These comprehensive RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 11 Sociology Chapter 2 Notes समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग
→ शब्दावली तथा संकल्पनाएँ-किसी विषय के लिए, जो उन पदार्थों से संबंध रखता है जिन्हें सामान्यतः लोग नहीं जानते तथा जिनके लिए सामान्य भाषा में कोई शब्द नहीं है, यह आवश्यक है कि उस विषय की अपनी एक शब्दावली हो। समाजशास्त्र के लिए शब्दावली और भी अधिक महत्वपूर्ण है, यद्यपि इसकी विषय-वस्तु मौजूद है और इसे दर्शाने के लिए शब्द भी मौजूद हैं तथापि उन्हें हम स्पष्ट और बारीकी से नहीं देख सकते क्योंकि वे अमूर्त
समाजशास्त्रीय संकल्पनाओं की भी एक कहानी है। बहुत सी संकल्पनाएँ सामाजिक चिन्तनों के उन सामाजिक परिवर्तनों को समझने और उनका खाका खींचने की चिन्ता को दर्शाती हैं जो कि पूर्व आधुनिक समय से लेकर आधुनिक समय तक स्थानान्तरित हुए हैं। ये संकल्पनाएँ हैं
- प्राथमिक समूह,
- द्वितीयक समूह,
- स्तरीकरण-जाति और वर्ग,
- सामाजिक एकता और सामूहिक चेतना,
- प्रकार्यवादी सिद्धान्त,
- संघर्षवादी सिद्धान्त,
- प्रस्थिति और भूमिका तथा
- समाजीकरण व सामाजिक नियंत्रण की संकल्पनाएँ आदि।
→ समाजशास्त्र में हम संकल्पनाओं और वर्गीकरण का प्रयोग करते हैं और साथ-साथ इनको निरन्तर जांचते भी हैं। एक ही सामाजिक वस्तु के बारे में विभिन्न संकल्पनाएँ हो सकती हैं, जैसे—संघर्षवादी सिद्धान्त बनाम प्रकार्यवादी सिद्धान्त। उपागमों की यह बहुलता समाजशास्त्र की विशेषता है क्योंकि समाज स्वयं विविध रूपों में है।
→ सामाजिक समूह एवं समाज-समाजशास्त्र मानव के सामाजिक जीवन का अध्ययन है और मानव अपने | सामाजिक जीवन में परस्पर अन्तःक्रिया करता है, संवाद करता है और सामाजिक सामूहिकता को भी बनाता है। समाजशास्त्र तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दो तथ्यों को सामने लाता है
- प्रत्येक समाज में मानवीय समूह और सामूहिकताएँ विद्यमान रहती हैं।
- विभिन्न समाजों में समूहों और सामूहिकताओं के प्रकार अलग-अलग होते हैं।
→ अर्द्ध-समूह-किसी भी तरह से लोगों का इकट्ठा होना अर्थात् समुच्चय सिर्फ लोगों का जमावड़ा होता है जो एक समय में एक ही स्थान पर एकत्रित होते हैं लेकिन एक-दूसरे से कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं रखते। समुच्चय को अक्सर अर्द्ध समूहों का नाम दिया जाता है। इसमें संगठन की कमी होती है तथा जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ तथा कम जागरूक होते हैं।
सामाजिक वर्ग, प्रस्थिति समूह, आयु एवं लिंग समूह तथा भीड़ अर्द्ध-समूह के उदाहरण हैं। ये अर्द्ध-समूह समय और विशेष परिस्थितियों में सामाजिक समूह बन सकते हैं।
सामाजिक समूह-एक सामाजिक समूह में कम से कम निम्न विशेषताएँ होनी चाहिए
(क) निरन्तरता के लिए दीर्घ स्थायी अन्तःक्रिया;
(ख) इन अन्तःक्रियाओं का स्थिर प्रतिमान;
(ग) अन्य सदस्यों के साथ एक-सी पहचान बनाने के लिए अपनत्व की भावना अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति समूह तथा इसके नियमों, अनुष्ठानों और प्रतीकों के प्रति सचेत हो;
(घ) साझी रुचि;
(ङ) सामान्य मानकों और मूल्यों को अपनाना;
(च) एक परिभाषित संरचना।
इस प्रकार एक सामाजिक समूह से तात्पर्य निरन्तर अन्तःक्रिया करने वाले उन व्यक्तियों से है, जो एक समाज में समान रुचि, संस्कृति, मूल्यों और मानकों को बाँटते हैं।
समूहों के प्रकार-विभिन्न समाजशास्त्रियों और मानव विज्ञानियों ने समूहों को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया है। यथा
- प्राथमिक और
- द्वितीयक सामाजिक समूह।
(1) प्राथमिक समूह-प्राथमिक समूह से तात्पर्य लोगों के एक छोटे समूह से है जो घनिष्ठ, आमने-सामने के मेल-मिलाप और सहयोग द्वारा जुड़े होते हैं। इनके सदस्यों में परस्पर संबंधित होने की भावना होती है। ये व्यक्तिउन्मुख होते हैं। परिवार, ग्राम, मित्र-मण्डली प्राथमिक समूहों के उदाहरण हैं।
(2) द्वितीयक सामाजिक समूह-द्वितीयक समूह आकार में अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। उनमें औपचारिक और अवैयक्तिक संबंध होते हैं। ये लक्ष्योन्मुख होते हैं। विद्यालय, सरकारी कार्यालय, अस्पताल, छात्र संघ द्वितीय समूहों के उदाहरण हैं।
→ समुदाय एवं समाज अथवा संघ
- समुदाय-समुदाय से तात्पर्य उन मानव सम्बन्धों से है, जो बहुत अधिक वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी होते हैं; जहाँ एक व्यक्ति की भागीदारी महत्वपूर्ण होती है। यह प्राथमिक समूहों के समतुल्य होता है।
- समाज अथवा संघ-समाज अथवा संघ का तात्पर्य समुदाय के विपरीत होता है। इसमें मानव-सम्बन्ध अवैयक्तिक, बाहरी तथा अस्थायी होते हैं। ये द्वितीयक समूहों के समतुल्य होते हैं।
→ अंतःसमूह एवं बाह्य समूह
- अंतःसमूह-संबंधित होने की भावना अन्तःसमूह की पहचान है। इसमें 'हम' या 'हमें' की भावना होती है। यह भावना 'उन्हें' अथवा 'वे' से अलग होती है।
- बाह्य समूह-एक बाह्य समूह वह होता है जिससे एक अन्तःसमूह के सदस्य संबंधित नहीं होते। प्रवासियों को प्रायः बाह्य समूह माना जाता है।
→ संदर्भ समूह
किसी भी समूह के लोगों के लिए हमेशा ऐसे दूसरे समूह होते हैं जिनको वे अपने आदर्श की तरह देखते हैं तथा उनके जैसे बनना चाहते हैं। ये आदर्श समूह संदर्भ समूह कहलाते हैं।
→ समवयस्क समूह
यह एक प्रकार का प्राथमिक समूह है जो सामान्यतः समान आयु के व्यक्तियों के बीच अथवा सामान्य व्यवसाय समूह के लोगों के बीच अपने समवयस्क साथी द्वारा डाले गए सामाजिक दबाव से बनता है।
→ सामाजिक स्तरीकरण
- अर्थ-सामाजिक स्तरीकरण को लोगों के विभिन्न समूहों के बीच की संरचनात्मक असमानताओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
- स्तरीकरण का महत्त्व-समाज के संगठन में स्तरीकरण का महत्वपूर्ण स्थान होने के कारण शक्ति और लाभ की असमानता समाजशास्त्र में केन्द्रीय तत्व है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक पक्ष स्तरीकरण से प्रभावित होता है।
- स्तरीकरण की मूल व्यवस्थाएँ-मानव समाजों में ऐतिहासिक रूप में, स्तरीकरण की चार मूल व्यवस्थाएँ मौजूद रही हैं। ये हैं
- दासता
- इस्टेट
- जाति और
- वर्ग।
यथा
(1) दासता-यह असमानता का चरम रूप है जिसमें कुछ व्यक्तियों पर दूसरों का अधिकार होता है। प्राचीन | ग्रीस और रोम में यह प्रथा विद्यमान थी। भारत में बंधुआ मजदूरी भी इसी से मिलती-जुलती व्यवस्था है।
(2) इस्टेट-इस्टेट सामंतवादी यूरोप की विशेषता थी।
(3) जाति-जाति पर आधारित स्तरीकरण की व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति पूरी तरह से जन्म द्वारा प्रदत्त प्रस्थिति पर आधारित होती है, न कि अर्जित प्रस्थिति पर।
- परम्परागत भारत में, विभिन्न जातियाँ सामाजिक श्रेष्ठता का अधिक्रम बनाती थीं। जाति संरचना में प्रत्येक स्थान दूसरों के सम्बन्ध में इसकी शुद्धता या अपवित्रता के द्वारा परिभाषित था। इसी आधार पर ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ तथा 'बाह्य जाति' को सबसे निम्न कहा गया। परम्परागत व्यवस्था में सामान्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के चार वर्गों के रूप में संकल्पित किया गया है । व्यवहार में, व्यवसाय पर आधारित अनगिनत समूहों को जाति कहा जाता है। जाति एक वेद वर्ग है जिसमें सामाजिक अधिक्रम निश्चित तथा कठोर होता है तथा यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है।
- जाति व्यवस्था में परिवर्तन-भारत में जाति व्यवस्था में समय के साथ-साथ बहुत बदलाव आए हैं। नगरीकरण तथा लोकतंत्र की कार्यप्रणाली ने जाति-व्यवस्था को प्रभावित किया है।
(4) वर्ग-आधुनिक वर्ग व्यवस्था खुली है और उपलब्धि पर आधारित है।
- मार्क्स के अनुसार प्रत्येक समाज में दो प्रमुख वर्ग होते हैं। एक वह वर्ग जो उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है तथा दूसरा वह जो उत्पादन के साधनों से विहीन होता है। अतः वर्ग उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के आधार पर निर्धारित किये जाने वाला समूह है।
- मैक्स वेबर ने वर्ग के लिए जीवन-अवसर शब्द का प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य बाजार क्षमता की सामर्थ्य के प्रतिफल और लाभ से है। यह असमानता—आर्थिक सम्बन्धों, प्रतिष्ठा और राजनीतिक शक्ति—पर आधारित हो सकती है।
- स्तरीकरण का प्रकार्यवादी सिद्धान्त के अनुसार कोई भी समाज 'वर्गहीन' या 'संस्तरणमुक्त' नहीं है। मुख्य प्रकार्यक आवश्यकता सामाजिक स्तरीकरण की वैश्विक उपस्थिति का वर्णन करती है।
- सामाजिक स्तरीकरण अनजाने में विकसित किया गया वह साधन है जिसके द्वारा समाज यह निश्चित करता है कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थितियों को जानबूझकर सबसे योग्य व्यक्तियों द्वारा भरा जाए।
→ प्रस्थिति और भूमिका
- प्रस्थिति समाज या एक समूह में एक स्थिति है। प्रत्येक समाज और समूह में ऐसी कई स्थितियाँ होती हैं और प्रत्येक व्यक्ति ऐसी कई स्थितियों पर अधिकार रखता है। अतः प्रस्थिति से तात्पर्य सामाजिक स्थिति और इन स्थितियों से जुड़े निश्चित अधिकारों और कर्तव्यों से है।
- भूमिका प्रस्थिति का सक्रिय या व्यावहारिक पक्ष है। प्रस्थितियाँ ग्रहण की जाती हैं और भूमिकाएं निभाई जाती | हैं। अतः प्रस्थिति एक संस्थागत भूमिका है। समाज जितना छोटा और सरल होगा, एक व्यक्ति की उतनी ही कम प्रकार की प्रस्थितियाँ होंगी। बडे और जटिल समाजों में व्यक्ति की बहुत-सी प्रस्थितियाँ होती हैं, जिसे 'प्रस्थिति समुच्चय' कहा जाता है। जीवन के विभिन्न चरणों में प्राप्त होने वाली समस्त प्रस्थितियों को 'प्रस्थिति क्रम' कहते हैं।
- प्रदत्त प्रस्थिति-प्रदत्त प्रस्थिति एक सामाजिक स्थिति है, जो एक व्यक्ति जन्म से अथवा अनैच्छिक रूप से ग्रहण करता है। इसका सामान्य आधार आयु, जाति, प्रजाति और नातेदारी है।
- अर्जित प्रस्थिति-अर्जित प्रस्थिति वह सामाजिक स्थिति है जो एक व्यक्ति अपनी इच्छा, अपनी क्षमता, उपलब्धियों, सद्गुणों और चयन से प्राप्त करता है। इसका सामान्य आधार शैक्षणिक योग्यता, आय और व्यावसायिक विशेषज्ञता है।
- परम्परागत समाजों में प्रदत्त प्रस्थिति का अधिक महत्व था और आधुनिक समाजों में अर्जित प्रस्थिति का अधिक महत्व है; यद्यपि दोनों समाजों में दूसरी प्रस्थिति भी अपना महत्व रखती है।
- प्रतिष्ठा-प्रस्थिति या पदाधिकार से जुड़े मूल्य के प्रकार को प्रतिष्ठा कहते हैं। अपनी प्रतिष्ठा के आधार पर लोग अपनी प्रस्थिति को ऊँचा या नीचा दर्जा दे सकते हैं। समाज में कौनसा व्यवसाय प्रतिष्ठित है, यह विचार समाज और समय के साथ बदलता रहता है।
- भूमिका अपेक्षा-लोग अपनी भूमिकाओं को सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार निभाते हैं जो कि भूमिका को | ग्रहण करना और भूमिकाओं को निभाना है।
- भूमिका संघर्ष-भूमिका संघर्ष एक या अधिक प्रस्थितियों से जुड़ी भूमिकाओं की असंगतता है। यह सब होता है जब दो या दो से अधिक भूमिकाओं से विरोधी अपेक्षाएँ पैदा होती हैं। .
- भूमिका स्थिरीकरण-भूमिका स्थिरीकरण, समाज के कुछ सदस्यों के लिए कुछ विशिष्ट भूमिकाओं को सुदृढ करने की प्रक्रिया है। समाजीकरण द्वारा व्यक्ति सामाजिक भूमिकाओं को ग्रहण करते हैं और उन्हें निभाना सीखते हैं। व्यक्ति सामाजिक अन्तःक्रिया की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया द्वारा भूमिकाओं को समझने और अपनाने लगते हैं।
- भूमिकाएँ और प्रस्थितियाँ न ही स्थिर होती हैं और न ही किसी के द्वारा प्रदान की जाती हैं। स्थिर या जाति या लिंग-आधारित भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करते हैं, तो कुछ लोग इसका विरोध करते हैं। दूसरी तरफ व्यक्तियों द्वारा भूमिकाओं का उल्लंघन करने पर उन्हें प्रायः दण्ड दिया जाता है।
→ समाज व सामाजिक नियंत्रण
सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य उन अनेक साधनों से है जिनके द्वारा समाज अपने उदंड या उपद्रवी सदस्यों को पुनः राह पर लाता है।
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण-प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य है
- व्यक्तियों और समूहों के व्यवहार को नियमित करने के लिए बल प्रयोग करना,
- समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए मूल्यों और प्रतिमानों को लागू करना।
संघर्षवादी दृष्टिकोण-संघर्षवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक नियंत्रण ऐसा साधन है जिसके द्वारा समाज के प्रभावी वर्ग का नियंत्रण शेष समाज के लोगों पर लागू किया जाता है।
अतः सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य उन सामाजिक क्रियाओं, तकनीकों और रणनीतियों से है जिनके द्वारा व्यक्ति या समूह के व्यवहार को नियमित किया जाता है। जैसे—बल प्रयोग, मूल्यों और प्रतिमानों को लागू करना आदि।
→ सामाजिक नियंत्रण के प्रकार
(अ) औपचारिक व अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण
- औपचारिक सामाजिक नियंत्रण-जब नियंत्रण के संहिताबद्ध, व्यवस्थित और अन्य औपचारिक साधन प्रयोग किये जाते हैं तो यह औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के रूप में जाना जाता है। इसके प्रमुख साधन व माध्यम हैं—कानून और राज्य।
- अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण-अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यक्तिगत, अशासकीय और असंहिताबद्ध होता है। इसके साधन हैं—मुस्कराना, चेहरा बनाना, आलोचना, उपहास, प्रशंसा आदि। इसके माध्यम हैं—परिवार, धर्म, नातेदारी आदि।
(ब) सकारात्मक व नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण
- सकारात्मक सामाजिक नियंत्रण-पुरस्कार सामाजिक नियंत्रण का सकारात्मक प्रकार है।
- नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण-दंड सामाजिक नियंत्रण का नकारात्मक प्रकार है।
विचलन-विचलन का अर्थ उन क्रियाओं से है जो समाज या समूह के अधिकतर सदस्यों के मूल्यों या आदर्शों के अनुसार नहीं होती हैं। यह देश-काल-सापेक्ष विचार है।