Rajasthan Board RBSE Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय Important Questions and Answers.
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वस्तुनिष्ठ प्रश्न:
प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन की शुरुआत किस राज्य से हुई।
(अ) मध्य प्रदेश
(ब) झारखण्ड
(स) उत्तराखण्ड
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) उत्तराखण्ड
प्रश्न 2.
हरित क्रान्ति के बाद कौन - सी दो फसलें मुख्य नकदी फसलें बनीं।
(अ) गेहूँ और चना
(ब) गन्ना और गेहूँ
(स) चना और गन्ना
(द) कपास और गेहूँ।
उत्तर:
(ब) गन्ना और गेहूँ
प्रश्न 3.
गोलपीठ की मराठी कविता के लेखक कौन हैं।
(अ) मैथिलीशरण गुप्त
(ब) रवीन्द्र नाथ टैगोर
(स)) नामदेव ढसाल
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स)) नामदेव ढसाल
प्रश्न 4.
मराठी के प्रसिद्ध कवि नामदेव ढसाल ने सूरजमुखी आशीषों वाला फकीर शब्द किसके लिए प्रयोग किया है?
(अ) पं. जवाहरलाल नेहरू
(ब) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(स) मैथिलीशरण गुप्त।
(द) डॉ. भीमराव अम्बेडकर
उत्तर:
(द) डॉ. भीमराव अम्बेडकर
प्रश्न 5.
निम्न में से किस राज्य से ताड़ी विरोधी आन्दोलन का सम्बन्ध था।
(अ) राजस्थान
(ब) महाराष्ट्र
(स) उत्तर प्रदेश
(द) आन्ध्र प्रदेश।
उत्तर:
(द) आन्ध्र प्रदेश।
प्रश्न 6.
निम्न में से किस वर्ष सूचना के अधिकार को राष्टपति ने अपनी मंजूरी प्रदान की।
(अ) सन् 2005 में
(ब) सन् 2006 में
(स) सन् 2009 में
(द) सन् 2011 में।
उत्तर:
(अ) सन् 2005 में
अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न:
प्रश्न 1.
'चिपको आन्दोलन' क्या था?
उत्तर:
यह पेड़ या वनों को कटाई से बचाने वाला आन्दोलन था जो 1973 में उत्तराखण्ड राज्य के कुछ गाँवों में शुरू हुआ था।
प्रश्न 2.
'चिपको आन्दोलन' ने किस सर्वाधिक अनूठे पहलू को उजागर किया?
उत्तर:
चिपको आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी इस आन्दोलन का सर्वाधिक अनूठा पहलू था।
प्रश्न 3.
'दल आधारित आन्दोलनों' से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
ऐसे आन्दोलन जिन्हें किसी राजनीतिक दल या दलों का समर्थन प्राप्त हो, दल आधारित आन्दोलन कहलाते हैं।
प्रश्न 4.
'दलित पैंथर्स' क्या था?
उत्तर:
दलित हितों की दावेदारी के क्रम में महाराष्ट्र में सन् 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन दलित पैंथर्स बना।
प्रश्न 5.
दलित पैंथर्स का मुख्य लक्ष्य क्या था?
उत्तर:
दलित पैंथर्स का मुख्य लक्ष्य था दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाना और जाति आधारित असमानता और अन्याय का विरोध करना।
प्रश्न 6.
भारतीय किसान यूनियन से सम्बन्धित किसान, देश के अधिकांश अन्य किसानों से कैसे भिन्न थे?
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन से सम्बन्धित किसानों का आन्दोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। इस संगठन के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उगाते थे।
प्रश्न 7.
'ताड़ी विरोधी आन्दोलन' क्या था?
अथवा
ताड़ी विरोधी आन्दोलन किस राज्य से संबंधित है?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के दुबरगंटा गाँव की महिलाओं द्वारा ताड़ी (शराब) की बिक्री के विरोध में किए गए आन्दोलन को ताड़ी विरोधी आन्दोलन कहा जाता है।
प्रश्न 8.
आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के ताड़ी आन्दोलन में महिलाओं ने क्या किया था?
उत्तर:
महिलाओं ने ताड़ी की ब्रिकी के खिलाफ दुकानें बंद करायीं एवं प्रतिबन्ध प्रस्ताव जिला कलेक्टर को भेजा।
प्रश्न 9.
सरदार सरोवर परियोजना को कब और कहाँ प्रारम्भ किया गया था?
उत्तर:
सन् 1980 दशाब्दी के प्रारम्भ में सरदार सरोवर परियोजना को नर्मदा घाटी में प्रारम्भ किया गया था।
प्रश्न 10.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित किन्हीं दो आन्दोलनों के नाम बताइए।
उत्तर:
प्रश्न 11.
'सूचना का अधिकार' विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति कब मिली?
उत्तर:
'सूचना के अधिकार' सम्बन्धी विधेयक सदन के पटल पर सन् 2002 में रखा गया तथा जनवरी 2005 में इस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली।
प्रश्न 12.
महेन्द्र सिंह टिकैत कौन थे?
उत्तर:
भारत किसान यूनियन के अध्यक्ष।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न (SA1):
प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन क्या था? अथवा चिपको आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
उत्तराखण्ड के कुछ गाँवों में जंगलों की कटाई के विरोध में उपजे विवाद ने किस प्रकार एक प्रसिद्ध आन्दोलन का रूप ग्रहण कर लिया?
उत्तर:
वर्तमान उत्तराखण्ड राज्य के स्त्री - पुरुषों की एकजुटता ने सन् 1973 में पेड़ों को कटने से बचाने के लिए वनों की व्यावसायिक कटाई का विरोध किया। गाँववासियों ने अपने विरोध को प्रकट करने के लिए एक अलग तरीका सोचा। इन लोगों ने पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उन्हें अपनी बाँहों में लपेट लिया। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरणीय आन्दोलन के रूप में बदल गया तथा 'चिपको आन्दोलन' के रूप में विश्व - प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न 2.
चिपको आन्दोलन की मुख्य माँग क्या थी?
उत्तर:
1973 में उत्तराखण्ड के दो - तीन गाँवों में चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। इस आन्दोलन में क्षेत्र की पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के बड़े सवाल उठे थे। आन्दोलनकारियों की मुख्य माँग थी कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा
प्रश्न 3.
"जन आन्दोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं।" उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं तथा अक्सर ये आन्दोलन दोनों ही रूपों के मेल से बने नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, हम अपने स्वाधीनता आन्दोलन को ही लें। यह प्रमुख रूप से राजनीतिक आन्दोलन था लेकिन हम जानते हैं कि औपनिवेशक दौर में सामाजिक तथा आर्थिक मसलों पर भी विचार मंथन चला जिससे कई स्वतंत्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ, जैसे-जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, किसान सभा आन्दोलन तथा मजदूर संगठनों का आन्दोलन आदि।
प्रश्न 4.
जन आन्दोलनों ने किस प्रकार लोकतंत्र की रक्षा की है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलनों का इतिहास हमें लोकतांत्रिक राजनीति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है। इन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की बुराइयों को दूर करना था। इस रूप में, इन आन्दोलनों को देश की लोकतांत्रिक राजनीति के महत्वपूर्ण भाग के रूप में देखा जाना चाहिए। सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी परेशानियों को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।
प्रश्न 5.
'दल आधारित आन्दोलन' से आपका क्या अभिप्राय है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
ऐसे आन्दोलन जिन्हें शक्ति मुख्य राजनीतिक दलों से प्राप्त हो, दल आधारित आन्दोलन कहलाते हैं। मुम्बई, कोलकाता तथा कानपुर जैसे बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आन्दोलन का बड़ा जोर था। सभी बड़ी पार्टियों ने इस वर्ग के मजदूरों को लामबंद करने के लिए अपने - अपने मजदूर संगठन बनाए। स्वतंत्रता के पश्चात् के प्रारम्भिक वर्षों ङ्के में आन्ध प्रदेश को तेलंगाना क्षेत्र के किसान कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में लामबंद हुए। उन्होंने काश्तकारों बीच जमीन के पुनर्वितरण की माँग की। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा बिहार के कुछ भागों में किसान और मजदूरों ने अपना विरोध जारी रखा।
प्रश्न 6.
दलित पैंथर्स कौन थे? उनका उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
दलित पैंथर्स दलित युवाओं का एक संगठन था। इस संगठन में अधिकांशतया शहरों की मलिन बस्तियों में रहने वाले युवा व्यक्ति थे। इनके निम्नलिखित उद्देश्य थे
प्रश्न 7.
दलित पैंथर्स की किन्हीं दो गतिविधियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
(i) दलित पैंथर्स जाति आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि मंत्रिमंडल में जाति आधारित किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध गारंटी दी गई है।
(ii) महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों पर हो रहे अत्याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की एक मुख्य गतिविधि थी। इस संगठन ने दलितों पर हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर लगातार विरोध आन्दोलन चलाया।
प्रश्न 8.
भारत सरकार की किस कार्यवाही से मछुआरों के जीवन में एक बड़ा संकट खड़ा हो गया?
उत्तर:
सरकार ने जब मशीनीकृत मत्स्य आखेट और भारतीय समुद्र में बड़े पैमाने पर मत्स्य दोहन के लिए 'बॉटम ट्राऊलिंग' जैसी प्रौद्योगिकी के उपयोग की अनुमति दी तो मछुआरों के जीवन और आजीविका के समक्ष एक संकट आ खड़ा हुआ।
प्रश्न 9.
भारतीय किसान यूनियन ने अपनी माँगें मनवाने के लिए कौन - कौन सी कार्यवाहियाँ की?
उत्तर:
सरकार पर अपनी मांगों को मनवाने के लिए दबाव डालने के क्रम में भारतीय किसान यूनियन ने रैली, धरना, प्रदर्शन तथा जेल भरो अभियान का सहारा लिया। इन कार्यवाहियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उसके आसपास के इलाके के गाँवों के हजारों किसानों ने भाग लिया। पूरे अस्सी के दशक भर भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने राज्य के कई जिला मुख्यालयों पर इन किसानों की विशाल रैली का आयोजन किया। देश की राजधानी दिल्ली में भी बीकेयू ने रैली आयोजित की।
प्रश्न 10.
भारतीय किसान यूनियन की किन्हीं दो विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
प्रश्न 11.
1980 के पश्चात भारतीय किसान यूनियन द्वारा की गई किन्हीं चार माँगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन की प्रमुख माँगें निम्नलिखित थीं।
प्रश्न 12.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन की किन्हीं दो मुख्य मांगों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ताड़ी विरोधी आन्दोलन की दो मुख्य माँगें निम्न प्रकार से हैं।
प्रश्न 13.
स्वयंसेवी संगठनों से क्या तात्पर्य है? इनके कार्यों की प्रकृति किस प्रकार की थी?
उत्तर:
मध्य वर्ग के युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के गरीब लोगों के बीच रचनात्मक कार्यक्रम और सेवा संगठन चलाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यों की प्रकृति स्वयंसेवी थी इसलिए इन संगठनों को स्वयंसेवी संगठन अथवा स्वयंसेवी क्षेत्र का संगठन कहा गया। ऐसे स्वयंसेवी संगठनों ने अपने को दलगत राजनीति से दूर रखा। स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये संगठन न तो चुनाव लड़े और न ही इन्होंने एक राजनीतिक दल को अपना समर्थन दिया।
प्रश्न 14.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की किन्हीं दो मुख्य माँगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की दो प्रमुख माँगें निम्नलिखित हैं।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न (SA2):
प्रश्न 1.
जन आन्दोलन का क्या अर्थ है? दल समर्थित (दलीय) और स्वतंत्र (निर्दलीय) आन्दोलनों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलन: प्रजातांत्रिक मर्यादाओं तथा संवैधानिक नियमों के आधार पर तथा सामाजिक शिष्टाचार से संबंधित नियमों के पालन सहित सरकारी नीतियों, कानून व प्रशासन सहित किसी मसले पर व्यक्तियों के समूह अथवा समूहों के द्वारा असहमति प्रकट किया जाना जन-आन्दोलन कहलाता है। इन आन्दोलनों के अन्तर्गत प्रदर्शन, नारेबाजी, जुलूस जैसे क्रियाकलाप सम्मिलित हैं।
इस प्रकार के जन आन्दोलनों में दल समर्थित (दलीय) और स्वतंत्र (निर्दलीय) आन्दोलनों का स्वरूपं इस प्रकार है।
(i) दल आधारित (दलीय) आन्दोलन-जब किसी राजनैतिक दल अथवा राजनैतिक दलों से समर्थन प्राप्त समूहों द्वारा आन्दोलन संचालित किए जाते हैं तो इन्हें दलीय आन्दोलन कहा जाता है, जैसे-जाति विरोधी आन्दोलन, छुआछूत विरोधी आन्दोलन आदि। किसान सभा आन्दोलन एक दलीय आन्दोलन था। दलीय आन्दोलन संगठित प्रकृति के आन्दोलन होते हैं।
(ii) स्वतंत्र (निर्दलीय) आन्दोलन-सरकार की नियोजित व्यवस्था के असफल होने व लोकतांत्रिक संस्था में अविश्वास की स्थिति उत्पन्न होने व चुनाव आधारित राजनीति बन जाने के कारण ये आन्दोलन अस्तित्व में आते हैं। ये आन्दोलन असंगठित लोगों के समूह द्वारा संचालित निर्दलीय आन्दोलन होते हैं, जैसे-चिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन आदि। इस श्रेणी में ङ्केबहुत से कर्मचारी यूनियनों, व्यावसायिक संघों आदि द्वारा संचालित आन्दोलन शामिल हैं।
प्रश्न 2.
जन आंदोलनों के किन्हीं तीन लाभों तथा तीन हानियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलनों के लाभ
जन आन्दोलनों से हानियाँ:
प्रश्न 3.
जन आन्दोलनों के किन्हीं छः लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1. लोकप्रिय जन आन्दोलनों का इतिहास लोकतांत्रिक राजनीति की प्रकृति को समझने में हमारी मदद करता है।
2. लोकप्रिय जन आन्दोलन विभिन्न समूहों और उनकी माँगों के प्रभावी प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करते हैं। यह सामाजिक संघर्ष को गहरा और उनके समूह की असंतोष की संभावना को कम करते हैं। लोकप्रिय आन्दोलन भागीदारी के नए रूप को विचारोत्तेजक करते हैं।
3. इन जन आन्दोलनों के द्वारा जुटाए समूहों में से सबसे अधिक आर्थिक और सामाजिक रूप से गरीबों का हित सुरक्षित होता है। समाज के पिछड़े वर्गों की उपभोग प्रवृत्ति और विधियों का लोकतांत्रिक पद्धति में पर्याप्त स्थान नहीं है। जन आन्दोलन इनमें प्रतिनिधित्व की लड़ाई लड़ते हैं।
4. इस प्रकार के जन आन्दोलन युद्धों और लड़ाई को दरकिनार करके चुनावी मैदान से बाहर लोकप्रियता जुटाते हैं।
5. भारत में सामाजिक जन आन्दोलनों से लोकतंत्र के विस्तार में सहायता मिलती है, जैसे- सूचना का अधिकार।
6. जन आन्दोलन के परिणामस्वरूप सदियों से दबाया जाने वाला स्त्री वर्ग मुखर होकर सामने आया है।
प्रश्न 4.
चिपको आन्दोलन के किन्हीं दो सकारात्मक पक्षों का आकलन कीजिए।
उत्तर:
चिपको आन्दोलन के दो सकारात्मक पक्ष इसलिए महत्वपूर्ण हैं।
1. चिपको आन्दोलन अपने प्रभाव क्षेत्र की पारिस्थितिकी से जुड़ा बड़ा सवाल उठाने वाला आन्दोलन है। आन्दोलन में भागीदार लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँहों में घेर लिया था जिससे उन्हें कटने से बचाया जा सके। पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता का यह भाव उस आन्दोलन का सबसे प्रमुख सकारात्मक पहलू है जिसके प्रभाव को आज अच्छी तरह महसूस किया जा रहा है।
2. चिपको आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी इस आन्दोलन की दूसरी सकारात्मकता है। यह इस आन्दोलन से जुड़ा एक नया पहलू था। महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी आवाज बुलन्द की। महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने ही चिपको आन्दोलन को सफल बनाया था। इसी सकारात्मकता के कारण यह आन्दोलन सत्तर के दशक और उसके बाद के सालों में देश में जन आन्दोलनों का प्रतीक बन गया।
प्रश्न 5.
नामदेव ढसाल कौन थे? उनके दलित पैंथर्स समर्थक विचारों का वर्णन उनकी एक मराठी कविता के आधार पर कीजिए।
उत्तर:
नामदेव ढसाल मराठी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने अनेक रचनाएँ लिखीं जिनमें से गोलपीठ की मराठी कविता प्रसिद्ध है।
नामदेव ढसाल के विचार:
प्रश्न 6.
'दलित पँथर्स' नामक संगठन का गठन कहाँ और कब हुआ? इसकी किन्हीं तीन गतिविधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अपने मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में दलित युवाओं का एक संगठन 'दलित पैंथर्स' सन् 1972 में बना।
प्रश्न 7.
भारतीय किसान आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय किसान आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
प्रश्न 8.
भारतीय किसान यूनियन के उदय के कारण व विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन उत्तर भारत के किसानों का एक मजबूत संगठन माना जाता है। सन् 1988 में मेरठ में लगभग 20,000 किसान एकत्र हुए थे। ये लोग बिजली की दरों में की गई बढ़ोत्तरी का विरोध कर रहे थे। किसानों ने तीन हफ्तों तक जिला समाहर्ता के कार्यालय पर धरना दिया, जिसके बाद इनकी माँग मान ली गई। यह आन्दोलन बड़ा अनुशासित था। इस आन्दोलन को नजदीक के गाँवों से खाना-पीना मिलता रहा। यह धरना किसान शक्ति का एक बड़ा प्रदर्शन माना गया। धरने पर बैठे सदस्य भारतीय किसान यूनियन के सदस्य थे। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाति विशेष किसानों का एक संगठन है। इस यूनियन ने गन्ने एवं गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी करने, कृषि उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय आवागमन पर लगी रोक हटाने, किसानों के कर्ज माफ करने, निरंतर बिजली आपूर्ति करने एवं किसानों के लिए पेंशन की माँग की।
विशेषताएँ:
प्रश्न 9.
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम के उदय तथा उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम के विषय में आप क्या जानते हैं? इसकी नीतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम: देश के पूर्वी और पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में देशी मछुआरों के समुदाय मत्स्य व्यवसाय ' में संलग्न हैं। सरकार ने जब मशीनीकृत मत्स्य - आखेट तथा भारतीय समुद्र में व्यापक स्तर.पर मत्स्य दोहन के लिए 'बॉटम ट्राऊलिंग' जैसी तकनीकी के उपयोग की अनुमति दी तो मछुआरों के जीवन तथा आजीविका का संकट आ खड़ा हुआ। तब मछुआरों के स्थानीय स्तर के संगठन सन् 1970 और 1980 के दशक में अपने मुद्दों को लेकर राज्य सरकारों से लड़ते रहे। सन् 1980 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में आर्थिक उदारीकरण की नीति प्रारम्भ हुई तो मछुआरों ने मजबूर होकर अपना एक राष्ट्रीय मंच स्थापित किया।
इसी का नाम 'नेशनल फिश वर्कर्स फोरम' (एन.एफ.एफ.) रखा गया। केरल के मछुआरों ने व्यवसाय से जुड़े साथियों को एकत्र करने की प्रमुख जिम्मेदारी संभाली। इसमें मत्स्य व्यवसाय से जुड़ी दूसरे राज्यों की महिलाओं को भी संगठित किया गया। नेशनल फिश वर्कर्स फोरम ने सन् 1997 में केन्द्र सरकार के साथ अपनी पहली कानूनी लड़ाई लड़ी तथा इसमें उसे सफलता प्राप्त हुई। एनएफएफ की यह लड़ाई केन्द्र सरकार की एक विशिष्ट नीति के विरुद्ध थी। इस नीति के अन्तर्गत व्यावसायिक जहाजों को गहरे समुद्र में मछली मारने की अनुमति दी गयी थी। इस कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए इस क्षेत्र के दरवाजे खुल गए थे। जुलाई 2002 में एनएफएफ ने एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। हड़ताल का यह आह्वान विदेशी कम्पनियों को सरकार द्वारा मछली मारने के लाइसेंस जारी करने के विरोध में किया गया था।
प्रश्न 10.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से तात्पर्य-बीसवीं सदी के आठवें दशक के प्रारम्भ में भारत के मध्य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के अन्तर्गत मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा व उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मँझोले और 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। इन निर्माणों के दुष्प्रभावों को देखते हुए नर्मदा बाँध परियोजना के विरुद्ध नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। इस नर्मदा बचाओ आन्दोलन की कार्य-योजना से संबंधित प्रमुख बातें इस प्रकार हैं।
(i) गुजरात के सरदार सरोवर तथा मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे विस्तृत तथा बहु-उद्देशीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन ने बाँधों के निर्माण का विरोध किया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, इन बाँधों के निर्माण के साथ-साथ देश में चल रही विकास परियोजनाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाता रहा है।
(ii) सरदार सरोवर परियोजना के अन्तर्गत एक बहु: उद्देशीय विशाल बाँध बनाने का प्रस्ताव है। बाँध समर्थकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्से सहित तीन पड़ोसी राज्यों में पीने के पानी, सिंचाई, बिजली के उत्पादन की सुविधा उपलब्ध कराई जा सकेगी और कृषि उपज में गुणात्मक वृद्धि होगी। बाँध की उपयोगिता को इस बात से भी संबंधित किया जा रहा था कि इससे बाढ़ व सूखे की आपदाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा।
(iii) प्रस्तावित बाँध के निर्माण से संबंधित राज्यों के 245 गाँव डूब (जलमग्न) के क्षेत्र में आ रहे थे। इसलिए प्रभावित गाँवों के लगभग 2.5 लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सर्वप्रथम स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया। इन गतिविधियों को एक आन्दोलन का स्वरूप 1988 - 89 के दौरान मिला जब अनेक स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों ने स्वयं को नर्मदा बचाओ आन्दोलन के रूप में गठित किया।
प्रश्न 11.
'नर्मदा बचाओ आन्दोलन' के पक्ष और विपक्ष में कोई दो-दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन के पक्ष और विपक्ष में तर्क इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
प्रश्न 12.
सरदार सरोवर परियोजना क्या है? यदि वह परियोजना सफल हो जाए, तो इससे किन लाभों की अपेक्षा की जाती है? इससे संबंधित पुनर्राबंटन एवं पुनर्वास के मुद्दों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) सरदार सरोवर परियोजना:
(2) सरदार सरोवर परियोजना से मिलने वाले लाभ:
(3) सरदार सरोवर परियोजना से संबंधित पुनर्राबंटन तथा पुनर्वास के मुद्दे:
प्रश्न 13.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की आलोचनात्मक समीक्षा अथवा मूल्यांकन।
(i) सन् 2003 में स्वीकृत राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ आन्दोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन सफलता के साथ ही नर्मदा बचाओ आन्दोलन को बाँध निर्माण पर रोक लगाने की मांग उठाने पर व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा है।
(ii) आन्दोलन ने अपनी माँगें रखने के लिए यथासंभव लोकतांत्रिक रणनीति का प्रयोग किया। आन्दोलन ने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक से उठाई। आन्दोलन की समझ को जनता के सामने रखने के लिए सार्वजनिक रैलियों व सत्याग्रह जैसे तरीके भी प्रयोग किए गए।
(iii) आन्दोलन का अड़ियल रवैया विकास की प्रक्रिया, पानी की उपलब्धता तथा आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में सरकार को बाँध का काम आगे बढ़ाने के निर्देश दिए हैं परन्तु साथ ही उसे यह आदेश भी दिया कि प्रभावित लोगों का पुनर्वास उचित ढंग से किया जाए।
(iv) नवें दशक के अन्त तक इस आन्दोलन से कई अन्य स्थानीय समूह व आन्दोलन भी आकर जुड़ गए। ये सभी आन्दोलन अपने-अपने क्षेत्रों में विकास की वृहत् परियोजनाओं का विरोध करते थे।
प्रश्न 14.
भारत में पर्यावरणीय आन्दोलन द्वारा किए गए प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में पर्यावरण संरक्षण हेतु विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से निम्नलिखित प्रयास किए गए।
प्रश्न 15.
"भारत में सामाजिक आन्दोलन लोकतंत्र में बाधक होने की अपेक्षा उसके विस्तार में सहायक रहे हैं।" व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत में सामाजिक आन्दोलन लोकतंत्र के विस्तार में सहायक रहे हैं। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
प्रश्न 16.
जन आन्दोलनों की प्रमुख कमियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलनों की प्रमुख कमियाँ एवं त्रुटियाँ: जन आन्दोलनों की प्रमुख कमियों का वर्णन अग्रांकित है।
(i) जन आन्दोलनों के माध्यम से लामबंद की जाने वाली जनता सामाजिक व आर्थिक रूप से वंचित व अधिकारहीन वर्गों से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जन आन्दोलनों द्वारा अपनाए गए तौर - तरीकों से पता चलता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन वंचित समूहों को अपनी बात प्रकट करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता था।
(ii) इन आन्दोलन का कुल असर सार्वजनिक नीतियों पर काफी सीमित रहा क्योंकि समकालीन सामाजिक आन्दोलन किसी एक मुद्दे के आसपास ही जनता को लामबंद करते हैं। इस प्रकार समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर पाते हैं।
(iii) लोकतांत्रिक राजनीति वंचित वर्गों के व्यापक गठबंधन को लेकर ही चलती है परन्तु जन-आन्दोलनों के नेतृत्व में यह बात संभव नहीं हो पाती।
(iv) पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों व जन आन्दोलन का परस्पर संबंध कमजोर होता गया है। इससे राजनीति में एक सूनेपन का माहौल आया है तथा यह एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है।
प्रश्न 17.
जन आन्दोलन के द्वारा पढ़ाए जाने वाले प्रमुख सबकों या पाठों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत में लोकप्रिय जन-आन्दोलनों से सीखे सबकों (पाठों) का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलन के सबक या पाठ-जन आन्दोलन के द्वारा पढ़ाए जाने वाले प्रमुख सबक या पाठ निम्नलिखित हैं।
(i) जन आन्दोलन के द्वारा लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिली है। जनसाधारण, नेता, स्त्री-पुरुष, छात्र-छात्राएँ, कृषक, मजदूर आदि इन आन्दोलनों के द्वारा सीख गए हैं कि लोकतंत्र में अन्तिम सत्ता जनता में निहित होती है।
(ii) इससे हमें यह शिक्षा भी मिलती है कि गैर दलीय आन्दोलन तुरन्त प्रारम्भ नहीं हो जाते। इस कारण इन्हें समस्या के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
(iii) लोकतांत्रिक शासन प्रणाली दलों पर आधारित होती है परन्तु जन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की कमियों और दोषों को दूर करना होता है। अत: यह लोकतंत्र और दलगत राजनीति के महत्त्वपूर्ण हिस्से माने जाते हैं। सबकों या पाठों का मूल्यांकन-समाज के गहरे तनावों तथा जनता में व्याप्त रोष को एक सार्थक दिशा देकर इन आन्दोलनों ने लोकतंत्र की रक्षा की है तथा भारतीय लोकतंत्र के जनाधार को बढ़ाया है।
समाज में जिन परेशानियों को राजनीति के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता, उन समस्याओं के हल हेतु विभिन्न सामाजिक समूहों, दलितों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं द्वारा सहायक माध्यम के रूप में अमल में लाना अधिक सरल है। परन्तु आलोचकों का यह भी मत है कि इस तरह की गतिविधियों से सरकार की निर्णय प्रक्रिया बाधित होती है तथा प्रतिदिन की लोकतांत्रिक व्यवस्था भंग होती है।
निबन्धात्मक प्रश्न:
प्रश्न 1.
जन आन्दोलन अथवा सामाजिक आन्दोलन भारतीय लोकतंत्र को कैसे सुदृढ़ बनाते हैं? इनकी क्या सीमाएँ हैं?
अथवा
लोकप्रिय जन आन्दोलनों से क्या अभिप्राय है? इन आन्दोलनों से कौन-कौन से सबक गए हैं?
उत्तर:
लोकप्रिय जन आन्दोलनों का अभिप्राय-वह आन्दोलन जो जनहित या लोगों की किसी सामान्य समस्या या समस्याओं में प्रायः दलगत राजनीति से अलग रहकर चलाये जाते हैं, लोकप्रिय जन आन्दोलन कहे जाते हैं। उदाहरणार्थ-चिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन तथा भारतीय किसान यूनियन आन्दोलन आदि।
जन अथवा सामाजिक आन्दोलन और भारतीय लोकतंत्र की सुदृढ़ता:
(i) जन आन्दोलनों ने लोगों को लोकतंत्र को अधिक बेहतर ढंग से समझने में सहायता प्रदान की। वह लोग जो जन आन्दोलन आयोजित करते रहे हैं, वह नेता तथा जनसाधारण स्त्री - पुरुष, छात्र-छात्राएँ, ग्रामीण - शहरी, किसान, मजदूर और गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। वह भली - भाँति इन आन्दोलनों के कारण सीख गए कि लोकतंत्र में अन्तिम सत्ता जनता में निहित होती है। व्यक्ति प्रदर्शनों, धरनों, विरोध मोर्चों, सत्याग्रह, अनशन इत्यादि के द्वारा व्यक्तियों तथा सरकार को झुका सकते हैं।
(ii) जन आन्दोलनों के इतिहास से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि यह आन्दोलन अनियमित ढंग से एकदम खड़े नहीं हो पाते। अतः इन्हें समस्या के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
(iii) लोकतंत्र, एक ऐसी शासन प्रणाली है जो दलीय प्रणाली पर आधारित होती है, परन्तु जन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति के दोषों को दूर करना होता है। अतः चाहे सत्ताधारी दल हों या सभी विरोधी दल हों, वह जन आन्दोलनों के स्वरूप, विकास तथा प्रगति से जुड़े समाचारों को प्रेस व दूरदर्शन पर बहुत ध्यान से सुनते, पढ़ते तथा देखते हैं। इसीलिए यह लोकतंत्र तथा दलगत राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।
जन या सामाजिक आन्दोलनों द्वारा समस्याओं की अभिव्यक्ति या सामाजिक आन्दोलनों के सबक:
(i) जन आन्दोलन सामाजिक आन्दोलनों के रूप में जब उन्नति की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं तो उनके द्वारा समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति मिलती है जो अपनी परेशानियों को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं करा पाते। इसीलिए विभिन्न सामाजिक समूहों, दलितों, अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों, अन्य पिछड़ी जातियों, महिलाओं व समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त माफियाओं तथा बाहुबलियों को रोकने में सहायक माध्यम के रूप से इन आन्दोलनों को उपयोग में लाना अधिक सरल है।
(ii) समाज के गहरे तनावों तथा जनता के रोष को एक सार्थक दिशा देकर इन आन्दोलनों ने एक प्रकार से लोकतंत्र की रक्षा की है। सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतंत्र के जनाधार को बढ़ाया है।
(iii) इन आन्दोलनों के आलोचक अक्सर यह तर्क देते हैं कि हड़ताल, धरना व रैली जैसी सामूहिक कार्यवाहियों से सरकार के कामकाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनके अनुसार इस तरह की गतिविधियों से सरकार की निर्णय प्रक्रिया बाधित होती है और प्रतिदिन की लोकतांत्रिक व्यवस्था भंग होती है।
जन अथवा सामाजिक आन्दोलनों की सीमाएँ:
(i) जन - आन्दोलनों द्वारा लामबंद की जाने वाली जनता सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित व अधिकारहीन वर्गों से संबंध रखती है। जन - आन्दोलनों द्वारा अपनाए गए तौर-तरीकों से मालूम होता है कि प्रतिदिन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन वंचित समूहों को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिलता था।
(ii) कुल मिलाकर सार्वजनिक नीतियों पर इन आन्दोलनों का प्रभाव बहुत सीमित रहा है। इसका पहला कारण यह है कि समकालीन सामाजिक आन्दोलन किसी एक मुद्दे के आस-पास ही जनता को लामबंद करते हैं। इस तरह वह समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी कारण सरकार इन आन्दोलनों की जायज माँगों को ठुकराने का साहस कर पाती है। लोकतांत्रिक राजनीति वंचित वर्गों के विस्तृत गठबंधन को लेकर ही चलती है जबकि जन-आन्दोलन के नेतृत्व में यह बात संभव नहीं हो पाती।
(iii) राजनीतिक दलों को जनता के विभिन्न वर्गों के मध्य सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। जन-आन्दोलनों का नेतृत्व इस वर्गीय हित के प्रश्नों को ठीक से नहीं सँभाल पाता। राजनैतिक दलों ने समाज के वंचित तथा अधिकारहीन लोगों के मुद्दों पर ध्यान देना बंद कर दिया है। परन्तु जन-आन्दोलन का नेतृत्व भी ऐसे मुद्दों को सीमित ढंग से ही उठा पाता है।
प्रश्न 2.
जन आन्दोलन के मुख्य कारण व इसका भारतीय राजनीति पर प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन आन्दोलन:
प्रजातांत्रिक मर्यादाओं तथा संवैधानिक नियमों के आधार पर सामाजिक शिष्टाचार से सम्बन्धित नियमों के पालन सहित सरकारी नीतियों, कानून व प्रशासन सहित किसी मसले पर व्यक्तियों के समूह अथवा समूहों के द्वारा असहमति प्रकट किया जाना जन-आन्दोलन कहलाता है। इन आन्दोलनों के अन्तर्गत प्रदर्शन, नारेबाजी, जुलूस, कई तरीकों से अभ्यावेदन करना जैसे क्रियाकलाप सम्मिलित हैं।
इस प्रकार के आन्दोलनों का उद्देश्य सरकार का ध्यान उन मुद्दों की ओर आकर्षित करने का रहता है जिन्हें आन्दोलनकारी समूह अपने व राष्ट्र दोनों के हितों में उचित नहीं समझते हैं। इस प्रकार के जन आन्दोलनों में दल समर्थित (दलीय) और स्वतंत्र (निर्दलीय) आन्दोलन प्रमुख हैं।
जन - आन्दोलन के मुख्य कारण: जन - आन्दोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित है।
(1) बहुउद्देशीय सिंचाई परियोजनाओं द्वारा लोगों के जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव। जन - आन्दोलन का भारतीय राजनीति पर प्रभाव - जन - आन्दोलन का भारतीय राजनीति पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा
प्रश्न 3.
राजनैतिक दलों से स्वतंत्र आन्दोलनों से क्या तात्पर्य है? इनके उदय एवं विकास के कारणों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
गैर - राजनीतिक आन्दोलनों की उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
अथवा
बीसवीं शताब्दी के सन् 1970 व 1980 के दशकों में उदित हुए गैर - राजनैतिक दलों वाले आन्दोलन पर एक लेख लिखिए।
अथवा
राजनैतिक दलों से स्वतंत्र आन्दोलनों से आपका क्या अभिप्राय है? राजनीतिक दलों से स्वतंत्र संगठनों की उपलब्धियाँ व योगदान का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गैर - राजनैतिक अथवा राजनैतिक दलों के स्वतंत्र आन्दोलन से तात्पर्य: स्वतंत्रता के पश्चात् सत्तर व अस्सी के दशक में ऐसे आन्दोलनों का उदय एवं विकास हुआ जिन्हें राजनीतिज्ञ लोग गैर - राजनीतिक या राजनैतिक दलों से स्वतंत्र आन्दोलनों का नाम देते हैं। ये आन्दोलन न तो सरकारी पक्ष के प्रचार माध्यम होते हैं और न ही विरोधी दलों की कठपुतलियाँ बनकर उन्हें सत्ता के दायरे के समीप पहुँचाने वाले महत्त्वपूर्ण कारक होते हैं। वस्तुतः ये आन्दोलन स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जाते हैं। इन्हें जन - सामान्य के समर्थन के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार की एजेंसियों का सहयोग व समर्थन भी मिलता है जिन्हें मानववादी सर्वकल्याणकारी एजेंसियाँ कहा जा सकता है।
गैर - राजनैतिक अथवा स्वतंत्र आन्दोलनों के उदय व विकास के कारण:
(i) गैर - कांग्रेसवाद का प्रयोग असफल होना-सत्तर व अस्सी के दशकों में समाज के अनेक वर्गों का राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग हुआ। इसका तात्कालिक कारण था कि जनता पार्टी के रूप में गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग विशेष रूप से नहीं चल पाया तथा राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण निर्मित हुआ।
(ii) केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों से निराशा: सन् 1970 के दशक के प्रारम्भ होने के साथ ही पंचवर्षीय योजनाएँ असफल होने लगीं। सरकार गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई की समस्या पर काबू नहीं कर सकी। अतः सरकार की आर्थिक नीतियों से लोगों का मोहभंग हुआ। स्वतंत्रता के प्रारम्भिक 20 वर्षों में अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई परन्तु इसके बावजूद गरीबी और असमानता बनी रही।
(iii) आर्थिक व सामाजिक असमानताएँ: आर्थिक समृद्धि होने के बावजूद उसका लाभ प्रत्येक वर्ग को नहीं मिला। धनिक व निर्धन वर्ग के बीच एक खाई पनपी। जातिगत आधार पर समाज लिंग भेद तथा असमानता की कुरीति से ग्रस्त था। शहरी-औद्योगिक क्षेत्र तथा ग्रामीण कृषि क्षेत्र के बीच एक खाई पैदा हुई तथा अन्याय का भाव प्रबल हो उठा।
(iv) लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास की जड़ों का हिलना-राजनीतिक माहौल में सक्रिय विभिन्न समूहों का विश्वास लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए तथा अपने विरोध को स्वर देने के लिए इन्होंने जनता को लामबंद करना प्रारम्भ किया। इस कार्य में छात्र व समाज के विभिन्न वर्गों के राजनीतिक कार्यकर्ता सामने आए तथा दलित व आदिवासी जैसे हाशिए पर धकेल दिए गए समूहों को लामबंद करना प्रारम्भ किया।
(v) मध्यवर्गीय युवाओं की भूमिका-देश के मध्यम वर्ग के युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के निर्धन वर्ग के बीच रचनात्मक कार्यक्रम चलाए एवं सेवा संगठन भी बनाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यों की प्रकृति स्वयंसेवी थी। अतः इन संगठनों को स्वयंसेवी संगठन अथवा स्वयंसेवी क्षेत्र के संगठन कहा गया।
राजनैतिक दलों से स्वतंत्र संगठनों की उपलब्धियाँ व योगदान: स्वतंत्र राजनैतिक संगठनों का विचार था कि स्थानीय या क्षेत्रीय मसलों के समाधान में स्थानीय लोगों व कार्यकर्ताओं की सीधी व सक्रिय भागीदारी राजनीतिक दलों की अपेक्षा अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। इसका यह भी विश्वास था कि लोगों की सीधी सहभागिता से लोकतांत्रिक सरकार की प्रकृति में सुधार आएगा क्योंकि यह दल किसी राजनीतिक दल के हाथ की कठपुतली नहीं होते।
अभी भी ऐसे स्वयंसेवी संगठन शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में सतत् रूप से सक्रिय हैं परन्तु अब इनकी प्रकृति बदल गयी है। बाद के समय में ऐसे अनेक संगठनों का वित्त-पोषण विदेशी एजेंसियों से होने लगा। ऐसी एजेंसियों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सर्विस एजेंसियाँ भी सम्मिलित हैं। इन संगठनों को व्यापक स्तर पर अब विदेशी धनराशि प्राप्त होती है। इस कारण स्थानीय पहल का आदर्श कुछ कमजोर हुआ है।
प्रश्न 4.
भारतीय किसान यूनियन ने किस प्रकार किसानों की माँगों को सरकार के सामने रखा तथा इस आन्दोलन में उन्हें कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई?
अथवा
बीकेयू से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रमुख माँगें क्या थीं? सफलता प्राप्त करने के लिए इन्होंने कौन-सी कार्यप्रणाली अपनाई?
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन से अभिप्राय बीकेयू से तात्पर्य है:
भारतीय किसान यूनियन। यह उत्तर भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश व हरियाणा के किसानों का एक संगठन है। धीरे-धीरे इस संगठन का प्रभाव तथा प्रसार देश के अन्य क्षेत्रों में भी हुआ। यह सन् 1980 के दशक के किसान आन्दोलन के अग्रणी संगठनों में से एक था। जनवरी 1988 में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में लगभग 20,000 किसान इकट्ठे हुए।
ये किसान सरकार द्वारा बिजली की दरों में की गयी वृद्धि का विरोध कर रहे थे। किसान जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन सप्ताहों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँगें मान ली गईं। किसानों का यह अत्यन्त अनुशासित धरना था तथा जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आसपास के गाँवों से उन्हें नियमित रूप से राशन-पानी प्राप्त होता रहा। भारतीय किसान यूनियन द्वारा मेरठ में आयोजित जनवरी, 1988 की विशाल सभा व धरना उसके प्रभाव तथा महत्त्व के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
बीकेयू की प्रमुख माँगें: देश में सरकार ने जब 'हरित क्रान्ति' की नीति अपनाई तो सन् 1960 के दशक के अन्तिम वर्षों से हरियाणा, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कृषकों को लाभ होना प्रारम्भ हो गया। वर्षों बाद इन भागों में गन्ना तथा गेहूँ मुख्य नकदी फसल बने। सन् 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के प्रयत्न हुए तथा इस क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा।
भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने गन्ने तथा गेहूँ की खरीद मूल्य में वृद्धि करने, कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवागमन पर लगी पाबंदियों को हटाने, उचित दर पर गारण्टीयुक्त विद्युत उपलब्ध कराने और किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की मांग भी की। भारत में अपनाए गए विकास के मॉडल से जुड़े विवादों में कृषि बनाम उद्योग का विवाद प्रमुख था। यही विवाद सन् 1980 के दशक में एक बार पुनः उठा जब उदारीकरण की आर्थिक नीतियों के कारण कृषि क्षेत्र पर खतरे मँडराने लगे थे।
बीकेयू की कार्यप्रणाली अथवा कार्य पद्धति: बीसवीं सदी के बीच से चलाए जा रहे भारत में किसान आन्दोलनों की अनेक विशेषताएँ रही हैं। संक्षिप्त रूप से हम निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कर सकते हैं।
(i) भारतीय किसान यूनियन ने सरकार पर अपनी माँगों को मनवाने के लिए दबाव डाला तथा इसी क्रम में बीकेयू ने रैली, धरना, प्रदर्शन व जेल भरो अभियान का सहारा लिया। इस प्रकार की कार्यवाहियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उसके आसपास के क्षेत्रों के गाँवों के हजारों (कभी - कभी तो एक लाख से भी अधिक) किसानों ने भाग लिया। सन् 1980 के दशक में बीकेयू ने राज्य के अनेक जिला मुख्यालयों पर इन किसानों की विशाल रैली का आयोजन किया। देश की राजधानी दिल्ली में भी बीकेयू ने एक रैली आयोजित की।
(ii) बीकेयू के अधिकांश सदस्य एक विशेष समुदाय से सम्बन्धित हैं। इसमें किसानों के जातिगत जुड़ाव का भी इस्तेमाल किया गया। इस संगठन में जातिगत समुदायों को आर्थिक मामलों पर एकजुट करने के लिए 'जाति पंचायत' की परम्परागत संस्था का उपयोग किया। किसी औपचारिक सांगठनिक ढाँचे का अभाव होने के बावजूद बीकेयू अपने अस्तित्व को लम्बे समय तक कायम रख सकी।
(iii) बीकेयू के लिए धनराशि तथा अन्य संसाधन इन्हीं सम्पर्क तंत्रों द्वारा जुटाए जाते थे तथा इन्हीं के सहारे बीकेयू की गतिविधियाँ भी संचालित होती थीं।
(iv) सन् 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से अलग रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की भाँति सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार यह किसान आन्दोलन सन् 1980 के दशक में सर्वाधिक सफल आन्दोलन था।
प्रश्न 5.
भारत के किन्हीं तीन सामाजिक आन्दोलनों का उल्लेख कीजिए। उनके मुख्य उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के तीन प्रमुख सामाजिक आन्दोलन निम्न प्रकार से हैं।
(i) महिला आन्दोलन:
(i) महिला आन्दोलन प्रारम्भ में घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल तथा सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कार्य करने वाले महिला समूह आमतौर पर शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं के बीच क्रियाशील थे और यह बात सम्पूर्ण देश पर लागू होती थी। महिला समूहों के इस सतत् कार्य से यह समझदारी विकसित होनी शुरू हुई कि औरतों पर होने वाले अत्याचार व लैंगिक भेदभाव का मुद्दा बहुत जटिल है।
(ii) सन् 1980 के दशक के दौरान महिला आन्दोलन परिवार के अन्दर व उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केन्द्रित रहा। इन समूहों ने दहेज प्रथा के विरोध में मुहिम चलाई तथा लैंगिक समानता के सिद्धान्त पर आधारित व्यक्तिगत तथा सम्पत्ति कानूनों की माँग की।
(iii) ऐसे अभियानों ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक चेतना उत्पन्न की। धीरे-धीरे महिला आन्दोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मामलों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा।
(iv) सन् 1990 के दशक तक आते-आते महिला आन्दोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करने लगा था। संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन के अन्तर्गत महिलाओं को स्थानीय राजनीतिक निकायों में आरक्षण दिया गया। इस व्यवस्था को राज्यों की विधान सभाओं एवं संसद में भी लागू करने की माँग की जा रही थी। संसद में इस आशय का एक संशोधन विधेयक भी पेश किया जा चुका है।
परन्तु विधेयक को अभी तक आवश्यक समर्थन प्राप्त नहीं हो पाया है। कुछ गुट जिनमें महिला समूह भी सम्मिलित हैं, प्रस्तुत विधेयक के अन्तर्गत दलित व पिछड़े वर्ग की महिलाओं हेतु अलग आरक्षण की माँग कर रहे हैं।
(ii) चिपको आन्दोलन:
(अ) क्षेत्र व पृष्ठभूमि-चिपको आन्दोलन का प्रारम्भ उत्तराखण्ड के दो-तीन गाँवों से हुआ था। इसके पीछे एक कहानी है। गाँव वालों ने वन विभाग से कहा कि खेती-बाड़ी के औजार बनाने हेतु हमें अंगू के पेड़ काटने की अनुमति दी जाए। वन-विभाग ने अनुमति देने से मना कर दिया। वहीं वन विभाग ने खेल सामग्री के एक निर्माता को जमीन का यही टुकड़ा व्यावसायिक प्रयोग हेतु आवंटित कर दिया। इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हुआ तथा उन्होंने सरकार के इस कदम का विरोध किया। यह विरोध बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।
(ब) आन्दोलन से जुड़े प्रश्न-उत्तराखण्ड राज्य क्षेत्र की पारिस्थितिकी तथा आर्थिक शोषण के कई बड़े सवाल उठने लगे जिनमें से दो प्रमुख थे
(i) ग्रामीणों के द्वारा यह माँग की गयी कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।
(ii) लोग चाहते थे कि सरकार लघु-उद्योगों हेतु कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए तथा इस क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को हानि पहुँचाए बिना यहाँ का विकास सुनिश्चित करे। आन्दोलन ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा भी उठाया तथा न्यूनतम मजदूरी की गारण्टी की माँग की।
(स) चिपको आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका-चिपको आन्दोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। यह आन्दोलन का बिल्कुल नया पक्ष था। महिलाओं ने शराबखोरी की बुरी आदत के विरोध में लगातार आवाज उठाई।
(द) चिपको आन्दोलन की सफलताएँ-अंततः इस आन्दोलन को सफलता प्राप्त हुई तथा सरकार ने पन्द्रह सालों के लिए हिमालय क्षेत्र में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी, जिससे इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से ठीक अवस्था में आ जाए।
हमें यह स्मरण रखना होगा कि यह आन्दोलन सन् 1970 के दशक और उसके बाद के सालों में देश के विभिन्न भागों में उठे अनेक जन - आन्दोलनों का प्रतीक बन गया।
(iii) दलित पैंथर्स आन्दोलन:
(अ) सन् 1970 दशक के प्रारम्भिक वर्षों से शिक्षित दलितों की प्रथम पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने अधिकारों की आवाज उठायी। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी-झोंपड़ियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में दलित युवाओं का एक संगठन 'दलित पैंथर्स' सन् 1972 में बना।
(ब) स्वतंत्रता के पश्चात् के वर्षों में दलित समूह प्रमुख रूप से जाति आधारित असमानता व भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के विरुद्ध गारण्टी दी गयी है। आरक्षण के कानून व सामाजिक न्याय की ऐसी ही नीतियों का उचित क्रियान्वयन इनकी प्रमुख माँग थी।
(स) दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ यौन-अत्याचार होते थे। दलित आन्दोलन की गतिविधियाँ - महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की अन्य प्रमुख गतिविधियाँ थीं। दलित पैंथर्स व इसके समधर्मा संगठन ने दलितों पर हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर लगातार विरोध आन्दोलन चलाया। इसके फलस्वरूप सरकार ने सन् 1989 में एक व्यापक कानून बनाया।
प्रश्न 6.
ताड़ी - विरोधी आन्दोलन सामाजिक अन्याय और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध, एक महिला आन्दोलन कैसे बन गया? इसने देश की महिलाओं में सामाजिक जागरूकता कैसे पैदा की?
अथवा
ताड़ी - विरोधी आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
ताड़ी - विरोधी आन्दोलन से तात्पर्य: जब बीकेयू उत्तर भारत में किसानों को संगठित कर रहा था उसी समय एक अलग प्रकार का आन्दोलन दक्षिणी राज्य आन्ध्र प्रदेश में आकार ले रहा था। यह महिलाओं का एक स्व-स्फूर्त आन्दोलन था। ये महिलायें अपने आसपास में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थीं। सितम्बर और अक्टूबर 1992 में इस प्रकार की खबरें तेलुगु प्रेस में लगभग प्रतिदिन दिखाई देती थीं। गाँव का नाम बदला जाता पर खबर वैसी ही होती। ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आन्दोलन ने इतना व्यापक रूप धारण किया कि इसे सम्पूर्ण राज्य में ताड़ी-विरोधी आन्दोलन के रूप में जाना गया।
ताड़ी (शराब) के दुष्प्रभाव: पुरुष ताड़ी पीकर महिलाओं के साथ मारपीट करते थे तथा आमदनी का एक बड़ा भाग बेकार करते थे इसलिए उनके घरों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी थी। इस प्रकार यह आन्दोलन लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा व सामाजिक अन्याय जैसे तत्त्वों को अपने में धारण करता था। ताड़ी विरोधी आन्दोलन का उदय व कार्यक्रम - आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के. गाँव दुबरगंटा में सन् 1990 के प्रारम्भिक दौर में महिलाओं के मध्य प्रौढ़-साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने व्यापक संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलायें घर के पुरुषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने से संबंधित शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी।
इसके कारण वे शारीरिक तथा मानसिक रूप से भी कमजोर हो गए थे। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। शराबखोरी के बढ़ने से कर्ज का बोझ बढ़ा। पुरुष अपने काम से लगातार अनुपस्थित रहने लगे। नेल्लौर में महिलाएँ ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आईं व उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। नेल्लौर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद्द हुई। नेल्लौर जिले का यह आन्दोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।
ताडी - विरोधी आन्दोलन का महिला आन्दोलन में बदलना - ताड़ी - विरोधी आन्दोलन का नारा बहत साधारण था-'ताड़ी की बिक्री बंद करो।' परन्तु इस साधारण नारे ने क्षेत्र के व्यापक सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मसलों तथा महिलाओं के जीवन को गहरे तक प्रभावित किया। ताड़ी व्यवसाय को लेकर अपराध तथा राजनीति के बीच एक गहरा रिश्ता बन गया था। राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व मिलता था।
अतः वह इस पर रोक नहीं लगा रही थी। स्थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आन्दोलन में उठाना शुरू किया। वे घरेलू हिंसा के मुद्दे पर भी सार्वजनिक तौर पर चर्चा करने लगी। आन्दोलन में पहली बार महिलाओं को घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का अवसर दिया।
इस प्रकार ताड़ी विरोधी आन्दोलन महिला आन्दोलन का एक हिस्सा बन गया। इससे पूर्व घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध काम करने वाले महिला समूह साधारणतया शहरी मध्यमवर्गीय महिलाओं के बीच ही सक्रिय थे और यह बात पूरे देश पर लागू होती थी। महिला समूहों के सतत् प्रयास से यह समझदारी विकसित होनी शुरू हुई कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचार तथा लैंगिक भेदभाव का मामला बहुत जटिल है। सन् 1980 के दशक के दौरान महिला
आन्दोलन परिवार के अन्दर व उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केन्द्रित रहा। इन समूहों ने दहेज प्रथा के खिलाफ आन्दोलन चलाया तथा लैंगिक समानता के सिद्धान्त पर आधारित व्यक्तिगत तथा सम्पत्ति कानूनों की माँग की।
प्रभाव या परिणाम:
प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन का परिचय देते हुए इसकी प्रमुख गतिविधियों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन का परिचय-बीसवीं सदी के आठवें दशक के प्रारम्भ में देश के मध्य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के अन्तर्गत मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा व उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मँझोले और 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। इस परियोजना से होने वाले नुकसानों को देखते हुए नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया।
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन नर्मदा बचाओ आन्दोलन को जाना जाता है। इस आन्दोलन को चलाने में सुन्दरलाल बहुगुणा, मेघा पाटकर व बाबा आम्टे आदि सम्मिलित हुए। आन्दोलन के समर्थकों की माँग है कि बाँध-परियोजना के पूर्ण होने पर कई लाख लोग बेघर हो जाएँगे। अतः सरकार इनके पुनर्वास की पूर्ण व्यवस्था करे।
परन्तु नर्मदा बचाओ आन्दोलन को सफलता के साथ-साथ कुछ आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ रहा है। आलोचकों के अनुसार आन्दोलन का नकारात्मक रुख विकास प्रक्रिया, जल की उपलब्धता व आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। इसी कारण यह आन्दोलन मुख्य विपक्षी दलों के मध्य अपना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया है।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की गतिविधियाँ:
(i) गुजरात के सरदार सरोवर तथा मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे विस्तृत तथा बहु-उद्देशीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन ने बाँधों के निर्माण का विरोध किया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, इन बाँधों के निर्माण के साथ-साथ देश में चल रही विकास परियोजना के औचित्य पर भी सवाल उठाता रहा हैं।
(ii) सरदार सरोवर परियोजना के अन्तर्गत एक बहुउद्देशीय विशाल बाँध बनाने का प्रस्ताव है। बाँध सर्मथकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात को एक बहुत बड़े हिस्से सहित तीन पड़ोसी राज्यों में पीने के पानी, सिंचाई, बिजली के उत्पादन की सुविधा उपलब्ध कराई जा सकेगी और कृषि उपज में गुणात्मक वृद्धि होगी। बाँध की उपयोगिता को इस बात से भी सम्बन्धित किया जा रहा था कि इससे बाढ़ व सूखे की आपदाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा।
(iii) प्रस्तावित बाँध के निर्माण से सम्बन्धित राज्यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। इसीलिए प्रभावित गाँवों के तकरीबन लगभग 2.5 लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सर्वप्रथम स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया। इन गतिविधियों को एक आन्दोलन का स्वरूप 1988 - 89 के दौरान मिला जब अनेक स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों ने स्वयं को नर्मदा बचाओ आन्दोलन के रूप में गठित किया।
(iv) नर्मदा बचाओ आन्दोलन अपने गठन के प्रारम्भ से ही सरदार सरोवर परियोजना के वृहत्तर मसलों से जोड़कर देखता रहा है। यह आन्दोलन विकास के मॉडल तथा उसके सार्वजनिक औचित्य पर प्रश्न उठाता रहा है।
(v) नवें दशक के अन्त तक पहुँचते: पहुँचते नर्मदा बचाओ आन्दोलन से कई अन्य स्थानीय समूह आ जुड़े। ये सभी आन्दोलन अपने - अपने क्षेत्रों में विकास की वृहत परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं।
(vi) नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने अपनी माँगें रखने के लिए यथासम्भव लोकतांत्रिक रणनीति का प्रयोग किया। आन्दोलन ने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक से उठाई, आन्दोलन की समझ को जनता के समक्ष रखने के लिए सार्वजनिक रैलियों व सत्याग्रह का भी प्रयोग किया गया।
प्रश्न 8.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन क्या था? इसके विरुद्ध क्या आलोचना की गयी? (राजस्थान बोर्ड 2014)
अथवा
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से क्या तात्पर्य है? इसकी आलोचना के प्रमुख बिन्दु बताइए।
अथवा
नर्मदा बचाओ आन्दोलन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से तात्पर्य: बीसीं सदी के आठवें दशक के प्रारम्भ में भारत के मध्य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के अन्तर्गत मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा व उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मझोले और 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। नर्मदा बचाओ आन्दोलन की कार्य-योजना से संबंधित प्रमुख बातें इस प्रकार हैं:
(i) गुजरात के सरदार सरोवर तथा मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे विस्तृत तथा बहु-उद्देशीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन ने बाँधों के निर्माण का विरोध किया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, इन बाँधों के निर्माण के साथ-साथ देश में चल रही विकास परियोजनाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाता रहा है।
(ii) सरदार सरोवर परियोजना के अन्तर्गत एक बहु-उद्देशीय विशाल बाँध बनाने का प्रस्ताव है। बांध समर्थकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्से सहित तीन पड़ोसी राज्यों में पीने के पानी, सिंचाई, बिजली के उत्पादन की सविधा उपलब्ध कराई जा सकेगी और कृषि उपज में गुणात्मक वद्धि होगी। बाँध की उपयोगिता को इस बात से भी संबंधित किया जा रहा था कि इससे बाढ़ व सूखे की आपदाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा।
(iii) प्रस्तावित बाँध के निर्माण से संबंधित राज्यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। इसलिए प्रभावित गांवों के लगभग 2.5 लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सर्वप्रथम स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया। इन गतिविधियों को एक आन्दोलन का स्वरूप सन् 1988 - 89 के दौरान मिला जब अनेक स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों ने स्वयं को नर्मदा बचाओ आन्दोलन के रूप में गठित किया।
(iv) नर्मदा बचाओ आन्दोलन अपने गठन के प्रारम्भ से ही सरदार सरोवर परियोजना को विकास परियोजना के वृहत्तर मसलों से जोड़कर देखता रहा है। यह आन्दोलन विकास के मॉडल तथा उसके सार्वजनिक औचित्य पर प्रश्न उठाता रहा है।
(v) नवें दशक के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते नर्मदा बचाओ आन्दोलन से कई अन्य स्थानीय समूह तथा आन्दोलन भी आ जुड़े। ये सभी आन्दोलन अपने-अपने क्षेत्रों में विकास की वृहत् परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन का आलोचनात्मक मूल्यांकन: नर्मदा बचाओ आन्दोलन दो दशकों से भी अधिक समय तक चला। आन्दोलन ने अपनी माँग मुखर करने के लिए यथासंभव लोकतांत्रिक रणनीति का प्रयोग किया। आन्दोलन ने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक उठाई। निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर इस आन्दोलन की आलोचनात्म की जा सकती है।
प्रश्न 9.
सूचना का अधिकार आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? इसकी मांगों व कार्यवाहियों का अन्लेख कीजिए।
अथवा
सूचना का अधिकार आन्दोलन क्या है? संक्षेप में लिखिए।
अथवा
सूचना के अधिकार से सम्बन्धित आंदोलन की पूरी यात्रा का वर्णन कीजिए जिसका समापन एक अधिनियम के रूप में हुआ अर्थात् 'सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005'
उत्तर:
सूचना का अधिकार आन्दोलन-सूचना का अधिकार आन्दोलन जन-आन्दोलनों की सफलता का एक महत्व्वपूर्ण उदाहरण है। यह आन्दोलन सरकार से एक बड़ी माँग को पूरा कराने में सफल रहा है। इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1990 में हुई तथा इसका नेतृत्व मजदूर किसान शक्ति संगठन (एम.के.एस.एस) ने किया। राजस्थान में काम कर रहे इस संगठन ने सरकार के सामने यह माँग रखी कि अकाल राहत कार्य व मजदूरों को दी जाने वाली मजदूरी के अभिलेख का सार्वजनिक खुलासा किया जाए।
यह माँग राजस्थान के एक बेहद पिछड़े इलाके भीम तहसील में सबसे पहले उठाई गयी थी। इस आन्दोलन के अन्तर्गत ग्रामीणों ने प्रशासन से अपने वेतन व भुगतान के बिल उपलब्ध कराने को कहा। असल में, इन लोगों को यह लग रहा था कि विद्यालयों, अस्पतालों, छोटे बाँधों व सामुदायिक केन्द्रों के निर्माण कार्य के दौरान उन्हें दी गयी मजदूरी में भारी हेरा-फेरी की गई। केवल कहने के लिए तो ये विकास परियोजनाएँ पूरी हो गयी थीं परन्तु लोगों का मानना था कि सभी कार्यों में धन का घोटाला हुआ है।
पहले सन् 1994 व उसके बाद सन् 1996 में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने जन-सुनवाई का आयोजन किया तथा प्रशासन को इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा।
आन्दोलन के अन्तर्गत की गई कार्यवाहियाँ: इस आन्दोलन के दबाव में सरकार को राजस्थान पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करना पड़ा। नए कानून के अन्तर्गत जनता को पंचायत के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपि प्राप्त करने की अनुमति प्राप्त हो गयी। संशोधन के बाद पंचायतों के लिए बजट, लेखा, खर्च, नीतियों व लाभार्थियों के विषय में सार्वजनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया।
अब पंचायतों को इन मदों के विषय में नोटिस बोर्ड या समाचार पत्रों में सूचना देनी होती है। सन् 1996 में एम.के.एस.एस. ने दिल्ली में सूचना के अधिकार को लेकर राष्ट्रीय समिति का गठन किया। इस कार्यवाही का लक्ष्य सूचना के अधिकार को राष्ट्रीय अभियान का रूप देना था। इससे उत्साहित होकर सूचना के अधिकार की माँग राष्ट्रीय स्तर पर भी उठायी गयी। अनेक संगठनों ने जनता के इस अधिकार को महत्त्वपूर्ण बताते हुए प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनसाधारण के सशक्तीकरण के लिए इसकी माँग की।
इससे पहले, कंज्यूमर एजुकेशन एण्ड रिसर्च सेंटर (उपभोक्ता शिक्षा एवं अनुसंधान केन्द्र), प्रेस काउंसिल तथा शौरी समिति ने सूचना के अधिकार का एक प्रस्ताव तैयार किया था। परन्तु इसे प्रभावकारी न माने जाने के कारण इसे लागू नहीं किया गया। सन् 2004 में लोकसभा का चुनाव हुआ तथा केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ। सत्तारूढ़ नई सरकार ने नए सिरे से सूचना के अधिकार का विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। जून 2005 में इस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली तथा इसे लागू किया गया।
सूचना के अधिकार आन्दोलन के अन्तर्गत सरकारी कार्यालयों में एक अधिकारी सूचना प्रदान करने हेतु नियुक्त किया गया है। यदि किसी नागरिक को सूचना की प्राप्ति नहीं होती या सूचना दिए जाने में देरी की जाती है अथवा गलत सूचना प्रदान की जाती है तो वह इसके विरुद्ध विशेष रूप से नियुक्त किए गए आयुक्त को इसकी शिकायत कर सकता है तथा संबंधित अधिकारी को दण्ड दिए जाने की भी व्यवस्था है। सूचना के अधिकार ने भारत में सामाजिक परिवर्तन व क्रान्ति लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी के विकास के द्वारा अब इंटरनेट के माध्यम से वांछित सूचनाएँ आदि प्राप्त की जा सकती हैं।
विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये इस अध्याय से सम्बन्धित प्रश्न:
प्रश्न 1.
संविधान का 73वाँ संशोधन पंचायती राज संस्थाओं को निम्नलिखित में से क्या प्रदान करना चाहता है?
(a) संवैधानिक ऊर्जा
(b) वित्तीय स्वायत्तता
(c) ग्रामीण आबादी के वंचित वर्गों का सशक्तिकरण
(d) विकेन्द्रित नियोजन निम्नलिखित में से सही विकल्प चुनें
(अ) (a), (b) व (c)
(ब) (a), (b), (c) व (d)
(स) (b), (c) व (d)
(द) (a), (b) व (d)
उत्तर:
(ब) (a), (b), (c) व (d)
प्रश्न 2.
सूचना के अधिकार द्वारा राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था में निम्नलिखित में से किन विशिष्टताओं का प्रारम्भ किया गया?
(a) सावधानी
(b) देखरेख
(c) सतर्कता
(d) लाल फीताशाही नीचे दिए गए विकल्पों में से सर्वाधिक उपयुक्त उत्तर का चयन कीजिए
(अ) (a), (b), (c) और (d)
(ब) (a), (b) व (c)
(स) (b), (c) व (d)
(द) (b) व (d)
उत्तर:
(ब) (a), (b) व (c)
प्रश्न 3.
दलित पैंथर मूवमेंट कहाँ प्रारम्भ हुआ था?
(अ) पश्चिम बंगाल
(ब) बिहार
(स) उड़ीसा
(द) महाराष्ट्र
उत्तर:
(द) महाराष्ट्र
प्रश्न 4.
चिपको आन्दोलन जिसने सर्वोदय आन्दोलन से शक्ति ग्रहण की, अपने विभिन्न चरणों में, मुख्यत: निम्नलिखित से क्या एक था?
(अ) सर्वोत्कृष्ट किसान आन्दोलन और यशस्वी पर्यावरण आन्दोलन
(ब) कतिपय आवाह क्षेत्रों में सफल वाणिज्यिक वानिकी
(स) भूमि की हानि के निराकरण का आन्दोलन
(द) भूमिगत जलस्तर के अनुरक्षण का आन्दोलन।
उत्तर:
(अ) सर्वोत्कृष्ट किसान आन्दोलन और यशस्वी पर्यावरण आन्दोलन
प्रश्न 5.
सूचना अधिकार अधिनियम (2005) मुख्यतः किस उद्देश्य की सहायता करता है?
(अ) कानूनी सुधार
(ब) राजनैतिक सुधार
(स) सामाजिक अखण्डता
(द) पारदर्शी प्रशासन
उत्तर:
(द) पारदर्शी प्रशासन
प्रश्न 6.
सुन्दर लाल बहुगुणा सम्बन्धित हैं
(अ) तेभागा आन्दोलन से
(ब) नक्सलबाड़ी आन्दोलन से
(स) चिपको आन्दोलन से
(द) कोगोडु सत्याग्रह से।
उत्तर:
(स) चिपको आन्दोलन से
प्रश्न 7.
नव सामाजिक आन्दोलन के विषय में निम्नलिखित में से कौन-सा एक सही नहीं है?
(अ) वे उत्पीड़ितों और सुविधा-वंचितों के आन्दोलन हैं
(ब) वे जीवन की गुणवत्ता से अधिक सरोकार रखते हैं
(स) वे विरोध की राजनीति का प्रयोग उपकरणों के रूप में करते हैं
(द) नव राजनीतिक सक्रियतावाद वैश्वीकरण-विरोधी आन्दोलन का रूप ले लेता है।
उत्तर:
(द) नव राजनीतिक सक्रियतावाद वैश्वीकरण-विरोधी आन्दोलन का रूप ले लेता है।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित को सुमेलित कीजिए
(अ) पैन्थर्स (i) भूमि सम्बन्धी
(ब) चिपको (ii) पर्यावरणीय
(स) झारखण्ड (iii) शोषण और भेदभाव
(द) तेभागा (iv) राज्य दर्जा
(अ) (iv) (ii) (iii) (i)
(ब) (iii) (i) (iv) (ii)
(स) (iv) (i) (ii) (ii)
(द) (iii) (ii) (iv) (i)
उत्तर:
(द) (iii) (ii) (iv) (i)
प्रश्न 9.
संसद के सूचना के अधिकार अधिनियम को भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई।
(अ) 15 मई 2005 को
(ब) 5 जून 2005 को
(स) 15 जून 2005 को
(द) 12 अक्टूबर 2005 को
उत्तर:
(द) 12 अक्टूबर 2005 को