RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

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RBSE Class 11 Sociology Chapter 5 Notes भारतीय समाजशास्त्री

→ परिचय-भारत में समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में सोच-विचार सौ वर्षों से भी कुछ पुराना है। लेकिन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की औपचारिक शिक्षा 1919 ई. में बम्बई विश्वविद्यालय में प्रारंभ हुई। सन् 1920 में दो अन्य विश्वविद्यालयों-कलकत्ता तथा लखनऊ ने भी समाजशास्त्र तथा मानव विज्ञान में शिक्षण तथा शोधकार्य प्रारंभ किया। आज प्रत्येक प्रमुख विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग, सामाजिक मानव विज्ञान अथवा मानव विज्ञान विभाग हैं।
भारत के कुछ प्रारंभिक समाजशास्त्रियों ने भारत में समाजशास्त्र विषय को आकार देने और इसको ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य के अनुकूल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यथा-

→ एल.के. अनन्तकृष्ण अय्यर ( 1861-1937): 
भारत के बेहतरीन तथा सर्वप्रथम सामाजिक मानव विज्ञानी श्री एल. के. अनन्तकृष्ण अय्यर थे। वे संभवतः पहले शिक्षित मानव विज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप में ख्याति मिली। उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में उनकी नियुक्ति की गई, जहाँ उन्होंने भारत के सर्वप्रथम स्नातकोत्तर मानव विज्ञान विभाग की स्थापना करने में मदद की। सन् 1917-1932 तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही रहे। उन्हें इंडियन नृजातीय विभाग का अध्यक्ष चुना गया तथा भ्रमण के दौरान जर्मनी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की मानद उपाधि दी गई।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री 

→ शरत चन्द्र रॉय (1871-1942)
शरत चन्द्र राय एक अन्य मानव विज्ञानी हैं, जो भारत में इस वर्ग में अग्रणी थे तथा अकस्मात् मानव विज्ञानी बने। उन्होंने कलकत्ता के रिपन कॉलेज से अंग्रेजी से स्नातकोत्तर तथा कानून की डिग्री ली। कुछ दिनों कानून की प्रैक्टिस करने के बाद सन् 1948 में रांची जाकर ईसाई मिशनरी विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया। अगले 44 वर्षों तक वे रांची में रहे और झारखंड में रहने वाली जनजातियों की संस्कृति तथा समाज के विशेषज्ञ बने। उन्होंने जनजातीय क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण किया तथा उनके बीच रहकर गहन अध्ययन किया। अपने पूरे सेवाकाल में रॉय के सौ से अधिक लेख राष्ट्रीय तथा ब्रिटिश शैक्षिक जर्नल में प्रकाशित हुए। इसके साथ ही उनके द्वारा ओरांव, मुंडा तथा खरिया जनजातियों पर किया गया लेखन कार्य प्रकाशित हुआ। 'छोटा नागपुर' के विशेषज्ञ के रूप में उनकी पहचान बनी। 1922 में उन्होंने 'मैन इन इण्डिया' नामक जर्नल की स्थापना की।
इस प्रकार

  • अनन्तकृष्ण अय्यर और शरतचन्द्र रॉय दोनों इस क्षेत्र के अग्रणी विद्वान थे।
  • दोनों ने ऐसे विषय पर कार्य आरंभ किया, जो भारत में अभी तक विद्यमान नहीं था।
  • दोनों का जन्म तथा मृत्यु अंग्रेजों द्वारा शासित भारत में हुई।

→ जी.एस. घुर्ये ( 1893-1983)
1. जीवनी-जी.एस. घुर्ये का जन्म 12 दिसम्बर, 1983 को मालवान, पश्चिम भारत के कोंकण तटीय प्रदेश के छोटे से कस्बे में हुआ था। 1918 में आपने एलफिंस्टन कॉलेज, मुम्बई से संस्कृत और अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की। 1919 में लन्दन में समाजशास्त्र के अध्ययन हेतु चयनित हुए। 1922 में समाजशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर वापस मुम्बई आ गये। इनकी पीएच.डी. का विषय था-कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया। 1924 में मुम्बई विश्वविद्यालय में रीडर तथा विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए तथा अगले 35 वर्ष तक यहाँ रहे। आपने मुम्बई विश्वविद्यालय में 1936 में समाजशास्त्र विषय में पीएच.डी. की उपाधि प्रारंभ की। जी.आर. मदान को घुर्ये के निर्देशन | में समाजशास्त्र में प्रथम पीएच.डी प्रदान की गई। 1945 में आपने पूर्णकालीन समाजशास्त्र का पाठ्यक्रम आरंभ किया। 1951 में घुर्ये ने 'इण्डियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी' की स्थापना की तथा वे इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। 1959 में वे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए; लेकिन शैक्षिक जीवन में क्रियाशील रहे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 17 पुस्तकें लिखीं। सन् 1983 में 90 वर्ष की आयु में आपका निधन हो गया।

2. योगदान
(अ) समाजशास्त्र को संस्थागत रूप देने में योगदान-जी.एस. घुर्ये को भारत में समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय जाता है। यथा

  • सर्वप्रथम स्नातकोत्तर स्तर पर समाजशास्त्र विभाग में शिक्षण कार्य की अध्यक्षता की।
  • इण्डियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी की स्थापना की तथा सोशियोलॉजिकल नामक जर्नल भी निकाला।
  • समाजशास्त्र का एक भारतीय विषय के रूप में पोषण किया।
  • दो मुख्य कार्यक्रमों को लागू किया
    • एक ही संस्था द्वारा सक्रिय रूप से शिक्षण तथा शोधकार्य किया जाना।
    • सामाजिक मानव विज्ञान और समाजशास्त्र को एक वृहत वर्ग के रूप में स्थापित करना।

(ब) विशिष्ट कार्य

  • घुर्ये की पहचान जाति और प्रजाति पर उनके द्वारा किये गए बेहतरीन कार्यों से होती है।
  • एक प्रमुख विषय जिस पर घुर्ये ने कार्य किया वह था-'जनजाति' अथवा 'आदिवासी संस्कृतिः । इस कार्य ने उन्हें समाजशास्त्र तथा शिक्षा की दुनिया से बाहर एक पहचान दी। घुर्ये राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को पिछड़े हिन्दू समूह के रूप में पहचाना जाए।
  • इसके अतिरिक्त इन्होंने वृहत विषयों, जैसे-नातेदारी, परिवार और विवाह, संस्कृति, सभ्यता और नगरों की ऐतिहासिक भूमिका, धर्म तथा संघर्ष और एकीकरण का समाजशास्त्र आदि पर कार्य किया।

(स) जाति तथा प्रजाति पर घुर्ये के विचार-घुर्ये ने अपने डॉक्टरेट के शोध निबन्ध 'कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया-1932' में जाति तथा प्रजाति के सम्बन्धों पर प्रचलित सिद्धान्तों की विस्तारपूर्वक आलोचना की। रिजले के प्रजातीय सिद्धान्त को आंशिक मानना-रिजले का तर्क था कि जाति का उद्भव प्रजाति से हुआ होगा क्योंकि विभिन्न जातीय समूह किसी विशिष्ट प्रजाति से सम्बन्धित लगते हैं। सामान्य रूप से उच्च जातियाँ भारतीय आर्य प्रजाति की विशिष्टताओं से मिलती हैं और निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों, मंगोल प्रजाति के गुण देखने को मिलते हैं।
घुर्ये ने रिजले के तर्कों को अंशतः सत्य माना और कहा कि प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर भारत में ही बची हुई थी; क्योंकि वहाँ अन्तर्विवाह निषिद्ध था। शेष भारत में अन्त विवाह का प्रचलन उन वर्गों में हुआ, जो प्रजातीय स्तर पर वैसे ही भिन्न थे।

आज रिजले के जाति के प्रजातीय सिद्धान्त को नहीं माना जाता। जाति की विशेषताएँ-घुर्ये ने जाति की छः विशेषताएँ बताई हैं

  • जाति एक ऐसी संस्था है, जो खंडीय विभाजन पर आधारित है।
  • जातिगत समाज सोपानिक विभाजन पर आधारित होते हैं।
  • संस्था के रूप में जाति सामाजिक अंत:क्रिया पर प्रतिबंध लगाती है, विशेषकर साथ बैठकर भोजन करने पर।
  • जाति व्यवस्था में विभिन्न जातियों के लिए भिन्न-भिन्न अधिकार तथा कर्तव्य निर्धारित होते हैं।
  • जाति व्यवसाय के चुनाव को भी सीमित कर देती है-जन्मगत तथा वंशानुगत व्यवसाय पर बल।
  • जाति, अन्तर्जातीय विवाह पर कठोर प्रतिबन्ध लगाती है।

→ डी.पी. मुकी (1894-1961): लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग का संचालन प्रसिद्ध त्रिदेव राधा कमल मुकर्जी (संस्थापक), डी.पी. मुकर्जी तथा डी.एन. मजूमदार द्वारा आयोजित किया जा रहा था। इनमें डी.पी. मुकर्जी ने सर्वाधिक लोकप्रियता अर्जित की।

  • जीवनी-5 अक्टूबर, 1894 को एक मध्यमवर्गीय बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्म, विज्ञान में स्नातक, कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि।
  • 1924 में लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र विभाग में लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय में वे 32 वर्षों तक अध्यापन कार्य करते रहे।
  • स्वतंत्रता के पूर्व 1935 के एक्ट के अन्तर्गत हुए 1937 के चुनावों में जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में आई तो कुछ समय के लिए आप सूचना विभाग के निदेशक बन कर चले गये। यहाँ आपने 'अर्थशास्त्र और सांख्यिकी ब्यूरो' की स्थापना की।
  • आप 'इण्डियन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन' के संस्थापक सदस्य थे। सन् 1947 में वे 'उत्तर प्रदेश श्रम जाँच समिति' के सदस्य नियुक्त किये गये थे। सन् 1949 में वे लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने तथा 1953 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए। वहाँ वे 5 वर्ष तक कार्य करते रहे। उन्होंने सन् 1955 में 'अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय संगठन' की अध्यक्षता की। सन् 1961 में आपका निधन हो गया।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

→ डी.पी. मुकर्जी का भारत के समाजशास्त्र में योगदान
(1) मार्क्स के द्वन्द्ववाद के पक्षधर-डॉ. डी.पी. मुकर्जी का कहना है कि मार्क्स की द्वन्द्वात्मक पद्धति भारत के लिए अत्यधिक उपयुक्त पद्धति है। मार्क्स के सामाजिक विश्लेषण के तरीकों में डॉ. मुकर्जी विश्वास करते थे। इसके माध्यम से भारत की परम्पराओं, प्रतीकों, सांस्कृतिक प्रतिमानों व सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन संभव है।

(2) भारतीय सामाजिक परिवर्तन में परम्पराओं का महत्त्व-उनका कहना था कि भारतीय समाजशास्त्री का प्रथम कर्तव्य है कि वह सामाजिक परम्पराओं के बारे में पढ़े तथा जाने परम्पराएँ परिवर्तन से जुड़ी हैं। परम्पराओं ने अपने आपको भूतकाल से जोड़ने के साथ ही साथ वर्तमान के अनुरूप भी ढाला था। वे समय के साथ विकसित होती रही हैं।

  • उनका कहना था कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः समूह, सम्प्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है न कि स्वैच्छिक व्यक्तिगत कार्यों द्वारा।
  • प्रत्येक समाज में परिवर्तन के आंतरिक तथा बाह्य स्रोत हमेशा मौजूद रहते हैं। भारतीय समाज में परिवर्तन का स्रोत परम्पराएँ हैं। भारतीय संदर्भ में वर्ग-संघर्ष जातीय परम्पराओं से प्रभावित होता है और उसे अपने में सम्मिलित कर लेता है।

भारतीय परम्परा में परिवर्तन के तीन सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है। ये हैं

  • श्रुति,
  • स्मृति और
  • अनुभव।

इनमें अनुभव क्रांतिकारी सिद्धान्त है। अतः भारतीय समाज में परिवर्तन का सर्वप्रमुख सिद्धान्त समूहों का सामूहिक अनुभव था। भारत में संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं। स्मृति और श्रुति की उच्च परम्पराओं को भी समय-समय पर समूहों व सम्प्रदायों के सामूहिक अनुभवों द्वारा चुनौती दी जाती रही है। परम्पराएँ लचीली होती हैं। इसलिए संघर्ष के दबाव में वे टूटती नहीं, बल्कि परिवर्तित होती रहती हैं। परिवर्तन की यह प्रक्रिया, जहाँ संघर्ष परम्पराओं की सीमाओं में रहता है--ठेठ जातिगत समाज का लक्षण है, जहाँ वर्गों को बनने तथा वर्ग-चेतना को अवरोधित कर दिया गया है।

→ ए.आर. देसाई (1915-1994):
जीवनी-अक्षय रमनलाल देसाई का जन्म 1915 में बड़ौदा में हुआ। बड़ौदा में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद देसाई ने बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रवेश किया। सन् 1934-39 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (ट्रोटस्की ग्रुप से सम्बद्ध) के सदस्य बन गये। सन् 1946 में घुर्ये के निर्देशन में 'सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म' पर पीएच.डी. की उपाधि ग्रहण की। यह थीसिस 1948 में प्रकाशित हुई।

सन् 1951 में बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्रीय विभाग में उनकी नियुक्ति हुई। 1953 में वे रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने तथा 1981 तक उसके सदस्य रहे। 1961 में आपकी 'रूरल ट्रांजीशन इन इण्डिया' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। सन् 1967 में वे बम्बई विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष | बने। 1975 में उनकी 'स्टेट एण्ड सोसायटी इन इण्डिया' नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। 1976 में वे समाजशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त हुए। सन् 1979 में 'पेजेंट स्ट्रगल इन इण्डिया' प्रकाशित हुई तथा सन् 1986 में 'एग्रेरियन स्ट्रगल्स इन इण्डिया ऑफ्टर इंडिपेंडेन्स' प्रकाशित हुई। 12 नवम्बर, सन् 1994 को आपका निधन हो गया।

→ योगदान

  • भारतीय राष्ट्रवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण-देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण किया, जिसमें आर्थिक प्रक्रियाओं एवं विभाजनों को महत्त्व दिया गया।
  • अन्य विषय-अन्य विषय जिन पर देसाई ने काम किया, वे हैं-किसान आंदोलन तथा ग्रामीण समाजशास्त्र, आधुनिकीकरण, नगरीय मुद्दे, राजनीतिक समाजशास्त्र, राज्य के स्वरूप और मानवाधिकार।
  • राज्य पर देसाई के विचार

(अ) कल्याणकारी राज्य की विवेचना-ए.आर. देसाई ने पूँजीवादी कल्याणकारी राज्य की विवेचना मार्क्सवादी दृष्टिकोण से की है। उन्होंने कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं

  • कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है।
  • कल्याणकारी राज्य एक लोकतांत्रिक राज्य होता है।
  • कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है।

→ कल्याणकारी राज्य के कार्यों के परीक्षण के तरीके-देसाई ने कल्याणकारी राज्य द्वारा किये गये कार्यों के परीक्षण के निम्न तरीके बताये हैं

  • गरीबी तथा सामाजिक भेदभाव से मुक्ति एवं सामाजिक सुरक्षा।
  • आय की असमानताओं को दूर करने वाले कदम।
  • पूँजीवादियों की अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर रोक।
  • आर्थिक मंदी व तेजी से मुक्त स्थायी विकास की व्यवस्था।
  • सबके लिए रोजगार की गारंटी।

इन आधारों पर देसाई ने ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के पूँजीवादी राज्यों के कल्याणकारी स्वरूप की समीक्षा करते हुए पाया कि ये देश

  • अपने नागरिकों को निम्नतम आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा देने में,
  • आर्थिक असमानताओं को कम करने में,
  • बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास करने में,
  • आर्थिक असमानता को कम करने, तथा
  • रोजगार की गारंटी देने में असफल रहे हैं। अतः कल्याणकारी राज्य की सोच एक भ्रम है।

(ब) राज्य के मार्क्सवादी सिद्धान्त पर विचार-श्री देसाई ने साम्यवादी राज्यों की कमियों की भी आलोचना की है। उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया है कि

  • साम्यवाद के तहत भी लोकतंत्र का महत्त्व होता है।
  • राजनीतिक उदारता एवं कानून का राज प्रत्येक वास्तविक समाजवादी राज्य में बने रहना चाहिए।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

→ एम. एन. श्रीनिवासन (1916-1999)
जीवनी-16 नवम्बर, 1916 को मैसूर के आयंगर ब्राह्मण परिवार में जन्म। प्रारंभिक शिक्षा मैसूर विश्वविद्यालय से, स्नातकोत्तर परीक्षा मुम्बई विश्वविद्यालय से। 1942 में स्नातकोत्तर शोध पुस्तक के रूप में प्रकाशित-'मैरिज एण्ड फैमिली एमंग द कुर्मुस'। 1944 में घुर्ये के निर्देशन में पीएच.डी. की। 1945 में ऑक्सफोर्ड गए और वहाँ से भी डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण की। सन् 1947 में ऑक्सफोर्ड से सामाजिक मानव विज्ञान में डी.फिल. किया और 1948 में ऑक्सफोर्ड में भारतीय समाजशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति। इसी समय रामपुर क्षेत्र में कार्य किया। 1951 में बड़ौदा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति तथा समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की। 1959 में दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति तथा वहाँ समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की। 1971 में बंगलौर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकॉनोमिक चेंज के सह-संस्थापक। 30 नवम्बर, 1999 को उनका निधन हो गया।

→ समाजशास्त्रीय योगदान

  • सामाजिक मानव विज्ञान में संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य-श्रीनिवास ने अपने शोध प्रबंध 'रिलीजन एण्ड सोसायटी एमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इण्डिया' में संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया।
  • भारतीय समाजशास्त्र को विश्व के मानचित्र पर स्थापित किया-श्रीनिवास ने जाति, आधुनिकीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियायें, ग्रामीण समाज इत्यादि के द्वारा भारतीय समाजशास्त्र को विश्व के मानचित्र पर स्थापित किया।
  • गाँव सम्बन्धी विचार-श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव तथा ग्रामीण समाज में जीवनभर बनी रही। गाँव पर उनके द्वारा लिखे गये लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं
    • गाँवों में किये गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा और इन ब्यौरों पर परिचर्चा ।
    • भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में।

→ सामाजिक विश्लेषण की इकाई के रूप में गाँव-इस पर लुई ड्यूमा ने आपत्ति करते हुए कहा कि जाति जैसी संस्थाएँ ग्रामीण विश्लेषण की इकाई के रूप में गांव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन श्रीनिवास ने कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्य यह दिखाते हैं कि गाँवों ने अपनी एक एकीकृत सामाजिक पहचान बनाई है और ग्रामीण एकता ग्रामीण सामाजिक जीवन में काफी महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक सामाजिक साक्ष्य द्वारा, श्रीनिवास ने यह दिखाया कि गाँव कभी आत्मनिर्भर नहीं थे और वे विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे। उन्होंने गाँवों में तीव्र गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन के बारे में जानकारी दी।

→ उपसंहार-घुर्ये, डी.पी. मुकर्जी, ए.आर. देसाई तथा एम.एन. श्रीनिवास-इन चार समाजशास्त्रियों ने नव-स्वतंत्र आधुनिक राष्ट्र के संदर्भ में एक अलग पहचान देने की कोशिश की। इन विभिन्न तरीकों से समाजशास्त्र को भारतीय बनाया। उन्होंने भारत की जाति, प्रजाति तथा जनजाति पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया; डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय परम्परा की | महत्ता को पुनः खोजा तथा ए.आर. देसाई ने भारतीय राष्ट्र की मार्क्सवादी दृष्टि से समालोचना प्रस्तुत की।

Prasanna
Last Updated on Sept. 1, 2022, 11:27 a.m.
Published Sept. 1, 2022