Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भौतिक संस्कृति का उदाहरण है
(अ) मानव
(ब) पशु
(स) पुस्तक
(द) विचार
उत्तर:
(स) पुस्तक
प्रश्न 2.
निम्न में से अभौतिक संस्कृति कौनसी नहीं है
(अ) विचार
(ब) ज्ञान
(स) प्रथा
(द) घड़ी
उत्तर:
(द) घड़ी
प्रश्न 3.
भौतिक संस्कृति में गुण होता है
(अ) स्थिरता का
(ब) अमूर्तता का
(स) जटिलता का.
(द) परिवर्तनशीलता का
उत्तर:
(द) परिवर्तनशीलता का
प्रश्न 4.
सांस्कृतिक पर्यावरण निर्मित है
(अ) प्राकृतिक दशाओं द्वारा
(ब) अलौकिक शक्तियों द्वारा
(स) मनुष्य द्वारा
(द) धार्मिक विश्वासों द्वारा
उत्तर:
(स) मनुष्य द्वारा
प्रश्न 5.
"संस्कृति में उत्तराधिकार में प्राप्त कलाकृतियाँ, वस्तुएँ, तकनीकी प्रक्रिया, विचार, आदतें तथा मूल्य शामिल हैं।"
संस्कृति की यह परिभाषा दी है
(अ) मैलिनोवस्की ने
(ब) टायलर ने
(स) लेसली व्हाइट ने
(द) क्लिफोर्ड ग्रीट्ज ने
उत्तर:
(अ) मैलिनोवस्की ने
प्रश्न 6.
संस्कृति के मानकीय पक्ष से सम्बन्धित हैं
(अ) प्रथाएँ तथा कानून
(ब) यातायात के साधन
(स) औजार तथा तकनीकें
(द) यंत्र तथा भवन
उत्तर:
(अ) प्रथाएँ तथा कानून
प्रश्न 7.
समाजीकरण की प्रक्रिया में कौनसी प्राथमिक संस्था सबसे महत्त्वपूर्ण ह
(अ) समाज
(ब) परिवार
(स) मित्र-मण्डली
(द) पड़ोस
उत्तर:
(ब) परिवार
प्रश्न 8.
समाजीकरण का तात्पर्य निम्न में से कौनसा है?
(अ) अपनी संस्कृति को सीखना
(ब) इधर-उधर घूमना
(स) निबन्ध लिखना
(द) मित्रों से वार्तालाप करना
उत्तर:
(अ) अपनी संस्कृति को सीखना
प्रश्न 9.
निम्न में जो समाजीकरण की प्राथमिक संस्था है, वह है
(अ) शिक्षण संस्था
(ब) मित्र-समूह
(स) व्यावसायिक समूह
(द) सांस्कृतिक संस्थाएँ
उत्तर:
(ब) मित्र-समूह
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में कौनसी समाजीकरण की प्राथमिक संस्था नहीं है
(अ) परिवार
(ब) मित्र-मण्डली
(स) विद्यालय
(द) नातेदारी
उत्तर:
(स) विद्यालय
प्रश्न 11.
आपके विचार में नीचे दी गई वस्तुओं में किस चीज की उपस्थिति या अनुपस्थिति आपको व्यक्तिगत रूप से ज्यादा प्रभावित करेगी
(अ) टेलीविजन
(ब) आपका अपना कमरा
(स) घर के कार्यों या अन्य कार्यों के साथ विद्यालय के समय का सामञ्जस्य बैठाना
(द) यात्रा, संगीत की कक्षाएँ।।
उत्तर:
(स) घर के कार्यों या अन्य कार्यों के साथ विद्यालय के समय का सामञ्जस्य बैठाना
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
1. संस्कृति सदा परिवर्तनशील और ............... होती रहती है।
2. जब भौतिक आयाम तेजी से बदलते हैं तो ............... आयाम पिछड़ सकते हैं।
3. व्यक्ति को उसके द्वारा अदा की गई सामाजिक भूमिका ही .............. प्रदान करती है।
4. उपसंस्कृतियों की पहचान शैली, रुचि तथा ............... से होती है।
5. नृजाति केन्द्रवाद विश्वनागरिकतावाद के ............... है जो कि अन्य संस्कृतियों को उनके अन्तर के कारण महत्त्व देती है।
6. प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन से लोगों की ............... में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो सकते हैं।
7. समकक्ष समूह . .. आयु के बच्चों के मैत्री समूह होते हैं।
8. सभी संस्कृतियों में कार्यस्थल एक ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थान है जहाँ ............... की प्रक्रिया चलती है।
उत्तर:
1. विकसित
2. अभौतिक
3. पहचान
4. संघ
5. विपरीत
6. जीवन शैली
7. समान
8. समाजीकरण
निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. समाजीकरण के दौरान हममें से प्रत्येक में स्वयं की पहचान की भावना तथा स्वतंत्र विचारों एवं कार्यों के लिए क्षमता विकसित होती है।
2. विद्यालय एक अनौपचारिक संगठन है।
3. पारंपरिक समाजों में परिवार व्यक्ति के परे जीवन की व्यक्तिगत सामाजिक स्थिति को निर्धारित करता है।
4. व्यक्ति के समाजीकरण की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया द्वितीयक समाजीकरण के दौर में घटित होती है।
5. जब कोई अलग समझ प्रचलित होती है तो संस्कृति में परिवर्तन होते हैं।
6. संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम का सम्बन्ध आचरण के नियमों से है।
7. संस्कृति के भौतिक आयाम में भौतिक साधनों के प्रयोग से संबंधित क्रियाकलाप शामिल हैं।
8. संस्कृति एक सामान्य समझ है जिसको समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक अन्त:क्रिया के माध्यम से सीखा तथा विकसित किया जाता है।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य
6. असत्य
7. सत्य
8. सत्य
निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये-
1. अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना |
(अ) संस्कृति का मानकीय आयाम |
2. अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना |
(ब) संस्कृति का भौतिक आयाम |
3. इंटरनेट चैटिंग |
(स) संस्कृति हस्तांतरित होती रहती है |
4. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है |
(द) संस्कृति मानसिक तरीकों से संबंधित है |
5. संस्कृति सोचने, अनुभव करने और विश्वास करने का तरीका है |
(य) संस्कृति का संज्ञानात्मक आयाम |
उत्तर:
1. अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना |
(य) संस्कृति का संज्ञानात्मक आयाम |
2. अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना |
(अ) संस्कृति का मानकीय आयाम |
3. इंटरनेट चैटिंग |
(ब) संस्कृति का भौतिक आयाम |
4. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है |
(स) संस्कृति हस्तांतरित होती रहती है |
5. संस्कृति सोचने, अनुभव करने और विश्वास करने का तरीका है |
(द) संस्कृति मानसिक तरीकों से संबंधित है। |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सांस्कृतिक विकासवाद क्या है?
उत्तर:
सांस्कृतिक विकासवाद संस्कृति का एक सिद्धान्त है जो यह तर्क देता है कि प्राकृतिक स्पीशीज की तरह ही संस्कृति का विकास भी विभिन्नता और प्राकृतिक चयन द्वारा होता है।
प्रश्न 2.
वृहत् परम्परा से क्या आशय है?
उत्तर:
वृहत् परम्परा में वे सांस्कृतिक परम्पराएँ शामिल हैं जो लिखित हैं तथा समाज के शिक्षित तथा अभिजात वर्ग द्वारा व्यापक रूप से स्वीकृत हैं।
प्रश्न 3.
लघु परम्परा क्या है?
उत्तर:
लघु परम्परा में संस्कृति की वे परम्पराएँ शामिल हैं जो मौखिक हैं तथा ग्रामीण स्तर पर स्वीकृत हैं।
प्रश्न 4.
उप-संस्कृति से क्या आशय है? -
उत्तर:
एक बड़ी संस्कृति के अन्दर लोगों के ऐसे समूह का निर्धारण करना जो प्रतीकों, मूल्यों तथा आस्थाओं को बड़ी संस्कृति से अक्सर उधार लेता है तथा प्रायः इन्हें विकृत कर देता है, ताकि अपने आपको अलग दर्शा सके। ऐसी संस्कृति को उप-संस्कृति कहा जाता है।
प्रश्न 5.
सामान्य बोलचाल में संस्कृति से क्या आशय है?
उत्तर:
रोजमर्रा की बातों में या सामान्य बोलचाल में संस्कृति कला तक सीमित है अथवा कुछ वर्गों या देशों की जीवन-शैली का संकेत करती है।
प्रश्न 6.
टायलर की संस्कृति की परिभाषा लिखिये।
उत्तर:
टॉयलर के अनुसार, "संस्कृति या सभ्यता अपने व्यापक नृजातीय अर्थ में एक जटिल समग्र है जिसमें ज्ञान, आस्था, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा मनुष्य के समाज के सदस्य होने के प्रतिफलस्वरूप प्राप्त अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल हैं।"
प्रश्न 7.
संस्कृति के तीन प्रचलित आयामों के नाम लिखिये।
उत्तर:
संस्कृति के तीन प्रचलित आयाम हैं
प्रश्न 8.
संस्कृति के मानकीय पक्ष का सम्बन्ध किससे है?
उत्तर:
संस्कृति के मानकीय पक्ष का सम्बन्ध आचरण के नियमों से है, जैसे-अन्य व्यक्तियों के पत्र न खोलना या निधन पर अनुष्ठानों का निष्पादन करना।
प्रश्न 9.
संस्कृति के मानकीय पक्ष में किन्हें शामिल किया जाता है?
उत्तर:
संस्कृति के मानकीय पक्ष में लोकरीतियों, लोकाचार, प्रथाओं, परिपाटियों तथा कानूनों को शामिल किया जाता है जो विभिन्न संदर्भो में सामाजिक व्यवहार को दिशा-निर्देश देते हैं।
प्रश्न 10.
हम सामाजिक मानकों का अनुसरण क्यों करते हैं?
उत्तर:
समाजीकरण के परिणामस्वरूप हम प्रायः सामाजिक मानकों का अनुसरण करते हैं क्योंकि हम वैसा करने के अभ्यस्त होते हैं और सभी सामाजिक मानकों के साथ स्वीकृतियाँ होती हैं।
प्रश्न 11.
नजाति केन्द्रवाद की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर:
जब संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तभी नृजाति केन्द्रवाद की उत्पत्ति होती है।
प्रश्न 12.
विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर:
विश्व की विविध शैलियों, रूपों, श्रव्यों तथा कलाकृतियों को शामिल करने से विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान प्राप्त होती है।
प्रश्न 13.
सांस्कृतिक परिवर्तन क्या है?
उत्तर:
सांस्कृतिक परिवर्तन वह तरीका है जिसके द्वारा समाज अपनी संस्कृति के प्रतिमानों को बदलता है।
प्रश्न 14.
क्रांतिकारी परिवर्तन से क्या आशय है?
उत्तर:
जब किसी संस्कृति में तीव्रता से बदलाव आता है और इसके मूल्यों तथा अर्थकारी व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, तो उसे क्रांतिकारी परिवर्तन कहते हैं।
प्रश्न 15.
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति के कोई दो-दो उदाहरण बताइये।
उत्तर:
भौतिक संस्कृति के उदाहरण हैं-कुर्सी-टेबल, पुस्तक आदि। अभौतिक संस्कृति के उदाहरण हैं-प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज आदि।
प्रश्न 16.
संस्कृति की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 17.
समाजीकरण की कोई दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 18:
समाजीकरण की एक परिभाषा लिखिये।
उत्तर:
टालकट पारसन्स के अनुसार, "समाजीकरण में व्यक्ति द्वारा सामाजिक मूल्यों को सीखने और उन्हें आभ्यान्तरीकरण करने को कहा जाता है।"
प्रश्न 19.
समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को मात्र जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करना है।
प्रश्न 20.
समाजीकरण के किन्हीं चार अभिकरणों के नाम लिखिये।
उत्तर:
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संस्कृति के तीन मुख्य आयाम बताइये। उत्तर-संस्कृति के तीन मुख्य आयाम निम्नलिखित हैं-
(1) संज्ञानात्मक आयाम-संज्ञान से आशय समझ से है, ज्ञान प्राप्त करने से है, अर्थात् देखे या सुने जाने वाले व्यवहार को जानने से है। संज्ञानात्मक प्रक्रिया में सभी व्यक्ति अपनी भागीदारी करते हैं। इसमें धर्म, अंधविश्वास, वैज्ञानिक तथ्य, कलाएँ तथा मिथक शामिल किये जाते हैं। इसमें सोचने या विचार करने की प्रक्रियाएँ आती हैं।
(2) मानकीय आयाम-संस्कृति के मानकीय आयाम के अन्तर्गत कार्य करने के तरीकों का उल्लेख किया जाता है। इसके अन्तर्गत नियमों, अपेक्षाओं, प्रथाओं, कानूनों को सम्मिलित किया जाता है।
(3) भौतिक आयाम-संस्कृति के भौतिक आयाम के अन्तर्गत भौतिक साधनों के प्रयोग से संभव कोई भी क्रियाकलाप शामिल है। इसके अन्तर्गत आवास, औजार, कपड़ा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पुस्तकें आदि सम्मलित किये जाते हैं।
प्रश्न 2.
संस्कृति को दो प्रमुख भाग कौन-से हैं?
उत्तर:
संस्कृति के दो प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं
प्रश्न 3.
संस्कृति के चार प्रमुख लक्षण बताइये। उत्तर-संस्कृति के चार प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
प्रश्न 4.
संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रश्न 5.
संस्कृति के मानकीय आयाम को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
प्रश्न 6.
सांस्कृतिक पिछड़ या सांस्कृतिक विलम्बना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्री ऑगबन के अनुसार संस्कृति के भौतिक पक्ष, जैसे-तकनीक इत्यादि का विकास तथा परिवर्तन तेजी से होता है, जबकि संस्कृति के अभौतिक पक्ष में परिवर्तन इतनी तीव्रता से नहीं होता है। इस प्रकार सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में संस्कृति का अभौतिक पक्ष, भौतिक पक्ष से पिछड़ जाता है। इसी को सांस्कृतिक विलम्बना कहते हैं। इससे संस्कृति के पिछड़ने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब अभौतिक आयाम तकनीकी विकास के साथ तालमेल बैठाने में अक्षम रहे।
प्रश्न 7.
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में कोई चार अन्तर लिखिये।
उत्तर:
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में अन्तर-भौतिक और अभौतिक संस्कृति में प्रमुख चार अन्तर निम्नलिखित हैं
प्रश्न 8.
भौतिक संस्कृति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भौतिक संस्कृति से आशय-भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है। मूर्त वस्तुओं से तात्पर्य ऐसी वस्तुओं से है जिन्हें हम देख सकते हैं, छू सकते हैं और इन्द्रियों द्वारा जिनका आभास कर सकते हैं। मूर्त वस्तुओं का एक निश्चित आकार-प्रकार होता है। उदाहरण के रूप में भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत हम कुर्सी, टेबल, पैन, मशीनें, पुस्तक, औजार, कपड़े, उपकरण, टेलीफोन आदि अनेक वस्तुओं को गिना सकते हैं। इस प्रकार मानव द्वारा निर्मित प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु भौतिक संस्कृति का अंग होती है।
प्रश्न 9.
भौतिक संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ भौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 10.
अभौतिक संस्कृति से क्या आशय है?
उत्तर:
अभौतिक संस्कृति-अभौतिक संस्कृति के अर्न्तगत उन सभी सामाजिक तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है जो अमूर्त हैं अर्थात् जिनका कोई माप-तौल, आकार व रूप-रंग नहीं होता। इसके अंगों को इन्द्रियों द्वारा स्पर्श नहीं किया जा सकता और न देखा जा सकता है बल्कि जिन्हें हम केवल महसूस कर सकते हैं। अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत संज्ञानात्मक विचार और ज्ञान सम्बन्धी प्रक्रिया तथा मानकीय तत्वों को शामिल किया जा सकता है। सामान्य रूप से अभौतिक संस्कृति में प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, विचार, विश्वास, सामाजिक-मूल्य, ज्ञान, कला, कानून आदि को समाहित किया जाता है।
प्रश्न 11.
अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ अभौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 12.
"क्या संस्कृति उच्च और निम्न हो सकती है?" समझाइये।
उत्तर:
(1) प्रत्येक समाज की संस्कृति दूसरे से भिन्न होती है-प्रत्येक समाज की संस्कृति तथा सांस्कृतिक प्रतिमान भिन्न होते हैं जो उसे दूसरे समाज से पृथक् करते हैं। प्रत्येक संस्कृति ज्ञान, विज्ञान, कला, विश्वास तथा क्षमताओं आदि के आधार पर पृथक् होती है। इस प्रकार संस्कृति की भिन्नता ही अलग-अलग सांस्कृतिक क्षेत्र बना देती है।
(2) संस्कृति की उपलब्धियाँ-संस्कृति की उपलब्धियाँ भौतिक तथा अभौतिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनकी प्रगति से आंकी जाती हैं। कुछ संस्कृतियों का भौतिक पक्ष अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा प्रगतिशील हो सकता है।
(3) संस्कृति उच्च और निम्न नहीं हो सकती-विभिन्न संस्कृतियों के बीच परस्पर आदान-प्रदान सदैव चलता रहता है। एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के प्रतिमानों को ग्रहण करती है लेकिन कोई भी संस्कृति अपने मूल्यों का पूर्ण लुप्तीकरण नहीं चाहती है। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी संस्कृति को भारतीय संस्कृति पर थोपने का प्रयास किया गया। इस प्रक्रिया में साधारणतः एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के भौतिक पक्ष को तो ग्रहण कर लेती है, लेकिन अभौतिक पक्ष के संदर्भ में ऐसा नहीं होता है। संस्कृति की संरचना चिंतन के प्रतिमानों, अनुभवों तथा व्यवहारों के माध्यम से होती है। चूंकि इन सभी तत्वों में विभिन्नता पायी जाती है अतः विभिन्न संस्कृतियों में भिन्नता स्वाभाविक है।
(4) विश्वव्यापीकरण में व्यक्ति विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को मानता तथा इन्हें अपने अन्दर समायोजित करता है तथा एक-दूसरे की संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए सांस्कृतिक विनिमय तथा लेन-देन को बढ़ावा देता है। विविध शैलियों, रूपों, श्रव्यों तथा कलाकृतियों को शामिल करने से विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान प्राप्त होती है। अतः स्पष्ट है कि कोई संस्कृति दूसरी संस्कृति से उच्च या निम्न नहीं होती है।
प्रश्न 13.
उप-संस्कृति से क्या आशय है? यह कैसे कार्य करती है?
उत्तर:
उप-संस्कृति-एक बड़ी संस्कृति के अन्दर लोगों के ऐसे समूह का निर्धारण करना जो प्रतीकों, मूल्यों तथा आस्थाओं को बड़ी संस्कृति से अक्सर उधार लेता है तथा प्रायः इन्हें विकृत, अतिरंजित या विपरीत कर देता है, ताकि अपने आपको अलग दर्शा सके। ऐसे समूह की इस संस्कृति को उप-संस्कृति कहा जाता है। किसी भी संस्कृति की अनेक उपसंस्कृतियाँ हो सकती हैं, जैसे कि संभ्रान्त वर्ग तथा कामगार वर्ग के युवा । उप-संस्कृतियों की पहचान शैली, रुचि तथा संघ से होती है। किसी विशेष उप-संस्कृति की पहचान उनकी भाषा, कपड़ों, संगीत के विशेष प्रकार के प्रति प्राथमिकता या उनके समूह के अन्य सदस्यों के साथ उनकी अन्तःक्रियाओं के प्रकार से की जा सकती है।
उप-संस्कृति समूह एक सम्बद्ध इकाई के रूप में भी कार्य कर सकता है जो समूह के सदस्यों को पहचान देता है। ऐसे समूहों में नेता तथा अनुयायी हो सकते हैं, परन्तु समूह के सदस्य समूह के उद्देश्यों के प्रति वचनबद्ध होते हैं तथा इकट्ठे होकर इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, आस-पड़ोस के युवा सदस्य क्लब बना सकते हैं ताकि अपने आपको खेलों तथा अन्य रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जा सके। ऐसे कार्यों से सदस्यों की समाज में सकारात्मक छवि बनती है, जो समूह के रूप में उनकी पहचान में रूपान्तरण होता है। समूह अपने को अन्य समूहों से अलग करने में सक्षम होता है और इस तरह आस-पड़ोस में स्वीकृति तथा मान्यता द्वारा अपनी पहचान बनाता है। इस समूह की इस 'सांस्कृतिक पहचान' को ही उप-संस्कृति कहा जा सकता है।
प्रश्न 14.
सांस्कृतिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख कारकों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सांस्कृतिक परिवर्तन से आशय-सांस्कृतिक परिवर्तन वह तरीका है जिसके द्वारा समाज अपनी संस्कृति के प्रतिमानों को बदलता है।
सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण-सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) आंतरिक कारकों द्वारा या बाह्य कारकों द्वारा परिवर्तन-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा आंतरिक या बाह्य हो सकती है। आंतरिक कारणों में, कृषि या खेती करने की नयी पद्धतियाँ, कृषि उत्पादन को बढ़ा सकती हैं जिससे खाद्य उपभोग की प्रकृति तथा कृषक समुदाय की जीवन-शैली में परिवर्तन आ सकता है। दूसरी तरफ, बाह्य हस्तक्षेप, जैसे-जीत या उपनिवेशीकरण से एक समाज के सांस्कृतिक आचरण तथा व्यवहार में गहरे परिवर्तन हो सकते हैं।
(2) प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन या सांस्कृतिक सम्पर्क या अनुकूलन की क्रियाओं द्वारा परिवर्तनप्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन या अन्य संस्कृतियाँ या अनुकूलन की प्रक्रियाओं द्वारा भी सांस्कृतिक परिवर्तन हो सकते हैं। प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन से लोगों की जीवन-शैली में परिवर्तन हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर-पूर्वी भारत तथा मध्य भारत में रहने वाले जनजातीय समुदायों पर जंगली संसाधनों की कमी का विपरीत प्रभाव पड़ा तथा इनकी जीवन-शैली में परिवर्तन आया है।
प्रश्न 15.
क्रांतिकारी सांस्कृतिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
क्रांतिकारी सांस्कृतिक परिवर्तन-जब किसी संस्कृति में तीव्रता से बदलाव आता है और इसके मूल्यों तथा अर्थकारी व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, तभी उसे क्रांतिकारी सांस्कृतिक परिवर्तन कहते हैं। क्रांतिकारी सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण - क्रांतिकारी सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) राजनीतिक हस्तक्षेप-क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रारंभ राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण हो सकता है। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी क्रान्ति (1789) ने फ्रांसीसी समाज में श्रेणीक्रमता की इस्टेट व्यवस्था को नष्ट किया, राजतंत्र को समाप्त किया तथा नागरिकों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व के मूल्यों को जागृत किया। जब कोई अलग समझ प्रचलित होती है तो संस्कृति में भी परिवर्तन होते हैं।
(2) तकनीकी खोज या पारिस्थितिकीय रूपान्तरण-तकनीकी खोज या पारिस्थितिकीय रूपान्तरण के द्वारा भी क्रांतिकारी परिवर्तनों का प्रारंभ हो सकता है। हाल के वर्षों में प्रचार तंत्र, इलैक्ट्रॉनिक तथा मुद्रण दोनों में आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है। इससे जीवन-शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं।
प्रश्न 16.
समाजीकरण की प्रक्रिया का अर्थ बताइये।
उत्तर:
समाजीकरण की प्रक्रिया से आशय-समाजीकरण को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा असहाय शिशु धीरे-धीरे स्वयं जानकारी प्राप्त करता है व आत्म-जागरूक बनता है तथा उस संस्कृति के तरीकों के बारे में भेली-भांति जानता है, जिसमें वह जन्म लेता है। दूसरे शब्दों में, समाज के आदर्शों , मानदण्डों, मूल्यों, लोकाचारों, जनरीतियों आदि को सीखने की प्रक्रिया ही समाजीकरण कहलाती है जो मनुष्य को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार करने का मार्गदर्शन करती है।
प्रश्न 17.
समाजीकरण की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
समाजीकरण की विशेषताएँ-समाजीकरण की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) सीखने की प्रक्रिया-समाजीकरण सीखने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों, मानदण्डों तथा समाज स्वीकृत व्यवहारों को अपनाया जाता है।
(2) आजन्म प्रक्रिया-समाजीकरण जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य अपने जीवन काल के दौरान विभिन्न प्रस्थितियाँ धारण करते हुए, उन्हीं के अनुरूप अपनी भूमिकाओं का निष्पादन करना सीखता है। लेकिन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया आरंभिक वर्षों में घटित होती है जिसे प्रारंभिक समाजीकरण कहा जाता है। बाद के वर्षों में जीवनपर्यन्त चलने वाली समाजीकरण की प्रक्रिया को द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है।
प्रश्न 18.
समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य-समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को मात्र जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करना है। बालक जन्म के समय समाज और सामाजिक व्यवहार के विषय में कुछ भी नहीं जानता है। उसकी आधारभूत शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति परिवार के सदस्यों द्वारा होती है। जैसे-जैसे बच्चा परिवार और समाज में रहकर बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे वह आसपास रहने वाले विभिन्न सदस्यों से समाज के व्यवहार प्रतिमानों, आदर्शों, मूल्यों आदि को सीखकर, एक सामाजिक प्राणी बनने का प्रयास करता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत वह मात्र जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में परिवर्तित हो जाता है। अतः समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बनने में योगदान देना है।
प्रश्न 19.
परिवार समाजीकरण की प्रमुख संस्था कैसे है?
उत्तर:
परिवार समाजीकरण की प्रमुख संस्था के रूप में-समाजीकरण की विभिन्न संस्थाओं में परिवार सबसे प्रथम और महत्त्वपूर्ण है। यथा
प्रश्न 20.
"समाजीकरण जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।" स्पष्ट करें।
उत्तर:
समाजीकरण की प्रक्रिया-समाजीकरण जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। इसे प्रारंभिक समाजीकरण कहा जाता है। इस काल में एक नवजात शिशु धीरे-धीरे स्वयं जानकारी प्राप्त करता है व आत्म-जागरूक बनता है । यह काल उसके व्यक्तित्व के निर्माण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। किशोरावस्था के बाद युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में यह प्रक्रिया सरल हो जाती है क्योंकि तब तक व्यक्ति भाषा का ज्ञान प्राप्त कर अपने आपको विभिन्न सामाजिक भूमिकाओं में ढाल चुका होता है और उसी के अनुरूप आचरण करता है।
परिणामस्वरूप बाद की अवस्थाओं में समाजीकरण की प्रक्रिया स्वचालित हो जाती है। इसे द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है। युवावस्था में वह अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, आर्थिक व व्यावसायिक संस्थाओं और संचार के साधनों से उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। प्रौढ़ावस्था में वह नये उत्तरदायित्व ग्रहण करता है और उनका निर्वहन करता है। वृद्धावस्था में वह नई पीढ़ी के साथ सामञ्जस्य करता है और इसके तहत वह कुछ न कुछ सदैव सीखता रहता है।
प्रश्न 21.
समकक्ष समूह या मित्र-समूह को समाजीकरण की दृष्टि से क्यों महत्त्वपूर्ण माना गया है?
उत्तर:
समकक्ष समूह-समकक्ष समूह समान आयु के बच्चों के मैत्री समूह होते हैं। समाजीकरण भी इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि परिवार के बाद सबसे अधिक समय बालक अपने साथियों के सम्पर्क में रहता है। हम-उम्र होने के कारण वह उनसे अनेक प्रकार के व्यवहार करना सीखता है। यथा
प्रश्न 22.
समाजीकरण के विभिन्न स्तर बताइये।
उत्तर:
समाजीकरण के स्तर-समाजशास्त्री गिडिंग्स ने समाजीकरण के निम्नलिखित दो स्तर बताए हैं
(1) प्राथमिक समाजीकरण-प्राथमिक समाजीकरण शैशवावस्था से किशोरावस्था तक होता है। यह समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण स्तर है क्योंकि बच्चा 'मूलभूत व्यवहार प्रतिमान' इसी स्तर पर सीखता है। प्राथमिक समाजीकरण के तीन उपस्तर निम्नलिखित हैं
(अ) मौखिक अवस्था
(ब) शैशवावस्था और
(स) किशोरावस्था। परिवार प्राथमिक समाजीकरण का सशक्त माध्यम है।
(2) द्वितीयक समाजीकरण-किशोरावस्था के बाद से युवावस्था तक चलने वाली समाजीकरण की प्रक्रिया को द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है। द्वितीयक समाजीकरण एक व्यक्ति के जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। समाजीकरण के इस स्तर पर व्यक्ति व्यवसाय तथा जीविका के साधनों की खोज में प्राथमिक समूहों के अलावा अन्य समूहों से अपने मूल्यों, प्रतिमानों, आदर्शों, व्यवहारों तथा सांस्कृतिक मानदण्डों को ग्रहण करता है। ऐसे समूहों को प्रायः संदर्भ समूह या असदस्यता समूह कहा जाता है।
प्रश्न 23.
समाजीकरण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
समाजीकरण तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रायः यह कहा जाता है कि जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम जन्म लेते हैं तथा परिपक्व होते हैं, उसका हमारे व्यवहार पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है, मानो हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता या इच्छा को छीन लिया गया हो। लेकिन यह विचार मूलतः गलत है। तथ्य यह है कि जन्म से मृत्यु तक हम अन्य व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रियाओं के द्वारा अपने व्यक्तित्व, अपने मूल्यों तथा अपने व्यवहार को निखारने में संलग्न रहते हैं। अतः समाजीकरण भी हमारे व्यक्तित्व तथा स्वतंत्रता के मूल में है। समाजीकरण के दौरान हम में से प्रत्येक में स्वयं की पहचान की भावना तथा स्वतंत्र विचारों एवं कार्यों के लिए क्षमता विकसित होती है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संस्कृति की अवधारणा की विवेचना कीजिये।
अथवा
संस्कृति से आप क्या समझते हैं? इसे परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
संस्कृति से आशय-'संस्कृति' शब्द का प्रयोग शास्त्रीय संगीत, नृत्य तथा चित्रकला में परिष्कृत रुचि का ज्ञान प्राप्त करने के संदर्भ में किया जाता है। यह परिष्कृत रुचि लोगों को 'असांस्कृतिक' आम व्यक्तियों से अलग करने के लिए रखी गई थी।
संस्कृति का समाजशास्त्रीय अर्थ-समाजशास्त्री संस्कृति को व्यक्तियों में विभेद करने वाला साधन नहीं मानते। वे संस्कृति को जीवन जीवने का एक तरीका मानते हैं जिसमें समाज के सभी सदस्य भाग लेते हैं तथा प्रत्येक सामाजिक संस्था अपनी स्वयं की संस्कृति का विकास करती है। यथा
अतः संस्कृति व्यक्ति द्वारा सीखने या जीवन-जीने की वह प्रक्रिया है जो सामाजिक अन्तःक्रिया के साथ-साथ चलती है। संस्कृति की परिभाषाएँ विभिन्न मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने संस्कृति की अवधारणा को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है।
यथा-
(1) एडवर्ड टायलर ने संस्कृति की एक पूर्व मानवविज्ञानीय परिभाषा दी है। उसके अनुसार, "संस्कृति या सभ्यता अपने व्यापक नृजातीय अर्थ में एक जटिल समग्र है जिसमें ज्ञान, आस्था, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा मनुष्य के समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल हैं।"
(2) मानव विज्ञान के प्रकार्यात्मक स्कूल' के संस्थापक ब्रोनिसला मैलिनोवस्की के अनुसार, "संस्कृति में उत्तराधिकार में प्राप्त कलाकृतियाँ, वस्तुएँ, तकनीकी प्रक्रिया, विचार, आदतें तथा मूल्य शामिल हैं।"
(3) क्लिफोर्ड ग्रीट्ज के अनुसार, "मानव एक प्राणी है जो अपने स्वयं के बुने हुए महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में फँसा हुआ है। मैं संस्कृति को यही जाल मानता हूँ।"
(4) राल्फ लिंटन के अनुसार, "संस्कृति समाज के सदस्यों के जीवन का तरीका है। यह विचारों तथा आदतों का संग्रह है, जिन्हें व्यक्ति सीखते हैं, भागीदारी करते हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करते हैं।"
(5) अल्फ्रेड कोबर तथा क्लाएड क्लूखोन ने संस्कृति की बहुल परिभाषाओं का एक व्यापक सर्वेक्षण किया तथा सर्वेक्षण में इन विभिन्न परिभाषाओं को प्रदर्शित किया। सर्वेक्षण में दी गई इन विभिन्न परिभाषाओं के कुछ प्रतिदर्श निम्नलिखित हैं
(क) संस्कृति सोचने, अनुभव करने तथा विश्वास करने का एक तरीका है।
(ख) संस्कृति लोगों के जीने का एक सम्पूर्ण तरीका है।
(ग) संस्कृति व्यवहार का सारांश है।
(घ) संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है।
(ङ) संस्कृति सीखी हुई चीजों का एक भण्डार है।
(च) संस्कृति सामाजिक धरोहर है जो कि व्यक्ति अपने समूह से प्राप्त करता है।
(छ) संस्कृति बार-बार घट रही समस्याओं के लिए मानकीकृत दिशाओं का एक समुच्चय है।
(ज) संस्कृति व्यवहार के मानकीय नियमितीकरण हेतु एक साधन है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति की पहली
(क) परिभाषा में जहाँ मानसिक तरीकों की बात की गई है, वहीं दूसरी
(ख) में जीवन के सम्पूर्ण तरीके की बात कही गई है तथा (ग), (घ), (ङ) और (च) में दी गई परिभाषाओं में संस्कृति के उस पक्ष पर बल दिया गया है जो समूहों में तथा पीढ़ियों में आपस में बाँटी जाती है तथा हस्तान्तरित होती रहती है तथा अन्तिम दो (छ) और (ज) में संस्कृति को व्यवहार निर्देशन के साधन के रूप में दर्शाया गया है।
संस्कृति की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर संस्कृति की अग्र विशेषताएँ बताई जा सकती हैं
प्रश्न 2.
संस्कृति की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति शब्द अत्यन्त जटिल तथा विस्तृत है। इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। हरस्कोविट्स ने इसी आधार पर कहा है कि "संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है।" अर्थात् संसार की वे सभी भौतिक और अभौतिक वस्तुएँ जो मानव निर्मित हैं, संस्कृति के अन्तर्गत आती हैं।
संस्कृति की विशेषताएँ संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) संस्कृति मानव निर्मित है-संस्कृति केवल मनुष्य समाज में ही पायी जाती है। मनुष्य में कुछ ऐसी मानसिक एवं शारीरिक विशेषताएँ हैं-जैसे विकसित मस्तिष्क, केन्द्रित की जा सकने वाली आँखें, हाथ और उसमें अंगूठे की स्थिति, गर्दन की रचना आदि जो उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती हैं और इसी कारण वह संस्कृति को निर्मित एवं विकसित कर सका है। अन्य प्राणियों में मानव के समान शारीरिक एवं मानसिक मस्तिष्क के कारण ही मानव नये-नये आविष्कार करता और उन्हें मानव जाति के अनुभवों में संजोता है। संस्कृति का धनी होने के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है।
(2) संस्कृति सीखी जाती है-मानव को उसकी शारीरिक विशेषताएँ, क्षमताएँ आदि वंशानुक्रमण के द्वारा उसके माता-पिता से प्राप्त होती हैं। संस्कृति को मानव वंशानुक्रमण के द्वारा प्राप्त नहीं करता है, अपितु ये तो व्यक्ति के सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग होता है। संस्कृति को मानव भाषा, प्रतीकों, विचारों के मंथन, तर्क आदि के माध्यम से सीखता है। सीखने की क्षमता मानव में ही नहीं वरन् पशुओं में भी होती है, किन्तु पशु द्वारा सीखा हुआ व्यवहार संस्कृति नहीं बन पाता; वह केवल पशु का व्यक्तिगत व्यवहार है। सभी प्रकार के सीखे हुए व्यवहार संस्कृति के अंग नहीं हैं, मनुष्य कई व्यक्तिगत व्यवहार भी सीखता है। जो व्यवहार सम्पूर्ण या अधिकतर समूह, समुदाय या समाज के होते हैं उनसे ही संस्कृति निर्मित होती है। सामूहिक व्यवहार ही प्रथाओं, जनरीतियों, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि को जन्म देते हैं और ये केवल मानव समाज में ही पाये जाते हैं, पशुओं में नहीं।
(3) संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है-संस्कृति चूँकि सीखी जाती है, इसलिए ही नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के द्वारा संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करती है। इस प्रकार एक समूह से दूसरे समूह को, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है। मानव संस्कृति का हस्तान्तरण भाषा के माध्यम से करता है। भाषा के द्वारा ही वह ज्ञान प्राप्त करता है। भाषा के द्वारा ही ज्ञान को विस्तारित करता है। नयी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान का भण्डार प्राप्त होता है जिसमें वे स्वयं का अनुभव भी जोड़ते हैं। इस प्रकार संस्कृति का विस्तार, विकास आदि किसी एक व्यक्ति या समूह पर निर्भर न होकर अनेकानेक पीढ़ियों के योगदान का फल होता है।
(4) प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है-एक समाज की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ दूसरे समाज से भिन्न होती हैं अतः प्रत्येक समाज में अपनी एक विशिष्ट संस्कृति पायी जाती है। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक आविष्कार करता है। आविष्कारों का योग संस्कृति को एक नया रूप प्रदान करता है। प्रत्येक समाज की आवश्यकताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं जो सांस्कृतिक भिन्नताओं को जन्म देती हैं। मुरडॉक एवं बील्स तथा हॉइजर आदि का मत है कि ऊपरी तौर पर हमें विभिन्न संस्कृतियों में भिन्नता दिखाई देती है, लेकिन यदि हम गहराई से देखें तो अन्ततः उनमें पर्याप्त समानताएँ पायी जाती हैं। सभी समाजों में हमें धर्म, परिवार, विवाह, नातेदारी, प्रथाएँ, जनरीतियाँ आदि देखने को मिलेंगी, चाहे इनके बाहरी आवरण में अन्तर ही क्यों न हो। इस प्रकार से प्रत्येक समाज में संस्कृति के कुछ तत्त्व सामान्य रूप से समान होते हैं, वहीं कुछ तत्त्वों के कारण संस्कृति में पर्याप्त भिन्नता आ जाती है, यह स्थिति समाज को विशिष्टता प्रदान करती है।
(5) संस्कृति समाज की देन है-संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष की देन नहीं होती वरन् सम्पूर्ण समाज की देन है। समाज की परम्परा ही संस्कृति को बनाये रखने का कार्य करती है। संस्कृति के अन्तर्गत जिन परम्पराओं, प्रथाओं, जनरीतियों, रूढ़ियों, धर्म आदि का समावेश रहता है वे व्यक्तिगत जीवन विधि की अपेक्षा सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि संस्कृति मानव द्वारा निर्मित होने के बावजूद यह मानव को समाज की देन होती है।
(6) संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है-एक समूह के लोग अपनी संस्कृति को आदर्श मानते हैं और वे उसके अनुसार अपने व्यवहारों एवं विचारों को ढालते हैं। जब संस्कृतियों की तुलना की जाती है तो एक व्यक्ति दूसरी संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने का प्रयास करता है। संस्कृति आदर्श इसलिए होती है कि यह किसी एक व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित न कर सम्पूर्ण समूह के व्यवहार से सम्बन्धित होती है। ये व्यवहार समूह के द्वारा स्वीकृत होते हैं इसीलिये ये आदर्श माने जाते हैं।
(7) संस्कृति मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक-संस्कृति की यह विशेषता है कि वह मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। मानव की अनेक सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकताएँ हैं। उनकी पूर्ति के लिए ही मानव ने संस्कृति का निर्माण किया है। मैलिनोवस्की व रैडक्लिफ ब्राउन का मत है कि प्रत्येक समाज में संस्कृति का कोई भी भाग या उपभाग बेकार नहीं होता। प्रत्येक सांस्कृतिक तत्त्व किसी न किसी रूप में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योग अवश्य देता है। मानव की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही समय-समय पर नये-नये आविष्कार होते रहते हैं और वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं।
(8) संस्कृति में अनुकूलता का गुण होता है-संस्कृति में समय, स्थान, समाज एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढालने की क्षमता होती है। परिवर्तनशीलता संस्कृति का गुण है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियाँ जैसे दुर्गम स्थानों, पहाड़ी क्षेत्रों, रेगिस्तानों, शीत प्रदेशों आदि में निवास करने वालों की संस्कृतियों में काफी अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर का मूल कारण यही है कि प्रत्येक स्थान की संस्कृति ने अपने आपको उस भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया है। निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों या इकाइयों में सदैव कुछ न कुछ बदलाव होता ही रहता है। बदलाव या परिवर्तन की इसी प्रक्रिया के कारण संस्कृति में अनुकूलनशीलता का गुण पाया जाता है।
(9) व्यक्तित्व निर्माण में सहायक-एक मनुष्य का पालन-पोषण किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। जन्म के बाद बच्चा अपनी संस्कृति को सीखकर उसे आत्मसात् करता है। एक संस्कृति में पले हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरी संस्कृति के व्यक्ति से भिन्न होता है। इसका कारण यह है कि संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, प्रथाओं एवं व्यवहारों की छाप व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में पला हुआ व्यक्ति अमेरिका में पले हुए व्यक्ति से भिन्न होता है।
(10) संस्कृति में सन्तुलन एवं संगठन होता है-संस्कृति का निर्माण विभिन्न इकाइयों से मिलकर होता है। सांस्कृतिक इकाइयाँ जिन्हें हम सांस्कृतिक तत्त्व एवं संस्कृति-संकुल कहते हैं, परस्पर एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं वरन् एक-दूसरे से बँधे हुए हैं। ये सभी इकाइयाँ संगठित रूप से मिलकर ही सम्पूर्ण संस्कृति की व्यवस्था को बनाये रखती हैं।
समनर का मत है कि संस्कृति की विभिन्न इकाइयों में एकरूपता की ओर खिंचाव' होता है जिसके परिणामस्वरूप सभी इकाइयाँ संगठित होकर एक सामूहिकता या समग्रता का निर्माण करती हैं। लघु समाजों में संस्कृति के विभिन्न पक्षों में एकता स्पष्टतः देखी जा सकती है क्योंकि वहाँ संस्कृति तनाव एवं संघर्ष पैदा करने वाली शक्तियाँ अधिक क्रियाशील नहीं होती।
(11) संस्कृति अधि-वैयक्तिक एवं अधि-सावयवी है-क्रोबर ने संस्कृति की इस विशेषता का उल्लेख किया है। अधि-वैयक्तिक का अर्थ है कि संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं किया है और वह संस्कृति के एक भाग का ही उपयोग कर पाता है, सम्पूर्ण का नहीं। संस्कृति का निर्माण समूह द्वारा ही होता है। अतः संस्कृति की रचना और निरन्तरता किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इस अर्थ में संस्कृति अधि-वैयक्तिक है। संस्कृति एक और अर्थ में भी अधि-वैयक्तिक है। प्रत्येक संस्कृति का निर्माण, विकास, विस्तार एवं परिमार्जन होता रहता है जिसे रोकने या वश में करने की क्षमता किसी व्यक्ति विशेष में नहीं होती है। इस अर्थ में भी संस्कृति अधि-वैयक्तिक है। मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं का उपयोग कर संस्कृति का निर्माण किया है जो सावयव से ऊपर है, सावयव से अधिक है; इसे अधि-सावयवी कहते हैं।
प्रश्न 3.
"संस्कृति अधि-वैयक्तिक एवं अधि-सावयवी है।" स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति अधि-वैयक्तिक एवं अधि-सावयवी है सबसे पहले क्रोबर ने इस अवधारणा का उल्लेख किया कि प्रत्येक समाज की संस्कृति अधि-वैयक्तिक और अधि-सावयवी दोनों ही प्रकार की होती है।
यथा-
(1) संस्कृति अधि-वैयक्तिक होती है-अधि-वैयक्तिक का अर्थ यह है कि संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं किया है। मनुष्य तो संस्कृति के एक भाग का ही उपयोग कर पाता है, सम्पूर्ण का नहीं। संस्कृति का निर्माण समूह द्वारा ही होता है। संस्कृति निर्माण की विभिन्न इकाइयाँ, जैसे-प्रथाएँ, परम्पराएँ, रूढ़ियाँ आदि सम्पूर्ण समाज या समूह द्वारा स्वीकार्य होती हैं, जो कई पीढ़ियों से समाज के सदस्यों द्वारा अपनायी जाती हैं। . लगभग सभी समाजों में कभी-कभी कुछ महान् सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, नेता, समाज सुधारक आदि पैदा होते हैं ।
वे समाज और संस्कृति के पुराने मूल्यों, विचारों, प्रथाओं आदि में अनेक परिवर्तन लाते हैं और उनके स्थान पर नवीन मूल्यों, विचारों, प्रथाओं एवं धर्म की स्थापना करते हैं। तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे ही सम्पूर्ण संस्कृति के निर्माता व वाहक हैं। लेकिन यह विचार त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इन महान् व्यक्तियों ने जो विचार ग्रहण किये, वे भी उनसे पूर्व समाज में विद्यमान थे। इससे स्पष्ट होता है कि कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माता नहीं हो सकता। वह केवल अपनी ओर से उसमें कुछ योगदान ही देता है। यदि संस्कृति एक व्यक्ति की देन होती तो वह उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद समाप्त हो सकती थी, लेकिन सम्पूर्ण संस्कृति समूह की देन होने के नाते समूह की आदत या व्यवहार के रूप में पीढ़ी-दर-पीढी चलती रहती है। स्पष्ट है कि संस्कृति की रचना और निरन्तरता व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इस अर्थ में संस्कृति अधिवैयक्तिक है। संस्कृति इस अर्थ में भी अधिवैयक्तिक है कि प्रत्येक संस्कृति का निर्माण, विकास, विस्तार एवं परिमार्जन होता रहता है; जिसे रोकने या वश में करने की क्षमता किसी व्यक्ति विशेष में नहीं होती। इस अर्थ में भी संस्कृति अधिवैयक्तिक है।
(2) संस्कृति अधि-सावयवी है-सावयवी शब्द का प्रयोग हम उनके लिए करते हैं जिनमें जीवन पाया जाता है। इस अर्थ में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सावयवी हैं। संस्कृति को अधि-सावयवी निम्न अर्थों में कहा गया है।
(i) मानव ने अपनी क्षमताओं का उपयोग कर संस्कृति का निर्माण किया है। चूंकि मानव सावयव है और उसने जो निर्माण किया है, वह सावयव से अधिक है। इसी अर्थ में संस्कृति को अधि-सावयवी कहा गया है।
(ii) संस्कृति को अधि-सावयवी इसलिए भी कहा गया है, क्योंकि मात्र सावयवी घटनाओं से ही संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता है। संस्कृति मानव को वंशानुक्रमण से प्राप्त नहीं होती अपितु उसे सीखा और सिखाया जाता है। क्रोबर ने चींटियों का उदाहरण देते हुए इसे स्पष्ट किया है कि यदि चींटियों के कुछ अण्डों को अन्य अण्डों से पृथक् रख दें, इन अण्डों पर गर्मी, नमी का विशेष ध्यान रखा जाये, तब इनमें से निकलने वाली चींटियों में वे सभी गुण व विशेषताएँ मिलेंगी जो अन्य चींटियों में होती हैं । किन्तु यदि कुछ मानव शिशुओं को सामाजिक वातावरण से अलग रख दिया जाये तो उनमें संस्कृति का विकास होगा ही नहीं। सामाजिक वातावरण से दूर ये मानव शिशु समय के साथ बड़े तो हो जायेंगे किन्तु वे व्यवहार संस्कृतिविहीन पशुओं की तरह ही करेंगे। इस रूप में संस्कृति अधिसावयवी होती है।
प्रश्न 4.
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति को समझाइए।
उत्तर:
भौतिक तथा अभौतिकं संस्कति अमेरिकन समाजशास्त्री ऑगबर्न ने समग्र संस्कृति को दो भागों-
(क) भौतिक संस्कृति और
(ख) अभौतिक संस्कृति में बाँटा है। उनके इस वर्गीकरण को अन्य वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है। यथा
(क) भौतिक संस्कृति भौतिक संस्कृति का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है
(1) भौतिक संस्कृति से आशय-भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है। मूर्त वस्तुओं से तात्पर्य ऐसी वस्तुओं से है जिन्हें हम देख सकते हैं, छू सकते हैं और इन्द्रियों द्वारा जिनका आभास कर सकते हैं। मूर्त वस्तुओं का एक निश्चित आकार-प्रकार भी होता है। उदाहरण के रूप में भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत हम कुर्सी, टेबल, पैन, मशीनें, पुस्तकें, औजार, कपड़े, जहाज, उपकरण, टेलीफोन आदि अनेक वस्तुओं को गिना सकते हैं।
भौतिक संस्कृति के सभी तत्त्वों को गिनना सरल नहीं है। सरल एवं आदिम समाजों की तुलना में जटिल एवं आधुनिक समाजों में इनकी संख्या अधिक है। मानव द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु फिर चाहे वह छोटी हो या बड़ी, भौतिक संस्कृति का अंग होती है। जैसे-जैसे मानव विकास के क्रम में नये-नये आविष्कार करता जायेगा, वैसे-वैसे भौतिक संस्कृति का भण्डार भी बढ़ता जायेगा।
(2) भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ-भौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(ख) अभौतिक संस्कति अभौतिक संस्कृति का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(1) अभौतिक संस्कृति से आशय-अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी सामाजिक तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है जो अमूर्त हैं अर्थात् जिनका कोई माप-तौल, आकार व रंग-रूप नहीं होता, इन्द्रियों द्वारा जिनका स्पर्श नहीं होता वरन् जिन्हें हम केवल महसूस कर सकते हैं। सामान्य रूप से अभौतिक संस्कृति में प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, विचार, विश्वास, सामाजिक-मूल्य, ज्ञान, कला आदि को समाहित किया जाता है। सोरोकिन ने अभौतिक संस्कृति को भावनात्मक संस्कृति के नाम से पुकारा है। अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती है। भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति कम परिवर्तनशील होने से अधिक स्थायी होती है।
(2) अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ-अभौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
भौतिक-अभौतिक संस्कृति परस्पर सम्बन्धित हैं भौतिक व अभौतिक संस्कृति पृथक् होते हुए भी परस्पर सम्बन्धित हैं। दोनों ही संस्कृतियां मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं और दोनों ही मानव-मस्तिष्क की उपज हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं।
प्रश्न 5.
संस्कृति के प्रमुख आयामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति के आयाम संस्कृति के तीन आयाम प्रचलित हैं, जो निम्नलिखित हैं
(1) संस्कृति का संज्ञानात्मक आयाम-संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम का सम्बन्ध हमारे द्वारा देखे या सुने गये को व्यवहार में लाकर उसे अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया के सीखने से है। जैसे-अपने मोबाइल फोन की घण्टी को पहचानना या किसी नेता के कार्टून की पहचान करना आदि। संज्ञान का सम्बन्ध इस समझ से है कि अपने वातावरण से प्राप्त होने वाली समस्त सूचना का हम कैसे उपयोग करते हैं। संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम के अन्तर्गत हम निम्नलिखित को सम्मिलित कर सकते हैं
(i) संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम के अन्तर्गत हम अन्धविश्वास, वैज्ञानिक तथ्य, मिथक, कला तथा धर्म को सम्मिलित कर सकते हैं।
(ii) उन विचारों के द्वारा संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम को स्पष्ट किया जाता है जिनमें ज्ञान तथा विश्वास सम्मिलित होते हैं। विचार व्यक्तियों की बौद्धिक धरोहर होते हैं। शिक्षित समाज में इन्हें पुस्तकों एवं दस्तावेजों के रूप में अभिलेखित कर लिया जाता है। परन्तु निरक्षर समाजों में दंतकथाओं, जनश्रुतियों तथा मौखिक रूप से हस्तान्तरण के रूप में ये विद्यमान होते हैं।
(iii) संज्ञान की प्रक्रिया के निर्माण में सभी लोग भागीदारी करते हैं, सभी लोग चिन्तन करते हैं; अनुभव करते हैं; पहचानते हैं तथा अतीत की वस्तुओं का स्मरण करते हैं व उन्हें वास्तविक तथा कल्पनात्मक भविष्य के बारे में प्रक्षेपित करते हैं। -
(2) संस्कृति का मानकीय आयाम-संस्कृति के मानकीय आयाम का सम्बन्ध आचरण के नियमों से है। यथा
(i) संस्कृति के मानकीय आयाम के अन्तर्गत लोक-रीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ, परिपाटियाँ तथा कानून शामिल हैं। ये विभिन्न सन्दर्भो में सामाजिक व्यवहार को दिशा-निर्देश देते हैं। समाजीकरण के अन्तर्गत हम सामाजिक मानकों का अनुकरण करते हुए तदनुसार कार्य करने के अभ्यस्त हो जाते हैं। सभी सामाजिक मानकों के साथ स्वीकृतियाँ होती हैं जो कि अनुरूपता को बढ़ावा देती हैं। यथा
(ii) संस्कृति के मानकीय आयाम के द्वारा व्यक्तियों के बीच अन्तःक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है।
(iii) मानकीय अवधारणा के अन्तर्गत चिन्तन के बजाय कार्य करने के तरीकों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता
(iv) व्यक्ति के आचरण को मान्यता समाज द्वारा निर्धारित मानकों से ही प्राप्त होती है। मानक सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य हैं। इस प्रकार प्रतिमान (मानक) तथा मूल्य संस्कृति को समझने हेतु एक केन्द्रीय अवधारणा है।
(3) भौतिक आयाम-संस्कृति का भौतिक आयाम औजारों, तकनीकों, यन्त्रों, भवनों तथा यातायात के साधनों । के साथ-साथ उत्पादन तथा सम्प्रेषण के उपकरणों से सन्दर्भित है। यथा-
(i) भौतिक आयाम में उन वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें समाज के सदस्यों द्वारा ग्रहण किया जाता है अथवा जिन्हें वे उपयोग में लाते हैं।
(ii) व्यक्तियों द्वारा निर्मित मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति कहते हैं।
(iii) नगरीय क्षेत्रों में चालित फोन, वादक यन्त्रों, कारों, बसों, ए.टी.एम., रेफ्रिजरेटरों तथा संगणकों का दैनिक जीवन में व्यापक प्रयोग तकनीक पर निर्भरता को दिखाता है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रांजिस्टर-रेडियो का प्रयोग, सिंचाई के लिए इलैक्ट्रिक मोटर पम्पों का प्रयोग तकनीकी उपकरणों को अपनाए जाने को दर्शाता है।
सारांश में संस्कृति के दो सैद्धान्तिक आयाम हैं-भौतिक तथा अभौतिक। संज्ञानात्मक और मानकीय आयाम अभौतिक हैं तो भौतिक आयाम-भौतिक हैं। संस्कृति के एकीकृत कार्यों हेतु भौतिक तथा अभौतिक आयामों को एकजुट होकर कार्य करना चाहिए।
प्रश्न 6.
मानदण्ड और कानून के अन्तर को स्पष्ट कीजिए। उत्तर
मानदण्ड और कानून में अन्तर मानदण्ड और कानून में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं
(1) मानदण्ड अस्पष्ट नियम हैं जबकि कानून स्पष्ट नियम हैं-मानदण्ड और कानून का एक प्रमुख अन्तर यह है कि मानदण्ड अस्पष्ट नियम हैं जबकि कानून स्पष्ट नियम हैं। फ्रेंच समाजशास्त्री पियरे बोर्दू ने इसे स्पष्ट करते हुए बताया है कि जब हम किसी अन्य संस्कृति के मानकों (मानदण्डों) को जानने का प्रयास करते हैं तो उनमें कुछ अस्पष्ट आपसी समझ होती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति उसे दी गई किसी चीज के लिए आभार व्यक्त करना चाहता है तो उसे उसी तत्परता से वापसी उपहार नहीं देना चाहिए अन्यथा ऐसा दिखाई देगा कि वह मित्रवत् व्यवहार के स्थान पर अपना ऋण अदा कर रहा है। दूसरी तरफ, कानून सरकार द्वारा नियम या सिद्धान्त के रूप में परिभाषित औपचारिक स्वीकृति है जिसका पालन नागरिकों को अवश्य करना चाहिए। कानून स्पष्ट होते हैं।
(2) मानक पूरे समाज पर लागू नहीं होते, जबकि कानून पूरे समाज पर लागू होते हैं-कानून औपचारिक तथा स्पष्ट होते हैं तथा ये पूरे समाज पर लागू होते हैं तथा कानूनों का उल्लंघन करने पर जुर्माना तथा सजा हो सकती है। जबकि मानक आवश्यक रूप से पूरे समाज पर लागू हो यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिए यदि आपके घर में बच्चों को सूर्यास्त के बाद घर से बाहर रहने की अनुमति नहीं है, तो यह एक मानक है। यह मानक केवल आपके परिवार के लिए है। यह सभी परिवारों पर लागू नहीं हो सकता। दूसरी तरफ यदि आपको किसी दूसरे के घर से सोने की चेन चुराते हुए पकड़ा जाये तो आपने सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत निजी सम्पत्ति के कानून का उल्लंघन किया है तथा इसके लिए आपको जाँच के बाद सजा के रूप में जेल भेजा जा सकता है।
(3) कानून सभी पर समान रूप से लागू होते हैं जबकि मानक प्रस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं-कानून जहाँ उन विभिन्न स्कूलों के विद्यार्थियों पर समान रूप से लागू होते हैं जो राज्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जबकि कानून के विपरीत मानक प्रस्थिति के अनुसार बदल सकते हैं। समाज के प्रभुत्वशाली हिस्से प्रभुता वाले मानक लागू करते हैं। अक्सर ये मानक भेदभावपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे मानक जो दलितों को समान कुएँ या यहाँ तक कि पानी के समान स्रोत से पानी पीने की या औरतों को सार्वजनिक स्थानों पर स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने की अनुमति नहीं देते हैं।
प्रश्न 7.
समाजीकरण से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा-वह प्रक्रिया जिसके तहत नवजात शिशु सामाजिक-सांस्कृतिक संसार से परिचित होता है, समाजीकरण कहलाती है। अर्थात् समाजीकरण वह विधि है जिसके द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है। इसके द्वारा व्यक्ति अपने समूह एवं समाज के मूल्यों, जनरीतियों, लोकाचारों, आदर्शों एवं सामाजिक उद्देश्यों को सीखता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाजीकरण की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं । यथा टालकट पारसंस के अनुसार, "समाजीकरण में व्यक्ति द्वारा सामाजिक मूल्यों को सीखने और उन्हें आभ्यान्तरीकरण को कहा जाता है।"
ग्रीन के शब्दों में, "समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।" जॉनसन के अनुसार, "समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योग्य बनाती है।" गिलिन और गिलिन के अनुसार, "समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्यविधियों से समन्वय स्थापित करता है, उसकी परम्पराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहन शक्ति की भावना विकसित करता है।"
किम्बाल यंग के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा "व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता है तथा समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है एवं जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और मानवों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है।" फिशर लिखते हैं कि, "समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकारता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है।" हारालाम्बोस के अनुसार, "वह प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को सीखता है, समाजीकरण के नाम से जानी जाती है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह अथवा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करता है, अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आचरण करता है, इससे समाज में नियन्त्रण बना रहता है। समाजीकरण की विशेषताएँ समाजीकरण की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है
(1) सीखने की प्रक्रिया-समाजीकरण सीखने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों, मानदण्डों तथा समाज-स्वीकृत व्यवहारों को अपनाया जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत केवल समाज द्वारा स्वीकृत तथा प्रतिपादित व्यवहारों को ही सीखा जाता है। लेकिन कुछ बातें जो समाज द्वारा स्वीकृत नहीं होतीं, समाजीकरण के अन्तर्गत नहीं आतीं। जैसे-एक व्यक्ति चोरी करना, कक्षा से भाग जाना व गाली देना आदि सीखता है तो उसे हम समाजीकरण नहीं कहेंगे क्योंकि इन गतिविधियों को सीखकर कोई भी व्यक्ति समाज का क्रियाशील सदस्य नहीं बनता है।
(2) आजन्म प्रक्रिया-समाजीकरण की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक वह अनेक परिस्थितियाँ धारण करता है और उनके अनुसार अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना सीखता है। बचपन में वह पुत्र, भाई, मित्र आदि के रूप में अन्य लोगों से व्यवहार करना सीखता है। युवावस्था में वह पति, पिता, व्यवसायी, किसी संगठन में पदाधिकारी एवं अन्य अनेक पदों को ग्रहण करता है। वृद्धावस्था में दादा, नाना, श्वसुर आदि पद धारण करता है और इन सभी पदों के अनुरूप भूमिका निर्वाह करना सीखता है। इस प्रकार व्यक्ति के सामने नयी-नयी प्रस्थितियाँ एवं पद आते हैं और उनके अनुसार समाज द्वारा मान्य व्यवहारों को सीखता जाता है। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है।
(3) समय व स्थान सापेक्ष-समाजीकरण की प्रक्रिया समय व स्थान सापेक्ष है अर्थात् दो अलग-अलग समयों या फिर दो अलग-अलग स्थानों की संस्कृतियाँ भिन्न हो सकती हैं तथा उसी के अनुसार समाजीकरण का पैमाना भी बदल सकता है। उदाहरण के लिये, प्राचीनकाल में स्त्रियों का सती होना प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था, किन्तु आज ये अपराध की श्रेणी में आता है। पूर्व काल में सती प्रथा समाजीकरण की विषय-वस्तु थी किन्तु वर्तमान काल में नहीं। उसी प्रकार प्रेम-विवाह पश्चिमी सभ्यता में सामान्य घटना मानी जाती है, जबकि भारतवर्ष में असामान्य । अतः पश्चिमी देशों में प्रेम-विवाह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा आत्मसात् किया जाता है, वहीं भारतवर्ष में समाज-स्वीकृत न होने के कारण यह समाजीकरण की परिधि में नहीं आता है।
(4) संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया-इस प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति सांस्कृतिक मूल्यों, मानकों एवं समाज-स्वीकृत व्यवहारों को सीखता है तथा संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक तत्त्वों को आत्मसात् करता है। धीरे-धीरे संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंग बन जाती है।
(5) समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बनने की प्रक्रिया-समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति सामाजिक कार्यों में भाग लेने योग्य बनता है। इसी के द्वारा वह प्राणीशास्त्रीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है। किस पद पर रहकर किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह सब सामाजिक सम्पर्क से ही सीखा जाता है। सम्पर्क से ही व्यक्ति लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है।
(6) 'स्व' विकास की प्रक्रिया-समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के 'आत्म' का विकास होता है, व्यक्ति में अपने प्रति जागरूकता आती है और वह यह जानने लगता है कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में क्या सोचते हैं।
(7) सांस्कृतिक हस्तान्तरण-समाजीकरण के द्वारा समूह अथवा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से संस्कृति ग्रहण करती है। डेविस कहते हैं कि "हस्तान्तरण की इस प्रक्रिया के बिना समाज अपनी निरन्तरता बनाये नहीं रख सकता और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है।"
प्रश्न 8.
समाजीकरण की प्रक्रिया क्या है? इसके विभिन्न चरणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाजीकरण की प्रक्रिया-समाजीकरण की प्रक्रिया को मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने भिन्नभिन्न रूप से स्पष्ट किया है। एक ओर फ्रायड ने समाजीकरण की प्रक्रिया के सात स्तरों का उल्लेख किया है तो दूसरी ओर जॉनसन ने चार स्तरों के माध्यम से समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है। फ्रायड का विचार है कि जीवन के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति को अनेक तरह की निराशाओं का सामना करना पड़ता है जिनसे छुटकारा पाने के लिये ही व्यक्ति तरह-तरह से हमेशा समायोजन करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार समायोजन की इसी प्रक्रिया को हम समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैं।
समाजीकरण के चरण समाजीकरण के चरणों के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने मत दिये हैं, जो निम्न प्रकार हैं
(1) गिडिन्स ने समाजीकरण के दो स्तर बताये हैं
(i) प्राथमिक समाजीकरण
(ii) द्वितीयक समाजीकरण।
(i) प्राथमिक समाजीकरण-यह समाजीकरण का निर्णायक स्तर है। यह शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में सम्पन्न होता है। इस स्तर पर बच्चा मूलभूत व्यवहार प्रतिमान सीख पाता है। समाजीकरण की प्रथम अवस्था में परिवार प्रमुख संस्था होती है।
(ii) द्वितीयक समाजीकरण-बचपन की अन्तिम अवस्था से प्रारम्भ होता है और परिपक्वता की आयु तक जाता है। इसके बाद भी व्यक्ति जीवन-पर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजरता है। उपर्युक्त दोनों चरणों के दौरान मनुष्य जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में तब्दील हो जाता है।
(2) पारसंस ने समाजीकरण को चार प्रमुख चरणों में विभाजित किया है
(i) मौखिकावस्था (Oral Stage)-यह अवस्था शिशु के जन्म से प्रारम्भ होती है। इसमें शिशु की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल मौखिक रूप से होती है। इस दौरान शिशु दूध पिलाने के समय के बारे में निश्चित अपेक्षाएँ बनाता है और यह संकेत देना सीखता है कि उसे भोजन-पानी की आवश्यकता कब है, उसे क्या कष्ट है आदि के विषय में संकेत देने लगता है।
(ii) शौच सोपान (Anul Stage)-यह अवस्था शिशु के जन्म के लगभग एक वर्ष बाद से शुरू होती है। इस अवस्था में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह शौच सम्बन्धी कार्य स्वयं करे। इस सोपान के अन्त तक बच्चा खेलने, बोलने आदि के कारण अन्य लोगों के सम्पर्क में आता है और धीरे-धीरे उनसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने लगता
(iii) मातरति सोपान (Oedipus Stage)-यह समाजीकरण की तीसरी अवस्था है जो कि बच्चे के जन्म के चौथे वर्ष से प्रारम्भ होकर तरुण होने तक चलती है। इस दौरान परिवार में लैंगिक आधार पर मान्यता प्राप्त सभी भूमिकाओं को वह आत्मसात् करता है। इस काल में बालक यौन-भेद की ओर आकृष्ट होता है। लड़का अपनी माँ को तथा लड़की अपने पिता को चाहने लगती है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने क्रमशः 'ऑडिपस कॉम्प्लेक्स' (Oedipus Complex) और 'इलैक्ट्रा कॉम्प्लेक्स' (Electra Complex) कहा है।
(iv) किशोरावस्था-समाजीकरण की प्रक्रिया में इस स्तर को सबसे महत्त्वपूर्ण माना है क्योंकि यह अवधि किशोर के लिए सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होती है। एक ओर किशोर अधिक से अधिक स्वतन्त्रता की माँग करने लगता है जबकि दूसरी ओर परिवार और अन्य समूहों के द्वारा उनके सभी व्यवहारों पर कुछ न कुछ नियन्त्रण रखा जाता है। इस दौरान बालक परिवार के अतिरिक्त अन्य दूसरे समूहों से भी अन्तःक्रिया करना प्रारम्भ करता है। फलस्वरूप वह उचित व अनुचित के बीच भेद करना भी सीखता है और उसमें नैतिकता का विकास होता है।
किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण अन्य तीन महत्त्वपूर्ण चरणों से होकर गुजरता है जो निम्नलिखित हैं
(i) युवावस्था (Youth Stage)-युवावस्था आने तक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुरूप किसी पद पर कार्यरत हो जाता है और उस पद के अनुरूप व्यवहार करता है। अब तक वह वैवाहिक बन्धनों में बँधकर विभिन्न दूसरे पारिवारिक पद प्राप्त कर लेता है; जैसे—पति, पिता, भाई, चाचा, दामाद आदि। इन नई परिस्थितियों के अनुरूप वह व्यवहार करना सीख जाता है। एक साथ विभिन्न भूमिकाएं निभाने के कारण उसे कभी-कभी 'भूमिका-संघर्ष' की स्थिति का भी सामना करना पड़ता है।
(ii) प्रौढ़ावस्था-इस अवस्था के आने तक व्यक्ति विभिन्न जिम्मेदारियों से दब जाता है। जैसे—बच्चों की शिक्षा, विवाह, उसे व्यवसायों की जिम्मेदारियाँ देना आदि। वह व्यावसायिक
क्षेत्रों में भी पदोन्नति प्राप्त करता है। युवाओं और प्रौढ़ों को समाजीकरण की प्रक्रिया में कोई विशेष परेशानी नहीं होती है क्योंकि वे नई स्थितियों से सामंजस्य करना सीख जाते हैं।
(iii) वृद्धावस्था-यह जीवन की अन्तिम अवस्था है। इस समय तक व्यक्ति अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों का निपटारा कर चुका होता है। नौकरी से सेवानिवृत्त होकर वह दादा, नाना बन जाता है और परिवार के वृद्ध के रूप में अपने समाजीकरण का प्रयास करता है।
प्रश्न 9.
समाजीकरण की परिभाषा देते हुए, इसके विभिन्न अभिकरण तथा संस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाजीकरण की परिभाषा-[इसके लिए कृपया प्रश्न संख्या (7) के उत्तर का अवलोकन करें।
समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण तथा संस्थाएं मानव एक जटिल समाज में रहता है। अतः उसके समाजीकरण की प्रक्रिया लम्बी तथा जटिल होने के साथ ही जीवन-पर्यन्त चलती रहती है। अपने सम्पूर्ण जीवन काल में व्यक्ति अनेक संस्थाओं एवं समूहों से जुड़ता है और उनसे विभिन्न बातें सीखता है। इसी से वह अपना समाजीकरण कर पाता है। व्यक्ति इन संस्थाओं से जितना अधिक अनुकूलन कर लेता है, समाजीकरण की प्रक्रिया उतनी ही अधिक पूर्ण होती जाती है। समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण तथा संस्थाओं को दो वर्गों में विभाजित किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं
(1) प्राथमिक संस्थाएँ व अभिकरण-प्राथमिक संस्थाओं तथा अभिकरणों में ही बालक अपने जीवन का प्रारम्भ करता है। इनमें ही उसके व्यक्तित्व का सही मायने में निर्माण होता है। प्राथमिक संस्थाओं के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रमुख अभिकरण तथा संस्थाएँ आती हैं
(i) परिवार-समाजीकरण की सबसे प्रथम संस्था परिवार है। बच्चे का जन्म परिवार में होता है और वह सबसे पहले यहाँ के सदस्यों के सम्पर्क में आता है। उसे परिवार में ही भाई-बहिन, माता-पिता तथा अन्य सदस्यों के सम्पर्क में समाज के रीति-रिवाज, लोकाचारों, प्रथाओं द्वारा संस्कृति का ज्ञान होता है। टरमन ने परिवार के महत्त्व को दर्शाते हुए यहाँ तक कह दिया कि वही बच्चे वैवाहिक जीवन को सुखमय बना सकते हैं, जिनके माता-पिता का पारिवारिक जीवन सुखी था।
(ii) समकक्ष या मित्र समूह-समाजीकरण की दृष्टि से मित्रों का समूह भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। परिवार के बाद सबसे अधिक समय बालक अपने साथियों के सम्पर्क में आता है। हमउम्र होने के कारण वह उनसे अनेक प्रकार के व्यवहार करना सीखता है। खेल के नियम, अनुशासन, सहयोग, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, अनुकूलन करना आदि वह अपने मित्र-समूह में ही सीखता है। ब्रूम एवं सेल्जनिक ने समाजीकरण में मित्रों के समूह को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है।
(iii) पड़ोस-प्राथमिक संस्थाओं में 'पड़ोस' की भूमिका भी विशिष्ट होती है। न केवल बच्चे वरन् वयस्कों के समाजीकरण में भी पड़ोस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। बच्चे जाने-अनजाने में ही पड़ोसियों से कई बातें सीख जाते हैं। पड़ोसियों की प्रशंसा एवं निन्दा व्यक्ति को समाजसम्मत व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है जबकि उनसे सम्पर्क से ही स्नेह, सहयोग, भाईचारे आदि गुणों का विकास करता है।
(iv) नातेदारी-नातेदार रक्त एवं विवाह से सम्बन्धित रिश्तेदार माने जाते हैं। भाई-बहिन, पति-पत्नी, सालेसाली, देवर-भाभी, सास-ससुर आदि कुटुम्ब जनों एवं सम्बन्धियों के सम्पर्क से व्यक्ति अनेक प्रकार के व्यवहार करना सीखता है तथा उनके अनुरूप विभिन्न भूमिकाएं निभाने के कारण उसका समाजीकरण होता है।
(v) विवाह-वैवाहिक दायित्व, व्यक्ति के जीवन में मील के पत्थर की भाँति महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जो उनके जीवन में एक नया आयाम लाता है। विवाह के बाद व्यक्ति के जीवन में नए दायित्वों का जन्म होता है और उसे उनके अनुरूप ही आचरण करने होते हैं। नई परम्पराएँ, मान्यताएँ, विचारधाराएँ आदि उत्पन्न होती हैं। इन नए दायित्वों से जितना अधिक अनुकूल हो सकता है समाजीकरण की प्रक्रिया भी उतनी ही सफल होती है।
(2) द्वितीयक संस्थाएँ तथा अभिकरण-ऐसी संस्थाओं तथा अभिकरणों का निर्माण किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है और ये सभी संस्थाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। द्वितीयक संस्थाएँ निम्नलिखित हैं
(i) शिक्षण संस्थाएँ-द्वितीयक संस्थाओं के अन्तर्गत विद्यालय आते हैं, जहाँ बालक पुस्तकों से अध्ययन द्वारा सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करता है। यहाँ बालक गुरुजनों तथा सहपाठियों से सामाजिक बातें सीखता है। आदर्श शिक्षकों के अनुरूप आचरण करने का प्रयास करता है और वह देश-विदेश के समाजों एवं संस्कृति के बारे में जानकारी अर्जित करता . है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में पढ़कर व्यक्ति धीरे-धीरे समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बनने लगता है।
(ii) राजनैतिक संस्थाएँ-राजनैतिक संस्थाएँ व्यक्ति को समाज और राजनीति के प्रति जागरूक बनाती हैं और शासन, कानून, अनुशासन आदि सिखाती हैं। ये संस्थाएँ समाज की दिशा का ज्ञान कराती हैं तथा व्यक्ति को उसके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग बनाती हैं। इसके द्वारा व्यक्ति समाज में अपना समाजीकरण कर पाता है।
(ii) आर्थिक संस्थाएँ-ये संस्थाएँ मनुष्य के जीवन-यापन एवं व्यावसायिक गतिविधियों का दिशा-निर्देशन करती हैं। बेईमानी तथा ईमानदारी के लक्षण व्यक्ति इन्हीं संस्थाओं से सीखता है। आर्थिक जीवन में व्यक्ति की सफलता का राज क्या हो सकता है, इसकी जानकारी इन्हीं संस्थाओं द्वारा प्राप्त होती है। यहाँ मनुष्य प्रतिस्पर्धा, सहकारिता, समायोजन आदि के गुण सीखता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्क्स के अनुसार आर्थिक संस्थाएँ ही व्यक्ति के सामाजिक तथा सांस्कृतिक ढाँचे को निर्धारित करती हैं।
(iv) धार्मिक संस्थाएँ-समाजीकरण में धार्मिक संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। व्यक्ति के जीवन पर धर्म का गहरा प्रभाव होता है। ईश्वरीय भय एवं श्रद्धा के कारण वह शान्ति, पवित्रता, नैतिकता, आदर्श, दया, ईमानदारी, न्याय आदि गुणों का विकास करता है। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की धारणाएँ भी लोगों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार करने पर बल देती हैं।
(v) सांस्कृतिक संस्थाएँ-हमें अपनी संस्कृति की जानकारी सांस्कृतिक संस्थाओं, जैसे-संगीत अकादमी, नाटक मण्डली, कवि सम्मेलन, क्लब गोष्ठियों आदि से होती है। ये संस्थाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इनके द्वारा ही मनुष्य अपनी कला, भाषा, प्रथा, परम्परा, वेशभूषा आदि से परिचित होता है।
(vi) व्यवसाय समूह या कार्य-स्थल-व्यक्ति जिस पद या व्यवसाय में कार्यरत होता है, उसी के अनुरूप आचरण करता है। अपने से बड़े या छोटे अधिकारी या उस व्यवसाय से जुड़े अन्य लोगों के साथ उसे किस प्रकार का व्यवहार करना है, इसका समाजीकरण व्यवसाय समूह के द्वारा ही होता है।
(vii) जन-माध्यम-जन-माध्यम हमारे दैनिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। आज इलैक्ट्रॉनिक माध्यम, जैसे-दूरदर्शन का विस्तार हो रहा है। मुद्रण माध्यम का महत्त्व भी लगातार बना हुआ है। भारत के 19वीं सदी में अनेक भाषाओं में छपी 'आचरण पुस्तकें' काफी लोकप्रिय थीं जिनमें यह बताया जाता था कि महिलाएँ एक अच्छी गृहिणी तथा अच्छी पत्नी कैसे बन सकती हैं।-जन-माध्यमों के द्वारा सूचना ज्यादा लोकतान्त्रिक ढंग से पहुँचाई जा सकती है। इलैक्ट्रॉनिक संचार एक ऐसा माध्यम है जो ऐसे गाँवों में भी पहुँच सकता है जो न तो सड़कों द्वारा अन्य क्षेत्रों से जुड़े हैं और न ही वहाँ साक्षरता केन्द्र स्थापित हुए हैं।