These comprehensive RBSE Class 11 Sociology Notes Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ will give a brief overview of all the concepts.
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→ परिचय
→ सामाजिक संरचना
'सामाजिक संरचना' शब्द इस तथ्य को दर्शाता है कि समाज संरचनात्मक है अपने विशिष्ट रूप में वह क्रमवार तथा नियमित है अर्थात् लोगों के आचरण तथा परस्पर उनके संबंध में एक प्रकार की अंतर्निहित नियमितता अथवा प्रतिमान (पैटर्न) होता है। सामाजिक संरचना की संकल्पना इन्हीं नियमितताओं को इंगित करती है।
→ सामाजिक पुनरुत्पादन-सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों से बनती है, जो पक्ष इन्हें नियमितता | प्रदान करता है, वह है—अलग-अलग काल अवधि में एवं भिन्न-भिन्न स्थानों में इन क्रियाओं एवं सम्बन्धों का लगातार दोहराया जाना। उदाहरण के लिए, एक परिवार तथा एक विद्यालय में कुछ विशिष्ट प्रकार के क्रियाकलाप वर्षों से दोहराए जाते हैं, जो आगे चलकर संस्थाएँ बनते हैं। ये संस्थाएँ चलती रहती हैं तथा इनके अन्दर परिवर्तन भी होते रहते हैं। इनके सदस्यगण प्रतिदिन विभिन्न स्तरों पर पुनर्रचना हेतु सहयोग, संघर्ष तथा प्रतियोगिता करते रहते हैं।
→ बाध्यता-दुर्थीम सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देते हैं। उनके अनुसार सामाजिक संरचना, हमारी क्रियाओं को समानान्तर रूप से बाध्य करती है, इसकी सीमा तय करती है कि हम एक व्यक्ति के रूप में क्या कर सकते हैं । यह हमसे बाह्य है।
→ सृजनात्मकता-कार्ल मार्क्स भी सामाजिक संरचना की बाध्यता पर बल देते हैं। साथ ही मनुष्य की सृजनात्मकता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं जो सामाजिक संरचना को परिवर्तित भी करती है और उसे पुनः उत्पादित भी करती है। - सामाजिक स्तरीकरण-सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व से है, भौतिक और प्रतीकात्मक पुरस्कारों की पहुँच से है। सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधार हैं-धन, शक्ति, प्रजाति, जाति, क्षेत्र तथा समुदाय, जनजाति तथा लिंग।
→ सामाजिक स्तरीकरण का सर्वाधिक प्रचलित रूप वर्ग-विभाजन है। सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है। यह असमानता व्यवस्थित रूप से विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूहों की सदस्यता से जुड़ी होती है और एक समूह के सदस्यों की विशेषताएँ समान होती
इस प्रकार स्तरीकरण की संकल्पना, उस विचार को संदर्भित करती है जहाँ समाज का विभाजन एक निश्चित प्रतिमान के रूप में समूहों में होता है तथा यह संरचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है।
→ असमान रूप से बाँटे गए लाभों का अन्तर-लाभ के तीन बुनियादी प्रकार हैं, जिसका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा उपभोग किया जाता है। ये हैं
व्यक्ति तथा वर्गों को मिलने वाले अवसर तथा संसाधन प्रतियोगिता, सहयोग तथा संघर्ष की प्रक्रियाओं के रूप में सामने आते हैं तथा इन्हें सामाजिक संरचना तथा सामाजिक स्तरीकरण द्वारा आकार दिया जाता है। साथ ही मनुष्य पूर्व स्थित संरचना तथा स्तरीकरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।
→ समाजशास्त्र में सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने के दो तरीके-समाजशास्त्र सहयोग, स्पर्धा तथा संघर्ष की प्रक्रियाओं की व्याख्या समाज की वास्तविक संरचना के अन्तर्गत करना चाहता है। समाजशास्त्र में संस्थाओं को समझाने के दो परिप्रेक्ष्य हैं
संघर्ष परिप्रेक्ष्य के प्रतिपादक कार्ल मार्क्स हैं तो प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य के प्रतिपादक इमाइल दुखीम हैं।
दोनों परिप्रेक्ष्यों में समानता-दोनों परिप्रेक्ष्य यह मानकर चलते हैं कि मनुष्यों को अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग करना होता है तथा अपने और अपनी दुनिया के लिए उत्पादन और पुनः उत्पादन करना पड़ता है।
(1) संघर्ष परिप्रेक्ष्य-इसकी प्रमुख विशेषताएँ ये हैं
(2) प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य
→ सहयोग, प्रतियोगिता एवं संघर्ष के आपसी सम्बन्ध अधिकतर जटिल होते हैं तथा ये आसानी से अलग नहीं किये जा सकते।
सहयोगात्मक व्यवहार को समाज के गहरे संघर्षों की उपज के रूप में भी देखा जा सकता है। परन्तु जब इन संघर्षों की खुलकर अभिव्यक्ति नहीं होती अथवा इन्हें खुली चुनौती नहीं दी जाती है, तो कहीं कोई संघर्ष सामने नहीं आता और केवल सहयोग ही विद्यमान रहता है। जैसे—अपने जन्म के परिवार में सम्पत्ति पर स्त्री द्वारा अपने अधिकार को त्यागना—विस्तृत मानक बाध्यताओं के कारण महिलाएं अपने आपको संघर्ष अथवा प्रतियोगिता से अलग रखती हैं अथवा सहयोग देती हैं। इसे समझाने के लिए प्रकार्यवादी व्यवस्थापन' शब्द का प्रयोग करते हैं। वे संघर्षों के रहते हुए भी समझौता एवं सह-अस्तित्व की कोशिश के रूप में इसे देखते हैं।
→ सहयोग तथा श्रम विभाजन
सहयोग का विचार मानव व्यवहार की कुछ मान्यताओं पर आधारित है
→ दुर्थीम के विचार-जहां कहीं भी समाज है, वहां पर परार्थवाद है, क्योंकि वहाँ एकता है। अतः हम परार्थवाद को मनुष्यता के आरंभ से ही देखते हैं और यहाँ तक कि असंयमित रूप में भी।
→ एकता-एकता समाज का नैतिक बल है तथा सहयोग समाज के प्रकार्यों को समझने के लिए बुनियादी अवयव है। श्रम-विभाजन की भूमिका समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। इसमें सहयोग सन्निहित है। इस प्रकार श्रम विभाजन एक तरफ जहाँ प्रकृति का नियम है, वहीं दूसरी तरफ मनुष्य के व्यवहार का नैतिक नियम भी है।
दुर्थीम ने समाज में दो प्रकार की एकता का वर्णन किया है तथा दोनों में अन्तर स्पष्ट किया है
→ मार्क्स के विचार-जहाँ दुर्थीम परार्थवाद और एकता को दुनिया का विशिष्ट लक्षण मानते हुए सहयोग का विवेचन करते हैं, वहीं मार्क्स चेतना पर बल देते हैं। मनुष्य केवल सहयोग के लिए समायोजन तथा सामञ्जस्य ही नहीं करते बल्कि इस प्रक्रिया में समाज को बदलते भी हैं। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
→ प्रतियोगिता : अवधारणा एवं व्यवहार के रूप में
→ पूँजीवाद-पूँजीवाद की मौलिक मान्यताएँ हैं
बाजार क्षेत्र में विद्यमान मुक्त प्रतियोगिता में तार्किक व्यक्ति, अपने लाभों को अधिक बढ़ाने की कोशिश में लगा रहता है। प्रतियोगिता की विचारधारा पूँजीवाद की सशक्त विचारधारा है। बाजार अधिकतम कार्यकुशलता पर बल देता है। प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करती है कि सर्वाधिक कार्यकुशल फर्म बची रहे प्रतियोगिता पूँजीवाद के जन्म के साथ ही प्रबल इच्छा के रूप में फली फूली।
→ प्रतियोगिता के गण
→ प्रतियोगिता के दोष-सभी व्यक्तियों के पास प्रतियोगिता हेतु समान संसाधन नहीं हैं—प्रस्थिति, शिक्षा, रोजगार सम्बन्धी भिन्नताएँ हैं। इससे वंचित लोग पिछड़ जाते हैं।
→ संघर्ष तथा सहयोग
संघर्ष का अर्थ-संघर्ष शब्द का अर्थ है-हितों में टकराहट । संसाधनों की कमी समाज में संघर्ष उत्पन्न करती है; क्योंकि उन संसाधनों को पाने तथा उस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक समूह संघर्ष करता है।
→ संघर्ष के आधार-संघर्ष के आधार हैं—वर्ग, जाति, जनजाति, लिंग, नृजातीयता अथवा धार्मिक समुदाय आदि। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहते हैं। परन्तु संघर्ष किसी भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सदैव से ही रहा है। पुरानी पद्धति संघर्ष से वंचित नहीं थी। नए तथा पुराने के बीच संघर्ष आज विकासशील देशों के मंच बने हुए हैं।
→ संघर्ष-विसंगति या प्रत्यक्ष झड़प के रूप में-जहाँ संघर्ष खुलकर प्रकट किये जाते हैं, वहाँ वे विसंगति या प्रत्यक्ष झड़प के रूप में दिखाई देते हैं, जैसे—कृषक आंदोलन। प्रतियोगिता, सहयोग और संघर्ष के आपसी सहसम्बन्ध