These comprehensive RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 11 Sociology Chapter 2 Notes ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था
→ सामाजिक परिवर्तन-सामाजिक परिवर्तन एक सामान्य अवधारणा है जिसका प्रयोग किसी भी परिवर्तन के लिए किया जा सकता है, जैसे—आर्थिक अथवा राजनैतिक परिवर्तन। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सामाजिक परिवर्तन से आशय उन परिवर्तनों से है जो महत्त्वपूर्ण हैं-अर्थात्, वे परिवर्तन जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को समयावधि में बदल दें। इस प्रकार परिवर्तन में मात्र वे बड़े परिवर्तन सम्मिलित किये जाते हैं जो वस्तुओं को बुनियादी तौर पर बदल देते हैं। परिवर्तन के बड़े होने से यहाँ आशय परिवर्तन के पैमाने से है अर्थात् समाज के कितने बड़े भाग को उसने प्रभावित किया है।
दूसरे शब्दों में, परिवर्तन दोनों, सीमित तथा विस्तृत तथा समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाला होना चाहिए ताकि वह सामाजिक परिवर्तन के योग्य हो सके।
→ सामाजिक परिवर्तन के वर्गीकरण
(अ) सामाजिक परिवर्तन को प्राकृतिक आधार पर अथवा समाज पर इसके प्रभाव अथवा इसकी गति के आधार पर निम्न रूपों में वर्गीकृत किया जाता है
- उद्विकास-ऐसे परिवर्तन को उद्विकास का नाम दिया गया है जो काफी लम्बे समय तक धीरे-धीरे होता है। यह शब्द, प्राणीशास्त्र चार्ल्स डार्विन द्वारा दिया गया है। डार्विन ने 'योग्यतम की उत्तरजीविता' के सिद्धान्त को प्राकृतिक प्रक्रियाओं में दिखाया। इसे सामाजिक विश्व में स्वीकृत कर 'सोशल डार्विनिज्म' के नाम से जाना गया।
- क्रांतिकारी परिवर्तन-वह परिवर्तन जो तुलनात्मक रूप से शीघ्र अथवा अचानक होता है, उसे क्रांतिकारी परिवर्तन कहते हैं । इसका प्रयोग मुख्यतः राजनीतिक संदर्भ में होता है, जहां समाज में शक्ति की संरचना में शीघ्रतापूर्ण परिवर्तन लाकर इसे चुनौती देने वालों द्वारा पूर्व सत्ता वर्ग को विस्थापित कर लिया जाता है। जैसेफ्रांसीसी क्रांति, 1917 की रूस की वोल्शेविक क्रांति आदि। इस शब्द का प्रयोग औद्योगिक क्रांति व संचार क्रांति के लिए भी होता है।
(ब) परिवर्तन की प्रकृति या परिणाम के आधार पर सामाजिक परिवर्तन दो प्रकार के बताये जाते हैं
- संरचनात्मक परिवर्तन
- विचारों, मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन।
(1) संरचनात्मक परिवर्तन-संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक संस्थाओं अथवा संस्थागत नियमों में परिवर्तन आते हैं। | (2) मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन-मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं, जैसे-बच्चों तथा बचपन से संबंधित विचारों तथा मान्यताओं में परिवर्तन।
(स) सामाजिक परिवर्तन के स्रोतों या कारकों का आधार पर वर्गीकरण-इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन को
- आंतरिक परिवर्तन और
- बाह्य परिवर्तन में वर्गीकृत किया जाता है।
→ सामाजिक परिवर्तन के कारण सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख स्रोत अथवा कारक निम्नलिखित हैं
(1) पर्यावरण-प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण का समाज की संरचना तथा स्वरूप पर प्रभाव हमेशा से रहा है।
प्राचीन काल में जब मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने व झेलने में अक्षम था, तब उनका निवास, रहनसहन, भोजन, कपड़े तथा आजीविका के रूप काफी हद तक उनके पर्यावरण के भौतिक तथा जलवायु की स्थितियों से निर्धारित होता था।
वर्तमान काल में तकनीकी विकास ने समाज पर प्रकृति के प्रभाव का रूप बदला है । प्राकृतिक विपदाओं, जैसे| भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, ज्वारभाटीय तरंगों आदि ने समाज में काफी परिवर्तन ला दिया है। ये परिवर्तन स्थायी होते हैं तथा चीजों को वापस अपनी पूर्व स्थिति में नहीं आने देते।
(2) तकनीक तथा अर्थव्यवस्था-विशेषकर आधुनिक काल में, तकनीक तथा आर्थिक परिवर्तन के संयोग से समाज में तीव्र परिवर्तन आया है।
तकनीक द्वारा परिवर्तन के रूप-प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित करने, उसके अनुरूप ढालने तथा उसके दोहन करने में। उदाहरण के लिए-औद्योगिक क्रांति।
- कभी-कभी तकनीक का सामाजिक प्रभाव व्यापक होता है, जैसे—वाष्प शक्ति का प्रभाव।
- कभी-कभी तकनीकी आविष्कार अथवा खोज का तात्कालिक प्रभाव संकुचित होता है; बाद में होने वाले | परिवर्तन आर्थिक संदर्भ में उसके प्रभाव को व्यापक बना देते हैं, जैसे-चीन में बारूद और कागज की खोज।
- कई बार आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन जो प्रत्यक्षतः तकनीकी नहीं होते हैं, भी समाज को बदल देते हैं। जैसे-नकदी फसलों के रोपण की कृषि।
(3) राजनीति-राजनैतिक शक्तियाँ सामाजिक परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण कारक रही हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण युद्ध तंत्र में देखा जा सकता है। जब एक समाज दूसरे समाज पर युद्ध घोषित करता है तथा जीतता या हार जाता है, सामाजिक परिवर्तन इसका तात्कालिक परिणाम होता है। कभी विजेता परिवर्तन के बीज अपने साथ जहाँ कहीं भी जाता है, बोता है; तो कभी विजित विजेताओं के समाज को परिवर्तित करने तथा परिवर्तन के बीज बोने में सफल होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और जापान इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। साधारण रूप से, राजनैतिक परिवर्तन, शक्ति के पुनः बंटवारे के रूप में विभिन्न सामाजिक समूहों तथा वर्गों के बीच सामाजिक परिवर्तन लाता है। इस दृष्टि से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार अथवा 'एक व्यक्ति एक मत सिद्धान्त' राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन है। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार आज एक शक्तिशाली मानदण्ड के रूप में काम करता है, जो प्रत्येक सरकार तथा प्रत्येक समाज को महत्त्व देता है।
(4) संस्कृति-संस्कृति को यहाँ विचारों, मूल्यों और मान्यताओं के रूप में प्रयुक्त किया गया है। इनमें परिवर्तन प्राकृतिक रूप से सामाजिक जीवन में परिवर्तन को दिखाते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था का सबसे सामान्य उदाहरण धर्म है, जिसका समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। धार्मिक मान्यताओं और मानदण्डों ने समाज को व्यवस्थित करने में मदद दी तथा इन मान्यताओं में परिवर्तन ने समाज को बदलने में मदद की। उदाहरण के लिए—पूँजीवादी सामाजिक प्रणाली की स्थापना में प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म ने मदद की। भारत में मध्यकाल में बौद्ध धर्म के व्यापक प्रभाव को देखा जा सकता है। आधुनिक काल में महिलाओं ने समानता के लिए जो संघर्ष किया है, उन संघर्षों ने समाज को कई रूपों में परिवर्तित करने में सहायता की। कारखाने, उपभोक्ता विज्ञापन इसके उदाहरण हैं, खेलकूद का इतिहास भी इस | सांस्कृतिक प्रभाव को दिखाता है। अतः स्पष्ट है कि
- कोई एक कारक सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेवार नहीं होता है, बल्कि यह अनेक कारकों का परिणाम होता है। ये कारक आंतरिक या बाह्य हो सकते हैं, सोची-समझी क्रिया या आकस्मिक हो सकते हैं।
- सामाजिक परिवर्तन के कारक अधिकांशतः परस्पर सम्बन्धित होते हैं।
→ सामाजिक व्यवस्था
- सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक व्यवस्था के साथ ही समझा जा सकता है, जहाँ सुस्थापित सामाजिक प्रणालियाँ परिवर्तन का प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती हैं।
- समाज द्वारा परिवर्तन को रोकने या नियंत्रित करने के कारण-समाज द्वारा परिवर्तन को रोकने, हतोत्साहित करने या नियंत्रित करने के सामान्य और विशिष्ट कारण निम्नलिखित हैं
(अ) समाज द्वारा परिवर्तन रोकने का सामान्य कारण-प्रत्येक समाज को अपने आपको समय के साथ पुनउत्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि चीजें कमोबेश वैसी ही बनी रहें जैसी वे हैं—अर्थात् व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे, समान क्रियायें एक ही प्रकार के परिणाम दें और साधारणतः व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमति रूप से आचरण करें। यह समाज द्वारा सामाजिक परिवर्तन को रोकने का अमूर्त या सामान्य कारण है।
(ब) विशिष्ट कारण-समाज द्वारा सामाजिक परिवर्तन को रोकने के विशिष्ट कारण ये हैं
- सामाजिक स्तरीकरण-प्रत्येक समाज स्तरीकृत रूप में है और समाज के शासक या प्रभावशाली वर्ग | अधिकांशतः अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए सामाजिक परिवर्तन का विरोध करते हैं।
- सामाजिक मानदण्डों का पालन-प्रत्येक समाज में सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए व्यक्तियों | को मानदण्डों का पालन करना आवश्यक होता है। चाहे वह ऐसा स्वतः करे या सामाजिक व्यवस्था द्वारा बाध्य होकर करे। यह स्थिति भी सामाजिक परिवर्तन को रोकने का प्रयास करती है।
- समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा-समाजीकरण के द्वारा व्यवस्था को बनाये रखने के अथक प्रयास भी सामाजिक परिवर्तन को रोकने का कारण हैं।
- शक्ति या सत्ता के बल द्वारा-संस्थागत तथा सामाजिक मानदण्डों को बनाए रखने के लिए शक्ति और सत्ता का सहारा लिया जाता है। सत्ता एक व्यक्ति को मनचाहे कार्य करवाने की क्षमता रखती है। शक्ति व सत्ता के दबाव के कारण व्यक्तियों को कुछ कार्य जबरन करने पड़ते हैं। जैसे-महिलाओं का बाह्य सहयोग।
→ प्रभाव, सत्ता तथा कानून
- प्रभावशाली वर्ग असंतुलित संबंधों में अपनी शक्ति के बल पर सहयोग प्राप्त करते हैं। यह शक्ति वैधता के आधार पर कार्य करती है।
- वैधता-वैधता स्वीकृति की स्थिति है। ऐसी चीजें जो उचित, सही तथा ठीक मानी जाती हैं, वैध हैं । वैधता सामाजिक संविदा का अभिस्वीकृत भाग है जो सामयिक रूप से प्रचलित है। यह अधिकार, सम्पत्ति तथा न्याय के प्रचलित मानदण्डों की अनुरूपता में निहित है।
- सत्ता-औपचारिक सत्ता-वेबर के अनुसार, सत्ता कानूनी शक्ति है। सत्ता का अर्थ है कि समाज के अन्य सदस्य जो इसके नियमों तथा नियमावलियों को मानने के लिए तैयार हैं तथा इस सत्ता को एक सही क्षेत्र में मानने को बाध्य हों। जैसे—कोर्टरूम में न्यायाधीश की सत्ता, सड़क पर पुलिस की सत्ता, कक्षा में शिक्षक की सत्ता आदि। अनौपचारिक सत्ता
- एक अन्य प्रकार की सत्ता जिनको सख्ती से परिभाषित नहीं किया गया है, परन्तु वह सहयोग तथा सहमति बनाने में प्रभावी होती है। जैसे-धार्मिक नेता की शक्ति, शिक्षाविद, कलाकार, लेखक तथा अन्य बुद्धिजीवियों की अपनेअपने क्षेत्रों में शक्ति।
- कानून-कानून सुस्पष्ट संहिताबद्ध मानदण्ड अथवा नियम होते हैं। यह प्रायः लिखित होते हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में कानून विधायिका द्वारा तैयार किये जाते हैं। ये कानून नियमों को बनाते हैं जिनके द्वारा समाज पर शासन किया जाता है। कानून प्रत्येक नागरिक पर लागू होता है।
- प्रभाव-प्रभाव, शक्ति के तहत कार्य करता है। अधिकांश प्रभावी शक्ति कानूनी होती है लेकिन कई प्रकार की ऐसी शक्तियाँ भी हैं जो समाज में प्रभावी हैं और वे गैर कानूनी हैं या कानूनी रूप से संहिताबद्ध नहीं हैं । शक्ति के तहत प्रभाव सामाजिक व्यवस्था की प्रकृति तथा उसकी गतिशीलता को निर्धारित करता है।
→ विवाद (संघर्ष), अपराध तथा हिंसा विवाद-विवाद विस्तृत रूप में असहमति के लिए एक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
- विवाद प्रचलित सामाजिक मानदण्डों का विरोध अथवा अस्वीकृति है, जैसे-युवा असन्तोष।
- विवाद, कानून अथवा कानूनी सत्ता से असहमति अथवा विद्रोह भी होता है।
- असहमति के लिए स्पष्ट तथा अस्पष्ट दोनों प्रकार की सीमाएँ परिभाषित की गई होती हैं। समाज असहमति की एक महत्त्वपूर्ण सीमा अंकित करता है। इन सीमाओं के अनेक प्रकार हैं, जैसे-कानूनी तथा गैर-कानूनी, वैध तथा अवैध, माननीय तथा अमाननीय।
→ अपराध-अपराध एक ऐसा कर्म है, जो विद्यमान कानून को तोड़ता है, न ज्यादा, न कम। अतः अपराध कानून द्वारा परिभाषित वैध सीमाओं के बाहर जाना है।
→ हिंसा
- राज्य ही कानूनी रूप से हिंसा का प्रयोग कर सकता है अन्य कोई व्यक्ति या समूह नहीं। तकनीकी रूप से हिंसा की प्रत्येक क्रिया को राज्य के खिलाफ देखा जा सकता है।
- हिंसा सामाजिक व्यवस्था की शत्रु, विरोध का उग्र रूप, सामाजिक तनाव का प्रतिफल तथा गंभीर समस्याओं की प्रदाता है। यह राज्य की सत्ता को चुनौती भी है।
→ गाँव, कस्बों तथा नगरों में सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक परिवर्तन
गाँव
(1) सामाजशास्त्रीय दृष्टिकोण-समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, गांवों का उद्भव सामाजिक संरचना में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों से हुआ, जहाँ खानाबदोशी जीवन की पद्धति (शिकार, भोजन संकलन तथा अस्थायी कृषि) का संक्रमण स्थायी जीवन में हुआ। स्थायी कृषि के साथ सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आया। स्थायी कृषि, भूमि निवेश तथा तकनीकी खोजों से संपत्ति का जमाव हुआ जिससे सामाजिक विषमताएँ आईं। अत्यधिक श्रम-विभाजन ने व्यावसायिक विशिष्टता को जन्म दिया। इन सब परिवर्तनों ने मिलकर गांव के उद्भव को एक स्वरूप दिया।
(2) आर्थिक तथा प्रशासनिक दृष्टिकोण-आर्थिक तथा प्रशासनिक दृष्टिकोण से ग्रामीण तथा नगरीय बसावट के दो मुख्य आधार हैं
- जनसंख्या का घनत्व-शहरों की तुलना में गांवों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है।
- कृषि आधारित आर्थिक क्रियाओं का आधार-गांवों की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा कृषि संबंधित व्यवसाय से जुड़ा होता है।
- कस्बे तथा नगर-कस्बे और नगर का अन्तर उनके आकार के आधार पर होता है। नगर या कस्बे में जनंसख्या का घनत्व गांवों की तुलना में अधिक होता है तथा इनकी जनसंख्या गैर-कृषि व्यवसाय से जुड़ी होती है। शहरी संकुल-यह शब्द एक ऐसे नगर के संदर्भ में प्रयुक्त होता है जिसके चारों ओर उप-नगरीय क्षेत्र तथा उपाश्रित व्यवस्थापन होते हैं। महानगरीय क्षेत्र-महानगरीय क्षेत्र के अन्तर्गत एक से अधिक नगर आते हैं।
- नगरीकरण-आधुनिक समाज में नगरीकरण की प्रक्रिया जारी है। संयुक्त राष्ट्र संघ की 2007 की रिपोर्ट के अनुसार, मानव इतिहास में पहली बार, संसार की नगरीय जनसंख्या, ग्रामीण जनसंख्या को पीछे छोड़ देगी। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की 28% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में रहती है।
→ ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक परिवर्तन
ग्रामीण सामाजिक संरचना का स्वरूप
- गांवों का आकार छोटा होता है। अतः यहाँ व्यक्तिगत सम्बन्धों का प्राधान्य है।
- गांवों की सामाजिक संरचना परम्परागत तरीकों से चालित होती है। इसलिए जाति, धर्म व प्रथाएँ यहाँ प्रभावी हैं। इसलिए यहाँ परिवर्तन नगरों की अपेक्षा धीमी गति से होता है।
(3) ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तन धीमी गति से होने के अन्य कारण हैं
- अभिव्यक्ति के दायरों का कम होना
- समुदाय से व्यक्ति का असहमत होना कठिन
- प्रभावशाली वर्गों की नियंत्रणकारी शक्ति
- पहले से विद्यमान मजबूत शक्ति संरचना
- गांवों का पूरी दुनिया के साथ एकीकृत न होना (यद्यपि वर्तमान में संचार के नये साधनों से यह स्थिति नहीं रही है।)
→ ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाने वाले प्रमुख कारक
(i) कृषि से संबंधित परिवर्तन अथवा कृषकों के सामाजिक सम्बन्धों का ग्रामीण समाजों पर गहरा प्रभाव पड़ा है।। यथा
(क) भू-स्वामित्व की संरचना में आए परिवर्तनों पर भूमि सुधार जैसे कदमों का सीधा प्रभाव पड़ा।
(ख) गांवों में संख्या के अनुरूप प्रभावी जातियों का सामाजिक तथा राजनैतिक स्तर बढ़ा।
(ग) वर्तमान में भारत में प्रभावी जातियां, स्वयं अपने से निम्न तथा निम्नतर तथा अत्यधिक पिछड़ी जातियों द्वारा दृढ़तापूर्वक किए गए विद्रोहों से स्वयं भी जूझ रही हैं।
(ii) कृषि की तकनीकी प्रणाली में परिवर्तन ने भी ग्रामीण समाज पर व्यापक तथा तात्कालिक प्रभाव डाला है। (iii) कृषि की कीमतों में आकस्मिक उतार-चढ़ाव, सूखा अथवा बाढ़ ग्रामीण समाज में विप्लव मचा देते हैं।
(iv) बड़े स्तर पर विकास कार्यक्रम जो निर्धन ग्रामीणों को ध्यान में रखकर चलाए जाते हैं, उनका भी काफी | प्रभाव पड़ता है।
नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक परिवर्तन
- नगर अपने आप में बेहद प्राचीन हैं। ये प्राचीन समाज में भी थे। लेकिन नगरवाद, जनसमूह के एक बड़े | भाग की जीवन पद्धति के रूप में आधुनिक घटना है।
- आधुनिककाल में नगरों की महत्ता तथा स्थिति को निर्धारित करने वाले कारक रहे हैं
- नगरीय जीवन तथा आधुनिकता दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। नगर सघन जनसंख्या के निवास, राजनीति के स्थल, व्यक्ति के लिए अंतहीन संभावनाओं के स्थल तथा व्यक्तिवाद के पोषण स्थल के रूप में जाने जाते हैं।
- नगर में स्वतंत्रता तथा अवसर केवल कुछ आर्थिक और सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यकों को ही प्राप्त हैं। अधिकतर व्यक्ति तो नगरों में बाध्यताओं में ही सीमित रहते हैं तथा उन्हें सापेक्षिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती है।
- दूसरे, नगर भी समूह-पहचान के विकास को प्रतिपालित करते हैं।
- तीसरे, नगरों के अधिकांश महत्त्वपूर्ण मुद्दे तथा समस्याओं का संबंध स्थान के प्रश्न से जुड़ा है। जनसंख्या का उच्च घनत्व स्थान पर अत्यधिक जोर देता है तथा तार्किक स्तर पर जटिल समस्यायें खड़ी करता है। निवास तथा आवासीय पद्धति, जन-यातायात के साधन नगरीय सामाजिक व्यवस्था के बुनियादी तत्त्व हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ सरकारी तथा औद्योगिक भू-उपयोग क्षेत्र के अस्तित्व की व्यवस्था, जनस्वास्थ्य, स्वच्छता, पुलिस, जन-सुरक्षा तथा शासन पर नियंत्रण की आवश्यकता भी इसी से जुड़ी हुई है। समूह, नृजातीयता, धर्म, जाति के विभाजन व तनाव भी अनेक समस्यायें लाते हैं।
- चौथे, नगरों में गन्दी बस्तियों की समस्यायें भी मुखरित रहती हैं।
- पांचवें, आवासीय प्रतिमान नगरीय अर्थव्यवस्था से निर्णायक रूप से जुड़े हैं। नगरीय परिवहन व्यवस्था आवासीय क्षेत्रों के साथ-साथ औद्योगिक तथा वाणिज्यिक कार्यस्थलों से भी प्रभावित हुई है। परिवहन व्यवस्था का नगर में काम करने वालों की 'जीवन की गुणवत्ता' पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
- - छठे, नगरीय केन्द्र अथवा मूल नगर के केन्द्रीय क्षेत्र के जीवन में बहुत परिवर्तन हुए हैं। उपनगर के विकास, भद्रीकरण इसके परिवर्तन के कारक हैं। उद्यमियों ने भी इसे प्रभावित किया है। सातवें, जन-परिवहन के साधनों में परिवर्तन नगरों में सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं।