RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

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RBSE Class 11 Sociology Chapter 4 Notes पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

→ समाजशास्त्र का संदर्भ-समाजशास्त्र को कभी-कभी 'क्रांति के युग' की संतान भी कहा जाता है क्योंकि समाजशास्त्र के अभ्युदय में तीन क्रांतिकारी परिवर्तनों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। ये हैं

  • ज्ञानोदय या वैज्ञानिक क्रांति अथवा विवेक का युग,
  • फ्रांसीसी क्रांति और
  • औद्योगिक क्रांति । इनके बौद्धिक परिवर्तन निम्न प्रकार रहे

(1) ज्ञानोदय-17वीं तथा 18वीं सदी में पश्चिमी यूरोप में सोचने-विचारने के बिल्कुल नये तथा मौलिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ जिसे ज्ञानोदय या प्रबोधन के नाम से जाना जाता है। इस नये दर्शन ने जहाँ एक तरफ मनुष्य को ब्रह्माण्ड के केन्द्र बिन्दु के रूप में स्थापित किया, तो दूसरी तरफ विवेक को मनुष्य की मुख्य विशेषता माना गया।

  • विवेकपूर्ण ढंग से सोचने की क्षमता में अब एकल मानव को 'व्यक्ति' में बदल दिया, जो ज्ञान का उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों है। लेकिन केवल विवेकपूर्ण व्यक्ति को ही पूर्ण मनुष्य माना गया और जो इस योग्य नहीं थे, उन्हें आदिमानव या बर्बर मानव कहा गया। इससे मानव समाज के युक्तिसंगत विश्लेषण का प्रारंभ हुआ तथा प्रकृति, धर्मसम्प्रदाय तथा देवी-देवताओं के महत्त्व को कम करना भी प्रारंभ हुआ।
  • इस प्रकार ज्ञानोदय को वास्तविक यथार्थ में बदलने में धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच व मानवतावादी सोच की | वैचारिक प्रवृत्तियों का प्रमुख हाथ रहा।

(2) फ्रांसीसी क्रांति-फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने व्यक्ति तथा राष्ट्र-राज्य के स्तर पर राजनीतिक संप्रभुता के आगमन की घोषणा की तथा समानता, समानता तथा बंधुत्व के सिद्धान्त राज्य को प्रदान किये।

(3) औद्योगिक क्रांति-आधुनिक उद्योगों की नींव औद्योगिक क्रांति के द्वारा रखी गयी। इसका प्रारंभ 18वीं| सदी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटेन में हुआ। इसके दो प्रमुख पक्ष थे
(अ) विज्ञान तथा तकनीक का औद्योगिक उत्पादन में व्यवस्थित प्रयोग, विशेषकर नयी मशीनों का आविष्कार तथा ऊर्जा के नए साधनों का औद्योगिक कामों में उपयोग।

(ब) श्रम तथा बाजार को नए ढंग से व बड़े पैमाने पर संगठित करने के तरीकों का विकास।

  • उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन-नयी मशीनों ने औद्योगिक उत्पादकता को बढ़ाया, उत्पादन प्रक्रिया को सुगम बनाया। इसने नयी औद्योगिक व्यवस्था व अधिक उत्पादन को जन्म दिया तथा अब वस्तुओं का उत्पादन विश्व के बाजारों के लिए होने लगा तथा इनके लिए आवश्यक कच्चा माल भी दुनियाभर से प्राप्त किया जाने लगा।
  • सामाजिक जीवन में परिवर्तन-उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन से शहरी क्षेत्रों में बसे उद्योगों को चलाने के लिए मजदूरों की माँग को उन विस्थापित लोगों ने पूरा किया जो काम की तलाश में ग्रामों से शहरों में आकर बस गये थे। कम वेतन के कारण इनकी स्त्रियों तथा बच्चों को भी कारखानों में काम करना पड़ता था। नगरीकरण हुआ, शहरों का विस्तार हुआ। विषमताओं से बंटा विशाल जनसमूह भीड़-भाड़ भरे इलाके में रहने लगा। अमीर और शक्तिसम्पन्न लोग शहरों में रहने लगे तो मजदूर वर्ग झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने को मजबूर हुआ।
  • राजनीति में परिवर्तन-राज्य तंत्र को अब स्वास्थ्य, सफाई व्यवस्था, आपराधिक गतिविधियों व व्यवसायों पर नियंत्रण तथा सर्वांगीण विकास जैसे सार्वजनिक विषयों की जिम्मेदारी उठानी पड़ी।
  • समाजशास्त्र का उद्भव-इन नयी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए शासन तंत्र को नए प्रकार की जानकारी व ज्ञान | की आवश्यकता महसूस हुई। नए ज्ञान के लिए उभरती माँग ने समाजशास्त्र के अभ्युदय तथा विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय 

→ कार्ल मार्क्स (1818-1883)
कार्ल मार्क्स जर्मनी के निवासी थे, परन्तु देश से निकाले जाने के कारण उन्होंने अपना अधिकतम समय ब्रिटेन में बिताया। वे एक सामाजिक चिंतक और विश्लेषक थे जिन्होंने अत्याचार तथा शोषण को खत्म करने की वकालत की।
उन्होंने वैज्ञानिक समाजवाद के द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने पर बल दिया। इसकी प्राप्ति के लिए मार्क्स ने पूँजीवादी समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर इसके पतन को अवश्यंभावी बताया।
(अ) समाज के विकास के चरण-मार्क्स ने कहा कि समाज ने विभिन्न चरणों में उन्नति की है

  • आदिम साम्यवाद
  • दासता
  • सामन्तवादी व्यवस्था
  • पूँजीवादी व्यवस्था
  • समाजवादी व्यवस्था।

वर्तमान में पूँजीवादी व्यवस्था चल रही है, लेकिन शीघ्र ही इसका स्थान समाजवाद ले लेगा।

(ब) पूँजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण

  • पूँजीवाद मनुष्य के विकास का नवीनतम चरण है, लेकिन जल्दी ही इसका स्थान समाजवाद ले लेगा।
  • इसमें उत्पादन के साधनों पर पूँजीपति वर्ग का आधिपत्य होता है। .
  • यह व्यवस्था शोषण तथा अत्याचार पर आधारित है। इसलिए इसमें वर्ग संघर्ष—पूँजीपति वर्ग तथा सर्वहारा वर्ग के मध्य चलता है।
  • मानव इतिहास में पूँजीवाद एक आवश्यक तथा प्रगतिशील चरण रहा है।
  • यह व्यवस्था श्रमिक में अलगाव की भावना पैदा करती है।
  • पूँजीवादी व्यवस्था में परिवर्तन शोषण का शिकार सर्वहारा वर्ग क्रांति के द्वारा लायेगा।

(स) अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में मार्क्स के विचार

  • अर्थव्यवस्था उत्पादन के तरीकों पर अधारित होती है।
  • अर्थव्यवस्था का आधार—प्राथमिक तौर पर आर्थिक होता है और इसमें उत्पादक शक्तियाँ और उत्पादन सम्बन्ध शामिल होते हैं।
  • उत्पादन के सम्बन्धों के धरातल पर समाज की सभी संस्थाएँ—सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परस्पर आश्रित हैं। अतः धर्म, कानून, साहित्य और विभिन्न प्रकार के सोच और विश्वास इसी अधिसंरचना के भाग हैं। इस प्रकार भौतिक जीवन सोच को आकार देता है।
  • (आर्थिक संरचनाएँ तथा प्रक्रियायें मानव इतिहास में प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था की नींव होती हैं।

(द) वर्ग संघर्ष-मार्क्स के अनुसार
(1) वर्ग से आशय-सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं। उनके एक जैसे हित तथा उद्देश्य होते हैं।

(2) वर्गों का निर्माण-वर्गों का निर्माण उत्पादन में सहायक शक्तियों की स्थिति में परिवर्तन तथा पहले से विद्यमान वर्गों के मध्य होने वाले संघर्षों के फलस्वरूप होता है। जैसे उत्पादन के पूँजीवादी साधन सर्वहारा वर्ग का निर्माण करते हैं, जिसका निर्माण सामन्तवादी कृषक व्यवस्था के विनाश के फलस्वरूप हुआ है।

(3) वर्ग-संघर्ष

  • वर्ग-संघर्ष सामाजिक परिवर्तन लाने वाली मुख्य शक्ति होती है। प्रत्येक विद्यमान समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।'
  • वर्ग-संघर्ष की प्रकृति विभिन्न ऐतिहासिक कालों में भिन्न थी। लेकिन प्रत्येक काल में एक वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी व शोषक रहा है और दूसरा वर्ग उत्पादन।
  • प्रत्येक काल में मुख्य विरोधी वर्ग उत्पादन प्रक्रिया के अन्तर्विरोध से पहचाने जाते हैं।
  • वर्ग चेतना' के विकसित होने के उपरांत राजनैतिक गोलबन्दी के तहत वर्ग-संघर्ष होते हैं।
  • इस वर्ग संघर्ष में क्रांति के द्वारा शासित वर्ग शासक वर्ग को उखाड़ फेंकता है । आर्थिक प्रक्रियाएँ स्वतः क्रांति का नेतृत्व नहीं करतीं, बल्कि सामाजिक तथा राजनैतिक प्रक्रियायें भी समाज को पूर्णतः परिवर्तन के लिए आवश्यक होती हैं।
  • प्रत्येक काल में शासक वर्गों द्वारा प्रभुत्वशाली विचारधारा को बढ़ावा दिया जाता है जो शासक वर्ग के प्रभाव तथा विद्यमान सामाजिक क्रम को न्याय- संगत ठहराती है। लेकिन इन प्रभुत्वशाली विचारधाराओं को विरोधी या वैकल्पिक विचारधाराओं की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।

→ एमिल दुखीम (1858-1917) एमिल दुर्थीम को समाजशास्त्र के औपचारिक संकाय का संस्थापक माना जा सकता है। ये फ्रांस के सामाजिक विचारक थे।
समाज-दुर्थीम के लिए समाज एक सामाजिक तथ्य था जिसका अस्तित्व नैतिक समुदाय के रूप में व्यक्ति से ऊपर था। ये नैतिक बंधन सामाजिक एकता स्थापित करते थे। सामाजिक एकता व्यक्ति के व्यवहार को मानदण्डों तथा अपेक्षा के अनुरूप किये जाने को बाध्य करती थी। इस प्रकार अवलोकित व्यवहार के प्रतिमान को देखकर मानदण्डों, संहिताओं तथा सामाजिक एकता को पहचाना जा सकता है।

‘दुर्थीम के अनुसार सामाजिकता को आचरण की संहिताओं में पाया जा सकता था। अतः दुर्थीम के अनुसार समाज की वैज्ञानिक समझ नैतिक तथ्यों की मान्यता पर आधारित थी। नैतिक संहिताएँ विशेष सामाजिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति थी। अतः एक समाज की नैतिकता दूसरे समाज के लिए अनुपयुक्त थी। अतः दुर्थीम के अनुसार नैतिक संहिताओं से सामाजिक परिस्थितियों की व्युत्पत्ति हो सकती है। इसने समाजशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञान के समान बना दिया।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

→ दुर्जीम की समाजशास्त्रीय दृष्टि-दुर्थीम की दृष्टि में, समाजशास्त्र में एक नवीन वैज्ञानिक संकाय के रूप में दो प्रमुख विशेषताएँ हैं

  • समाजशास्त्र की विषय-वस्तु—सामाजिक तथ्यों का अध्ययन दूसरे विज्ञानों की तुलना से भिन्न था।
  • अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की तरह समाजशास्त्र को भी आनुभविक विषय होना चाहिए था।

इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार समाजशास्त्र एक ऐसा शास्त्र है जो अमूर्त तत्वों, जैसे—सामाजिक तथ्यों का विज्ञान है, जो अवलोकन, आनुभाविक, इन्द्रियानुभवी सत्यापनीय साक्ष्यों पर आधारित हो।।

सामाजिक तथ्य

  • सामाजिक तथ्य वस्तुओं की तरह होते हैं। वे व्यक्ति के लिए बाह्य होते हैं, परन्तु उनके आचरण को बाध्य करते हैं।
  • सामाजिक तथ्य सामूहिक प्रतिनिधान होते हैं जिनका उद्भव व्यक्तियों के संगठन से होता है। वे सामान्य प्रकति के होते हैं और व्यक्तियों से स्वतंत्र होते हैं। जैसे-मान्यताएँ, संवेदनाएँ आदि।

→ समाज में श्रम विभाजन-समाज का वर्गीकरण-दुर्थीम ने समाज का वर्गीकरण सामाजिक एकता की प्रकृति के आधार पर दो प्रकारों में किया है

  • यांत्रिक एकता पर आधारित प्राचीन सरल समाज और
  • सावयवी एकता पर आधारित आधुनिक जटिल समाज । यथा

(अ) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज की विशेषताएँ

  • व्यक्तिगत एकरूपता तथा कम जनसंख्या
  • विभिन्न स्वावलम्बी समूह तथा प्रत्येक समूह में व्यक्तियों के क्रियाकलापों की एकरूपता
  • मानदण्ड की अवहेलना पर कठोर दण्ड (दमनकारी कानून)

(ब) सावयवी एकता वाले आधुनिक समाज की विशेषताएँ

  • सावयवी एकता तथा सदस्यों की विषमताओं पर आधारित
  • वृहत जनसंख्या
  • अवैयक्तिक सामाजिक सम्बन्ध
  • परस्पर आश्रित सामाजिक समूह (पारस्परिक निर्भरता)
  • क्षतिपूरक कानून
  • अवैयक्तिक नियम तथा कानून ।

→ मैक्स वेबर (1864-1920) मैक्स वेबर जर्मनी में अपने समय के महत्त्वपूर्ण सामाजिक विचारक थे। इन्होंने निम्नलिखित विषयों पर विस्तारपूर्वक लिखा है

  • सामाजिक क्रिया
  • व्याख्यात्मक समाजशास्त्र
  • शक्ति और सत्ता
  • आधुनिक समाज में युक्तिसंगत प्रक्रिया
  • विश्व के विभिन्न धर्मों का सम्बन्ध।

यथा -
(1) सामाजिक क्रिया-वेबर के लिए 'सामाजिक क्रिया' में वे सब मानवीय व्यवहार सम्मिलित थे, जो अर्थपूर्ण थे अर्थात् वे क्रियाएँ जिनसे कर्ता किसी अर्थ को संबद्ध करता हो । सामाजिक क्रिया के अध्ययन में समाजशास्त्री का कार्य उन अर्थों को ढूँढना था जो कर्ता द्वारा समझे जाते थे।

(2) व्याख्यात्मक समाजशास्त्र-वेबर के व्याख्यात्मक समाजशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं

  • सामाजिक क्रिया का अध्ययन-वेबर के मत में सामाजिक विज्ञानों का पूर्ण उद्देश्य 'सामाजिक क्रिया की व्याख्यात्मक सोच' का विकास करना है। इनका सरोकार सामाजिक क्रियाओं से है।
  • भिन्न पद्धतियाँ-इसलिए इसकी पद्धतियाँ प्राकृतिक विज्ञान की पद्धतियों से भिन्न होंगी।
  • समानुभूति समझ-समाजशास्त्र सुव्यवस्थित रूप से अनुभूति के साथ होता है जो समाजशास्त्रियों को सामाजिक कर्ताओं के विषयगत अर्थों को समझने में मदद करता है।
  • वस्तुनिष्ठ अध्ययन-समाजशास्त्री, बिना स्वयं की निजी मान्यताओं तथा प्रक्रिया से प्रभावित हुए, पूर्णरूपेण विषयगत अर्थों तथा सामाजिक कर्ताओं की अभिप्रेरणाओं को ईमानदारीपूर्वक अभिलिखित करें। इस प्रकार वेबर ने वस्तुनिष्ठता को 'मूल्य तटस्थता' कहा है।
  • आदर्श प्रारूप-वेबर ने समाजशास्त्र के लिए एक अन्य पद्धति शास्त्रीय उपकरण 'आदर्श प्रारूप' की बात की है। यह सामाजिक घटना का तार्किक एकरूपीय मॉडल है। यह विश्लेषण में मदद के लिए अपनाया गया अवधारणात्मक प्रारूप होता है। यह विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण प्रघटना प्रारूपों को बढ़ा-चढ़ाकर या दूसरों को कमतर दिखाते हैं। इसलिए इसका मुख्य कार्य वास्तविकता के समरूप होते हुए अध्ययनगत सामाजिक प्रघटना के मुख्य प्रारूपों को जोड़ना तथा उनके विश्लेषण में सहायता करना है।

(3) विश्व के प्रमुख धर्मों का सम्बन्ध-विश्व के अलग-अलग धर्मों के नैतिक सम्बन्धों और अलग-अलग सभ्यताओं की सामाजिक व्यवस्था को समझने व विश्लेषण के लिए वेबर ने एक आदर्श प्रारूप तैयार किया। यह बताया कि यूरोप में पूँजीवाद के विकास में प्रोटेस्टेण्ट ईसाई धर्म के मूल्यों का योगदान है।

(4) सत्ता का वर्गीकरण-वेबर ने आदर्श प्रारूपों का प्रयोग तीन विभिन्न प्रकार की सत्ता

  • पारम्परिक
  • करिश्माई
  • तर्कसंगत वैधानिक को परिभाषित करने के लिए किया है। पारस्परिक सत्ता का उद्भव प्रथा तथा प्रचलन है, करिश्माई सत्ता का उद्भव दैविक स्रोत हैं तथा तर्कसंगत वैधानिक सत्ता का आधार कानून है तथा नौकरशाही इसका प्रतीक है।

नौकरशाही नौकरशाही वह संगठन है जो सार्वजनिक क्षेत्र में स्पष्ट नियमों से संचालित होता है तथा यह कर्मचारियों की शक्तियों को उनकी जिम्मेदारियों की तुलना में प्रतिबंधित करता है तथा उन्हें सम्पूर्ण शक्ति प्रदान नहीं करता।

RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

→ नौकरशाही की विशेषताएँ हैं

  • अधिकारियों के प्रकार्य
  • सोपानिक क्रम
  • लिखित दस्तावेजों की विश्वसनीयता
  • कार्यालय प्रबंधन
  • कार्यालयी आचरण।।
Prasanna
Last Updated on Sept. 1, 2022, 11:22 a.m.
Published Sept. 1, 2022