Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Important Questions and Answers.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 11. Students can also read RBSE Class 11 Sociology Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 11 Sociology Notes to understand and remember the concepts easily.
बहुविकल्पात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
स्थायी जीवन की बुनियादी आवश्यकता कृषि है
(अ) मात्र बारह हजार वर्ष प्राचीन
(ब) 50 लाख वर्ष प्राचीन
(स) 6 हजार वर्ष प्राचीन
(द) 1000 वर्ष प्राचीन
उत्तर:
(अ) मात्र बारह हजार वर्ष प्राचीन
प्रश्न 2.
वह परिवर्तन जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को एक समयावधि में बदल दे, कहलाता
(अ) विशिष्ट परिवर्तन
(ब) सामाजिक परिवर्तन
(स) आर्थिक परिवर्तन
(द) राजनैतिक परिवर्तन
उत्तर:
(ब) सामाजिक परिवर्तन
प्रश्न 3.
वह परिवर्तन जो काफी लम्बे समय तक धीरे-धीरे होता है, कहलाता है.
(अ) प्रगति
(ब) औद्योगिक क्रांति
(स) संचार क्रान्ति
(द) उद्विकास
उत्तर:
(द) उद्विकास
प्रश्न 4.
एक कस्बे तथा नगर के अन्तर का प्रमुख आधार है
(अ) व्यवसाय
(ब) घनत्व
(स) आकार
(द) विविधता
उत्तर:
(स) आकार
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौनसी विशेषता ग्रामीण समाज की नहीं है
(अ) लघु आकार
(ब) कृषि आधारित आर्थिक क्रियायें
(स) परम्परागत सामाजिक संरचना
(द) द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता
उत्तर:
(द) द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता
प्रश्न 6.
'प्रभावी जातियों' की अवधारणा प्रतिपादित की है
(अ) एम.एन. श्रीनिवास ने
(ब) योगेन्द्र सिंह ने
(स) एन्थनी गिडेन्स ने
(द) कार्ल मार्क्स ने
उत्तर:
(अ) एम.एन. श्रीनिवास ने
प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन सी नगरीय समाज की विशेषता नहीं है
(अ) उच्च घनत्व
(ब) प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता
(स) गैर-कृषि आर्थिक क्रियायें
(द) तीव्र परिवर्तन
उत्तर:
(ब) प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
1. सामाजिक परिवर्तन आधुनिक जीवन का एक आम तथा ............ सत्य है।
2. डार्विन के सिद्धान्त ने योग्यतम की . .. विचार को बल दिया।
3. जो परिवर्तन तुलनात्मक रूप से शीघ्र अथवा अचानक होता है, उसे ............ परिवर्तन कहते हैं।
4. विभिन्न प्रकार के परिवर्तन जो अपनी प्रकृति अथवा परिणाम द्वारा पहचाने जाते हैं, वे हैं- ............ परिवर्तन।
5. त्वरित तथा विध्वंसकारी घटनाएँ समाज को ............ बदलकर रख देती हैं।
6. भू-स्वामित्व की संरचना में आए परिवर्तनों पर ........... जैसे कदमों का सीधा प्रभाव पड़ा।
7. नगरों में मनुष्य कहाँ और कैसे रहेंगे—यह प्रश्न .............. पहचान पर आधारित होता है।
8. जन-परिवहन के साधनों में परिवर्तन में ............ सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं।
उत्तर:
1. चिर-परिचित
2. उत्तरजीविता
3. क्रांतिकारी
4. संरचनात्मक
5. पूर्णरूपेण
6. भूमिसुधार
7. सामाजिक सांस्कृतिक
8. नगरों
निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये-
1. सांस्कृतिक विचारों तथा मान्यताओं में परिवर्तन प्राकृतिक रूप से सामाजिक जीवन में परिवर्तन को दिखाते हैं।
2. सामाजिक परिवर्तन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण जो पर्यावरण द्वारा लाया गया था, वह है.--औद्योगिक क्रांति।
3. तकनीक द्वारा सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है-पश्चिमी एशिया (खाड़ी) के देशों में तेल का मिलना।
4. कृषि की तकनीकी प्रणाली में परिवर्तन ने ग्रामीण समाज पर व्यापक तथा तात्कालिक प्रभाव डाला है।
5. गाँव जहाँ व्यक्तिवादिता को हतोत्साहित करता है, नगर वहाँ व्यक्ति का पोषण करता है।
6. ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का प्राथमिक कार्य है कि वहाँ की स्थानिक जीवन क्षमता को आश्वस्त करे।
7. काफी लम्बे समय तक धीरे-धीरे होने वाले सामाजिक परिवर्तन को क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. असत्य
4. सत्य
5. सत्य
6. असत्य
7. असत्य
निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये
1. आधुनिकता |
(अ) ग्रामीण क्षेत्र |
2. परंपरागत तरीकों से चालित सामाजिक संरचना |
(ब) एम.एन. श्रीनिवास |
3. सोशल चेंज इन मॉडर्न इण्डिया |
(स) मैक्स वेबर |
4. द प्रोटेस्टेंट एथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपीटलिज्म |
(द) एन्थनी गिडेन्स |
5. सोशियोलॉजी |
(य) नगरीय जीवन |
उत्तर:
1. आधुनिकता |
(य) नगरीय जीवन |
2. परंपरागत तरीकों से चालित सामाजिक संरचना |
(अ) ग्रामीण क्षेत्र |
3. सोशल चेंज इन मॉडर्न इण्डिया |
(ब) एम.एन. श्रीनिवास |
4. द प्रोटेस्टेंट एथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपीटलिज्म |
(स) मैक्स वेबर |
5. सोशियोलॉजी |
(द) एन्थनी गिडेन्स |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव कब, कहाँ और किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
समाजशास्त्र का एक विषय के रूप में उद्भव 17 से 19वीं सदी के मध्य पश्चिमी यूरोपीय समाज में तीव्र गति से बदलते परिवेश को समझाने के प्रयास में हुआ।
प्रश्न 2.
अपने जीवन से सम्बन्धित चार ऐसी चीजों की सूची बनाइये जो उस समय अस्तित्व में नहीं थीं जब आपके माता-पिता आपकी उम्र के थे।
उत्तर:
प्रश्न 3.
अपने जीवन से सम्बन्धित चार ऐसी चीजों की सूची बनाइये जो उस समय अस्तित्व में नहीं थीं, जब आपके नाना-नानी, दादा-दादी आपकी उम्र के थे।
उत्तर:
प्रश्न 4.
चार ऐसी चीजों की सूची बनाइये जो आपके माता-पिता, उनके माता-पिता के समय में थीं, परन्तु अब नहीं हैं।
उत्तर:
प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन किसे कहते हैं?
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन उस परिवर्तन को कहते हैं जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को एक समयावधि में बदल दे।
प्रश्न 6.
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रश्न 7.
सामाजिक परिवर्तन की गति के आधार पर इसको वर्गीकृत कीजिये।
उत्तर:
परिवर्तन की गति के आधार पर सामाजिक परिवर्तन को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है
प्रश्न 8.
किन्हीं चार क्रांतियों के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 9.
परिवर्तन की प्रकृति तथा परिणाम के आधार पर सामाजिक परिवर्तन को वर्गीकृत कीजिये।
उत्तर:
परिवर्तन की प्रकृति तथा परिणाम के आधार पर सामाजिक परिवर्तनों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है। ये हैं
प्रश्न 10.
सामाजिक परिवर्तन के किन्हीं चार प्रमुख कारणों के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 11.
किन्हीं चार ऐसी प्राकृतिक विपदाओं के नाम लिखिये जो समाज को परिवर्तित करने की क्षमता रखती हैं।
उत्तर:
प्रश्न 12.
किन्हीं चार ऐसे आविष्कार या खोजों के नाम लिखिये जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
उत्तर:
प्रश्न 13.
राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन कौनसा है?
उत्तर:
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार अथवा 'एक व्यक्ति एक मत' सिद्धान्त राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन है।
प्रश्न 14.
सामाजिक परिवर्तन की कारक सम्बन्धी अवधारणा की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 15.
सत्ता क्या है?
उत्तर:
सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थागत अधिकार है। वेबर के अनुसार सत्ता कानूनी शक्ति है
प्रश्न 16.
क्रांति को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
जॉन इ. कॉनक्लिन (John E. Conklin) के अनुसार, "क्रान्ति समाज के राजनैतिक, आर्थिक तथा संस्तरण की व्यवस्थाओं में मूलभूत तथा तीव्र परिवर्तन लाती है।"
प्रश्न 17.
महानगर से क्या आशय है?
उत्तर:
महानगर से एक विशाल नगर और उसके चारों ओर उपनगरों का बोध होता है; जैसे-मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता आदि।
प्रश्न 18.
प्रभुत्व जातियों से क्या आशय है?
उत्तर:
प्रभुत्व जातियों की अवधारणा एम.एन. श्रीनिवास ने दी है। इसमें वे जमींदार बिचौली जातियाँ आती हैं जो संख्या में अधिक होने के कारण अपने क्षेत्र में राजनैतिक प्रभुत्व रखती हैं।
प्रश्न 19.
संरक्षित समुदाय से क्या आशय है?
उत्तर:
नगरीय क्षेत्रों में, सामान्यतः उच्च अथवा सम्पन्न वर्ग अपने चारों ओर एक घेराबन्दी कर लेते हैं जिससे आने-जाने पर नियंत्रण रखा जा सके। ऐसे समुदाय को संरक्षित समुदाय कहा जाता है।
प्रश्न 20.
घैटोकरण क्या है?
उत्तर:
आज के संदर्भ में घैटोकरण एक विशिष्ट धर्म, नृजाति, जाति या समान पहचान वाले लोगों के साथ-साथ रहने को कहा जाता है। घैटोकरण की प्रक्रिया में मिश्रित विशेषताओं वाले पड़ौस के स्थान पर एक समुदाय के पड़ोस में बदलाव का होना है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन-सामाजिक परिवर्तन एक सामान्य अवधारणा है। एंटनी गिडेन्स ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अपने बुनियादी स्तर पर सामाजिक परिवर्तन उन परिवर्तनों को इंगित करता है जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को समयावधि में बदल दे। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत वे सभी परिवर्तन आते हैं जो समाज के एक बड़े भाग को प्रभावित करने वाले हैं।
प्रश्न 2.
उदविकास से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
उद्विकास-ऐसे परिवर्तन को उद्विकास का नाम दिया गया है जो काफी लम्बे समय तक धीरे-धीरे होता है। यह शब्द, प्राणीशास्त्री चार्ल्स डार्विन द्वारा दिया गया। डार्विन के सिद्धान्त ने योग्यतम की उत्तरजीविता' के विचार पर बल दिया कि केवल वही जीवधारी जीवित रहने में सफल होते हैं जो अपने पर्यावरण के अनुकूल अपने आपको ढाल लेते हैं, जो अपने आपको ढालने में सक्षम नहीं होते अथवा ऐसा धीमी गति से करते हैं, लम्बे समय में नष्ट हो जाते हैं। डार्विन के इस सिद्धान्त को सामाजिक विश्व में स्वीकृत किया गया जिसे 'सामाजिक डार्विनवाद' के नाम से जाना गया। यह सिद्धान्त अनुकूली सामाजिक परिवर्तन की महत्ता पर बल देता है।
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में उद्विकास को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
(1) उद्विकास सामाजिक परिवर्तन की एक निरन्तर चलने वाली धीमी प्रक्रिया है।
(2) उद्विकास सामाजिक व्यवस्था को एक निश्चित दिशा की ओर ले जाता है। इसकी दिशा सदैव सरलता से जटिलता, समानता से असमानता तथा अनिश्चितता से जटिलता की ओर होती है।
(3) उद्विकास सामाजिक परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार सामाजिक संरचना के आन्तरिक और छिपे हुए तत्व अपने आप प्रकट होकर समाज में परिवर्तन ला देते हैं। इसके तहत सभ्यता और समाज की विभिन्न संस्थाएँ कुछ आन्तरिक शक्तियों के कारण स्वयं परिवर्तित होती रहती हैं।
प्रश्न 4.
क्रांतिकारी परिवर्तन किसे कहते हैं?
उत्तर:
क्रांतिकारी परिवर्तन-जो परिवर्तन तुलनात्मक रूप से शीघ्र तथा अचानक होता है, उसे क्रांतिकारी परिवर्तन कहते हैं। जॉन इ. कॉनक्लिन के शब्दों में, "क्रांति समाज के राजनैतिक, आर्थिक तथा संस्तरण की व्यवस्थाओं में मूलभूत तथा तीव्र परिवर्तन लाती है।" क्रांति के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं में अकस्मात् तथा आधारभूत परिवर्तन आ जाते हैं। ये परिवर्तन संरचनात्मक होते हैं तथा व्यापक होते हैं । फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति (1917), औद्योगिक क्रांति तथा संचार क्रांति इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
प्रश्न 5.
संरचनात्मक परिवर्तन से क्या आशय है?
उत्तर:
संरचनात्मक परिवर्तन-संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है। इसके अन्तर्गत समाज की संस्थाओं तथा इसके नियमों में परिवर्तन आते हैं। उदाहरण के लिए, कागजी रुपये का मुद्रा के रूप में प्रादुर्भाव वित्तीय संस्थाओं तथा लेन-देन में बड़ा भारी परिवर्तन लेकर आया। इससे सोने-चांदी के रूप में मूल्यवान धातुओं का मुद्रा के रूप में प्रयोग होता था क्योंकि सिक्के की कीमत उसमें विद्यमान धातु की कीमत से मापी जाती थी। कागजी मुद्रा के प्रचलन से यह विचार उपजा कि मुद्रा के लिए कीमती होना आवश्यक नहीं है। जब तक यह मूल्य को ठीक से दिखाता है तथा विश्वास को जगाए रखता है, तब तक कोई भी वस्तु मुद्रा के रूप में काम आ सकती है। यह विचार ऋण बाजार की बुनियाद बना जिसने बैंकिंग तथा वित्त के ढाँचे में परिवर्तन ला दिया। इन परिवर्तनों ने आगे चलकर आर्थिक जीवन में और परिवर्तन किये।
प्रश्न 6.
मूल्यों और मान्यताओं में परिवर्तन किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर:
मूल्यों और मान्यताओं में परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, बच्चों तथा बचपन से सम्बन्धित मूल्यों और मान्यताओं में परिवर्तन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकार के सामाजिक परिवर्तन में सहायक सिद्ध हुआ है। यथा एक समय था जब बच्चों को साधारणतः अवयस्क समझा जाता था। बचपन से सम्बन्धित कोई ऐसी संकल्पना नहीं थी कि बच्चों के लिए क्या सही था अथवा क्या गलत । जैसे-19वीं सदी के अन्त में, यह ठीक माना जाने लगा कि बच्चे जितने जल्दी काम करने के लिए योग्य हो जाएँ, काम पर लग जाएँ। फलतः बच्चे अपने परिवारों की काम करने में मदद पाँच अथवा छः वर्ष की आयु से ही प्रारंभ कर देते थे। प्रारंभिक फैक्ट्री व्यवस्था बच्चों के श्रम पर आश्रित थी।19वीं सदी के अन्त में यह संकल्पना प्रभावी हुई कि छोटे बच्चों से काम कराना गलत है, यह उनका शोषण है। फलतः अनेक देशों में बाल-श्रम को कानून द्वारा बन्द कर दिया गया। इस प्रकार आज बाल-श्रम गैर-कानूनी है तथा मालिकों को मुजरिमों के रूप में सजा हो सकती है।
प्रश्न 7.
सामाजिक परिवर्तन के राजनैतिक कारण को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में-इतिहास में देखने से ज्ञात होता है कि राजनैतिक शक्तियाँ सामाजिक परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण कारण थीं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण युद्ध तंत्र में देखा जा सकता है। जब एक समाज दूसरे समाज पर युद्ध घोषित करता है तथा जीतता है या हार जाता है, तो सामाजिक परिवर्तन इसका तात्कालिक परिणाम होता है। कभी विजेता परिवर्तन के बीज अपने साथ जहाँ भी जाता है, बोता है, तो कभी विजित विजेताओं के समाज को परिवर्तित करने तथा परिवर्तन के बीज बोने में सफल होता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और जापान का एक दूसरे पर इतना प्रभाव पड़ा कि दोनों ने सामाजिक परिवर्तनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। दूसरे, राजनैतिक परिवर्तन शक्ति के पुनः बंटवारे के रूप में विभिन्न सामाजिक समूहों तथा वर्गों के बीच सामाजिक परिवर्तन लाता है। इस दृष्टि से सार्वभौमिक मताधिकार सिद्धान्त राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिकार बड़ा परिवर्तन है। यह आज एक शक्तिशाली सामाजिक मापदण्ड के रूप में कार्य करता है। सरकारों को कानूनी वैधता पाने के लिए यह आवश्यक है कि वह जनता से सहमति लेता हुआ दिखाई दे। सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में यह व्यापक परिवर्तन लेकर आया है।
प्रश्न 8.
सामाजिक व्यवस्था से क्या आशय है?
उत्तर:
सामाजिक व्यवस्था-सामाजिक व्यवस्था संरचनात्मक तत्वों के मान्य सम्बन्धों का समुच्चय है। यह समाज द्वारा व्यापक रूप से स्वीकृत मानकों द्वारा मूल्यों का समूह होती है। इसके सदस्यों से इन मानकों और मूल्यों के पालन की अपेक्षा की जाती है। इस प्रकार यह अनिवार्य रूप से अन्तःक्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है। इसके विभिन्न अंगों में क्रमबद्ध सम्बद्धता पायी जाती है और इस क्रमबद्ध सम्बद्धता का आधार विभिन्न अंगों के प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होते हैं।
प्रश्न 9.
सामाजिक व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन का विरोध क्यों करती है?
उत्तर:
सामाजिक व्यवस्था द्वारा प्रकार्यात्मक संतुलन के माध्यम से सामाजिक जीवन में संतुलन बनाए रखा जाता है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था की सुस्थापित सामाजिक प्रणालियाँ परिवर्तन का प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती हैं। दूसरे, प्रत्येक समाज को अपने आपको एक शक्तिशाली तथा प्रासंगिक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सुव्यवस्थित करने के लिए अपने आपको समय के साथ पुनढत्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है।
स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि चीजें कमोबेश वैसी ही बनी रहें जैसी वे हैं अर्थात् व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे समान क्रियायें एक ही प्रकार का परिणाम दें और साधारणतः व्यक्ति व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमानित रूप में आचरण करें। तीसरे, समाज के शासक तथा प्रभावशाली वर्ग अधिकांशतः सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं। क्योंकि सामाजिक परिवर्तन उनकी स्थिति को बदल सकते हैं। चूंकि स्थायित्व में ही उनका हित होता है। सामान्य स्थितियाँ भी इन वर्गों की तरफदारी करती हैं तथा वे परिवर्तन के प्रतिरोध में सफल होते हैं।
प्रश्न 10.
शक्ति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना प्रभाव स्थापित करता है, तो इस प्रभाव को शक्ति कहते हैं। इस प्रकार शक्ति की अवधारणा में भौतिक तथा दवाबात्मक पहलू पाये जाते हैं। शक्ति के कारण ही सम्पूर्ण समाज तथा उसके सदस्य सत्ता के निर्णयों को बाध्यता या दबाव के कारण स्वीकार करते हैं।
प्रश्न 11.
सत्ता की परिभाषा दीजिये।।
उत्तर:
सी.राइट मिल्स के अनुसार, सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा सम्बन्धित व्यक्तियों की इच्छा को प्रभावित करने की क्षमता है। इस प्रकार सत्ता स्वेच्छानुसार एक व्यक्ति से मनचाहे कार्य को करवाने की क्षमता रखती है। मैक्स वेबर के अनुसार, सत्ता कानूनी शक्ति है अर्थात् सत्ता एक शक्ति है जो न्यायसंगत तथा ठीक समझी जाती है। इस प्रकार सत्ता का अर्थ है कि समाज के अन्य सदस्य जो समाज के नियमों तथा नियमावलियों को मानने को तैयार हैं, इस सत्ता को एक निर्धारित क्षेत्र में मानने को बाध्य हों।
प्रश्न 12.
शक्ति और सत्ता में मुख्य अन्तर बताइये।
उत्तर:
(1) वेबर के अनुसार यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना प्रभाव स्थापित करता है तो इस प्रभाव को शक्ति कहते हैं; जबकि सत्ता वह प्रभाव है जिसे उन व्यक्तियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है जिनके प्रति इसका प्रयोग होता है।
(2) सत्ता एक वैधानिक शक्ति है। अर्थात् जब शक्ति को वैधता प्रदान कर दी जाती है तो यह सत्ता का रूप धारण कर लेती है। अतः शक्ति जब न्यायसंगत और ठीक समझी जाती है तो वह सत्ता कहलाती है। शक्ति के लिए वैधक की शर्त आवश्यक नहीं है।
प्रश्न 13.
विवाद से क्या आशय है?
उत्तर:
विवाद-
(1) विवाद विस्तृत रूप से असहमति के लिए एक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसका एक उदाहरण है-युवा असंतोष। यह प्रचलित सामाजिक मानदण्डों का विरोध अथवा अस्वीकृति है।
(2) विवाद, कानून अथवा कानूनी सत्ता से असहमति अथवा विद्रोह भी होता है। खुले तथा लोकतांत्रिक समाज इस प्रकार की असहमति को भिन्न स्तरों तक छूट देते हैं। एक समाज किस सीमा तक असहमति को सहन कर सकता है, यह उसकी सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थितियों पर निर्भर करता है।
प्रश्न 14.
अपराध से क्या आशय है?
उत्तर:
अपराध का अर्थ-अपराध एक ऐसा कर्म है जो कानून को तोड़ता है। यह न इससे कम है और न अधिक। इसका नैतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह नैतिक भी हो सकता है और अनैतिक भी। इसका मुख्य बिन्दु यह है कि अपराध कानून को तोड़ना है-कानून द्वारा परिभाषित वैध सीमाओं के बाहर जाना है।
प्रश्न 15.
हिंसा से क्या आशय है?
उत्तर:
हिंसा-हिंसा विरोध का उग्र रूप है जो मात्र कानून का ही नहीं बल्कि महत्त्वपूर्ण सामाजिक मानदण्डों का भी अतिक्रमण करती है। इसलिए यह सामाजिक व्यवस्था की शत्रु है। यह सामाजिक तनाव का प्रतिफल है तथा समाज में गंभीर समस्याओं की उपस्थिति को दर्शाती है। यह राज्य की सत्ता को चुनौती भी है। इस अर्थ में हिंसा वैध शासन की असफलता की द्योतक तथा खुले तौर पर संघर्षों की उपस्थिति है।
प्रश्न 16.
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से गाँवों का उद्भव कैसे हुआ है?
उत्तर:
गाँवों का उद्भव-समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, गाँवों का उद्भव सामाजिक संरचना में आए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों से हुआ जहाँ खानाबदोशी जीवन पद्धति, जो शिकार, भोजन संकलन तथा अस्थायी कृषि पर आधारित थी; का संक्रमण स्थायी जीवन में हुआ। स्थानीय कृषि (स्थायी कृषि) ने भूमि निवेश तथा तकनीकी खोजों ने कृषि में अतिरिक्त उत्पादन की संभावना को जन्म दिया, जो उसके सामाजिक अस्तित्व के लिए अपरिहार्य थी। स्थायी कृषि से सम्पत्ति का जमाव हुआ और सम्पत्ति के जमाव से सामाजिक विषमताएँ आयीं। अत्यधिक श्रम विभाजन ने व्यावसायिक विशिष्टता की आवश्यकता को जन्म दिया। इन सब संरचनात्मक परिवर्तनों ने मिलकर गाँव के उद्भव को एक आकार दिया जहाँ लोगों का निवास एक विशिष्ट प्रकार के सामाजिक संगठन पर आधारित था।
प्रश्न 17.
भारतीय ग्रामीण समाज की क्या विशेषताएँ हैं? उत्तर-भारतीय ग्रामीण समाज की विशेषताएँभारतीय ग्रामीण समाज की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 18.
ग्रामीण और नगरीय आर्थिक जीवन में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
ग्रामीण और नगरीय आर्थिक जीवन में अन्तर-
ग्रामीण और नगरीय आर्थिक जीवन में अन्तर का प्रमुख आधार क्रमशः कृषि आधारित आर्थिक क्रियाओं और गैरकृषि आर्थिक क्रियाओं का है। यथा
(1) ग्रामीण आर्थिक जीवन का आधार कृषि आधारित आर्थिक क्रियायें हैं अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन का प्रमुख आधार है और अन्य आर्थिक क्रियायें कृषि पर आधारित हैं, जैसे-पशु-पालन, खाद्य-संस्करण, कुटीर उद्योग, नकदी फसलें आदि। ग्रामीण जीवन में आय का स्तर नीचा होता है। अतः उपयोग का स्तर भी नीचा होता है तथा लोगों की जीवन पद्धति सरल होती है।
(2) नगरीय आर्थिक जीवन का आधार गैर कृषि आर्थिक क्रियायें हैं अर्थात् नगरों में उद्योग और सेवा क्षेत्रों के विकास के कारण रोजगार की व्यापक संभावनाएँ होती हैं। श्रम-विभाजन, विशेषीकरण और श्रम की गतिशीलता व्यक्ति को आय के अधिक अवसर प्रदान करती हैं। अधिकतर लोग उद्योगों, कार्यालयों तथा वाणिज्यिक क्रियाओं में संलग्न रहते
हैं। यहाँ आय का स्तर ऊँचा होता है। अतः उपभोग का स्तर भी ऊँचा होता है। लेकिन सामाजिक विषमता गाँवों की तुलना में अधिक होती है। इसलिए जीवन पद्धति जटिल होती है।
प्रश्न 19.
ग्रामीण और नगरीय समाज को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
ग्रामीण समाज की परिभाषा-मैरिल तथा एल्डरीज के अनुसार "ग्रामीण समुदायों के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है जो छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राथमिक सम्बन्धों द्वारा जुड़े होते हैं।" नगरीय समाज की परिभाषा-किंग्सले डेविस के शब्दों में, "नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक विषमता पाई जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता और घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।"
प्रश्न 20.
नगरीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नगरीकरण की प्रक्रिया-नगरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर नगरीय क्षेत्रों में रहता है। अधिकांश विकसित देश ज्यादातर नगरीय हैं । विकासशील देशों में नगरीकरण के प्रति रुझान जारी है, जिसे रोका नहीं जा सकता। संयुक्त राष्ट्र संघ की 2007 की रिपोर्ट के अनुसार, मानव इतिहास में पहली बार, संसार की नगरीय जनसंख्या ग्रामीण जनसंख्या को पीछे छोड़ देगी। भारतीय समाज में भी नगरीकरण की प्रक्रिया जारी है। भारत में नगर क्षेत्रों में निवास करने वाले वाली जनसंख्या कुल जनसंख्या का जहाँ 1901 में 11% था। वह बढ़कर 2001 में 28% हो गया है।
प्रश्न 21.
गेटेड समुदाय से क्या आशय है?
उत्तर:
गेटेड समुदाय-गेटेड समुदाय का अर्थ है-एक समृद्ध प्रतिवेशी का निर्माण जो अपने परिवेश से दीवारों तथा प्रवेश द्वारों से अलग होता है; जहाँ प्रवेश तथा निकास नियंत्रित होता है। अधिकांश ऐसे समुदायों की अपनी समानान्तर नागरिक सुविधाएँ; जैसे-पानी और बिजली सप्लाई, पुलिस तथा सुरक्षा भी होती हैं।
प्रश्न 22.
प्राचीन काल में कौन-से कारण नगरों की महत्ता और स्थिति तय करते थे?
उत्तर:
प्राचीन समय में नगरों की महत्ता और स्थिति को निर्धारित करने वाले कारक-नगर अपने आप में बेहद प्राचीन हैं। ये प्राचीन समाज में भी थे। प्राचीन काल में नगरों की महत्ता और स्थिति को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित थे
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन से क्या आशय है? सामाजिक परिवर्तन के प्रकारों को स्पष्ट कीजिये। ,
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन से आशय-सामान्य परिवर्तन एक सामान्य अवधारणा है जिसका प्रयोग किसी भी परिवर्तन के लिए किया जा सकता है। समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके व्यापक अर्थ को विशिष्ट स्वरूप देते हुए परिभाषित किया है कि अपने बुनियादी स्तर पर सामाजिक परिवर्तन उन परिवर्तनों को इंगित करता है जो महत्त्वपूर्ण हैं अर्थात् वे परिवर्तन जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूल आधार संरचना को समयावधि में बदल दें। अतः सामाजिक परिवर्तन में वे बड़े परिवर्तन सम्मिलित किये जाते हैं जो वस्तुओं को बुनियादी रूप में बदल देते हैं । परिवर्तन के बड़े होने से आशय परिवर्तन के पैमाने से है कि समाज के कितने बड़े भाग को उसने प्रभावित किया है। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन वह परिवर्तन है जो समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाला हो।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ-सामाजिक परिवर्तन की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) किंग्सले डेविस के अनुसार, "सामाजिक परिवर्तन से हमारा अभिप्राय उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना और कार्यों में उत्पन्न होते हैं।"
(2) एंटनी गिडेंस के अनुसार, "अपने बुनियादी स्तर पर, सामाजिक परिवर्तन उन परिवर्तनों को इंगित करता है, जो महत्त्वपूर्ण हैं-अर्थात्, जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को समयावधि में बदल दें।"
(3) जिन्सबर्ग के शब्दों में, "सामाजिक परिवर्तन से हमारा तात्पर्य सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन होना है; अर्थात् समाज के आकार, इसके विभिन्न अंगों के बीच संतुलन अथवा समाज के संगठन में होने वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है।
(4) जेन्सन के अनुसार, "सामाजिक परिवर्तन व्यक्तियों के कार्य करने और विचार करने के तरीकों में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन है।" उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक परिवर्तन समाज द्वारा स्वीकृत सम्बन्धों, प्रक्रियाओं, प्रतिमानों और संस्थाओं में होने वाला वह परिवर्तन है, जो समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करता हो।
सामाजिक परिवर्तन के प्रकार . सामाजिक परिवर्तन के प्रकारों को निम्नलिखित आधारों पर वर्गीकृत किया जाता है-
(अ) प्राकृतिक आधार पर अथवा समाज पर इसके प्रभाव अथवा इसकी गति के आधार-इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन को निम्न प्रकारों में वगीकृत किया जाता है
(1) सामाजिक उद्विकास-उद्विकास की धारणा का व्यवस्थित विवेचन सर्वप्रथम डार्विन ने शारीरिक रचना में होने वाले जैविक परिवर्तनों को समझाने के लिए किया था। बाद में हर्बर्ट स्पेन्सर ने इसे सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों और संस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों से सम्बन्धित कर लिया गया। इसे शीघ्र ही सामाजिक विश्व में स्वीकृत किया गया। इस सिद्धान्त ने अनुकूली परिवर्तन की महत्ता पर बल दिया है। उद्विकास एक विशेष दिशा में होने वाला वह परिवर्तन है जो अनेक आन्तरिक शक्तियों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है और सामान्यतः इसकी प्रवृत्ति सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है। सामाजिक परिवर्तन की उद्विकासीय प्रक्रिया धीमी तथा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
(2) क्रांति या क्रांतिकारी परिवर्तन-उद्विकासीय परिवर्तन के विपरीत परिवर्तन जो तुलनात्मक रूप से शीघ्र तथा अचानक होता है, उसे क्रांति या क्रांतिकारी परिवर्तन कहते हैं। जॉन ई. कॉनक्लिन के शब्दों में, "क्रांति समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा संस्तरण की व्यवस्थाओं में आधारभूत तथा तीव्र परिवर्तन लाती है।" इसका प्रयोग मुख्यतः राजनीतिक संदर्भ में होता है, जहाँ समाज में शक्ति की संरचना में शीघ्रतापूर्ण परिवर्तन लाकर इसे चुनौती देने वालों द्वारा पूर्व सत्ता वर्ग को विस्थापित कर दिया जाता है। इसके उदाहरण हैं-फ्रांसीसी क्रांति (178983) तथा 1917 की रूसी क्रांति। सामान्य रूप से क्रांति शब्द का प्रयोग तेज, आकस्मिक तथा अन्य प्रकार के सम्पूर्ण परिवर्तनों के लिए भी किया जाता है, जैसे-औद्योगिक क्रांति, संचार क्रांति आदि। क्रांति के माध्यम से राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में मौलिक परिवर्तन होते हैं।
(ब) प्रकृति अथवा परिणाम के आधार पर वर्गीकरण-सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति या परिणाम के आधार पर दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है। यथा-
(1) संरचनात्मक परिवर्तन-संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है। इसके अन्तर्गत समाज की संस्थाओं और इन संस्थाओं को संचालित करने वाले नियमों में परिवर्तन आते हैं। उदाहरण के लिए जब मुद्रा के प्रचलन के सम्बन्ध में यह विचार पनपा कि सामान अथवा सुविधाओं के लेन-देन में मुद्रा के रूप में जिस चीज का प्रयोग हो, उसका कीमती होना जरूरी नहीं है। जब तक यह मूल्य को ठीक से दिखाती है या जब तक यह विश्वास को बनाए रखती है, तब तक यह मुद्रा के रूप में काम कर सकती है। इस विचार के आते ही मुद्रा के रूप में सोने, चाँदी के सिक्कों का स्थान कागजी मुद्रा ने ले लिया तथा यह विचार ऋण बाजार की बुनियाद बना जिसने बैंकिंग तथा वित्त के ढाँचे को परिवर्तित कर दिया। इसने आगे चलकर आर्थिक जीवन में और परिवर्तन किये।
(2) मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन-मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था का सबसे सामान्य उदाहरण धर्म है। धार्मिक मान्यताओं तथा मानदण्डों में परिवर्तन ने समाज को बदलने में मदद की। मैक्स वेबर का अध्ययन 'द प्रोटेस्टेंट एथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म दिखाता है कि पूँजीवादी सामाजिक प्रणाली की स्थापना में कुछ प्रोटेस्टेंट ईसाई संवर्ग ने मदद की।' वर्तमान में बच्चों के श्रम के सम्बन्ध में जब यह मान्यता बनी कि छोटे बच्चों से काम लेना उनका शोषण करना है तथा गलत है, तब अनेक देशों में बाल-श्रम को कानून द्वारा बंद कर दिया गया। वर्तमान में सभी देशों में बाल-श्रम गैरकानूनी है तथा मालिकों को मुजरिमों के रूप में सजा हो सकती है।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारण अथवा स्रोतों का विवेचन कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारण अथवा स्त्रोत सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारण या स्रोत अग्रलिखित हैं
(1) पर्यावरण-प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण का समाज की संरचना तथा स्वरूप पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हमेशा से रहा है। यथा
(i) प्राचीन काल में, जब मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने अथवा झेलने में अक्षम था; उस समय उनका निवास; भोजन का प्रकार, कपड़े, आजीविका तथा सामाजिक क्रियायें आदि काफी हद तक उनके पर्यावरण के भौतिक तथा जलवायु की स्थितियों से निर्धारित होता था।
(ii) आधुनिक काल में, तकनीकी संसाधनों के बढ़ने के कारण, समाज पर पर्यावरण का प्रभाव समय के साथसाथ घटता जा रहा है। प्रकृति द्वारा खड़ी की गई समस्याओं का सामना करने तथा अपने आपको उनके अनुरूप ढालने और इस प्रकार भिन्न पर्यावरण के कारण समाजों के बीच आए अन्तर को दूर करने में तकनीक हमारी सहायता करती है। साथ ही, तकनीक प्रकृति को तथा इसके साथ हमारे सम्बन्धों को नए तरीके से बदलती है। अतः यह कहना अधिक सही होगा कि समाज पर प्रकृति का प्रभाव घटने के बजाय बदल रहा है। पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन को वर्तमान में कैसे प्रभावित करता है? इसका उत्तर प्राकृतिक विपदाएँ हैं। त्वरित तथा विध्वसंकारी घटनाएँ, जैसे- भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ अथवा ज्वारभाटीय तरंगें समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं। ये बदलाव अपरिवर्तनीय तथा स्थायी होते हैं।
(2) तकनीक तथा अर्थव्यवस्था-
आधुनिक काल में तकनीक तथा आर्थिक परिवर्तन के संयोग से समाज में तीव्र परिवर्तन आया है। तकनीक समाज को कई प्रकार से प्रभावित करती है। यथा
(i) तकनीक प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित करने में, उसके अनुरूप ढालने में अथवा प्रकृति का दोहन करने में हमारी मदद करती है।
(ii) बाजार जैसी संस्था से जुड़कर तकनीकी परिवर्तन अपने सामाजिक प्रभाव की तरह ही प्रभावी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए तेल की खोज बाजार के साथ जुड़कर अत्यन्त प्रभावी हुई है, उसने खाड़ी के देशों के समाज को बदल कर रख दिया है।
(iii) तकनीकी परिवर्तन द्वारा लाया गया सबसे वृहद् तथा महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन औद्योगिक क्रांति है; जिसने वैश्विक समाज में परिवर्तन ला दिया है।
(iv) कई बार अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन जो प्रत्यक्षतः तकनीकी नहीं होते हैं, भी सामाजिक परिवर्तन ला देते हैं । जैसे-रोपण कृषि ने श्रम के लिए भारी मांग उत्पन्न की जिसके कारण 17वीं से 19वीं सदी में दासता तथा दासों का व्यापार प्रारंभ हुआ। इसी तरह आज विश्व के कई भागों में अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों तथा संस्थाओं जैसे वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन द्वारा आयात कर तथा शुल्कों में लाए गए परिवर्तन, सम्पूर्ण उद्योग तथा रोजगार को खत्म करने अथवा त्वरित उछाल या प्रगति का समय कुछ अन्य उद्योगों तथा रोजगारों के लिए ला सकते हैं।
(3) राजनीति-
(i) इतिहास में राजनैतिक शक्तियाँ अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सामाजिक परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण कारण रही हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण युद्ध तंत्र में देखा जा सकता है। जब एक समाज दूसरे समाज पर युद्ध घोषित करता है तथा जीतता है या हार जाता है, तो सामाजिक परिवर्तन इसका तात्कालिक परिणाम होता है। कभी विजेता परिवर्तन के बीज बोता है तो कभी विजित विजेताओं के समाज को परिवर्तित करने तथा परिवर्तन के बीज बोने में सफल होता है। उदाहरण के लिए द्वितीय विश्व युद्ध में जापान विजित था और अमेरिका विजेता। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अमेरिका ने जापान पर कब्जा कर कई वर्षों तक उस पर शासन किया। इसके प्रभावस्वरूप दोनों देशों में सामाजिक परिवर्तन आया। अमेरिकी शासन काल में जापान में भूमि सुधार के साथ कई परिवर्तन आये तो दूसरी तरफ जापानी औद्योगिक तकनीक और उत्पादन संगठन के कारण अमेरिका के परम्परागत और शक्तिशाली उद्योगों में परिवर्तन आया।
(ii) राजनैतिक परिवर्तन ने अपने देश में भी सामाजिक परिवर्तन को दिशा दी है। उदाहरण के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने जहाँ एक ओर ब्रिटिश शासन का अन्त किया, वहीं दूसरी तरफ भारतीय समाज को भी परिवर्तन की दिशा दी।
(iii) राजनैतिक परिवर्तन शक्ति के पुनः बंटवारे के रूप में विभिन्न सामाजिक समूहों तथा वर्गों के बीच सामाजिक परिवर्तन लाता है। इस दृष्टिकोण से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार अथवा 'एक व्यक्ति एक मत सिद्धान्त' राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन है। यह आज एक शक्तिशाली मानदण्ड के रूप में काम करता है, जो प्रत्येक सरकार तथा प्रत्येक समाज को महत्त्व देता है। सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में यह व्यापक परिवर्तन लेकर आया है।
(4) संस्कृति-
संस्कृति से आशय यहाँ विचारों, मूल्यों और मान्यताओं से है जो मनुष्य के लिए आवश्यक होते हैं तथा उनके जीवन को आकार देने में सहायता करते हैं। इन विचारों तथा मान्यताओं में परिवर्तन सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाते हैं। उदाहरण के लिए, धार्मिक मान्यताओं तथा मानदंडों ने समाज को व्यवस्थित करने में सहायता की तथा जब इनमें परिवर्तन आया तो इनके परिवर्तन ने समाज को परिवर्तित करने में सहायता की। मैक्स वेबर ने अपने अध्ययन में यह प्रतिपादित किया है कि पूँजीवादी सामाजिक प्रणाली की स्थापना में प्रोटेस्टेण्ट ईसाई संवर्ग ने सहायता की।
इसी क्रम में हम प्राचीन भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन पर बौद्ध धर्म के प्रभाव तथा मध्यकालीन सामाजिक संरचना में जातिव्यवस्था के प्रभाव को देख सकते हैं। समाज में महिलाओं की स्थिति में जो सामाजिक परिवर्तन आए हैं, उसके वैचारिक उद्भव को सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, अधिकतर शहरी समाजों में महिलाएँ ही यह निर्णय लेती हैं कि घरेलू उपयोग के लिए कौन-सी वस्तुएँ खरीदी जाएँ। इसने विज्ञापनों में एक उपभोक्ता के रूप में महिलाओं की सोच को संवेदनशील बनाया है।
विज्ञापन के खर्चों का एक महत्त्वपूर्ण अंश अब महिलाओं को मिलता है और इसका मीडिया पर प्रभाव पड़ा है। संक्षेप में, जब महिलाएँ आर्थिक भूमिका परिवर्तन की श्रृंखला की शुरुआत करती हैं, तो उसके बड़े सामाजिक परिणाम निकलते हैं। एक अन्य उदाहरण जहाँ सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन लाता है, खेलकुद के इतिहास में देखा जा सकता है। खेलकूद लोकप्रिय संस्कृति के अंग रहे हैं। क्रिकेट का प्रारंभ ब्रिटिश राजशाही वर्ग के शौक के रूप में हुआ। धीरेधीरे यह पूरी दुनिया के अंग्रेजी साम्राज्य में फैल गया।
जैसे ही इस खेल ने भारत से बाहर अपनी जड़ें जमायीं, यह अधिकतर राष्ट्रीय या प्रजातीय वर्ग का प्रतीक बना। दूसरे स्तर पर, क्रिकेट की भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रियता ने इस खेल के व्यावसायिक प्रारूप को बदल दिया है, जो अब भारतीय प्रशंसकों की रुचियों से प्रभावित होता है। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए अनेक कारक जिम्मेदार होते हैं और ये कारक अधिकांशतः परस्पर संबंधित होते हैं।
प्रश्न 3.
सामाजिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्यों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक व्यवस्था से आशय-सामाजिक व्यवस्था का तात्पर्य सामाजिक घटनाओं की नियमित तथा क्रमबद्ध पद्धति से है। सामाजिक व्यवस्था संरचनात्मक तत्वों के मान्य सम्बन्धों का समुच्चय (set) है। पारसंस के शब्दों में, “सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्त:क्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है।" लूमिस के अनुसार, "सामाजिक व्यवस्था सदस्यों की प्रतिमानित अन्तःक्रिया से निर्मित होती है।"
इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि
सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ। सामाजिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) सामाजिक अन्तःक्रिया-सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार सामाजिक अन्तःक्रिया है और सामाजिक व्यवस्था उद्देश्यपूर्ण अन्तःक्रियाओं का परिणाम है।
(2) विभिन्न अंगों में क्रमबद्ध संबद्धता तथा प्रकार्यात्मक सम्बन्ध-सामाजिक व्यवस्था में अनेक अंग या भाग होते हैं। इन विभिन्न अंगों में क्रमबद्ध सम्बद्धता पायी जाती है और इस क्रमबद्ध सम्बद्धता या एकता का आधार प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होते हैं।
(3) सामाजिक जीवन में संतुलन की स्थापना-सामाजिक व्यवस्था के द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। इसमें परिवर्तित परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता होती है तथा यह प्रकार्यात्मक संतुलन के माध्यम से सामाजिक जीवन में संतुलन बनाए रखती है।
(4) निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, देश तथा काल-प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, समाज और काल से जुड़ी होती है।
(5) संस्कृति-संस्कृति सामाजिक व्यवस्था का मूल-आधार होती है।
सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्य सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्यों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) सामाजिक व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती है-सामाजिक व्यवस्था सुस्थापित सामाजिक प्रणालियों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती है। प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था को समय के साथ पुनर्डत्पादित करना पड़ता है तथा अपने स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि चीजें कमोबेश वैसी ही रहें जैसी वे हैं-अर्थात् व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे, समान क्रियायें एक ही प्रकार का परिणाम दें और साधारणतः व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमानित रूप में आचरण करें।
(2) मूल्यों एवं मानदण्डों का सक्रिय अनुरक्षण और क्रियान्वयन-सामाजिक व्यवस्था सामाजिक सम्बन्धों की विशिष्ट पद्धति, मूल्यों एवं मानदण्डों के सक्रिय अनुरक्षण तथा उत्पादन को निर्देशित करती है। समाज में मानदण्डों के अनुरक्षण एवं क्रियान्वयन हेतु सामाजिक व्यवस्था दो प्रकार के कार्य करती है-
(i) समाजीकरण की प्रक्रिया को जारी रखना तथा
(ii) शक्ति, सत्ता या दबाव द्वारा मानदण्डों को मानने के लिए बाध्य करना। यथा
(i) समाजीकरण-सामाजिक व्यवस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत ऐसी व्यवस्था की जाती है कि सामान्यतः व्यक्ति सामाजिक मूल्यों और मानदण्डों का आदतन पालन करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में कम या अधिक कुशल हो सकती है। लेकिन समाजीकरण हर समय प्रत्येक मानदण्ड के लिए पूर्ण तथा स्थायी सहमति तैयार नहीं कर सकती। इस प्रकार यद्यपि समाजीकरण सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध और उसे विनियमित करने का अथक प्रयास करता है, तथापि यह प्रयास भी अपने आप में पूर्ण नहीं होता।
(ii) बाध्यता-जहाँ व्यक्ति सामाजिक मूल्यों और मानदण्डों को स्वतः नहीं मानते तथा वे उनका उल्लंघन करते हैं तो सामाजिक व्यवस्था शक्ति, सत्ता तथा दबाव के द्वारा व्यक्तियों को मानदण्डों व मूल्यों को मानने के लिए बाध्य करती है, ताकि समाज में शांति तथा व्यवस्था बनी रह सके, सामाजिक व्यवस्था बनी रह सके। सत्ता स्वेच्छानुसार एक व्यक्ति से मनचाहे कार्य करवाने की क्षमता रखती है क्योंकि इसके पीछे कानून की शक्ति होती है और यह कानून की शक्ति सामाजिक व्यवस्था द्वारा प्रदान की जाती है।
प्रश्न 4.
सत्ता से आप क्या समझते हैं? मैक्स वेबर ने सत्ता की वैधता के लिए कौन-कौन से आधार बताये हैं?
उत्तर;
सत्ता का अर्थ
(i) सामान्य अर्थ में-सत्ता स्वेच्छानुसार एक व्यक्ति से मनचाहे कार्य करवाने की क्षमता है। अर्थात् जब सत्ता का सम्बन्ध स्थायित्व तथा स्थिरता से होता है तथा इससे जुड़े पक्ष अपने सापेक्षिक स्थान के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो हमारे सामने प्रभावशाली स्थिति उत्पन्न होती है। यदि व्यक्ति, संस्था अथवा वर्ग आदतन सत्ता का पालन करते हैं, तो इसे प्रभावी माना जाता है। साधारण समय में प्रभावशाली संस्थाएँ, समूह तथा व्यक्ति समाज में निर्णायक प्रभाव रखते हैं। लेकिन विपरीत तथा विशिष्ट परिस्थितियों में जब व्यक्ति, संस्था, वर्ग आदतन सत्ता का पालन नहीं करते हैं, तथा उसके नियमों व आदेशों की अवहेलना करते हैं तो सत्ताधारी कानूनी शक्ति के बल पर उनसे बलपूर्वक काम करवाता है।
(ii) मैक्स वेबर के अनुसार सत्ता कानूनी शक्ति है। अर्थात् सत्ता वह शक्ति है जो कानून के अनुसार उचित तथा न्यायसंगत है। उदाहरण के लिए, एक पुलिस अफसर, एक जज अथवा एक स्कूल शिक्षक-सब अपने-अपने कार्य में निहित सत्ता का प्रयोग करते हैं।
(iii) सत्ता का अर्थ है कि समाज के अन्य सदस्य इसके नियमों व नियमावलियों को एक सही क्षेत्र में मानने के लिए तैयार हों या बाध्य हों। उदाहरण के लिए एक जज का कार्यक्षेत्र कोर्ट रूम होता है; कोर्ट रूम में एक नागरिक को जज की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता है; लेकिन सड़क पर उसे पुलिस की कानूनी सत्ता को मानना पड़ेगा।
(iv) कुछ सत्ताएँ अनौपचारिक भी होती हैं। एक धार्मिक नेता, शिक्षाविद्, कलाकार, लेखक तथा अन्य बुद्धिजीवी अपने-अपने क्षेत्रों में अनौपचारिक रूप से काफी शक्तिशाली होते हैं । अपराधी गिरोह के मुखिया की सत्ता भी इसी प्रकार की होती है। सी. राइट मिल्स ने सत्ता को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा सम्बन्धित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की क्षमता से है।"
सत्ता की वैधता के आधार
शक्ति की वैधता के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं
(1) पारम्परिक सत्ता-पारम्परिक सत्ता से आशय यह है कि किसी व्यक्ति या वर्ग की सत्ता को परम्परा के अनुसार सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। पारम्परिक सत्ता की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
(2) करिश्माई सत्ता-करिश्माई सत्ता से युक्त व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा, नेतृत्व का जादुई गुण तथा निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता पायी जाती है। जनता द्वारा ऐसे व्यक्ति का सम्मान किया जाता है तथा उसमें विश्वास प्रकट किया जाता है।
(3) वैधानिक-तार्किक सत्ता-वैधानिक तथा तार्किक सत्ता औपचारिक होती है। इसके विशेषाधिकार सीमित तथा कानून के द्वारा सुपरिभाषित होते हैं।
प्रश्न 5.
नगरीय समुदाय से आप क्या समझते हैं? नगरीय समाज की विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
नगर-यद्यपि नगर अपने आप में बेहद प्राचीन हैं। ये प्राचीन समाज में भी थे; तथापि नगरवाद, जनसमूह के एक बड़े भाग की जीवन पद्धति के रूप में एक आधुनिक घटना है। नगरीय जीवन तथा आधुनिकता दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक को दूसरे की अन्तर-अभिव्यक्ति माना जाता है। नगरीय समुदाय का अर्थ तथा परिभाषा-नगर सामान्यतः उस स्थान को कहा जाता है जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है तथा वहाँ के लोग गैर-कृषि आर्थिक क्रियाओं व सेवाओं में संलग्न रहते हैं।
इसका आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा लोगों में द्वैतीयक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है। किंग्सले डेविस ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि "नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक विषमता पायी जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता और घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।" नगरीय समाज (समुदाय) की विशेषताएँ नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) अधिक तथा सघन जनसंख्या-नगर में बहुत अधिक तथा सघन जनसंख्या निवास करती है। यहाँ कम स्थान में अत्यधिक लोगों का जमाव पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, नगरों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।
(2) गैर-कृषि आर्थिक क्रियायें-नगरों में गैर-कृषि आर्थिक क्रियाओं की बहुलता होती है। यहाँ उद्योग, वाणिज्यिक प्रशासनिक तथा सेवा सम्बन्धी संस्थाओं एवं क्रियाओं की प्रधानता होती है। इस कारण नगरों में गाँवों की तुलना में रोजगार की अधिक संभावनाएँ पायी जाती हैं।
(3) व्यक्तिवाद-नगरों में अवसरों की अधिकता होती है और सामाजिक गतिशीलता भी अधिक होती है। ये सभी व्यक्ति को स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए बाध्य करते हैं और अपने भविष्य के लिए योजनाएं बनाने को प्रेरित करते हैं। इस प्रकार नगर व्यक्ति का पोषण करता है तथा यह व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है।
(4) द्वितीय समूह तथा द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता-नगर का आकार बड़ा होता है। आकार के विशाल होने के कारण नगर में व्यक्ति मुख्य रूप से एक-दूसरे से अनजान होते हैं और एक-दूसरे के प्रति उदासीन होते हैं। इसलिए नगरों में प्राथमिक सम्बन्धों के स्थान पर द्वितीयक तथा औपचारिक सम्बन्धों की प्रधानता होती है।
(5) असमानता-नगरों में गाँवों की तुलना में आर्थिक तथा सामाजिक असमानता अधिक पायी जाती है। यहाँ अत्यधिक गरीबी और समृद्धि दोनों पाई जाती हैं। एक ओर झुग्गी-झोंपड़ी होती हैं तो दूसरी ओर शानदार बंगले। नगर विभिन्न प्रकार के लोगों तथा संस्कृतियों के मिलन का केन्द्र है। संसार के विभिन्न देशों के लोग यहाँ आकर रहने लगते हैं। प्रजाति, धर्म, नृजातीय, जाति तथा क्षेत्रवाद प्रत्येक शहरी जीवन का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं अर्थात् यहाँ विभिन्न प्रजातियों, धर्मों, जातियों, जातियों तथा प्रदेशों के लोग रहते हैं।
(6) स्थान के लिए प्रतियोगिता-नगरों में अधिकांश महत्त्वपूर्ण मुद्दे स्थान के प्रश्न से जुड़े होते हैं। निवास, कार्यालयों, औद्योगिक स्थानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों, होटल, सिनेमाघरों तथा मनोरंजन के अन्य साधनों, अस्पतालों, पुलिस स्टेशनों आदि सबके लिए स्थान की प्रतियोगिता पायी जाती है।
प्रश्न 6.
ग्रामीण तथा नगरीय समाज का तुलनात्मक विवेचन कीजिये।
उत्तर:
ग्रामीण और नगरीय समाज में अन्तर ग्रामीण और नगरीय समाज में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-
(1) व्यवसाय सम्बन्धी अन्तर-ग्रामीण समाज में अधिकांश लोग कृषि तथा कृषि आधारित आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं अर्थात् ग्रामीण समाज का मुख्य व्यवसाय कृषि तथा पशुपालन व उससे सम्बन्धित कुटीर व लघु उद्योग हैं। दूसरी तरफ नगरीय समाज के सभी लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य व्यवसायों में संलग्न रहते हैं । यहाँ के प्रमुख व्यवसाय हैं-उद्योग, वाणिज्य, प्रशासन सम्बन्धी कार्य, वस्तुओं का निर्माण, यांत्रिक व अन्य कार्य।
(2) जनसंख्या के घनत्व के आधार पर अन्तर-ग्रामीण समुदायों का एक समय व देश में नगरों की तुलना में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम होता है । साधारणतः घनत्व और ग्रामीणता में जहाँ नकारात्मक सम्बन्ध पाया जाता है, वहीं नगरीयता और घनत्व में सकारात्मक सम्बन्ध पाया जाता है।
(3) आकार के आधार पर अन्तर-गाँवों का आकार छोटा होता है जबकि नगरीय समुदायों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है।
(4) परिवेश सम्बन्धी अन्तर-ग्रामीण समुदाय में मानवीय सामाजिक परिवेश पर प्रकृति की प्रधानता होती है तथा लोगों का प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। दूसरी तरफ नगरीय समाज प्रकृति से अधिक दूर होता है। यहाँ मनुष्य निर्मित परिवेश की प्रधानता होती है।
(5) सामाजिक गतिशीलता सम्बन्धी अन्तर-ग्रामीण समाज में जनसंख्या की प्रादेशिक, व्यवसायात्मक और दूसरे प्रकार की गतिशीलता तुलनात्मक दृष्टि से कम गहन होती है। दूसरी तरफ नगरों में सामाजिक गतिशीलता अधिक होती है। साधारणतः गाँवों से नगरों की ओर गतिशीलता अधिक पायी जाती है।
(6) जनसंख्या की सजातीयता और प्रजातीयता का अन्तर-ग्रामीण जनसंख्या में सजातीयता के लक्षण अधिक पाये जाते हैं, जबकि नगरीय जनसंख्या में विजातीयता के लक्षण अधिक पाये जाते हैं।
(7) सामाजिक विभेदीकरण तथा स्तरीकरण सम्बन्धी अन्तर-नगरों में गाँवों की तुलना में सामाजिक विभेदीकरण और स्तरीकरण सम्बन्धी अन्तर अधिक होते हैं।
(8) प्राथमिक और द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता का अन्तर-ग्रामीण समाज में लघु आकार के कारण सभी लोगों में प्रत्येक तथा निकट के सम्बन्ध पाये जाते हैं। अतः यहाँ प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है। दूसरी तरफ नगरीय समाज में व्यक्तियों के अधिकांश सम्बन्ध औपचारिक तथा अप्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए यहाँ द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है।