Rajasthan Board RBSE Class 12 Political Science Important Questions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Important Questions and Answers.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Political Science in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 Political Science Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 Political Science Notes to understand and remember the concepts easily. The satta ke vaikalpik kendra notes in hindi are curated with the aim of boosting confidence among students.
वस्तुनिष्ठ प्रश्न:
प्रश्न 1.
निम्न में से किस वर्ष पंजाब व हरियाणा राज्य का निर्माण हुआ।
(अ) सन् 1950 में
(ब) सन् 1956 में
(स) सन् 1966 में
(द) सन् 1982 में।
उत्तर:
(स) सन् 1966 में
प्रश्न 2.
जम्मू एवं कश्मीर के हिन्दू शासक का नाम था।
(अ) शेख अब्दुल्ला
(ब) हरिसिंह
(स) देवी सिंह
(द) उमर अब्दुल्ला।
उत्तर:
(ब) हरिसिंह
प्रश्न 3.
जम्मू - कश्मीर के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे।
(अ) शेख मुहम्मद अब्दुल्ला
(ब) पं. जवाहरलाल नेहरू
(स) हामिद अंसारी
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) शेख मुहम्मद अब्दुल्ला
प्रश्न 4.
'उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन - दिन घटता जाए' यह लोकप्रिय नारा किस आन्दोलन के अन्तर्गत दिया गया।
(अ) बोडोलैण्ड आन्दोलन
(ब) असम आन्दोलन
(स) गोरखालैण्ड आन्दोलन
(द) द्रविड़ आन्दोलन।
उत्तर:
(द) द्रविड़ आन्दोलन।
प्रश्न 5.
द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता कौन थे।
(अ) हामिद अंसारी
(ब) लालडेंगा
(स) ई.बी.रामास्वामी नायकर
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) ई.बी.रामास्वामी नायकर
प्रश्न 6.
ऑपरेशन ब्लू स्टार का सम्बन्ध किस राज्य से है?
(अ) राजस्थान
(ब) पंजाब
(स) असम
(द) जम्मू एवं कश्मीर।
उत्तर:
(ब) पंजाब
प्रश्न 7.
गोवा भारत संघ का एक राज्य किस वर्ष में बना।
(अ) सन् 1984 में
(ब) सन् 1985 में
(स) सन् 1986 में
(द) सन् 1987 में।
उत्तर:
(द) सन् 1987 में।
अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न:
प्रश्न 1.
भारत ने विविधता के प्रश्न पर कौन-सा दृष्टिकोण अपनाया?
उत्तर:
भारत ने विविधता के प्रश्न पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया।
प्रश्न 2.
जम्मू एवं कश्मीर में सम्मिलित तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र कौन-कौन से थे?
उत्तर:
प्रश्न 3.
भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद का सबसे प्रभावी मुद्दा कौन सा है?
उत्तर:
कश्मीर मुद्दा।
प्रश्न 4.
स्वतंत्रता से पूर्व जम्मू एवं कश्मीर में किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी?
उत्तर:
राजशाही शासन व्यवस्था।
प्रश्न 5.
द्रविड़ आन्दोलन का नारा (हिन्दी रूपान्तरण में) क्या था?
उत्तर:
“उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन-दिन घटता जाए।"
प्रश्न 6.
द्रविड़ आन्दोलन से किस राजनैतिक संगठन का सूत्रपात हुआ?
उत्तर:
द्रविड़ आन्दोलन से 'द्रविड़ कषगम' नामक राजनैतिक संगठन का सूत्रपात आ।
प्रश्न 7.
'पेरियार' के नाम से दक्षिण भारत के किस प्रसिद्ध राजनेता को जाना जाता है?
उत्तर:
ई.वी.रामास्वामी नायकर। प्रश्न 8. किस प्रस्ताव के तहत पंजाब में क्षेत्रीय स्वायत्तता' की माँग उठायी गयी थी? उत्तर-आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के तहत अकालियों ने पंजाब में क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग उठायी।
प्रश्न 9.
1985 के 'पंजाब समझौते' से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
1985 का पंजाब समझौता राजीव गाँधी और लोगोंवाल के बीच हुआ था। यह समझौता पंजाब में शांति स्थापित करने की दिशा में एक महत्वूपर्ण कदम था।
प्रश्न 10.
राजीव गाँधी - लोंगोवाल समझौते में किसी एक सहमति के बिन्दु का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
इस बात पर सहमति हुई कि चंडीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा और पंजाब व हरियाणा के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए एक अलग आयोग बनेगा।
प्रश्न 11.
'ऑपरेशन ब्लू स्टार' क्या था?
उत्तर:
सन् 1984 के जून माह में स्वर्ण मंदिर में की गयी सैन्य कार्यवाही का कूट नाम 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' था।
प्रश्न 12.
भारतीय भू - भाग के किस क्षेत्र को सात बहनों का भाग कहा जाता है?
उत्तर:
पूर्वोत्तर क्षेत्र को।
प्रश्न 13.
पूर्वोत्तर भारत के किन-किन राज्यों को सात बहनों के नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
प्रश्न 14.
पूर्वोत्तर भारत में सात छोटे - छोटे राज्य क्यों बनाए गए?
उत्तर:
पूर्वोत्तर भारत में स्वतंत्रता के बाद असम एक बड़ा राज्य था। 1960 के दशक में इस क्षेत्र में जनजातीय राज्य की माँग को लेकर आन्दोलन हुए। परिणामस्वरूप असम को काटकर सात छोटे - छोटे राज्य बनाए गए।
प्रश्न 15.
मिजो नेशनल फ्रंट का गठन किसके नेतृत्व में किया गया?
उत्तर:
मिजो नेशनल फ्रंट का गठन लालडेंगा के नेतृत्व में किया गया।
प्रश्न 16.
असम से विदेशियों के विरुद्ध आन्दोलन का नेतृत्व किस छात्र संगठन द्वारा किया गया?
उत्तर:
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू)।
प्रश्न 17.
सिक्किम के लोकतंत्र बहाली आन्दोलन के प्रमुख नेता कौन थे?
उत्तर:
काजी लैंदुप दोरजी खांगसरपा।
प्रश्न 18.
क्षेत्रीय आकांक्षाओं का एक आधारभूत सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं।
प्रश्न 19.
भारत के कौन से राजनेता खुली अर्थव्यवस्था एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के समर्थक थे?
उत्तर:
राजीव गाँधी।
प्रश्न 20.
राष्ट्रीय अखण्डता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले देशवासी, संकीर्ण भावनाओं से उठकर सम्पूर्ण राष्ट्र की भलाई के बारे में सोचें।
प्रश्न 21.
असम में बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन करने के किसी एक कारण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
असम में रहने वाले लोगों की संख्या कम हो रही थी और बाहरी लोगों की संख्या ज्यादा हो रही थी। इस कारण से असम में बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन हुए।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न (SA1):
प्रश्न 1.
बीसवी सदी के कौन-से दशक को स्वायत्तता की माँग के दशक के रूप में देखा जा सकता है? इसके क्या मुख्य राजनीतिक प्रभाव दृष्टिगोचर हुए? केवल उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सन् 1980 के दशक को स्वायत्तता की माँग के दशक के रूप में देखा जा सकता है। इस दौर में देश के कई हिस्सों से स्वायत्तता की माँग उठी और इसने संवैधानिक हदों को भी पार किया। इन आन्दोलनों में शामिल लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए, सरकार ने उनको दबाने के लिए जवाबी कार्यवाही की और इस क्रम में राजनीति तथा चुनावी प्रक्रिया अवरुद्ध हुई।
प्रश्न 2.
क्षेत्रवाद अथवा क्षेत्रीयता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
क्षेत्रवाद अथवा क्षेत्रीयता किसी क्षेत्र विशेष के लोगों की उस प्रवृत्ति से संबंधित है जो उनमें अपने क्षेत्र की आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक शक्तियों की वृद्धि करने के लिए प्रेरित करती है। लोकतंत्र में क्षेत्रीयता को राष्ट्र विरोधी नहीं माना जाता है। लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति है।
प्रश्न 3.
'क्षेत्रवाद' तथा 'पृथकतावाद' में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा औद्योगिक कारणों से अपने अलग अस्तित्व के लिए जाग्रत है। क्षेत्रवाद केन्द्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय इकाइयों को अधिक शक्ति व स्वायत्तता प्रदान करने के पक्ष में है। पृथकतावाद या अलगाववाद से अभिप्राय संपूर्ण इकाई या राज्य से कुछ क्षेत्र को अलग करके स्वतंत्र राज्य की स्थापना की माँग करना है। क्षेत्रवाद की उग्र भावना ही अलगाववाद को जन्म देती है।
प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के अन्तर्गत सांस्कृतिक विभिन्नता के पक्ष में क्या व्यवस्था की गयी है? राष्ट्रीय एकता एवं विभिन्नता के संदर्भ में यूरोप की तुलना में भारत का दृष्टिकोण किस प्रकार से उपयुक्त समझा गया है?
उत्तर:
भारत में विभिन्न क्षेत्रों व भाषाई समूहों को अपनी संस्कृति बनाए रखने का अधिकार संविधान द्वारा ही दिया जा सकता है। हमने एकता की भावना से बँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया था, जिसमें इस समाज को आकार देने वाली विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों की विशिष्टता भी कायम रहे। भारत के संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रवाद की एकता तथा विभिन्नताओं के मध्य संतुलन बनाने का प्रयास किया है। इस अर्थ में भारत का दृष्टिकोण यूरोप के अनेक देशों से भिन्न रहा, जहाँ सांस्कृतिक विभिन्नता को राष्ट्र की एकता के लिए खतरे के रूप में देखा गया।
प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की कौन-सी विशेषताएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा लोकतांत्रिक ढाँचे में होगी?
1. दाय लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाना।
2. देश में बहुदलीय प्रणाली को अपनाया जाना।
3. देश में सार्वभौम वयस्क मताधिकार प्रणाली को स्वीकार करना।
4. राज्य का स्वरूप धर्म - निरपेक्ष रखा जाना।
5. दबाव समूह, हित समूह एवं क्षेत्रीय दलों को संगठित होने की पूरी आजादी।
उत्तर:
प्रश्न 7.
रामास्वामी नायकर. (पेरियार) का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।
उत्तर:
रामास्वामी नायकर का जन्म सन् 1879 को हुआ था। वह पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हुए। वह ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे इसलिए इन्हें नास्तिकता के प्रबल समर्थक के रूप में पहचाना जाता था। वे जाति विरोधी आन्दोलन और द्रविड़ संस्कृति और पहचान के पुनः संस्थापक के प्रेरणादाता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर सके। उन्होंने ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा द्रविड़ कषगम नामक संस्था स्थापित की। सन् 1973 में उनका देहावसान हो गया।
प्रश्न 8.
ऑपरेशन ब्लू स्टार क्या था? इससे सिख समुदाय की भावनाओं को क्यों ठेस पहुँची?
उत्तर:
जून 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भारत सरकार द्वारा की गयी सैन्य कार्रवाई को ऑपरेशन ब्लू स्टार कहा जाता है। स्वर्ण मंदिर पर इस कार्रवाई को दुनिया भर के सिखों ने अपने धर्म विश्वास पर हमला माना।
प्रश्न 9.
मास्टर तारा सिंह के जीवन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मास्टर तारा सिंह का जन्म सन् 1885 में हुआ था। वे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के प्रारम्भिक नेताओं में से एक थे। इतिहास में उन्हें अकाली आन्दोलन के एक महान नेता के रूप में अंकित किया जाता है। वे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समर्थक तथा ब्रिटिश सत्ता के विरोधी थे परन्तु उन्होंने सिर्फ मुसलमानों के साथ समझौते की कांग्रेस की नीति का डटकर विरोध किया। वे देश की स्वतंत्रता के बाद पृथक् पंजाबी राज्य के निर्माण के समर्थन में रहे। सन् 1967 में उनका निधन हो गया।
प्रश्न 10.
आपके विचार में, क्या आनंदपुर साहिब प्रस्ताव संघात्मकता को सुदृढ़ बनाने की दिशा में एक तर्क था अथवा एक अलग सिख राष्ट्र के पक्ष में?
उत्तर:
1973 में, आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में क्षेत्रीय स्वायत्तता से जुड़े प्रस्ताव को अकालियों के एक तबके ने पास किया। उस प्रस्ताव में केन्द्र-राज्य संबंधों को पुनर्गठित करने की बात कही गयी थी। इस प्रस्ताव में सिख 'कौम' (नेशन या समुदाय) की आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के 'बोलवाला' प्रभुत्व या वर्चस्व का एक ऐलान किया गया था। अपने इसी प्रस्ताव के कारण सह संघात्मकता को सुदृढ़ बनाने के स्थान पर एक अलग सिख राष्ट्र की माँग के तौर पर देखा जाता है।
प्रश्न 11.
पंजाब में सामान्य स्थिति बहाल करने में राजीव गाँधी - लोंगोवाल समझौता कहाँ तक सफल रहा?
उत्तर:
पंजाब में सामान्य स्थिति बहाल करने में राजीव गाँधी-लोंगोवाल समझौता (पंजाब समझौता) एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ। समझौते से शांति बहाली तत्काल तो नहीं हुई, किन्तु धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो गई। समझौते के अनुसर चंडीगढ़ पंजाब को दिया जाना था। एक अलग आयोग बनाये जाने की बात थी। रावी-व्यास के पानी के बँटवारे के बारे में निर्णय करने के लिए एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बैठाने की बात हुई। उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने पर सहमति बनी। साथ ही पंजाब से विशेष सुरक्षा बल अधिनियम भी वापस लेने की बात पर सहमति बनी।
प्रश्न 12.
पूर्वोत्तर भारत का पुनर्गठन कैसे तथा कब तक पूरा किया गया?
उत्तर:
पूर्वोत्तर भारत में 1972 में राज्यों के पुनर्गठन का एक बड़ा प्रयास किया गया। इसी वर्ष असम से पृथक् करके मेघालय राज्य बनाया गया। 1972 में ही मणिपुर और त्रिपुरा राज्य बनाए गए जबकि 1987 में अरुणाचल प्रदेश तथा मिजोरम राज्य बनाए गए। यद्यपि नगालैण्ड 1963 में ही राज्य बन गया था।
प्रश्न 13.
असम समझौता कब हुआ? इसकी प्रमुख बात क्या थी?
उत्तर:
असम समझौता राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार व ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के मध्य सन् 1985 में हुआ था। लगभग 6 वर्ष की लगातार अस्थिरता के पश्चात् यह समझौता हुआ। इस समझौते के तहत यह तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान अथवा उसके पश्चात् के वर्षों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जायेगी एवं उन्हें वापस भेजा जायेगा। इस प्रकार असम समझौते से शान्ति स्थापित हुई।
प्रश्न 14.
मिजो अलगाववादी आन्दोलन को जन समर्थन क्यों और कैसे प्राप्त हुआ?
उत्तर:
प्रश्न 15.
मिजो पर्वतीय क्षेत्र में अलगाववादी आंदोलन को जनसमर्थन क्यों मिलने लगा? इस समस्या का समाधान कैसे निकला?
उत्तर:
आजादी के बाद मिजो पर्वतीय क्षेत्र असम का एक स्वायत्त जिला बना, जिसमें कुछ मिजो लोग अपने आपको भारत संघ का नहीं मानते थे। साथ ही 1959 में मिजो पर्वतीय इलाके में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबंध करने में नाकाम रही। इसी के बाद अलगाववादी आन्दोलन को जनसमर्थन मिलना शुरू हुआ। 1989 में राजीव गाँधी और लालडेंगा (मिजो नेशनल फ्रंट के नेता) के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अंतर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और उसे कुछ विशेषाधिकार दिए गए। लालडेंगा मुख्यमंत्री बने और मिजो नेशनल फ्रंट धारा की राजनीति में शामिल हुआ। इस तरह इस समस्या का समाधान हुआ।
प्रश्न 16.
भारत के कुछ भागों में व्याप्त अलगाववादी भावना से हम क्या सबक सीख सकते हैं?
उत्तर:
भारत के कुछ भागों में व्याप्त अलगाववादी भावना से हम निम्नलिखित सबक सीख सकते हैं।
प्रश्न 17.
क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की दिशा में लोकतांत्रिक बातचीत के तरीकों की भूमिका का आकलन कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की दिशा में लोकतांत्रिक बातचीत के तरीके अपनाना सबसे अच्छा माना जाता है। भारतीय राजनीति के इतिहास में इस तरीके के प्रयोग से सकारात्मक प्रतिफल सामने आये हैं। पंजाब, पूर्वोत्तर के भागों तथा असम आदि क्षेत्रों में चले हिंसक आंदोलनों के साथ समझौते और निपटारा बातचीत से ही संभव हुआ है। इससे सौहार्द्र का वातावरण बना और कई क्षेत्रों में तनाव कम हुआ। इसी तरह मिजोरम के उदाहरण से पता चलता है कि राजनीतिक सुलह के द्वारा अलगाववाद से भी कारगर तरीके से निपटा जा सकता है।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न (SA2):
प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद के प्रति भारत सरकार का क्या दृष्टिकोण है? आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर-:
भारत ने विविधता के प्रश्न पर जनतांत्रिक दृष्टिकोण को अपनाया। जनतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की अनुमति है तथा लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र-विरोधी नहीं मानता। जनतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूर्ण अवसर होते हैं कि विभिन्न दल व समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा या किसी विशेष क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करें। इस प्रकार जनतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और बलवती होती हैं।
जनतांत्रिक राजनीति में क्षेत्रीय मुद्दों व समस्याओं पर नीति निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाता है और उन्हें इसमें भागीदारी दी जाती है। ऐसी व्यवस्था में कभी-कभी तनाव या परेशानियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति क्षेत्रीय सरोकारों के कारण राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की उपेक्षा कर सकता है। जो राष्ट्र चाहते हैं कि विविधताओं का सम्मान हो साथ ही राष्ट्र की एकता भी कायम रहे; वहाँ क्षेत्रीय शक्तियाँ, उनके अधिकार तथा अलग अस्तित्व के मामले पर राजनीतिक संघर्ष का होना सामान्य बात है।
प्रश्न 2.
"क्षेत्रवाद का अभिप्राय पृथकतावाद नहीं हैं" व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद का अभिप्राय पृथकतावाद नहीं है। क्षेत्रीय हितों के संरक्षण हेतु क्षेत्रवाद लोकतंत्र की प्राणवायु है। क्षेत्रवाद विभिन्नता का परिणाम है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में काफी समय से अनेक क्षेत्रवादी आन्दोलन चल रहे हैं परन्तु सभी आन्दोलन अलगाववादी अथवा पृथकतावादी आन्दोलन नहीं होते, अर्थात् कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते, बल्कि अपने लिए अलग राज्य की माँग करते हैं, उदाहरणार्थ-झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, जिसके फलस्वरूप झारखण्ड राज्य बना।
छत्तीसगढ़ आदिवासियों का आन्दोलन जिसके फलस्वरूप छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। भारत में विभिन्न जातियों व उपजातियों के लोग निवास करते हैं। भारत के कुछ जातीय, धार्मिक और भाषाई समूह कुछ क्षेत्र विशेष में संकेन्द्रित हैं तथा उन क्षेत्रों को अपना मानते हैं। ये समूह अपने क्षेत्र में आर्थिक विकास की गति को भी तीव्र करना चाहते हैं तथा अपनी सांस्कृतिक पहचान भी बनाए रखना चाहते हैं।
हमने एकता की भावधारा से बँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया था, जिसमें इस समाज को आकार देने वाली सभी संस्कृतियों की विशिष्टता बनी रहे। भारतीय राष्ट्रवाद ने एकता और आकार देने वाली विविधता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। भारत में असम, पंजाब, मिजोरम और जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सर उठाया तो सरकार को बड़े जतन के साथ समझौते करने पड़े। इस प्रकार क्षेत्रवाद का अभिप्राय पृथकतावाद नहीं है।
प्रश्न 3.
क्षेत्रीयतावाद अथवा क्षेत्रवाद के दुष्परिणामों को लिखिए।
उत्तर:
क्षेत्रीयतावाद के दुष्परिणाम निम्नलिखित बिन्दुओं में प्रस्तुत हैं।
(i) भारत में क्षेत्रीयतावाद के कारण केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकारों के मध्य का संबंध कभी-कभी कटु व उग्र रूप धारण कर लेता है। केन्द्रीय सरकार जिस राज्य के प्रति नरम रवैया अपनाने लगती है, वही विवाद का मुद्दा बन जाता है।
(ii) संकीर्ण क्षेत्रीयतावादी भावनाओं के फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के मध्य आर्थिक, राजनीतिक व मनोवैज्ञानिक संघर्ष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र अपने हितों को प्राथमिकता प्रदान करता है।
(iii) क्षेत्रीयतावाद के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय वफादारी का विकास होता है जो भाषा की समस्या के समाधान करने के स्थान पर उसे और भी जटिल बनाने का प्रयास करती है। यह अन्य भाषा के प्रति सहिष्णुता की भावना को नष्ट कर देती है तथा विभिन्न भाषा - भाषी क्षेत्रों के मध्य भाषा के प्रश्न को लेकर कटुता बढ़ती चली जाती है। क्षेत्रीयता का यह परिणाम जन-कल्याण और राष्ट्रीय प्रगति के दृष्टिकोण से अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ।
(iv) क्षेत्रीयतावाद के कारण विभिन्न क्षेत्रों में कुछ इस प्रकार के नेतृत्व और संगठनों का विकास हो जाता है जो कि साधारण जनता की भावनाओं को उत्तेजित करके अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूर्ण करने का प्रयास करते हैं।
(v) संकीर्ण क्षेत्रीयतावादी भावनाएँ राष्ट्रीय एकता व अखण्डता हेतु भी एक चुनौती बन जाती हैं। क्षेत्रीयतावाद के फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के मध्य जो तनाव व संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है वह राष्ट्रीय एकता की समस्त धारणाओं व भावनाओं को नष्ट कर देती है। क्षेत्रीय भावनाओं के आधार पर व्यक्ति स्वायत्त राज्यों की माँग करने लगते हैं।
प्रश्न 4.
क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा? उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा, यह विवादास्पद प्रश्न है अर्थात् क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर प्रभाव के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं। एक मत-ऋणात्मक प्रभाव मानने वालों का है। उनके अनुसार, क्षेत्रीय आन्दोलनों का भारतीय राजनीति पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ा है और इससे पृथकतावादी आन्दोलनात्मक राजनीति को बढ़ावा मिला है। इस दृष्टिकोण के समर्थकों के अनुसार क्षेत्रीय आन्दोलनों ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु धर्म, भाषा, जाति जैसे विघटनकारी तत्वों की सहायता ली है जिससे भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में नवीन बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं।
दूसरा, क्षेत्रीय आन्दोलनों का भारतीय राजनीति पर धनात्मक प्रभाव पड़ा है, इस दृष्टिकोण के समर्थकों के मतानुसार भारत में क्षेत्रीय आन्दोलन न्यूनाधिक रूप से पृथकतावादी नहीं रहे हैं। क्षेत्रीय आन्दोलनों का लक्ष्य अपने क्षेत्र अथवा समुदाय हेतु अधिक सुविधाएँ प्राप्त करना अथवा विकास की गति को तीव्र करना होता है।
वास्तविक स्थिति इन दोनों दृष्टिकोणों के मध्य में है। भारत में विकास की गति असमान रही है, अतएव क्षेत्रीय धरातल पर विरोध स्वाभाविक है। यदि विकास के अवसरों व उससे प्राप्त लाभों का विभाजन न्यायोचित तरीके से हो सके तो क्षेत्रीय आन्दोलनों से भारत के संघीय ढाँचे पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा।
प्रश्न 5.
जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग में देरी लाने वाली किन्हीं तीन बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग में देरी लाने वाली तीन बाधाएँ निम्नलिखित थीं।
(1) 1947 में कश्मीर के हिन्दू शासक हरिसिंह भारत में शामिल नहीं होना चाहते थे। उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की।
(2) राज्य में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन आन्दोलन चला। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें और साथ ही वह पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ भी थे।
(3) अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी ओर से कश्मीर पर कब्जा करने के लिए भेजा। कश्मीर के राजा हरिसिंह ने भारत सरकार से मदद की गुहार लगाई। सैन्य मदद से कश्मीर घाटी से घुसपैठिए खदेड़े गये। इससे पहले राजा ने भारत संघ में विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए थे। पाकिस्तान ने एक भूभाग पर कब्जा कर लिया जिसे वह आजाद कश्मीर कहता है। इस तरह कश्मीर का विलय पूर्ण नहीं हुआ और समस्या के रूप में बना रहा।
प्रश्न 6.
जम्मू - कश्मीर समस्या के मुख्य मुद्दों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जम्मू - कश्मीर समस्या के मुख्य मुद्दे: जम्मू - कश्मीर समस्या के मुख्य मुद्दों का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है
(i) जम्मू - कश्मीर समस्या भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है। इसके साथ ही साथ जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है।
(ii) कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। सन् 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाया था। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियंत्रण में आ गया।
(iii) भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को 'आजाद कश्मीर' कहा। सन् 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है।
(iv) आंतरिक रूप से देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा है। कश्मीर को संविधान में धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया था। धारा 370 के अंतर्गत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक स्वायत्तता दी गई थी। इस राज्य का अपना संविधान था।
(v) इस विशेष परिस्थिति में दो विरोधी प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। लोगों का एक समूह मानता है कि इस राज्य को धारा 370 के अंतर्गत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह से नहीं जुड़ पाया है। यह समूह मानता है कि धारा 370 को समाप्त कर देना चाहिए तथा जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह ही होना चाहिए।
(vi) कश्मीरियों के एक वर्ग ने तीन प्रमुख शिकायतें उठाई हैं। पहली यह कि भारत सरकार ने वायदा किया था कि कबायली घुसपैठियों से निबटने के बाद जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो भारत संघ में विलय के मुद्दे पर जनमत-संग्रह कराया जाएगा। इसे पूरा नहीं किया गया। दूसरी, धारा 370 के तहत दिया गया विशेष दर्जा पूरी तरह से अमल में नहीं लाया गया।
इससे स्वायत्तता की बहाली अथवा राज्य को ज्यादा स्वायत्तता देने की माँग उठी। तीसरी शिकायत यह की जाती है कि भारत के बाकी हिस्सों में जिस तरह लोकतंत्र पर अमल होता है उस तरह का संस्थागत लोकतांत्रिक बरताव जम्मू-कश्मीर में नहीं होता।
5 अगस्त 2019 जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया और राज्य को पुनर्गठित कर दो केन्द्र शासित प्रदेश- जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख बना दिए गए हैं।
प्रश्न 7.
जम्मू तथा कश्मीर की समाजिक तथा राजनीति संरचना क्या है? जम्मू तथा कश्मीर की समस्या की उन मूल जड़ों का वर्णन कीजिए जिनके कारण भारत सरकार को वहाँ की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए बाध्य होना पड़ा।
उत्तर:
जम्मू तथा कश्मीर में तीन सामाजिक एवं राजनीति क्षेत्र:
(1) जम्मू,
(2) कश्मीर और
(3) लद्दाख शामिल हैं।
जम्मू - कश्मीर में अधिकांश रूप में अंदरूनी विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के क्षेत्र शामिल हैं। जम्मू पहाड़ी क्षेत्र है, इसमें हिन्दू, मुस्लिम और सिख अर्थात् कई धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं। कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक है और यहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं जबकि लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, इसमें बौद्ध, मुस्लिम की आबादी है।
इतनी विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर कई क्षेत्रीय आकांक्षाएँ पैदा होती रहती हैं। जम्मू-कश्मीर में कई राजनीतिक दल हैं, जो जम्मू - कश्मीर के लिए स्वायत्तता की माँग करते रहते हैं। इसमें नेशनल कांफ्रेंस सबसे महत्वपूर्ण दल है। इसके अतिरिक्त कुछ उग्रवादी संगठन भी हैं, जो धर्म के नाम पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं।
कश्मीर के क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर मुख्य रूप से दो पक्ष सामने आते हैं। प्रथम पक्ष वह है, जो धारा 370 को समाप्त करना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है, जो इस राज्य को और अधिक स्वायत्तता देना चाहता है। इन दोनों पक्षों का यदि उचित ढंग से अध्ययन किया जाए तो प्रथम पक्ष अधिक उचित दिखाई पड़ता है।
जो लोग धारा 370 के समाप्त करने के पक्ष में हैं, उनका तर्क है कि इस धारा के कारण यह राज्य भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया है। इसके साथ-साथ जम्मू-कश्मीर को अधिक स्वायत्तता देने से कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी पैदा होती हैं। यही कारण है कि भारत सरकार को यहाँ की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए बाध्य होना पड़ा। वर्तमान में धारा 370 को समाप्त कर दिया गया है।
प्रश्न 8.
जम्मू - कश्मीर में तनाव के मुख्य कारण क्या रहे हैं? इसका क्या प्रभाव पड़ा?
अथवा
आपकी राय में कश्मीर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभर आने के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जम्मू - कश्मीर में तनाव के मुख्य कारण-जम्मू-कश्मीर में तनाव के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं
प्रभाव:
प्रश्न 9.
सन् 1974 में इंदिरा गाँधी तथा शेख अब्दुल्ला के बीच समझौता क्यों हुआ? इसके क्या परिणाम रहे?
उत्तर:
समझौते के कारण-सन् 1953 से लेकर 1974 ई. के बीच अधिकांश समय जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। कमजोर हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्दुल्ला के बिना) कांग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही परन्तु बाद में वह कांग्रेस में मिल गयी। इस प्रकार राज्य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियंत्रण में आ गयी। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। अंततः सन् 1974 में इंदिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए तथा वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस को फिर से खड़ा किया तथा सन् 1977 के राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुमत से निर्वाचित हुए।
परिणाम - सन् 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद नेशनल कांफ्रेंस की कमान उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने सँभाली। फारुख अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री बने। केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप से फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, इससे कश्मीर में नाराजगी के भाव पैदा हुए। शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गाँधी के बीच हुए समझौते से राज्य के लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर विश्वास उत्पन्न हुआ था। फारुख अब्दुल्ला की सरकार की बर्खास्तगी से इस विश्वास को धक्का लगा।
प्रश्न 10.
राजीव - लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता क्या था? इसकी प्रमुख शर्ते लिखिए।
अथवा
पंजाब समझौते के प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
अथवा
जुलाई 1985 में राजीव गाँधी - लोंगोवाल समझौते का मुख्य परिणाम क्या था?
उत्तर:
राजीव - लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौतों की शर्तों / परिणामों / प्रावधानों का वर्णन निम्नांकित है।
(i) सन् 1984 के चुनावों के पश्चात् सत्ता में आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से वार्ता आरम्भ की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ जुलाई 1985 में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी-लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहते हैं।
(ii) यह समझौता पंजाब में शान्ति स्थापित करने की दिशा में एक प्रमुख कदम था। इस बात पर सहमति हुई कि चण्डीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा तथा पंजाब एवं हरियाणा के मध्य सीमा-विवाद को सुलझाने हेतु एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी निश्चित किया गया कि पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के मध्य रावी-व्यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने हेतु एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बनाया जाएगा।
(iii) समझौते में सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने व उनके साथ अच्छा व्यवहार करने पर राजी हुई। साथ ही पंजाब से विशेष सुरक्षा बल अधिनियम को वापस लेने की बात पर भी सहमति हुई।
प्रश्न 11.
सन् 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शान्ति किस तरह आई और इसके क्या अच्छे परिणाम दिखाई दिए?
उत्तर:
यद्यपि सन् 1992 में पंजाब राज्य में आम चुनाव हुए लेकिन सन् 1984 ई. के दंगों से आहत व उग्रवाद से प्रभावित जनता ने दिल से मतदान में पूरी तरह हिस्सा नहीं लिया। केवल 24 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान का प्रयोग किया। यद्यपि उग्रवाद को सुरक्षा बलों ने अंततः दबा दिया किन्तु अनेक वर्षों तक पूरी जनता - हिन्दू और सिख दोनों को ही कष्ट और यातनाएँ झेलनी पड़ी। सन् 1997 में अकाली दल (बादल) और भाजपा के गठबंधन को बड़ी विजय मिली।
उग्रवाद की समाप्ति के बाद के दौर में यह पंजाब का पहला चुनाव था। राज्य में एक बार फिर आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन के सवाल प्रमुख हो उठे। हालांकि धार्मिक पहचान यहाँ की जनता के लिए लगातार प्रमुख बनी हुई है लेकिन राजनीति अब धर्म-निरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ी है।
प्रश्न 12.
पूर्वोत्तर के सात राज्य कौन - कौन से हैं? इनका गठन किस प्रकार किया गया?
उत्तर:
पूर्वोत्तर के सात राज्य हैं: असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश एवं नगालैण्ड। इन सात राज्यों को उनकी समान सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक पहचान के आधार पर सात बहनें कहा जाता है। इन सात राज्यों को प्रमुख रूप से सांस्कृतिक एवं भाषाई आधार पर गठित किया गया है। पहले मणिपुर व त्रिपुरा रियासतें थीं जो स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में विलय हो गयी थीं। आसाम पहले मुख्य बड़ा राज्य था।
इसके विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं के लोगों ने अनुभव किया कि असमी भाषा उन पर जबरदस्ती थोपी जा रही है, इसलिए उन्होंने असम से पृथक होकर अपनी भाषाओं के विकास हेतु अलग राज्यों की माँग उठाना प्रारम्भ कर दिया जिन्हें विभिन्न समयों में स्वीकार कर लिया गया। नगालैण्ड का गठन सन् 1963 में अलग राज्य के रूप में हुआ। सन् 1972 में मेघालय, मणिपुर एवं त्रिपुरा का गठन किया गया।
सन् 1987 में अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम का अलग राज्य के रूप में गठन किया गया। भाषाई और सांस्कृतिक कारणों के अलावा इन राज्यों में आर्थिक विकास के अभाव के कारण व राजनीतिक भेदभाव के कारण पृथक राज्यों की मांग उठाई थी, जिसमें अंततः वे सफल रहे।
प्रश्न 13.
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) द्वारा चलाए गए आन्दोलन व सफलताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सन् 1979 में ऑल असम स्टूडेन्ट्स यूनियन (आसू AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आन्दोलन चलाया। 'आसू' एक छात्र-संगठन था तथा इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। 'आसू' का आन्दोलन अवैध आप्रवासी, बंगाली और अन्य लोगों के प्रभुत्व तथा मतदाता सूची में लाखों आप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के विरुद्ध था।
आन्दोलन की माँग थी कि सन् 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आन्दोलन ने कई नए तरीकों को आजमाया और असमी जनता के प्रत्येक वर्ग का समर्थन हासिल किया। इस आन्दोलन को पूरे असम में समर्थन मिला। आन्दोलन के दौरान हिंसक और त्रासद घटनाएँ भी हुईं। बहुत से लोगों को जान गंवानी पड़ी तथा धन-सम्पत्ति का नुकसान भी हुआ। आन्दोलन के दौरान रेलगाड़ियों का
आना - जाना तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने की तेल आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गयी। छह वर्ष की सतत् अस्थिरता के पश्चात् राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 'आसू' के नेताओं से बातचीत प्रारम्भ की। इसके फलस्वरूप सन् 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अन्तर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा।
प्रश्न 14.
सन् 1985 के 'असम समझौते' के परिणाम का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सन् 1985 का असम समझौता-6 वर्षों की संतत् अस्थिरता के पश्चात् राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के नेताओं से बातचीत प्रारम्भ की। इसके फलस्वरूप सन् 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अन्तर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान या उसके बाद के वर्षों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी तथा उन्हें वापस भेजा जाएगा।
आन्दोलन की सफलता के पश्चात् 'आसू' और असम गण संग्राम परिषद् ने साथ मिलकर स्वयं को एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम असम गण परिषद् रखा गया। असम गण परिषद् सन् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई कि विदेशी लोगों की समस्या का समाधान कर लिया जाएगा तथा एक स्वर्णिम असम का निर्माण किया जाएगा। सन् 1985 के असम समझौते से शान्ति कायम हुई तथा प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला किन्तु 'आप्रवास' की समस्या का हल नहीं हो पाया। 'बाहरी' का मुद्दा आज भी असम व पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की राजनीति में एक जीवंत मुद्दा है।
प्रश्न 15.
सन् 1980 के दशक में उत्पन्न पंजाब और असम के संकट के बीच एक समानता और एक अन्तर को बताइए।
उत्तर:
सन् 1980 के दशक में उत्पन्न पंजाब व असम के संकट के बीच समानता व अंतर निम्नांकित हैं समानता- भाषा के आधार पर नवीन राज्य का गठन करने की मांग उठाई गई। असम में मिजो, मणिपुरी, मिजी, खासी, आका तथा बोडो जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर पृथक राज्य की माँग उठाई गई।
इस प्रकार असम क्रमशः सात स्वतंत्र राज्यों में विभक्त हो गया नगालैण्ड (1963), मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा (1972) और अरुणाचल प्रदेश व मिजोरम (1987) पंजाब का तीन स्वायत्त संघीय इकाइयों, जैसे - पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश में विभाजन पंजाबी, उर्दू व हिन्दी भाषाओं के आधार पर किया गया।
अंतर-पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश जैसे पृथक राज्यों की माँग पूर्णतः भाषा पर आधारित थी जबकि असम में अलगाववादी आन्दोलन एवं बाहरी देशों के नागरिकों के विरुद्ध आन्दोलन यह प्रकट करते हैं कि वहाँ के लोग बांग्लादेश से आने वाले लोगों के विरुद्ध थे और उनकी यह धारणा थी कि उनके राज्य ब्रिटिश भारत के हिस्से कभी भी नहीं रहे। इसी कारण वे अपने क्षेत्र के आधार पर स्वायत्तता को प्राप्त करना चाहते थे। इस प्रकार यह संस्कृति व क्षेत्र परिवेश पर अपने पृथक् राज्य बनाने की माँग थी।
प्रश्न 16.
बाहरी लोगों के विरुद्ध असम में 1979 से 1985 तक हुए आंदोलन की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बाहरी लोगों के विरुद्ध असम में 1977 से 1985 तक हुए आन्दोलन की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
(1) 'असम समझौता' राजीव गाँधी और 'आसू' के नेताओं के बीच हुआ था। समझौते के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा।
(2) असम गण परिषद् नामक क्षेत्रीय राजनीतिक दल का निर्णय हुआ जिसमें आसू (AASU) और असम गण संग्राम परिषद् शामिल थे।
(3) असम में प्रवेश करने वाले सभी विदेशियों को वोट देने का अधिकार व नागरिकता दी जानी चाहिए।
(4) प्रवेशकर्ताओं को दस साल के लिए मतदान अधिकारों से इंकार किया जाए, लेकिन नागरिकता के अन्य सभी अधिकार का आनंद ले सकते हैं।
प्रश्न 17.
मिजो नेशनल फ्रंट की स्थापना व कार्यवाहियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मिजो नेशनल फ्रंट की स्थापना-स्वतंत्रता के बाद मिजो पर्वतीय क्षेत्र को असम के भीतर ही एक स्वायत्त जिला बना दिया गया था। कुछ मिजो लोगों का मानना था कि वे कभी भी 'ब्रिटिश इण्डिया' के अंग नहीं रहे। अतः भारत संघ से उनका कोई रिश्ता नहीं है। सन् 1959 में मिजो पर्वतीय इलाके में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबन्ध करने में असफल रही। इसी के बाद अलगाववादी आन्दोलन को जन-समर्थन मिलना प्रारम्भ हुआ। मिजो लोगों ने गुस्से में आकर लालडेंगा के नेतत्व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया।
कार्यवाहियाँ-सन् 1966 में मिजो नेशनल फ्रंट ने स्वतंत्रता की माँग करते हुए सशस्त्र अभियान प्रारम्भ किया। इस प्रकार भारतीय सेना और मिजो विद्रोहियों के बीच दो दशक तक चली लड़ाई की शुरुआत हुई। मिजो नेशनल फ्रंट ने गुरिल्ला युद्ध किया। उसे पाकिस्तान की सरकार ने समर्थन दिया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में मिजो विद्रोहियों ने अपने ठिकाने बनाए। भारतीय सेना ने विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए जवाबी कार्यवाही की।
इसमें आम जनता को भी कष्ट उठाने पड़े। एक बार तो वायुसेना तक का इस्तेमाल किया गया। सेना के इन कदमों से स्थानीय लोगों में क्रोध और अलगाव की भावना और तेज हुई। सन् 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक शान्ति समझौता हुआ। समझौते के अन्तर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।
प्रश्न 18.
'भारत में सिक्किम का विलय' किस प्रकार हुआ? संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
अथवा
भारत की स्वतंत्रता से लेकर, सिक्किम के भारत में विलय तक की कहानी का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सिक्किम को भारत की शरण प्राप्त थी। इसका अर्थ यह था कि तब सिक्किम भारत का अंग तो नहीं था परन्तु यह पूरी तरह से संप्रभु राष्ट्र भी नहीं था। सिक्किम की रक्षा और विदेशी मामलों का उत्तरदायित्व भारत सरकार पर था जबकि सिक्किम के आतंरिक प्रशासन की बागडोर यहाँ के राजा चोग्याल के हाथों में थी।
यह व्यवस्था उपयुक्त सिद्ध नहीं हो पाई क्योंकि सिक्किम के राजा स्थानीय जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को सँभाल नहीं सके। सिक्किम की आबादी का एक बड़ा हिस्सा नेपालियों का था। नेपाली मूल की जनता के मन में यह भाव घर कर गया कि चोग्याल अल्पसंख्यक लेपचाभूटिया के एक छोटे से अभिजन वर्ग का शासन उन पर लाद रहा है। अप्रैल 1975 में एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में भारत के साथ सिक्किम के पूर्ण विलय की बात कही गयी थी।
इस प्रस्ताव के तुरन्त बाद सिक्किम में जनमत-संग्रह कराया गया तथा जनमत-संग्रह में जनता ने विधानसभा के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। भारत सरकार ने सिक्किम विधानसभा के अनुरोध को तुरन्त मान लिया तथा सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बन गया। चोग्याल ने इस फैसले को नहीं माना तथा उसके समर्थकों ने भारत सरकार पर साजिश रचने तथा बल प्रयोग करने का आरोप लगाया। भारत संघ में सिक्किम के विलय को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था। इस कारण यह मामला सिक्किम की राजनीति में कोई विभेदकारी मुद्दा न बन सका।
प्रश्न 19.
सन् 1987 में गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा किस प्रकार प्राप्त हुआ? उल्लेख कीजिए।
अथवा
गोवा की मुक्ति और उसके भारतीय संघ का राज्य बनने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सन् 1947 में भारत में अंग्रेजी साम्राज्य समाप्त हो गया था परन्तु पुर्तगाल ने गोवा, दमन और दीव से अपना शासन हटाने से इंकार कर दिया। यह क्षेत्र सोलहवीं शताब्दी से ही पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन में था। अपने लम्बे शासनकाल में पुर्तगाल ने गोवा की जनता का दमन किया था। गोवा में आजादी के लिए एक मजबूत जन - आन्दोलन चला। इस आन्दोलन को महाराष्ट्र के समाजवादी सत्याग्रहियों ने बल प्रदान किया।
महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के नेतृत्व में एक वर्ग ने माँग रखी कि गोवा को महाराष्ट्र में मिला दिया जाए क्योंकि यह मराठी-भाषी क्षेत्र है। बहुत से गोवावासी गोवानी पहचान और संस्कृति की स्वतंत्र पहचान बनाए रखना चाहते थे। कोंकणी भाषा के लिए भी इनके मन में सम्मान था। इस वर्ग का नेतृत्व यूनाइडेट गोअन पार्टी (यूजीपी) ने किया। जनवरी 1967 में केन्द्र सरकार ने गोवा में एक विशेष जनमत सर्वेक्षण कराया।
इसमें गोवा के लोगों से पूछा गया कि आप लोग महाराष्ट्र में शामिल होना चाहते हैं या अलग बने रहना चाहते हैं। भारत में यही एक अवसर था जब किसी मसले पर सरकार ने जनता की इच्छा को जानने के लिए जनमत संग्रह जैसी प्रक्रिया अपनाई थी। अधिकतर लोगों ने महाराष्ट्र से अलग रहने के पक्ष में मत डाला। इस प्रकार गोवा संघ शासित प्रदेश बना रहा। अन्त में सन् 1987 में गोवा भारत संघ का एक राज्य बना।
प्रश्न 20.
निम्नलिखित नेताओं के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके योगदान का उल्लेख कीजिए।
(i) शेख अब्दुल्ला,
(ii) राजीव गाँधी।
उत्तर:
(i) शेख अब्दुल्ला: शेख अब्दुल्ला का जन्म सन् 1905 में हुआ। वे भारतीय स्वतंत्रता से पहले ही जम्मू एवं कश्मीर के नेता के रूप में उभर कर सामने आए। वे जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता दिलाने के साथ-साथ वहाँ धर्म - निरपेक्षता की स्थापना के समर्थक थे। उन्होंने राजाशाही के विरुद्ध राज्य में जन-आन्दोलन का नेतृत्व किया। वे धर्म निरपेक्षता के आधार पर जीवन भर पाकिस्तान का विरोध करते रहे। वे नेशनल कांफ्रेंस के गठनकर्ता तथा प्रमुख नेता थे।
वे भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के पश्चात् जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। उनके मंत्रिमण्डल को भारत की कांग्रेसी सरकार ने सन् 1953 में बर्खास्त कर दिया और शेख अब्दुल्ला को 1964 तक जेल में रखा। सरकार ने अपनी शर्तों पर उनसे समझौता करना चाहा परन्तु समझौता न होने के कारण सन् 1965 से 1968 तक कारावास में रखा। सन् 1974 में इंदिरा कांग्रेस सरकार के साथ समझौता हुआ। वे राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए। सन् 1982 में उनका निधन हो गया।
(ii) राजीव गाँधी: राजीव गाँधी, फिरोज गाँधी और इंदिरा गाँधी के पुत्र थे। उनका जन्म सन् 1944 में हुआ। सन् 1980 के बाद वे देश की सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। अपनी माँ श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद वे राष्ट्रव्यापी सहानुभूति के माहौल में भारी बहुमत से जीते तथा सन् 1984 में देश के प्रधानमंत्री बने और सन् 1989 तक वह प्रधानमंत्री पद पर रहे। उन्होंने पंजाब में व्याप्त आतंकवाद के विरुद्ध उदारपंथी नीतियों के समर्थक लोंगोवाल से समझौता किया।
उन्हें मिजो विद्रोहियों व असम में छात्र संघों से समझौता करने में सफलता प्राप्त हुई। राजीव गाँधी देश में उदारवाद अथवा खुली अर्थव्यवस्था एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के प्रणेता रहे। श्रीलंका में नक्सलियों की समस्या को सुलझाने के लिए उन्होंने भारतीय शांति सेना को श्रीलंका भेजा। ऐसा माना जाता है कि श्रीलंका के विद्रोही तमिल संगठन लिट्टे के एक आत्मघाती द्वारा सन् 1991 में उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी।
प्रश्न 21.
सभी क्षेत्रीय आन्दोलनों का अलगाववादी माँगों की ओर अग्रसर होना आवश्यक नहीं है। उपयुक्त उदाहरणों सहित इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
1. द्रविड़ आन्दोलन ने सार्वजनिक चर्चाओं और चुनावी मंच का प्रयोग करके राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति प्राप्त की।
2. जम्मू और लद्दाख के लोग भारतीय संघ के अन्तर्गत अधिक स्वायत्तता चाहते हैं, लेकिन कश्मीर का एक भाग अलग राज्य चाहता है।
3. गैर - असमी लोगों द्वारा असमी भाषा थोपे जाने के विरुद्ध किया गया आंदोलन 1960 से आल पार्टी हिल लीडर्स कांग्रेस के गठन की ओर ले गया। इन्होंने भारतीय संघ के भीतर एक जनजातीय राज्य की माँग की, जिससे बाद में अलग राज्यों का गठन हुआ।
4. अवैध घुसपैठियों के विरुद्ध आल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन चलाया।
5. लालडेंगा के नेतृत्व में मिजोरम में चलाया गया अलगाववादी आंदोलन दो दशकों के संघर्ष के बाद इस परिणाम पर समाप्त हुआ कि किसी को इसका कोई लाभ नहीं। 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक समझौता हुआ और मिजो नेशनल फ्रंट अलगाववादी आंदोलन को समाप्त करने पर सहमत हो गए। इसी प्रकार नगालैण्ड आंदोलन भी अंत में शांति के साथ समाप्त हो गया।
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि सभी क्षेत्रीय आन्दोलनों का अलगाववादी माँगों की ओर अग्रसर होना आवश्यक नहीं है। क्षेत्रीय आन्दोलन प्रायः स्थानीय स्तर से जुड़े मुद्दों के हल के लिए उभरते हैं और मुद्दे का हल हो जाने पर समाप्त हो जाते
प्रश्न 22.
द्रविड़ आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
द्रविड़ आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: द्रविड़ आन्दोलन एक शक्तिशाली आन्दोलन था। देश की राजनीति में यह आन्दोलन क्षेत्रीयवादी भावनाओं की सर्वप्रथम एवं सबसे प्रबल अभिव्यक्ति थी। सर्वप्रथम इस आन्दोलन के नेतृत्व के एक भाग की आकांक्षा एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र बनाने की थी लेकिन आन्दोलन ने कभी सशस्त्र संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाया। द्रविड़ आन्दोलन के प्रारम्भ में द्रविड़ भाषा में एक प्रसिद्ध नारा दिया था जिसका हिन्दी अनुवाद है-'उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन-दिन घटता जाए।'
द्रविड़ आन्दोलन अखिल दक्षिण भारतीय संदर्भ में अपनी बात रखता था। किन्तु अन्य दक्षिणी राज्यों से समर्थन प्राप्त न होने के कारण यह आन्दोलन धीरे-धीरे तमिलनाडु तक ही सीमित हो गया। द्रविड़ आन्दोलन का नेतृत्व तमिल सुधारक नेता ई.वी. रामास्वामी नायकर जो पेरियार के नाम से विख्यात हुए, के द्वारा किया गया। पेरियार ने अपने नेतृत्व में द्रविड़ आन्दोलन की माँग आगे बढ़ाने हेतु सार्वजनिक बहसों एवं चुनावी मंचों का ही प्रयोग किया। इस आन्दोलन से एक राजनीतिक संगठन 'द्रविड़ कषगम' का सूत्रपात हुआ। यह संगठन ब्राह्मणों के वर्चस्व का विरोध करता था तथा उत्तरी भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रभुत्व को नकारते हुए क्षेत्रीय गौरव की प्रतिष्ठा पर बल देता था।
निबन्धात्मक प्रश्न:
प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद का अर्थ लिखिए तथा भारत में क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
क्षेत्रवाद की अवधारणा क्या है? क्षेत्रवाद की भावना पनपने के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत एक विशाल राष्ट्र है, जिसमें विभिन्न जातियों तथा उपजातियों के लोग रहते हैं। ये अलग - अलग भाषाएँ बोलते हैं तथा अलग-अलग धर्मों का अनुसरण करते हैं। यही नहीं, ये विभिन्न पंथों तथा उपपंथों में भी विभाजित हैं। भौगोलिक दृष्टि से भी भारत महाद्वीपीय आकार का राष्ट्र है। दूसरी बात यह है कि भारत के कुछ जातीय, धार्मिक तथा भाषाई समूह कुछ क्षेत्र-विशेष में संकेन्द्रित हैं तथा उन क्षेत्रों को अपना मानते हैं। ये समूह अपने क्षेत्र में आर्थिक विकास की गति को भी तीव्र करना चाहते हैं तथा अपनी सांस्कृतिक पहचान भी बनाए रखना चाहते हैं।
क्षेत्र तथा क्षेत्रवाद की अवधारणा: 'क्षेत्र' का अर्थ क्या है? वस्तुतः क्षेत्र एक बहु अर्थी शब्द है। भौगोलिक दृष्टि से इसका अभिप्राय जिले के एक भाग या राज्य के एक भाग अथवा सम्पूर्ण राज्य से लिया जा सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि क्षेत्र की अवधारणा में 'साहचर्य' तथा अन्य क्षेत्रों से अलगाव' का भाव निहित होता है। इसके अलावा क्षेत्र का प्रमुख तत्व अधिकतम समरूपता होती है, जिसकी भाषा, सामाजिक संगठन, सांस्कृतिक प्रतीक, आर्थिक जीवन, ऐतिहासिक अनुभव या राजनीतिक पृष्ठभूमि हो सकती है।
क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारक-क्षेत्रवाद की भावना की उत्पत्ति किसी एक कारक से न होकर अनेक कारकों से होती है। इनमें मुख्य कारक निम्नलिखित हैं।
(i) भारत में विद्यमान विभिन्नताएँ: क्षेत्रवाद विभिन्नता का परिणाम है। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् भी अनेक क्षेत्रों में अलगाव का मनोभाव बना हुआ है : उदाहरणस्वरूप - महाराष्ट्र में विदर्भ अथवा मराठावाड़, गुजरात में सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड और हरित प्रदेश, पश्चिम बंगाल में गोरखालैण्ड की माँग इसी मनोवृत्ति का परिणाम है। इनमें से कुछ राज्यों में अलग राज्यों के निर्माण भी हो चुके हैं। इन नए राज्यों में शामिल हैं-झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल (उत्तराखण्ड) उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश के निर्माण का आन्दोलन तीव्र गति पकड़ रहा है।
(ii) भाषाई लगाव: भाषाई लगाव क्षेत्रवाद की उत्पत्ति का प्रमुख कारक है। सन् 1948 में राज्य पुनर्गठन पर विचार करने हेतु नियुक्त आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन नहीं करने का विचार प्रस्तुत किया था, लेकिन राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थ हेतु भाषाई हितों को आगे बढ़ाना जारी रखा। सन् 1953 में तेलुगु भाषा के लोगों के लिए तत्कालीन मद्रास राज्य का भाग लेकर आन्ध्र प्रदेश नाम के नए राज्य की स्थापना की गयी। भाषा के आधार पर ही पंजाब का विभाजन करके नए हरियाणा राज्य की स्थापना हुई।
(iii) संकुचित धार्मिक भावनाएँ: धर्म भी अनेक बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को विकसित करने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबे की माँग कुंछ सीमा तक धर्म के प्रभाव का परिणाम ही थी।
(iv) आर्थिक विकास की असंतुलित स्थिति: राज्य के अलग-अलग भागों में आर्थिक विकास की असंतुलित स्थिति भी क्षेत्रवाद का प्रमुख कारक रही है। उदाहरण-आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना आन्दोलन, महाराष्ट्र में शिवसेना द्वारा चलाया गया आन्दोलन, असम में ऑल असम स्टूडेन्ट्स यूनियन (AASU) और असम गण संग्राम परिषद् द्वारा चलाए गए आन्दोलनों के पीछे यही प्रमुख कारण है।
(v) राजनीतिज्ञों की भूमिका: क्षेत्रवाद की भावनाओं का विकास करने में राजनीतिज्ञों की भी प्रमुख भूमिका होती है। अनेक राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र का अलग राज्य बना दिया जाएगा तो इससे उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी अर्थात् सत्ता पर उनका अधिकार स्थापित हो जायेगा।
(vi) जाति - जाति के आधार पर भी क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति बढ़ी है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही है, वहाँ क्षेत्रीयतावाद की प्रवृत्ति दिखाई देती है। हरियाणा और महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति को फैलाने में जाति शब्द की प्रमुख भूमिका रही है।
प्रश्न 2.
भारत सरकार किस प्रकार लोकतांत्रिक बातचीत का रास्ता अपनाते हुए कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयत्नशील रही है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत सरकार प्रजातांत्रिक बातचीत के द्वारा कश्मीर समस्या के समाधान हेतु प्रयत्नशील है। 'कश्मीर मुद्दा' भारत व पाकिस्तान के बीच का मसला रहा है किन्तु इस राज्य की राजनीतिक स्थिति में बहुत से पेंच हैं। जम्मू एवं कश्मीर में तीन राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र सम्मिलित हैं-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। कश्मीरी बोली बोलने वाले अधिकतर लोग मुसलमान हैं।
कश्मीरी भाषी लोगों में अल्पसंख्यक हिन्दू भी सम्मिलित हैं। जम्मू क्षेत्र पहाड़ी, तलहटी और मैदानी इलाके का मिश्रण है, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम व सिख अर्थात् कई धर्म व भाषाओं के लोग निवास करते हैं। लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, जहाँ बौद्ध एवं मुसलमानों की आबादी है किन्तु यहाँ आबादी बहुत कम है।
कश्मीर समस्या के समाधान के प्रयास-कश्मीर समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए:
(i) अक्टूबर सन् 1947 में पाकिस्तान के कबायली घुसपैठियों को पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह भारतीय सेना से सहायता माँगने को मजबूर हुए। भारत के द्वारा सैन्य मदद उपलब्ध कराई गई तथा कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पूर्व भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए।
इस पर भी सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर के भाग्य का निर्णय जनमत सर्वेक्षण के द्वारा होगा। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू - कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री बने। भारत जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान की धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।
(ii) कश्मीर मसले को लेकर पाकिस्तान ने सन् 1965 में भारत पर आक्रमण किया। भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाया लेकिन भारत का कुछ कश्मीरी हिस्सा उसके हाथ से निकल गया जिसे पाकिस्तान ने चीन को दे दिया। युद्ध में जीतने के बावजूद भारत ने पाकिस्तान से ताशकंद-समझौता किया और उसके सैनिकों को वापस कर दिया। भारत ने लोकतांत्रिक तरीके से इस मुद्दे को सुलझाया।
(iii) सन् 1989 तक यह राज्य उग्रवादी आन्दोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आन्दोलन में लोगों को अलग कश्मीर राष्ट्र के नाम पर लामबंद किया जा रहा था। सन् 1990 के बाद के समय में जम्मू-कश्मीर के लोगों को उग्रवादियों और सेना की कार्रवाई से असाधारण हिंसा भुगतनी पड़ी पर भारत सरकार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं छोड़ी।
सन् 1996 में एक बार पुनः इस राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग की। जम्मू-कश्मीर में सन् 2002 के चुनाव बड़े निष्पक्ष ढंग से हुए। नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत से भारी जीत नहीं मिल पायी। इस चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्ता में आयी।
(iv) कश्मीर मसले को लेकर सन् 1999 में पाकिस्तान सेना ने करगिल के कुछ हिस्सों में घुसपैठ कराई। इसमें तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ का हाथ था। भारत को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने तुरन्त कार्यवाही की। एक संक्षिप्त युद्ध लड़ा गया जिसे कारगिल युद्ध कहा गया। दोनों तरफ से समझौते की कार्यवाही हुई और मामला सुलझ गया। भारत ने यहाँ भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर आँच नहीं आने दी। राज्य में सरकार किसी की भी बनी हो भारत ने प्रत्येक समस्या को वैधानिक व शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास किया है।
प्रश्न 3.
जम्मू - कश्मीर की सन् 1948 से 1986 के मध्य राजनीति से जुड़ी प्रमुख घटनाओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
जम्मू - कश्मीर में सन् 1948 के उपरान्त तथा सन् 1952 तक की राजनीति : प्रधानमंत्री का पद संभालने के पश्चात् शेख अब्दुल्ला ने भूमि-सुधार की बड़ी मुहिम चलायी। उन्होंने इसके साथ-साथ जन-कल्याण की कुछ नीतियाँ भी लागू की। इन सबसे यहाँ की जनता को फायदा हुआ। बहरहाल कश्मीर की हैसियत को लेकर शेख अब्दुल्ला के विचार केन्द्र सरकार से मेल नहीं खाते थे। इससे दोनों के बीच मतभेद पैदा हुआ।
शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी एवं चुनाव-सन् 1953 में शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया गया। कई वर्षों तक उन्हें नजरबंद रखा गया। शेख अब्दुल्ला के बाद जो नेता सत्तासीन हुए वे शेख की तरह लोकप्रिय नहीं थे। केन्द्र के समर्थन के दम पर ही वे राज्य में शासन चला सके। राज्य में हुए विभिन्न चुनावों में धाँधली और गड़बड़ी के गम्भीर आरोप लगे।
जम्मू - कश्मीर में सन् 1953 से 1977 तक की राजनीतिक घटनाएँ:
(अ) सन् 1953 से लेकर 1974 के बीच अधिकांश समय इस राज्य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। विभाजित हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्दुल्ला के बिना) काँग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में वह काँग्रेस में मिल गई। इस तरह राज्य की सत्ता सीधे काँग्रेस के नियंत्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच समझौते की कोशिश जारी रही।
(ब) अंततः सन् 1974 में इन्दिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और वे राज्य के मुख्यमंत्री . बने। उन्होंने नेशनल काँफ्रेंस को फिर से खड़ा किया और सन् 1977 के राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुमत से निर्वाचित हुए। जम्मू - कश्मीर फारुख अब्दुल्ला के प्रथम कार्यकाल में (1982 - 1986) सन् 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो गयी । और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व की कमान उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने संभाली। फारुख अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री बने।
बहरहाल, राज्यपाल ने जल्दी ही उन्हें बर्खास्त कर दिया और नेशनल कांफ्रेंस से एक टूटे हुए गुट ने थोड़े समय के लिए राज्य की सत्ता संभाली। केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप से फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त किया गया था। इससे कश्मीर में नाराजगी का भाव पैदा हुआ। शेख अब्दुल्ला और इन्दिरा गाँधी के बीच हुए समझौते से राज्य के लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर विश्वास जमा था।
फारुख अब्दुल्ला की सरकार की बर्खास्तगी से इस विश्वास को धक्का लगा। सन् 1986 में नेशनल कांफ्रेंस ने केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया। इससे भी लोगों को लगा कि केन्द्र राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप करें रहा है।
प्रश्न 4.
द्रविड़ आन्दोलन क्या था? इसके स्वरूप व विभिन्न पहलुओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
द्रविड़ आन्दोलन पर एक लेख प्रस्तुत कीजिए।
अथवा.
द्रविड़ आन्दोलन तथा द्रविड़ कषगम के निर्माण में ई.वी. रामास्वामी 'पेरियार' के योगदान का वर्णन कीजिए। डी: के. के विभाजन तथा डी.एम.के. के रूप में इसका राजनीति में प्रवेश क्यों हुआ?
उत्तर:
द्रविड़ आन्दोलन: द्रविड़ आन्दोलन दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली आन्दोलन था। देश की राजनीति में यह आन्दोलन क्षेत्रीयवादी भावनाओं की सर्वप्रथम एवं सबसे प्रबल अभिव्यक्ति थी। द्रविड़ आन्दोलन का स्वरूप-सर्वप्रथम इस आन्दोलन के नेतृत्व के एक भाग की आकांक्षा एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र बनाने की थी लेकिन आन्दोलन ने कभी सशस्त्र संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाया। द्रविड़ आन्दोलन के प्रारम्भ में द्रविड़ भाषा में एक प्रसिद्ध नारा दिया था, जिसका हिन्दी अनुवाद है-'उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन-दिन घटता जाए।'
द्रविड़ आन्दोलन अखिल दक्षिण भारतीय संदर्भ में अपनी बात रखता था। किन्तु अन्य दक्षिणी राज्यों से समर्थन प्राप्त न होने के कारण यह आन्दोलन धीरे-धीरे तमिलनाडु तक ही सीमित हो गया। आन्दोलन का नेतृत्व व तरीके - द्रविड़ आन्दोलन का नेतृत्व तमिल सुधारक नेता ई.वी. रामास्वामी नायकर जो पेरियार के नाम से विख्यात हुए, के द्वारा किया गया। पेरियार ने अपने नेतृत्व में द्रविड़ आन्दोलन की माँग आगे बढ़ाने हेतु सार्वजनिक बहसों एवं चुनावी मंचों का ही प्रयोग किया। द्रविड़ आन्दोलन के विभिन्न पहलू
1. द्रविड़ आन्दोलन से एक राजनैतिक संगठन द्रविड़ कषगम का सूत्रपात हुआ। यह संगठन ब्राह्मणों के वर्चस्व का विरोध करता था एवं उत्तरी भारत के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रभुत्व को नकारते हुए क्षेत्रीय गौरव की प्रतिष्ठा पर बल देता था।
2. कुछ समय पश्चात् द्रविड़ कषगम दो धड़ों में विभाजित हो गया तथा आन्दोलन की सम्पूर्ण राजनीतिक विरासत द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डी.एम.के.) के पाले में केन्द्रित हो गयी। द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने तीन सूत्रीय आन्दोलन के साथ राजनीति में प्रवेश किया।
आन्दोलन की प्रमुख तीन माँगें थीं:
(3) सन् 1965 के हिन्दी विरोधी आन्दोलन की सफलता के पश्चात् डी.एम.के. को जनता के मध्य और भी लोकप्रिय बना दिया। राजनीतिक आन्दोलन के एक सिलसिले के पश्चात् सन् 1967 के विधानसभा चुनावों में उसे बहुत सफलता मिली तब से वर्तमान तक तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ दलों का वर्चस्व बना हुआ है।
(4) डी.एम.के. के संस्थापक सी. अन्नादुरै की मृत्यु के पश्चात् दल में विभाजन हो गया। इसमें एक दल मूल नाम अर्थात् डी.एम.के. को लेकर आगे बढ़ा तथा दूसरा दल स्वयं को ऑल इण्डिया अन्ना द्रमुक मुनेत्र कषगम (ए.आई.ए.डी.एम.के) कहने लगा। यह दल स्वयं को द्रविड़ विरासत का असली हकदार बताता था। तमिलनाडु में इन दोनों दलों का दबदबा चार दशकों से बना हुआ है।
(5) 1990 के दशक में एम.डी.एम.के (मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कषगम), पीएमके (पट्टाली मक्काल कच्ची), डीएमडीके (देसिया मुरपोक्कू द्रविड़ कषगम) जैसे कई अन्य दल अस्तित्व में आए। तमिलनाडु की राजनीति में इन सभी दलों ने क्षेत्रीय गौरव के मुद्दे को किसी न किसी रूप में जिन्दा रखा है। एक समय क्षेत्रीय राजनीति को भारतीय राष्ट्र के लिए खतरा माना जाता था। लेकिन तमिलनाडु की राजनीति क्षेत्रवाद तथा राष्ट्रवाद के बीच सहकारिता की भावना का अच्छा उदाहरण पेश करती है।
प्रश्न 5.
भारत के पूर्वोत्तर के किन्हीं दो अलगाववादी आन्दोलनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत के पूर्वोत्तर के दो अलगाववादी आंदोलन निम्न थे मिजो आंदोलन-मिजो पर्वतीय क्षेत्र को स्वतंत्रता के बाद असम के अंतर्गत ही एक स्वायत्त जिला बना दिया गया, परन्तु कुछ मिजो लोगों को यह पसंद नहीं आया। उनका मानना था कि वे कभी भी 'ब्रिटिश इंडिया' के अंग नहीं थे, इसलिए भारत संघ से उनका कोई संबंध नहीं है। 1959 में मिजो इलाके में अकाल पड़ा, जिसे दूर करने में असम सरकार विफल रही, जिसके कारण अलगाववादी आंदोलन को समर्थन मिलना शुरू हो गया।
लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया गया। 1966 में इस फ्रंट ने सशस्त्र आंदोलन शुरू किया, जिसे पाकिस्तान भी समर्थन दे रहा था। दो दशकों तक चले आंदोलन से हर पक्ष को हानि उठानी पड़ी। सन् 1986 में राजीव गाँधी एवं लालडेंगा के बीच एक शांति समझौता हुआ, जिसके अंतर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और कुछ विशेष अधिकार दिए गए। मिजो नेशनल फ्रंट ने अलगाववादी आंदोलन छोड़ दिया और लालडेंगा राज्य के मुख्यमंत्री बने।
असम आन्दोलन: 1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलनों का सबसे अच्छा उदाहरण है। असमी लोगों को संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी।
कुछ आर्थिक मसले भी थे। असम में तेल, चाय और कोयला जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। 1979 में ऑल स्टूडेंट्स यूनियन (आसू - AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोलन चलाया।
'आसू' एक छात्र-संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनैतिक दल से नहीं था। 'आसू' का आंदोलन अवैध अप्रवासी, बंगाली और अन्य लोगों के दबदबे तथा मतदाता सूची में लाखों अप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन की माँग थी कि 1951 के बाद जितने भी असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आंदोलन ने कई नए तरीकों को आजमाया और असमी जनता के हर तबके का समर्थन हासिल किया। इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला। आंदोलन के दौरान हिंसक और त्रासद घटनाएँ भी हुईं। बहुत-से लोगों को जान गँवानी पड़ी और धन-संपत्ति का नुकसान हुआ।
आंदोलन के दौरान रेलगाड़ियों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गई। - छह साल की सतत् अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 'आसू' के नेताओं से बातचीत शुरू की। इसके परिणामस्वरूप 1985 में एक समझौता हुआ।
समझौते के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद 'आस' और असम-गण संग्राम परिषद ने साथ मिलकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम 'असम गण परिषद्' रखा गया। असम गण परिषद् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई कि विदेशी लोगों की समस्या को सुलझा लिया जाएगा और एक 'स्वर्णिम असम' का निर्माण किया जाएगा।
प्रश्न 6.
संक्षेप में स्वतंत्र भारत के समक्ष सन् 1947 से सन् 1991 के मध्य तनाव के दायरे के नामों का उल्लेख कीजिए
उत्तर
तनाव के दायरे:
(i) आजादी के तुरन्त बाद हमारे देश को विभाजन, विस्थापन, देशी रियासतों के विलय और राज्यों के पुनर्गठन जैसे कठिन मसलों से जूझना पड़ा। देश और विदेश के अनेक पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि भारत एकीकृत राष्ट्र के रूप में अधिक दिनों तक रह नहीं पाएगा।
(ii) आजादी के तुरन्त बाद जम्मू; कश्मीर का मसला सामने आया। यह सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का मामला नहीं था। कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ था।
(iii) पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैण्ड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आन्दोलन चले। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आन्दोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठायी थी।
(iv) अलगाव के इन आन्दोलनों के अतिरिक्त देश में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की माँग करते हुए जन-आन्दोलन चले। मौजूदा आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात ऐसे ही आन्दोलनों से बने राज्य हैं।
(v) दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों विशेषकर तमिलनाडु में हिन्दी को राजभाषा बनाने के खिलाफ विरोध-आन्दोलन चला।
(vi) सन् 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से पंजाबी-भाषी लोगों ने अपने लिए एक अलग राज्य बनाने की आवाज उठानी शुरू कर दी। उनकी माँग आखिरकार मान ली गई और सन् 1966 में पंजाब और हरियाणा नाम से राज्य बनाये गये।
(vii) बाद में छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उत्तरांचल(अब उत्तराखण्ड) का गठन हुआ। कहा जा सकता है कि विविधता की चुनौती से निपटने के लिए देश की अंदरूनी सीमा रेखाओं का पुनर्निर्धारण किया गया।
(viii) बहरहाल, इन प्रयासों का मतलब यह नहीं था कि हर परेशानी का हमेशा के लिए हल निकल आया। कश्मीर और नगालैण्ड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि राष्ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्त पंजाब, असम और मिजोरम में नई चुनौतियाँ उभरीं। आज भी देश में कई प्रदेश स्वयं को स्वतंत्र (छोटे) राज्य बनाने का प्रयास कर रहे हैं। तेलंगाना राज्य, हरित प्रदेश आदि ऐसे ही तनाव के नये दायरे हो सकते हैं।
प्रश्न 7.
"स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी राष्ट्रीय अखण्डता से सम्बन्धित कुछ मुद्दे हल नहीं हो पाए हैं।" ऐसे किन्हीं तीन मुद्दों को बताइए जो अभी तक हल नहीं हो पाए हैं।
उत्तर:
आजादी के बाद के पहले दशक में राष्ट्र: निर्माण की प्रक्रिया चली, लेकिन राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया एक ही बार में पूर्ण नहीं हुई। वक्त गुजरने के साथ-साथ नई चुनौतियाँ आईं। कुछ पुराने मुद्दे ऐसे थे कि उनका समाधान पूरी तरह से नहीं हो सका था। इन संघर्षों में लोगों ने आक्रामक तेवर अपनाए और हथियार भी उठाए। जो मुद्दे अभी तक हल नहीं हो पाए हैं उनमें से तीन मुद्दे इस प्रकार हैं।
(1) जम्मू और कश्मीर का मुद्दा: 'कश्मीर मुद्दा' भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा मुद्दा रहा है लेकिन इस राज्य की राजनीतिक स्थिति के बहुत से आयाम हैं। 'कश्मीर मुद्दा' भारत और पाकिस्तान के बीच केवल विवाद भर नहीं है, इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है। इसके साथ ही जम्मू - कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता का मुद्दा भी इसी से जुड़ा हुआ है।
उस समय से जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति सदैव विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही है जब इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया। 2019 में धारा 370 को समाप्त कर दिया गया है। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है।
उसने सदैव यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। स्वायत्तता की बात जम्मू और लद्दाख के लोगों को अलग - अलग ढंग से लुभाती है। इस क्षेत्र के लोगों की एक आम शिकायत उपेक्षा भरे बरताव और पिछड़ेपन को लेकर है। इस वजह से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी - अपनी स्वायत्तता को लेकर है।
अलग राष्ट्र की माँग की जगह अब अलगाववादी समूह अपनी बातचीत में भारत संघ के साथ कश्मीर के रिश्ते को पुनर्परिभाषित करने पर जोर दे रहे हैं। 5 अगस्त 2019 को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया और राज्य को पुनर्गठित कर दो केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख बना दिए गए।
(2) नगालैण्ड का अलगाववादी माँगों का मुद्दा: स्वायत्तता की माँगों से निपटना आसान था क्योंकि संविधान में विभिन्नताओं का समाहार संघ में करने के लिए प्रावधान पहले से विद्यमान थे, लेकिन जब कुछ समूहों ने अलग देश बनाने की माँग की और वह भी किसी क्षणिक आवेश में नहीं बल्कि सिद्धान्तगत तैयारी के साथ, तो इस माँग से निपटना मुश्किल हो गया। देश के नेतृत्व को पूर्वोत्तर के दो राज्यों में अलगाववादी माँग का लम्बे समय तक सामना करना पड़ा। इन दो मामलों की आपसी तुलना हमें लोकतांत्रिक राजनीति के कुछ सबक सिखाती है।
नगालैण्ड का अलगाववादी आन्दोलन ज्यादा पुराना है और अब भी इसका मिजोरम की तरह खुशगवार हल नहीं निकल पाया है। अंगमी जापू फिजो के नेतृत्व में नगा लोगों के एक समूह ने सन् 1951 में अपने को भारत से आजाद घोषित कर दिया था। फिजो ने बातचीत के कई प्रस्ताव ठुकराए। हिंसक विद्रोह के एक दौर के बाद नगा लोगों के एक समूह ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए लेकिन अन्य विद्रोहियों ने इस समझौते को नहीं माना। नगालैण्ड की समस्या का समाधान होना अब भी बाकी है।
(3) आप्रवास या 'बाहरी' लोगों का मुद्दा-पूर्वोत्तर में व्यापक स्तर पर अप्रवासी आए हैं। इससे एक विशेष प्रकार की समस्या उभरी है। स्थानीय जनता इन्हें 'बाहरी' समझती है और 'बाहरी' लोगों के विरुद्ध उनके मन में रोष की भावना है। भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आए लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के विषय में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मसले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी-कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं।
असम गण परिषद् सन् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आयी थी कि विदेशी लोगों की समस्या को सुलझा लिया जाएगा और एक 'स्वर्णिम असम' का निर्माण किया जाएगा। असम समझौते से शान्ति कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का दृश्य भी बदला लेकिन 'आप्रवास' की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। 'बाहरी' का मुद्दा अब भी असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की, राजनीति में एक जीवंत मसला है। मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लोगों में चकमा शरणार्थियों को लेकर क्रोध है। त्रिपुरा के मूल निवासी खुद अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक बन गए हैं।
प्रश्न 8.
स्वतंत्रता के बाद पिछले छह दशकों में राष्ट्रीय एकता से संबंधित सीखे पाठों में से किन्हीं चार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पहला और बुनियादी सबक तो यही है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्यक्ति कोई असामान्य अथवा लोकतांत्रिक राजनीति के व्याकरण से बाहर की घटना नहीं है। ग्रेट ब्रिटेन जैसे छोटे देश में भी स्कॉटलैण्ड, वेल्स और उत्तरी आयरलैण्ड में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभरी हैं। स्पेन में बास्क लोगों और श्रीलंका में तमिलों ने अलगाववादी माँग की। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ विभिन्नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं। अत: भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी।
दूसरा सबक यह है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की जगह उनके साथ लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका अपनाना सबसे अच्छा होता है। जरा अस्सी के दशक की तरह नजर दौड़ाएँ-पंजाब में उग्रवाद का जोर था, पूर्वोत्तर में समस्याएँ बनी हुई थीं, असम के छात्र आंदोलन कर रहे थे और कश्मीर घाटी में माहौल अशांत था। इन मसलों को सरकार ने कानून-व्यवस्था की गड़बड़ी का साधारण मामला मानकर पूरी गम्भीरता दिखाई। बातचीत के जरिए सरकार ने. क्षेत्रीय आन्दोलनों के साथ समझौता किया। इससे सौहार्द्र का माहौल बना और कई क्षेत्रों में तनाव कम हुआ। मिजोरम के उदाहरण से पता चलता है कि राजनीतिक सुलह के जरिए अलगाववाद की समस्या से बड़े कारगर तरीके से निपटा जा सकता है।
तीसरा सबक है सत्ता की साझेदारी के महत्व को समझना। सिर्फ लोकतांत्रिक ढाँचा खड़ा कर लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही विभिन्न क्षेत्रों के दलों और समूहों को केन्द्रीय राजव्यवस्था में हिस्सेदार बनाना भी जरूरी है। ठीक इसी तरह यह कहना भी नाकाफी है कि किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र को उसके मामलों में स्वायत्तता दी गई है। क्षेत्रों को मिलाकर ही पूरा देश बनता है। इसी कारण देश की नियति के निर्धारण के क्षेत्रों की बातों को वजन दिया जाना चाहिए। यदि राष्ट्रीय स्तर के निर्णयों में क्षेत्रों को वजन नहीं दिया गया तो उनमें अन्याय और अलगाव का बोध पनपेगा।
चौथा सबक यह है कि आर्थिक विकास के एतबार से विभिन्न इलाकों के बीच असमानता हुई तो पिछड़े क्षेत्रों को लगेगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। भारत में आर्थिक विकास प्रक्रिया का एक तथ्य क्षेत्रीय असंतुलन भी है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पिछड़े प्रदेशों अथवा कुछ प्रदेशों के पिछड़े इलाकों को लगे कि उनके पिछड़ेपन को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए।
वे यह भी कह सकते हैं कि भारत सरकार ने जो नीतियाँ अपनायी हैं उसी के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हुआ है। अगर कुछ राज्य गरीब रहें और बाकी तेजी से प्रगति करें तो क्षेत्रीय असंतुलन पैदा होगा। साथ ही अंतन्तिीय अथवा अंतर्खेत्रीय आप्रवास में भी बढ़ोत्तरी होगी।
प्रश्न 9.
भारतीय राजनीति में अलगाववादी आंदोलन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीति में अलगाववादी आंदोलन: हमारे देश को पूर्वोत्तर के दो राज्यों में अलगाववादी आंदोलन का लम्बे समय तक सामना करना पड़ा। जिनका वर्णन निम्नानुसार है।
स्वतंत्रता के पश्चात मिजो पर्वतीय क्षेत्र को असम के भीतर ही एक स्वायत्त जिला बना दिया गया था। कुछ मिजो लोगों का मानना था कि वे कभी भी ब्रिटिश इंडिया के अंग नहीं रहे इसलिए भारत संघ से उनका कोई नाता नहीं है। 1959 में मिजो पर्वतीय क्षेत्रों में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबंध करने में नाकाम रही। इसी के बाद अलगाववादी आंदोलन को जनसमर्थन मिलना शुरू हुआ। मिजो लोगों ने गुस्से में आकर लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया।
1966 में मिजो नेशनल फ्रंट ने स्वतंत्रता की माँग करते हुए सशस्त्र अभियान शुरू किया। इस तरह भारतीय सेना और मिजो विद्रोहियों के बीच दो दशक तक चली लड़ाई की शुरुआत हुई। मिजो नेशनल फ्रंट ने गुरिल्ला युद्ध किया। उसे पाकिस्तान की सरकार ने समर्थन दिया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में मिजो विद्रोहियों ने अपने ठिकाने बनाए। भारतीय सेना ने विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की। इसमें आम जनता को भी कष्ट उठाने पड़े।
एक बार वायुसेना तक का इस्तेमाल किया गया। सेना के इन कदमों से स्थानीय लोगों में क्रोध और अलगाव की भावना और तेज हुई। दो दशकों तक चली बगावत में प्रत्येक पक्ष को हानि उठानी पड़ी। इसी बात को भांपकर निर्वासित जीवन जी रहे लालडेंगा भारत आए और उन्होंने भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू की। राजीव गाँधी ने इस बातचीत को एक सकारात्मक समाधान तक पहुँचाया। 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक शांति समझौता हुआ। समझौते के अन्तर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और उसे कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए गए। मिजो नेशनल फ्रंट अलगाववादी संघर्ष की राह छोड़ने पर तैयार हो गया।
लालडेंगा मुख्यमंत्री बने। यह समझौता मिजोरम के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। आज मिजोरम पूर्वोत्तर का सबसे शांतिपूर्ण राज्य है और उसने कला, साहित्य तथा विकास की दिशा में बहुत प्रगति की है। नगालैंड की कहानी भी मिजोरम की तरह है लेकिन नगालैंड का अलगाववादी आंदोलन अधिक पुराना है और अभी इसका मिजोरम की तरह खुशगवार हल नहीं निकल पाया है।
अंगमी जापू फिजो के नेतृत्व में नगा लोगों के एक वर्ग ने 1957 में अपने को भारत से आजाद घोषित कर दिया था। फिजो ने बातचीत के कई प्रस्ताव ठुकराए। हिंसक विद्रोह के एक दौर के बाद नगा लोगों के एक वर्ग ने. भारत सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, लेकिन अन्य विद्रोहियों ने इस समझौते को नहीं माना। नगालैंड की समस्या का समाधान होना अब भी बाकी है।
विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये इस अध्याय से सम्बन्धित प्रश्न:
प्रश्न 1.
किस घटना ने पेरियार को नास्तिक बनाया?
(अ) आत्सम्मान आंदोलन ने
(ब) काशी तीर्थयात्रा की घटना ने
(स) द्रविड़ राष्ट्रीय आंदोलन ने
(द) समाज में भेदभाव के कारण
उत्तर:
(अ) आत्सम्मान आंदोलन ने
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्यों की सीमाओं में क्षेत्रीय परिवर्तन किये जा सकते हैं।
(अ) राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा।
(ब) राज्य के बहुमत की सहमति से संसद द्वारा
(स) संसद के विधेयक द्वारा
(द) परिवर्तन से प्रभावित प्रान्तों की सहमति से संसद द्वारा।
उत्तर:
(स) संसद के विधेयक द्वारा
प्रश्न 3.
संविधान के किस अनुच्छेद के तहत् जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान किया गया है?
(अ) अनुच्छेद 370
(ब) अनुच्छेद 375
(स) अनुच्छेद 378
(द) अनुच्छेद 356.
उत्तर:
(अ) अनुच्छेद 370
प्रश्न 4.
भारत - पाक सम्बन्धों की मुख्य समस्या है।
(अ) कश्मीर विवाद
(ब) सरक्रीक लाइन विवाद
(स) नदी के जल का बँटवारा
(द) नि:शस्त्रीकरण
उत्तर:
(अ) कश्मीर विवाद
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन - सा एक भारत - पाकिस्तान विवाद नहीं है?
(अ) सियाचिन विवाद
(ब) सरक्रीक विवाद
(स) क्रॉस बोर्डर आतंकवाद
(द) दाहग्राम विवाद
उत्तर:
(द) दाहग्राम विवाद