास में पूँजीवाद व उपनिवेशवाद के विकास का भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा। इस प्रकार समाजशास्त्र के उद्गम एवं विकास में उक्त विचारों एवं भौतिक विकास का प्रभाव पड़ा। ये विचार एवं भौतिक विकास यद्यपि पाश्चात्य थे, परन्तु उनके परिणाम विश्वव्यापी थे। इस प्रकार समाजशास्त्र नामकं विषय का प्रारम्भ पश्चिम में हुआ। किसी विषय के इतिहास को समझने से उस विषय को समझने में सहायता मिलती है। अतः समाजशास्त्र के उद्गम और विकास का अध्ययन करना महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि इसके अध्ययन से समाजशास्त्र की जीवनी के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों की हमें जानकारी मिलती है।

प्रश्न 2. 
'समाज' शब्द के विभिन्न पक्षों की चर्चा कीजिए। यह आपके सामान्य बौद्धिक ज्ञान की समझ से किस प्रकार अलग है?
उत्तर:
अध्ययन के दृष्टिकोणों के आधार पर समाज के पक्ष-अध्ययन के विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर समाज के अनेक पक्ष हैं। जैसे-समाज का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से किया जाने वाला विधिवत अध्ययन दार्शनिक और धार्मिक, अनुचिन्तन एवं साथ ही समाज के रोजमर्रा के सामान्य प्रेक्षण से एकदम अलग है। इस प्रकार समाज के अनेक पक्ष बताए जा सकते हैं-

  1. समाज का दार्शनिक पक्ष
  2. समाज का धार्मिक पक्ष
  3. समाज का अनुचिन्तन पक्ष
  4. समाज के रोजमर्रा का सामान्य प्रेक्षण का पक्ष और 
  5. समाज का समाजशास्त्रीय पक्ष।

व्यापकता के आधार पर समाज के पक्ष-इसके अतिरिक्त व्यापकता के आधार पर भी समाज के अनेक रूप बताये जा सकते हैं, जैसे-विश्वव्यापी समाज (अन्तर्राष्ट्रीय समाज), राष्ट्रीय समाज जैसे-भारतीय समाज, ब्रिटिश समाज, रूसी समाज, अमेरिकी समाज आदि। एक राष्ट्रीय समाज को भी अनेक प्रकार के समाजों में बाँटा जा सकता है, जैसे-भाषायी समाज, समुदाय, धार्मिक समाज, जातिगत समाज, जनजाति समाज आदि के सन्दर्भो में समाज को देखा जाता है।

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समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समाज का अर्थ-मैकाइवर और पेज ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समाज के विविध आधारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, "समाज रीतियों, कार्य-प्रणालियों, अधिकार-सत्ता एवं पारस्परिक सहयोग, अनेक समूह तथा उनके विभागों, मानव-व्यवहार के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है।" 

इस आधार पर समाज के प्रमुख पक्ष या आधार निम्नलिखित हैं -

(1) रीतियाँ-रीतियों के अन्तर्गत समाज के वे स्वीकृत तरीके आते हैं, जिन्हें समाज व्यवहार के क्षेत्र में उचित मानता है। रीतियाँ समाज में मनुष्य को एक निश्चित तथा समाज स्वीकृत व्यवहार करने के लिए बाध्य करती हैं। ये सामाजिक सम्बन्धों को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने में सहायता करती हैं।

(2) कार्य-प्रणालियाँ-कार्य-प्रणालियों का तात्पर्य सामाजिक संस्थाओं से है। संस्थाएँ समाज में स्थापित कार्यविधियाँ हैं। समाज के सदस्य इन प्रचलित (स्थापित) कार्य-प्रणालियों के माध्यम से अपने कार्यों को पूरा करते हैं। इससे ये समाज को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने में सहायता करती हैं।

(3) अधिकार-सत्ता-अधिकार-सत्ता (Authority) तथा अधीनता दो परस्पर सम्बन्धित सामाजिक सम्बन्ध हैं। किसी स्थिति में व्यक्ति अधिकार-सत्ता की स्थिति रखता है, तो किसी अन्य स्थिति में वह अधीनस्थ की स्थिति में होता है। यह सामाजिक सम्बन्धों को सुचारु रूप से चलाने व नियन्त्रण में सहयोग करता है।

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(4) पारस्परिक सहयोग-पारस्परिक सहयोग समूह के सदस्यों के बीच स्थापित सम्बन्धों की व्यवस्था है। यह समाज के अस्तित्व को स्थायित्व तथा निरन्तरता प्रदान करता है। समाज की प्रगति, श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण की प्रक्रियाएँ पारस्परिक सहयोग पर निर्भर हैं।

(5) समूह तथा विभाग-समाज विभिन्न समूहों, विभागों तथा उप-विभागों का समुच्चय है। मनुष्य इन समूहों तथा विभागों में रहकर ही सामाजिक व्यवहार करता है। समाज के अन्तर्गत-राष्ट्र, नगर, गाँव, विभिन्न समुदाय, समितियाँ तथा संस्थाएँ आदि सम्मिलित होते हैं। समूह तथा विभागों के माध्यम से मानव-व्यवहार को एक निश्चित आधार तथा दिशा मिलती है।

(6) मानव व्यवहार का नियन्त्रण-समाज की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मानव-व्यवहार पर नियन्त्रण आवश्यक है। मानव व्यवहार को औपचारिक नियन्त्रणों, जैसे-कानून, पुलिस व्यवस्था आदि तथा अनौपचारिक नियन्त्रणों, जैसे-परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, जन-रीतियाँ, रिवाज आदि के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है।

(7) मानव-व्यवहार की स्वतन्त्रताएँ-मनुष्यों को समाज द्वारा प्रस्थापित नियमों की संरचना के अन्तर्गत व्यवहार करने की स्वतन्त्रता भी होनी चाहिए। स्वतन्त्रताओं के माध्यम से सामाजिक प्रतिमानों का विकास होता है जो सामाजिक परिवर्तन तथा प्रगति के लिए जरूरी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल है और सामाजिक सम्बन्धों के इस जाल के अनेक पक्ष हैं जो मिलकर समाज को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करते हैं।

समाजशास्त्र और सामान्य बौद्धिक ज्ञान

समाजशास्त्रीय ज्ञान जिस प्रकार ईश्वर मीमांसीय एवं दार्शनिक अवलोकनों से अलग है, उसी प्रकार यह सामान्य बौद्धिक अवलोकनों से भी अलग है। क्योंकि -

(1) समाजशास्त्र व्यवस्थित उपागम के द्वारा ज्ञान अर्जित करता है लेकिन सामान्य बौद्धिक ज्ञान में इसका उपयोग नहीं किया जाता-सामान्य बौद्धिक वर्णन प्रायः उन पर आधारित होते हैं जिन्हें हम प्रकृतिवादी और व्यक्तिवादी वर्णन कह सकते हैं। व्यवहार का यह प्रकृतिवादी वर्णन इस मान्यता पर निर्भर करता है कि एक व्यक्ति व्यवहार के प्राकृतिक कारणों की पहचान कर सकता है जबकि समाजशास्त्र समाज का विधिवत् अध्ययन करता है तथा इसकी अध्ययन पद्धति वैज्ञानिक है। समाजशास्त्र को अपने प्रेक्षणों और विश्लेषणों में कुछ निश्चित नियमों का पालन करना होता है ताकि दूसरों के द्वारा उसकी जाँच की जा सके। 

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(2) प्रश्नकारी उपागम के सम्बन्ध में दोनों में अन्तर है-सामान्य बौद्धिक ज्ञान अपरावर्तनीय है क्योंकि यह अपने उद्गम के बारे में कोई प्रश्न नहीं पूछता। या दूसरे शब्दों में यह अपने आप से यह नहीं पूछता-"मैं यह विचार क्यों रखता हूँ?" जबकि एक समाजशास्त्री को अपने स्वयं के बारे में तथा अपने किसी भी विश्वास के बारे में यह प्रश्न पूछने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, चाहे वह विश्वास कितना ही प्रिय क्यों न हो कि "क्या वास्तव में ऐसा है?"

समाजशास्त्र के उपर्युक्त दोनों उपागम - 
(i) व्यवस्थित एवं 
(ii) प्रश्नकारी-वैज्ञानिक खोज की एक विस्तृत परम्परा से निकले हैं।

प्रश्न 3. 
चर्चा कीजिए कि आजकल अलग-अलग विषयों में परस्पर लेन-देन कितना ज्यादा है? संजीव पास बुक्स
उत्तर:
समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय क्षेत्र काफी व्यापक है। यह एक दुकानदार और ग्राहक के बीच, एक अध्यापक और विद्यार्थी के बीच, दो मित्रों के बीच अथवा परिवार के सदस्यों के बीच की अन्तःक्रिया के विश्लेषण को अपना केन्द्र-बिन्दु बना सकता है। इसी प्रकार यह राष्ट्रीय मुद्दों, जैसे-बेरोजगारी या जातीय संघर्ष या सरकारी नीतियों का आदिवासी जनसंख्या के वनों के अधिकार के प्रभाव या ग्रामीण कों को अपना केन्द्र-बिन्दु बना सकता है।

अथवा यह वैश्विक सामाजिक प्रक्रियाओं, जैसे-नए लचीले श्रम कानूनों का श्रमिक वर्ग पर प्रभाव या इलैक्ट्रॉनिक माध्यम का नौजवानों पर प्रभाव या विदेशी विश्वविद्यालयों के आगमन का देश की शिक्षा-प्रणाली. पर प्रभाव की जाँच कर सकता है। - इस प्रकार समाजशास्त्र विषय इससे परिभाषित नहीं होता कि वह क्या अध्ययन करता है, बल्कि इससे परिभाषित होता है कि वह एक चयनित क्षेत्र का अध्ययन कैसे करता है।

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विभिन्न सामाजिक विज्ञानों, जैसे-समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति-विज्ञान एवं इतिहास आदि के ये सभी विवेचित विषय हैं। इसलिए ये विषय आपस में परस्पर जुड़े हुए हैं और विषय-सामग्रियों तथा अध्ययन-पद्धतियों का इनमें परस्पर लेन-देन अनिवार्य है। सामाजिक विज्ञानों की कुछ हद तक साझी रुचियाँ, संकल्पनाएँ एवं पद्धतियाँ हैं। सामाजिक विज्ञानों को अलग-अलग करना अन्तरों को अन्तरंजित करना और समानताओं पर आवरण चढ़ाने जैसा होगा।

नारी अधिकारवादी सिद्धान्तों ने अन्त:विषयक उपागम की अत्यधिक आवश्यकता को दिखाया है। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक विज्ञानी या अर्थशास्त्री लिंगों की भूमिका और उनके राजनीति पर प्रभाव अथवा परिवार के समाजशास्त्र के बगैर अर्थव्यवस्था या लिंग पर आधारित श्रम-विभाजन का भली-भाँति अध्ययन नहीं कर सकता।

प्रश्न 4. 
अपनी या अपने दोस्त अथवा रिश्तेदार की किसी व्यक्तिगत समस्या को चिन्हित कीजिए। इसे समाजशास्त्रीय समझ द्वारा जानने की कोशिश कीजिए।
उत्तर:
मेरी व्यक्तिगत समस्या अच्छी नौकरी प्राप्त करने की है कि मैं अच्छी नौकरी कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? इस व्यक्तिगत समस्या को हम समाजशास्त्रीय समझ द्वारा निम्न प्रकार जानने का प्रयास करेंगे समाजशास्त्रीय समझ से आशय-समाजशास्त्र स्वयं को एक विज्ञान की तरह समझता है। यह वैज्ञानिक कार्यविधियों से बँधा हुआ है।

इसका अर्थ है कि जिन कथनों पर समाजशास्त्री पहुँचता है, वह कथन साक्ष्य के निश्चित नियमों के द्वारा प्राप्त किए हुए होने चाहिए ताकि दूसरे व्यक्ति इसकी जाँच कर सकें या उनकी जानकारियों के विकास हेतु उन्हें दोहरा सकें। समाजशास्त्र को अपने प्रेक्षणों और विश्लेषणों में कुछ निश्चित नियमों का पालन करना होता है ताकि दूसरों के द्वारा उसकी जाँच की जा सके।

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अच्छी नौकरी प्राप्त करने को सामान्यतः कठिन परिश्रम व अध्ययन से अच्छे अंक प्राप्त करने तथा अच्छा कार्य करने से जोड़ा जाता है। इस प्रकार सामान्य रूप से या सामान्य बौद्धिक समझ से अच्छी नौकरी प्राप्त करना एक व्यक्ति की स्वयं की समस्या है और स्वयं अपने परिश्रम के द्वारा इसे प्राप्त कर सकता है। लेकिन यदि हम समाजशास्त्रीय दृष्टि से इसका अध्ययन करेंगे तो इस व्यक्तिगत समस्या के पीछे निहित सामाजिक कारणों तथा उसके परिणामों का भी अध्ययन करना आवश्यक होगा। जैसे - 

(i) नौकरी का एक बाजार है और वह बाजार यह निश्चित करता है कि किस विषय की पढ़ाई करने से नौकरी के अवसर ज्यादा हैं या कम है।

(ii) नौकरी प्राप्त करने में व्यक्तिगत प्रयास और नौकरी के बाजार के अतिरिक्त लिंग, परिवार और सामाजिक परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है। 

'व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और लिंग' के आधार पर अच्छी नौकरी को परिभाषित करना होगा कि 'अच्छी नौकरी' से उसका क्या आशय है। एक अच्छी नौकरी के निर्धारण के प्रमुख कारक कौन-कौनसे हैं, जैसे - समाज की सोच या मान्यता, व्यक्तिगत सन्तुष्टि, सम्मान की प्राप्ति, संस्कृति एवं सामाजिक मानक आदि।

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(iii) परिवार की आर्थिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि तथा स्थिति-प्रत्येक विद्यार्थी को तरक्की हेतु मेहनत से अध्ययन अवश्य करना चाहिए। लेकिन वह कितना अच्छा कर पाता है। यह सामाजिक कारकों के एक पूरे समुच्चय द्वारा निर्धारित है। यथा -
(क) परिवार की आर्थिक स्थिति कैसी है?
(ख) परिवार की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है? 
(ग) सरकार की आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियाँ किस प्रकार की हैं? 

इस प्रकार समाजशास्त्रीय समझ के अन्तर्गत एक अच्छी नौकरी पाने की मेरी व्यक्तिगत समस्या अनेक पहलुओं से जुड़ जाती है-

  1. मेरे व्यक्तिगत प्रयास
  2. अच्छी नौकरी से आशय
  3. नौकरी के बाजार की स्थिति
  4. मेरा तथा मेरे परिवार का सामाजिक-आर्थिक परिवेश तथा 
  5. सरकार की नौकरी से सम्बन्धित आर्थिक-सामाजिक नीतियाँ।

इन सभी तथ्यों का विश्लेषण कर ही मैं समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह निर्धारित कर सकता हूँ कि 'अच्छी नौकरी' से मेरा क्या आशय है और मैं इसे किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ तथा मेरी नौकरी प्राप्त करने में कौन-कौनसे सामाजिक कारक क्या-क्या प्रभाव डालेंगे। (टिप्पणी-विद्यार्थी अपनी व्यक्तिगत समस्या को इन्हीं बिन्दुओं के अन्दर विश्लेषित कर जानने की कोशिश कर सकते हैं।)

Prasanna
Last Updated on Sept. 7, 2022, 5:36 p.m.
Published Sept. 7, 2022