Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय Important Questions and Answers.
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बहुविकल्यात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसी पुस्तक दुर्थीम की नहीं है
(अ) समाज में श्रम विभाजन
(ब) आत्महत्या
(स) दास कैपीटल
(द) समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम
उत्तर:
(स) दास कैपीटल
प्रश्न 2.
दुर्थीम के अनुसार आदिम समाजों में निम्नलिखित में से किस प्रकार की एकता पायी जाती है
(अ) सावयवी एकता
(ब) जैविकीय एकता
(स) यांत्रिक एकता
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(स) यांत्रिक एकता
प्रश्न 3.
दुर्थीम के अनुसार 'सावयवी एकता' निम्न की विशेषता है
(अ) आधुनिक समाज
(ब) आदिम समाज
(स) ग्रामीण समाज
(द) अविकसित समाज
उत्तर:
(अ) आधुनिक समाज
प्रश्न 4.
सामाजिक तथ्य की अवधारणा को प्रतिपादित किया
(अ) दुर्थीम ने.
(ब) वेबर ने
(स) मार्क्स ने
(द) स्पेंसर ने।
उत्तर:
(अ) दुर्थीम ने.
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में जो सामाजिक तथ्य की विशेषता नहीं है, वह है
(अ) बाह्यता
(ब) बाध्यता
(स) सामान्यता (सामाजिकता)
(द) वैयक्तिकता
उत्तर:
(द) वैयक्तिकता
प्रश्न 6.
दुर्थीम का जन्म किस देश में हुआ?
(अ) जर्मनी
(ब) अमेरिका
(स) फ्रांस
(द) इंग्लैण्ड
उत्तर:
(स) फ्रांस
प्रश्न 7.
मैक्स वेबर का जन्म किस देश में हुआ?
(अ) जर्मनी
(ब) फ्रांस
(स) इंग्लैण्ड
(द) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर:
(अ) जर्मनी
प्रश्न 8.
लालफीताशाही शब्द का प्रयोग किसके लिए किया जाता है
(अ) आधुनिकीकरण
(ब) नौकरशाही
(स) उदारीकरण
(द) नगरीकरण
उत्तर:
(ब) नौकरशाही
प्रश्न 9.
निम्नलिखित में जो वेबर के कर्मचारी तंत्र की विशेषता नहीं है, वह है
(अ) पदसोपानिक व्यवस्था
(ब) अधिकारियों के प्रकार्य
(स) लिखित दस्तावेजों की विश्वसनीयता
(द) अतार्किक संगठन।
उत्तर:
(द) अतार्किक संगठन।
प्रश्न 10.
नौकरशाही पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने वाला समाजशास्त्री है
(अ) वेबर
(ब) मार्क्स
(स) कॉम्टे
(द) दुर्थीम
उत्तर:
(अ) वेबर
प्रश्न 11.
'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' रचना के लेखक कौन हैं?
(अ) मैक्स वेबर
(ब) कार्ल मार्क्स
(स) एमिल दुर्थीम.
(द) कॉम्टे
उत्तर:
(ब) कार्ल मार्क्स
प्रश्न 12.
मार्क्स का जन्म किस देश में हुआ था?
(अ) जर्मनी
(ब) फ्रांस
(स) इंग्लैण्ड
(द) संयुक्त राज्य अमेरिका -
उत्तर:
(अ) जर्मनी
प्रश्न 13.
"अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है।" यह किसने कहा
(अ) मार्क्स और ऐंजिल्स ।
(ब) मजूमदार और मदान
(स) एमिल दुर्थीम
(द) मैक्स वेबर
उत्तर:
(अ) मार्क्स और ऐंजिल्स ।
प्रश्न 14.
निम्न में जो वर्ग की विशेषता नहीं है, वह है
(अ) समान आर्थिक गतिविधियाँ
(ब) समान जीवन शैली
(स) बड़ा मानव समूह
(द) वर्ग-चेतना का अभाव
उत्तर:
(द) वर्ग-चेतना का अभाव
प्रश्न 15.
निम्न में जो कार्ल मार्क्स की अलगाव की अवधारणा का पहलू नहीं है, वह है
(अ) उत्पादित वस्तुओं के प्रति अलगाव
(ब) स्वयं के प्रति अलगाव
(स) मानव जाति से अलगाव
(द) ईश्वर से अलगाव
उत्तर:
(द) ईश्वर से अलगाव
प्रश्न 16.
मार्क्स के अनुसार जो पूँजीवादी समाज की विशेषता नहीं है, वह है
(अ) अतिरिक्त मूल्य
(ब) असमानता
(स) शोषण
(द) वर्गहीनता
उत्तर:
(द) वर्गहीनता
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
1. समाजशास्त्र के अभ्युदय में तीन क्रांतिकारी परिवर्तनों का महत्त्वपूर्ण हाथ है- (i) ज्ञानोदय, (ii) फ्रांसीसी क्रांति और (iii) ...........
2. मार्क्स के अनुसार अर्थव्यवस्था का आधार मुख्यतः उत्पादक .............. और उत्पादन से उनके संबंधों पर आधारित होता है।
3. मार्क्स का मानना था कि ............. सामाजिक परिवर्तन लाने वाली मुख्य ताकत होती है।
4. मार्क्स के अनुसार .............. के विकसित होने के बाद राजनीतिक गोलबंदी के तहत वर्ग-संघर्ष होते हैं।
5. दुर्थीम के अनुसार समाज की वैज्ञानिक समझ .............. तथ्यों की मान्यता पर आधारित थी।
6. वेबर के लिए 'सामाजिक क्रिया' में वे सब मानवीय व्यवहार सम्मिलित थे जो .............. थे।
7. वेबर ने विश्व के प्रमुख धर्मों का विश्लेषण कर यह बताया कि यूरोप में पूँजीवाद के विकास में .............. ईसाई धर्म के मूल्यों का योगदान है।
8. ज्ञानोदय को वास्तविक यथार्थ में बदलने में धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच व ............... सोच की वैचारिक प्रवृत्तियों का प्रमुख हाथ रहा।
उत्तर:
1. औद्योगिक क्रांति
2. शक्तियों
3. वर्ग संघर्ष
4. वर्ग-चेतना
5. नैतिक
6. अर्थपूर्ण
7. प्रोटेस्टेण्ट
8. मानवतावादी।
निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धान्त-स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व आधुनिक राज्य के नए नारे बने।
2. औद्योगिक क्रांति ने श्रम तथा बाजार को नए ढंग से व बड़े पैमाने पर संगठित करने के तरीके विकसित किए।
3. मार्क्स की धारणा थी कि मनुष्य जैसा चाहे वैसा सोचने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि विचार ही दुनिया को आकार देते
4. मार्क्स के लिए व्यक्ति को सामाजिक समूहों में विभाजित करने का मुख्य तरीका धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता तथा समान पहचान के संदर्भ में था।
5. मार्क्स का तर्क था कि सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं।
6. मार्क्स का मानना था कि वर्ग संघर्ष सामाजिक परिवर्तन लाने वाली मुख्य ताकत होती है।
7. समाज की वैज्ञानिक समझ, जिसे दुर्खाइम विकसित करना चाहते थे, वह धार्मिक तथ्यों की मान्यता पर आधारित . थी।
8. वेबर के लिए सामाजिक क्रिया में वे सब मानवीय व्यवहार सम्मिलित थे जो अर्थपूर्ण थे।
उत्तर:
1. सत्य
2. सत्य
3. असत्य
4. असत्य
5. सत्य
6. सत्य
7. असत्य.
8. सत्य
निम्नलिखित स्तंभों का सही मिलान कीजिए-
1. धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच व मानववादी सोच |
(अ) फ्रांसीसी क्रांति |
2. स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व |
(ब) औद्योगिक क्रांति |
3. उत्पादन में विज्ञान और तकनीक का व्यवस्थित प्रयोग तथा श्रम और बाजार को बड़े पैमाने पर संगठित करना |
(स) कार्ल मार्क्स |
4. अलगाव की संकल्पना का विवेचन |
(द) एमिल दुर्खाइम |
5. समाजशास्त्र के औपचारिक संकाय के संस्थापक |
(य) ज्ञानोदय |
उत्तर:
1. धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच व मानववादी सोच |
(य) ज्ञानोदय |
2. स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व |
(अ) फ्रांसीसी क्रांति |
3. उत्पादन में विज्ञान और तकनीक का व्यवस्थित प्रयोग तथा श्रम और बाजार को बड़े पैमाने पर संगठित करना |
(ब) औद्योगिक क्रांति |
4. अलगाव की संकल्पना का विवेचन |
(स) कार्ल मार्क्स |
5. समाजशास्त्र के औपचारिक संकाय के संस्थापक |
(द) एमिल दुख्खाइम |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
दुर्थीम के अनुसार 'श्रम विभाजन' का अर्थ बताइये।
उत्तर:
दुर्थीम के अनुसार 'श्रम विभाजन' एक सामाजिक तथ्य, नैतिक व्यवस्था तथा स्वतःचालित एक सार्वभौमिक घटना है जो प्रत्येक समाज में पाई जाती है।
प्रश्न 2.
दुर्थीम की कोई दो प्रसिद्ध कृतियों के नाम दीजिये।
उत्तर:
प्रश्न 3.
सामाजिक तथ्य क्या हैं?
उत्तर:
सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने, अनुभव करने के वे तरीके हैं जिनमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है।
प्रश्न 4.
दुर्थीम द्वारा दिये गये सामाजिक तथ्य की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 5.
श्रम-विभाजन के प्रकार्य बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 6.
दुर्शीम ने सामाजिक एकता को कितने मुख्य भागों में विभाजित किया है?
उत्तर:
दो भागों में-
प्रश्न 7.
'यांत्रिक एकता' से क्या तात्पर्य है? ।
उत्तर:
आदिम समाजों में सामाजिक और नैतिक एकरूपता से उत्पन्न होने वाली एकता यांत्रिक एकता कहलाती है। इसमें दमनकारी कानूनों की प्रधानता होती है।
प्रश्न 8.
सावयवी एकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
आधुनिक जटिल समाजों में लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु परस्पर निर्भरता से जो एकता स्थापित होती है, वह सावयवी एकता कहलाती है।
प्रश्न 9.
यांत्रिक एकता से युक्त समाज की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
अथवा यांत्रिक एकता पर आधारित समाजों में दमनकारी कानून बनाये जाते हैं।
प्रश्न 10.
सावयवी एकता वाले समाज की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 11.
यांत्रिक एवं सावयवी एकता में दो अन्तर लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 12.
दमनकारी कानूनों की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
दमनकारी कानून कठोर दण्ड की व्यवस्था करते हैं । ये समाज में एकरूपता को बढ़ावा देते हैं तथा व्यक्ति की तुलना में समाज को अधिक महत्त्व देते हैं।
प्रश्न 13.
प्रतिकारी कानून किन समाजों में प्रचलित हैं?
उत्तर:
प्रतिकारी कानून सावयवी समाजों में, जहाँ श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण अधिक पाया जाता है, प्रचलित
प्रश्न 14.
मैक्स वेबर की दो प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 15.
आदर्श प्रारूप का क्या अर्थ है?
उत्तर:
'आदर्श प्रारूप' सामाजिक घटना का तार्किक एकरूपीय मॉडल है, जो वास्तविकता की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को रेखांकित करता है।
प्रश्न 16.
नौकरशाही की कोई चार विशेषताएँ लिखिये। उत्तर-नौकरशाही की चार प्रमुख विशेषताएँ ये हैं
प्रश्न 17.
अलगाव को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार अलगाव व्यक्ति की वह दशा है जिसमें उसके अपने कार्य एक पराई शक्ति बन जाते हैं जो कि उसके द्वारा शासित न होकर, शोषक की शक्ति द्वारा शासित होते हैं।
प्रश्न 18.
मार्क्स के अनुसार दो मुख्य वर्ग कौनसे हैं? उत्तर-मार्क्स के अनुसार दो मुख्य वर्ग ये हैं-
प्रश्न 19.
बुर्जुआ वर्ग से क्या अभिप्राय है? उत्तर-मार्क्स के अनुसार बुर्जुआ वर्ग वह है जिसके हाथ में सम्पूर्ण उत्पादन प्रणाली है तथा जो साधनसम्पन्न है। प्रश्न 20. वर्ग की कोई दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
वर्ग की दो विशेषताएँ ये हैं-
प्रश्न 21.
सर्वहारा वर्ग से क्या आशय है?
उत्तर:
सर्वहारा वर्ग वह वर्ग है जिसके पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते हैं तथा यह पूँजीपति को अपना श्रम बेचकर जीवनयापन करता है।
प्रश्न 22.
वर्ग चेतना को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
एकसी स्थिति में काम करने वाले कामगारों की इस स्थिति के प्रति उपजी व्यक्तिगत चेतना जब सामूहिक चेतना में बदल जाती है, तो उसे वर्ग चेतना कहते हैं।
प्रश्न 23.
मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त की दो आलोचनाएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 24.
अतिरिक्त मूल्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार, "अतिरिक्त मूल्य उन दो मूल्यों का अन्तर है जिसे मजदूर पैदा करता है तथा जिसे वह वास्तव में प्राप्त करता है।"
प्रश्न 25.
अलगाव के प्रमुख स्वरूप बतलाइये।
उत्तर:
अलगाव के चार प्रमुख स्वरूप हैं-
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
फ्रांसीसी क्रांति के किन्हीं चार प्रभावों को स्पष्ट कीजिये। उत्तर-फ्रांसीसी क्रांति के प्रभाव-फ्रांसीसी क्रांति के निम्नलिखित प्रमुख प्रभाव पड़े
प्रश्न 2.
कार्ल मार्क्स की जीवनी को संक्षेप में बताइये।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स-कार्ल मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 को प्रशिया (जर्मनी) के राइनलैंड नामक प्रांत में हुआ। वे एक सम्पन्न उदारवादी वकील के पुत्र थे। सन् 1834-36 के काल में मार्क्स ने बान विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। यहाँ पर वे युवा हेगेलियन्स (हीगेल के शिष्यों) से प्रभावित हुए। सन् 1841 में मार्क्स ने जेना विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में डॉक्टरेट का शोध-पत्र पूरा किया। इसके बाद सन् 1842 में वे 'राइनिश जाइद्रुग्र' नामक पत्रिका के सम्पादक बन गये। इस पत्र के माध्यम से उन्होंने सम्पूर्ण जर्मनी में राजनीतिक एवं धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ आम जनता के पक्ष में अपनी आवाज बुलन्द की।
सन् 1843 में सरकार के विरोध के कारण मार्क्स ने जर्मनी को छोड़ दिया और फ्रांस (पेरिस) में आ गये। सन् 1843 में मार्क्स ने जेनी वॉन वेस्टफेलेन से विवाह किया तथा पेरिस में बस गये। 1844 ई. में पेरिस में वे फ्रेडरिक एंजिल्स के सम्पर्क में आए तथा जीवनपर्यन्त उसके मित्र बने रहे। 1844 में मार्क्स को प्रशिया की सरकार ने फ्रांस पर दबाव डालकर फ्रांस से निकलवा दिया। तब मार्क्स अपनी पत्नी के साथ 1845 के आरंभ से बेल्जियम के नगर 'ब्रुसेल्स' में रहने लगे। यहीं पर एन्जिल्स के साथ मिलकर 'होली फैमिली' नामक पुस्तक की रचना की।
यहीं पर मार्क्स ने 'पॉवर्टी ऑफ फिलॉसफी' तथा 'जर्मन आइडियोलॉजी' पुस्तकें लिखीं। यही पर रहते हुए इन्होंने 'साम्यवादी संघ' नामक संगठन की स्थापना की। सन् 1847 में 'इण्टरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसियेशन' द्वारा उनको संगठन के लक्ष्य तथा उद्देश्यों का दस्तावेज तैयार करने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ मार्क्स ने एंजिल्स के साथ मिलकर 'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' की रचना की। इस पर बेल्जियम की सरकार ने उसे देश से निकाल दिया। 28 अगस्त 1849 को वह लंदन आ गया तथा मृत्यु पर्यन्त यहीं रहा। यहाँ आकर उसने प्रसिद्ध ग्रंथ 'दास कैपीटल' की रचना की। सन् 1883 में लंदन में मार्क्स का निधन हो गया।
प्रश्न 3.
मार्क्स ने अत्याचार और शोषण को समाप्त करने के लिए क्या किया?
उत्तर:
मार्क्स एक सामाजिक चिंतक तथा विश्लेषक थे जिन्होंने अत्याचार और शोषण को खत्म करने की वकालत की। उन्हें विश्वास था कि वैज्ञानिक समाजवाद के द्वारा इस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। इसकी प्राप्ति के लिए मार्क्स ने पूँजीवादी समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर उसकी कमजोरियों को उजागर किया ताकि इस व्यवस्था का पतन हो सके।
प्रश्न 4.
मार्क्स ने समाज के विकास-क्रम में कितने चरणों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
मार्क्स का कहना था कि समाज ने विभिन्न चरणों में उन्नति की है। ये चरण हैं-
पूँजीवाद समाज के विकास का नवीनतम चरण है, लेकिन उनका मानना था कि बहुत जल्दी ही इसका स्थान समाजवाद ले लेगा।
प्रश्न 5.
पूँजीवादी समाज में अलगाव की स्थिति और शक्ति का स्थानान्तरण कितने स्तरों पर काम करता है?
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी समाज में अलगाव की स्थिति और शक्ति का स्थानान्तरण कई स्तरों पर काम करता है। यथा
प्रश्न 6.
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी समाज में परिवर्तन किसके द्वारा लाया जायेगा?
उत्तर:
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी समाज में परिवर्तन सर्वहारा वर्ग द्वारा लाया जायेगा जो इसके शोषण का शिकार है। यह सर्वहारा वर्ग मिलकर क्रांतिकारी परिवर्तन द्वारा इसे समाप्त कर स्वतंत्रता तथा समानता पर आधारित समाजवादी समाज की स्थापना करेगा।
प्रश्न 7.
'भौतिक जीवन सोच और विश्वास को आकार देता है। मार्क्स के इस कथन को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मार्क्स का मानना था कि व्यक्ति की सोच और विश्वास ने उसी अर्थव्यवस्था से जन्म लिया है जिसका वे हिस्सा हैं । व्यक्ति अपनी जीवनचर्या कैसे कमाता है? यह इससे निर्धारित होता है कि उसकी सोच कैसी है और भौतिक जीवन सोच को आकार देती है तथा सोच भौतिक जीवन को आकार नहीं देती है।
प्रश्न 8.
'द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' की केन्द्रीय विषय-वस्तु बताइये।
उत्तर;
द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' कार्ल मार्क्स तथा एंजिल्स द्वारा रचित पुस्तक है जिसका प्रकाशन 1848 में हुआ। इस पुस्तक की केन्द्रीय विषय-वस्तु वर्ग-संघर्ष है। मार्क्स का मानना है कि इतिहास सामाजिक वर्गों के संघर्ष की श्रृंखला है। सामाजिक इतिहास के प्रत्येक काल में दो वर्ग-शोषक वर्ग और शोषित वर्ग पाये जाते हैं। इन दोनों वर्गों में सदैव प्रतिरोध पाया जाता है। इसलिए सृष्टि में मानव जाति का इतिहास शोषक और शोषित वर्गों का संघर्ष है। इस पुस्तक में सभी श्रमिकों को संगठित होने तथा क्रान्ति करने का आह्वान किया गया है। उन्होंने श्रमिक वर्ग का सम्बन्ध साम्यवादियों से जोड़ते हुए एकमात्र इसी राजनीतिक संगठन को श्रमिकों के लिए हितकारी बताया है।
प्रश्न 9.
मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को संक्षेप में बताइये।
उत्तर;
(1) मार्क्स का मत है कि "आज तक का मानव समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।" क्योंकि समाज में उत्पादन तथा वितरण के समस्त साधनों पर शोषक वर्ग का आधिपत्य होता है। इस वर्ग को मार्क्स ने 'बुर्जुआ वर्ग' भी कहा है। दूसरी तरफ समाज का साधनहीन वर्ग है, जिसे शोषित वर्ग या सर्वहारा वर्ग भी कहते हैं। यह वर्ग उत्पादन के साधनों से वंचित होता है। इसके पास अपने श्रम को बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है।
(2) मार्क्स का मत है कि बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के हित समान नहीं होते। इन दोनों के हितों में परस्पर विरोध पाया जाता है। फलतः जब इन दोनों वर्गों में वर्ग चेतना का उदय हो जाता है तो इनके बीच संघर्ष तीव्र हो जाता है और संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच कर हिंसा तथा क्रांति में बदल जाता है।
प्रश्न 10.
मार्क्स के इस कथन को स्पष्ट कीजिये कि "ऐसा समय आयेगा जब सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंका जायेगा और एक वर्ग-विहीन समाज का निर्माण होगा।"
उत्तर;
कार्ल मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन का सम्पूर्ण चिंतन वर्ग संघर्ष की धारणा पर आधारित है। मार्क्स का कथन है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग एक दिन बुर्जुआ वर्ग (पूँजीपति वर्ग) को उखाड़ फेंकेगा और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी। यथा
(1)वर्ग-संघर्ष-मार्क्स का कथन है कि पूँजीवादी समाज में दो प्रमुख वर्ग हैं-
1.जीपति वर्ग (बुर्जुआ या शोषक वर्ग) और दूसरा, मजदूर वर्ग (सर्वहारा या शोषित वर्ग)। दोनों वर्गों के परस्पर विरोधी हितों के कारण उनमें निरन्तर संघर्ष चल रहा है। वर्ग-संघर्ष से वर्ग-चेतना उत्पन्न होगी और वर्ग-संघर्ष तीव्र हो जायेगा जिसकी अन्तिम परिणति क्रांति में होगी। इससे पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश हो जायेगा।
2.सर्वहारा वर्ग की तानाशाही-मार्क्स का मत है-पूँजीवादी व्यवस्था का शोषण श्रमिकों में असंतोष और जागरूकता को उत्तरोत्तर बढ़ाता है और श्रमिकों को हिंसक क्रांति के लिए बाध्य कर देता है । क्रांति में पूँजीवाद का विनाश हो जाता है और इसके स्थान पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाती है। यह स्थिति संक्रमणकालीन है। इस अवस्था में पूँजीवाद तथा पूँजीपतियों का पूर्व विनाश कर दिया जायेगा और केवल एक वर्गसर्वहारा वर्ग-रह जायेगा।
3.वर्ग-विहीन तथा राज्य-विहीन समाज की स्थापना-जब समाज में कोई वर्ग-व्यवस्था नहीं रहेगी तथा समाज वर्ग-विहीन हो जायेगा तो राज्य की भी आवश्यकता नहीं रहेगी और फिर राज्य-विहीन-वर्ग-विहीन समाज की स्थापना होगी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार कार्य करेगा तथा अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं का उपभोग करेगा।
प्रश्न 11.
दुखीम की समाज सम्बन्धी अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
दुर्थीम की समाज सम्बन्धी अवधारणा दुर्थीम के लिए समाज एक सामाजिक तथ्य था जिसका अस्तित्व नैतिक समुदाय के रूप में व्यक्ति से ऊपर था। वे नैतिक बंधन जो मनुष्य को समूहों के रूप में आपस में बाँधते थे, समाज के अस्तित्व के लिए निर्णायक थे। ये बंधन सामाजिक एकता को स्थापित करते हैं और सामाजिक एकता व्यक्ति पर समूह के मानदण्डों तथा मूल्यों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए दबाव डालती है। व्यवहार प्रतिमान व्यवस्थित होते हैं। इससे व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार का पूर्वानुमान संभव है। इस प्रकार अवलोकित व्यवहार के प्रतिमान को देखकर मानदण्डों, संहिताओं तथा सामाजिक एकता को पहचाना जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि समाज एक सामाजिक तथ्य है।
प्रश्न 12.
दुर्थीम का नैतिक तथ्य से क्या आशय है?
उत्तर:
दुीम ने नैतिक तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "नैतिक तथ्य अन्य तथ्यों की तरह घटित होते हैं; वे क्रिया के नियमों से बने हैं जो विशेष गुणों द्वारा पहचाने जाते हैं, उनका अवलोकन, वर्णन तथा वर्गीकरण किया जा सकता है और वे विशेष कानूनों के द्वारा समझाये जा सकते हैं।" नैतिक संहिताएँ विशेष सामाजिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति थीं। इसलिए एक समाज की नैतिकता दूसरे समाज के लिए अनुपयुक्त थी। अतः दुर्थीम के अनुसार नैतिक संहिताओं से सामाजिक परिस्थितियों की उत्पत्ति हो सकती है।
प्रश्न 13.
दुर्शीम की समाजशास्त्रीय दृष्टि की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
दुीम की समाजशास्त्रीय दष्टि दुर्थीम की दृष्टि में, समाजशास्त्र में एक नवीन वैज्ञानिक संकाय के रूप में दो मुख्य विशेषताएँ हैं
(1) सामाजिक तथ्यों का अध्ययन-दुीम के मत में समाजशास्त्र की विषय-वस्तु सामाजिक तथ्यों का अध्ययन है और यह अध्ययन दूसरे विज्ञानों से भिन्न था। समाजशास्त्र अपने आप से अनन्य रूप से जटिल सामूहिकता के जीवन-स्तर से सम्बन्धित है जहाँ सामाजिक प्रघटनाओं का उद्भव हो सकता है। ये प्रघटनाएँ सामाजिक संस्थाएँ हैं। इसका आधार सामूहिक पहचान है। यही वह उद्गम स्तर है जिसका अध्ययन समाजशास्त्री करते हैं।
(2) आनुभविकता-दुर्थीम के अनुसार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को आनुभविक होना चाहिए। यद्यपि सामाजिक प्रघटनाएँ अपनी प्रकृति में अमूर्त होती हैं, फिर भी इन्हें अप्रत्यक्ष रूप से व्यवहार के प्रतिमान में अवलोकित किया जा सकता है।
प्रश्न 14.
सामाजिक तथ्य क्या हैं? . उत्तर-सामाजिक तथ्य-
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
यांत्रिक एकता युक्त समाजों की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
एमिल दुर्थीम ने श्रम विभाजन के कार्यों एवं स्तर की दृष्टि से सामाजिक एकता को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है। ये हैं
यांत्रिक एकता युक्त समाजों की विशेषताएँ दुर्थीम का मत है कि श्रम विभाजन हीन समाजों में, जो बहुधा छोटे और आदिवासी समाज हैं, यांत्रिक एकता पायी जाती है। यांत्रिक एकता इन समाजों की सामाजिक और नैतिक एकरूपता से उत्पन्न होने वाली एकता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) व्यक्तिगत एकरूपता तथा कम जनसंख्या-यांत्रिक एकता का आधार व्यक्तिगत एकरूपता होती है तथा यह कम जनसंख्या वाले समाजों में पाई जाती है, जैसे-आदिवासी समाज। इन समाजों के सभी सदस्य समान भावनाओं से प्रेरित होते हैं, समान मूल्यों और विश्वासों का अनुसरण करते हैं तथा समान आदर्शों एवं आकांक्षाओं के लिए कार्य करते हैं। समाज के सभी सदस्य सामञ्जस्यपूर्ण एकता के बंधनों में बंधे रहते हैं।
(2) प्रबल सामूहिक चेतना-यांत्रिक एकता में समाज का रूप अखंड और प्रबल सामूहिक चेतना में प्रकट होता है। जितनी प्रबल सामूहिक चेतना होगी, उतने ही मजबूत यांत्रिक एकता के बंधन होंगे। यह सामूहिक चेतना समाज की समस्त एकरूपताओं का योग है जो व्यक्तिगत चेतना से पृथक् तथा स्वतंत्र होती है तथा अपने ही नियमों से संचालित होती है।
(3) समाज का व्यक्ति पर प्रभुत्व-सामूहिक चेतना जितनी प्रबल होती है, व्यक्तिगत एकरूपता भी उतनी ही अधिक होती है। समाज के सदस्यों के विचारों, भावनाओं, मतों तथा आचरणों में भी एकरूपता मिलती है। मानसिक और नैतिक एकरूपता प्रथाओं और संस्थाओं की एकरूपता में प्रकट होती है। यहाँ व्यक्तिगत मौलिकता का नितान्त अभाव होता है। परम्परा और प्रथा का पूर्णतया साम्राज्य होता है। व्यक्ति अपने सोचने और काम करने में सामूहिक चेतना से यंत्रवत नियंत्रित होता है। ऐसे समाज में व्यक्ति का समाज के अन्तर्गत ही सम्पूर्ण विलय हो जाता है।
(4) दमनकारी कानून-यांत्रिक एकता वाले समाज में सामूहिक चेतना बलवती होती है, इसलिए समाज की अपराध के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी उतनी ही प्रचंड होती है और यह अपराधी का शीघ्रता से दमन करती है। इस प्रकार यांत्रिक एकता वाले समाजों में दमनकारी कानून बनाए जाते हैं ताकि सामाजिक मान्यताओं से विचलन को रोका जा सके।
(5) खण्डात्मक सामाजिक संरचना-दुर्थीम ने यांत्रिक एकता रखने वाले समाजों में सामाजिक संरचना को भी खण्डात्मक बताया है। इसमें समाज का निर्माण कुछ समान तथा सदृश खंडों से होता है। ये खंड ही समाज की इकाई होते हैं। खण्ड से तात्पर्य ऐसे सामाजिक समूह से है जिसके अन्तर्गत लोग एक दूसरे के प्रति रक्त सम्बन्धों और एकरूपता (समानता) के आधार पर अन्तःसम्बन्धित होते हैं। प्रत्येक समूह स्वावलम्बी, स्वायत्त और पृथक् अस्तित्व वाला होता है। इस समूह में प्रत्येक व्यक्ति एक जैसे क्रियाकलापों तथा प्रकार्यों में लिप्त रहता है।
ऐसे समाजों में व्यक्ति तथा समाज का सम्बन्ध सीधे या प्रत्यक्ष न होकर उस खण्ड (स्वावलम्बी समूह) के माध्यम से होता है तथा व्यक्ति अपने खण्ड से नियंत्रित होता है। प्रत्येक खण्ड की एक उप-संस्कृति व नियंत्रण व्यवस्था होती है। व्यक्ति की सामाजिक स्थिति भी जन्म से या वंशानुक्रमण से निश्चित होती है। व्यवसाय का चुनाव भी परम्परागत आधार पर होता है।
प्रश्न 2.
सावयवी एकता से क्या आशय है? सावयवी एकता युक्त समाजों की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर;
सावयवी एकता का अर्थ-आधुनिक समाजों में विशेषीकरण बढ़ने से कार्यों का विभाजन हो गया है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक विभिन्नता व विषमता बढ़ गयी है। इसके कारण समूह के सदस्य, जैविकीय सावयव के विभिन्न अंगों की तरह, एक दूसरे पर निर्भर हो गये हैं। इस प्रकार श्रम-विभाजन से उत्पन्न समाज में जो एकता मिलती है, दुर्शीम ने उसे 'सावयवी एकता' कहा है। समाज की सावयवी एकता समाज के सदस्यों की व्यक्तिगत विविधता और सामूहिक सहयोग तथा परस्पर निर्भरता से उत्पन्न होने वाली एकता होती है। सदस्यों में विविधता के कारण उनमें एक कार्यात्मक परस्पर आश्रितता के भाव उत्पन्न होते हैं और उनके बीच सहयोग और पारस्परिक निर्भरता बढ़ती है।
व्यक्ति अपने विशेषीकृत कार्यों से एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं और इस प्रकार पुनः व्यक्ति इन नये सम्बन्धों में समाज से बंधा रहता है। यह एकता यांत्रिक एकता से भिन्न 'सावयवी एकता' होती है। सावयवी एकता युक्त समाजों की विशेषताएँ दुर्खिम ने सावयवी एकता युक्त समाजों की अग्र प्रमुख विशेषताएँ बतायी हैं
(1) आधुनिक जटिल समाजों की एकता-आधुनिक समाज की एकता का आधार 'सावयवी एकता' है। सावयवी एकता सदस्यों की विषमताओं पर आधारित है। यह वृहत् जनसंख्या वाले समाजों में पायी जाती है, जहाँ अधिकतर सामाजिक सम्बन्ध अवैयक्तिक होते हैं।
(2) पारस्परिक निर्भरता व सहयोग से उत्पन्न सामाजिक एकता-आधुनिक समाजों में विशेषीकरण और वैयक्तिक मौलिकता के बढ़ने से श्रम-विभाजन बढ़ता है। इस अवस्था में समाज विभिन्न और विशिष्ट कार्य वाले अन्तर्सम्बन्धित अंगों की व्यवस्था के रूप में प्रकट होता है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध ठीक सावयव जैसा ही होता जिस प्रकार एक सावयव का प्रत्येक अंग एक पृथक्, भिन्न व विशिष्ट कार्य करता है, किन्तु वह फिर भी सम्पूर्ण शरीर से तथा उसके अन्य अंगों से जुड़ा रहता है। शरीर के अंगों की परस्पर निर्भरता बनी रहती है और यही सावयवी निर्भरता 'शरीर की एकता' को बनाती है। इसी प्रकार समाज में भी होता है। व्यक्तियों में स्वायत्तता और विशेषीकरण जैसे-जैसे बढ़ता है, उनकी समाज पर निर्भरता भी बढ़ती है और उसी अनुपात में सावयवी सामाजिक एकता की भी वृद्धि होती है। इस प्रकार सावयवी सामाजिक एकता व्यक्तियों की विविधता और पारस्परिक निर्भरता व सहयोग से उत्पन्न होती है।
(3) श्रम विभाजन पर आधारित सामाजिक संरचना-सावयवी एकता वाले समाज की संरचना खण्डात्मक न होकर श्रम-विभाजन पर आधारित होती है जिसे दुर्थीम ने 'संगठित संरचना' कहा है। श्रम-विभाजन से समाज की विभिन्न इकाइयाँ एक दूसरे पर निर्भर रहते हुए पारस्परिक सहयोग करती हैं तथा प्रत्येक सम्पूर्ण समाज की किसी विशेष आवश्यकता को ही पूरा करती हैं। इस प्रकार सावयवी एकता वाले समाज में सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक संरचना व संगठन का मूलाधार होता है।
(4) प्रतिकारी कानून-सावयवी एकता वाले समाजों में दमनकारी कानूनों का स्थान प्रतिकारी (क्षतिपूरक) कानून ले लेते हैं। इस कानून का मुख्य उद्देश्य अपराधी कृत्यों में सुधार लाना या उसे ठीक करना है। प्रतिकारी कानून उस व्यक्ति को उसके व्यवहार के अनुकूल दण्ड न देकर केवल उसे नियम पालन के लिए ही विवश कर सकता है। इसकी अवहेलना करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध समूह की तीव्र प्रतिक्रिया नहीं होती। दूसरे, प्रतिकारी कानून सम्पूर्ण समाज पर समाज रूप से लागू न होकर अपने सीमित क्षेत्र में ही लागू होते हैं। जैसे-घरेलू कानून, अनुबन्ध कानून आदि।
(5) व्यक्तिगत मूल्यों का प्रादुर्भाव-आधुनिक समाज में व्यक्ति को स्वायत्त शासन में कुछ छूट मिलती है अर्थात् श्रम-विभाजन से समाज में सामाजिक नियंत्रण के स्वरूप और प्रणालियों पर भी प्रभाव पड़ता है। व्यक्तिगत चेतना, वैयक्तिक शालीनता, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता जैसे मूल्य प्रबल हो जाते हैं।
(6) अवैयक्तिक सामाजिक सम्बन्ध तथा अवैयक्तिक नियम तथा विधान—सावयवी एकता वृहद् जनसंख्या वाले समाजों में पाई जाती है, जहाँ अधिकतर सामाजिक सम्बन्ध अवैयक्तिक होते हैं। इस प्रकार के समाज में, अवैयक्तिक नियम तथा विधानों की आवश्यकता सामाजिक सम्बन्धों के नियंत्रण के लिए होती है क्योंकि वैयक्तिक सम्बन्धों का निर्वाह अधिक जनसंख्या में संभव नहीं होता।
प्रश्न 3.
समाज में श्रम-विभाजन पर दुर्थीम के विचारों का मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर:
दुर्थीम ने अपनी पुस्तक 'डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसायटी' तीन खण्डों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड में दुर्थीम ने श्रम-विभाजन के विभिन्न पक्षों की विवेचना की है। ये तीन खण्ड हैं-
समाज में श्रम-विभाजन-दुर्थीम के अनुसार श्रम-विभाजन एक सामाजिक तथ्य है। उनका कहना है कि समाज के सदस्यों में जो सामाजिक और सांस्कृतिक अन्तर होता है, यह अन्तर हमें श्रम विभाजन में देखने को मिलता है। इस दृष्टि से श्रम-विभाजन तो केवल सामाजिक-सांस्कृतिक विभेदीकरण की एक अभिव्यक्ति मात्रा है। यह उद्योग-धन्धों का विभाजीकरण न होकर सामाजिक और सांस्कृतिक विभेदीकरण है। दुर्थीम का श्रम विभाजन इस अर्थ में सामाजिक भेदभाव पर निर्भर है। यांत्रिक और सावयवी समाजों में दुर्शीम ने जिस तरह का विभाजन पाया है, वह मूलतः दोनों समाजों की एकता के कारण है।
उन्होंने समाज का वर्गीकरण सामाजिक एकता की प्रकृति के आधार पर किया जो समाज में विद्यमान थी। दुर्थीम का कहना है कि श्रम विभाजन की क्रिया समाज की कतिपय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की जाती है। जैसे-सदस्यों के लिए भोजन की उपलब्धि, पहनने के कपड़ों की व्यवस्था, आवास और सुरक्षा की प्राप्ति आदि की पूर्ति श्रम विभाजन करता है। यांत्रिक समाज में श्रम विभाजन-दुीम जब यांत्रिक समाज में श्रम-विभाजन की व्याख्या करते हैं तो उनका कहना है कि यांत्रिक समाज की कुछ संस्थागत आवश्यकताएँ होती हैं और श्रम विभाजन इन आवश्यकताओं को पूरा करने का काम करता है।
दुर्थीम इस बात पर अधिक जोर देते हैं कि श्रम-विभाजन यहाँ केवल सामूहिक या समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। यांत्रिक समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता सामाजिक एकता की है। इस समाज में श्रम-विभाजन समाज को एकता प्रदान करता है और यांत्रिक समाज में सामाजिक एकता को बनाये रखने के प्रमुख कारक हैं-सामूहिक चेतना तथा दमनकारी कानून। सावयवी समाज में श्रम विभाजन-दुर्थीम का मत है कि यांत्रिक समाज में ज्यों-ज्यों विशेषीकरण बढता है. त्यों-त्यों भेदभाव विकसित होता है और असमानता आती है। साथ ही साथ यह समाज उद्विकास की प्रक्रिया के तहत सावयवी स्तर पर पहुँचता है और संविदागत सम्बन्ध विकसित होते हैं।
इस प्रकार सावयवी समाज संविदागत एकता पर निर्भर होता है। सावयवी समाज के सदस्य अपनी भूमिका कुछ निश्चित शर्तों के अनुसार सम्पादन करते हैं। दुर्थीम के सावयवी समाज की विशेषता सामाजिक विषमता या गैर-बराबरी है। इसमें संविदा इस सामाजिक विषमता की अभिव्यक्ति मात्र है। सावयवी समाज में विकसित विषमता तथा संविदागत सम्बन्धों के कारण दमनकारी कानूनों का स्थान प्रतिकारी (क्षतिपूरक) कानून ले लेते हैं। बढ़ते श्रम विभाजन के कारण दुर्थीम का मत है कि जब समाज की आवश्यकताएँ बढ़ी तब समाज का विभेदीकरण भी बढ़ा। बढ़ते विभेदीकरण के कारण श्रम-विभाजन भी विकसित हुआ। परिणामस्वरूप सावयवी समाज का उद्गम हुआ।
श्रम-विभाजन को त्वरित गति देने वाले प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) जनसंख्या में वृद्धि-दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या के आकार और उसके घनत्व में वृद्धि से मिश्रित समाज बनने लगते हैं, शहरीकरण बढ़ता है और श्रम-विभाजन में वृद्धि होती है।
(2) सामूहिक चेतना का क्रमिक ह्रास-जैसे-जैसे समाज की जटिलता तथा उसकी विषमताएँ बढ़ती हैं, त्योंत्यों व्यक्तिगत चेतना बढ़ती जाती है और सामूहिक चेतना का ह्रास होने लगता है, व्यक्तिगत दृष्टिकोण का विकास होता है और विषमताओं में सामञ्जस्य स्थापित करने के लिए श्रम-विभाजन का विकास होता है।
(3) पैतकता का ह्रास-दुर्थीम का कहना है कि जब पैतृकता का महत्त्व कम होने लगता है तो श्रम-विभाजन का विकास होता है क्योंकि पैतृकता के ह्रास होने से व्यक्तियों की भिन्नताओं का विकास होता है।
श्रम-विभाजन के परिणाम दुर्थीम ने श्रम-विभाजन के अनेक परिणामों को गिनाया है, उनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं-
(1) कार्य करने की स्वतंत्रता में वृद्धि-श्रम-विभाजन में वृद्धि के परिणामस्वरूप कार्य करने की स्वतंत्रता और गतिशीलता में वृद्धि हो जाती है। मनुष्य अपनी विशेष योग्यताओं को किसी एक विशिष्ट कार्य में लगाने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। इससे विशेषीकरण बढ़ता है।
(2) सभ्यता का विकास-श्रम-विभाजन में वृद्धि से सभ्यता का विकास होता है।
(3) सामाजिक प्रगति-श्रम-विभाजन सामाजिक परिवर्तन को जन्म देता है और सामाजिक परिवर्तन से सामाजिक प्रगति होती है।
(4) सहयोग श्रम-विभाजन में वृद्धि से परस्पर अन्तर्निर्भरता बढ़ती है जो सहयोग को जन्म देती है।
(5) व्यक्तिवादी दृष्टिकोण-श्रम-विभाजन में वृद्धि के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत चेतना व व्यक्तिगत दृष्टिकोण का विकास होता है।
श्रम-विभाजन सिद्धान्त की आलोचनाएँ दुर्थीम के श्रम-विभाजन सिद्धान्त की अग्रलिखित प्रमुख आलोचनाएँ की गई हैं
(1) बोगाई तथा बर्न्स ने लिखा है कि दुर्शीम ने श्रम-विभाजन के अन्य कारणों की उपेक्षा की है।
(2) श्रम-विभाजन की यह व्याख्या समाजशास्त्रीय न होकर प्राणीशास्त्रीय व्याख्या है।
(3) दुर्शीम ने श्रम-विभाजन के आधार पर सामाजिक उद्विकास की व्याख्या की है, लेकिन मर्टन ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि दुर्थीम ने प्राचीन खण्डात्मक (आदिम) समाजों को एक छोर पर रखा है और आधुनिक समाजों को दूसरे छोर पर और इस प्रकार सामाजिक जीवन के उद्विकास की रेखीय विवेचना कर दी है, जो कि असंगत
(4) दुर्शीम ने अपने श्रम-विभाजन के सिद्धान्त में व्यक्तिवाद का अत्यन्त उदारवादी स्वरूप प्रस्तुत किया है, जो अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है।
प्रश्न 4.
वर्ग की अवधारणा पर मार्क्स के विचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स की वर्ग की अवधारणा मार्क्स ने वर्ग से संबंधित अपने विचार विशेष रूप से अपनी कृति 'दास कैपीटल' के तीसरे खण्ड के अन्तिम अध्याय 'सामाजिक वर्ग' में व्यक्त किये हैं। मार्क्स के लिए, व्यक्ति को सामाजिक समूहों में विभाजित करने का मुख्य तरीका उत्पादन के संदर्भ में था। उसके अनुसार सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं। मार्क्स ने वर्ग की अवधारणा को आर्थिक, ऐतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा है। यथा
(1) आर्थिक परिप्रेक्ष्य-आर्थिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार मार्क्स ने वर्ग की अवधारणा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वर्ग का निर्माण आर्थिक स्रोतों के आधार पर होता है। एक वर्ग वह है जिसका आय या उत्पादन के स्रोतों पर नियंत्रण होता है और दूसरा वर्ग वह है, जो उसके अधीन होता है। इस आर्थिक स्रोत के कारण ही समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं जिनमें निरन्तर संघर्ष होता रहता है।
(2) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-मार्क्स ने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से वर्ग की व्याख्या करते हए कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र में लिखा है, "अभी तक आविर्भूत समस्त समाज का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है।" मार्क्स और एंजिल्स ने विभिन्न वर्गों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "आजाद तथा दास, कुलीन तथा जनसामान्य, जमींदार एवं सर्फ, श्रेणी प्रमुख तथा कारीगर; एक शब्द में शोषक और शोषित, एक दूसरे का विरोध लगातार करते रहे हैं, निरन्तर, कभी दबे रूप में, कभी खुले रूप में युद्ध।"
(3) मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य-कार्ल मार्क्स ने वर्गों का अर्थ मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि वर्गों में एकता और चेतना का गुण विद्यमान होता है। सर्वहारा वर्ग एक क्रांतिकारी वर्ग है जो क्रांति के द्वारा पूँजीवादी तथा बुर्जुआ वर्ग को समाप्त कर देगा और फिर वर्ग-विहीन राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की रचना होगी।
वर्ग की विशेषताएँ
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कार्ल मार्क्स की वर्ग की अवधारणा की निम्न प्रमुख विशेषताएँ बताई जा सकती हैं
(1) बड़ा मानव समूह-मार्क्स ने लिखा है कि वर्ग के लिए बहुत बड़ा मानव-समूह या समाज होना चाहिए अर्थात् वर्ग जनता का एक बड़ा समूह होता है।
(2) समान आर्थिक गतिविधियों-बहुत बड़े मानव समूह में समान आर्थिक गतिविधियों का होना आवश्यक है। मार्क्स ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "वर्ग समाज के सदस्यों का ऐसा समूह होता है जो अपनी जीविका एक विशेष प्रकार से अर्जित करता है।" उदाहरण के लिए एक दुकान में दो खाती कार्य करते हैं। इनमें एक दुकान का मालिक है और दूसरा वेतनभोगी श्रमिक। ऐसी स्थिति में दोनों एक ही वर्ग में सम्मिलित नहीं हो सकते क्योंकि दोनों सदस्यों की जीविका अर्जित करने के ढंग अलग-अलग हैं।
(3) समान जीवन शैली, संस्कृति तथा हितों का होना-जब विशिष्ट प्रकार से जीविका अर्जित करने वाले बड़े मानव-समूह के सदस्यों की जीवन शैली समान होगी, उनकी संस्कृति तथा हित समान होंगे, तब ही वे एक 'वर्ग' का निर्माण कर सकेंगे।
(4) समान हितों की वर्ग चेतना का होना-वर्ग निर्माण की एक अन्य आवश्यक शर्त है-
'वर्ग-एकता की चेतना' का होना। मार्क्स और एंजिल्स ने 'जर्मन आइडियालॉजी' में लिखा है.कि "एक ही धन्धे को करने वाले लोग, जिनकी आर्थिक अवस्था और काम की दशाएँ समान होती हैं और इसी तरह उनके शोषण के तरीके समान होते हैं, वर्ग नहीं बनाते। वर्ग के लिए बहुत बड़ी अनिवार्यता वर्ग-चेतना और वर्ग-संगठन है।
काम की दशाएँ कितनी ही अमानवीय हों, मजदूर का जीवन कितना ही नारकीय हो, लेकिन जब तक उसमें वर्ग-चेतना नहीं आती, तब तक वे वर्ग नहीं बनते।" उदाहरण के लिए छोटे कृषक बड़े मानव समूह का निर्माण करते हैं, समान आर्थिक क्रियाएँ करते हैं तथा समान दशाओं में रहते हैं लेकिन वे एक दूसरे से अलग-थलग रहते हैं और उनमें अपने समान हितों की चेतना नहीं है, तो वे वर्ग का निर्माण नहीं करते हैं।
(5) प्रतिरोध की भावना-वर्ग के लिए यह भी आवश्यक है कि उनमें दूसरे वर्ग से पृथक होने की भावना विद्यमान हो । वर्गों में एक-दूसरे के प्रति प्रतिरोध की भावना पायी जाती है। मार्क्स का कहना है कि वर्ग मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं-
(6) वर्ग संगठन की स्थापना-मार्क्स की 'वर्ग-अवधारणा' की एक अन्य विशेषता यह बताई है कि आर्थिक संरचना, ऐतिहासिक परिस्थिति तथा वर्ग-चेतना की परिपक्वता के आधार पर वर्ग को एक वर्ग-संगठन की स्थापना भी करनी पड़ती है। मार्क्स ने लिखा है कि "वर्ग-चेतना और वर्ग-संगठन ऐसे दो खंभे हैं, जिन पर वर्ग का ढाँचा खड़ा हुआ
(7) वर्ग-संघर्ष-मार्क्स का कहना है कि शोषक वर्ग और शोषित वर्ग में अपने-अपने स्वार्थों को लेकर एक संघर्ष पाया जाता है।
प्रश्न 5.
सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विभिन्न वर्ग-संरचनाओं को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ तथा विभिन्न वर्ग-संरचनाएँ
मार्क्स ने अपने वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए इतिहास का सहारा लिया है। उसने सामाजिक विकास की निम्नलिखित अवस्थाएँ बताई हैं
(1) आदिम साम्यवादी समाज-आदिम साम्यवादी समाज की पहली अवस्था है। इसमें उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व था। इसलिए सभी सदस्य बराबर थे। इस प्रकार इस काल में न कोई वर्ग था और न वर्ग-संघर्ष।
(2) दासमूलक समाज में वर्ग-व्यक्तिगत सम्पत्ति के आविर्भाव के बाद दासमूलक समाज व्यवस्था का विकास हुआ। यह एक कृषक और लघु उत्पादकों का समाज था। लेकिन कुछ लोगों ने धन संचय कर शक्ति और सम्पत्ति के बल . पर उत्पादन के साधनों को हथिया लिया और शेष जनता अपने भरण-पोषण के लिए उन पर आश्रित हो गई। इस प्रकार दास वर्ग का जन्म हुआ। दासों को अपने ऊपर हमेशा आश्रित रहने के लिए उनके परिवार, शरीर और श्रम पर पूर्ण अधिकार कर लिया गया। उनके पास केवल व्यक्तिगत उपयोग की चीजें होती थीं, जिन्हें भी उनका मालिक जब चाहे छीन सकता था। इस प्रकार दास एक प्रकार की सम्पत्ति बन गये। उनका नाम केवल अपने मालिक के लिए श्रम करना, उत्पादन करना था। दास ही समस्त उत्पादन करते थे, जिसे मालिक हड़प लेते थे।
इस प्रकार दास-मूलक समाज में दो वर्ग बन गये-
(3) सामन्ती समाज में वर्ग-
आगे चलकर समाज के स्वरूप में परिवर्तन आया। शक्ति के बल पर सामन्तों ने अपने राज्य कायम किये तथा राजा कहलाये। इन राजा सामन्तों ने सारी भूमि पर कब्जा कर लिया और शेष जनता अपने भरण-पोषण के लिए अब इन सामन्तों पर आश्रित हो गई। जनता खेतों पर काम करती थी, बदले में सामन्तों से अनाज प्राप्त करती थी। इन श्रमिकों को मार्क्स ने 'सर्फ' कहा है। इनकी स्थिति दासों से थोड़ी भिन्न थी। दासों पर स्वामी का स्वाभाविक अधिकार था, वे चाहे जब खरीदे व बेचे जा सकते थे।
सर्फ श्रम करते थे और उसके बदले में सामन्त से पारिश्रमिक लेते थे। इसके साथ ही सामन्त सॉं की रक्षा और न्याय का दायित्व भी लेते थे। उत्पादन के साधनों पर सामन्तों का अधिकार था और श्रम का दायित्व सौ पर था। पुरोहित, व्यापारी वर्ग भी जनता का शोषण करते थे। अतः ये भी शोषण वर्ग में सम्मिलित हो गये। इस प्रकार सामन्ती समाज में दो प्रमुख वर्ग थे-सामन्त (जमींदार) तथा सर्फ।
(4) पूँजीवादी समाज के प्रारंभ में वर्ग-सामन्तों का शोषण जब चरम सीमा पर पहुँच गया तो जनता में असन्तोष बढ़ा। इस असन्तोष का लाभ व्यापारी वर्ग ने उठाया। व्यापारी वर्ग ने कृषकों को अधिक उत्पादन कर अधिक बचाने का प्रलोभन दिया। इस प्रलोभन से कृषकों और सामन्तों में संघर्ष और बढ़ गया। व्यापारियों ने धन के बल पर कृषकों और श्रमिकों को संगठित कर उसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। फलतः सामन्ती व्यवस्था का पतन हो गया। इसका लाभ व्यापारियों को मिला। उसने उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार स्थापित कर लिया।
प्रारंभ में श्रेणी प्रमुख और कारीगर नामक दो प्रमुख वर्ग बने। बाद में औद्योगीकरण से पूँजीपति और अधिक शक्तिशाली हो गये और पूँजी का संचय कुछ थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में हो गया। यह पूँजीपति वर्ग कहलाया। शेष जनता बेरोजगार हो गयी तथा पूँजीपतियों के कारखानों में श्रम बेचकर अपना जीवनयापन करने लगी। यह सर्वहारा वर्ग या श्रमिक वर्ग कहलाया। यह वर्ग पूँजीपति वर्ग का विरोधी है। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के सभी साधनों पर बुर्जुआ वर्ग का अधिकार होता है। दूसरी तरफ, श्रमिक वर्ग का उत्पादन के सभी साधनों पर से अधिकार समाप्त हो जाता है। उसके पास जीवित रहने के लिए, सिवाय अपने श्रम को बेचने के दूसरा कोई रास्ता नहीं रह जाता है क्योंकि उनके पास श्रम के अतिरिक्त कुछ बचा ही नहीं है।
(5) समाजवादी समाज में वर्ग-पूँजीवादी व्यवस्था अपने ही अन्तर्विरोध के कारण समाप्त हो जाती है क्योंकि इसमें सर्वहारा वर्ग संगठित होकर क्रांति कर देते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर देते हैं। इसके बाद सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित होता है जो राज्य की शक्ति की सहायता से पूँजीपति वर्ग का सफाया कर देता है। इस समाजवादी व्यवस्था में शोषक तत्व लाभ के स्थान पर सामाजिक हित स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिये जाते हैं। यह अवस्था एक अन्तरिम अवस्था है।
(6) साम्यवादी समाज और वर्गविहीन समाज-साम्यवाद मार्क्स की अन्तिम समाज व्यवस्था की कल्पना है। यह वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन समाज-व्यवस्था है। इसमें वर्ग नहीं रहेंगे। सर्वहारा वर्ग उत्पादन के समस्त साधनों का स्वामी होगा। न कोई शोषक होगा और न शोषित होगा।
प्रश्न 6.
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये।
अथवा
"अब तक के ज्ञात समस्त समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है।" मार्क्स के इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) समाज की प्रत्येक अवस्था में दो वर्ग रहे हैं-कार्ल मार्क्स के अनुसार मानव का अब तक का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। जिस प्रकार आधुनिक पूँजीवादी समाज दो प्रमुख वर्गों-पूँजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग में विभाजित है, ठीक उसी प्रकार मानव समाज की प्राचीन ऐतिहासिक अवस्थाओं में भी प्रत्येक समाज दो प्रमुख वर्गों में विभाजित रहा है। आधुनिक पूँजीवादी समाज के दोनों वर्गों में जिस प्रकार से आज संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, बिल्कुल ठीक उसी प्रकार का वर्ग-संघर्ष मानव समाज की प्राचीन अवस्थाओं में भी था।
मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आर्थिक उत्पादन किया जाता है। आर्थिक उत्पादन की शक्तियों पर समाज के कुछ थोड़े से लोगों का आधिपत्य स्थापित होता आया है अर्थात् उत्पादन के सभी साधनों तथा उपकरणों का स्वामित्व कुछ लोगों के अधिकार में आ जाता है। इस प्रकार उत्पादन के साधनों के स्वामी एक विशेष वर्ग का निर्माण करते हैं; शेष समाज के लोग इन उत्पादन के साधनों व उपकरणों से वंचित रहते हैं। ये लोग पहले वर्ग के लोगों के दास, अधीनस्थ तथा सेवक के रूप में कार्य करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक समाज स्पष्ट रूप से दो वर्गों में विभक्त हो जाता है। उत्पादन के साधनों के स्वामी वर्ग को मार्क्स ने 'शोषक वर्ग' कहा है और उत्पादन के साधनों से वंचित सेवक वर्ग को 'शोषित वर्ग' कहा है।
(2) वर्गों का निर्माण-सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया में, जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं । उत्पादन की प्रक्रिया में अपनी स्थिति के अनुसार तथा सम्पत्ति के सम्बन्धों में, उनके एक जैसे हित तथा उद्देश्य होते हैं। दूसरे शब्दों में, 'वर्ग ऐसे लोगों के समूह को कहते हैं जो अपनी जीविका एक ही ढंग से कमाते हैं।' मार्क्स के अनुसार वर्गों का निर्माण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत होता है, जो उत्पादन में सहायक शक्तियों की स्थिति में परिवर्तन तथा पहले से विद्यमान वर्गों के मध्य होने वाले संघर्षों के फलस्वरूप होता है। इस प्रकार उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के साथ-साथ नये वर्गों का जन्म होता रहता है व पुराने वर्ग समाप्त होते रहते हैं । मार्क्स ने कुछ समाजों के वर्गों का विस्तार से वर्णन किया है, जिसमें प्रमुख हैं दासमूलक समाज में वर्ग, सामन्ती समाज में वर्ग और पूँजीवादी समाज में वर्ग।
(3) वर्ग-संघर्ष का इतिहास-मार्क्स वर्ग संघर्ष के प्रतिपादक थे। कार्ल मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास को पाँच प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-
इनके मतानुसार आदिकालीन समाज को छोड़कर शेष सभी समाज स्तरित होते चले गये और वर्गों के आधार पर उनमें सामाजिक स्तरीकरण होता चला गया। संसार के सभी समाज प्रायः दो वर्गों में विभक्त होते गये। वर्ग विभाजन के आर्थिक आधारों में परिवर्तन होने पर वर्गों के रूप में भी परिवर्तित होते गये। ये दास युग में स्वामी और दास वर्गों में, भूस्वामी समाज में भू-स्वामी और सेवक वर्गों में, पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग के रूप में परिवर्तित होते गये।
(4) वर्ग-संघर्ष-मार्क्स ने 'कम्युनिस्ट मैनिफस्टो' में लिखा है कि प्रत्येक विद्यमान समाज का इतिहास वर्गसंघर्ष का इतिहास है। प्रत्येक युग में दो प्रमुख वर्ग रहे हैं । एक वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है और समाज की संगठित शक्ति उसके हाथ में हुआ करती है; दूसरा वर्ग उन लोगों का होता है, जो उत्पादन के साधनों से प्रायः वंचित हुआ करते हैं। इस प्रकार समाज सदैव शोषक वर्गों और शोषित वर्गों में विभाजित रहा है। इन वर्गों के हित परस्पर विरोधी होते हैं। इसलिए उनके बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। विभिन्न वर्गों के हितों में कभी मेल नहीं हो सकता, इसलिए उनका संघर्ष कभी समाप्त नहीं हो सकता।
(5) वर्ग-संघर्ष का स्त्रोत वर्ग-हितों का प्रतिरोध-वर्ग-संघर्ष का स्रोत वर्ग-हितों का प्रतिरोध है। जो एक वर्ग का हेतु है, वह दूसरे वर्ग का प्रतिरोध है। उदाहरण के लिए पूँजीवादी समाज में मजदूर और पूँजीपति के हित परस्पर विपरीत होते हैं । एक वर्ग के रूप में पूँजीपति वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) शोषण को बढ़ाने, पूँजीवादी प्रणाली को बनाए रखने और अपने आर्थिक-राजनैतिक प्रभुत्व को सुदृढ़ करने में दिलचस्पी रखता है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग पूँजीवादी व्यवस्था में अपनी दयनीय स्थिति के कारण शोषण का उन्मूलन करने, निजी स्वामित्व का खात्मा करने तथा शोषक राज्य को नष्ट करने में दिलचस्पी रखता है। इस प्रकार दोनों वर्गों में संघर्ष चलता रहता है।
(6) वर्ग चेतना-मार्क्स का कहना है कि अगर दो वर्ग सिद्धान्ततः एक-दूसरे के विरोधी भी हों तो भी वे स्वतः संघर्ष में नहीं पड़ते हैं। संघर्ष होने के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने वर्ग-हित तथा पहचान के प्रति जागरूक हों, साथ ही, अपने विरोधी वर्ग के हितों तथा पहचान के प्रति सजग रहें। इस प्रकार की 'वर्ग-चेतना' के विकसित होने के उपरांत राजनैतिक गोलबन्दी के तहत वर्ग-संघर्ष होते हैं। इस प्रकार के संघर्षों से शासक वर्ग को उनके द्वारा उखाड़ फेंका जाता है जो पहले से शासित या अधीनस्थ वर्ग होता है-इसे ही क्रांति कहते हैं।
(7) राजनीतिक तथा सामाजिक स्थितियाँ-मार्क्स के अनुसार आर्थिक प्रक्रियायें ज्यादातर वर्ग-संघर्ष को जन्म देती हैं, हालांकि यह राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों पर भी निर्भर करता है। आर्थिक प्रक्रियाएँ स्वतः क्रांति का नेतृत्व नहीं करतीं बल्कि सामाजिक और राजनैतिक प्रक्रियाएँ भी समाज को पूर्णतः परिवर्तित करने के लिए आवश्यक होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के अन्तर्गत वर्ग-संघर्ष क्रांति के रूप में परिणत हो जाता है। मार्क्स के वर्ग संघर्ष सिद्धान्त की आलोचना । मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त की अग्रलिखित प्रमुख आलोचनाएँ की गई हैं
(1) संघर्ष की गलत व्याख्या-मार्क्स वर्ग-संघर्ष का मूल कारण आर्थिक मानता है, लेकिन तथ्यों से यह सिद्ध नहीं होता। विभिन्न समयों में संघर्ष के विभिन्न कारण रहे । यश की इच्छा, पद-लोलुपता, अंह की प्रवृत्ति, महत्वाकांक्षा, श्रेष्ठता की भावना तथा स्वार्थपरता आदि अनेक भावनाएँ संघर्ष को प्रेरित करती हैं। धर्मांधता के कारण युद्ध हुए, हत्यायें हुईं, संघर्ष हुए, उनके मूल में प्राचीन परम्पराओं व मान्यताओं को कायम रखना तथा दूसरों पर लादना रहा। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्ग-संघर्ष की व्याख्या का आधार एकांगी है।
(2) केवल दो वर्गों की धारणा त्रुटिपरक-आलोचकों का मत है कि समाज में केवल दो ही वर्ग नहीं होते। उदाहरण के लिए वर्तमान पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के अतिरिक्त एक और शक्तिशाली और प्रमुख वर्ग है, वह है-मध्यम वर्ग। समाज की लगभग सभी अवस्थाओं में यह बराबर रहा है और इसकी प्रभावी भूमिका रही है। अतः मार्क्स की दो वर्गों की धारणा त्रुटिपरक है।
(3) समाज की प्रगति का आधार संघर्ष के साथ सहयोग भी होता है-वर्गीय सम्बन्ध के दो पक्ष हैं
विरोध तभी पैदा होता है जब यह सहयोग की भावना किसी कारण टूट जाती है। इस प्रकार मार्क्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त वर्ग-सहयोग की उपेक्षा करता है। क्रोपोटकिन ने अनेक अन्वेषणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि मानवता की प्रगति सहयोग और एकता के कारण हुई है, न कि वर्ग-संघर्ष, घृणा व द्वेष के कारण।
(4) वर्ग-संघर्ष के अन्त की धारणा अवैज्ञानिक-मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त में यह धारणा भी त्रुटिपरक है कि वर्ग-संघर्ष के अन्त में सर्वहारा वर्ग की पूँजीपति वर्ग पर विजय होगी और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जायेगा। मार्क्स ने इसका कोई वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत नहीं किया है। दूसरे, यह आवश्यक नहीं है कि पूँजीपति वर्ग की समाप्ति के बाद सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथों में आए। फासिस्ट अधिकनायकशाही आदि अन्य तत्व भी सत्ता हथिया सकते हैं।
प्रश्न 7.
मैक्स वेबर द्वारा प्रदत्त 'आदर्श प्रारूप' की अवधारणा की विवेचना कीजिये।
अथवा
आदर्श प्रारूप की परिभाषा दीजिये। सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में इसकी उपयोगिता की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
आदर्श प्रारूप से आशय-वेबर का 'आदर्श प्रारूप' सामाजिक घटना का तार्किक एकरूपीय मॉडल है जो इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को रेखांकित करता है। विश्लेषण में सहायता के लिए बनाए गए अवधारणात्मक प्रारूप होने के कारण इसका निर्माण यथार्थ को हू-ब-हू दर्शाने के लिए नहीं हुआ है। 'आदर्श प्रारूप' विश्लेषणात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रघटना प्रारूपों को बढ़ा-चढ़ाकर तथा दूसरों को कमतर दिखाते हैं । इस प्रकार आदर्श प्रारूप का मुख्य कार्य अध्ययनरत सामाजिक प्रघटना के मुख्य प्रारूपों को जोड़ने तथा उनके विश्लेषण में सहायता करना है।
अतः आदर्श प्रारूप का अभिप्राय किसी आदर्श या किसी प्रकार के मूल्यांकन से नहीं है, बल्कि सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक तथ्यों के विश्लेषण के लिए सामाजिक घटनाओं को समानताओं के आधार पर कुछ विशेष श्रेणियों में विभाजित कर लेना ही आदर्श प्रारूप की स्थापना करना है। दूसरे शब्दों में आदर्श प्रारूप का अर्थ हैवास्तविक सामाजिक जीवन में जो तथ्य पाये जाते हैं, उनमें से विचारपूर्वक कुछ तथ्यों का चयन किया जाए और उन्हें अध्ययन के लिए एक पैमाना या मान माना जाए।
यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण वास्तविकता के आधार पर किया जाता है फिर भी यह वास्तविकता के बराबर नहीं होता है और न ही वास्तविकता का औसत । वास्तविकता से कुछ विशेषताओं का चयन अध्ययनकर्ता अपने आदर्श-प्रारूप के लिए चुनेगा और प्रत्येक अध्ययनकर्ता अपना भिन्न आदर्श प्रारूप बना सकता है। वेबर ने अपने विश्लेषण में सत्ता, प्रोटेस्टेण्ट धर्म, पूँजीवाद, युद्ध, धर्म आदि आदर्श प्रारूपों को लिया है। आदर्श प्रारूप की विशेषताएँ उपर्युक्त विवेचन के आधार पर आदर्श प्रारूप की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं-
(1) आदर्श प्रारूप में जो कुछ है, उसका वास्तविक जीवन में होना आवश्यक नहीं है-आदर्श प्रारूप में जिन लक्षणों को रखा जाता है, आवश्यक नहीं है कि वे लक्षण वास्तविक घटनाओं में भी मिलें। हो सकता है कि आदर्श प्रारूप के कुछ लक्षण वास्तविक घटनाओं में मिल जाएँ और उसके कुछ लक्षण नहीं मिलें। उदाहरण के लिए, पूँजीवाद के आदर्श प्रारूप में हम कुछ लक्षणों को सम्मिलित करते हैं, लेकिन जब हम पूँजीवाद को भारत में साकार रूप में देखते हैं, तो यह हो सकता है कि उसके कुछ लक्षण इसमें न मिलें।
(2) एक विवेकपूर्ण ब्लू प्रिंट-जिस सामाजिक तथ्य के सम्बन्ध में आदर्श-प्रारूप बनाया जाता है, उसका एक खाका विवेकपूर्ण ढंग से आदर्श प्रारूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन वास्तविक संसार में यथार्थ तो बदलता रहता है, लेकिन उससे सम्बन्धित आदर्श प्रारूप में इन परिवर्तनों का कोई समावेश नहीं होता है। इस प्रकार आदर्श-प्रारूप का मुख्य आधार विवेक है।
(3) एक सामाजिक घटना के महत्त्वपूर्ण पक्षों का निरूपण-आदर्श प्रारूप 'सब कुछ' का वर्णन या विश्लेषण नहीं है, यह तो सामाजिक घटना के महत्त्वपूर्ण पक्षों का निरूपण है।
(4) प्राक्कल्पनात्मक-आदर्श प्रारूप की प्रकृति प्राक्कल्पनात्मक होती है क्योंकि यह मूल्यों के उन्मुख पर आधारित है, इसलिए शोधकर्ता प्रघटना के बारे में अपनी प्राक्कल्पनाएँ बनाता है।
(5) एक विशद्ध प्रयोगात्मक प्रविधि-जुलियन फ्रेन्ड ने लिखा है कि "आदर्श प्रारूप एक प्रकार की विशुद्ध प्रयोगात्मक प्रविधि है, जिसका निर्माण सामाजिक-वैज्ञानिक अपने मनमाने ढंग से करता है। यदि कोई प्रारूप सामाजिक-वैज्ञानिक के शोध में कारगर सिद्ध नहीं होता तो बिना किसी हिचक के वह उसे फेंक देता है।"
प्रश्न 8.
वेबर के मत में समाजशास्त्र व्याख्यात्मक है और इसलिए यह सामाजिक क्रिया का कार्यकरण विवेचन भी है। मत व्यक्त कीजिये।
अथवा
मेक्स वेबर के समाजशास्त्रीय योगदान का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
भूमिका-मैक्स वेबर एक बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। उन्हें समाजशास्त्र के संस्थापकों में गिना जाता है। उनके समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों का समन्वय देखने को मिलता है। मैक्स वेबर ने कानून, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्र का गहन अध्ययन किया और अपने कार्यों को व्यापक आधार पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। उन्होंने पूँजीवाद के विकास की व्याख्या की, धर्म के समाजशास्त्र, राजनीतिक, समाजशास्त्र और विधि समाजशास्त्र का सूत्रपात किया और अपने पद्धतिशास्त्र का प्रतिपादन किया।
उनका पद्धतिशास्त्र उपर्युक्त विषयों के विवेचन से ही सम्भव हुआ। मैक्स वेबर के प्रमुख कार्य (Main Works of Max Weber) अथवा मैक्स वेबर का समाजशास्त्रीय योगदान (Sociological Contribution of Max Weber) वेबर के समस्त प्रमुख समाजशास्त्रीय कार्यों को (सिद्धान्तों को) निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत विभाजित कर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है- समाजशास्त्र सामाजिक क्रिया का कार्यकरण निर्वचन है-वेबर के अनुसार समाजशास्त्र, सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। सामाजिक क्रियायें वे व्यवहार हैं जो अर्थपूर्ण एवं दूसरों के व्यवहारों से प्रभावित होते हैं।
समाजशास्त्र में केवल सामाजिक व्यवहारों को निर्धारित करने वाली सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन ही किया जाता है। मैक्स वेबर के शब्दों में, "समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का विश्लेषणात्मक बोध करने का प्रयत्न करता है।" वेबर ने समाजशास्त्र को समस्त प्रकार की क्रियाओं व व्यवहारों के अध्ययन से पृथक् कर सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन तक ही सीमित किया। इसका प्रमुख कारण वे समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।
इसके लिए आवश्यक था कि समाजशास्त्रीय नियमों को तार्किक एवं अनुभवसिद्ध बताया जा सके। वेबर ने समाजशास्त्र को एक सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन बताकर उसे तार्किक एवं अनुभवजन्य सिद्ध किया तथा उसे सामाजिक क्रिया का एक व्यापक विज्ञान कहा है। वेबर ने सामाजिक क्रिया का व्यापक विश्लेषण करते हुए उसके चार प्रकारों का वर्णन किया है-लक्ष्यमूलक, मूल्यमूलक, भावात्मक तथा परम्परात्मक। वेबर समाजशास्त्र के स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Fromal School) के प्रतिपादक हैं। वे कहते हैं कि समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं का विज्ञान है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(i) समाजशास्त्र का अध्ययन मूल्यों से मुक्त रहकर नहीं किया जा सकता-वेबर का मत है कि समाजशास्त्रीय विज्ञान का प्रारंभ एक निश्चित कार्यप्रणाली से होता है। यह कार्यप्रणाली निश्चित शोधकर्ता के व्यक्तित्व और अवलोकन की जो स्थिति होती है उस पर निर्भर करती है। समाजशास्त्रीय विषय-वस्तु पर अनुसंधान करने वाला लेखक अवलोकनीय वस्तु के विषय में अपने निजी या व्यक्तिगत-मूल्य रखता है। ऐसी अवस्था में पूर्व निर्धारित मूल्य भी कार्यविधि में सम्मिलित हो जाते हैं। अब यदि विज्ञान के सार्वभौमिक सत्य को जानना है तो शोधकर्ता को व्यक्तिनिष्ठ दशाओं के माध्यम से सार्वभौमिक प्रामाणिकता का पता लगाना चाहिए।
(ii) समाजशास्त्रीय विश्लेषण में मनोविज्ञान को स्थान देना-वेबर की सामाजिक क्रिया के निर्वचन में दो तथ्यों का समावेश है। पहला तथ्य तो मूल्यों से जुड़ा है और दूसरा तथ्य मनोविज्ञान से जुड़ा है। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक क्रिया के अध्ययन का शास्त्र है। सामाजिक क्रिया वह है जो लक्ष्योन्मुख (Goal-oriented) है। इस लक्ष्य का निर्धारण स्वयं कर्ता करता है। अपने निजी मूल्यों के साथ-साथ कर्ता यह भी देखता है कि किसी क्रिया के पीछे परम्परागत पृष्ठभूमि क्या है, विवेक और तार्किकता क्या है? इस तरह वेबर समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का विज्ञान बताते हैं।
(iii) कार्य-कारण सम्बन्धों का समावेश-वेबर की व्याख्या में कार्य-कारण सम्बन्धों का भी समावेश है। यथा.
1. ऐतिहासिक संदर्भ-पहला कार्य-कारण सम्बन्ध ऐतिहासिक है। इसमें यह देखा जाता है कि अतीत में प्रघटनाओं के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे। उदाहरण के लिए यदि हम अल्पसंख्यक समूहों को अपने देश में रखते हैं, उन पर अनुसंधान करते हैं, तो हमें अल्पसंख्यक समूहों के बहुसंख्यक समूहों के साथ सम्बन्ध को ऐतिहासिक संदर्भ में देखना होगा।
2. समाजशास्त्रीय संदर्भ-वेबर दूसरा कार्य-कारण सम्बन्ध समाजशास्त्रीय बताते हैं। इसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि किस प्रकार विषय-वस्तु के विभिन्न भाग नियमित रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, धार्मिक उत्सवों के आयोजन में शोभा यात्राएँ नियमित रूप से समारोह के साथ जुड़ी हुई हैं। अतः स्पष्ट है कि वेबर के अनुसार समाजशास्त्र निर्वचनात्मक है और इसलिए यह सामाजिक क्रिया का कार्यकरण विवेचन भी है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वेबर ने समाजशास्त्र की अवधारणा को एक नये वैज्ञानिक ढंग से विवेचित किया है तथा समाजशास्त्र के 'स्वरूपात्मक सम्प्रदाय' का प्रतिपादन किया है।
(1) पद्धतिशास्त्र (Methodology)-मैक्स वेबर ने पद्धतिशास्त्र के रूप में भी समाजशास्त्र को काफी योगदान दिया है। उन्होंने सामाजिक समंकों के वैज्ञानिक उपागम एवं मूल्य निर्णय उपागम में अन्तर करते हुए इस बात पर बल दिया कि मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन करते समय इन दोनों पद्धतियों को कदापि मिलने नहीं दिया जाना चाहिए। वेबर का पद्धतिशास्त्रीय अन्वेषण अनुभवजन्य है तथा इसका प्रयोग अनुभव के आधार पर समस्याओं के स्पष्टीकरण के साधन के रूप में किया है।
उन्होंने अपने पद्धतिशास्त्र का प्रारम्भ ऐतिहासिक सम्प्रदायों की आलोचना से किया है और इस क्षेत्र में उनका विकास आदर्श प्रारूप की व्यवस्था के रूप में हुआ है। वेबर का मानना था कि समाजशास्त्रियों को अपनी प्रकल्पना की रचना करते समय आदर्श अवधारणा का चयन करना चाहिए। यह आदर्श प्रारूप न तो सामान्य है, न आदर्श, न औसत बल्कि यह वास्तविकता के कुछ विशिष्ट तत्त्वों के विचारपूर्वक चुनाव तथा सम्मेलन के द्वारा निर्मित आदर्शात्मक मान (Standards) हैं।
इस प्रकार आदर्श प्रारूप वास्तविक तथ्यों पर आधारित, तर्कसंगत दृष्टिकोण से युक्त-यथार्थ अवधारणाओं का निर्माण है। इस प्रकार मैक्स वेबर क्या होनी चाहिए? के अध्ययन के स्थान पर क्या है? के अध्ययन पर जोर देते हैं। वेबर की यह अवधारणा आधुनिक समाजशास्त्र के लिए उपयोगी बनी हुई है।
(2) सामाजिक समझ का सिद्धान्त (Theory of Social Understanding)-मैक्स वेबर का समाजशास्त्रीय जगत में एक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान सामाजिक समझ के सिद्धान्त का प्रतिपादन है। सामाजिक समझ के सिद्धान्त को समझाते हुए वेबर कहते हैं कि "सामाजिक समझ के पीछे मुख्य रूप से मनुष्य के व्यवहार होते हैं और इन व्यवहारों के कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं। सामाजिक समझ का मुख्य कार्य मनुष्य के इन व्यवहारों व उसके उद्देश्यों की वैज्ञानिक व्याख्या करना है।" मानव व्यवहारों को समझने पर सामाजिक परिस्थितियों को समझना भी सरल हो जाता है जो इन व्यवहारों को प्रभावित करती हैं। वेबर ने इन परिस्थितियों को दो भागों में बाँट कर समझाया है-
सकता है।
(3) राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology) वेबर ने राजनीतिक समाजशास्त्र के क्षेत्रों में कुछ मौलिक अवधारणायें प्रस्तुत की हैं। इन मौलिक अवधारणाओं के साथ-साथ राजनीतिक पूँजीवाद की विवेचना भी की है। उनकी मौलिक अवधारणाओं में सत्ता, शक्ति प्रभुता अधिकारीतन्त्र एवं संगठन आदि की अवधारणायें प्रमुख हैं। इन राजनीतिक समाजशास्त्रीय अवधारणा के कारण मैक्स वेबर का नाम राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया है।
(4) धर्म का समाजशास्त्र (Sociology of Religion)-वेबर ने अन्य समाजशास्त्रियों की तरह धर्म के आध्यात्मिक पक्ष पर जोर न देकर धर्म तथा आर्थिक घटनाओं के मध्य सम्बन्धों की विवेचना पर अत्यधिक जोर दिया है। वेबर धर्म को आर्थिक घटनाओं से और आर्थिक घटनाओं को धर्म से नियन्त्रित होना मानते हैं। अपनी पुस्तक "द प्रोटेस्टेन्ट इथिक एण्ड दी स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म' में बताया है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म में कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो उन आर्थिक नियमों की व्यवस्था को उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हुई हैं, जिसे हम पूँजीवाद के नाम से जानते हैं । इस प्रकार धर्म का समाजशास्त्रीय जगत को वेबर की एक अनोखी देन है।
(5) विधि का समाजशास्त्र (Sociology of Law) मैक्स वेबर की एक अन्य समाजशास्त्रीय देन उनका विधि का समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में कानून की समाजशास्त्रीय व्याख्याओं पर अधिक साहित्य उपलब्ध होता है। वेबर समाज के लिए कानून को अनिवार्य मानते हैं और सत्ता तथा अधिकारीतन्त्र को कानून का साधन मानते हैं।
(6) कर्मचारी तन्त्र का समाजशास्त्र पर अध्ययन-वेबर की समाजशास्त्र को एक अन्य महत्त्वपूर्ण देन उनका कर्मचारीतन्त्र का समाजशास्त्र पर अध्ययन है। कर्मचारीतन्त्र की विशेषताओं का योरोपीय संस्कृति पर पड़ने वाला प्रभाव तथा कर्मचारीतन्त्र और प्रजातन्त्र के बीच सम्बन्धों की व्याख्या कर वेबर ने परवर्ती समाजशास्त्रियों की पीढ़ी को इस विषय के गहन अध्ययन के लिए उत्प्रेरित किया है।
(7) बुद्धिसंगतता (Rationalization) के प्रत्यय का प्रयोग व उसे तथ्य के रूप में स्वीकति-वेबर ने पश्चिमी सभ्यता की विलक्षणता को समझने में बुद्धिसंगतता (Rationalization) के प्रत्यय का प्रयोग किया है। उनका कहना था कि तर्कपरता सभी सभ्यताओं में पायी जाती है लेकिन अन्य स्थानों में यह जड़त्व की स्थिति में रहती है। उन्होंने पाश्चात्य तर्कपरता को विश्व-दर्शन का आधार बनाने का कभी प्रयास नहीं किया, क्योंकि मूल्यनिरपेक्षता में उनका विश्वास था। इसके साथ ही उन्होंने बुद्धिसंगतता को एक तथ्य के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार युक्तिकरण या बुद्धिसंगत व्याख्या ने उनके समस्त अध्ययनों में एकता प्रदान की है।