RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter  5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 1. 
ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाएँ : 

मानव ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ सीमा तक कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए, हमारी आँखें ऐसी चीजें नहीं देख पाती हैं जो अधिक धुंधली अथवा बहुत द्युतिमान होती हैं। इसी प्रकार हमारे कान बहुत धीमी अथवा बहुत तीव्र ध्वनि नहीं सुन सकते हैं। यही बात अन्य ज्ञानेन्द्रियों के विषय में भी लागू होती है। मानव के रूप में हम उद्दीपन के एक सीमित सीमा-प्रसार में कार्य करते हैं। हमारे संवेदन ग्राही के ध्यान में आने के लिए उद्दीपक में दृष्टतम तीव्रता अथवा परिमाण होना चाहिए। उद्दीपक एवं उनकी संवेदनाओं के मध्य संबंधों का अध्ययन जिस विद्याशाखा में किया जाता है, उसे मनोभौतिकी (psychophysics) कहते हैं।

ध्यान में आने के लिए उद्दीपक का एक न्यूनतम मान अथवा वजन होना चाहिए। किसी विशेष संवेदी तंत्र को क्रियाशील करने के लिए जो न्यूनतम मूल्य अपेक्षित होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष देहरी (Absolute threshold or absolutelimen, AL) कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम पानी के एक गिलास में चीनी का एक कण डालें तो हो सकता है कि हमें उस पानी में मिठास का अनुभव न हो। एक कण और मिलाने से भी हो सकता है कि स्वाद मीठा न हो लेकिन यदि. हम एक- एक कण डालते जाएँ तो एक बिंदु ऐसा आएगा जब कहना होगा कि पानी अब मीठा हो गया है। चीनी के कणों की वह न्यूनतम संख्या जिससे हम पानी में मिठास का अनुभव करते हैं, उसे मिठास की निरपेक्ष सीमा कहते हैं।

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उल्लेखनीय है कि निरपेक्ष सीमा निश्चित बिंदु नहीं होती, बल्कि यह व्यक्तियों की आंगिक दशाओं एवं उनकी अभिप्रेरणात्मक स्थितियों के आधार पर विशेष रूप से सभी व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में परिवर्तित होती रहती है। इसलिए उसका मूल्यांकन हमें विविध प्रयासों के आधार पर करना चाहिए। 50 प्रतिशत अवसरों पर चीनी के कणों की जिस संख्या से पानी में मिठास का अनुभव हो सकता है वह मिठास की निरपेक्ष सीमा होगी। यदि हम चीनी के और कणों को मिलाएँ तो इसकी संभावना अधिक है कि पानी प्रायः मीठा ही बताया जाएगा न कि सादा। हमारे लिए जैसे सभी उद्दीपकों को जान पाना संभव नहीं होता वैसे ही समस्त प्रकार के उद्दीपकों के मध्य अंतर कर पाना

भी संभव नहीं होता है। यह जानने के लिए कि दो उद्दीपक एक-दूसरे से भिन्न हैं, उन उद्दीपकों के मान में एक न्यूनतम अंतर होना अनिवार्य है। दो उद्दीपकों के मान में न्यूनतम अंतर जो उनकी अलग पहचान के लिए आवश्यक होता है, को भेद सीमा अथवा भेद देहरी (difference threshold or difference limen, DL) कहते हैं। इसे समझने के लिए हम अपने 'चीनी-पानी' वाले प्रयोग को दोहरा सकते हैं। जैसा कि हमने देखा, चीनी के कुछ कणों को मिला देने के पश्चात् सादा पानी मीठा लगने लगता है। अब हम इस मिठास को याद करें। 

अगला प्रश्न उत्पन्न होता है कि पानी में चीनी के कितने और कण मिलाने की आवश्यकता होगी, जिससे मिठास के पिछले अनुभव से भिन्न प्राप्त हों ? चीनी का एक-एक कण पानी में डालें और प्रत्येक बार पानी का स्वाद चखें। कुछ कणों को मिलाने के बाद हम अनुभव करेंगे कि अब पानी की मिठास पूर्व मिठास से अधिक है। पानी में मिलाए गए चीनी के कणों की संख्या जिससे मिठास का अनुभव पूर्व में हुए मिठास के अनुभव की तुलना में 50 प्रतिशत अवसरों पर भिन्न हो तो उसे मिठास की भेद देहरी कहेंगे। इस प्रकार भौतिक उद्दीपक में वह न्यूनतम परिवर्तन जो 50 प्रतिशत प्रयासों में संवेदन भिन्नता कराने में सक्षम है, उसे भेद सीमा कहते हैं।

प्रश्न 2. 
प्रकाश अनुकूलन एवं तम-व्यनुकूलन का क्या अर्थ है ? वे कैसे घटित होते हैं ?
उत्तर : 
प्रकाश की विभिन्न तीव्रताओं के साथ समंजन करने की प्रक्रिया को 'चाक्षुष अनुकूलन' कहते हैं। प्रकाश अनुकूलन (Light adaptation) का संबंध मंद प्रकाश के प्रभावन के बाद तीव्र प्रकाश के समायोजन की प्रक्रिया से है, इसमें 1-2 मिनट लगते हैं। दूसरी ओर, तम-व्यनुकूलन (Dark adaptation) तीव्र प्रकाश के प्रभावन के बाद मंद प्रकाश वाले वातावरण से समायोजन की प्रक्रिया से संबंधित है। इसमें आधा घंटा अथवा प्रकाश के प्रति आँख के प्रभावन के पूर्व स्तर पर निर्भर होने के कारण उससे भी अधिक समय लग सकता है। इन प्रक्रियाओं को सरल बनाने की कुछ विधियाँ हैं।

उदाहरण: 

  • प्रकाशित क्षेत्र से एक अंधेरे कमरे में जाइए और देखिए कि वहाँ की सभी चीजों को ठीक से देखने में आपको कितना समय लगता है?
  • अगली बार जब आप प्रकाशित स्थान में हों तो लाल धूप का चश्मा पहन लीजिए। उसके बाद किसी अँधेरे कमरे में जाइए और देखिए कि चीजों को साफ़-साफ़ देखने में कितना समय लगता है ?
  • आप पाएंगे कि लाल धूप के चश्मे के उपयोग से तम-व्यनुकूलन में लगने वाले समय में बहुत अधिक कमी आ गई है।

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प्रश्न 3. 
रंग दृष्टि क्या है तथा रंगों की विमाएँ क्या हैं ?
उत्तर : 
पर्यावरण के साथ अंतःक्रिया करते समय हम विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का ही नहीं, बल्कि उनके वर्णों (रंगों) का भी अनुभव करते हैं। उल्लेखनीय है कि रंग हमारे संवेदी अनुभवों की एक मनोवैज्ञानिक विशेषता होते हैं। जब हमारा मस्तिष्क बाह्य जगत से प्राप्त सूचनाओं की व्याख्या करता है तब यह विशेषता प्रकट होती है। यह जानना आवश्यक है कि प्रकाश का वर्णन भौतिक रूप से तरंगदैर्ध्य के रूप में किया जाता है, रंग के रूप में नहीं।

हम जानते हैं कि दृश्य स्पेक्ट्रम का ऊर्जा-परास 380-780 नैनोमीटर होता है जिसका हमारे प्रकाशग्राही पता लगा सकते हैं। दृश्य स्पेक्ट्रम से कम या अधिक ऊर्जा आँखों के लिए हानिकारक होती है। सूर्य के प्रकाश में इन्द्रधनुष की तरह सात रंगों का मिश्रण होता है। प्रेक्षित रंग वायलेट, इंडिगो, ब्लू, ग्रीन, येलो, ऑरेंज तथा रेड (संक्षेप में VIBGYOR) होते हैं।

रंगों की विमाएँ : सामान्य वर्ण-दृष्टि का एक व्यक्ति लगभग 70 लाख से अधिक विभिन्न रंगों की छटाओं में अंतर कर सकता है। हमारे रंगों के अनुभव का वर्णन तीन मूल विमाओं के रूप में किया जा सकता है। ये विमाएँ हैं- वर्ण, संतृप्ति एवं द्युति। वर्ण (Hue) रंगों का ही एक गुण है। सरल शब्दों में यह रंगों के नाम बताता है। जैसे- लाल, नीला तथा हरा। वर्ण तरंगदैर्घ्य के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है तथा प्रत्येक रंग की पहचान विशिष्ट तरंगदैर्घ्य के आधार पर होती है। उदाहरण के लिए, नीले रंग का तरंगदैर्घ्य 465 नैनोमीटर तथा हरे रंग का तरंगदैर्घ्य 500 नैनोमीटर होता है। 

अवर्णक रंग; जैसे- काला, सफेद एवं भूरा वर्ण के आधार पर नहीं पहचाने जाते हैं। संतृप्ति (Saturation) एक मनोवैज्ञानिक गुण है जो किसी सतह अथवा वस्तु के वर्ण की सापेक्ष मात्रा से संबंधित होती है। एक तरंगदैर्घ्य का प्रकाश (एकवर्णी) अधिक संतृप्त प्रतीत होता है। जब हम कई तरंगदैर्यों का मिश्रण करते हैं तो संतृप्ति की मात्रा घट जाती है। भूरा रंग पूर्णतया असंतृप्त होता है। धुति (Brightness) प्रकाश की प्रत्यक्षित तीव्रता होती है। यह वर्ण एवं अवर्णक दोनों रंगों के आधार पर बदलती रहती है। सफेद एवं काला रंग द्युति विमा के शीर्ष एवं तल को प्रदर्शित करते हैं। सफेद रंग में द्युति की मात्रा सबसे अधिक होती है, जबकि काले रंग में द्युति की मात्रा सबसे कम होती है।

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प्रश्न 4. 
श्रवण संवेदना कैसे घटित होती है?
उत्तर : 
पिन्ना ध्वनि कम्पन्न को एकत्र करती है तथा उसे श्रवण द्वारा कर्ण पटह तक पहुँचाती है। टिम्पैनिक गुटिका से कम्पन तीन छोटी-छोटी अस्थिकाओं को स्थानांतरित होता है, जो उसकी शक्ति में वृद्धि करके उसे आन्तरिक कान तक पहुँचाती है। आन्तरिक कान में कॉकिल्या ध्वनि तरंगों को ग्रहण करता है। कम्पन द्वारा अंतर्लसिका गतिमान होता है जो कोर्ली अंग में भी कम्पन्न उत्पन्न करता है। अंत में आवेग श्रवण तंत्रिका को भेजा जाता है, जो कॉकिल्या के धरातल पर उत्पन्न होता है तथा श्रवण वल्कुट को जाता है जहाँ आवेग की व्याख्या होती है।

प्रश्न 5. 
अवधान को परिभाषित कीजिए तथा इसके गुणों की व्याख्या कीजिए।
अथवा 
ध्यान अथवा अवधान से आप क्या समझते हैं ? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए तथा इसकी विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर : 
अवधान या ध्यान शब्द से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। सामान्य बोलचाल की भाषा में भी इस शब्द का पर्याप्त प्रयोग होता है। अमुक्त व्यक्ति बहुत ही ध्यान से अपना कार्य करता है। पाठ याद करने के लिए ध्यान लगाना आवश्यक है। बिना ध्यान लगाए किया गया कार्य बिगड़ जाता है। इन सब वाक्यो से स्पष्ट होता है कि ध्यान कोई शक्ति है, जिसे केन्द्रित किया जाता है। मनोविज्ञान में अवधान या ध्यान का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। अवधान का आधार रुचि है। जिन वस्तुओं में हमारी रुचि होती है, हमारा ध्यान उस ओर अधिक केन्द्रित होता है। ग्रीस ने इस तथ्य को विभिन्न प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है। अत: ध्यान सभी वस्तुओं पर न जाकर कुछ वस्तुओं अथवा विषयों पर ही केन्द्रित होता है। यह एक चयनात्मक क्रिया है।

अवधान अथवा ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा : विभिन्न मानसिक शक्तियों को किसी अभीष्ट कार्य पर केन्द्रित करना अवधान कहलाता है। मानसिक शक्तियों को इस प्रकार केन्द्रित करना एक मानसिक प्रक्रिया है। सामान्य रूप से हर समय वातावरण में विद्यमान अनेक उत्तेजनाएं व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करती रहती हैं, परन्तु व्यक्ति न तो सब उत्तेजनाओं को ग्रहण करता है और न ही उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है। व्यक्ति किस उत्तेजना को ग्रहण करेगा, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। जिस उत्तेजना को वह ग्रहण करना चाहता है, उसी उत्तेजना पर उसे ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अवधान या ध्यान एक चयनात्मक क्रिया भी है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि किसी उत्तेजना के प्रति व्यक्ति की चेतना अथवा मानसिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया ही ध्यान या अवधान है।

अवधान की विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं :

(i) एन. एल, मन : आधुनिक मनोवैज्ञानिक मन ने अवधान को इन शब्दों में स्पष्ट किया है, "ध्यान को हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, विश्लेषण के अन्त में यह एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया ही है।"

(ii) जे. एस. रॉस : जे. एस. रॉस ने भी अवधान को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार, “किसी विचार की वस्तु को मन के सामने स्पष्ट रूप से रखने की प्रक्रिया अवधान है।"

(iii) मैक्डूगल : प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल ने अवधान की परिभाषा इन शब्दों में प्रस्तुत की है- “अवधान ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव के दृष्टिकोण से विचार किए जाने पर मात्र एक चेष्टा या क्रिया है।"

(iv) डम्बिल - डम्बिल ने अवधान का अर्थ इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “यह किन्हीं अन्य वस्तुओं की अपेक्षा किसी एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण है।"
संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवधान एक ऐसी मानिसक प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न मानसिक शक्तियों को अभीष्ट विषय-वस्तु पर केन्द्रित किया जाता है तथा इस स्थिति में अन्य विषय-वस्तुओं की अवहेलना की जाती है। ध्यान अथवा अवधान की पूर्ण व्याख्या के लिए इसकी विशेषताओं का उल्लेख करना भी अनिवार्य है।

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अवधान की प्रमुख विशेषताएँ :

अवधान के अर्थ एवं परिभाषाओं के उपर्युक्त विवरण के आधार पर इसकी निम्नलिखित मुख्य विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है :

(i) चुनाव : अवधान अथवा ध्यान की प्रक्रिया में चुनाव का विशेष महत्त्व होता है। हमारे वातावरण में सदैव अनेक ऐसे तत्त्व विद्यमान रहते हैं, जो निरन्तर हमें आकर्षित करते रहते हैं, परन्तु हमारा ध्यान एक समय में केवल एक ही विषय-वस्तु पर केन्द्रित होता है। इस चुनाव को हमारी रुचि, मनोवृत्ति तथा आवश्यकताएँ प्रभावित करती हैं।

(ii) चंचलता : अवधान की एक प्रमुख विशेषता है कि यह बहुत ही चंचल होता है। किसी एक विषय-वस्तु पर अधिक समय तक ध्यान को केन्द्रित नहीं किया जा सकता है। सामान्य रूप से ध्यान केवल कुछ सेकण्ड तक ही पूर्ण रूप से केन्द्रित रह पाता है। वुडवर्थ के अनुसार, “अवधान चलायमान है, क्योंकि यह अन्वेषक है, यह परीक्षण हेतु कुछ नवीनता की निरन्तर खोज करता है।"

(iii) मानसिक तत्परता : ध्यान केन्द्रित करने के लिए एक प्रकार की मानसिक तत्परता आवश्यक होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी विषय पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए तैयार नहीं है तो सरलता से ध्यान नहीं लग सकता।

(iv) प्रयोजन : सामान्य रूप से अवधान या ध्यान सप्रयोजन होता है। प्रयोजन के अभाव में ध्यान का केन्द्रित हो पाना कठिन होता है।

(v) संकीर्णता : अवधान या ध्यान का क्षेत्र व्यापक नहीं होता, वरन् अत्यन्त सीमित अथवा संकीर्ण होता है। कोई भी व्यक्ति एक ही समय में अनेक विषयों पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता।

(vi) त्रिपक्षीय प्रक्रिया : अवधान अथवा ध्यान एक त्रिपक्षीय प्रक्रिया है। अवधान की प्रक्रिया में ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा क्रियात्मक तीन पक्ष निहित होते हैं। सर्वप्रथम अवधान द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता है, इसके साथ-ही-साथ अवधान के परिणामस्वरूप मन में भावनाएँ उत्पन्न होती हैं तथा हम कुछ क्रियाएँ भी कर सकते हैं।

(vii) संश्लेषणात्मकता तथा विश्लेषणात्मकता : अवधान की प्रक्रिया के अन्तर्गत हम सम्बन्धित विषय-वस्तु के विभिन्न पक्षों का संश्लेषण तथा विश्लेषण दोनों ही करते हैं।

(vii) अन्वेषणात्मकता : अवधान सदैव अन्वेषणात्मक होता है। प्रत्येक नवीन विषय-वस्तु की ओर हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से ही आकृष्ट हो जाता है।

(viii) क्रियाओं का समायोजन : अवधान के समय समस्त क्रियाएँ वातावरण से समायोजित हो जाती हैं। मन के शब्दों में, "अवधान के कार्य में ग्राहक समायोजन, मुद्रा समायोजन, मांसपेशियों का तनाव तथा केन्द्रीय स्नायविक समायोजन की विशेषताएँ होती हैं। उदाहरणार्थ-व्याख्यान सुनते समय समस्त इन्द्रियाँ, मांसपेशियाँ तथा स्नायुमंडल व्याख्यानकर्ता से जुड़ जाता है।"

(ix) सजीवता : अवधान की स्थिति में चेतना जागरूक होती है और अवधान की वस्तुएँ सजीव हो जाती हैं, जबकि चेतना में अन्य वस्तुओं का अस्तित्व निर्जीव हो जाता है।

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प्रश्न 6.
चयनात्मक अवधान के निर्धारकों का वर्णन कीजिए। चयनात्मक अवधान संघृत अवधान से किस प्रकार भिन्न होता है ?
उत्तर : 
चयनात्मक अवधान : चयनात्मक अवधान का संबंध मुख्यत: अनेक उद्दीपकों में से कुछ सीमित उद्दीपकों अथवा वस्तुओं के चयन से होता है। हमारे प्रात्यक्षिक तंत्र में सूचनाओं को प्राप्त करने एवं उनका प्रक्रमण करने की सीमित क्षमता होती है। इसका अर्थ यह है कि एक विशेष समय में वे केवल कुछ उद्दीपकों पर ही ध्यान दे सकते हैं। प्रश्न यह है कि इनमें से किन उद्दीपकों का चयन और प्रक्रमण होगा। मनोवैज्ञानिकों ने उद्दीपकों के चयन को निर्धारित करने वाले अनेक कारकों का पता लगाया है।

चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले कारक : चयनात्मक अवधान को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। ये सामान्यतया उद्दीपकों की विशेषताओं तथा व्यक्तियों की विशेषताओं से जुड़े होते हैं। इन्हें सामान्यतया बाह्य' एवं 'आन्तरिक' कारकों में वर्गीकृत किया जाता है। बाह्य कारक (External factors) : ये कारक उद्दीपकों के लक्षणों से संबंधित होते हैं। अन्य चीजों के स्थिर होने पर उद्दीपकों के आकार, तीव्रता तथा गति अवधान के प्रमुख निर्धारक होते हैं। बड़ा, द्युतिमान तथा गतिशील उद्दीपक हमारे अवधान में शीघ्रता से आ जाता है।

जो उद्दीपक नवीन होते हैं तथा सामान्य रूप से जटिल होते हैं वे भी सरलतापूर्वक हमारे अवधान में आ जाते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि मनुष्य के फोटोचित्र अन्य निर्जीव वस्तुओं के फोटोचित्रों की तुलना में हमारे ध्यान में शीघ्रता से आ जाते हैं। इसी प्रकार, शाब्दिक कथनों की तुलना में लयबद्ध श्रवण उद्दीपक शीघ्रता से उद्दीप्त होते हैं। अवधान के लिए आकस्मिक एवं तीव्र उद्दीपकों में ध्यानाकर्षण की अद्भुत क्षमता होती है।

आंतरिक कारक (Internal factors) ये कारक व्यक्ति के अंदर पाए जाते हैं। इन्हें दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अभिप्रेरणात्मक कारक तथा संज्ञानात्मक कारक। अभिप्रेरणात्मक कारकों (Motivational factors) का संबंध हमारी जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताओं से होता है। जब हम भूखे होते हैं तो भोजन की हल्की गंध को भी हम सूंघ लेते हैं।

जिस विद्यार्थी को परीक्षा देनी होती है, वह परीक्षा न देने वाले विद्यार्थी की तुलना में शिक्षक के भाषण पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। संज्ञानात्मक कारकों (Cognitive factors) के अंतर्गत अभिरुचि, अभिवृत्ति तथा पूर्वविन्यास आदि कारक आते हैं। वस्तुएँ अथवा घटनाएँ, जो रुचिकर होती हैं, व्यक्तियों के ध्यान में शीघ्रतापूर्वक आती हैं। इसी प्रकार, जिन वस्तुओं अथवा घटनाओं के प्रति हम अनुकूल दृष्टि से रुचि लेते हैं, उन पर शीघ्रतापूर्वक ध्यान देते हैं। पूर्वविन्यास एक मानसिक स्थिति उत्पन्न करता है जो एक निश्चित दिशा में कार्य करने को प्रेरित करती है। यह तत्परता भी उत्पन्न करती है जिससे व्यक्ति एक विशेष उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करने को उन्मुख होता है, अन्य के प्रति नहीं।

संधृत अवधान : जहाँ चयनात्मक अवधान मुख्यत: उद्दीपकों के चयन से सम्बन्धित होता है, वहीं संधृत अवधान का संबंध एकाग्रता से होता है। यह हमारी उस योग्यता से जुड़ा होता है जिससे हम अपना ध्यान किसी वस्तु अथवा घटना पर देर तक बनाए रखते हैं। इसे सतर्कता भी कहते हैं।

प्रश्न 7. 
चाक्षुष क्षेत्र के प्रत्यक्षण के संबंध में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों की प्रमुख प्रतिज्ञप्ति क्या है ?
उत्तर : 
ज्ञानेंद्रियों के उद्दीपन के परिणामस्वरूप हम प्रकाश की क्षणदीप्ति अथवा ध्वनि अथवा घ्राण का अनुभव करते हैं। यह प्रारंभिक अनुभव जिसे संवेदना कहते हैं, हमें ज्ञानेंद्रियों को उद्दीप्त करने वाले उद्दीपक की समझ प्रदान नहीं करता है। उदाहरण के लिए. हमें इससे प्रकाश, ध्वनि एवं सुगंध के स्रोत के विषय में जानकारी नहीं मिलती है। संवेदी तंत्र द्वारा प्रदान की गई कच्ची सामग्री से अर्थ प्राप्त करने के लिए हम इसका पुनः प्रक्रमण करते हैं। ऐसा करने से हम अपने अधिगम, स्मृति, अभिप्रेरणा, संवेग तथा अन्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के उपयोग द्वारा उद्दीपकों को अर्थवान बनाते हैं।

जिस प्रक्रिया से हम ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्रदान की गई सूचनाओं की पहचान करते हैं, व्याख्या अथवा उसको अर्थवान बनाते हैं, उसे प्रत्यक्षण कहा जाता है। उद्दीपकों अथवा घटनाओं की व्याख्या करने में लोग अपने ढंग से उनको रचित करते हैं। इस प्रकार, प्रत्यक्षण बाह्य अथवा आंतरिक जगत में पाए जाने वाली वस्तुओं अथवा घटनाओं की व्याख्या मात्र नहीं है, बल्कि अपने दृष्टिकोण के अनुसार वस्तुओं या घटनाओं की एक रचना भी है। अर्थात् बनाने की प्रक्रिया में कुछ उपक्रियाएँ अन्तर्निहित हैं।

प्रत्याक्षण के प्रक्रमण उपागम : हम किसी वस्तु की पहचान कैसे करते हैं? क्या हम किसी कत्ते की पहचान इसलिए करते हैं कि हम उसके रोएँदार खाल, उसके चार पैरों, उसकी आँखों, कानों आदि की पहचान पहले कर चुके हैं अथवा इन अंगों की पहचान हम इसलिए करते हैं क्योंकि पहले हमने कुत्ते की पहचान की है ? यह विचार कि प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया अंशों से प्राप्त होती है और जो समग्र प्रत्यभिज्ञान का आधार बनती है, उसे ऊर्ध्वगामी प्रक्रमण (bottom-up processing) कहते हैं।

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जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया समग्र से प्रारंभ होती है तो उसके आधार पर विभिन्न घटकों की पहचान की जाती है तो उसे अधोगामी प्रक्रमण (top-down processing) कहते हैं। ऊर्ध्वगामी उपागम प्रत्यक्षण उद्दीपकों के विविध लक्षणों पर जोर देता है तथा प्रत्यक्षण को एक मानसिक रचना की प्रक्रिया स्वीकार करता है। अधोगामी उपागम प्रत्यक्षण करने वालों को महत्त्व देता है तथा प्रत्यक्षण को उद्दीपकों की प्रत्यभिज्ञान अथवा तदात्मीकरण की प्रक्रिया माना जाता है। अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि प्रत्यक्षण में दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से अंतःक्रिया करती हैं और हमें जगत की समझ प्रदान करती हैं।

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प्रश्न 8. 
स्थान प्रत्यक्षण कैसे घटित होता है ?
उत्तर : 
जिस चाक्षुष क्षेत्र अथवा सतह पर वस्तुएँ रहती हैं, गतिशील होती हैं अथवा रखी जा सकती हैं, उसे स्थान कहते हैं। जिस स्थान पर हम रहते हैं वह तीन विमाओं से संगठित होता है। हम विभिन्न वस्तुओं के मात्र स्थानिक अभिलक्षणों (जैसे-आकार, रूप, दिशा) को ही नहीं देखते, बल्कि उस स्थान में पाई जाने वाली वस्तुओं के बीच की दूरी को भी देखते हैं। यद्यपि हमारे दृष्टिपटल पर वस्तुओं की प्रक्षेपित प्रतिमाएँ समतल तथा द्विविम होती हैं (बाएँ, दाएँ, ऊपर, नीचे) परंतु हम स्थान में तीन विमाओं का प्रत्यक्षण करते हैं। ऐसा क्यों घटित होता है ?

यह इसलिए संभव होता है कि हम द्विविम दृष्टिपटलीय दृष्टि को त्रिविम प्रत्यक्षण के रूप में स्थानांतरित करने में समर्थ होते हैं। जगत को तीन विमाओं से देखने की प्रक्रिया को दूरी अथवा गहनता प्रत्यक्षण कहते हैं। गहनता प्रत्यक्षण हमारे दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, जब हम गाड़ी चलाते हैं तो हम गहराई का उपयोग निकट आती हुई गाड़ी की दूरी जानने के लिए करते हैं अथवा जब हम सड़क पर टहलते हुए किसी व्यक्ति को पुकारते हैं तो हम यह निश्चय करते हैं कि कितनी तीव्र आवाज में पुकारा जाए।

गहराई के प्रत्यक्षण में हम दो प्रमुख सूचना स्रोतों, जिन्हें संकेत कहा जाता है, पर निर्भर करते हैं। एक को द्विनेत्री संकेत कहते हैं, क्योंकि इसमें दोनों आँखों की आवश्यकता होती है। दूसरे को एकनेत्री संकेत कहते है क्योंकि इसमें गहनता प्रत्यक्षण के लिए मात्र एक आँख का उपयोग होता है। ऐसे अनेक संकेतों का उपयोग द्विविम प्रतिमा को त्रिविम प्रत्यक्षण में परिवर्तित करने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 9. 
गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत क्या हैं? गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेतों की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत (मनोवैज्ञानिक संकेत): गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत उस स्थिति में प्रभावी होते है जब वस्तुओं को केवल एक आँख से देखा जाता है। ऐसे संकेतों का उपयोग कलाकार अपनी द्विविम पेंटिंग में गहराई प्रदर्शित करने के लिए करते हैं। इसलिए इन्हें चित्रीय संकेत भी कहा जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण एकनेत्री संकेत जो द्विविम सतहों में गहराई एवं दूरी का निर्णय लेने में हमारी सहायता करते हैं उनका वर्णन नीचे किया जा रहा है।

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(i) सापेक्ष आकार : समान वस्तुओं के साथ वर्तमान एवं भूतकाल के अनुभव के आधार पर दूरी के निर्णय में दृष्टिपटलीय प्रतिमा का आकार सहायता करता है। जैसे ही वस्तु दूर जाती है, वैसे ही दृष्टिपटलीय प्रतिमा छोटी से छोटी होती है। जब कोई वस्तु छोटी दिखती है तो हम उसे दूर में स्थित तथा बड़ी दिखने पर निकट में स्थित के रूप में उसका प्रत्यक्षण करते हैं।

(ii) आच्छादन अथवा अतिव्याप्ति : ये संकेत उस स्थिति में प्रयुक्त होते हैं जब एक वस्तु के कुछ भाग किसी दूसरी वस्तु से आच्छादित हो जाते हैं। जो वस्तु आच्छादित होती है वह दूर तथा जो जो वस्तु आच्छादन करती है वह निकट दिखाई देती है।

(iii) रेखीय परिप्रेक्ष्य : इससे इस गोचर का ज्ञान होता है कि जो वस्तुएँ दूर होती हैं वे निकट की वस्तुओं की तुलना में एक-दूसरे के निकट दिखती हैं। उदाहरण के लिए, समानान्तर रेखाएँ- जैसे- रेल की पटरियाँ, दूरी बढ़ने पर एक-दूसरे में मिलती हुई दिखती हैं तथा लगता है कि वे क्षैतिज पर समाप्त हो गई हैं। रेखाएँ जितनी एक-दूसरे में मिलती हैं वे उतनी ही दूर दिखती हैं। 

(iv) आकाशी परिप्रेक्ष्य : हवा में धूल एवं आर्द्रता के सूक्ष्म कण होते हैं जिनसे दूर की वस्तुएँ धुंधली या अस्पष्ट दिखती हैं। इस प्रभाव को आकाशी परिप्रेक्ष्य कहते हैं। उदाहरण के लिए, दूर के पहाड़ वातावरण में विकीर्ण नीले प्रकाश के कारण नीले दिखाई देते हैं, जबकि यही पहाड़ निकट दिखाई देते हैं, जब वातावरण स्वच्छ होता है।

(v) प्रकाश एवं छाया : प्रकाश में वस्तु के कुछ भाग अधिक प्रकाशित होते हैं, जबकि कुछ भाग अंधकार में पड़ जाते हैं। वस्तु की दूरी के संबंध में प्रकाशित भाग एवं छाया हमें सूचनाएँ प्रदान करती हैं।

(vi) सापेक्ष ऊँचाई : लंबी वस्तुएँ प्रत्यक्षण करने पर प्रेक्षक के निकट दिखती हैं तथा छोटी वस्तुएँ बहुत दूर दिखाई देती हैं। जब हम दो वस्तुओं को एकसमान आकार के होने की प्रत्याशा करते हैं और वे समान नहीं होती हैं, तो उसमें जो बड़ी होती है वह निकट की तथा जो छोटी होती है वह दूर की दिखाई देती है।

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(vi) रचनागुण प्रवणता : यह एक ऐसा गोचर है जिसके द्वारा हमारे चाक्षुष क्षेत्र, जिनमें तत्त्वों की सघनता अधिक होती है, दूर दिखाई देते हैं। नीचे दिए गए चित्र में जैसे-जैसे हम दूर देखते जाते हैं पत्थरों की सघनता बढ़ती जाती है।

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(viii) गतिदिगंतराभास : यह एक गतिक एकनेत्री संकेत होता है, इसलिए यह चित्रीय संकेत नहीं समझा जाता है। यह तब घटित होता है जब विभिन्न दूरी की वस्तुएँ एक भिन्न सापेक्ष गति से गतिमान होती हैं। निकट की वस्तुओं की तुलना में दूरस्थ वस्तुएँ धीरे-धीरे गति करती हुई प्रतीत होती हैं। वस्तुओं की गति की दर उसकी दूरी का एक संकेत प्रदान करती है। उदाहरण के लिए जब हम एक बस में यात्रा करते हैं तो निकट की वस्तुएँ बस की दिशा के विपरीत गतिमान होती हैं, जबकि दूर की वस्तुएँ बस की दिशा के साथ गतिमान होती हैं।

द्विनेत्री संकेत (शारीरिक संकेत) : 

त्रिविम स्थान में गहनता प्रत्यक्षण के कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत दोनों आँखों से प्राप्त होते हैं। इनमें से तीन विशेष रूप से रोचक हैं।

(i) दृष्टिपटलीय अथवा द्विनेत्री असमता : चूंकि दोनों आँखों की स्थिति हमारे सिर में भिन्न होती है, इसलिए दृष्टिपटलीय असमता घटित होती है। वे एक-दूसरे से क्षैतिज रूप से लगभग 6.5 सेंटीमीटर की दूरी पर अलग-अलग होती हैं। इस दूरी के कारण एक ही वस्तु की प्रत्येक आँख की रेटिना पर प्रक्षेपित प्रतिमाएँ कुछ भिन्न होती हैं। दोनों प्रतिमाओं के मध्य इस विभेद को दृष्टिपटलीय असमता कहते हैं। मस्तिष्क अधिक दृष्टिपटलीय असमता की व्याख्या एक निकट की वस्तु के रूप में तथा कम दृष्टिपटलीय असमता की व्याख्या एक दूर की वस्तु के रूप में करता है, क्योंकि दूर की वस्तुओं की असमता कम तथा निकट की वस्तुओं की असमता अधिक होती है।

(ii) अभिसरण : जब हम आस-पास की वस्तु को देखते हैं तो हमारी आँखें अंदर की ओर अभिसरित होती हैं, जिससे प्रतिमा प्रत्येक आँख की गर्तिका पर आ सके। मांसपेशियों का एक समूह, आँखें जिस सीमा तक अंदर की ओर परिवर्तित होती हैं के संबंध में संदेश मस्तिष्क को प्रेषित करता है और इन संदेशों की व्याख्या गहनता प्रत्यक्षण के संकेतों के रूप में की जाती है। जैसे-जैसे वस्तु प्रेक्षण से दूर होती जाती है वैसे-वैसे अभिसरण की मात्रा घटती जाती है। अभिसरण का अनुभव हम स्वयं कर सकते हैं-एक उँगली को अपनी नाक के सामने रखिए और उसे धीरे-धीरे निकट लाइए। जैसे-जैसे आपकी आँखें अंदर की ओर परिवर्तित होंगी अथवा अभिसरित होंगी, वैसे-वैसे वस्तुएँ निकट दिखाई देंगी।

(iii) समंजन : समंजन एक प्रक्रिया है जिसमें पक्ष्माभिकी पेशियों की सहायता से हम प्रतिमा को दृष्टिपटल पर फोकस करते हैं। ये मांसपेशियाँ आँख के लेन्स की सघनता को परिवर्तित कर देती हैं। यदि वस्तु दूर चली जाती है (दो मीटर से अधिक), तब मांसपेशियाँ शिथिल रहती हैं। जैसे ही वस्तु निकट आती हैं, मांसपेशियों में संकुचन की क्रिया होने लगती है तथा लेन्स की सघनता बढ़ जाती है। मांसपेशियों के संकुचन की मात्रा का संकेत मस्तिष्क को भेज दिया जाता है, जो दूरी के लिए संकेत प्रदान करता है।

प्रश्न 10. 
भ्रम क्यों उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर : 
भ्रम : मानवीय प्रत्यक्षण सर्वदा तथ्यानुकूल नहीं होते हैं। कभी-कभी हम संवेदी सूचनाओं की उचित व्याख्या नहीं कर पाते हैं। इसके परिणामस्वरूप भौतिक उद्दीपक एवं उसके प्रत्यक्षण में सुमेल नहीं हो पाता। हमारी ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से उत्पन्न गलत प्रत्यक्षण को सामान्यतया भ्रम कहते हैं। कम या अधिक हम सभी इसका अनुभव करते हैं। ये बाह्य उद्दीपन की स्थिति में उत्पन्न होते हैं और समान रूप से प्रत्येक व्यक्ति इसका अनुभव करता है। इसलिए, भ्रम को 'आदिम संगठन' भी कहा जाता है। 

RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 अधिगम 4

यद्यपि भ्रम का अनुभव हमारे किसी भी ज्ञानेंद्रिय के उद्दीपन से हो सकता है, तथापि मनोवैज्ञानिकों ने अन्य संवेदी प्रकारताओं की तुलना में चाक्षुष भ्रम का अधिक अध्ययन किया है। कुछ प्रात्यक्षिक भ्रम सार्वभौम होते हैं और सभी लोगों में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, रेल की पटरियाँ, आपस में मिलती हुई सभी को दिखाई देती हैं। ऐसे भ्रमों को सार्वभौम अथवा स्थायी भ्रम कहते हैं, क्योंकि ये अनुभव अथवा अभ्यास से परिवर्तित नहीं होते हैं। कुछ अन्य भ्रम एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में परिवर्तित होते रहते हैं। इन्हें 'वैयक्तिक भ्रम' कहते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण चाक्षुष भ्रम निम्नलिखित हैं|

ज्यामितीय भ्रम : नीचे दिए गए चित्र में मूलर-लायर भ्रम प्रदर्शित किया गया है। हम सभी 'अ' रेखा को 'ब' रेखा की तुलना में छोटी देखते हैं, जबकि दोनों रेखाएँ समान हैं। यह भ्रम बच्चों द्वारा भी अनुभव किया जाता है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि पशु भी कुछ कम या अधिक हम लोगों की तरह ही इस भ्रम का अनुभव करते हैं। मूलर-लायर भ्रम के अतिरिक्त, मानव जाति (पक्षी एवं पशु) द्वारा कई अन्य चाक्षुष भ्रमों का भी अनुभव किया जाता है। नीचे दिए गए चित्र में हम ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज रेखाओं का भ्रम देख सकते हैं। यद्यपि दोनों रेखाएँ समान हैं, फिर भी हम क्षैतिज रेखा की तुलना में ऊर्ध्वाधर रेखा का प्रत्यक्षण बड़ी रेखा के रूप में करते हैं।

RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

चित्र : ऊध्वाधर-क्षतिज भ्रम आभासी गतिभ्रम : जब कुछ गतिहीन चित्रों को एक के बाद दूसरा करके एक उपयुक्त दर से प्रक्षेपित किया जाता है तो हमें इस भ्रम का अनुभव होता है। इस भ्रम को फाई-घटना (Phi-phenomenon) कहा जाता है। जब हम गतिशील चित्रों को सिनमा में देखते हैं तो हम इस प्रकार के भ्रम से प्रभावित होते हैं। जलते-बुझते बिजली की रोशनी के अनुक्रमण से भी इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होता है। एक अनुक्रम में दो या दो से अधिक बत्तियों को एक यंत्र की सहायता से प्रस्तुत करके प्रायोगिक रूप से इस घटना का अध्ययन किया जा सकता है। 

RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 अधिगम 5

वर्दीमर ने द्युति, आकार, स्थानिक अंतराल एवं विभिन्न बत्तियों की कालिक सन्निधि के उपयुक्त स्तरों की उपस्थिति को महत्त्वपूर्ण माना है। इनकी अनुपस्थिति में प्रकाश-बिंदु गतिशील नहीं दिखते हैं। ये एक बिंदु अथवा एक के बाद दूसरा प्रकट होने वाले विभिन्न बिंदुओं के रूप में दिखाई देंगे परंतु इनसे गति का अनुभव नहीं होगा। भ्रमों के अनुभव से ज्ञात होता है कि संसार जैसा है लोग इसे सदा उसी रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि वे इसके निर्माण में व्यस्त रहते हैं। कभी-कभी यह उद्दीपकों के लक्षणों पर आधारित होता है और कभी-कभी एक विशेष पर्यावरण में उनके अनुभवों पर आधारित होता है।

प्रश्न 11. 
सामाजिक-सांस्कृतिक कारक हमारे प्रत्यक्षण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ?
उत्तर : 
प्रत्यक्षण पर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव : अनेक मनोवैज्ञानिकों ने प्रत्यक्षण की प्रक्रिया का अध्ययन विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों में किया है। जिन प्रश्नों का उत्तर वे इन अध्ययनों द्वारा खोजते हैं, वे हैं क्या विभिन्न सांस्कृतिक स्थितियों में रहने वाले लोगों का प्रात्यक्षिक संगठन एकसमान होता है ? क्या प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ सार्वभौम होती हैं, अथवा विभिन्न सांस्कृतिक स्थितियों में वे बदलती रहती हैं?
चूँकि हम जानते हैं कि संसार के विभिन्न भागों में रहने वाले लोग एक-दूसरे से भिन्न दिखाई देते हैं, इसलिए अनेक मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि संसार को देखने का उनका तरीका कुछ पहलुओं में भिन्न होना चाहिए।

हम मूलर-लायर तथा ऊर्ध्वाधर-क्षैतिज भ्रम चित्रों का अध्ययन कर चुके हैं। मनोवैज्ञानिकों ने ऐसे भ्रम चित्रों का उपयोग यूरोप, अफ्रीका तथा अन्य जगहों पर रहने वाले लोगों के अनेक समूहों के साथ किया है। सेगॉल (Segall), कैपेबेल (Campbell) तथा हर्षकोविट्स (Herskovits) ने भ्रम संवेद्यता के संबंध में विस्तृत अध्ययन किया है जिसमें उन्होंने अफ्रीका के दूरवर्ती गांवों तथा पश्चिमी देश के शहरी क्षेत्रों से प्रतिदर्श लिए। यह पाया गया कि अफ्रीका वाले प्रयोज्यों में क्षैतिज-ऊर्ध्वाधर भ्रम की अधिक संवेद्यता मिली, जबकि पश्चिमी देशों के प्रयोज्यों में मूलर-लायर भ्रम की अधिक संवेद्यता मिली। अन्य अध्ययनों में भी इसी तरह के परिणाम प्राप्त हुए हैं। सघन वनों में रहते हुए अफ्रीकी प्रयोज्यों ने ऊर्ध्वाधरता का नियमित रूप से अनुभव किया था। 

(जैसे-बड़े वृक्ष) तथा उनकी यह प्रवृत्ति हो गई थी कि वे इनका अधिक अनुमान करने लगे। पश्चिमी प्रयोज्यों, जो उचित कोणों से अभिलक्षित पर्यावरण में रह रहे थे, में यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि वे रेखाओं की लंबाई जो दोनों तरफ से बंद थी; जैसे-वाणान का कम अनुमान करने लगे। इस निष्कर्ष की पुष्टि अन्य अध्ययनों में हुई। इनसे पता चलता है कि प्रत्यक्षण की आदतें विभिन्न सांस्कृतिक स्थितियों में अलग-अलग तरीके से सीखी जाती हैं।

कुछ अध्ययनों में विभिन्न सांस्कृतिक स्थितियों में रहने वाले लोगों को वस्तुओं की पहचान तथा उनकी गहराई की व्याख्या के लिए अथवा उनमें प्रतिरूपित अन्य घटनाओं के कुछ चित्र दिए गए थे। हडसन (Hudson) ने अफ्रीका में एक प्रारंभिक अध्ययन किया तथा पाया कि जिन लोगों ने चित्र कभी नहीं देखा था, उन्हें उनमें प्रदर्शित की गई वस्तुओं की पहचान एवं उनकी गहराई के संकेतों (जैसे-अध्यारोपण) की व्याख्या करने में बड़ी कठिनाई हुई। 

यह बताया गया कि घर में दिए गए अनौपचारिक अनुदेश तथा चित्रों के प्रति आभ्यासिक उद्भासन चित्रीय गहनता प्रत्यक्षण के कौशल को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं। सिन्हा (Sinha) एवं मिश्र (Mishra) ने चित्रीय प्रत्यक्षण पर कई अध्ययन किए हैं। इन्होंने विविध सांस्कृतिक स्थितियों में रहने वाले लोगों जैसे- वन में रहने वाले शिकारी एवं जनसमूह, गाँव में रहने वाले लोगों जैसे- वनों में रहने वाले शिकारी एवं जनसमूह, गाँवों में रहने वाले किसान तथा शहरों में नौकरी करने एवं रहने वालों को विविध प्रकार के चित्र देकर उनके चित्रीय प्रत्यक्षण का अध्ययन किया था।

RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

उनके अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि चित्रों की व्याख्या लोगों के सांस्कृतिक अनुभवों से गहन रूप से संबंधित होती है। जहाँ सामान्यतया लोग चित्रों में परिचित वस्तुओं का प्रत्यभिज्ञान कर सकते हैं, वहीं जो लोग चित्रों से अधिक परिचित नहीं होते, उन्हें चित्रों में दिखाई गई क्रियाओं या घटनाओं की व्याख्या में कठिनाई होती है।

Bhagya
Last Updated on Sept. 23, 2022, 3:18 p.m.
Published Sept. 23, 2022