RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 6 अधिगम

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RBSE Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 1. 
अधिगम क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या
उत्तर : 
प्रत्येक प्राणी के जीवन में सीखने की प्रक्रिया का विशेष स्थान होता है। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक समय-समय पर कुछ न कुछ अवश्य ही सीखता रहता है। मानव जीवन में सीखने की प्रक्रिया पशुओं की अपेक्षा अधिक जटिल होती है। पशुओं की सीखने की प्रक्रिया पर्याप्त सीमित एवं सरल होती है, परन्तु मनुष्य द्वारा सीखे जाने वाले विषय एवं क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत एवं जटिल होते हैं। मनुष्य की सीखने की विधियाँ भी अनेक हैं। मानव शिशु के लिए सीखने के विषय अनन्त होते हैं, जिन्हें वह जन्म से ही कभी चेतन रूप में और कभी अचेतन रूप में सीखता रहता है। औपचारिक एवं अनौपचारिक माध्यमों से सीखने की यह प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।

अधिगम अथवा सीखने का अर्थ एवं परिभाषा : मूल रूप से सीखना अथवा अधिगम 'प्राणी के व्यवहार में परिवर्तन होना' है। जब एक बार बच्चे का हाथ आग से जलता है तो उसे दुखद अनुभव होता है और भविष्य में वह आग के पास हाथ ले जाने में भय का अनुभव करता है। उसके व्यवहार में होने वाला यह परिवर्तन ही 'सीखना' है। मानव-जीवन में सीखने का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। मानव द्वारा सीखी जाने वाली बातों में इतनी अधिक विभिन्नता है कि उन सब को एक सामान्य परिभाषा द्वारा व्यक्त करना संभव नहीं है। इस कठिनाई के होते हुए भी अनेक विद्वानों ने किसी न किसी रूप में सीखने की प्रक्रिया को परिभाषित करने के सफल प्रयास किए हैं। मुख्य विद्वानों द्वारा निर्धारित की गई सीखने की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं :

वुडवर्थ : वुडवर्थ ने सीखने की दो प्रकार की परिभाषाएँ प्रतिपादित की हैं। प्रथम परिभाषा के अनुसार “सीखना कोई नया कार्य करने में है बशर्ते कि नई क्रिया पुष्टीकृत हो और बाद की क्रियाओं में पुनः प्रकट होती हो।" वुडवर्थ की ही अन्य परिभाषा इस प्रकार है, “एक क्रिया सीखना कही जा सकती है जहाँ तक कि वह व्यक्ति को अच्छे या बुरे किसी भी प्रकार से विकसित करती है और उसके अनुभवों तथा परिवेश को पहले से भिन्न बनाती है।"

वुडवर्थ की इन दोनों परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सीखने की प्रक्रिया का सम्बन्ध नई क्रियाओं से होता है तथा सीखने की प्रक्रिया से ग्रहण किए गए अनुभवों का प्रभाव व्यक्ति के जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी पड़ता है। सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति के सामान्य व्यवहार में विभिन्न परिवर्तन तथा परिपक्वता देखी जा सकती है।

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अधिगम की विशेषताएँ : अधिगम की प्रक्रिया को अपनी कुछ विशिष्ट विशेषताएँ हैं।

(i) अनुभव का पाया जाना : पहली विशेषता यह है कि अधिगम में सदैव किसी न किसी तरह का अनुभव सम्मिलित रहता है। हम एक घटना को बहुत बार एक निश्चित क्रम में घटित होते हुए अनुभव करते हैं। हम जान जाते हैं कि अमुक घटना के तुरंत बाद दूसरी निश्चित घटनाएँ होंगी। जैसे छात्रावास में सूर्यास्त के बाद घंटी बजने से छात्र समझ जाते हैं कि अब भोजनालय में रात का खाना तैयार हो गया है।

किसी चीज को एक विशेष तरीके से करने के बाद बार-बार प्राप्त संतुष्टि का अनुभव हमें उसको उसी प्रकार करने की आदत डाल देता है। कभी-कभी केवल एक बार किया गया अनुभव भी अधिगम के लिए पर्याप्त होता है। दियासलाई जलाते समय अगर तीली रगड़ते ही किसी बच्चे की अंगुली जल जाती है तो ऐसे ही एक बार के अनुभव से वह भविष्य में दियासलाई का उपयोग करते समय सावधान होना सीख लेता

(ii) व्यवहार में स्थायी परिवर्तन : अधिगम के कारण व्यवहार में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं। इन्हें व्यवहार में होने वाले उन परिवर्तनों से अलग पहचाना जाना चाहिए जो न तो स्थायी होते हैं और न ही सीखे गए होते हैं। जैसे थकान, औषधि, आदत आदि के कारण भी बहुधा व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। मान लीजिए. आप मनोविज्ञान की पाठ्यपुस्तक कुछ समय से पढ़ रहे हैं या मोटरकार चलाना सीख रहे हैं तो एक समय आता है जब आप थकान महसूस करते हैं। ऐसी स्थिति में आप पढ़ना या कार चलाना छोड़ देते हैं।

व्यवहार में यह अस्थायी परिवर्तन थकान के कारण उत्पन्न हुआ है। इसे अधिगम नहीं माना जाता है। आपने देखा होगा कि अनेक प्रकार के मादक-द्रव्यों के सेवन के परिणामस्वरूप व्यक्ति की दैहिक क्रियाएँ प्रभावित हो जाती हैं, जिनसे व्यवहार में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। ये परिवर्तन अस्थायी होते हैं और मादक द्रव्यों का प्रभाव समाप्त होने पर परिवर्तन भी समाप्त हो जाते हैं।

(iii) घटनाओं का क्रम निहित होना : अधिगम में मनोवैज्ञानिक घटनाओं का एक क्रम निहित होता है। यदि हम एक विशिष्ट अधिगम प्रयोग का वर्णन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। मान लीजिए कि मनोवैज्ञानिकों की रुचि इस बात के समझने में है कि शब्दों की एक सूची कैसे सीखी जाती है, तो वे निम्नलिखित अनुक्रमों का अनुपालन करेंगे :

(i) पूर्व-परीक्षण करना कि कोई व्यक्ति अधिगम के पहले कितना जानता है; 
(ii) निर्धारित समय में स्मरण करने के लिए शब्दों की एक सूची प्रस्तुत करना, 
(iii) इस समय के दौरान नूतन ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के द्वारा शब्दों की सूची का प्रक्रमण करना; 
(iv) प्रक्रमण के पूर्ण होने के उपरांत नूतन ज्ञान अर्जित होना (जो अधिगम होगा), तथा 
(v) कुछ समय व्यतीत हो जाने के उपरांत व्यक्ति के द्वारा प्रक्रमित सूचना का पुनः स्मरण करना। एक व्यक्ति पूर्व-परीक्षण के समय जितने शब्द जानता था, उसकी अपेक्षा अब जितने जानता है; दोनों में तुलना करके कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि अधिगम हुआ है। इस प्रकार अधिगम एक अनुमानित प्रक्रिया है और निष्पादन (performance) से भिन्न है।

निष्पादन व्यक्ति का प्रेक्षित व्यवहार या अनुक्रिया या क्रिया है। आइए, हम अनुमान पद को समझने की चेष्टा करें। मान लीजिए कि आपके अध्यापक आपको एक कविता को याद करने के लिए कहते हैं। आप उस कविता को कई बार पढ़ते हैं। तब आप कहते हैं कि आपने वह कविता सीख ली है। आपसे कविता का पाठ करने के लिए कहा जाता है और आप कविता को सुना देते हैं। आपके द्वारा कविता का पाठ करना ही आपका निष्पादन है। आपके निष्पादन के आधार पर अध्यापक यह अनुमान लगाते हैं कि आपने कविता सीख ली है।

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प्रश्न 2. 
प्राचीन अनुबंधन किस प्रकार साहचर्य द्वारा अधिगम को प्रदर्शित करता है ?
उत्तर : 
प्राचीन अनुबंधन के निर्धारक : प्राचीन अनुबंधन में कितनी जल्दी से और कितनी मजबूती से अनुक्रिया प्राप्त होती है, यह अनेक कारकों पर निर्भर करता है। अनुबंधित अनुक्रिया के अधिगम को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नलिखित

1. उद्दीपकों के बीच समय संबंध : प्राचीन अनुबंधन प्रक्रियाएँ प्रमुखतः चार प्रकार की होती हैं। इनका आधार अनुबंधित उद्दीपक और अननुबंधित उद्दीपक की शुरुआत के बीच समय संबंध पर आधारित होता है। प्रथम तीन प्रक्रियाएँ अग्रवर्ती अनुबंधन (forward conditioning) की हैं तथा चौथी प्रक्रिया पश्चगामी अनुबंधन (backward conditioning) की है। इन प्रक्रियाओं की मूल प्रायोगिक व्यवस्थाएँ निम्न प्रकार हैं :

(अ) जब अनुबंधित तथा अननुबंधित उद्दीपक साथ-साथ प्रस्तुत किए जाते हैं तो इसे सहकालिक अनुबंधन (simultaneous conditioning) कहा जाता है।

(ब) विलंबित अनुबंधन (delayed conditioning) की प्रक्रिया में अनुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ अननुबंधित उद्दीपक से पहले होता है। अनुबंधित उद्दीपक का अंत भी अननुबंधित उद्दीपक के पहले होता है।

(स) अवशेष अनुबंधन (trace conditioning) की प्रक्रिया में अनुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ और अंत अननुबंधित उद्दीपक से पहले होता है। लेकिन दोनों के बीच में कुछ समय अंतराल होता

(द) पश्चगामी अनुबंधन (backward conditioning)की प्रक्रिया में अननुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ अनुबंधित उद्दीपक से पहले शुरू होता है।

प्रायोगिक अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि विलंबित अनुबंधन की प्रक्रिया अनुबंधित अनुक्रिया प्राप्त करने की सर्वाधिक प्रभावशाली विधि है। सहकालिक तथा अवशेष अनुबंधन की प्रक्रियाओं से भी अनुबंधित अनुक्रिया प्राप्त होती है, परंतु इन विधियों में विलंबित अनुबंधन प्रक्रिया की तुलना में अधिक प्रयास लगते हैं। उल्लेखनीय है कि पश्चमगामी अनुबंधन प्रक्रिया से अनुक्रिया प्राप्त होने की संभावना बहुत कम होती है।

2. अननुबंधित उद्दीपकों के प्रकार : प्राचीन अनुबंधन के अध्ययनों में प्रयुक्त अननुबंधित उद्दीपक मूलत: दो प्रकार के होते हैं-प्रवृत्यात्मक (appetitive) तथा विमुखी (aversive)| प्रवृत्यात्मक अननुबंधित स्वतः सुगम्य अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं; जैसे खाना, पीना, दुलारना आदि। ये अनुक्रियाएँ संतोष और प्रसन्नता प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, विमुखी अननुबंधित उद्दीपक जैसे- शोर, कड़वा स्वाद, विद्युत आघात, पीड़ादायी सुई आदि दुखदायी और क्षतिकारक होते हैं। ये परिहार और पलायन की अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि प्रवृत्यात्मक प्राचीन अनुबंधन अपेक्षाकृत धीमा होता है और इसकी प्राप्ति के लिए अधिक प्रयत्न करने पड़ते हैं जबकि विमुखी प्राचीन अनुबंधन दो-तीन प्रयासों में ही स्थापित हो जाता है। यह वस्तुतः विमुखी अननुबंधित उद्दीपक की तीव्रता पर निर्भर करता

3. अनुबंधित उद्दीपकों की तीव्रता : अनुबंधित उद्दीपकों की तीव्रता प्रवृत्यात्मक और विमुखी प्राचीन अनुबंधन दोनों की दिशा को प्रभावित करती है। अनुबंधित उद्दीपक जितना ही अधिक तीव्र होगा, अनुबंधित अनुक्रिया के अर्जन की गति उतनी ही अधिक होगी अर्थात् अनुबंधित उद्दीपक जितना अधिक तीव्र होगा, उतने ही कम प्रयासों की जरूरत अनुबंधन की प्राप्ति के लिए पड़ेगी।

प्रश्न 3. 
क्रियाप्रसूत अनुबंधन की परिभाषा दीजिए। क्रियाप्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा कीजिए।
उत्तर : 
क्रियाप्रसूत अनुबंधन : अनुबंधन की खोज सर्वप्रथम बी.एफ. स्किनर (B.E Skinner) द्वारा की गई। उन्होंने ऐच्छिक 'अनुक्रियाओं के घटित होने का अध्ययन किया, जो प्राणी द्वारा अपने पर्यावरण में सक्रिय होने पर होती हैं। स्किनर ने इसे क्रियाप्रसूत (operant) की संज्ञा दी। क्रियाप्रसूत वे व्यवहार या अनुक्रियाएँ हैं, जो जानवरों और मानवों द्वारा ऐच्छिक रूप से प्रकट की जाती हैं और उनके नियंत्रण में रहती हैं। क्रियाप्रसूत संज्ञा का उपयोग इसलिए किया गया है क्योंकि प्राणी पर्यावरण में सक्रिय होकर कार्य करता है। क्रियाप्रसूत व्यवहार का अनुबंधन क्रियाप्रसूत अनुबंधन (operant conditioning) कहलाता है। क्रियाप्रसूत या नैमित्तिक अनुबंधन अधिगम का एक प्रकार है जिसमें इसके परिणाम से व्यवहार को सीखा जाता है, बनाए रखा जाता है अथवा उसमें परिवर्तन किया जाता है। 

ऐसे परिणाम को प्रबलक (reinforcer) कहा जाता है। प्रबलक ऐसा कोई भी उद्दीपक या घटना है, जो किसी (वांछित) अनुक्रिया के घटित होने की संभावना को बढ़ाता है। प्रबलक की अनेक विशेषताएँ होती हैं जो अनुक्रिया की दिशा व शक्ति को निर्धारित करती हैं। प्रबलक की प्रमुख विशेषताओं में इसका प्रकार (धनात्मक अथवा ऋणात्मक), संख्या या आवृत्ति, गुणवत्ता (उच्च अथवा निम्न), और अनुसूची (सतत अथवा आंशिक) आदि है। प्रबलक की ये सभी विशेषताएँ क्रियाप्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करती हैं। अनुबंधित की जाने वाली अनुक्रिया या व्यवहार का स्वरूप दूसरा कारक है जो इस प्रकार के अधिगम को प्रभावित करता है। अनुक्रिया के घटित होने और प्रबलन के बीच का अंतराल भी क्रियाप्रसूत अधिगम को प्रभावित करता है।

प्रबलन के प्रकार : प्रबलन धनात्मक अथवा ऋणात्मक हो सकता है। धनात्मक प्रबलन में वे उद्दीपक शामिल होते हैं जिनका परिणाम सुखद होता है। धनात्मक प्रबलन जिस नैमित्तिक अनुक्रिया से प्राप्त होता है उसे दृढ़ करता है और बनाए रखता है। धनात्मक प्रबलक आवश्यताओं की पूर्ति करते हैं, जिनमें भोजन, पानी, तमगा, प्रशंसा, धन, प्रतिष्ठा, सूचनाएँ आदि सम्मिलित हैं। ऋणात्मक प्रबलक अप्रिय एवं पीड़ादायक उद्दीपक होते हैं। प्राणियों की ऐसी अनुक्रियाएँ जो उन्हें पीड़ादायक उद्दीपकों से छुटकारा दिलाती हैं या उनसे दूर रहने और बच निकलने के लिए पथ प्रदर्शन करती हैं, ऋणात्मक प्रबलन प्रदान करती हैं। 

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इस प्रकार, ऋणात्मक प्रबलन, परिहार अनुक्रिया अथवा पलायन अनुक्रिया करना सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, दुखदायी ठंड से बचने के लिए व्यक्ति ऊनी कपड़े पहनना, लकड़ी जलाना तथा बिजली के हीटर का उपयोग करना सीखता है। व्यक्ति खतरनाक उद्दीपकों से दूर भागना सीखता है क्योंकि यह ऋणात्मक प्रबलन प्रदान करता है। उल्लेखनीय है कि ऋणात्मक प्रबलन दंड नहीं है। यह उल्लेखनीय है दंड का उपयोग अनुक्रिया को कम करता है या दबाता है जबकि ऋणात्मक प्रबलक परिहार या पलायन की अनुक्रिया की संभाव्यता को बढ़ाता है। उदाहरणार्थ, दुर्घटना की स्थिति में घायल होने से बचने के लिए अथवा ट्रैफिक पुलिस द्वारा जुर्माना किए जाने से बचने के लिए चालक एवं सहचालक सीट बेल्ट पहनते हैं।

उल्लेखनीय है कि कोई भी दंड स्थाई रूप से किसी अनुक्रिया को दबा नहीं पाता है। हल्के एवं विलंबित दंड का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दंड जितना ही कठोर होता है उसका दमन प्रभाव भी उतने ही अधिक काल तक बना रहता है, परंतु यह प्रभाव स्थायी नहीं होता। कभी-कभी दंड चाहे जितना ही कठोर क्यों न हो इसका अनुक्रिया के दमन पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत, दंडित किए गए व्यक्ति में दंड देने वाले व्यक्ति के प्रति घृणा व विकर्षण का भाव आ जाता है।

प्रबलन की संख्या तथा अन्य विशेषताएँ : प्रबलन की संख्या से आशय उन प्रयासों की संख्या से है, जिनमें प्राणी को प्रबलन अथवा पुरस्कार प्राप्त हुआ हो। प्रबलन की मात्रा से आशय प्रबलित करने वाले उद्दीपक (भोजन या पानी या पीड़ादायक कारक की तीव्रता) की कितनी मात्रा को प्रत्येक प्रयास में प्राणी प्राप्त करता है। प्रबलन की गुणवत्ता से आशय प्रबलक के एक प्रकार से है। मटर का दाना अथवा ब्रेड का टुकड़ा, किशमिश या केक की तुलना में निम्न गुणवत्ता वाला प्रबलक है। नैमित्तिक अनुबंधन की गति साधारणतया उतनी ही बढ़ती है जितनी प्रबलनों की संख्या, मात्रा और गुणवत्ता बढ़ती है।

प्रबलन अनुसूचियाँ : प्रबलन अनुसूची अनुबंधन के प्रयासों के दौरान प्रबलन उपलब्ध कराने की व्यवस्था को कहते हैं। प्रत्येक प्रबलन अनुसूची अनुबंधन की दिशा को अपने-अपने तरीके से प्रभावित करती है। इसके कारण अनुबंधित अनुक्रियाएँ विविध प्रकार की विशेषताओं वाली हो जाती हैं। नैमित्तिक अनुबंधन में किसी प्राणी को प्रत्येक अर्जन प्रयास में प्रबलन दिया जा सकता है अथवा कुछ प्रयासों में यह दिया जाता है और दूसरे प्रयासों में नहीं दिया जाता है। इस प्रकार प्रबलन सतत अथवा सविराम हो सकता है। प्रत्येक बार जब वांछित अनुक्रिया घटित होती है तब उसे प्रबलन दिया जाता है तो हम उसे सतत प्रबलन (continuous reinforcement) कहते हैं। इसके विपरीत, सविराम अनुसूची में अनुक्रियाओं को कभी प्रबलित किया जाता है, कभी नहीं। इसे हम आंशिक प्रबलन (partial reinforcement) कहते हैं। यह देखा गया है कि आंशिक प्रबलन, सतत प्रबलन की अपेक्षा में विलोप के प्रति अधिक विरोध पैदा करता है।

विलंबित प्रबलन : किसी भी प्रबलन की प्रबलनकारी क्षमता विलंब के साथ-साथ कम होती जाती है। यह देखा गया है कि प्रबलन प्रदान करने में विलंब से निष्पादन का स्तर निकृष्ट हो जाता है। इस बात को आसानी से दर्शाया जा सकता है। यदि बच्चों से यह पूछा जाए कि वे किसी काम को करने के तुरंत बाद एक छोटा पुरस्कार या लंबे अंतराल के बाद एक बड़ा पुरस्कार लेना पसंद करेंगे तो वे छोटा पुरस्कार तुरंत लेना पसंद करेंगे।

प्रश्न 4. 
एक विकसित होते हुए शिशु के लिए एक अच्छा भूमिका-प्रतिरूप अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। अधिगम के उस प्रकार पर विचार-विमर्श कीजिए जो इसका समर्थन करता है।
उत्तर : 
प्रेक्षणात्मक अधिगम : प्रेक्षणात्मक अधिगम दूसरों का प्रेक्षण करने से घटित होता है। अधिगम के इस रूप को पहले अनुकरण (imitation) कहा जाता था। बंदूरा (Bandura) और उनके सहयोगियों ने विभिन्न प्रायोगिक अध्ययनों में प्रेक्षणात्मक अधिगम की विस्तृत खोजबीन की। इस प्रकार के अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को सीखता है, इसलिए इसे कभी-कभी | सामाजिक अधिगम (social learning) भी कहा जाता है। मानव के समक्ष ऐसी अनेक सामाजिक स्थितियाँ आती हैं जिनमें यह ज्ञात नहीं रहता कि हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। ऐसी स्थितियों में हम दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं और उनके समान व्यवहार करने लगते हैं। इस प्रकार के अधिगम को मॉडलिंग (modeling) कहा जाता है।

छोटे शिशु घर में तथा सामाजिक उत्सवों एवं समारोहों में प्रौढ व्यक्तियों के अनेक प्रकार के व्यवहारों का ध्यान से प्रेक्षण करते हैं; इसके बाद अपने खेल में उन्हें दुहराते हैं। जैसे- छोटे बच्चे विवाह समारोह, जन्मदिन, प्रीतिभोज, चोर और सिपाही, घर-रखाव आदि के खेल खेलते हैं। वे अपने खेलों में ऐसा सब करते हैं जैसा वे समाज में और टेलीविजन पर देखते हैं तथा पुस्तकों में पढ़ते हैं।

बच्चे अधिकांश सामाजिक व्यवहार प्रौढ़ों द्वारा किया गया प्रेक्षण तथा उनकी नकल करके सीखते हैं। कपड़े पहनना, बालों को सँवारने की शैली और समाज में किस प्रकार रहा जाए यह सभी दूसरों को देखकर सीखा जाता है। विभिन्न अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि बच्चों में व्यक्तित्व का विकास भी प्रेक्षणात्मक अधिगम के द्वारा ही होता है। आक्रामकता, परोपकार, आदर, नम्रता, परिश्रम, आलस्य आदि गुण भी अधिगम की इसी विधि द्वारा अर्जित किए जाते हैं।

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प्रश्न 5. 
वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियों की व्याख्या कीजिए। 
उत्तर : 
वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियाँ :

1. युग्मित सहचर अधिगम : यह विधि उद्दीपक-उद्दीपक अनुबंधन और उद्दीपक-अनुक्रिया अधिगम के समान है। इस विधि का उपयोग मातृभाषा के शब्दों के किसी विदेशी भाषा के पर्याय सीखने में किया जाता है। पहले युग्मित सहचरों की एक सूची तैयार की जाती है। युग्मों के पहले शब्द का उपयोग उद्दीपक के रूप में किया जाता है और दूसरे शब्द का अनक्रिया के रूप में। प्रत्येक युग्म के शब्द एक ही भाषा से अथवा दो भिन्न भाषाओं से हो सकते हैं। 
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युग्मों के पहले शब्द (उद्दीपक शब्द) निरर्थक शब्दांश (व्यंजन-स्वर-व्यंजन) हैं और दूसरे शब्द अंग्रेजी संज्ञाएँ (अनुक्रिया शब्द) हैं। अधिगमकर्ता को पहले दोनों उद्दीपक-अनुक्रिया युग्मों को एक साथ दिखाया जाता है और उसे अनुक्रिया शब्द को प्रत्येक उद्दीपक शब्द को प्रस्तुत करने के पश्चात् पुनःस्मरण करने के निर्देश दिए जाते हैं। इसके बाद सीखने का प्रयास प्रारंभ होता है। एक-एक करके उद्दीपक शब्द दिखाए जाते हैं और प्रतिभागी सही अनुक्रिया शब्द देने का प्रयास करता है। असफल होने पर उसे अनुक्रिया शब्द दिखाया जाता है। पहले प्रयास में सारे उद्दीपक शब्द दिखाए जाते हैं। प्रयासों का यह क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक कि प्रतिभागी अनक्रिया शब्दों को बिना किसी त्रुटि के बता नहीं देता है। इस मानदंड तक पहुँचने के लिए प्रयासों की कुल संख्या युग्मित सहचर अधिगम की मापक बन जाती है।

2. क्रमिक अधिगम : वाचिक अधिगम की इस विधि का उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि प्रतिभागी किसी शाब्दिक एकांशों की सूची को किस प्रकार सीखता है और सीखने में कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। सबसे पहले शब्दों की एक सूची तैयार कर ली जाती है। सूची में निरर्थक शब्दांश, अधिक परिचित शब्द, कम परिचित शब्द, आपस में संबंधित शब्द आदि हो सकते हैं। प्रतिभागी को सारी सूची प्रस्तुत की जाती है और उसको निर्देश दिया जाता है कि वह एकांशों को उसी क्रम में बताए जिस क्रम में वे सूची में हैं। 

पहले प्रयास में, सूची का सबसे पहला एकांश दिखाया जाता है और प्रतिभागी को दूसरा एंकाश बताना होता है। यदि वह निर्धारित समय में बताने में असफल रहता है, तो प्रयोगकर्ता उसे दूसरा एकांश प्रस्तुत करता है। अब यह एकांश उद्दीपक बन जाता है और प्रतिभागी को तीसरा एकांश अर्थात् अनुक्रिया शब्द बताना होता है। अगर वह असफल होता है तो प्रयोगकर्ता उसे सही एकांश बता देता है जो चौथे एकांश के लिए उद्दीपक बन जाता है। इस विधि को क्रमिक पूर्वाभास विधि (serial anticipation method) कहा जाता है। अधिगम के प्रयास तब तक चलते रहते हैं जब तक कि प्रतिभागी सभी एकांशों का सही-सही क्रमिक पूर्वाभास न कर ले।

3. मुक्त पुनः स्मरण : इस विधि में प्रतिभागियों को शब्दों की एक सूची प्रस्तुत की जाती है जिसे वे पढ़ते हैं और बोलते हैं। प्रत्येक शब्द एक निश्चित समय तक ही दिखाया जाता है। इसके बाद प्रतिभागियों को शब्दों को किसी भी क्रम में पुन:स्मरण करने के निर्देश दिए जाते हैं। सूची में शब्द आपस में संबंधित या असंबंधित हो सकते हैं। सूची में दस से ज्यादा शब्द शामिल किए जाते हैं। शब्दों के प्रस्तुतीकरण का क्रम एक प्रयास से दूसरे प्रयास में भिन्न होता है। इस विधि का उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि प्रतिभागी शब्दों को स्मृति में संचित करने के लिए किस तरह से संगठित करता है। अध्ययनों से पता चलता है कि सूची के आरंभ और अंत में स्थित शब्दों का पुन:स्मरण, सूची के बीच में स्थित शब्दों की तुलना में अधिक सरल होता है।

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प्रश्न 6. 
कौशल से आप क्या समझते हैं ? किसी कौशल के अधिगम के कौन-कौन से चरण होते हैं ?
उत्तर : 
कौशल का स्वरूप : कौशल को किसी जटिल कार्य को सरलतापूर्वक से और दक्षता से करने की योग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है। कार चलाना, हवाई जहाज उड़ाना, समुद्री जहाज चलाना, आशुलिपि में लिखना तथा लिखना एवं पढ़ना आदि कौशल के उदाहरण हैं। ये कौशल अनुभव और अभ्यास से सीखे जाते हैं। 

कौशल प्राप्त करने के चरण : कौशल अधिगम गुणात्मक रूप से भिन्न कई चरणों से गुजरता है। किसी कौशल को सीखने के प्रत्येक क्रमिक प्रयास के साथ, निष्पादन निर्बाध अधिक होता जाता है और निष्पादन करने में प्रयास की आवश्यकता भी कम होती जाती है। दूसरे शब्दों में, निष्पादन अधिक स्वाभाविक या स्वचालित हो जाता है। यह भी देखा गया है कि प्रत्येक चरण में निष्पादन के स्तर में सुधार आता है। सीखने के एक चरण से जब व्यक्ति दूसरे चरण में प्रविष्ट होता है तो इस संक्रमण काल में निष्पादन के स्तर में सुधार रुक जाता है। इस रुके हुए स्तर को निष्पादन पठार कहा जाता है। अगला चरण प्रारंभ होने के पश्चात निष्पादन का स्तर सुधरने लगता है और ऊपर बढ़ना प्रारंभ हो जाता है। 

कौशल अर्जन के चरणों के सर्वाधिक प्रभावशाली वर्णनों में एक वर्णन फिट्स (Fitts) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार, कौशल अधिगम की प्रक्रिया तीन चरणों में होती है- संज्ञानात्मक (cognitive), साहचर्यात्मक (associative) तथा स्वायत्त (autonomous) । प्रत्येक चरण में अलग-अलग प्रकार की मानसिक प्रक्रियाएँ होती हैं। कौशल अधिगम के संज्ञानात्मक चरण में अधिगमकर्ता को दिए गए निर्देशों को समझना और याद करना पड़ता है। उसे यह भी समझना पड़ता है कि कार्य का निष्पादन किस प्रकार किया जाना है। इस चरण में व्यक्ति को पर्यावरण से मिलने वाले सभी संकेतों, दिए गए निर्देशों की माँग तथा अपनी अनुक्रियाओं के परिणामों को सदा अपनी चेतना में रखना होता है।

कौशल अधिगम का द्वितीय चरण साहचर्यात्मक होता है। इसमें विभिन्न प्रकार की सांवेदिक सूचनाओं अथवा उद्दीपकों को उपयुक्त अनुक्रियाओं से जोड़ना होता है। अभ्यास की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है त्रुटियों की मात्रा कम होती जाती है। निष्पादन की गुणवत्ता बढ़ती जाती है और किसी अनुक्रिया को करने में लगने वाला समय भी घटता जाता है। यद्यपि निरन्तर

अभ्यास करते रहने से अधिगमकर्ता त्रुटिहीन निष्पादन करने लगता है तथापि इस चरण में उसे प्राप्त होने वाली समस्त संवेदी सूचनाओं के प्रति सचेत रहना होता है तथा कार्य पर एकाग्रता बनाए रखनी होती है। इसके पश्चात् तीसरा चरण यानी स्वायत्त चरण प्रारंभ होता है। इस चरण में निष्पादन में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। साहचर्यात्मक चरण की अवधानिक माँगें (attentional demands) कम हो जाती हैं और बाह्य कारकों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाएँ घट जाती हैं। अंत में सचेतन प्रयत्न की अल्प माँगों के साथ कौशलपूर्ण निष्पादन स्वचालिता प्राप्त कर लेता है। 

एक चरण से दूसरे चरण में संक्रमण यह दर्शाता है कि अभ्यास ही कौशल अधिगम का एकमात्र साधन है। अधिगम के लिए निरंतर अभ्यास और प्रयोग करते रहने की आवश्यकता होती है। अभ्यास के बढ़ने के साथ-साथ सुधार की दर धीरे-धीरे बढ़ जाती है और त्रुटिहीन निष्पादन की स्वचालिता, कौशल का प्रमाणक बन जाती है। इसी से कहा जाता है कि 'अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है।'

प्रश्न 7.
सामान्यीकरण तथा विभेदन के बीच आप किस तरह अंतर करेंगे?
उत्तर : 
सामान्यीकरण तथा विभेदन के बीच अंतर : सामान्यीकरण (generalisation) तथा विभेदन (discrimination) की प्रक्रियाएँ हर प्रकार के अधिगम में दिखाई देती हैं। मान लीजिए. एक प्राणी को अनुबंधित उद्दीपक (प्रकाश या घंटी की ध्वनि) प्रस्तुत करने पर अनुबंधित अनक्रिया (लार स्राव या कोई अन्य प्रतिवर्ती अनुक्रिया) प्राप्त करने के लिए अनुबंधित किया गया है। अनुबंधन स्थापित हो जाने के पश्चात् जब अनुबंधित उद्दीपक के समान कोई दूसरा उद्दीपक (जैसे-टेलीफोन का बजना) प्रस्तुत किया जाए तो प्राणी इसके प्रति अनुबंधित अनुक्रिया करता है। 

समान उद्दीपकों के प्रति समान अनुक्रिया करने के इस गोचर को सामान्यीकरण कहते हैं। मान लीजिए कि एक बच्चा एक खास आकार और आकृति वाले उस जार की जगह को जान गया है, जिसमें मिठाइयाँ रखी जाती हैं। जब माँ पास में नहीं रहती है तो भी बच्चा जार को खोज लेता है और मिठाई प्राप्त कर लेता है। यह एक अधिगत क्रियाप्रसूत है। अब मिठाइयाँ एक दूसरे जार में रख दी गईं, जो एक भिन्न आकार तथा आकृति का है और रसोईघर में दूसरी जगह रखा हुआ है। माँ की अनुपस्थिति में बच्चा जार को ढूँढ लेता है और मिठाई प्राप्त कर लेता है। यह भी सामान्यीकरण का एक उदाहरण है। जब एक सीखी हुई अनुक्रिया की एक नए उद्दीपक से प्राप्ति होती है तो उसे सामान्यीकरण कहते हैं।

एक दूसरी प्रक्रिया जो सामान्यीकरण की पूरक है, विभेदन कहलाती है। सामान्यीकरण समानता के कारण होता है, जबकि विभेदन भिन्नता के प्रति अनुक्रिया होती है। उदाहरणार्थ, मान लीजिए, एक बच्चा काले कपड़े पहने व बडी मंछों वाले व्यक्ति से डरने की अनुक्रिया से अनुबंधित है। बाद में जब वह एक नए व्यक्ति से मिलता है, जो काले कपड़ों में है और दाढ़ी रखे हुए है तो बच्चा भयभीत हो जाता है। बच्चे का भय सामान्यीकृत है। यह एक दूसरे अपरिचित से मिलता है जो धूसर कपड़ों में है और दाढ़ी-मूंछ रहित है तो बच्चा नहीं डरता है। यह विभेदन का एक उदाहरण है। सामान्यीकरण होने का तात्पर्य विभेदन की विफलता है। विभेदन की अनुक्रिया प्राणी की विभेदक क्षमता या विभेदन के अधिगम पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 8. 
अधिगम अंतरण कैसे घटित होता है ?
उत्तर : 
अधिगम अंतरण : अधिगम अंतरण को प्रायः प्रशिक्षण अंतरण या अंतरण प्रभाव कहा जाता है। इसका तात्पर्य नए अधिगम पर पूर्व अधिगम के प्रभाव से है। यदि पूर्व अधिगम नए अधिगम में सहायक होता है तो अंतरण को धनात्मक कहा जाता है। यदि नया अधिगम पहले के अधिगम के कारण मंद हो जाता है तो इसे ऋणात्मक अंतरण कहते हैं। सहायक या मंदक प्रभाव की अनुपस्थिति शून्य अंतरण को व्यक्त करती है। मान लीजिए, आप यह जानना चाहते हैं कि क्या अंग्रेजी भाषा का सीखना फ्रांसीसी भाषा के सीखने को प्रभावित करता है ? इसका अध्ययन करने के लिए आप प्रतिभागियों का एक बड़ा प्रतिदर्श चुनते हैं और उसे यादृच्छिक रूप से दो समूहों में बाँट देते हैं। 

एक समूह का उपयोग प्रायोगिक दशा के लिए और दूसरा समूह नियंत्रित दशा के लिए तय किया जाता है। प्रायोगिक समूह के प्रतिभागी एक वर्ष तक अंग्रेजी भाषा सीखते हैं और उनका परीक्षण कर लिया जाता है कि एक वर्ष में उनको अंग्रेजी भाषा का कितना ज्ञान हुआ। दूसरे वर्ष में वे फ्रांसीसी भाषा सीखना प्रारंभ करते हैं और एक वर्ष बीतने पर उनके फ्रांसीसी भाषा के ज्ञान का परीक्षण कर लिया जाता है। नियंत्रित समूह के प्रतिभागी पहले वर्ष में अंग्रेजी भाषा सीखने की बजाय अपना दैनिक कार्य ही करते हैं और एक वर्ष के बाद फ्रांसीसी भाषा सीखना प्रारंभ कर देते हैं। 

एक वर्ष तक फ्रांसीसी भाषा सीखने के बाद इनके भी फ्रांसीसी भाषा के ज्ञान की उसी तरह से परीक्षा ली जाती है। इसके बाद दोनों समूहों के फ्रांसीसी भाषा परीक्षा में प्राप्त अंकों की तुलना की जाती है। यदि प्रायोगिक समूह के अंक नियंत्रित समूह के अंकों से अधिक हैं तो इसका अर्थ होगा कि अंग्रेजी भाषा सीखने का फ्रांसीसी भाषा सीखने पर धनात्मक अंतरण प्रभाव पड़ा। परंतु यदि प्रायोगिक समूह के अंक नियंत्रित समूह से कम आते हैं तो इसका अर्थ होगा कि अंग्रेजी भाषा सीखने का फ्रांसीसी भाषा सीखने पर ऋणात्मक अंतरण प्रभाव पड़ा। इसी प्रकार यदि दोनों

समूहों के अंकों में सार्थक अंतर न मिले तो यह कहा जाएगा कि अंग्रेजी भाषा सीखने का फ्रांसीसी भाषा सीखने पर अंतरण प्रभाव की मात्रा शून्य है। उल्लेखनीय है कि अंतरण प्रभाव के अध्ययन में अविशिष्ट | अंतरण (general transfer) और विशिष्ट अंतरण (specific transfer) में भेद किया जाता है। यह सुपरिचित तथ्य है कि पूर्व अधिगम सदा ही धनात्मक अविशिष्ट अंतरण की ओर ले जाता है। यह केवल विशिष्ट अंतरण में ही होता है कि अंतरण प्रभाव धनात्मक या ऋणात्मक होता है और कुछ अवस्थाओं में प्रभाव शून्य भी होता है। हालाँकि वास्तव में, अविशिष्ट अंतरण के कारण शून्य अंतरण सैद्धान्तिक रूप से अतर्कसंगत है।

प्रश्न 9. 
अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना क्यों अनिवार्य है ?
उत्तर : 
अधिगम के लिए अभिप्रेरणा की अनिवार्यता : जीवन-रक्षा की आवश्यकता सभी जीवित प्राणियों में होती है और मनुष्यों में जीवन-रक्षा के साथ-साथ संवृद्धि की भी आवश्यकता होती है। अभिप्रेरणा से आशय प्राणी की एक ऐसी मानसिक तथा शारीरिक अवस्था से है जो प्राणी को उसकी वर्तमान आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए प्रेरित करती है। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा प्राणी को लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रबलता से काम करने के लिए ऊर्जा प्रदान करती है। ऐसे अभिप्रेरित व्यवहार तब तक होते रहते हैं जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए और आवश्यकता की पूर्ति न हो जाए। 

अधिगम के लिए प्राणी का अभिप्रेरित होना अनिवार्य है। जब घर में माँ नहीं होती तो बच्चे रसोईघर में घुसकर खाने-पीने की चीजें क्यों खोजते हैं ? चूँकि मिठाई खाने की उनकी वर्तमान में आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु वे उन बर्तनों को टटोलते हैं जिनमें मिठाई रखी जाती है। खोजने की इस क्रिया से बच्चे मिठाई के बर्तन को पाना सीख लेते हैं। जब किसी बॉक्स में किसी भूखे चूहे को बंद कर दिया जाता है तो भोजन की आवश्यकता के कारण वह बॉक्स के चारों ओर घूम-घूमकर भोजन की तलाश करता है। इसी कार्य को करने में संयोग से उससे बॉक्स की दीवार में बना एक लीवर दब जाता है और बॉक्स में भोजन का एक टुकड़ा गिर जाता है। भूखा चूहा उसे खा लेता है। बार-बार यही क्रिया दुहराते रहने से चूहा यह सीख जाता है कि लीवर दबाने से भोजन मिलता है। 

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प्रश्न 10. 
अधिगम के लिए तत्परता के विचार का क्या अर्थ है ?
उत्तर : 
अधिगम की तत्परता : विभिन्न प्रजातियों के प्राणी अपनी संवेदी क्षमताओं तथा अनुक्रिया करने की योग्यताओं में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। साहचर्यों को स्थापित करने के लिए जरूरी क्रियाविधियाँ जैसे उद्दीपक-उद्दीपक (S-S) अथवा

उद्दीपक-अनुक्रिया (S-R) भी भिन्न-भिन्न प्रजातियों में भिन्न-भिन्न । होती है। इसका आशय यह है कि प्रत्येक प्रजाति के प्राणियों में । अधिगम की क्षमता उनकी जैविक क्षमता के कारण परिसीमित हो जाती है। कोई प्राणी सीखते समय किस प्रकार के उद्दीपक-उद्दीपक (S-S) या उद्दीपक-अनुक्रिया (S-R) साहचर्य निर्मित कर सकेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे प्रकृति द्वारा किस सीमा तक साहचर्य कार्यविधि संबंधी आनुवंशिक क्षमता प्राप्त हुई है। एक विशेष प्रकार का सहचारी अधिगम मनुष्यों तथा वनमानुषों के लिए तो आसान है परंतु बिल्लियों तथा चूहों के लिए वैसे साहचर्यों का सीखना अत्यंत कठिन होता है और कभी-कभी तो असंभव भी होता है। इसका अर्थ यह है कि कोई प्राणी मात्र उन्हीं साहचयों को सीख सकता है, जिसके लिए वह आनुवंशिक रूप से सक्षम है। 

तत्परता के संप्रत्यय को एक ऐसी सतत विमा या आयाम के रूप में समझा जा सकता है जिसके एक छोर पर वे साहचर्य या सीखे जाने वाले कार्य रखे जा सकते हैं जिनको सीखना किसी प्रजाति के प्राणियों के लिए सरल है तथा दूसरे छोर पर वे साहचर्य या सीखे जाने वाले कार्य रखे जा सकते हैं, जिन्हें सीखने के लिए किसी प्रजाति के प्राणियों में तत्परता बिल्कुल भी नहीं है। अतः वे उन्हें नहीं सीख सकते। इस विमा के दोनों छोरों के बीच के विभिन्न स्थानों पर वे कार्य या साहचर्य रखे जा सकते हैं, जिन्हें सीखने के लिए प्राणी न तत्पर है न उसमें तत्परता का अभाव है। वे ऐसे कार्यों को सीख तो सकते हैं परंतु कठिनाई और सतत प्रयास के पश्चात्।

प्रश्न 11. 
संज्ञानात्मक अधिगम के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
संज्ञानात्मक अधिगम : कुछ मनोवैज्ञानिक अधिगम को उन संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के रूप में देखते हैं जो अधिगम के मूल में होती हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के ऐसे उपागम विकसित किए हैं जो उन प्रक्रियाओं पर फोकस करते हैं जो अधिगम करते समय घटित होती हैं, न कि केवल S-R या SSसंबंधों पर ध्यान केंद्रित करके जैसा कि प्राचीन एवं क्रियाप्रसूत अनुबंधन में किया जाता है। अत: संज्ञानात्मक अधिगम में सीखने वाले व्यक्ति के कार्यकलापों के स्थान पर उसके ज्ञान में परिवर्तन आता है। अंतर्दृष्टि अधिगम एवं अव्यक्त अधिगम में इस प्रकार का अधिगम दिखाई देता है।

अंतर्दृष्टि अधिगम : कोहलर (Kohler) ने अधिगम का एक ऐसा प्रतिरूप प्रदर्शित किया जिसकी व्याख्या अनुबंधन के आधार पर सरलता से नहीं की जा सकती। उन्होंने चिम्पैंजी पर अनेक प्रयोग किए, जिसमें चिम्पैंजी को जटिल समस्याओं पर समाधान करना था। कोहलन ने चिम्पैंजी को एक बंद खेल क्षेत्र में रखा जहाँ भोजन था, लेकिन चिम्पैंजी की पहुँच के बाहर था।

इस खेल क्षेत्र में कुछ उपकरण; जैसे- डंडे तथा बॉक्स भी रख दिए गए थे। चिम्पैंजी ने तेजी से बॉक्स पर खड़े होना या डंडे से भोज्य पदार्थ को अपनी ओर खिसकाना सीख लिया। इस प्रयोग में अधिगम प्रयत्न त्रुटि तथा प्रबलन के परिणामरूवरूप घटित नहीं हुआ, बल्कि अकस्मात अंतर्दृष्टिय दीप्ति द्वारा घटित हुआ। चिम्पैंजी कुछ समय तक खेल क्षेत्र में घूमता रहा, फिर एकाएक एक बक्से पर खड़ा हो जाता जो कि एक डंडा उठाकर केले पर मारता, जो

कि सामान्यत: उनकी पहुँच के बाहर ऊँचाई पर थे। चिम्पैंजी ने । जो अधिगम प्रदर्शित किया उसे कोहलर ने अंतर्दृष्टि अधिगम । कहा। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी समस्या का समाधान एकाएक सामने आ जाता है।  अंतर्दृष्टि अधिगम के एक सामान्य प्रयोग में एक समस्या प्रस्तुत की जाती है, उसके पश्चात् कुछ समय तक प्रगति का आभास नहीं होता, फिर अंत में एकाएक समस्या समाधान उत्पन्न होता है। अंतर्दृष्टि अधिगम में अचानक समाधान प्राप्त होना अनिवार्य है। एक बार समाधान मिल जाने पर, अगली बार समस्या उपस्थित होने पर उसकी पुनरावृत्ति तत्काल की जा सकती है। अत: यह स्पष्ट है कि जो अधिगत किया गया है वह उद्दीपकों तथा अनुक्रियाओं के मध्य अनुबंधित साहचर्यों का विशिष्ट समूह नहीं है, बल्कि साधन तथा साध्य के मध्य एक संज्ञानात्मक संबंध है। इसके परिणामस्वरूप अंतर्दृष्टि अधिगम का सामान्यीकरण अन्य मिलती हुई समस्याओं की परिस्थितियों में भी हो सकता है।

अव्यक्त अधिगम : एक अन्य प्रकार से संज्ञानात्मक अधिगम को अव्यक्त अधिगम कहते हैं। अव्यक्त अधिगम में एक नवीन व्यवहार सीख लिया जाता है, किंतु व्यवहार प्रदर्शित नहीं किया जाता, जब तक कि उसे दर्शाने के लिए प्रबलन प्रदान नहीं किया जाए। टोलमैन (Tolman) ने अव्यक्त अधिगम को समझने के लिए उनके एक प्रयोग का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। टोलमैन ने चूहों के दो समूहों को भूल-भुलैया में छोड़ा तथा उन्हें अन्वेषण करने का अवसर दिया। चूहों के एक समूह को भूल-भुलैया के अंत में भोजन प्राप्त हुआ और उन्होंने भूल-भुलैया में प्रारंभ से अंत तक का रास्ता तेजी से खोज लिया। दूसरी ओर, चूहों के दूसरे समूह को कोई पुरस्कार नहीं दिया गया तथा उन्होंने अधिगम के कोई स्पष्ट संकेत भी प्रदर्शित नहीं किए। किंतु बाद में जब उन्हें प्रबलित किया गया तो भी वे भूल-भुलैया के रास्ते में प्रारंभ से अंत तक उतनी ही सक्षमता से दौड़ने लगे जितना कि पुरस्कृत समूह के चूहे दौड़ते थे।

टोलमैन ने यह प्रतिपादित किया कि अप्रबलित समूह के चूहों ने भी भूल-भूलैया के मानचित्र को अन्वेषण करके जल्दी ही - सीख लिया था। केवल उन्होंने अपने अव्यक्त अधिगम का प्रदर्शन तब तक नहीं किया था जब तक कि ऐसा करने के लिए उन्हें प्रबलन प्रदान नहीं किया गया। इसके बजाय चूहों ने भूल-भुलैया का एक संज्ञानात्मक मानचित्र (cogntitive map) विकसित किया, अर्थात् अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उन्हें जिन दिशाओं और स्थानिक अवस्थितियों की आवश्यकता थी उनका मानस चित्रण किया।

प्रश्न 12. 
अधिगम अशक्तता वाले छात्रों की पहचान हम कैसे कर सकते हैं?
उत्तर : 
अधिगम अशक्तता (learning disability) : यह एक सामान्य पद है। इसका अर्थ विभिन्न प्रकार के उन विकारों के समूह से है, जिनके कारण किसी व्यक्ति में सीखने, पढ़ने, लिखने, बोलने, तर्क करने तथा गणित के प्रश्न हल करने आदि में कठिनाई होती है। इन विकारों के स्रोत बच्चे में जन्मजात रूप से पाए जाते हैं। ऐसा माना किया जाता कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की कार्यविधि में समस्याओं के कारण अधिगम अशक्तता पाई जाती है। अधिगम अशक्तता के साथ-साथ किसी बच्चे में शारीरिक अक्षमता, संवेदी अक्षमता, मानसिक मंदन भी हो सकता है या अधिगम अशक्तता इनके बिना भी हो सकती है।

बच्चों में पाई जाने वाली अधिगम अशक्तता एक अलग प्रकार की अक्षमता है, जो उन बच्चों में पाई जा सकती है, जो सामान्य से श्रेष्ठ बुद्धि वाले, सामान्य संवेदी प्रेरक तंत्र वाले हैं तथा जिनको सीखने के पर्याप्त अवसर प्राप्त होते हैं। यदि अधिगम अशक्तता का समुचित प्रबंध नहीं किया जाए तो यह जीवनपर्यंत बनी रहती है और व्यक्ति के आत्म-सम्मान, पेशा, सामाजिक संबंधों तथा दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं को प्रभावित करती है।

अधिगम अशक्तता के लक्षण : अधिगम अशक्तता के अनेक लक्षण हैं। अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में ये लक्षण भिन्न-भिन्न संयोजनों में प्रकट होते हैं। चाहे उनकी बुद्धि, अभिप्रेरणा तथा अधिगम के लिए किया गया परिश्रम कुछ भी हो।

(i) अक्षरों, शब्दों तथा वाक्यांशों को लिखने में, लिखी हुई सामग्री को पढ़ने में, तथा बोलने में बहुधा कठिनाई पाई जाती है। यद्यपि उनमें श्रवण दोष नहीं होता है तथापि उनमें सुनने की समस्याएँ पाई जाती हैं। ऐसे बच्चे सीखने के लिए योजना बनाने या इसके लिए कोई उपाय खोजने में अन्य बच्चों की अपेक्षा बहुत भिन्न होते हैं।

(ii) अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में अवधान से जुड़े विकार पाए जाते हैं। वे किसी एक विषय पर देर तक ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते तथा उनका ध्यान शीघ्र ही टूट जाता है। अवधान की इस कमी के कारण अनेक बार उनमें अतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप वे हमेशा गतिशील रहते हैं, कुछ न कुछ करते रहते हैं तथा विभिन्न सामानों को अनवरत रूप से इधर उधर हटाते रहते हैं।

(iii) अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में स्थान व समय की समझदारी की कमी आम लक्षण हैं। ये नई जगहों को आसानी से नहीं पहचान पाते और अक्सर खो जाते हैं। कालबोध की कमी के कारण ये अपने काम के स्थान पर या तो समय से पहले या फिर बहुत विलंब से पहुंचते हैं। इसी तरह इनमें दिशाबोध की भी कमी होती है। ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ आदि में भेद करते हुए कार्य करने में इनसे अक्सर गलतियाँ होती हैं।

(iv) अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का पेशीय समन्वय तथा हस्त-निपुणता अपेक्षाकृत निम्न कोटि का होता है। यह उनके शारीरिक संतुलन के अभाव, पेंसिल को नुकीला करने तथा दरवाजे का दस्ता (हैंडिल) पकड़ने में अक्षमता एवं साइकिल चलाना सीखने में कठिनाई से स्पष्ट होता है।

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(v) ये बच्चे काम करने के मौखिक अनुदेशों को समझने और अनुसरण करने में असफल होते हैं।

(vi) सामाजिक संबंधों का मूल्यांकन भी ये ठीक से नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए. ये नहीं जान पाते कि कौन सा सहपाठी इनका अधिक मित्र है और तटस्थ कौन है। ये शरीर भाषा को सीखने एवं समझने में भी अक्षम होते है।

(vii) अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में आमतौर से प्रात्यक्षिक विकार भी पाए जाते हैं। दृष्टि, श्रवण, स्पर्श तथा गति से जुड़े संकेतों का प्रत्यक्षण करने में इनसे अधिक त्रुटियाँ होती हैं। ये दरवाजे की घंटी तथा फोन की घंटी में विभेद करने में असफल होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि इनमें संवेदी तीक्ष्णता नहीं होती है। ये सिर्फ निष्पादन में इसका उपयोग करने में असफल रहते हैं।

(viii) अधिगम अशक्तता वाले अधिकांश बच्चों में पठनवैकल्य (aysrexia) के लक्षण पाए जाते हैं। ये बहुत बार अक्षर और शब्दों की नकल नहीं कर पाते हैं; जैसे- कमर तथा रकम में, सपूत और कपूत में,'ट' तथा 'ठ', 'प' तथा 'फ' में अंतर करना इनके लिए बहुत कठिन होता है। ये शब्दों को वाक्यों के रूप में संगठित करने में अपेक्षाकृत अक्षम होते हैं। ऐसा सोचना गलत है कि अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का इलाज नहीं हो सकता है। उपचारी अध्यापन विधि के उपयोग से बहुत लाभ होता है और कक्षा में ये अन्य बच्चों की तरह हो सकते हैं। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने ऐसी शिक्षण विधियों का विकास किया हे जिनसे अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में पाए जाने वाले अनेक लक्षणों को दूर किया जा सकता है।

Bhagya
Last Updated on Sept. 27, 2022, 11:41 a.m.
Published Sept. 23, 2022