Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री Important Questions and Answers.
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बहुविकल्यात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्न में से कौनसे पहले भारतीय शिक्षित मानव विज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान् तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली
(अ) अनन्तकृष्ण अय्यर
(ब) जी.एस. घुर्ये
(स) डी.पी. मुकर्जी
(द) ए.आर. देसाई
उत्तर:
(अ) अनन्तकृष्ण अय्यर
प्रश्न 2.
ब्रिटिश काल भारत के जो कानूनविद् भारत तथा ब्रिटेन में जाने-माने मानव विज्ञानी के रूप में विख्यात हुए तथा 'छोटा नागपुर' के विशेषज्ञ के रूप में उनकी पहचानी बनी, थे
(अ) अनन्तकृष्ण अय्यर
(ब) शरत चन्द्र रॉय
(स) जी.एस. घुर्ये
(द) जी.आर. मदान
उत्तर:
(ब) शरत चन्द्र रॉय
प्रश्न 3.
'कास्ट एंड रेस इन इंडिया' के लेखक हैं
(अ) शरतचन्द्र रॉय
(ब) एम.एन. श्रीनिवास
(स) जी.एस. घुर्ये
(द) डी.पी. मुकर्जी
उत्तर:
(स) जी.एस. घुर्ये
प्रश्न 4.
भारत के अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय संगठन के प्रथम अध्यक्ष थे
(अ) राधाकमल मुकर्जी
(ब) जी.एस. घुर्ये
(स) एम.एन. श्रीनिवास
(द) डी.पी. मुकर्जी
उत्तर:
(द) डी.पी. मुकर्जी
प्रश्न 5.
निम्न में से जो पुस्तक डी.पी. मुकर्जी द्वारा रचित नहीं है, वह है
(अ) विविधताएँ
(ब) भारतीय परम्परा और सामाजिक परिवर्तन
(स) दि फिलासफी ऑफ सोशल साइंस
(द) इंट्रोडक्शन टू इंडियन म्यूजिक
उत्तर:
(स) दि फिलासफी ऑफ सोशल साइंस
प्रश्न 6.
'भारतीय परम्पराओं' के अध्ययन पर किस समाजशास्त्री ने बल दिया
(अ) डी.पी. मुकर्जी
(ब) आर.के. मुकर्जी
(स) एम.एन. श्रीनिवास
(द) जी.एस. घुर्ये ।
उत्तर:
(अ) डी.पी. मुकर्जी
प्रश्न 7.
'द सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इंडियन नेशनलिज्म' के लेखक हैं
(अ) अनन्तकृष्ण अय्यर
(ब) ए.आर. देसाई
(स) डी.पी. मुकर्जी
(द) जी.एस. घुर्ये
उत्तर:
(ब) ए.आर. देसाई
प्रश्न 8.
'कल्याणकारी राज्य की सोच एक भ्रम है।' यह निष्कर्ष निकाला है
(अ) आई. पी. देसाई ने
(ब) डी. पी. मुकर्जी ने
(स) ए. आर. देसाई ने
(द) एम. एन. श्रीनिवास ने
उत्तर:
(स) ए. आर. देसाई ने
प्रश्न 9.
'रिलीजन एण्ड सोसायटी एमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया' नामक शोध प्रबन्ध लिखा है
(अ) एम. एन. श्रीनिवास ने
(ब) राधाकमल मुकर्जी ने
(स) जी.एस. घुर्ये ने
(द) डी.पी. मुकर्जी ने
उत्तर:
(अ) एम. एन. श्रीनिवास ने
प्रश्न 10.
'जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं।' यह विचार दिया
(अ) एम.एन. श्रीनिवास ने
(ब) लुई ड्यूमो ने
(स) रिजले ने
(द) शरतचन्द्र रॉय ने
उत्तर:
(ब) लुई ड्यूमो ने
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
1. भारत के विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की औपचारिक शिक्षा 1919 ई. में ................ विश्वविद्यालय में प्रारंभ हुई।
2. .................. संभवतः पहले शिक्षित मानव विज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप में ख्याति मिली।
3. कानूनविद् शरत चन्द्र रॉय भारत तथा ब्रिटेन में जाने-माने मानव विज्ञानी के रूप में विख्यात हुए तथा ................... के विशेषज्ञ के रूप में उनकी पहचान बनी।
4. घुर्ये ने इस बात पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को ............... हिन्दू समूह के रूप में पहचाना जाये नकि एक भिन्न सांस्कृतिक समूह के रूप में।
5. डी.पी. मुकर्जी के अनुसार भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः समूह, सम्प्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है, न कि ........... व्यक्तिगत कार्यों द्वारा।
डी.पी. की मान्यता थी कि भारतीय परंपरा में तीन सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है— श्रुति, स्मृति तथा ............. ।
7. ए.आर. देसाई ऐसे विरले भारतीय समाजशास्त्री हैं जो सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टियों से ................ सदस्य के रूप में राजनीति से जुड़े थे।
8. एम.एन. श्रीनिवास के डॉक्टरेट के शोध निबंध का प्रकाशन रिलीजन एण्ड सोसाइटी एमंग दि ................ नाम से हुआ।
उत्तर:
1. मुंबई
2. अनन्तकृष्ण अय्यर
3. छोटा नागपुर
4. पिछड़े
5. स्वैच्छिक
6. अनुभव
7. औपचारिक
8. कुमुस
निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. श्रीनिवास का मानना था कि गाँव को एक श्रेणी के रूप में महत्त्व देना गुमराह करने वाला हो सकता है।
2. लुई ड्यूमो का मानना था कि जाति जैसी सामाजिक संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि गाँव केवल कुछ लोगों का समूह मात्र था।
3. ए.आर. देसाई कल्याणकारी राज्य की आलोचना मार्क्सवादी तथा समाजवादी दृष्टिकोण से करते हैं।
4. जी. एस. घुर्ये को भारत में समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है।
5. औपनिवेशिक पराधीनता के काल में भारतीय समाजशास्त्री तथा मानवविज्ञानी ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में उच्च उपाधि प्राप्त मानव विज्ञानी थे।
6. गोविन्द सदाशिव घुर्ये के पास किसी विश्वविद्यालय की कोई औपचारिक उपाधि नहीं थी, तथापि उन्हें बम्बई विश्वविद्यालय में रीडर तथा विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया।
7. डी.पी. मुकर्जी के लिए परम्परा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़ा था।
उत्तर:
1. असत्य
2. सत्य
3. सत्य
4. सत्य
5. असत्य
6. असत्य
7. सत्य।
निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये-
1. कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया-1932 |
(अ) रिजले |
2. जाति का प्रजातीय सिद्धान्त |
(ब) डी.पी. मुकर्जी |
3. भारत की परम्पराओं के विश्लेषण में मार्क्स के द्वन्द्ववाद की पद्धति का प्रयोग |
(स) ए. आर. देसाई |
4. सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म |
(द) एम. एन. श्रीनिवासन |
5. सामाजिक मानव विज्ञान में संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य |
(य) जी. एस. घुर्ये |
उत्तर:
1. कास्ट एण्ड रेस इन इण्डिया-1932 |
(य) जी. एस. घुर्ये |
2. जाति का प्रजातीय सिद्धान्त |
(अ) रिजले |
3. भारत की परम्पराओं के विश्लेषण में मार्क्स के द्वन्द्ववाद की पद्धति का प्रयोग |
(ब) डी.पी. मुकर्जी |
4. सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म |
(स) ए. आर. देसाई |
5. सामाजिक मानव विज्ञान में संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य |
(द) एम. एन. श्रीनिवासन |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत के किन तीन विश्वविद्यालयों में सर्वप्रथम समाजशास्त्र विषय में शिक्षण व शोध-कार्य प्रारंभ हुआ?
उत्तर:
भारत में सर्वप्रथम 1919 ई. में मुम्बई विश्वविद्यालय में और फिर 1920 में कलकत्ता और लखनऊ विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विषय में शिक्षण व शोध-कार्य प्रारंभ हआ। ।
प्रश्न 2.
दो ऐसे अग्रणी भारतीय समाजशास्त्री तथा मानवविज्ञानियों के नाम लिखो, जो अचानक सामाजिक मानव विज्ञानी बने।
उत्तर:
प्रश्न 3.
भारत के पहले शिक्षित मानव विज्ञानी कौन थे, जिन्हें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली।
उत्तर:
एल. के. अनन्तकृष्ण अय्यर पहले शिक्षित मानव विज्ञानी थे, जिन्हें एक विद्वान् एवं शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली।
प्रश्न 4.
अनन्तकृष्ण अय्यर की किन्हीं चार उपलब्धियों को बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 5.
घुर्ये के कोई दो समाजशास्त्रीय कार्य लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 6.
घुर्ये ने बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में किन दो कार्यों को सर्वप्रथम सफलतापूर्वक लागू किया?
उत्तर:
प्रश्न 7.
घुर्ये के अध्ययन के प्रमुख वृहद विषयों के नाम लिखिये।
उत्तर:
घुर्ये ने जिन वृहत् विषयों पर अध्ययन व शोध किया, वे हैं-जाति और प्रजाति, जनजाति, नातेदारी, परिवार और विवाह, संस्कृति, सभ्यता और नगरों की ऐतिहासिक भूमिका, धर्म तथा संघर्ष और एकीकरण का समाजशास्त्र।
प्रश्न 8.
किन बौद्धिक तथा संदर्भगत सरोकारों ने घुर्ये को प्रभावित किया?
उत्तर;
बौद्धिक तथा संदर्भगत सरोकारों जिन्होंने घुर्ये को प्रभावित किया, उनमें प्रमुख हैं—प्रसारवाद, हिन्दू धर्म, सिद्धान्त पर प्राच्य छात्रवृत्ति, राष्ट्रवाद तथा हिंदू अभिन्नता के सांस्कृतिक पक्ष ।
प्रश्न 9.
घुरिये की किन्हीं चार प्रमुख पुस्तकों के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 10.
लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र विभाग के कौनसे तीन प्रारंभिक विद्वान 'त्रिदेव' के रूप में जाने गये?
उत्तर:
प्रश्न 11.
डॉ. डी.पी. मुकर्जी के अनुसार 'परम्परा' का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
डॉ. डी.पी. मुकर्जी के अनुसार परम्परा का अर्थ हस्तांतरण करना, कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखना, उत्तराधिकार तथा इतिहास आदि से है।
प्रश्न 12.
'इन्ट्रोडक्शन टू इंडियन म्यूजिक' पुस्तक किसने और कब लिखी?
उत्तर:
'इन्ट्रोडक्शन टू इंडियन म्यूजिक' पुस्तक डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने सन् 1945 में लिखी।
प्रश्न 13.
डॉ. डी. पी. मुकर्जी के अनुसार परम्पराओं में परिवर्तन के तीन सिद्धान्त कौन से हैं?
उत्तर:
डॉ. पी. पी. मुकर्जी ने परम्पराओं में परिवर्तन के ये तीन सिद्धान्त बताये है-
प्रश्न 14.
परम्परा की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 15.
भारतीय परम्पराओं के स्वरूप के सम्बन्ध में दो बिन्दु लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 16.
डी. पी. मुकर्जी के मत में भारत में समाजशास्त्र का निर्णायक व विशिष्ट लक्षण क्या है?
उत्तर:
डी. पी. मुकर्जी के अनुसार भारत की सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिकता की अधिकता ही भारत में समाजशास्त्र का निर्णायक व विशिष्ट लक्षण है।
प्रश्न 17.
जीवन्त परम्परा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
डी. पी. मुकर्जी के अनुसार जीवन्त परम्परा से आशय उस परम्परा से है, जिसने अपने आपको भूतकाल से जोड़ने के साथ-ही-साथ वर्तमान के अनुरूप भी ढाला था और इस प्रकार समय के साथ अपने आपको विकसित कर रही थी।
प्रश्न 18.
भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः किसके द्वारा निर्धारित होती है?
उत्तर:
भारतीय सामाजिक व्यवस्था की दिशा मुख्यतः समूह, सम्प्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है न कि 'स्वैच्छिक' व्यक्तिगत कार्यों से।
प्रश्न 19.
भारतीय संदर्भ में संघर्ष और विद्रोह किसके आधार पर कार्य करते हैं और परम्परा की इसमें क्या भूमिका होती है?
उत्तर:
भारतीय संदर्भ में संघर्ष और विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं और परम्परा का लचीलापन यह प्रयास करता है कि संघर्ष परम्पराओं को तोड़े बिना उनमें परिवर्तन लाये।
प्रश्न 20.
कौनसे भारतीय समाजशास्त्री सीधे तौर पर राजनीतिक दल से जुड़े थे?
उत्तर:
ए. आर. देसाई ऐसे भारतीय समाजशास्त्री थे जो सीधे तौर से मार्क्सवादी दल तथा मार्क्सवादी राजनीति से जुड़े रहे।
प्रश्न 21.
ए. आर. देसाई ने अपने शोध प्रबंध 'द सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म' में किस तथ्य पर महत्त्व दिया है?
उत्तर:
इस पुस्तक में श्री देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण किया है, जिसमें आर्थिक प्रक्रियाओं एवं विभाजनों को महत्त्व दिया गया है।
प्रश्न 22.
आधुनिक पूँजीवादी कल्याणकारी राज्य की ए. आर. देसाई ने कौनसी तीन विशेषताएँ बताई हैं?
उत्तर:
प्रश्न 23.
ए. आर. देसाई ने कल्याणकारी राज्य की क्या आलोचना की है?
उत्तर:
ए. आर. देसाई ने कल्याणकारी राज्य की यह आलोचना की है कि ये राज्य अपने नागरिकों को निम्नतम आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा देने में; असमानताओं को कम करने में तथा बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास करने में असफल रहे हैं।
प्रश्न 24.
श्रीनिवास ने अपने शोध प्रबन्ध 'रिलीजन एण्ड सोसायटी एमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया' में किस परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया?
उत्तर:
श्रीनिवास ने अपने इस शोध प्रबन्ध में ब्रिटिश सामाजिक मानवविज्ञान में प्रभावी संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया।
प्रश्न 25.
श्रीनिवास ने किन विषयों पर महत्त्वपूर्ण कार्य किये?
उत्तर;
श्रीनिवास ने जिन विषयों पर महत्त्वपूर्ण कार्य किये, वे हैं-जाति, आधुनिकीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन की अन्य प्रक्रियायें, ग्रामीण समाज इत्यादि।
प्रश्न 26.
गांव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गये लेख कितने प्रकार के हैं?
उत्तर:
गांव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गए लेख दो प्रकार के हैं
प्रश्न 27.
प्रशासक-नृशास्त्री से क्या आशय है?
उत्तर:
प्रारंभिक ब्रिटिश भारतीय सरकार के वे ब्रिटिश प्रशासक जिन्होंने नृजातीय अनुसंधानों को प्रारंभ करने में अत्यधिक रुचि ली, विशेषकर सर्वे तथा जनगणना में; प्रशासक-नृशास्त्री कहलाते थे।
प्रश्न 28.
ऐसे चार प्रशासक-नृशास्त्रियों के नाम लिखो, जो सेवानिवृत्ति के पश्चात् नामी नृशास्त्री बने। उत्तर:
प्रश्न 29.
मानवमिति नृमिति से क्या आशय है?
उत्तर:
मानवमिति या नृमिति नृशास्त्र का एक विभाग है, जो मनुष्य की प्रजाति का अध्ययन उसके शरीर के माप, विशेषकर उसकी खोपड़ी के भार, सिर की चौड़ाई तथा नाक की लम्बाई के आधार पर करता है।
प्रश्न 30.
समायोजन से क्या आशय है?
उत्तर:
वह प्रक्रिया, जिसमें अधिक प्रभावी एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को अपने अन्दर समा लेती है तथा पहली संस्कृति में मिल जाती है, ताकि यह प्रक्रिया के अंत में दिखाई न दे, समायोजन कहलाती है।
प्रश्न 31.
अन्तर्विवाह किसे कहते हैं?
उत्तर:
अन्तर्विविवाह वह सामाजिक संस्था है, जहाँ वैवाहिक रिश्ते केवल अपनी जाति-बिरादरी में ही किए जाते हैं और इस सीमांकित जाति बाहर विवाह निषेध होते हैं।
प्रश्न 32.
बहिर्विवाह से क्या आशय है?
उत्तर:
वह सामाजिक संस्था जहाँ कुछ वर्गों में वैवाहिक सम्बन्ध निषिद्ध होते हैं। विवाह इन निषिद्ध वर्गों के बाहर होना चाहिए। जैसे-खून के रिश्तेदारों में विवाह निषेध, एक गोत्र में विवाह निषेध आदि।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
घुर्ये ने जाति-व्यवस्था में पाए जाने वाले किन छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
घुर्ये ने जाति-व्यवस्था के निम्नलिखित छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है
प्रश्न 2.
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों ने जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत क्यों की?
उत्तर:
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत निम्नलिखित कारणों से की गई-
प्रश्न 3.
समाजशास्त्र के क्षेत्र में डी. पी. मुकर्जी का महानतम योगदान बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 4.
एम. एन. श्रीनिवास की प्रमुख कृतियों के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 5.
घुर्ये तथा अन्य राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश प्रशासक मानव विज्ञानियों के भारतीय जनजातियों की संरक्षावादी नीति की क्या आलोचना की?
उत्तर:
घुर्ये तथा अन्य राष्ट्रवादियों का मानना था कि जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के प्रयास दिशाहीन थे और आदिम संस्कृति को बचाने का कार्य वास्तव में गुमराह करने की कोशिश थी। इसके परिणामस्वरूप जनजातियों के पिछड़ेपन को आदिम संस्कृति के संग्रहालय' के रूप में ही बनाए रखा गया था।
प्रश्न 6.
घुर्ये ने भारतीय जनजातियों के सम्बन्ध में किस दृष्टिकोण को सामने रखा?
उत्तर:
घुर्ये ने इस बात पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को 'पिछड़े हिंदू समूह' के रूप में पहचाना जाये न कि एक भिन्न सांस्कृतिक समूह के रूप में। उन्होंने कहा कि जिस समायोजन प्रक्रिया से सभी भारतीय जातियों को गुजरना पड़ा, उसी प्रक्रिया में जनजातीय वर्ग साधारणतः अन्य भारतीय समुदाय से पीछे रह गये थे। भारतीय जनजाति एक ऐसी आदिम जाति थी जो शायद ही कभी अलग-थलग रही हो। संरक्षणवादियों के इस तर्क कि "समायोजन का परिणाम जनजातियों के शोषण तथा उनकी संस्कृति की विलुप्तता के रूप में सामने आयेगा" के जवाब में कहा कि ये दुष्परिणाम मात्र जनजातीय संस्कृति तक ही सीमित न होकर भारतीय समाज के सभी पिछड़े तथा दलित वर्गों में समान रूप में देखे जा सकते हैं।
प्रश्न 7.
स्पष्ट कीजिये कि शरत चन्द्र रॉय की जनजातीय समाज में रुचि का बढ़ना उनकी नौकरी की आवश्यकताओं का प्रतिफल था।
उत्तर;
शरत चन्द्र रॉय की नौकरी अदालत में सरकारी दुभाषिये की थी। अदालत में वे जनजातियों की परम्परा तथा कानूनों को दुभाषित करते थे। उन्होंने जनजातीय क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण किया तथा उनके बीच रहकर गहन क्षेत्रीय अध्ययन किया। इस प्रकार राय की रुचि जनजातीय समाज में बैठने का कारण उनकी नौकरी की आवश्यकताएँ थीं।
प्रश्न 8.
भारतीय नृजाति के क्षेत्र में शरतचन्द्र रॉय के योगदान को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
यद्यपि शरतचन्द्र रॉय ने जनजातीय क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण तथा गहन क्षेत्रीय अध्ययन किया, यह सभी कार्य शौकिया आधार पर किया, परन्तु उनकी मेहनत तथा बारीकियों को ध्यानपूर्वक देखने तथा समझने के कौशल ने शोध कार्य के लिए महत्त्वपूर्ण तथ्य तथा लेखन सामग्री तैयार की। यथा
प्रश्न 9.
जी. एम. घुर्ये को भारत में समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय क्यों दिया जाता है? .
उत्तर:
जी. एस. घुर्ये को भारत में समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है, क्योंकि
प्रश्न 10.
जी. एस. घुर्ये ने किन विषयों पर कार्य किया?
उत्तर:
प्रश्न 11.
घुर्ये ने जाति में परिवर्तन के किन रूपों का संकेत किया है?
उत्तर:
घुर्ये ने कहा कि वास्तविक रूप से, जाति के बहुत से रूपों में परिवर्तन हो रहा था हालांकि वे सब किसी न किसी रूप में अस्तित्व में हैं। यथा
(1) ब्राह्मणों की स्थिति में गिरावट-वर्तमान युग में व्यक्तिगत गुणों एवं धन के महत्त्व बढ़ जाने तथा निम्न जातियों के व्यक्तियों द्वारा शिक्षा ग्रहण कर; धन संचय करने तथा धार्मिक क्रियाओं और पूजा-पाठ का महत्त्व घटने के कारण ब्राह्मणों की प्रभुता में कमी आई है।
(2) जातीय संस्तरण में परिवर्तन निम्न जातियाँ अपनी सामाजिक और राजनैतिक स्थिति ऊँची उठाकर अपने को जातीय संस्तरण में ऊँचा उठाने का प्रयास कर रही हैं। इस कारण जाति के महत्त्व में कमी आई है।
(3) पेशे के चुनाव में स्वतंत्रता-अब व्यक्ति व्यवसाय के चुनाव में परम्परागत बंधनों से मुक्त है।
(4) भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन-परम्परागत जाति व्यवस्था के खान-पान सम्बन्धी निषेध अब अप्रभावी हो गये हैं क्योंकि कच्चे-पक्के का भेद समाप्त हो गया है।
(5) जन्म के महत्त्व में कमी-वर्तमान में जन्म के स्थान पर योग्यता का महत्त्व बढ़ा है।
(6) अस्पृश्य जातियों के अधिकारों में वृद्धि-अस्पृश्यता कानून समाप्त कर दिया गया है तथा अस्पृश्य जातियों को सरकारी नौकरियों, शिक्षा, निर्वाचन आदि में विशेष सुविधाएँ मिलने से उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति में सुधार हुआ है। इससे जाति-व्यवस्था की संरचना में परिवर्तन आ रहा है।
प्रश्न 12.
जाति तथा नातेदारी के विषय में जी.एस. घुर्ये के विचार लिखिये।
उत्तर:
जाति तथा नातेदारी के विषय में घुर्ये के विचार जाति तथा नातेदारी के विषय में घुर्ये के विचारों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है
(1) घुर्ये जाति की ऐतिहासिक उत्पत्ति तथा उसके भौगोलिक प्रसार के दृष्टिकोण से सम्बन्धित थे। उन्होंने जाति की उत्पत्ति के संदर्भ में यह निष्कर्ष निकाला है कि "भारत में जाति भारतीय आर्य संस्कृति की ब्राह्मण सन्तान है, जिसका लालन-पालन, गंगा-यमुना के प्रदेश में हुआ और वहाँ से अन्य भागों में प्रसार हुआ।"
(2) घुर्ये ने भारत की स्वतंत्रता के बाद जाति-व्यवस्था में आने वाले परिवर्तनों का उल्लेख किया है।
(3) घुर्ये ने जाति-व्यवस्था की छःप्रमुख संरचनात्मक विशेषताओं का उल्लेख किया है। ये हैं-
(4) घुर्ये का मत है कि जाति अंतःविवाह तथा गोत्र बहिर्विवाह के माध्यम से नातेदारी से सम्बन्धित है। उन्होंने नातेदारी का अध्ययन सम्बन्धों के नामकरण तथा प्रारंभिक पारिवारिक एवं वैवाहिक स्वरूपों के संदर्भ में किया है।
प्रश्न 13.
जी. एस. घुर्ये के पद्धतिशास्त्रीय योगदान को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
घुर्ये का पद्धतिशास्त्रीय योगदान घुर्ये के पद्धतिशास्त्रीय योगदान का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) ऐतिहासिक-उद्विकासीय उपागम-घुर्ये ने भारतीय समाज के अध्ययन में ऐतिहासिक उद्विकासीय पद्धति का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है। उन्होंने भारत के भूतकालीन या प्राचीन समाज के उद्विकास का अध्ययन भारत में इण्डो-आर्यन सभ्यता के उद्विकास के क्षेत्र में सफलतापूर्वक किया है। उन्होंने इसका अध्ययन वैदिककालीन सभ्यता से लेकर अद्यतन विकास और प्रवृत्तियों तक किया है। इसके अन्तर्गत उन्होंने जाति की उत्पत्ति और विकास, इण्डो-आर्यन परिवार-संरचना के उद्विकास तथा इसका इण्डो-यूरोपियन परिवार-संरचना के साथ सम्बन्ध, धार्मिक चेतना का उद्विकास आदि का विवेचन किया है।
(2) भारतीय समाज और संस्कृति की आधुनिक समस्याओं व तनावों का अध्ययन-घुर्ये ने भारतीय समाज तथा संस्कृति की अनेक आधुनिक समस्याओं और तनावों का भी अध्ययन किया है। इनमें प्रमुख हैं-ब्रिटिश काल में जाति में आए परिवर्तनों का अध्ययन, जनजातियों के एकीकरण की समस्या आदि।
(3) तीन प्रमुख उपागमों का समावेश-घुर्ये ने पद्धतिशास्त्रीय दृष्टि से उद्विकासीय ढाँचे में तीन प्रमुख उपागमों का समावेश किया है। ये हैं
प्रश्न 14.
घुर्ये के अनुसार धर्म के महत्त्व को समझाइये।
उत्तर:
(1) जी.एस. घुर्ये ने धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों के अध्ययन में मौलिक योगदान किया है। उन्होंने समाज में धर्म की भूमिका का विशद वर्णन किया है।
(2) घुर्ये ने संस्कृति के पाँच आधार बताये हैं। ये हैं-
(3) इन्होंने 'इन्डियन साधूज' नामक पुस्तक में अनेक धार्मिक पंथों तथा केन्द्रों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है तथा त्याग की विरोधाभासी प्रकृति को प्रस्तुत किया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि भारत में मठों का संगठन हिन्दूवाद तथा बौद्धवाद के कारण है।
(4) इन्होंने साधुओं की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहा है कि भारत में साधुओं द्वारा धार्मिक विवादों में मध्यस्थता की जाती है, धार्मिक ग्रंथों तथा पवित्र ज्ञान का संरक्षण किया गया है तथा विदेशी आक्रमणों के समय इन्होंने धर्म की रक्षा भी की है।
प्रश्न 15.
डी.पी. मुकर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को किन दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा?
उत्तर:
डी. पी. मुकर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को निम्नलिखित दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा
(1) तुलनात्मक उपागम-भारतीय समाजशास्त्रियों को तुलनात्मक उपागम को अपनाना होगा क्योंकि यह उन विशेषताओं को प्रकाश में लायेगा जिनकी भारतीय समाज अन्य समाजों के साथ भागीदारी करता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वे परम्परा का अर्थ समझने का लक्ष्य रखेंगे तथा इसके मूल्यों तथा प्रतीकों का सावधानीपूर्वक परीक्षण भी करेंगे।
(2) द्वन्द्वात्मक उपागम-भारतीय समाजशास्त्री संघर्ष तथा परस्पर विरोधी शक्तियों के संश्लेषण को समझने के लिए द्वन्द्वात्मक उपागम का अवलंबन करेंगे।
प्रश्न 16.
डी.पी. मुकर्जी के अनुसार परम्परा के अर्थ को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
परम्परा की उत्पत्ति तथा अर्थ-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने परम्परा शब्द की उत्पत्ति पर ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी के 'Tradition' शब्द की उत्पत्ति 'Tradere' शब्द से हुई है, जिसका तात्पर्य है-हस्तांतरण करना। अंग्रेजी के 'Tradition' शब्द का संस्कृत भाषा में समानार्थक शब्द है-परम्परा और परम्परा का अर्थ हैउत्तराधिकार या इतिहास। रोमन कानून के अनुसार Tradere शब्द का तात्पर्य कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखने एवं जमा करने से है। अतः एक योग्य नागरिक का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि वह कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखे।
भारतीय संदर्भ में परम्परा से डी.पी. मुकर्जी का आशय यह है कि परम्पराएँ भारतीय समाज व्यवस्था की इतिहास हैं। भारत में ब्राह्मणों ने परम्पराओं की पवित्रता को सही उच्चारण व पवित्र पुस्तकों के द्वारा बनाए रखा है। ये सामाजिक संरचना को परम्परा के रूप में बनाए रखते हैं। इनके द्वारा भारतीय समाज की निरन्तरता बनी रहती है। इस प्रकार परम्परा भूतकाल से कुछ ग्रहण कर उससे सम्बन्ध बनाए रखती है और साथ ही नयी चीजों को भी ग्रहण करती है। अतः एक जीवन्त परम्परा पुराने तथा नये तत्त्वों का मिश्रण है।
प्रश्न 17.
भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन के तत्वों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन के तत्व (सिद्धान्त) डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन के तीन सिद्धान्तों (तत्वों) का उल्लेख किया है। ये हैं
प्रो. मुकर्जी का कहना है कि परम्पराएँ भी उच्च तथा निम्न दोनों प्रकार की होती हैं। इसी के आधार पर उन्होंने परम्पराओं में परिवर्तन के सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। यथा
(1) उच्च परम्पराएँ तथा श्रुति और स्मृति-प्रो. मुकर्जी का कहना है कि उच्च परम्पराएँ मुख्य रूप से बौद्धिक थीं, जो श्रुतियों तथा स्मृतियों में केन्द्रित थीं। इनमें परिवर्तन वाद-विवाद, तर्क, बुद्धि-विचार के कारण होता था। बुद्धि विचार को प्रो. मुकर्जी ने उच्च परिवर्तन का साधन माना है और अनुभव को निम्न। डी.पी. मुकर्जी ने कहा है कि उच्च परम्पराओं को समय-समय पर समूहों तथा सम्प्रदायों के सामूहिक अनुभवों द्वारा चुनौती दी जाती रही है और इन सामूहिक अनुभवों ने उच्च परम्पराओं में भी परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अतः डी.पी. मुकर्जी के लिए भारतीय संदर्भ में बुद्धि-विचार परिवर्तन के लिए प्रभावशाली शक्ति नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से अनुभव और प्रेम परिवर्तन के उत्कृष्ट कारक हैं।
(2) अनुभव अथवा व्यक्तिगत अनुभव-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने व्यक्तिगत अनुभव को परिवर्तन का मूल कारण माना है, क्योंकि वह शीघ्र ही सामूहिक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेता है। मध्य युग से लेकर आधुनिक युग का सम्पूर्ण इतिहास यह बताता है कि सामान्य अनुभव सदैव ही परिवर्तन का कारण रहा है। यदि हम विभिन्न सम्प्रदायों और धार्मिक ग्रंथों की उत्पत्ति का ज्ञान करें तो पायेंगे कि उनका प्रारंभ उनके जन्मदाता सन्तों के व्यक्तिगत अनुभव के कारण हुआ और बाद में वे सामूहिक अनुभव के रूप में फैल गये।
प्रश्न 18.
डी. पी. मुकर्जी के परम्परा और आधुनिकता के सम्बन्ध सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
परम्परा और आधुनिकता में सम्बन्ध प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने परम्परा और आधुनिकता के सम्बन्धों पर भी विचार किया है। उनका मत है कि वर्तमान का अध्ययन अतीत के संदर्भ में ही हो सकता है। अतः आधुनिकीकरण को समझने से पहले परम्परा को समझना आवश्यक है क्योंकि परम्पराएँ कभी मरती नहीं हैं, वरन् नवीन परिस्थितियों के साथ वे सामञ्जस्य एवं अनुकूलन कर लेती हैं। यथा-
(1) आधुनिकीकरण परम्परा पर आधारित प्रक्रिया है-प्रो. मुकर्जी के शब्दों में "आधुनिकीकरण परम्परा से सम्बन्धित है, यह न तो परम्परा से पृथक् है और न उसके विरुद्ध । परम्परा और आधुनिकता की अन्तःक्रिया से परम्परागत मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतिमानों में जो विस्तार और परिमार्जन होता है, वही आधुनिकीकरण है।" अतः आधुनिकीकरण परम्परा पर आधारित प्रक्रिया है।
(2) आधुनिकीकरण परम्परा और आधुनिकता की समन्वित स्थिति है-परम्पराओं और आधुनिकता के टकराव के वाद और प्रतिवाद के द्वन्द्व से जो संशोधित और समन्वित स्थिति उत्पन्न होती है, उसी को हम आधुनिकीकरण कहते हैं।
(3) परम्पराओं और आधुनिकता के द्वन्द्व के आधार पर सामाजिक परिवर्तन-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने लिखा है कि परम्परा और आधुनिकता में द्वन्द्व होता है। इस द्वन्द्व के परिणामों द्वारा भारतीय समाज में परिवर्तन होता है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जी. एस. घुर्ये के जीवनवृत्त पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रो. गोविन्द सहाय घुर्ये भारत की प्रथम पीढ़ी के समाजशास्त्रियों में से एक हैं। इन्होंने एक तरफ भारत में समाजशास्त्र को दृढ़ता से स्थापित किया तो दूसरी तरफ अनेक ऐसे छात्रों को विद्यादान दिया जिन्होंने देश के विभिन्न भागों में समाजशास्त्र विषय की स्थापना की तथा समाजशास्त्र के शोध कार्य को समृद्ध किया। यही कारण है कि भारत में समाजशास्त्र के साथ प्रो. घुर्ये का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उनके जीवन का संक्षिप्त विवेचन आगे शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है। -
प्रो. जी. एम. घुर्ये का जीवन-चित्रण-
प्रो. जी.एस. घुरिये के जीवन का चित्रण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
1. जन्म एवं शिक्षा-प्रो. घुरिये का जन्म 12 दिसम्बर, 1893 को महाराष्ट्र के मालवान क्षेत्र के सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे बचपन से ही शिक्षा में प्रतिभा सम्पन्न रहे हैं। इन्होंने अपनी सभी परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्होंने सन् 1918 में बम्बई एलफिन्स्टन कॉलेज से संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और इसके बाद अंग्रेजी में बम्बई के एल्फिन्स्टन कॉलेज से ही प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक प्राप्त कर एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
2. अध्यापन एवं ब्रिटेन में उच्च अध्ययन हेतु चयन-सन् 1919 में बम्बई विश्वविद्यालय ने समाजशास्त्र विषय पढ़ाने के लिए प्रो. पैट्रिक गेड्डिस को आमन्त्रित किया। प्रो. घुर्ये उस समय एल्फिन्स्टन कॉलेज, बम्बई में संस्कृत के प्राध्यापक थे लेकिन उन्होंने नियमित रूप से प्रो. गेड्डिस के भाषणों को अवश्य सुना तथा उनमें रुचि ली। इसका परिणाम यह हुआ कि गेड्डिस ने ब्रिटिश विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र में प्रशिक्षण पाने के लिए प्रो. घुर्ये का चयन किया।
3. ब्रिटेन में प्रशिक्षण एवं शोध कार्य-प्रो. गेड्डिस की सिफारिश पर बम्बई विश्वविद्यालय ने घुरिये को लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में समाजशास्त्र में प्रशिक्षण हेतु भेजा। वहाँ कुछ समय तक उन्होंने एल.टी. हाबहाउस के साथ अध्ययन किया और उसके बाद वे डॉ. डब्ल्यू. आर. एच. रिवर्स के पास कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। यहाँ उन्होंने अनेक लेख लिखे तथा डॉ. रिवर्स के निर्देशन में 'Ethnic Theory of Caste' विषय पर अपना शोध कार्य किया और सन् 1923 में प्रो. रिवर्स के देहावसान के बाद तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि ग्रहण कर भारत लौट आये। कास्ट एण्ड रेस इन इंडिया' पीएच.डी. पर आधारित पांडुलिपि पर कैम्ब्रिज की पुस्तकों की एक श्रृंखला प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत हुई।
4. बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन कार्य-सन् 1924 में, बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के रीडर तथा विभागाध्यक्ष पद पर उनकी नियुक्ति कर दी गई और सन् 1934 में वहीं पर उन्हें प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर दिया गया तथा 1959 तक वे यहाँ सेवारत रहे तथा 1959 में वे यहाँ से सेवानिवृत्त हुए।
5. प्रोफेसर एमरीटस (Emeritus Professor) के पद पर कार्य-बम्बई विश्वविद्यालय से 1959 में यद्यपि वे सेवानिवृत्त कर दिये गये लेकिन बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें विश्वविद्यालय से मुक्त नहीं किया और आपकी सेवायें लेने के लिये विश्वविद्यालय ने आपके लिए 'प्रोफेसर एमरीटस' का नया पद सृजित किया।
6. अध्ययन-अध्यापन से जुड़े अन्य कार्य-आपने एक तरफ अपने अध्ययन को निरन्तरता प्रदान की तथा दूसरी तरफ अध्ययन को भी सतत जारी रखा। उन्होंने स्वयं तथा छात्रों को अनुभवाश्रित अध्ययन एवं अनुसंधान करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारत के अनेक समाजशास्त्र के अध्यापकों को शिक्षा प्रदान की; उन्होंने 800 एम.ए. छात्रों को शोध कार्य तथा
7 छात्रों को डाक्टरेट हेतु शोध कार्य के लिए निर्देशित किया। वे 'Anthropological Society of Bombay' के 1945-50 तक अध्यक्ष भी रहे । उन्होंने इसके अतिरिक्त 'इण्डियन सोशियोलोजिकल सोसायटी' की भी स्थापना की तथा 'सोशियोलोजिकल बुलेटिन' नामक पत्रिका का प्रकाशन भी आरम्भ किया जो समाजशास्त्रीय पत्रिकाओं में आज विश्व की प्रमुख पत्रिका है।
प्रश्न 2.
जी.एस. घुर्ये की कृतियाँ एवं कृतित्व कार्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रो. घुर्ये की कृतियाँ एवं कृतित्व-कार्य प्रो. घुर्ये ने 25 से भी अधिक पुस्तकों की रचनाएँ की हैं, उनमें से कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. अनुसूचित जनजातियाँ (The Scheduled Tribes)-यह पुस्तक 1943 में “The Aborigine-So called and their Future' के नाम से प्रकाशित हुई थी, उसी को परिवर्द्धित एवं संशोधित करके इस नाम से इसे पुनः प्रकाशित किया गया है। इसमें प्रो. घुर्ये ने भारत की जनजातियों की समस्याओं और उनके समाधान के बारे में विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया है। इसमें ग्यारह अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में जनजातियों के विभिन्न नामों का उल्लेख किया है। अध्याय दो और तीन में जनजातियों में दूसरे लोगों से सम्पर्क और उनमें सात्मीकरण के कारण उत्पन्न तनावों एवं समस्याओं का उल्लेख है।
चौथे और पाँचवें अध्याय में, जनजातियों के प्रति अंग्रेज शासकों की नीति का विवेचन है। अध्याय छः में जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु बुद्धिजीवियों द्वारा प्रस्तुत तीन दृष्टिकोण राष्ट्रीय उपवन, पृथक्करण एवं सात्मीकरण का उल्लेख किया गया है। - अध्याय सात में प्रो. घुर्ये ने अपने विचार व्यक्त किये हैं और अध्याय आठ से ग्यारह तक भारत की प्रमुख जनजातियों के सामाजिक-धार्मिक जीवन, संगठन, परिवार, विवाह तथा नातेदारी आदि का चित्रण किया गया है। प्रो. घर्ये ने इन जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु अध्याय सात में प्रस्तुत अपने विचारों के अन्तर्गत कहा है कि आदिम जातियाँ हिन्दू समाज का ही एक अंग हैं । ये पिछड़े हिन्दू हैं और इनकी सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हिन्दू समाज के साथ आत्मसात् में ही निहित है।
2. जाति, वर्ग एवं व्यवसाय (Caste, Class and Occupation)-प्रो. घुर्ये की 'जाति, वर्ग एवं व्यवसाय' नामक पुस्तक पहले लिखी दो पुस्तकों Caste and Class in India' तथा 'Caste and Race in India' का ही समन्वित, परिवर्द्धित तथा संशोधित रूप है। इस पुस्तक में कुल 12 अध्याय हैं। इसमें जाति प्रथा के लक्षणों, स्वरूपों, तत्त्वों, उत्पत्ति, जातिगत व्यवसाय तथा जाति के भविष्य आदि पर विवेचन किया गया है।
3. भारतीय साधुज (Indian Sadhus)-प्रो. घुर्ये की एक अन्य प्रमुख पुस्तक है 'भारतीय साधुज'। यह पुस्तक 1953 में प्रकाशित हुई। इसमें कुल 13 अध्याय हैं। इस पुस्तक में भारत में साधुओं के उत्थान, इतिहास, कार्य तथा वर्तमान में हिन्दू साधुओं के संगठनों का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में भारत के विभिन्न साधु सम्प्रदायों की विस्तृत जानकारी दी गई है जो कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है।
4. भारत में सामाजिक तनाव (Social Tensions in India)-प्रो. घुरिये की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है-'भारत में सामाजिक तनाव' (Social Tensions in India)। यह पुस्तक सन् 1968 में प्रकाशित हुई। इसमें कुल 14 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में-तनाव, संघर्ष और एकीकरण के अर्थ-विशेषताओं एवं कारणों का विवेचन है। द्वितीय अध्याय में-अल्पसंख्यकों के संदर्भ में तनाव की चर्चा है। तृतीय अध्याय में-मानव अधिकार और अल्पसंख्यक का विवेचन है। पाँचवें से सातवें अध्याय में-भारतीय संस्कृति और इतिहास का विवेचन है। आठवें अध्याय में-हिन्दू-मुस्लिम कलाओं के मिश्रण का विवेचन है और नवें अध्याय में मुसलमानों में पनपी उदासीनता का, दसवें में हिन्दू-मुस्लिम दंगों का तथा ग्यारहवें व बारहवें अध्यायों में भारतीय मुसलमानों के विचारों एवं कार्यों का अध्ययन किया गया है। तेरहवें अध्याय में-भाषायी तनावों का विवेचन प्रस्तुत किया है तो चौदहवें अध्याय में राष्ट्रीय एकीकरण का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
5. 'संस्कृति तथा समाज' (Culture and Society)-प्रो. घुर्ये की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति है-'संस्कृति और समाज'। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1963 में हुआ। इसके अन्तर्गत हवेली तालुका के 11 गाँवों का अध्ययन है जो लोक नगरीय नैरन्तर्य की परम्परा में पारिस्थितिकीय अध्ययन है। इस अध्ययन के अन्तर्गत आपने संस्कृति और समाज के सम्बन्धों का उल्लेख किया है, जिसमें यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि सामाजिक विघटन के कारण संस्कृति को भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन कृतियों के अतिरिक्त प्रो. घुर्ये की अन्य प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 3.
प्रो. गोविन्द सहाय घुर्ये के समाजशास्त्रीय योगदान का विश्लेषण कीजिए।
अथवा
समाजशास्त्र में जी. एस. घुर्ये के विषयगत तथा पद्धतिशास्त्रीय योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्रो. घुर्ये की समाजशास्त्र को विषयगत देन प्रो. घुर्ये ने अपने कार्यों से समाजशास्त्र को समृद्ध किया है। उनके इस विषय के लिए किये गये प्रमुख योगदानों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
1. जाति का प्रजातीय सिद्धान्त तथा उसका भारतशास्त्रीय विश्लेषण-प्रो. घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति का प्रजातीय सिद्धान्त प्रतिपादित किया और उसका भारतीय प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के आधार पर विश्लेषण किया। उन्होंने भारत में आर्य व अनार्य प्रजातियों एवं संस्कृतियों के मिश्रण के आधार पर भारतीय सामाजिक संस्थाओं के उविकास एवं परिवर्तन को स्पष्ट किया है। इस प्रकार प्रो. घुर्ये ने ऐतिहासिक और भारतशास्त्रीय अध्ययन पद्धति के आधार पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत किये।
2. भारतीय जनजातियों का समाधान-प्रो. घुर्ये ने भारतीय जनजातियों के समाधान हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पहले उन्होंने वेरियर एल्विन द्वारा प्रस्तुत 'पुनरुद्धार एवं राष्ट्रीय उपवन' एवं संरक्षणवादी नीति का विश्लेषण किया, इसके बाद हट्टन एवं मजूमदार द्वारा प्रस्तुत 'पृथक्करण की नीति' का विश्लेषण किया। इन दोनों के विश्लेषण में इन्होंने दोनों दृष्टिकोणों को भारतीय जनजातियों की समस्याओं के समाधान के लिए अनुपयुक्त बताया और एक नवीन समाधान प्रस्तुत किया, जिसे 'हिन्दू समाज में आत्म-सात्मीकरण' का सिद्धान्त कहा जा सकता है। इसके अन्तर्गत इन्होंने सुझाव दिया है कि "भारत की आदिम जातियाँ हिन्दू समाज का ही एक अंग हैं। ये पिछड़े हिन्दू हैं। अतः इनकी सभी सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान हिन्दू समाज के साथ आत्मसात् में ही निहित है।"
3. तत्कालीन सामाजिक तथा ऐतिहासिक आधार पर सामाजिक यथार्थ का अध्ययन-घुर्ये ने भारत के सामाजिक यथार्थ का अध्ययन उपनिवेशवाद तथा सामन्तवाद के अनुभव, अतीत के गौरव तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में किया। भारतीय समाज की यथार्थता और उसके जीवन की वास्तविकता का ज्ञान हमें विभिन्न सामाजिक अनुकूलन से हुआ है। घुर्ये की रचनाओं में यह सामाजिक अनुकूलन दिखाई पड़ता है। यह सामाजिक अनुकूलन ऐतिहासिक है। भारत में समाजशास्त्रीय साहित्य का उत्पादन उपनिवेशवाद तथा सामन्तवाद के अनुभव, अतीत के गौरव तथा राजनैतिक और सांस्कृतिक मुक्ति की लड़ाई से पैदा होता है। घुर्ये की समाजशास्त्रीय सामग्री में इस सामाजिक अनुकूलन का बड़ा प्रभाव है।
उनकी सामाजिक अनुकूलन की शक्तियाँ ऐतिहासिक तथा सामाजिक शक्तियाँ थीं और इन्होंने ही भारतीय समाज के उद्विकास तथा उससे सम्बन्धित अवधारणाओं, अध्ययन-विधियों को निश्चित किया। विदेशी समाजशास्त्रियों ने भारतीय समाज के संदर्भ में यूरोप केन्द्रित दृष्टि से जिन अवधारणाओं का विकास किया, वे भारतीय अनुकूलन को नकारती थीं। वे अवधारणाएँ भारतीय समाज का भ्रष्ट चित्र प्रस्तुत कर रही थीं। घुर्ये ने इन भ्रष्ट अवधारणाओं की ओर 1943 में अपनी पुस्तक 'The Aborigins-so-called and their future' में ध्यान आकर्षित किया और वेरियर एल्विन की आदिवासियों से सम्बन्धित कतिपय अवधारणाओं का करारा जवाब दिया। घुर्ये ने कहा कि आदिवासी और जातीय संरचनाओं में एक निरन्तरता है और यह निरन्तरता ही समाज को बनाती है।
4. नातेदारी का समाजशास्त्रीय विश्लेषण-प्रो. घुर्ये ने सम्पूर्ण सामाजिक संगठन के संदर्भ में नातेदारी शब्दावली एवं नातेदारी का सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने नातेदारी का अध्ययन सम्बन्धों के नामकरण तथा प्रारम्भिक पारिवारिक एवं वैवाहिक स्वरूपों के संदर्भ में किया है।
5. समाजशास्त्रीय शोधों का उल्लेख-प्रो. घुर्ये की एक अन्य महत्त्वपूर्ण देन शोध कार्यों के सम्बन्ध में है। उन्होंने तथा उनके निर्देशन में अनेक शोध कार्य किये गये हैं। उनकी अनुसंधानिक अध्ययन की प्रवृत्ति अभिवृत्तिमूलक (Attitudinal) रही है, लेकिन उनके निर्देशन में निदर्शन एवं माप (Sampling and Scale) का अभाव रहा है। घुर्ये के शोधों का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है-शोधों में भारतीय सामाजिक संगठन एवं संस्कृति के बारे में ऐतिहासिक एवं समकालीन अनुभवाश्रितता का प्रयोग, इसके साथ ही उन्होंने संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक पद्धति का भी प्रयोग किया है।
6. अनेक विषयों का समाहन-प्रो. घुर्ये के शोध कार्यों की प्रथम विशेषता यह रही है कि उन्होंने सदैव समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित किया; दूसरे, उन्होंने इन समस्याओं का अध्ययन भारतीय संस्कृति के संदर्भ में किया है और तीसरे, इन्होंने अपने अध्ययन में अनेक विषयों को समाहित किया है, जैसे-जाति, जनजाति, प्रजाति, सामाजिक दर्शन, सामाजिक मनोविज्ञान, कला, लोकगीत, प्रादेशिक संस्कृति, सामाजिक पारिस्थितिकी, तनाव, मुसलमानों, ईसाइयों, जैनियों, जनजातियों, नातेदारी आदि। राबर्ट मर्टन ने उनके सम्बन्ध में लिखा है कि,"उनके कार्य इस देश में लम्बे समय तक जाने जायेंगे तथा उन्होंने उन्हें समाजशास्त्रीय सृजनात्मकता का प्रतीक बना दिया है।"
7. उन्होंने भारत में समाजशास्त्रीय अध्ययन धारा को तीव्रता तथा विस्तार दिया है-प्रो. घुर्ये की एक अति महत्त्वपूर्ण देन यह मानी जाती है कि उन्होंने देश में अनेक समाजशास्त्रियों को पैदा किया है जो आज अनेक विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में अध्यापन एवं शोध कार्यों में लगे हुए हैं। उन्होंने एम.एन. श्रीनिवास, ए.आर. देसाई, एम.एस. गोरे, आई.पी. देसाई, श्रीमती इरावती कर्वे तथा के.एम. कापड़िया जैसे विद्वानों को पढ़ाया तथा उनके शोध कार्यों का निर्देशन किया है।
प्रश्न 4.
प्रो. घुर्ये द्वारा वर्णित जाति की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
जाति व्यवस्था की विशेषताएँ
(Features of the Caste System) प्रो. घुर्ये ने अपनी पुस्तक 'जाति, वर्ग और व्यवसाय' के प्रथम अध्याय में जाति व्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन किया है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) समाज का खण्डात्मक विभाजन (Segmental Division of Society)-प्रो. घुर्ये का मत है कि जातिव्यवस्था ने भारतीय समाज को अनेक खण्डों में विभाजित कर दिया है और प्रत्येक खण्ड में सदस्यों की स्थिति, पद तथा कार्य निश्चित हैं। खण्ड से उनका तात्पर्य यह है कि एक जाति के सदस्यों की सामुदायिक भावना अपनी ही जाति तक सीमित है। इस प्रकार प्रत्येक जाति के सदस्यों की सामुदायिक भावना सम्पूर्ण समाज के प्रति न होकर अपनी ही जाति तक सीमित होने के कारण सम्पूर्ण समाज अनेक खण्डों में विभाजित हो गयी है। प्रो. घुर्ये ने इसे जाति पंचायत और जातियों के बीच की सांस्कृतिक दूरी के आधार पर स्पष्ट किया है। जाति एक बंद वर्ग है क्योंकि जाति का निर्धारण जन्म से होता है। एक विशिष्ट जाति के बच्चे हमेशा उसी जाति के होंगे। दूसरे शब्दों में, जाति की सदस्यता केवल जन्म के आधार पर मिलती है। संक्षेप में, किसी भी व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म से, जन्म के समय होता है। इससे न तो बचा जा सकता है और न ही बदला जा सकता है।
(2) जातियों में सोपानिक विभाजन-प्रो. घुर्ये लिखते हैं कि समाज में सभी जातियों की सामाजिक स्थिति समान नहीं है। उनमें ऊँच-नीच का एक पदसोपान या संस्तरण पाया जाता है। इस पदसोपान में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा है और शूद्रों का स्थान सबसे नीचे है तथा क्षत्रिय और वैश्य इनके मध्य में हैं। इस संस्तरण की अन्य प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
(3) भोजन तथा सामाजिक अन्तःक्रिया पर प्रतिबन्ध-जाति व्यवस्था में जातियों के परस्पर भोजन एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक निषेध पाये जाते हैं। प्रो. घुर्ये ने उत्तर भारत तथा दक्षिण-भारत दोनों क्षेत्रों में व्याप्त इन निषेधों को गिनाया है। यथा उत्तर-भारत के प्रमुख निषेध-प्रो. घुर्ये ने उत्तर भारत में जातियों का विभाजन पाँच समूहों में किया है। पहला स्थान ब्राह्मणों का है। ब्राह्मण किसी ब्राह्मण के यहाँ ही कच्चा भोजन कर सकता है। दूसरा स्थान उन जातियों का है जिनके यहाँ ब्राह्मण पक्का भोजन कर सकता है। तीसरा स्थान उन जातियों का है जिनके यहाँ ब्राह्मण भोजन तो नहीं कर सकता लेकिन जल ग्रहण कर सकता है। चौथा स्थान उन जातियों का है जिनके यहाँ ब्राह्मण जल-पान तो ग्रहण नहीं कर सकता लेकिन स्पर्श का निषेध नहीं है।
पाँचवाँ स्थान उन जातियों का है जिनका ब्राह्मण तथा उच्च जातियाँ स्पर्श तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उनका स्पर्श अपवित्रकारी है। इसी क्रम में अन्य जातियों में भी जल-पान सम्बन्धी निषेध हैं। प्रायः ऊँची जाति का व्यक्ति नीची जाति के सदस्य के हाथ का कच्चा भोजन ग्रहण नहीं कर सकता है जबकि नीची जाति के सदस्य ऊँची जाति के सदस्य के हाथों का कच्चा भोजन कर सकते हैं। दक्षिण-भारत के निषेध-दक्षिण-भारत में उत्तर-भारत से कहीं अधिक छुआछूत प्रचलित है। प्रायः यहाँ ब्राह्मण अन्य जातियों से अपनी अधिक दूरी बनाये रखते हैं। इसे प्रो. घुर्ये ने अपनी पुस्तक में अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया है। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में जाति-व्यवस्था में खान-पान और सामाजिक सहवास सम्बन्धी अनेक नियम तथा निषेध पाये जाते हैं। ये नियम पवित्रता तथा अपवित्रता के विचार से संचालित होते हैं।
(4) नागरिक तथा धार्मिक निर्योग्यतायें (Disabilities) एवं विशेषाधिकार (Privileges)-प्रो. घुर्ये ने जाति व्यवस्था में उच्च जातियों विशेषकर ब्राह्मणों को जहाँ अनेक प्रकार के नागरिक, सामाजिक तथा धार्मिक विशेषाधिकारों से युक्त पाया है, वहीं निम्न जातियों को अनेक निर्योग्यताओं से बंधा पाया है। यथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकार-प्रो. घुर्ये ने लिखा है कि दक्षिण में ब्राह्मणों का प्रबल प्रभुत्व रहा है। ब्राह्मणों को दिये गये गाँव में परेया जाति के लोग प्रवेश नहीं कर सकते। सारे भारत में अछूतों को उन कुंओं से पानी भरने की मनाही है जिनमें से सवर्ण लोग पानी भरते हैं। ब्राह्मणों की उपस्थिति में मालाबार में निम्न जातियों के लोग अपने मकानों को घर या मकान न कहकर 'गोबर का ढेर' ही कहते थे।
कछुए की शक्ल में बने हुए तख्तों पर बैठने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को था। ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी जाति के लोगों को कमर से ऊपर वस्त्र पहनने की मनाही थी। स्त्रियों को कमर से ऊपर अपने तन को ढंकने का सन् 1865 तक यही नियम मानना पड़ता था। ब्राह्मण वैदिक क्रिया पद्धति से वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ विवाह सम्पन्न करते थे जबकि अन्य जातियाँ पौराणिक विधि से, वेद-मंत्रों से रहित, विवाह सम्पन्न कराती थीं। ब्राह्मण को सभी नमन करते थे किन्तु ब्राह्मण दूसरे लोगों को केवल आशीर्वाद देता है। ब्राह्मणों की भूमि पर कर नहीं लिया जाता था आदि अनेक विशेषाधिकार ब्राह्मणों को प्राप्त थे। निम्न जातियों की प्रमुख निर्योग्यतायें-प्रो. घुर्ये ने अपनी पुस्तक में निम्न जातियों की अनेक निर्योग्यताओं को गिनाया है।
कुछ प्रमुख निर्योग्यतायें निम्न हैं-
(i) मालाबार के इजावह लोगों को जूते पहनने, छाता लगाने एवं गाय का दूध निकालने की मनाही थी।
(ii) पेशवाओं के राज्य में पूना में महर एवं मंग आदि अछूत जातियों को सायंकाल तीन बजे से प्रातः नौ बजे तक शहर में प्रवेश की इजाजत इसलिए नहीं थी कि उस समय परछाईं के लम्बी होने से किसी द्विज (ब्राह्मण तथा अन्य उच्च जाति) पर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाता था।
(iii) पंजाब में हरिजन शहर में चलते समय लकड़ी के गट्टे बजाता था जिससे कि लोगों को ज्ञात हो जाय कि अछूत आ रहा है और वे मार्ग से दूर हट जायें। उन्हें सड़क पर थूकने की मनाही थी, अतः वे गले से थूकने के लिए एक बर्तन लटकाया करते थे। महाराष्ट्र में महार जाति को भी यही करना पड़ता था।
(iv) सम्पूर्ण भारत में अछूतों को स्कूल, मन्दिर, तालाबों, कुंओं तथा सार्वजनिक स्थानों के उपयोग की मनाही थी।
(v) अछूतों की बस्तियाँ गाँव से दूर होती थीं।
(vi) गुजरात में दलित जातियाँ अपने विशिष्ट चिह्न के रूप में सींग पहना करती थीं।
(vii) अपवित्र जातियों के विवाह ब्राह्मण सम्पन्न नहीं कराते थे। दक्षिण में मालाबार में तियान लोगों को दाहसंस्कार की मनाही थी।
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि जाति व्यवस्था में ऊँची जातियाँ, विशेषकर ब्राह्मण जहाँ अनेक सामाजिक और धार्मिक विशेषाधिकारों का उपभोग करते थे, वहीं अछूत तथा दलित जातियों को अनेक सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताओं को वहन करते हुए जीवन-यापन करना पड़ता था।
(5) व्यवसाय के अप्रतिबन्धित चुनाव का अभाव-यद्यपि जाति व्यवस्था के अन्तर्गत प्रो. घुर्ये के अनुसार, प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता था, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होता रहता था, तथापि कुछ व्यवसाय ऐसे थे जो सभी जातियों के लिये खुले थे, जैसे कृषि, व्यापार, कृषि-श्रम और सैनिक सेवा, शिल्पकारी व्यवसाय कम और अधिक सभी शिल्पकारी जातियों के लिए खुले थे, लेकिन विशिष्ट या अधिकांश व्यवसायों के चयन में जाति का नैतिक नियन्त्रण तथा सामाजिक प्रतिबन्ध भी विद्यमान था, जैसे- कोई भी उच्च जाति अपने सदस्यों को ताड़ी बनाने, चमड़े का काम करने, मरे हुए पशुओं या मैला उठाने के कार्य की अनुमति नहीं देती थी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था में सदस्य को व्यवसाय के चुनाव में अनियन्त्रित स्वतंत्रता नहीं थी। यद्यपि समस्त भारत में क्षेत्रीय विशेषताओं के अनुसार थोड़ा-बहुत जातिगत व्यवसायों में अन्तर भी विद्यमान था। ब्राह्मण प्रायः पुरोहितगिरी के अतिरिक्त गाँव के लेखापाल, सेना में सिपाही, सरकार तथा सेठों के यहाँ नौकरी तथा कृषि के कार्य भी करते रहे हैं। लेकिन पुरोहित के कार्य पर ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा है।
(6) विवाह पर नियंत्रण (Restriction on Marriage)-प्रो. घुर्ये ने जाति व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह बताई है कि प्रत्येक जाति अपनी ही जाति अथवा उपजाति में विवाह करती है, इसे अन्तर्विवाह (Endogamy) कहते हैं । वेस्टरमार्क ने इस विशेषता को 'जाति का सार तत्त्व' बताया है। जाति या उपजाति से बाहर विवाह करने वाले को जाति पंचायत द्वारा जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। प्रो. घुर्ये ने इस सम्बन्ध में आगे कहा है कि "वास्तव में जाति नहीं वरन् उपजाति ही अन्तर्विवाही समूह है।" इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि बंगाल में प्रायः प्रत्येक जाति ऐसे छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होती है जो केवल अपने समूह में ही विवाह करते हैं। ये अन्तर्विवाही समूह उपजातियों के नाम से जाने जाते हैं।
श्री शेरिंग और रिचर्ड्स ने इस उपजाति को ही हिन्दू समाज की इकाई कहा है। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रो. घुर्ये ने अपनी पुस्तक 'जाति, वर्ग और व्यवसाय' में जाति-व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का सप्रमाण विवेचन प्रस्तुत किया है कि जाति व्यवस्था एक खण्डात्मक व्यवस्था है, जिसमें ऊँचनीच का संस्तरण पाया जाता है, जिसमें खान-पान तथा व्यवसाय सम्बन्धी अनेक निषेध तथा प्रतिबन्ध हैं तथा ऊँची जातियों को जहाँ कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं, वहाँ निम्न जातियाँ कुछ निर्योग्यताओं को वहन करती हैं तथा जहाँ उपजातिगत विवाह का नियन्त्रण पाया जाता है।
प्रश्न 5.
प्रो. घुरिये द्वारा वर्णित जाति के बदलते स्वरूप के कारणों का उल्लेख कीजिए तथा जाति के भविष्य पर प्रो. घुरिये के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रो. गोविन्द सदाशिव घुर्ये का भारतीय समाजशास्त्रीय जगत में विशिष्ट स्थान है। उनकी पुस्तक 'जाति, वर्ग और व्यवसाय' भारतीय समाजशास्त्रीय कृतियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय जातिव्यवस्था का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने जाति के बदलते प्रतिमानों तथा उसमें आयी नवीन प्रवृत्तियों तथा उसके भविष्य का विश्लेषण भी किया है। जाति व्यवस्था में परिवर्तन तथा नवीन प्रवृत्तियाँ विभिन्न युगों में जातीय-व्यवस्था के प्रतिमान युगानुकूल परिवर्तित होते रहे हैं। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में अनेक कारक सक्रिय रहे हैं तथा इसके परिणामस्वरूप जाति-व्यवस्था की संरचना एवं कार्यों में निम्न नवीन प्रवृत्तियों की ओर घुर्ये ने संकेत किया है
1. ब्राह्मणों की स्थिति में गिरावट-वर्तमान युग में व्यक्तिगत गुणों एवं धन का महत्त्व बढ़ जाने से निम्न जातियों के व्यक्ति भी शिक्षा ग्रहण कर, धन संचय कर तथा चुनाव में विजय प्राप्त कर अपनी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को ऊँचा उठाने में सफल हुए हैं। दूसरी तरफ धार्मिक क्रियाओं एवं पूजा-पाठ का महत्त्व घटने के कारण ब्राह्मणों की प्रभुता में कमी आई है।
2. जातीय संस्तरण में परिवर्तन-वर्तमान में जातीय संस्तरण में भी परिवर्तन आया है। निम्न जातियां अपनी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति ऊँची उठाकर अपने को जातीय संस्तरण में ऊँचा उठाने का प्रयास कर रही हैं। अब किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के निर्धारण में जाति के साथ-साथ गुण, योग्यता, शिक्षा, सम्पत्ति तथा राजनीतिक शक्ति भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस कारण जाति के महत्त्व में कमी आई है।
3. पेशे के चुनाव में स्वतन्त्रता-अब व्यक्ति व्यवसाय के चुनाव में परम्परागत बंधनों से मुक्त है। अब ब्राह्मण जूते का व्यवसाय अपना रहे हैं तथा दूसरी जातियों के सदस्य भी अपने परम्परागत व्यवसाय से हटकर भी व्यवसाय चुन रहे हैं। फिर भी ब्राह्मणों के पुरोहिती तथा हरिजनों के सेवा कार्यों को दूसरी जातियों ने अभी नहीं अपनाया है।
4. भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन-परम्परागत जाति व्यवस्था में खान-पान सम्बन्धी निषेध अब अप्रभावी हो गए हैं क्योंकि कच्चे-पक्के का भेद समाप्त हो गया है, सभी जातियाँ अब मांसाहारी हो गई हैं। अब सभी जातियों के लोग साथ-साथ, विशेषकर नगरों में, खाने-पीने लगे हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे भोजन सम्बन्धी जातिगत-निषेध अब समाप्त हो रहे हैं।
5. जन्म के महत्त्व में कमी-वर्तमान में जन्म के स्थान पर योग्यता का महत्त्व बढ़ा है। इस कारण वर्ग और गुणों के महत्त्व ने जाति के जन्म के महत्त्व को कम कर दिया है।
6. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन-वर्तमान में अन्तर्विवाह सम्बन्धी जातिगत नियम शिथिल हो रहे हैं। इसके साथ ही साथ बाल-विवाह तथा विधवा विवाह निषेधों को भी समाप्त किया जा रहा है। इससे जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है।
7. अस्पश्य जातियों के अधिकारों में वृद्धि-समाज सुधारकों तथा वर्तमान सरकार के प्रयत्नों के कारण आज अस्पृश्य जातियों को सरकारी नौकरियों, चुनाव, शिक्षा आदि में विशेष सुविधाएँ मिलने से उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति में सुधार हुआ है। अस्पृश्यता को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया है। इससे जाति व्यवस्था की संरचना में परिवर्तन आ रहा है।
8. जातीय समितियों का निर्माण-विभिन्न जातियों ने वर्तमान में अपने प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय स्तर के संगठन बनाये हैं जो अपनी जातीय हितों की रक्षा करते हैं। ये जातीय समितियाँ जाति को सामाजिक एवं राजनीतिक गतिशीलता तथा शक्ति प्रदान करने एवं आर्थिक लाभ पहुँचाने का कार्य करती हैं।
9. जातियों के बदलते हुए सम्बन्ध-अब जातियों के पारस्परिक जजमानी सम्बन्ध ट रहे हैं, उनमें राजनीतिक शक्ति को लेकर टकराव हो रहा है तथा नवीन जातीय शक्ति समीकरण बन रहे हैं । अब सत्ता उच्च जातियों से निकलकर बहुसंख्यक जातियों के पास आ रही है। जाति का भविष्य प्रो. घुर्ये ने जाति के भविष्य पर विस्तार से चर्चा की है। उनके अनुसार वर्तमान में जाति व्यवस्था न केवल परिवर्तित हो गई है बल्कि हिन्दुओं के एक भाग ने इस परिवर्तन को स्वीकार कर इसका स्वागत किया है तथा उनमें संशोधनों का भी प्रस्ताव किया है।
जाति व्यवस्था-
के भविष्य के सम्बन्ध में प्रो. घुर्ये ने तीन विचारधारायें प्रस्तुत की हैं। ये हैं
(1) प्रथम विचारधारा के अनुसार-हिन्दू समाज को पुनः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में ही विभाजित किया जाए। महात्मा गाँधी इस विचार के समर्थक थे।
(2) द्वितीय विचारधारा के अनुसार-जाति के उन्मूलन हेतु समान संस्कृति वाली उपजातियों का सम्मिश्रण कर दिया जाये। धीरे-धीरे सभी जातियों को मिलाकर जातिविहीन समाज की स्थापना की जाये।
(3) तीसरी विचारधारा के अनुसार-जाति प्रथा को अविलम्ब समाप्त कर दिया जाये। प्रो. घुर्ये ने भारतीय समाज में जातियों में होने वाले विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों और इन परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी कारकों का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया है और अन्त में जाति में परिवर्तन सम्बन्धी उपर्युक्त तीसरी विचारधारा की पुष्टि की है जिसके अनुसार भविष्य में जाति का उन्मूलन कर दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 6.
जाति की उत्पत्ति के बारे में प्रो. घुर्ये के विचारों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
प्रो. घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति के लिए प्रजातीय मिश्रण, अनुलोम विवाह की प्रथा, सांस्कृतिक सम्पर्क तथा रक्त शुद्धता की भावना आदि को उत्तरदायी माना है। उनका मानना है कि भारत में आर्य विजेता के रूप में आए और हार जाने के कारण यहाँ के मूल निवासियों को उन्होंने दास बना लिया। अन्य जातियाँ अनुलोम विवाह, प्रजातीय मिश्रण तथा सांस्कृतिक सम्पर्क तथा प्रजाति की रक्त शुद्धता के आधार पर बनीं। जाति की उत्पत्ति के बारे में प्रो. घर्य के विचार जाति की उत्पत्ति के बारे में प्रो. घुर्ये के विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है
(1) शूद्र जाति की उत्पत्ति-प्रो. घुर्ये का मत है कि आर्य जब भारत में आए तो उनमें कम से कम तीन सुनिश्चित वर्ग थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । इनके मध्य अन्तर्जातीय विवाह बिरले ही होते थे। लेकिन ऐसे विवाहों का पूर्ण निषेध भी नहीं था। भारत में आने पर इन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को शूद्रों की संज्ञायें प्रदान की और उन्हें धार्मिक कर्मकाण्ड एवं उपासना की आज्ञा नहीं दी। यज्ञ भवन में उनकी उपस्थिति को भी निषिद्ध ठहराया। प्रो. घुर्ये का इस सम्बन्ध में कहना है कि ये शूद्र लोग विशेष रूप से उन आदिवासियों में से थे जिन्होंने आर्यों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था और जो उनकी सेवा में प्रविष्ट हो गए थे। इस प्रकार भारत में आर्य विजेता के रूप में आए और उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को दास बना लिया, जिन्हें विद्वानों ने 'शद्र' की संज्ञा दी है।
(2) अनुलोम-प्रतिलोम विवाह निषेध-प्रो. घुर्ये के मत में अनुलोम-प्रतिलोम विवाह निषेध के नियमों की यदा-कदा अवहेलना से अन्य जातियों का जन्म हुआ है। उनके अनुसार आर्यों ने यहाँ के मूल निवासियों की प्रजाति, शारीरिक रचना एवं संस्कृति से अपने को श्रेष्ठ समझा। लेकिन वे अपने साथ स्त्रियों को नहीं लाये थे, इसलिए उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों की लड़कियों से विवाह किया, इससे अनुलोम विवाह प्रारंभ हुए। इसके साथ ही उन्होंने अपनी पुत्रियों का विवाह द्रविड़ लड़कों से करने पर रोक लगा दी, इसके कारण प्रतिलोम विवाह निषिद्ध हुए। जब आर्य लोगों में स्त्रियों की आवश्यकता पूर्ण हो गई तो उन्होंने अनुलोम विवाहों पर भी रोक लगा दी। किन्तु जब कभी भी अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह के नियमों की अवहेलना हुई तो ऐसे विवाहों से उत्पन्न संतानों को वर्णसंकर माना गया और इस समूह को एक नवीन जाति का दर्जा दिया गया। इस प्रकार नवीन जातियों की उत्पत्ति हुई।
(3) रक्त शुद्धता-प्रो. घुर्ये ने आर्यों के रक्तशुद्धता के विचारों को भी जाति उत्पत्ति का कारक माना है। अनुलोम विवाह की स्वीकृति उनकी इसी इच्छा का परिणाम था कि वे अपनी शारीरिक शुद्धता तथा सांस्कृतिक अखण्डता को सुरक्षित रखना चाहते थे। आर्यों एवं अनार्यों में प्रजातीय भेद स्पष्ट था। जैसा कि पतंजलि ने लिखा है-"गोरी चमड़ी तथा भूरे केश ब्राह्मण के शारीरिक लक्षण थे और श्याम रंग अब्राह्मण लोगों का।" प्रो. घुर्ये ने अपने अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला कि यू.पी. के ब्राह्मणों की उसी प्रदेश की अधिकांश जातियों से पृथक्ता यह प्रकट करती है कि वे अपने शारीरिक रूप को जितना सम्भव हो शुद्ध बनाए रखने में सफल हुए हैं। जातीय अस्पृश्यता और असम्पर्कता भी औपचारिक रक्त शुद्धता की देन हैं। प्रो. घुर्ये के अनुसार यू.पी. में आर्यों अर्थात् ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति भी दूसरी जातियों की सामाजिक स्थिति से उच्च है तथा शारीरिक रचना भी दूसरी जातियों की रचना से भिन्न है।
(4) प्रजातीय सिद्धान्त-प्रो. घुर्ये ने कहा है कि जाति की उत्पत्ति में 'प्रजातीय' तत्त्वों का अत्यधिक योग रहा है। अपनी इस बात की पुष्टि के लिए उन्होंने वर्ण शब्द का सहारा लिया है। वे कहते हैं कि वर्ण का एक अर्थ रंग भी होता है। अलग-अलग वर्गों के रंग भी अलग-अलग थे। बाद में जाति शब्द का प्रयोग ऐसे समूह के लिए होने लगा जिसकी सदस्यता जन्म से प्राप्त होती थी। अनेक बार वर्ण और जाति का समान अर्थों में प्रयोग किया गया है।
(5) सांस्कृतिक भेद एवं सम्पर्क-प्रो. घुर्ये ने जाति प्रथा की उत्पत्ति में एक अन्य कारक सांस्कृतिक भेद और सम्पर्क को माना है। उनका मत है कि एक वर्ण प्रारंभ में एक व्यावसायिक समूह था, आगे चलकर वह अन्तर्विवाही (Endogamous) समूह बन गया और व्यवसाय तथा अन्तर्विवाही उन समूहों की विशेषताएँ बन गईं। प्रारम्भ में तो वे न्यूनाधिक रूप में अस्पष्ट रहीं किन्तु बाद में उनमें कठोरता आ गई। रक्त शुद्धता, सांस्कृतिक संरक्षण के मूल लक्ष्य इन समूहों में भी प्रवेश करते रहे । यू.पी. के अध्ययन के आधार पर प्रो. घुर्ये कहते हैं कि भारत के अन्य प्रान्तों में शारीरिक रचना और सामाजिक प्रस्थिति में उतना सामन्जस्य नहीं पाया जाता जितना उत्तर प्रदेश में है।
अन्य प्रान्तों में आर्य केवल व्यावसायिक एवं अन्तर्विवाह की अपनी योजना ही लागू कर पाये। इसी आधार पर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि, "भारत में जाति भारतीय आर्य संस्कृति की ब्राह्मण संतान है, जिसका लालन-पालन, गंगा-यमुना के प्रदेश में हुआ और वहाँ से अन्य भागों में स्थानान्तरित हुआ।" प्रो. घुर्ये का यह भी मत है कि जातीय अस्पृश्यता और असम्पर्कता भी औपचारिक रक्त तथा सांस्कृतिक शुद्धता की देन है। पहले इस अस्पृश्यता तथा असम्पर्कता को शूद्रों पर यज्ञ क्रिया के संदर्भ में लागू किया गया, बाद में इन्हें अन्य समूह तक विस्तृत कर दिया गया क्योंकि कुछ व्यवसाय ही अशुद्ध थे।
इस प्रकार प्रो. घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति को आर्यों-अनार्यों के प्रजातीय तथा सांस्कृतिक भेद, उनकी रक्त शुद्धता और सांस्कृतिक संरक्षण की इच्छा, स्त्रियों को यहीं से अपने लिये वरण करने की विवशता, व्यावसायिक शुद्धता आदि के परिणामस्वरूप उत्पन्न असम्पर्कता, अस्पृश्यता, अन्तर्वैवाहिकता तथा इनके नियमों की यदा-कदा अवहेलना से वर्णसंकर-समूह तथा उनकी पुनः अन्तर्वैवाहिकता आदि के नियमों ने धीरे-धीरे कठोरता प्राप्त कर ली और 'जाति-व्यवस्था' का गठन हुआ।
प्रो. घुर्ये के विचारों की आलोचना
(Criticism of Prof. Ghurye's Views)
प्रो. घुर्ये के जाति-उत्पत्ति सम्बन्धी विचारों की विद्वानों ने अनेक आधारों पर आलोचनाएँ की हैं। कुछ प्रमुख आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं-
(1) प्रजाति मिश्रण और सांस्कृतिक सम्पर्क पर अत्यधिक बल-हट्टन आदि विद्वानों ने प्रो. घुर्ये के जातिउत्पत्ति के सिद्धान्त की इस आधार पर आलोचना की है कि उन्होंने 'प्रजाति मिश्रण एवं सांस्कृतिक सम्पर्क' को जातिउत्पत्ति का एकमात्र कारक बताया है, जबकि जाति-उत्पत्ति में अन्य कारकों ने भी अपना योगदान दिया है। प्रो. घुर्ये के विश्लेषण में उन कारकों की उपेक्षा हुई है।
(2) खान-पान तथा छुआछत के दृष्टिकोण में त्रुटि-आलोचकों का मत है कि प्रजातियों में खान-पान का भेद और छुआछूत नहीं पाया जाता है जबकि जाति में पाया जाता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जब प्रजाति ही जाति की उत्पत्ति का आधार है तो जाति में खान-पान के निषेध व छुआछूत क्यों पनपें।
(3) विश्व के अन्य क्षेत्रों से पुष्ट नहीं होता है-विद्वानों ने इस आधार पर भी प्रो. घुर्ये के प्रजाति के सिद्धान्त की आलोचना की है कि प्रजाति से जाति का जन्म भारत में ही क्यों हुआ, विश्व के अन्य भागों में क्यों नहीं?
(4) जाति की उत्पत्ति को ब्राह्मणों की चतुर युक्ति मानना त्रुटिपरक-आलोचकों का कहना है कि प्रो. घुर्ये जाति को ब्राह्मणों की एक चतुर युक्ति मानते हैं, लेकिन कोई भी चतुर युक्ति कुछ समय तक ही चल पाती है। लेकिन क्या इतने लम्बे समय में ब्राह्मणों की इस चतुर युक्ति को न समझ पाना, बुद्धिसम्मत तथा तर्कसंगत नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जाति की उत्पत्ति के अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे हैं। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रो. घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति का प्रजातीय मिश्रण तथा सम्पर्क का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है जिससे कि आर्यों की विजय, उनकी रक्त शुद्धता तथा सांस्कृतिक संरक्षण की प्रबल भावना, स्त्रियों की आवश्यकता की विवशता ने जाति की उत्पत्ति में योग दिया।
प्रश्न 7.
प्रो. डी.पी. मुकर्जी के जीवन एवं कृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रो. डी.पी. मुकर्जी एक लब्ध-प्रतिष्ठित भारतीय थे, जिन्होंने न केवल समाजशास्त्र के क्षेत्र में ही वरन् अर्थशास्त्र, साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में भी अपना कीर्तिमान स्थापित किया। आपने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भारत पर पश्चिम के प्रभाव को एक समस्या के रूप में न देखकर उसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में विश्लेषित करने का प्रयास किया है। आपने इस प्रभाव को एक विघटनात्मक घटना न मानकर दीर्घकाल से चली आ रही विभिन्न प्रजातियों और संस्कृतियों के समन्वय की श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में देखा है। समाजशास्त्र की अनेक अवधारणाओं पर आपने अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं-इनमें सामाजिक परिवर्तन, परम्पराओं का द्वन्द्व, कला तथा साहित्य का विकास, इतिहास और मानव, समाज, समूह, सामाजिक सम्बन्ध, अन्तःक्रिया आदि प्रमुख हैं। आपने इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या प्रस्तुत की है।
डी.पी. मुकर्जी का जीवन-चित्रण एवं कृतियाँ
(Life-sketch and Works of D.P. Mukerjee)
प्रो. डी.पी. मुकर्जी के जीवन-चित्रण एवं कृतियों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) जन्म तथा अध्ययन-प्रो. डी.पी. मुकर्जी का जन्म 5 अक्टूबर, 1894 ई. को बंगाल के एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह वह समय था जब बंगला में बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं शरतचन्द्र का साहित्य पर गहरा प्रभाव छाया हुआ था। प्रो. डी.पी. मुकर्जी राधा कमल मुखर्जी के समकालीन थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने साहित्य, संगीत, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र का विशेष अध्ययन किया।
(2) बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न-प्रो. डी.पी. मुकर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में उपन्यास भी लिखे और टैगोर के बहुत नजदीक आए तथा उनके साथ मिलकर एक पुस्तक की रचना भी की। संगीत में भी उनकी गहरी रुचि थी और उन्होंने संगीत के क्षेत्र में निर्भय होकर आलोचनाएँ लिखीं। बंगाली भाषा में उन्हें विशेष योग्यता प्राप्त थी। प्रारम्भ में उन्होंने इतिहास का अध्ययन किया और बाद में अर्थशास्त्र में उपाधि ग्रहण की। वर्षों तक उन्होंने अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र का अध्यापन किया। वे दर्शनशास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों और कला, साहित्य व संगीत के सिद्धान्तों पर आधिकारिक तौर पर बात कर सकते थे।
(3) व्याख्यान, वार्तालाप व विचार-विमर्श पर जोर-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों का इस प्रकार से समन्वय किया कि वे मानव एवं संस्कृति के समक्ष आने वाली विभिन्न समस्याओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देख सकते थे। उनके लेखन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण उनके व्याख्यान, वार्तालाप और विचार-विमर्श थे। इसलिए वे लिखने के स्थान पर मौखिक बातचीत पर ज्यादा जोर देते थे। इसी के द्वारा वे नई पीढ़ी के मस्तिष्क को प्रशिक्षित कर अपने बारे में सोचने के लिए तैयार करते थे।
(4) लखनऊ विश्वविद्यालय में व्याख्याता-सन् 1924 में डी.पी. मुकर्जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र के व्याख्याता का पद ग्रहण किया। इसके पूर्व में बंगवासी कॉलेज में अध्यापक थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में वे 32 वर्षों तक अध्यापन कार्य करते रहे । प्रो. ए.के. सरन और डी.एन. मदान जैसे प्रतिष्ठित समाजशास्त्री प्रो. डी.पी. मुकर्जी के प्रिय शिष्यों में से रहे हैं।
(5) सूचना विभाग के डायरेक्टर-स्वतन्त्रता से पूर्व 1935 के एक्ट के अन्तर्गत हुए 1937 के चुनावों में जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में आई तो कुछ समय के लिए आप सूचना विभाग के डायरेक्टर बनकर चले गए। वहाँ आपने जन-सम्पर्क को बौद्धिक दृष्टिकोण प्रदान किया तथा अर्थशास्त्र और सांख्यिकी ब्यूरो' की भी स्थापना की जो आज भी कार्यरत है।
(6) इण्डियन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य-प्रो. डी.पी. मुकर्जी 'इण्डियन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन' के संस्थापक सदस्य थे। वे इनकी मैनेजिंग कमेटी एवं सम्पादक मण्डल के भी सदस्य . थे। उन्होंने इस संगठन का 'अन्तर्राष्ट्रीय समाजशास्त्रीय संगठन' में प्रतिनिधित्व भी किया और उसके उपाध्यक्ष रहे।
(7) अन्य कार्य-प्रो. डी.पी. मुकर्जी सन् 1947 में उत्तर प्रदेश श्रम जाँच समिति के सदस्य नियुक्त किये गये थे। वे यद्यपि भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए नहीं थे, तथापि वे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के नजदीक थे। सन् 1949 में वे लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। सन् 1953 में वे अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होकर गए और वहाँ वे 5 वर्ष तक कार्य करते रहे। वे हेग में 'इन्टरनेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशियल स्टडीज' में समाजशास्त्र के 'विजिटिंग प्रोफेसर' बनकर भी गए। यूनेस्को के निमन्त्रण में उन्होंने पेरिस में शानदार व्याख्यान दिया। उन्होंने 1955 में 'अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय संगठन' की अध्यक्षता भी की। वे रफी अहमद किदवई और जवाहरलाल नेहरू से प्रभावित थे तथा उनसे पत्र-व्यवहार भी करते रहते थे। वे समाजशास्त्र के प्रति प्रतिबद्ध थे और आयोजन (Planning) में विश्वास करते थे।
(8) मृत्यु-जब वे यूनेस्को के निमन्त्रण पर पेरिस गए, वहाँ उन्होंने शानदार व्याख्यान दिया लेकिन इसी समय धूम्रपान अधिक करने के कारण उन्हें गले का कैंसर हो गया, जिसके उपचार के लिए वे ज्यूरिख गए। वहाँ उनका ऑपरेशन हुआ। ऑपरेशन के बाद उनकी आवाज खराब हो गयी। इसके बाद कुछ और समय तक अलीगढ़ में प्रोफेसर के पद पर कार्य करते रहे। 5 दिसम्बर, 1961 को उनका स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रो. डी.पी. मुकर्जी एक बहुत ही प्रभावशाली और सफल प्राध्यापक, महान् सामाजिक विचारक, उपन्यासकार, साहित्य और कला के विवेचक, संगीत-पारखी, मानवतावादी दृष्टिकोण से ओत-प्रोत मानव और कुशल प्रशासक थे।
प्रो. डी.पी. मुकर्जी की प्रमुख कृतियाँ
प्रो. डी.पी. मुकर्जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
विविधताएँ, 1958 (Diversities, 1958)।
उपर्युक्त पुस्तकों की वैषयिक विविधता से स्पष्ट है कि उनकी प्रतिभा बहुआयामी थी। आपके तीन उपन्यास तथा एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। आपके बंगाली भाषा में लिखे निबन्धों के दो खण्ड भी प्रकाशित हुए।
प्रश्न 8.
डॉ. धूर्जटि प्रसाद मुकर्जी के प्रमुख समाजशास्त्रीय योगदानों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र को अमूल्य योगदान करने वाले प्रमुख समाजशास्त्रियों में से धूर्जटि प्रसाद मुकर्जी एक हैं। डॉ. डी.पी. मुकर्जी एक यशस्वी भारतीय समाजवेत्ता थे जिन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य, संगीत, कला तथा अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अपना कीर्तिमान स्थापित किया। उनके विचारों से समाजशास्त्र सर्वाधिक लाभान्वित हुआ है। आपका समाजशास्त्रीय योगदान अत्यन्त प्रौढ़ और मौलिक है।
डॉ. डी.पी. मुकर्जी का समाजशास्त्रीय योगदान-
(Dr. D.P. Mukerjee's Sociological Contribution)
डॉ. डी.पी. मुकर्जी के समाजशास्त्रीय योगदान को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण-डॉ. डी.पी. मुकर्जी का मत है कि विभिन्न विज्ञान, जैसे—समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास आदि परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। इन विज्ञानों की सामग्री के आदान-प्रदान को आप आवश्यक मानते हैं। आपका मत है कि सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण ही समाजशास्त्र की व्याख्या का आधार होना चाहिए, क्योंकि व्यक्तित्व, वैयक्तिकता और समाजीकरण का समन्वय है। व्यक्तित्व पूर्ण एकता है और ज्ञान इस एकीकृत पूर्णता का आधार है। इसलिए सामाजिक विज्ञानों की अध्ययन वस्तु को अलग-अलग दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि "एक विषय को ज्ञान से काट दिया गया है।
ज्ञान को जीवन से पृथक् कर दिया गया है और जीवन, जीवित सामाजिक दशाओं से अलग कर दिया गया है।'' अर्थात् आपके मतानुसार आज ज्ञान का विभाजन हो गया है। वह कई शाखाओं व उपशाखाओं में बँट गया है। अतः उसकी सम्पूर्णता समाप्त हो गई है। आपका मत है कि व्यक्तित्व के विविध पक्ष होते हैं। इन विभिन्न पक्षों को एक पूर्णता मानकर अध्ययन करना चाहिए। आपने समाजशास्त्र की बिखरी हुई विषयवस्तु के सम्बन्ध में कहा है कि अगर हम समाजशास्त्र विषय का विकास करना चाहते हैं तो हमें सम्पूर्णवादी दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए।
(2) मार्क्सवादी विचारधारा (Marxian Ideology) के समर्थक-डी.पी. मुकर्जी को भारतीय समाजशास्त्र की मार्क्सवादी विचारधारा का अग्रज कहा जा सकता है। आपके विचारों, अध्ययनों, मतों, अध्ययन-पद्धति व भारतीय समाज की समस्याओं के समाधान आदि में किसी न किसी रूप में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव मिलता है। उन्होंने 'भारत में सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन' मार्क्स द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्वात्मक पद्धति के अनुसार किया है।
डॉ. डी.पी. मुकर्जी के साहित्य में भारतीय सामाजिक प्रक्रियाओं के विश्लेषण में द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध सन्दर्भ पाये जाते हैं। आपने भारतीय समाज में परिवर्तन का विश्लेषण भारत की परम्पराओं के संघर्ष के आधार पर किया। लेकिन आपका द्वन्द्ववाद हीगल और मार्क्स के द्वन्द्ववाद से भिन्नता लिए हुए है क्योंकि हीगल विचारों में संघर्ष का अध्ययन करते हैं, मार्क्स भौतिक पदार्थों को आधार मानकर संघर्ष द्वारा परिवर्तन का विश्लेषण करते हैं तथा डी.पी. मुकर्जी परम्पराओं के संघर्ष के द्वारा भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण करते हैं।
(3) संश्लिष्ट अध्ययन पद्धति (Mixed Study Method) डॉ. डी.पी. मुकर्जी की अध्ययन पद्धति के अनेक आयाम हैं। आपकी अध्ययन पद्धति में ऐतिहासिकता, द्वन्द्वात्मकता, मनो-समाजशास्त्रीयता एवं दार्शनिकता के तत्त्व देखने को मिलते हैं। यथा
(i) ऐतिहासिकता-आपने इतिहास, अर्थशास्त्र, संगीत, चित्रकला तथा साहित्य आदि के विश्लेषण में ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति को अपनाया है। भारतीय समाज के अध्ययन में आपने ऐतिहासिक पद्धति को अपनाने पर जोर दिया है। आपने भारत की परम्पराओं के इतिहास में काल-क्रमिक अध्ययन पर जोर दिया है।
(ii) द्वन्द्वात्मक पद्धति-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने द्वन्द्वात्मक पद्धति के आधार पर भारतीय परम्पराओं में संघर्ष के अध्ययन को प्रस्तुत किया है। आपने लिखा है कि भारतीय समाज में परम्पराओं में द्वन्द्व वृहद् स्तर की परम्पराओं तथा लघु स्तर की परम्पराओं में होता है। इसके अतिरिक्त भारत के बाहर से आई इस्लामी तथा पश्चिमी समाजों की परम्पराओं के प्रभाव के कारण भी भारतीय परम्पराओं में संघर्ष पाया जाता है।
1. D.P. Mukerji, “Views and Counter Views : (1946)”, p. 11.
(iii) मनो-समाजशास्त्रीय पद्धति (Psycho-sociological Method)-डॉ. डी.पी. मुकर्जी की अध्ययन पद्धति में मनो-समाजशास्त्रीय पद्धति भी महत्त्वपूर्ण है। आपने समाजशास्त्रीय अवधारणा का तत्त्व 'व्यक्तित्त्व' को बनाया है तथा विभिन्न प्रकार से इस तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास भी किया है। आपने लिखा है कि "व्यक्तित्व पूर्ण एकता है तथा ज्ञान इस एकीकृत पूर्णता का आधार है।" इस प्रकार आप ज्ञान को व्यक्तित्व के विकास का प्रमुख साधन समझते हैं। आप अपनी सम्पूर्णतावादी दृष्टि के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों की पूर्णता में देखते हैं। चूँकि आप व्यक्तित्व पर अत्यधिक जोर देते हैं, इसीलिए आपकी अध्ययन पद्धति को मनो-समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धति भी कहा जा सकता है।
(iv) दार्शनिक पद्धति (Philosophical Method) डॉ. डी.पी. मुकर्जी ऐतिहासिक, परम्पराओं की द्वन्द्वात्मक, मनो-समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धतियों के साथ-साथ दार्शनिक अध्ययन पद्धति के भी समर्थक रहे हैं। दार्शनिक पद्धति का आधार तर्क तथा विवेक है। आपकी दार्शनिक पद्धति का मूल बिन्दु बुद्धिवाद और व्यावहारिक तर्क है। आप एक तरफ तर्क या विवेक को घटनाओं के अध्ययन हेतु महत्त्वपूर्ण मानते थे तो दूसरी ओर तर्क या विवेक को व्यक्तित्व के विकास का साधन भी मानते थे।
(4) विभिन्न विज्ञानों में अन्तर्सम्बन्ध (Inter-relationship between various Sciences)-डॉ. डी.पी. मुकर्जी सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण के समर्थक थे। इसलिए आप अर्थाशास्त्र, इतिहास और समाजशास्त्र के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों और ज्ञान के आदान-प्रदान को आवश्यक मानते थे। आपने समाजशास्त्र की प्रकृति को ऐतिहासिक बताते हुए लिखा है कि समाजशास्त्र में सांस्कृतिक विशिष्टताओं का विशेष महत्त्व होता है, इसलिए समाजशास्त्र की प्रकृति ऐतिहासिक है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि अर्थशास्त्र की जड़ें सामाजिक वास्तविकता में हैं, इस कारण इसकी प्रकृति समाजशास्त्रीय है।
इसके अतिरिक्त आपने इतिहास की प्रकृति को दार्शनिक बताया है। आपके ही शब्दों में, "इतिहास मात्र अतीत की घटनाओं का अध्ययन ही नहीं है, बल्कि अतीत की घटनाओं के अध्ययन के आधार पर इतिहास समाज के भविष्य का अनुमान भी लगाता है, इसलिए इतिहास की प्रकृति दार्शनिक है।" अतः स्पष्ट है कि डॉ. डी.पी. मुकर्जी सामाजिक विज्ञानों के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों के समर्थक थे। इस प्रकार वे इस बात पर जोर देते थे कि एक विज्ञानवेत्ता का कार्य कुछ विशिष्टताओं तक सीमित रहना नहीं है, वरन् परिप्रेक्ष्य को विस्तृत बनाना है।
प्रश्न 9.
भारतीय समाजशास्त्र को डी.पी. मुकर्जी के योगदानों पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने 'भारत के लिए समाजशास्त्र' विषय पर अपने महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। इस सन्दर्भ में आपने भारतीय समाजशास्त्र की विषय-वस्तु, अध्ययन पद्धति तथा भारतीय समाज में परम्पराओं के महत्त्व आदि पर विचार किया है। आपके ही शब्दों में, "भारतीय समाजशास्त्र के अन्तर्गत भारतीय परम्पराओं के अध्ययन को सम्मिलित किया जाना चाहिए।" उन्होंने लिखा है कि भारतीय समाज के अध्ययन के लिए परम्पराओं का अध्ययन किया जाना चाहिए और इस कार्य में उन परिवर्तनों का अध्ययन भी सम्मिलित करना चाहिए जो परम्पराओं में आन्तरिक और बाह्य दबाव से उत्पन्न हुए हैं।
इस प्रकार उनका मत है कि भारतीय परम्पराओं का अध्ययन भारतीय समाजशास्त्री का प्रथम तथा तात्कालिक कर्तव्य है और परम्पराओं का अध्ययन आर्थिक शक्तियों के सन्दर्भ में भारतीय परम्पराओं में हुए परिवर्तनों की समाजवादी व्याख्या से पूर्व किया जाना चाहिए। डॉ. डी.पी. मुकर्जी भारतीय समाज के अध्ययन हेतु मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक पद्धति को अपनाने का समर्थन करते हैं। डॉ. डी.पी. मुकर्जी का भारत के समाजशास्त्र को योगदान डॉ. डी.पी. मुकर्जी के भारत के समाजशास्त्र को योगदान का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) भारतीय समाजशास्त्र की विषय-वस्तु-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारत के समाजशास्त्र के विषय में महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। वे भारतीय समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को भारतीय परम्पराओं का अध्ययन मानते हैं। आपका मत है कि भारतीय संस्कृति का विकास विभिन्न प्रजातियों एवं संस्कृतियों की चुनौतियों एवं उनके संश्लेषण का परिणाम है। आपने हिन्दू सिद्धान्त की व्याख्या करने के लिए भी परम्पराओं के अध्ययन को आवश्यक बताया है। आपने भारतीय समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के अन्तर्गत परम्पराओं के आन्तरिक और बाह्य दबाव से उत्पन्न परिवर्तनों के अध्ययन को भी सम्मिलित करने पर जोर दिया है।
आपका मत है कि भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन की समाजवादी व्याख्या के लिए भी भारतीय परम्पराओं का अध्ययन करना आवश्यक है।इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में परम्पराओं के अध्ययन को सम्मिलित किया है तथा इसके अध्ययन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि भारतीय समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए समाजशास्त्री का प्रथम कर्त्तव्य भारतीय परम्पराओं का अध्ययन करना है।
(2) भारतीय समाजशास्त्र के लिए व्याख्यात्मक पद्धति-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्र में व्याख्यात्मक अध्ययन पद्धति को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं कि भारत का समाजशास्त्र अभी इस अवस्था में नहीं पहुँचा कि वह आनुभविक तथ्यों को एकत्र करके अनुसन्धान करे। उन्होंने सन् 1955 में भारतीय समाजशास्त्र तथा उसके अनुस्थापन के विषय पर अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं.-"मैं एक भारतीय के रूप में तथाकथित शोधप्रबन्धों के जंगल में कोई भी जीवन-अर्थ खोज निकालना असम्भव पाता हूँ।
भारतीय समाजशास्त्र केवल व्याख्यात्मक ही हो सकता है जिसमें अधिकतर निर्भरता अन्तर्दृष्टि की पद्धति पर है जो 19वीं शताब्दी के विज्ञान की अपेक्षा सामाजिक क्रिया की भारतीय प्रणाली में भाग लेने से उत्पन्न होती है। अन्वेषण तो सदैव ही किया जायेगा, किन्तु इसे प्रेक्षित वस्तुओं की भावना के आधार पर करना होगा।" इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय समाजशास्त्र आगे आने वाले कुछ वर्षों में केवल व्याख्यात्मक ही हो सकता है, अतः व्याख्यात्मक पद्धति अधिक उपयुक्त है।
(3) मार्क्स के द्वन्द्ववाद के पक्षधर-डॉ. डी.पी. मुकर्जी मार्क्स के द्वन्द्ववाद के पक्षधर हैं। उनका कहना है कि मार्क्स की द्वन्द्वात्मक पद्धति भारत के लिये अत्यधिक उपयुक्त पद्धति है। क्योंकि इस पद्धति के माध्यम से भारत की विशिष्ट परम्पराओं, प्रतीकों, सांस्कृतिक प्रतिमानों व सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन किया जा सकता है। इसीलिए मार्क्स की द्वन्द्वात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाना चाहिए जिससे भारतीय समाज की वास्तविकता को भली-भाँति समझा जा सके।
(4) पाश्चात्य वैज्ञानिक तकनीक का विरोध-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने लिखा है कि भारतीय समाज पश्चिम के समाजों से बिल्कुल भिन्न है। वे पश्चिमी परम्परा के आदर्श पर भारतीय समाजशास्त्र को विकसित करने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मत है कि पश्चिम के समाज काफी विशृंखलित हो चुके हैं, भारतीय समाज परिवर्तित तो हो रहा है लेकिन यह कम विश्रृंखलित है इसलिए हमें भारत की सामाजिक घटनाओं की विशिष्ट रूप से व्याख्या करनी चाहिए तथा पश्चिम के अध्ययन के प्ररूप, अवधारणाओं, सिद्धान्तों व तकनीक आदि को नहीं अपनाना चाहिए।
क्योंकि पश्चिम में जो वैज्ञानिक तकनीक विकसित एवं निर्मित की गई हैं वह अन्य समाजों तथा संस्कृतियों को ध्यान में रखकर की गई हैं, उनके द्वारा भारतीय समाज एवं संस्कृति के तत्त्वों एवं स्वरूपों को नहीं समझा जा सकता। इसीलिए डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाज को समझने के लिए यह सुझाव दिया है कि भारत के समाजशास्त्रियों को अपने समाज की संरचना, व्यवस्था, परम्परा और समस्याओं आदि को समझने के लिये उपयुक्त अवधारणाएँ, अध्ययन पद्धति, दृष्टिकोण व सिद्धान्त आदि निर्मित करने चाहिए।
(5) भारतीय सामाजिक परिवर्तन में परम्पराओं का महत्त्व-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय सामाजिक परिवर्तन में परम्पराओं के महत्त्व के सम्बन्ध में कहा कि "हमारा जन्म भारतीय परम्पराओं में हुआ है, हमारा अस्तित्व भी इन्हीं में निहित है। हम अपनी परम्पराओं से भाग नहीं सकते। भारत की समाज-व्यवस्था में समूह की क्रियाओं को महत्त्वपूर्ण माना गया है। समूह की क्रियाएँ मत, सम्प्रदाय व जाति आदि के रूप में होती हैं। इसीलिए हमें पहले भारतीय होना चाहिए, अपनी समाज व्यवस्था को समझने के लिए भारतीय समाजशास्त्री को अपनी जन-रीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं एवं परम्पराओं में भाग लेना चाहिए।"
उनका कहना है कि भारतीय समाजशास्त्री के लिये संस्कृत भाषा तथा स्थानीय भाषा का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। उन्होंने कहा कि जिन भाषाओं में परम्पराएँ प्रतीकों के रूप में मूर्तिमान हैं उनके ज्ञान के बिना भारतीय परम्पराओं का अध्ययन एवं परिवर्तन का विश्लेषण सम्भव नहीं है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि "मुझे यह देखकर दुःख होता है कि किसी प्रकार भारतीय विद्वान उन आधुनिक (वैज्ञानिकों) की तकनीकों के आकर्षण के सामने बिना किसी प्रतिरोध अथवा सम्मान के झुक जाते हैं, जिन्हें बाहर से प्राविधिक सहायता या क्रियात्मक ज्ञान के अंग के रूप में आगाह किया जाता है। बौद्धिक लेन-देन में जो कुछ चल रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे पास प्रस्तुत करने की न तो कुछ शर्ते हैं और न खड़े होने के लिए आधार ही।"
(6) परम्पराओं में परिवर्तन के तत्त्व-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने बताया कि परम्पराओं के परिवर्तन के तीन तत्त्व (सिद्धान्त) हैं-
अनुभव दो प्रकार का होता है-
व्यक्तिगत अनुभव ही परिवर्तन का मूल कारण है लेकिन वह शीघ्र ही सामूहिक अनुभव का रूप ले लेता है। सामान्य अनुभव हमेशा ही परिवर्तन का कारण रहा है। उनका कहना है कि परम्पराएँ भी दो प्रकार की होती हैं-उच्च तथा निम्न। उच्च परम्पराएँ बौद्धिक होती हैं जिनमें वादविवाद, तर्क-वितर्क व परिवर्तन होता है जिसका कारण बुद्धि-विचार है। बुद्धि-विचार अनुभव से उच्च परिवर्तन का साधन है, अनुभव को निम्न माना गया है। इस प्रकार जब उच्च और निम्न बौद्धिक परम्पराओं में संघर्ष होता है तो अमूर्त विचार एवं भावनाएँ उन्हें समीप लाने का प्रयास करती हैं।
(7) आधुनिकता एवं आधुनिकीकरण-मुकर्जी ने आधुनिकता एवं आधुनिकीकरण के सम्बन्ध में अपने विचार अपने लेख 'इण्डियन ट्रेडिशन एण्ड सोशियल चेन्ज' में व्यक्त किये हैं। उनका कहना है कि भारत के सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन तभी पूर्ण माना जायेगा जब भारतीय परम्पराओं एवं आधुनिकता के संघर्ष एवं इनके परिणामों का अध्ययन किया जायेगा। उन्होंने लिखा है कि आधुनिकीकरण एक ऐतिहासिक एवं गत्यात्मक अवधारणा है तथा आधुनिकीकरण व परम्परा समय सापेक्ष अवधारणाएँ हैं । परम्परा ही आधुनिकीकरण को प्रेरित करती है।
परम्पराएँ अनेक विकल्पों में से उपयुक्त विकल्प को चुनने का अवसर प्रदान करती हैं। जबकि आधुनिकता में नवीन मूल्य और संस्थाएँ होती हैं जिनकी उत्पत्ति का आधार परम्पराएँ प्रदान करती हैं। मुकर्जी लिखते हैं कि परम्परा और आधुनिकता में टकराव होता है, परम्परावाद है, आधुनिकता प्रतिवाद है। इन दोनों में संघर्ष से जो संशोधित या समन्वित स्थिति उत्पन्न होती है वह आधुनिकीकरण है जिसे समवाद के रूप में देखा जा सकता है।
(8) भारत का विकास-डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारत की प्रगति तथा विकास के सम्बन्ध में भी अपने विचार प्रकट किये हैं। इनके ये विचार एवं सुझाव सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से अपना विशेष महत्त्व एवं स्थान रखते हैं। उनका कहना है कि भारत की प्रगति के लिये योजनाओं का निर्माण आवश्यक है। योजनाओं का आधार भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ होनी चाहिए। इसी के सन्दर्भ में उन्होंने गाँधीजी के विचारों का अध्ययन करने का सुझाव दिया। लेकिन उन्होंने कहा कि गाँधीजी के सुझावों का अन्धानुकरण नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि गाँधीजी ने भारतीय परम्पराओं के साथ पश्चिमीकरण के समन्वय के सम्बन्ध में व्यावहारिक व उपयोगी बातें नहीं बताईं।
उनका कहना है कि गाँधीजी ने एक ओर तो राम राज्य की कल्पना को इतिहास विरोधी बताया है तो दूसरी ओर परम्परावादी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। यदि हम पश्चिम के समाजों की बुराइयों से बचना चाहते हैं तो भारतीय परम्पराएँ ही हमें उनकी बुराइयों से सुरक्षित रख सकती हैं। इस प्रकार मुकर्जी ने भारत की विकास की योजनाओं के लिए परम्पराओं को महत्त्वपूर्ण बताया है और इस सम्बन्ध में उन्होंने यह कहा है कि परम्पराओं का विकास द्वन्द्व एवं संघर्ष के द्वारा होता है। निष्कर्ष-इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ. डी.पी. मुकर्जी का भारतीय समाजशास्त्र में महान् योगदान रहा है।
प्रश्न 10.
भारतीय परम्परा व परिवर्तन पर डी.पी. मुखर्जी के विचारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय परम्परा एवं सामाजिक परिवर्तन । प्रो. डी. पी. मुकर्जी ने सन् 1955 में 'इण्डियन सोशियोलॉजिकल कॉन्फ्रेन्स' के देहरादून अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में 'भारतीय परम्परा एवं सामाजिक परिवर्तन' विषय पर अपने विचार व्यक्त किये। उनके इन विचारों को निम्नलिखित सूत्रों के अन्तर्गत अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है
1. सामाजिकता का बाहुल्य-डी.पी. मुकर्जी ने लिखा है कि,"भारत में सामाजिकता का बाहुल्य है, इसके अलावा और सब कुछ बहुत कम है। वास्तव में सामाजिकता की अधिकता ही भारत की विशेषता है। भारत का इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन आदि सामाजिक समूहों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। भारत में समाज की केन्द्रीय स्थिति को देखते हुए, भारतीय समाजशास्त्री का यह प्रथम कर्त्तव्य था कि वह सामाजिक परम्पराओं के बारे में पढ़े।"
2. परम्परा की उत्पत्ति तथा अर्थ-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने परम्परा शब्द की उत्पत्ति पर ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी के 'Tradition' शब्द की उत्पत्ति 'Tradere' शब्द से हुई है, जिसका तात्पर्य है--हस्तान्तरण करना (Transmission)। अंग्रेजी के 'Tradition' का संस्कृत भाषा में समानार्थक शब्द परम्परा है, जिसका अर्थ है-उत्तराधिकार या ऐतिह (इतिहास)। - रोमन कानून के अनुसार ट्रेडर (Tradere) शब्द का तात्पर्य कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखने एवं जमा करने से है। अतः एक योग्य नागरिक का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह कीमती वस्तुओं को सुरक्षित रखे।
3. भारतीय परम्पराओं की उत्पत्ति का स्रोत व उनका महत्त्व-प्रो. डी.पी. मुकर्जी के अनुसार परम्पराओं की उत्पत्ति के स्रोत हैं-ऋषियों एवं काल्पनिक व्यक्तियों की कल्पना। वे कहते हैं कि परम्पराओं की उत्पत्ति एवं इतिहास चाहे कुछ भी हो, किन्तु लोग इनका आदर-सम्मान करते हैं और समाज में इनका लम्बे समय से प्रचलन इनके महत्त्व एवं मूल्य का द्योतक है तथा ये समाज में सन्तुलन एवं दृढ़ता बनाये रखती हैं। . प्रो. मुकर्जी के अनुसार, परम्पराएँ भारतीय समाज व्यवस्था का इतिहास हैं। भारत में ब्राह्मणों ने परम्पराओं की पवित्रता को सही उच्चारण व पवित्र पुस्तकों के द्वारा बनाए रखा है। ये सामाजिक संरचना को परम्परा के रूप में बनाए रखते हैं। इसके द्वारा भारतीय समाज की निरन्तरता बनी रही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि परम्पराएँ अनुदान क्रियाओं की सूचक हैं, उनमें परिवर्तन धीमी गति से होता है।
4. जीवन्त परम्परा-डी.पी. मुकर्जी के लिए परम्परा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था बल्कि वह परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़ा था। अतः परम्परा एक जीवन्त परम्परा थी, जिसने अपने आपको भूतकाल से जोड़ने के साथ ही साथ वर्तमान के अनुरूप भी ढाला था और इस प्रकार समय के साथ अपने आपको विकसित कर रही थी। इसलिए भारतीय समाजशास्त्री की प्रथम आवश्यकता भारतीय होना है, ताकि वह लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं और परम्पराओं से जुड़कर सामाजिक व्यवस्था को सांगोपांग समझ सके।
5. भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन के तत्त्व-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने परम्पराओं में परिवर्तन के तीन तत्त्व बताए हैं-
परम्पराएँ भी उच्च तथा निम्न दोनों ही प्रकार की होती हैं। उच्च परम्पराएँ मुख्य रूप से बौद्धिक थीं, जो स्मृति और श्रुतियों में केन्द्रित थीं। इनमें परिवर्तन वाद-विवाद, तर्क, बुद्धि-विचार के कारण होता था। बुद्धि-विचार को प्रो. मुकर्जी ने अनुभव से उच्च परिवर्तन का साधन माना है। अनुभव को निम्न माना गया है। इन उच्च और निम्न परम्पराओं में जब संघर्ष होता है तो अमूर्त विचार एवं भावनाएँ उन्हें समीप लाने का प्रयास करती हैं। - प्रो. मुकर्जी ने व्यक्तिगत अनुभव को परिवर्तन का मूल कारण माना है, क्योंकि वह शीघ्र ही सामूहिक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेता है। मध्य युग से लेकर आधुनिक युग का सम्पूर्ण इतिहास यह बताता है कि सामान्य अनुभव सदैव ही परिवर्तन का कारण रहा है। यदि हम विभिन्न सम्प्रदायों और धार्मिक ग्रन्थों की उत्पत्ति को ज्ञात करें तो पायेंगे कि उनका प्रारम्भ उनके जन्मदाता सन्तों के व्यक्तिगत अनुभव के कारण हुआ और बाद में वे सामूहिक अनुभव के रूप में फैल गये।
6. परम्परा और आधुनिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने परम्परा और आधुनिकता के सम्बन्धों पर विचार किया है। उनका मत है कि वर्तमान का अध्ययन अतीत के सन्दर्भ में ही हो सकता है। अतः आधुनिकीकरण को समझने से पूर्व परम्परा को समझना आवश्यक है, क्योंकि परम्पराएँ कभी मरती नहीं हैं, वरन् नवीन परिस्थितियों के साथ वे सामंजस्य एवं अनुकूलन कर लेती हैं, केवल तीव्र आर्थिक परिवर्तन ही परम्पराओं को नष्ट कर सकते हैं। प्रो. मुकर्जी के मतानुसार, "आधुनिकीकरण एक गतिशील ऐतिहासिक प्रक्रिया है, परम्परा के अभाव में इसका कोई अर्थ नहीं है। यह सापेक्ष अवधारणा है, जो परम्परा से सम्बन्धित है, यह न तो परम्परा से पृथक् है और न उसके विरुद्ध।
परम्परा और आधुनिकता के अन्तर्लेख से परम्परागत मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतिमानों में जो विस्तार और परिमार्जन होता है, वही आधुनिकीकरण है। इस प्रकार आधुनिकीकरण का तात्पर्य परम्पराओं से मुक्त नहीं है। परम्परा आधुनिकीकरण को प्रेरित करने वाली दशा है। यह परम्परा पर आधारित प्रक्रिया है।" परम्पराएँ हमें अनेक विकल्पों में से उपयुक्त को चुनने का अवसर प्रदान करती हैं। ये हमें एक ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान का विकास करने का अवसर देती हैं, जिसमें प्राचीन और नवीन का समन्वय होता है। परम्पराओं और आधुनिकता के टकराव के वाद और प्रतिवाद के द्वन्द्व से जो संशोधित और समन्वित स्थिति उत्पन्न होती है, उसी को हम आधुनिकीकरण कहते हैं।
7. संघर्ष-द्वन्द्ववाद और परम्पराएँ-भारतीय सन्दर्भ में संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं। परन्तु परम्परा का लचीलापन इसका ध्यान रखता है कि संघर्ष का दबाव परम्पराओं के बिना तोड़े उनमें परिवर्तन लाये। इससे स्पष्ट होता है कि प्रभावी रूढ़िवाद को लोकप्रिय विद्रोहों द्वारा चुनौती दी जाती है जो आगे चलकर रूढ़िवाद को परिवर्तित करने में सफल तो हो जाती है परन्तु ये परिवर्तन आखिरकार परम्परा में अवशोषित कर लिये जाते हैं। यह चक्र लगातार अपने आप को दोहराता रहता है। संघर्ष की यह प्रक्रिया है-जहाँ संघर्ष परम्पराओं की सीमाओं में रहता है-ठेठ जातिगत समाज का लक्षण है, जहाँ वर्गों के बनने तथा वर्ग-चेतना को अवरोधित कर दिया गया है।
8. सामाजिक परिवर्तन में अन्धानुकरण का विरोध-डी.पी. मुकर्जी सामाजिक परिवर्तन लाने की पाश्चात्य बौद्धिक परम्पराओं के अन्धानुकरण करने के भी विरोधी थे। इसलिए उन्होंने पाश्चात्य देशों से बिना सोचे-समझे बौद्धिक परम्पराओं को ग्रहण करने के कारण विकास योजनाओं जैसे सन्दर्भो की भी आलोचना की।
प्रश्न 11.
भारतीय समाज में 'परम्परा के द्वन्द्व' पर डी.पी. मुकर्जी के विचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय परम्पराओं का द्वन्द्वात्मक अध्ययन । डॉ. डी.पी. मुकर्जी का मत है कि परम्पराओं का विकास द्वन्द्व के द्वारा होता है और भारत की प्रगति की योजनाएँ यहाँ की सांस्कृतिक परम्पराओं के सन्दर्भ में ही बनायी जानी चाहिए। इसलिए भारतीय समाजशास्त्रियों को परम्पराओं के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। उनका कहना है कि जिन सामाजिक परम्पराओं के मध्य हमने जन्म लिया है, बड़े हुए हैं और आज भी रह रहे हैं, उनका अध्ययन करना हमारे लिए आवश्यक एवं लाभदायक है। डॉ. डी.पी. मुकजी के परम्पराओं के द्वन्द्व सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है
(1) परम्पराओं में आन्तरिक एवं बाह्य दबावों के कारण परिवर्तन-प्रो. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्रियों को भारत की सामाजिक परम्पराओं के अध्ययन पर विशेष जोर दिया है। उनका मत है कि हमारा जन्म इन्हीं परम्पराओं में हुआ है और हमारा अस्तित्व भी इसमें निहित है। वे परम्पराओं में आन्तरिक एवं बाह्य दबावों के कारण होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करने पर भी बल देते हैं। बाह्य शक्तियों में वे आर्थिक दबावों को गिनाते हैं।
उनका मत है कि परम्पराओं में विरोध करने एवं सीखने की महान् शक्ति निहित है। परम्पराएँ तब तक सामन्जस्य के द्वारा जीवित रहती हैं जब तक कि आर्थिक शक्ति विशिष्ट रूप से बलशाली न हो और ऐसी न हो कि वह उत्पादन की प्रणाली को ही बदल दे। सामंजस्य की क्षमता के आधार पर ही परम्परा की शक्ति का मूल्यांकन एवं माप किया जा सकता है। इसी दष्टि से डॉ. डी.पी. मुकर्जी परम्पराओं के अध्ययन को भारतीय समाजशास्त्रियों का प्रथम कर्त्तव्य मानते हैं और परम्पराओं में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या के लिए आर्थिक शक्तियों के प्रभाव को ज्ञात करने पर बल देते हैं।
(2) भारत का धर्म जीवन जीने का परम्परागत तरीका है-डॉ. मुकर्जी अपने साथी समाजशास्त्रियों के ध्यान में दो बातें लाना चाहते हैं-
इन प्रस्थापनाओं के बाद वे भारतीय जीवन-धर्म में परम्पराओं की सुगंफिता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि भारत का जीवन जीने का एक परम्परागत तरीका है, क्योंकि भारत की सामाजिक व्यवस्था मूलतः समूह (जाति-क्रिया) के लिए एक प्रतिमानात्मक आधार प्रस्तुत करती है, न कि व्यक्ति के लिए स्वैच्छिक रूप से क्रिया करने का प्रतिमान। अतः यदि आप भारतीय हैं तो परम्पराओं से मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है। यह बात हिन्दुओं के लिए जितनी सही है, उतनी ही मुसलमानों, ईसाइयों तथा बौद्धों के लिए भी सही है।
(3) परम्पराओं का विकास द्वन्द्व या संघर्ष से-डॉ. मुकर्जी के अनुसार, "धर्म से सम्बन्धित परम्पराओं, जो आज भी अपनी निरन्तरता बनाए हुए हैं, और नगरीय मध्यम वर्ग की नवीन परम्पराओं के बीच द्वन्द्व या संघर्ष पाया जाता है। समाजशास्त्री इस पर इस दृष्टि से विचार करता है कि परम्पराओं का विकास संघर्ष या द्वन्द्व के माध्यम से . होता है।"
(4) भारतीय परम्पराओं का स्वरूप-
(i) भारत में परम्पराओं का आधार सामूहिक क्रिया है, न कि व्यक्तिगत स्वेच्छा-व्यक्तिगत स्वेच्छात्मक क्रिया के अभाव के कारण भारतीय लोगों में नैराश्य या कुण्ठा का अभाव है, क्योंकि आकांक्षाओं का स्तर परम्पराओं द्वारा निर्देशित होता है और सामूहिक क्रियाजनित परम्पराओं की आकांक्षाओं का निर्देशन स्तर अपेक्षाकृत नीचा होता है, आकांक्षाओं के इस नीचे स्तर के कारण भारतीय लोगों में नैराश्य या कुण्ठा का अभाव पाया जाता है। यही कारण है कि भारतीय समाजशास्त्री को समूह को अपने अध्ययन की इकाई के रूप में चुनना होगा, न कि व्यक्ति को।
(ii) ब्राह्मण या सम्प्रदाय परम्पराओं के संरक्षक एवं वाहक रहे हैं-परम्पराएँ मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढी हस्तान्तरित होती रही हैं। जाति व्यवस्था, जिसके शिखर पर ब्राह्मण लोग हैं, ने परम्पराओं को बनाए रखने और हस्तान्तरित करने में विशेष योग दिया है और प्रतिमानात्मक व्यवस्था के माध्यम से भारतीय सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता आज तक बनाए रखी गयी है। आवाज और दृष्टि या दर्शन (Sound and Sight) दोनों को परम्पराओं के संरक्षण हेतु प्रयुक्त किया गया है। आवाज की भूमिका मन्त्रोच्चारण के रूप में है और दृष्टि या दर्शन की भूमिका मूर्तियों का देव दर्शन के रूप में है। इससे स्पष्ट होता है कि परम्परा बनाए रखने या संरक्षण की क्रिया है। अतः परम्पराएँ रूढ़िवादी होती हैं।
(5) भारतीय परम्पराओं के परिवर्तन की प्रक्रिया-द्वन्द्वात्मक तथा अनुभवात्मक यद्यपि परम्पराएँ रूढ़िवादी होती हैं लेकिन ये पूर्णतः अपरिवर्तनीय न होकर परिवर्तन की प्रक्रिया से युक्त भी होती हैं। ये बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के कारकों से बदलती हैं। डॉ. मुकर्जी के अनुसार हमारी परम्पराओं में परिवर्तन के तीन तत्त्वों श्रुति, स्मृति एवं अनुभव को मान्यता प्रदान की गई है। यथा
(i) उच्च परम्पराएँ मुख्यतः बौद्धिक थीं तथा स्मृति और श्रुति में केन्द्रित थीं, जहाँ परिवर्तन का सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक अर्थ-निरूपण या व्याख्या द्वारा उपलब्ध था। यही प्रक्रिया हमें भारत में मुसलमानों में भी देखने को मिलती है। उनमें सूफियों ने प्रेम और अनुभव पर भी विशेष जोर दिया। बुद्धि-विचार ऐतिहासिक दृष्टि से अनुभव, प्रेम, स्नेह की तुलना में परम्पराओं में परिवर्तन के अभिकरण के रूप में अधिक महत्त्वपूर्ण है। डॉ. मुकर्जी का मत है कि जब किसी उच्च और निम्न बौद्धिक परम्पराओं में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती, तब उसका अनुमान लगा लिया जाता और प्रयत्नपूर्वक उन्हें वैचारिक दृष्टि से एक-दूसरे के निकट ला दिया जाता। यहाँ (भारत) की जातीय भावना ने वर्ग-चेतना को अपने में समाहित कर लिया है। यद्यपि भारतीय समाज भी पश्चिमी समाज के समान बदल रहा है, परन्तु यहाँ पश्चिमी समाज के समान विघटन नहीं हुआ है।
(ii) परम्पराओं के परिवर्तन में द्वन्द्वात्मक योग्यता के साथ-साथ अनुभव का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत में कई उपनिषद् व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित हैं । व्यक्तिगत अनुभव शीघ्र ही सामूहिक अनुभव के रूप में प्रस्फुटित हुआ और सामूहिक अनुभव ने परम्पराओं में परिवर्तन का द्वार खोल दिया। भारत में विभिन्न सम्प्रदायों, पन्थों की उत्पत्ति और विकास के मूल में यही सिद्धान्त परिलक्षित होता है। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि डॉ. डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाज में परम्पराओं के महत्त्व, उनकी उत्पत्ति, परम्पराओं के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए परम्पराओं में परिवर्तन की प्रक्रिया का विश्लेषण किया है और स्पष्ट किया है कि भारतीय परम्पराओं में परिवर्तन में श्रुति और स्मृति के अनन्तर द्वन्द्वात्मक (बौद्धिकद्वन्द्वात्मक) प्रक्रिया निहित है और दूसरी प्रक्रिया वैयक्तिक अनुभव से प्रारम्भ होकर सामूहिक अनुभव का आधार बनती है और फिर एक नवीन परम्परा का आकार ग्रहण कर प्राचीन परम्परा से विरोध या संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती
प्रश्न 12.
डॉ. ए.आर. देसाई की जीवनी, कृतित्व तथा उन पर पड़े विभिन्न प्रभावों पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
(अ) जीवनी-श्री ए.आर. देसाई का जन्म 1915 में हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में सम्पन्न हुई तथा बाद में सूरत तथा मुम्बई में। प्रभाव-अपने प्रारम्भिक जीवन में देसाई पर अग्र तथ्यों का प्रभाव पड़ा-
1.पिता का प्रभाव-देसाई के पिता बड़ौदा राज्य में माध्यमिक स्तर के प्रशासनिक अधिकारी थे लेकिन साथ ही वे एक जाने-माने उपन्यासकार भी थे तथा उनके मन में भारतीय राष्ट्रवाद (गाँधीवाद) और समाजवाद दोनों के लिए हमदर्दी थी।
2. अप्रवासीय जीवन का प्रभाव-देसाई की माता का देहान्त उनके जीवन के प्रारम्भिक काल में हो गया था तथा उनकी देखभाल उनके पिता ने की। पिता के बड़ौदा के विभिन्न स्थानों में लगातार होने वाले स्थानान्तरण के कारण देसाई ने अप्रवासीय जीवन जीया।
3. मार्क्सवादी राजनीति में सक्रियता-ए.आर. देसाई आजीवन मार्क्सवादी रहे तथा मार्क्सवादी राजनीति में उनकी सक्रियता बड़ौदा में स्नातक की पढ़ाई करते हुए हुई। यद्यपि बाद में उन्होंने भारतीय साम्यवादी पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। अपने व्यवसाय के अधिकांश भाग में वे गैर-मुख्यधारा के मार्क्सवादी राजनीतिक समूहों से जुड़े थे।
4. बम्बई विश्वविद्यालय का प्रभाव-बड़ौदा से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद देसाई ने बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में प्रवेश लिया जहाँ घुर्ये उनके गुरु थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक पहलुओं पर अपने डॉक्टरेट का शोध-पत्र लिखा जिस पर 1946 में उन्हें डिग्री प्रदान की गई। 1948 में उनकी थीसिस 'द सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनलिज्म' प्रकाशित हुई जो उनके द्वारा किये गये कार्यों में सबसे बेहतरीन है। अन्य कार्य एवं कृतित्व-सन् 1951 में श्री देसाई को बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में नियुक्ति मिली। 1953 में वे रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने तथा 1981 तक इसके सदस्य रहे। 1967 में आपकी प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति हुई तथा सन् 1976 में समाजशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त हुए।
आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
प्रश्न 13.
ए.आर. देसाई द्वारा विवेचित भारतीय राष्ट्रवाद के उद्भव तथा विकास के सामाजिक कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद-ए.आर. देसाई ने अपनी पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि' में लिखा है कि "अन्य सामाजिक तथ्यों की तरह राष्ट्रवाद भी ऐतिहासिक तथ्य है। लोक जीवन के विकास क्रम में वस्तुनिष्ठ और भावनिष्ठ दोनों प्रकार के ऐतिहासिक तत्त्वों की परिपक्वता के पश्चात् राष्ट्रवाद का उद्भव हुआ।" राष्ट्रवाद का विकास-ए.आर. देसाई ने लिखा है कि प्रत्येक देश में राष्ट्रवाद का विकास अलग-अलग रास्तों से हुआ है। किस देश ने कौनसा रास्ता अपनाया।
यह उस देश के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास, राजनीतिक और आर्थिक संरचना के अतीतकालीन अवशेष तथा उन देशों में राष्ट्रीय आन्दोलन की अगुवाई करने वाले वर्गों की विशिष्ट भावधारा द्वारा निश्चित हुआ। पूर्ण विकसित होने के लिए नवजात राष्ट्र भीतरी और बाहरी अवरोधों के विरुद्ध संघर्षशील रहे और आत्मरक्षा एवं आत्मवर्धन के लिए राष्ट्रों के बीच घमासान लड़ाई लड़ी गयी। राष्ट्र-निर्माण की यह प्रक्रिया 20वीं सदी में भी जारी रही, जब एशिया, अफ्रीका तथा अन्य गैर-यूरोपीय महाद्वीपों के नवजागृत लोक समुदायों ने स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपने विकास के रास्ते में देशी सामन्तवाद और विदेशी साम्राज्यवाद द्वारा लायी गयी रुकावटों को दूर करने के लिए आन्दोलन किए। भारतीय राष्ट्रवाद का उद्भव और विकास भारत में राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया बड़ी जटिल तथा बहुअंगीय है। इसके उद्भव तथा विकास के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
1. एकीकृत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का विकास-ए.आर. देसाई ने लिखा है कि "भारत में राष्ट्रवादी भावनाओं के उदय का इतिहास एकीकृत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास से सम्बद्ध है और यहाँ अर्थव्यवस्था का एकीकरण प्राक्पूँजीवादी रूपों के विघटन तथा उनके स्थान पर नए पूँजीवादी प्रकारों की स्थापना के बाद हुआ। यह आर्थिक परिवर्तन अंग्रेजों की भारत विजय के कारण सम्भव हो सका।" अंग्रेजों के प्रभुत्व के बाद यहाँ नये भूमि सम्बन्धों और नये उद्योगों पर आधारित नये वर्गों का उदय हुआ। जमींदार वर्ग आविर्भूत हुए तथा उनकी निजी मिल्कियत स्थापित हुई।
आधुनिक उद्योगों व आवागमन के साधनों के कारण नये वर्गों का जन्म हुआ, जैसे--पूँजीवादी वर्ग, उद्योग-धन्धों और यातायात में लगे मजदूरों का वर्ग, काश्तकार वर्ग, नया वणिक वर्ग जो आधुनिक देशी-विदेशी उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के क्रयविक्रय में लगा। भारत में ब्रिटिश प्रभाव के कारण भारत की आर्थिक तथा सामाजिक संरचना का रूपान्तरण हुआ। लेकिन यह रूपान्तरण ब्रिटिश हितों का साधक था। इसलिए भारतीय समाज का स्वतन्त्र और अविच्छिन्न आर्थिक विकास सम्भव न हो सका। . वस्तुतः भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन भारतीय जनता और उसके विभिन्न वर्गों के स्वतन्त्र विकास पर ब्रिटिश हितों के दबाव का परिणाम था। इसलिए यह ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध था।
2. आधुनिक शिक्षा-आधुनिक शिक्षा सबको सुलभ थी। इससे भारतीय पाश्चात्य सभ्यता के बुद्धिवादी और प्रजातान्त्रिक विचारों से अवगत हुए। पाश्चात्य शिक्षा पाए युवक ही राष्ट्रवादी, गणतन्त्रवादी तथा समाजवादी हुए। इस प्रकार अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष में भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में आधुनिक शिक्षा पद्धति से भी सहायता मिली।
3. आवागमन के आधुनिक साधन-देसाई महोदय के अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में भारत में आवागमन के आधुनिक साधनों, विशेषकर रेलवे की प्रगति उल्लेखनीय रही है। रेलवे के कारण भारतीय व्यावसायिक वर्ग को वाणिज्य से जो लाभ हुआ उसके कारण स्वतन्त्र भारतीय उद्योग का जन्म सम्भव हुआ। साथ ही सर्वहारा वर्ग का जन्म हुआ और राष्ट्रीय आन्दोलन पर दबाव बढ़ता गया। इन साधनों के विकास से ही विभिन्न प्रान्तों के भारतीयों को आपस में मिलने, विचारों के आदान-प्रदान का और आन्दोलन के लिए कार्यक्रम निश्चित करने का मौका मिला। इसके बिना राष्ट्रीय आन्दोलन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।
4. नये सामाजिक वर्गों का उदय तथा उनके द्वारा संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन-ए.आर. देसाई का मत है कि ब्रिटिश काल में अनेक नये सामाजिक वर्गों का उदय हुआ। ये थे-जमींदार वर्ग, भू-स्वामी वर्ग, मातहत पट्टेदार वर्ग, काश्तकार मालिकों का वर्ग, खेतिहर मजदूर वर्ग, व्यापारियों का नया वर्ग, सूदखोर महाजनों का नया वर्ग, पूँजीपतियों तथा उद्योगपतियों का वर्ग, आधुनिक मजदूर वर्ग, बुद्धिजीवी तथा शिक्षित मध्यम वर्ग आदि। ये नये वर्ग राष्ट्रीय हैं। इसके कारण प्रत्येक सामाजिक वर्ग के हितों का अखिल भारतीयकरण हुआ, अखिल भारतीय संगठन बने। इनमें वर्गीय चेतना पैदा हुई। दूसरे इन वर्गों के संयुक्त राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास हुआ। इस प्रकार ब्रिटिश काल में देश में एक ही साथ दो राष्ट्रीय आन्दोलन चले-
5. समाचार पत्रों की भूमिका-भारतीयों में जब राष्ट्रीय चेतना का जागरण और विकास हुआ तो राष्ट्रीय पत्रकारिता का जन्म हुआ। इन राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने भारत में राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार किया।
6. सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलन-ए.आर. देसाई ने लिखा है कि "अंग्रेजी शासन के दिनों में भारत में समाज और धर्म-सुधार सम्बन्धी जो आन्दोलन शुरू हुए, वे भारतीय जनता की उदीयमान राष्ट्रीय चेतना और उनके बीच पश्चिम के उदारवादी विचारों के प्रसारं के परिणाम थे।" इन आन्दोलनों ने धीरे-धीरे सामाजिक और धार्मिक नवनिर्माण का कार्यक्रम अपनाया और सारा देश इनकी चपेट में आया। इन आन्दोलनों ने व्यक्ति स्वातन्त्र्य, सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों पर भी बल दिया तथा उनके लिए संघर्ष किया। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में ब्रिटिश काल में भारत में हुए पूँजीवाद के विकास, यातायात के साधनों का विकास, नये सामाजिक वर्गों का उदय, समाचार पत्रों की भूमिका, नवीन शिक्षा नीति तथा धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
प्रश्न 14.
एम.एन. श्रीनिवास की जीवनी एवं कृतित्व पर संक्षेप में एक लेख लिखिए।
उत्तर:
जन्म तथा अध्ययन-एम.एन. श्रीनिवास का जन्म 16 नवम्बर, 1916 को मैसूर (कर्नाटक) के एक सम्पन्न आयंगर ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता जमींदार थे और मैसूर के ऊर्जा एवं बिजली विभाग में कार्यरत थे। प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय में की, बाद में स्नातकोत्तर शिक्षा हेतु मुम्बई गए। मुम्बई विश्वविद्यालय में उन्होंने समाजशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। यहाँ वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त समाजशास्त्री प्रो. जी.एस. घुर्ये के शिष्य थे। 1942 में स्नातकोत्तर शोध पुस्तक के रूप में प्रकाशित विषय था-'मैरिज एण्ड फैमिली एमंग द कुर्गस'।
1944 में पीएच. डी. शोधकार्य (2 भाग में) बम्बई विश्वविद्यालय से घुर्ये के निर्देशन में किया। सन् 1945 में वे समाजशास्त्र में शोध के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लंदन गए। वहाँ आपने पहले रैडक्लिफ ब्राउन तथा फिर इवान्स प्रिचार्ड के मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य पूरा किया। सन् 1947 में ऑक्सफोर्ड से सामाजिक मानव विज्ञान में डी.फिल. कर वापस भारत आये। उनके शोध-प्रबन्ध का शीर्षक था-'Religion and Society among the Coorgs of South India'. अध्यापन कार्य-सन् 1948 में ऑक्सफोर्ड में भारतीय समाजशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में आपकी नियुक्ति हुई। इसी समय आपने रामपुर क्षेत्र में कार्य किया। सन् 1951 में आपने ऑक्सफोर्ड से इस्तीफा दे दिया और 1951 में ही महाराजा सायजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में आपकी प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हुई तथा यहाँ समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की। .
सन् 1959 में उनकी नियुक्ति दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हुई। यहाँ भी उन्होंने समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की जो शीघ्र ही पूरे भारत में समाजशास्त्र का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया। सन् 1971 में आपने दिल्ली विश्वविद्यालय छोड़ा और बैंगलोर स्थित इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकॉनोमिक - चेंज के सह-संस्थापक बने। 30 नवम्बर, 1999 को बैंगलोर में आपका निधन हो गया। प्रमुख कृतियाँ एम.एन. श्रीनिवास की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 15.
प्रो. एम.एन. श्रीनिवास के भारतीय समाजशास्त्र को दिए योगदान की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र के विकास में आधुनिक समाजशास्त्रियों में मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके डॉक्टरेट के शोध प्रबन्ध का प्रकाशन 'रिलीजन एण्ड सोसायटी एमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इण्डिया' के नाम से हुआ। इस पुस्तक में श्रीनिवास ने ब्रिटिश सामाजिक मानव-विज्ञान में प्रभावी संरचनात्मक-प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया। भारत आकर आपने महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की। इसके साथ ही साथ आपने जाति, आधुनिकीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन की अन्य प्रक्रियाएँ, ग्रामीण समाज आदि विषयों पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। भारतीय समाजशास्त्र को योगदान श्रीनिवास ने भारतीय समाजशास्त्र को निम्न प्रमुख योगदान दिया
(1) संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम के अन्तर्गत अध्ययन-डॉ. एम.एन. श्रीनिवास के शोध प्रबन्ध 'रिलीजन एण्ड सोसाइटी अमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इण्डिया' में किये गए अध्ययन का आधार संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम है। इस पुस्तक में श्रीनिवास ने प्रकार्यात्मक उपागम को अपनाकर समाज के विभिन्न पक्षों के अन्तःसम्बन्धों को स्पष्ट किया है। यहाँ धर्म अपनी पवित्र स्थिति से हटकर समाज व्यवस्था के रख-रखाव के एक प्रकार्य के रूप में बताया गया है।
स्वयं श्रीनिवास ने इस पुस्तक के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों तथा कुछ सीमाओं को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "जब मैंने प्रकार्यात्मक दृष्टि से अपने अध्ययन पर दृष्टि डाली, तो एक पद्धति के रूप में मुझे असफलता दिखाई दी। आँकड़े बहुत अधिक सम्बद्ध और व्यवस्थित थे। यथार्थता के विभिन्न स्तर दिखाई देते थे तथा वे परस्पर सम्बन्धित थे। इसमें प्रत्येक वस्तु स्पष्ट रूप से इतनी अधिक आपस में बँधी हुई थी। लेकिन मेरे विश्लेषण के लिए सूचनाएँ (आँकड़े) बहुत कम थे।"
(2) संस्कृतिकरण की अवधारणा का विकास-अपनी कुर्ग पुस्तक में प्रो. श्रीनिवास ने पहली बार संस्कृतिकरण की अवधारणा को प्रस्तुत किया। इस अवधारणा ने भारतीय समाज की गतिशीलता का एक अत्यन्त प्रभावी पक्ष प्रस्तुत किया। श्रीनिवास के अनुसार, "संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई नीच हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह, किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है। आम तौर पर ऐसे परिवर्तनों के बाद वह जाति, परम्परा से स्थानीय समाज द्वारा सोपान में उसे जो स्थान मिला हुआ है, उससे ऊँचे स्थान का दावा करने लगती है।"
(3) जाति तथा 'प्रभु जाति' की व्याख्या-एम. एन. श्रीनिवास ने जाति को हिन्दू समाज के स्तरीकरण का आधार बताया है। इसी के अनन्तर ही श्रीनिवास ने 'प्रभु जाति' (Dominant Caste) की अवधारणा का विकास किया है। प्रभु जाति की अवधारणा उन्होंने रामपुर गाँव से सम्बन्धित अध्ययन में प्रस्तुत की। इस अवधारणा को भारत में सामाजिक और राजनैतिक संगठन पर महान कार्य बताया गया है। श्रीनिवास ने इस सम्बन्ध में कहा है कि उसका क्षेत्रीय कार्य स्वयं में वहाँ की दो प्रभावशाली जातियों-कुर्गस तथा ऑक्कालिंगाज से अत्यधिक प्रभावित हुआ था।
ये जातियाँ स्थानीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण शक्ति से सम्पन्न थीं और स्पष्टतः धार्मिक, विधिक स्तर, आर्थिक शक्ति तथा बहुसंख्या के आधार पर महत्त्वपूर्ण सामाजिक स्थिति रखती थीं। प्रभु जाति और संस्कृतिकरण दोनों के सम्बन्ध में सूरज बंद्योपाध्याय ने लिखा है कि "संस्कृतिकरण मन्द गति से तथा शान्तिपूर्ण होने वाले संस्तरण समायोजन को बताता है और प्रभु जाति, निरन्तर संघर्षों तथा असमायोजन की स्थिति को स्पष्ट करती है।"
श्रीनिवास के जाति पर किये गये अध्ययन ने उन्हें भारत में सामाजिक परिस्थिति के उभरते आयामों की परीक्षा के सन्दर्भ में प्रोत्साहित किया और उन्होंने जाति के राजनीति, प्रशासन तथा शिक्षा के सम्बन्धों की व्याख्या की। इस सन्दर्भ में उन्होंने सामान्य रूप से जातिगत लॉबियों द्वारा प्रजातान्त्रिक राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के परिचालन पर और विशेष रूप से प्रभुजाति पर विद्वानों का ध्यान केन्द्रित किया।
(4) अन्य अवधारणाएँ-एम.एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण, जाति, प्रभुजाति की अवधारणाओं के अतिरिक्त पश्चिमीकरण और औद्योगीकरण आदि की अवधारणाओं को विकसित किया। उन्होंने भारत में सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूपों को स्पष्ट किया जिसमें संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण, जातीय गतिशीलता तथा धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाएँ प्रमुख थीं।
(5) ग्रामीण समाज का अध्ययन-एम.एन. श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव तथा ग्रामीण समाज में जीवनभर बनी रही। रामपुर गाँव में काम करने के पश्चात् उन्हें ग्रामीण समाज के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी मिली। गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गये लेख मुख्यतः दो प्रकार के हैं-
(i) गाँवों में किए गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा और इन ब्यौरों पर परिचर्चा । आपने इन ब्यौरों के लेखे-जोखों को तैयार करने में सामूहिक परिश्रम को न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि उसका समन्वय भी किया।
(ii) दूसरे प्रकार का उनका लेखन इस बात पर आधारित है कि भारतीय गाँव सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करते हैं इस पर ऐतिहासिक तथा अवधारणात्मक परिचर्चाएँ। इस अध्ययन में आपने स्पष्ट किया है कि गाँवों ने अपनी एकीकृत पहचान बनाई है तथा ग्रामीण एकता ग्रामीण समाज में काफी महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक और सामाजिक साक्ष्य द्वारा, श्रीनिवास ने यह दिखाया है कि वास्तव में गाँवों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं तथा गाँव कभी भी आत्मनिर्भर नहीं थे तथा वे विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे।